Monday, December 13, 2010

एक थी उमा भारती!

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उमा भारती होने के अलग मायने हैं। उन्हें सिर्फ एक हिंदुवादी नेता, अक्खड़ या मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री कहकर बात पूरी नहीं की जा सकती! पाँच साल पहले जब वे अचानक मध्यप्रदेश के मुखिया की कुर्सी से बेदखल की गई (या हो गई) थी, तब यह मान लिया गया था कि इसके साथ ही उनकी राजनीति का अध्याय भी समाप्त हो गया! इसके बाद उन्होने मीडिया के सामने लालकृष्ण आडवानी को खरी-खरी सुनाकर अपने इरादों का अहसास करा दिया था। कुछ ने उनके इस अक्खड़ और फक्कड अंदाज पर पीठ थमथपाई थी, तो किसी ने इसे राजनीतिक उच्छृंखलता कहा था। इसके बाद वे पार्टी से निकल गई और असंंतुष्ट भाजपाईयों का एक अलग कुनबा खड़ा करने की कोशिश की। नई पार्टी बनाने के उमा भारती के फैसले की अलग-अलग तरीके से चीरफाड़ की गई। कोई उनका कितना भी विरोधी रहा हो, पर सभी का कहना था कि इस महिला में फिनिक्स होने का माद्दा है। फिनिक्स यानी कि वह पक्षी जिसके बारे में मान्यता है कि वह अपनी ही राख से फिर जीवित हो जाता है। लेकिन, उमा भारती के बारे में यह भ्रम ही निकला! क्योंकि, भगवा धारण करके भी उनके अंदर कहीं न कहीं राजनीतिक लोभ जीवित था। ये लोभ मुख्यमंत्री बनने के बाद आया या उससे पहले से था, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि, उनकी राजनीतिक कार्यशैली को नजदीक से देखने और समझने वालों का निष्कर्ष था कि उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी पदलोभी नेता से कम नहीं है।
भाजपा को नेस्तनाबूद करने के उनके संकल्प ने कई को प्रभावित किया। बहुत से लोग उनके साथ यह सोचकर आ गए कि इस महिला में संघर्ष करने की जिजीविषा है, जो राजनीति के शिखर तक पहुँचेगी। चुनाव में उनकी पार्टी मुकाबले की खातिर मैदान में भी उतरी, पर भाजपा के सामने कहीं टिक नहीं सकी। उनके सारे वजीर राजनीति की शतरंज की बिसात पर प्यादे ही साबित हुए! उनके मोहरे हारकर भी भाजपा के लिए भस्मासुर नहीं बन सके। इस पर भी उमा भारती का राजनीति गुरूर कम नहीं हुआ। उनकी टीम भी किसी चमत्कार की उम्मीद में डटी रही, लेकिन राजनीति का उसूल है कि यहाँ झंडा थामने वाले तब तक ही साथ देते हैं, जब नेता में जोश मौजूद हो! धीरे-धीरे दहाड़ने वाली उमा भारती ठंडी पड़ने लगी। इतने पर भी वे यह कहने से नहीं चूकती थीं कि मैं पार्टी में वापस नहीं लौटूँगी! किंतु, जब किसी व्यक्ति में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो उसके दावे और वादे भी झूठे पड़ने लगते हैं। वही सब उमा भारती ने भी किया। भाजपा और लालकृष्ण आडवाणी को कोसने वाली यह नेता अब फिर उसी भाजपा में लौटने को राजी हो गई, जिसे वे छोड़कर गईं थी!
इसके लिए शायद उमा भारती को दोष देना ठीक नहीं होगा। क्योंकि, राजनीति में इस तरह के स्वांग करना और मौकापरस्त होना स्वाभाविक है। बार-बार बयान बदलना पहले भी इस नेता की आदत रही है, और अब भी है। जो उमा भारती कभी भाजपा में लौटना नहीं चाहती थीं, वे आने को राजी हो गई! जो सालभर का अवकाश लेकर चिंतन करना चाहती थी, वह मायावती को चुनौती देने के लिए कमर कसकर खड़ी है! लेकिन, उन लोगों का क्या दोष जो कभी भरोसा करके उनके साथ चल पड़े थे, वे अब कहाँ है? पार्टी ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उमा भारती के लिए तो दरवाजे खोल दिए, पर वे बचे-खुचे कार्यकर्ता कहाँ जाएंगे जो 'किसी अच्छे" की उम्मीद में उनके पीछे चल रहे थे? दरअसल, यही राजनीति है! कोई सवाल करे कि राजनीति कैसी होती है, तो जवाब दिया जा सकता है कि उमा भारती जैसी होती है!

Friday, October 8, 2010

जमुना देवी के बाद राजनीति की 'धार"

आदिवासी के पास ही रहेगी, राजनीतिक विरासत
मध्यप्रदेश में जो जिले राजनीतिक रूप से जागरूक माने जाते हैं, उनमें एक धार जिला भी है। जिले की राजनीति को बेहद मुखर माना जाता रहा है। काँग्रेस की नेता जमुना देवी धार की इसी मुखरता की प्रतीक थी। आदिवासी महिला होते हुए भी उनकी आवाज में खनक थी और स्वभाव में दबंगता! यह इस बात का भी प्रतीक था कि इस आदिवासी बहुलता वाले इस इलाके में राजनीतिक जागरूकता कितनी प्रभावशाली है। इस महिला नेत्री की इतनी धाक थी कि कई बार न चाहते हुए भी पार्टी को उनकी बात का सम्मान करना पड़ता था। अब, जबकि वे सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर धार और यहाँ की धारदार राजनीति को छोड़कर जा चुकी हैं, अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गईं, जो जवाब की कोशिश में नए सवालों को जन्म देंगे!
जमुनादेवी ने लंबे समय से धार जिले की राजनीति पर अपना प्रभाव बनाए रखा था। वे अपनी पहुँच और प्रभाव के दम पर सरकार और प्रशासन से वह सब करवा लेने में सक्षम थीं, जो वे चाहती थी। उनके कई फैसलों पर अंगुलियां भी उठी, पर पार्टी हाईकमान को उनकी वरिष्ठता के आगे झुकना पड़ा। लेकिन, उनके निधन के बाद धार जिले की राजनीति में बड़ा बदलाव आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। कारण यह भी है कि जमुना देवी ने अपनी छत्र छाया में किसी को उभरने का मौका नहीं दिया। ऐसी स्थिति में जमुना देवी के अलावा जो नेता धार की राजनीति में उभरे वे कहीं न कहीं विरोध की राजनीति करके ही ऊपर तक पहुँँचे। ऐसे में एक नया गुट सामने आया जिसने अपना रास्ता जमुना देवी से अलग बनाया। ऐसे मौके भी आए जब जमुना देवी से अलग हटकर राजनीति की धारा बहाने वाले काँग्रेस नेता उनके विरोध के बावजूद आगे निकले और पार्टी का झंडा गाड़ा।
1985 के बाद जब भी प्रदेश में चुनाव हुए, धार जिले की काँग्रेस राजनीति में जमकर उठापटक का दौर चला! इसी का नतीजा था कि जिले के काँग्रेस उम्मीदवारों का फैसला नामांकन पत्र भरने के अंतिम समय में ही होता रहा! जमुना देवी की हमेशा ही यह मंशा रही कि धार जिले की राजनीति की लगाम उनके हाथ में हो! वे कुछ हद तक अपनी इन कोशिशों में सफल भी रही, पर वे जिले की राजनीति को जिस तरह काबू में करना चाहती थी वैसा हो नहीं सका! कुक्षी में उनका दबदबा तब ही बन पाया, जब काँग्रेस के नेता और पूर्व मंत्री प्रतापसिंह बघेल अपनी गलतियों के कारण काँग्रेस की राजनीति में हाशिए पर आ गए। इसके बाद कुक्षी विधानसभा का नेतृत्व उनके पास जरूर आया, पर वे पार्टी के अंदर और बाहर अपने विरोधियों की संख्या कम नहीं कर सकीं। इस बीच भाजपा की नेता रंजना बघेल के हाथों हुई उनकी हार काफी भारी पड़ी।
धार जिले में विधानसभा की 7 सीटें हैं। इनमें पाँच सीटों पर काँग्रेस काबिज है, कुक्षी सीट जमुना देवी के निधन से रिक्त हो गई। जबकि, धरमपुरी से पांचीलाल मेडा, सरदारपुर से प्रताप ग्रेवाल, बदनावर से राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव और गंधवानी से उमंग सिंघार काँग्रेस के विधायक हैं। इनमें पांचीलाल मेडा और प्रताप ग्रेवाल को सासंद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी के साथ माना जाता है और दत्तीगाँव हमेशा से ही सिंधिया गुट में रहे हैं। सिर्फ जुमना देवी के भतीजे उमंग सिंघार ही अकेले विधायक हैं जो उनके साथ रहे। धार जिले की राजनीति के पन्नो पलटे जाएं तो पुराने काँग्रेसी नेता और पूर्व सांसद सुरेंद्रसिंह नीमखेड़ा और मुजीब कुरैशी से जमुना देवी की कभी नहीं पटी। यही कारण था नीमखेड़ा-मुजीब गुट का हमेशा ही जमुना देवी से राजनीतिक मतभेद बना रहा। सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी और धार विधानसभा से एक वोट से हारकर प्रभावशाली नेता बनकर उभरे बालमुकुंद गौतम भी इन्ही दोनों नेताओं के साथ हैं। राजनीति की शह-मात के खेल में जमुना देवी और उनके प्रतिद्वंदी गुट में हमेशा ही ठनती रही है। एक खास बात यह भी है कि काँग्रेस के जो नेता नीमखेड़ा-मुजीब गुट के विरोधी हैं, वे मौका पड़ने पर जमुना देवी के साथ खड़े जरूर हो जाते थे, लेकिन कभी उनके हितैषी नहीं रहे। अब, जबकि जमुना देवी परिदृश्य में नहीं है धार जिले में काँग्रेस का एक धड़ा पूरी तरह बिखर जाएगा। इसलिए कि वे अकेली ऐसी दबंग नेता थी जिसकी वरिष्ठता के सामने पार्टी के कई बड़े नेताओं और यहाँ तक कि हाईकमान तक को झुकना पड़ता था।
लंबे राजनीतिक अनुभव के बावजूद उनका पूरे इलाके में एक छत्र प्रभाव रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि अपने भतीजे उमंग सिंघार को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की उनकी कोशिश इस हद तक गईं कि उनसे कई नेता नाराज हो गए थे। 2004 के लोकसभा चुनाव में सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी का टिकट काटकर उमंग को काँग्रेस का उम्मीदवार बनवाने में उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। अपने प्रभाव से वे टिकट दिलाने में तो कामयाब रहीं, पर काँग्रेस को चुनाव नहीं जिता सकीं! पिछले विधानसभा चुनाव में टिकटों के बँटवारे में भी वे उमंग के टिकट को लेकर अड़ी रहीं और अंतत: गंधवानी से टिकट दिलाकर जिता भी लाईं। लेकिन, इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि इतनी कोशिशों के बाद भी उमंग सिंघार उनका राजनीतिक वारिस बनने में सफल नहीं हुए। जमुना देवी का अंतिम संस्कार कुक्षी के बजाए इंदौर में किया जाना और मुखाग्नि भी उनकी बेटी द्वारा दिए जाने को इस बात का संकेत माना जाना चाहिए कि उमंग उनकी राजनीतिक विरासत का हकदार नहीं है।
जमुना देवी के बाद अब धार जिले की राजनीति में नई धारा का बहना तय है। उस कद-काठी का अब कोई और नेता धार में नहीं है जिसका फायदा निश्चित रूप से सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को मिलेगा। लोकसभा में तीसरी बार धार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे राजूखेड़ी का दायित्व बढ़ने का आशय है कि जिले में काँग्रेस की राजनीति की कमान पहले भी आदिवासी नेता के हाथ में थी, अब भी आदिवासी नेता के ही हाथ में है।

Monday, August 9, 2010

ये 'दोस्ती" और लांछन के छींटे!

राजनीति में दोस्ती के मायने कुछ अलग होते हैं। यह 'शोले" के वीरू और जय की तरह नहीं होती कि छोडेंगे दम मगर तेरा साथ ना छोड़ेंगे। राजनीति की दोस्ती स्वार्थ के पेंच के साथ कसी रहती है। जब भी स्वार्थ की डोर ढीली पड़ती है तो दोस्ती के पेंच ढीले हो जाते हैं और एक दिन गांठ भी खुल जाती है। याद कीजिए मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती! इनकी कसमें खाई जाती थी। दोनों की तरफ से यह दावा किया जाता था कि हमारी दोस्ती किसी स्वार्थ की मोहताज नहीं है। अमर सिंह कहते थे कि मैं लक्ष्मण हूँ और मुलायम सिंह राम हैं। कई बार ऐसे प्रसंग आए जब लोगों ने दोस्ती की राह में काली बिल्ली को दौड़ाकर रास्ता काटने की कोशिश की, पर बात नहीं बनी। लेकिन, यह दांत काटी दोस्ती पल भर में दरक गई और ऐसी दरकी कि दोनों दो किनारों की तरह अलग हो गए। धीरे-धीरे हालात यह बन गए कि दोनों एक-दूसरे का मरना मनाने लगे। अब हालात यह है कि अमर सिंह खम ठोंककर मुलायम सिंह के सामने खड़े हो गए।
ऐसी ही दोस्ती मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में कद्दावर नेता और मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और विधायक रमेश मैंदौला के बीच भी मानी जाती है। इंदौर के विधानसभा क्षेत्र नंबर 2 के एकछत्र नेता रहे कैलाश के राजनीतिक कद के पीछे रमेश की मेहनत मानी जाती है। नजदीक से जानने वाले इस बात को सही भी मानते हैं कि कैलाश की सफलता के पीछे रमेश ही है, और कोई नहीं! बात सही भी होगी और इस पर शक भी नहीं किया जा सकता। लेकिन, दोस्ती का पैमाना सिर्फ सफलता को माना जाए, ऐसा नहीं है। असफलता और रास्ते में आई अड़चनों का कारण भी कई बार यही दोस्ती बनती है। आज कैलाश विजयवर्गीय पर आए नए संकट का कारण भी रमेश मैंदोला को माना जा रहा है। लोग मानते हैं कि एक कॉलेज की लीज की जमीन को किसी कंपनी को उसके व्यावसायिक हित के लिए लीज पर देने के फैसले के पीछे यदि कैलाश पर संदेह की सुई घूमी है तो इसका कारण उनका दोस्त रमेश के अलावा और कोई नहीं है!
यह फैसला उस दौर का है जब कैलाश विजयवर्गीय मंत्री होने के साथ-साथ इंदौर के मैयर भी हुआ करते थे और रमेश महज पार्षद थे। पार्षद होने के नाते 'मैयर इन काउंसिल" में शामिल किए गए थे। रमेश के फैसले को कैलाश ने शह दी और बात सरकार के पाले तक पहुँची और फिर राजनीतिक विरोधियों ने इसका भंडाफोड़ करके उसे हवा दे दी! इसके बाद अखबारों के पन्नो रंगे गए और कई तरह के लांछन लगे। सबका सुर ही था कि कैलाश को भ्रमित करके रमेश ने यह व्यावसायिक लेनदेन किया है। लेकिन, कैलाश ने हमेशा ही इस बात को गलत बताया और दोस्ती निभाई। यही दोस्ती वे आज भी निभा रहें। यह शक जताने वाले भी कम नहीं है कि आखिर इस दोस्ती का आधार क्या है? क्या महज राजनीतिक फायदे-नुकसान की खातिर ही यह साथ पनपा है या कहानी कुछ और है! कारण चाहे जो भी हो अब इस दोस्ती की परते उघड़ने लगी है।
कभी विद्युत मंडल की नौकरी करने वाले रमेश मैंदोला ने 80 के दशक में नौकरी छोड़कर राजनीति की राह पर उतरने का फैसला किया था। पहले पार्षद और पहली बार विधायक बने रमेश को उम्मीद नहीं थी कि राजनीति की पहली सीढ़ी पर ही उनका पैर फिसल जाएगा। अगले विधानसभा चुनाव में यदि उन्होंने पार्टी के सामने टिकट का दावा किया तो तय है कि उन्हें शक के दायरे में देखा जाएगा!
अभी तक देखा गया है कि जब भी कैलाश विजयवर्गीय पर उनके किसी राजनीतिक विरोधी ने हमला किया है तो पहला निशाना रमेश मैंदोला को बनाया गया। क्योंकि, माना जाता है कि कैलाश के हर फैसले में रमेश का हाथ होता है, रमेश वही करते हैं जो कैलाश चाहते हैं। दरअसल, यह दोस्ती का मामला कम राजनीतिक फायदे और नुकसान का ज्यादा समझा जाता है। कैलाश विजयवर्गीय पर जब गरीबों की पेंशन में घोटाला करने का लांछन लगा तो तो उसमें रमेश को सहयोगी माना गया। अब कॉलेज की जमीन की कथित अफरातफरी का विवाद सामने आया तो कहा जा रहा है कि बगैर मंत्री की मर्जी के उनका प्यादा इतना बड़ा खेल कर दे, यह कैसे संभव है? बात सही भी है और इसमें दम भी है। आखिर दोस्ती जब इतनी पक्की है तो कैसे मान लें, कि बाँय हाथ की कारगुजारी की खबर दाँय हाथ को नहीं थी। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो इसे दोस्ती नहीं माना जा सकता, यह एक समझौता है जिसमें राजनीति के हंसिये से चांदी काटकर माल का बंटवारा करने का धंधा चलाया जा रहा है। कम से कम लोग जिन्हे राजनीतिक नजरिए से वोटर कहा जाता है, वे तो यही मान रहे हैं!

Monday, July 26, 2010

कौन खौफ खा रहा है उमा भारती से?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान चैन की जितनी बंसी बजा रहे हैं, इतनी निश्चिंतता का माहौल शायद किसी मुख्यमंत्री को नहीं मिला। उन्हें न तो कहीं से शह मिल रही है, न किसी से मात खोने का ही खतरा है। शतरंज की बिसात पर जितने भी मोहरे दिख रहे हैं, सब के सब शिवराज के पाले के हैं। आसपास भी कोई ऐसा मठाधीश नजर नहीं आ रहा जो उनकी कुर्सी की तरफ तिरछी नजर रखता हो! गाहे-बगाहे जो इस कुर्सी तक पहुंचने की मंशा रखते थे, वे अभी अपने अस्तित्व बचाने की कोशिश में लगे हैं। राजनीति में इतना चैन अमूमन कम ही दिखाई देता है। लेकिन, शिवराज को कहीं न कहीं जो एक मात्र खतरा दूर नजर आता है तो वह है उमा भारती। पार्टी हाईकमान के उमा भारती को फिर भाजपा में लाने के फैसले से शिवराज बेचैन हैं। इसलिए कि वे जानते हैं कि उमा का भाजपा में आना महज एक नेता की घर वापसी नहीं, बल्कि प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का नया संकेत होगी।
राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों को पता है कि उमा भारती की राजनीतिक शैली क्या है? वे कैसे अपने समर्थकों की टोली खड़ी करती हैं और प्रदेश की राजनीति में उनका दखल किस हद तक जा सकता है। अभी शिवराजसिंह का कोई विरोधी नहीं है, बात यह नहीं! परदे के पीछे उनकी मुखालिफत करने वाले कई हैं पर, विरोध करने वाले मुखर नहीं हो पाते। क्योंकि, उनके पास कोई राजनीतिक शरणस्थल नहीं है। यदि उमा भारती की भाजपा में वापसी हो जाती है, तो तय है कि शिवराज के खिलाफ नई खेमेबंदी शुरू हाते देर नहीं लगेगी, जो शिवराज सरकार को अस्थिर कर सकती है। यही वह कारण है जो शिवराज को बार-बार उमा विरोध के लिए उकसाता रहता है। नितिन गडकरी ने पार्टी का अध्यक्ष बनने के बाद जिन दो नेताओं की घर वापसी का जिक्र किया था, उनमें एक थे यशवंत सिंह और दूसरी थी उमा भारती! एक किताब में पाकिस्तान के नेता मोहम्मदअली जिन्ना का गुणगान करने के लिए पार्टी से निकाले गए यशवंत सिंह को तो पार्टी में शामिल कर लिया गया, पर उमा भारती के लिए अभी पार्टी ने दरवाजा नहीं खोला।
मध्यप्रदेश के भाजपा नेताओं में कैलाश जोशी अकेले ऐसे नेता हैं जिसने उमा के पक्ष में बयान दिया था, लेकिन उनके जैसे थके और चुके हुए नेताओं की सलाह का शायद अब कोई मतलब नहीं रह गया। खुद पार्टी भी असमंजस में है कि वह अपने फैसले पर अमल करे या पीछे लौट जाए! इस फायर ब्रांड नेता को भाजपा उत्तर प्रदेश में इस्तेमाल करना चाहती है और साथ ही हिंदुत्व् का माहौल भी बनाना चाहती है, जो पार्टी की सबसे बड़ी ताकत है। किंतु, इस बात की क्या गारंटी कि उमा भारती उत्तर प्रदेश की सीमा लांघकर मध्यप्रदेश नहीं आएंगी! यदि उमा यह सीमा लांघती है तो तय है कि भाजपा की राजनीति में उथल-पुथल मच जाएगी। उधर, उमा भारती अभी खमोश है, शायद इसलिए कि उन्हें पार्टी में ससम्मान वापसी का भरोसा दिलाया गया है। यदि इसमें देरी होती है, तो हो सकता है वे एक बार फिर से वाचाल हो उठें!
भाजपा में इस बात को स्वीकार करने वालों की कमी नहीं है कि दिग्विजय सिंह को फिर से सत्ता में आने से रोकने में 2003 में उमा भारती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजनीति की एक खास शैली में उमा का प्रचार अभियान आज भी याद किया जाता है। इसी राजनीतिक अंदाज के कारण वे प्रदेश की सत्ता पर काबिज भी हुईं, लेकिन कायम नहीं रह सकी। परिवारवाद और कमजोर प्रशासनिक समझ के कारण वे फिसली और फिर फिसलती ही चली गईं। अपनी गलतियों की पहचान करने के बजाए वे चंद स्वार्थी लोगों के हाथ में कैद होकर रह गई और ऐसे में उनकी 'भारतीय जनशक्ति पार्टी" का भी वजूद कायम नहीं रह सका। अब वे फिर पार्टी के दरवाजें पर खड़ी हैं, लेकिन उनकी पुरानी गलतियां ही उनकी राह का रोड़ा बन गईं। पार्टी हाईकमान को उनके विरोधी यह समझाने में लगे हैं कि उमा भारती की वापसी भाजपा के लिए वरदान तो शायद साबित न हो, अलबत्ता अभिशाप जरूर साबित होगी!
उमा भारती को पार्टी में लाने के पीछे हाईकमान का मकसद भले ही मध्यप्रदेश में विकल्प खड़ा करना न हो, पर ऐसा नहीं होगा इसकी गारंटी भी कोई नहीं ले रहा। प्रदेश के नेता चाहते हैं कि हाईकमान को उमा भारती की जरूरत उत्तर प्रदेश में है तो पार्टी में उनकी वापसी का रास्ता भी उसी राज्य से तैयार किया जाए। भाजपा यदि उत्तर प्रदेश फतह करना चाहती है तो मध्यप्रदेश को दांव पर लगाना कौनसी राजनीतिक समझदारी है? जबकि, उमा भी अपनी जेबी पार्टी की दुर्दशा से यह समझ चुकी है कि राजनीति आसान खेल नहीं है! भाषण सुनने के लिए आई भीड़ वोटर नहीं होती, भाषण देना एक कला तो हो सकती है, पर राजनीतिक सफलता का रास्ता वहां से होकर नहीं जाता! हाशिए पर आ चुकी उमा का आने वाला कल क्या होगा, इस बात का दावा कोई नहीं कर रहा। फिर भी उनसे खौफ खाने वालों के नाम तलाशें जाएं तो उनमें सबसे पहला नाम शिवरासिंह चौहान का होगा जिन्हें उमा भारती अपनी कुर्सी के लिए खतरा जरूर नजर आ रही है।

Saturday, July 24, 2010

उत्साह की रैली में उत्पात का जोर

जीवन में खुशियों की खास महत्ता है। जब यही खुशी राजनीतिक जीवन में आती है, तो खुशियां कुंचाले मारने लगती है। यह खुशी निजी नहीं होती, सार्वजनिक होती है और तय है कि निजी के गुणक में जब कोई खुशी सार्वजनिक होती है तो उसका आकार भी कई गुना बड़ा हो जाता है। मामला राजनीतिक होता है इसलिए आकार इतना विशाल हो जाता है कि उसे दोनों हाथ फैलाकर भी दर्शाया नहीं जा सकता। राजनीति में कोई भी खुशी सबके लिए खुशी नहीं होती, उसका पाया किसी को दर्द देता है और यही दर्द राजनीतिक खुन्नास का कारण भी बनता है।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है,प्रदेश भाजपा ने इंदौर के एक युवा विधायक जीतू जिराती को भारतीय जनता युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा की। यह संगठन वैसा ही है, जैसा कांग्रेस में युवक कांग्रेस होता है। संगठन युवाओं का है तो तय है कि इसके सदस्य भी युवा ही होंगे,जिनके खून में जोश उबाले मारता रहता है और जिनका उत्साह हमेशा आसमान में छेद करने को तैयार दिखाई देता है। जीतू जिराती को अध्यक्ष बनाए जाने की खुशी को पार्टी के युवा अपने दिलों में समेटकर नहीं रख पाए और क रैलीनुमा रेला निकालने का एलान कर दिया। सत्ताधारी पार्टी होने का एक सबसे बड़ा सुख यह होता है कि अफसर देखकर भी अनदेखी करने का ढ़ोग करते हैं। इंदौर एक बड़ा शहर है तो रैली की अनुमति लेना भी जरूरी है, उत्साही युवाओं ने औपचारिक रूप से रैली की सूचना अफसरों को दे दी और रैली की तैयारियों में जुट गए। उन्होंने जरूरी नहीं समझा कि रैली का रास्ता भी बताया जाता है और इसकी इजाजत भी ली जाती है।
रैली निकली, पर बड़े रेले की शक्ल में। शहर के बीच से प्रतिबंधित रास्ते से निकली इस रैली में उत्साह से ज्यादा उत्पात नजर आ रहा था। जिसमें हजारों उत्साही युवा अपने अध्यक्ष के मनोनयन को अपने तरीके से 'सेलीब्रेट" कर रहे थे। सैकडों गाड़ियां भी इस रैले में शामिल थी और खुली जीप में अपने राजनीतिक आकाओं और गुर्गो के साथ वह नए नवेले अध्यक्ष भी हाथ जोड़े, नकली हंसी हंसते हुए गुलाल से रंगे पुते खड़े थे। उनके स्वागत में रास्तेभर में सैकडों मंच बने थे जिनपर फूलों की पखुड़ियों का अंबार लगा था और देश प्रेम के गीत बज रहे थे। ये एक अजीब विडंबना है कि जब भी कोई राजनीतिक रैली (यानी रेला) निकलता है तो मंचों से देश प्रेम के गीत इस तरह बजाए जाते हैं मानों देश को ये लोग ही अंगरेजों के चंगुल से छुड़ाकर लाए थे। देश मी आजादी में इन्हीं का योगदान सबसे ज्यादा रहा था।
करीब 8 से 10 घंटे तक पूरे शहर की ट्राफिक व्यवस्था को झकझोरने के बाद रैली गतंव्य तक तो पहुंच गई, पर बाद में शुरू हुई असल राजनीति! जब कुछ लोगों को लगा कि उत्साह दर्शाने के नाम पर उत्पात मचाने वाली यह रैलियां यदि इसी तरह निकलती रही, तो लोगों का सड़क पर चलना दूबर हो जाएगा। मामला कोर्ट तक पहुंच गया और अफसरों स सवाल-जवाब होने लगे! उनसे पूछा गया कि बगैर इजाजत रैली कैसे निकली? किसने निकाली? रोकी क्यों नहीं गई ... वगैरा ... वगैरा! इसके बाद सब मुंह छुपाने और दूसरे की तरफ अंगुली उठाने का मौका ढंूढ़ने लगे। यह हालात पहली और आखिरी बार नहीं बने! इंदौर में ही ऐसा हुआ, किसी और शहर में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है! जब तक राजनीति में नकलीपन और दिखावा छाया रहेगा, ऐसे कई जीतू जिरातियों के अध्यक्ष बनने पर उत्साह के पैमाने छलकते रहेंगे। क्योंकि, देश का आने वाला कल इसी तरह के युवा नेताओं का है। इसलिए झेलना तो पड़ेगा ही ... !

Friday, July 23, 2010

भयभीत मुख्यमंत्री का उवाच!

राजनीति में हादसों की कमी नहीं है। किसी नेता को पता नहीं होता कि कब उसके साथ क्या घट जाए! कब कौनसा चुगलखोर हाईकमान के पास हाजरी लगाने पहुंच जाए और सारी जमावट मटियामेट कर दे। इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो ऐसे हादसों की कमी नहीं है, जब रात में मंत्री के तौर पर सोए नेता को सुबह उठते ही चलता कर दिया गया या हाईकमान ने पार्टी का फैसला बताकर इस्तीफा मांग लिया हो। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर दोबारा काबिज होने के अगले दिन ही अर्जुनसिंह को पंजाब कर राज्यपाल बनाकर भेजने के आदेश दिए गए थे।
यह प्रसंग इसलिए कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी आजकल अपनी कुर्सी को लेकर कुछ भयभीत नजर आ रहे हैं। शिवपुरी में दिए अपने भाषण में इस बात के संकेत दिए कि उन्हें हटाने के लिए भूमाफिया धन जमा कर रहा है। क्योंकि, मैंने इनके खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है। किसी सामान्य व्यक्ति के लिए मुख्यमंत्री का यह बयान साहस भरी बात हो सकती है, जो भूमाफिया से जरा भी नहीं डरता और उन्हें खुले आम चैलेंज दे रहा है। लेकिन, राजनीतिक नजरिए से डेेढ़ वाक्य के मुख्यमंत्री के इस बयान के कई मतलब हैं। सबसे मार्के की बात तो यह है कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री उस अज्ञात भय से भयभीत है, जो शायद उसे हटाने के लिए कहीं रचा जा रहा है या उसे रचे जाने की जानकारी है। अपने विरोधियों की साजिश का खतरा मुख्यमंत्री ने महसूस किया है और अपने बचाव में यह सब कह डाला! मुख्यमंत्री ने यह नहीं कहा कि उनका इशारा किस भूमाफिया की तरफ है, पर समझने वालों के लिए बयान काफी था! भूमाफिया कौन है, यह किसी को समझाने की भी जरूरत नहीं!
यह भी हो सकता है कि शिवराजसिंह को किसी कारण से अपने हटाए जाने का संकेत मिल गया हो, और सम्मानजनक बिदाई की खातिर उन्होंने यह बयान उछाल दिया। ऐसा इसलिए कि कल को यदि उन्हें अचानक कुर्सी खाली करने का आदेश मिलता है तो हटाए जाने के कारणों के पीछे उनकी अयोग्यता पर अंगुली न उठाई जाए। बात मुख्यमंत्री की योग्यता और अयोग्यता की नहीं, बल्कि कुर्सी खो देने के अज्ञात भय से जुड़ी ज्यादा है। क्योंकि, राजनीति ऐसा पेशा है जहां सत्ता का सुख तब तक ही बना रहता है जब तक कि कोई आपसे ताकतवर नेता चुनौती न दे। शिवराजसिंह चौहान के बयान के पीछे सचाई क्या है, अभी इस बात का खुलासा तो नहीं हुआ पर यह संकेत कई तरह के इशारे कर रहा है।
बीते कुछ दिनों में मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति में बहुत कुछ हुआ। दागी मंत्रियों को लेकर काफी कुछ कहा गया और सफाई देने में भी कोताही भी नहीं की गई। इसी तारतम्य में स्वास्थ्य मंत्री अनूप मिश्रा को पद छोड़ना पड़ा। कुछ और मंत्रियों के नामों को लेकर भी हलचल है, इस बात से सरकार के सूत्र भी इंकार नहीं कर रहे। ऐसे में यदि एक-आध पांसा उल्टा पड़ गया तो तय है कि खतरा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर आने लगे। क्योंकि, पैसे में बहुत ताकत है। मुख्यमंत्री भी कह ही चुके हैं कि उन्हें हटाने के लिए धन बल के इस्तेमाल की तैयारी है। अब यदि किसी भी कारण से शिवराजसिंह को मुख्यमंत्री निवास को अलविदा कहना पड़ता है, तो माना यही जाएगा कि उन्हें धन के धक्के ने गिरा दिया, वर्ना वे तो कुर्सी पर पक्का जोड़ लगाकर बैठे थे! लेकिन, कभी-कभी फेविकोल का जोड़ भी कच्चा रह जाता है।

बहुत कुछ कहती है, यह तस्वीर!

जाने माने नाटककार शेक्सपीयर ने किसी संदर्भ में एक बार कहा था कि उन्हें तस्वीरें बहुत पसंद हैं। क्योंकि, ये कभी बदलती नहीं, तस्वीर वाला व्यक्ति बदल जाए पर तस्वीरों का चरित्र कभी नहीं बदलता। बात सच भी है, तस्वीरों का चरित्र खामोश रहकर उन पलों को हमेशा जीवंत करते रहना होता है, जिन पलों में उन्हें क्लिक किया गया हो! काले-सफेद के जमाने से आज रंगीन तस्वीरों के जमाने तक में तस्वीरों का मूल चरित्र नहीं बदला। तस्वीरें भले ही खामोश रहती हों, पर जब बोलने लगती हैं तो बहुत बोलती हैं। यदि बात राजनीति की हो, तो इन तस्वीरों की वाचालता कुछ ज्यादा ही मुखरता से सामने आती है। यह भूमिका बनाई गई है हाल ही में अखबारों मे छपी एक तस्वीर के संदर्भ में! इस तस्वीर में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह और भारतीय जनता पार्टी के ताकतवर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पास-पास बैठे कानाफूसी कर रहे हैं। जहां ये दोनों नेता मिले, वह प्रसंग राजनीतिक नहीं था। हो भी नहीं सकता, क्योंकि हमारे यहां राजनीति की कोई धारा ऐसी नहीं बहती जहां दो धुर विरोधी पार्टियों के नेता साथ-साथ बैठकर विचारों का आचमन कर सकें!
दोनों के बीच क्या बातचीत हुई होगी, यह कोई नहीं बता सकता। ये दोनों नेता भी कभी इस बात का खुलासा नहीं करेंगे कि दोनों की रूचि के ऐसे कौनसे कॉमन विषय हैं, जिन पर यह गुफ्तगू चली होगी! ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह और कैलाश विजयवर्गीय के चेहरे के भाव ही राज खोलते हैं कि इनके बीच जो बात हुई होगी वह राजनीति से इतर नहीं हो सकती। जहां तक मामले को कुरेदने की बात है तो दिग्विजय सिंह को राजनीति का पारंगत खिलाड़ी माना जाता है, उनके पेट से कोई राज उगलवा लेना भाजपा नेता के लिए शायद संभव नहीं है। तब तय है कि इस कानाफूसी की गर्त में प्रदेश की भाजपा राजनीति ही होगी!
भाजपा की प्रदेश राजनीति में इन दिनों उहा-पोह का माहौल है। राजनीति का सारा माहौल दागी मंत्रियों की तरफ पत्थर उछाल रहा है। आधा दर्जन मंत्रियों के साथ कैलाश विजयवर्गीय इस अभियान में निशाने पर हैं। अपनी राजनीति और बाहुबली ताकत के दम पर भाजपा के इस मंत्री ने बीते 10 सालों में बहुत कुछ पाया है। लेकिन, अब वे घिरते नजर आ रहे हैं और बचाव की कोशिश में तय है कि उनसे कोई बड़ी गलती हो सकती है! राजनीतिें की दुनिया में खबरों को कुरेदने वाले और उनके नए अर्थ निकालने वालों की सुने तों दोनों नेताओं के बीच जो खुसुर-पुसुर हुई है, उसके निहितार्थों को समझा जाना आसान नहीं है। दोनों के बीच आपसी समझ पहले से रही है। राजनीति रूप से विरोधी होने के बावजूद दोनों नुकसान और फायदों की भाषा को समझते और एक-दूसरे के लिए रास्ता आसान करते आए हैं। जहां तक राजनीति की बात है तो इस पेशे में दुश्मन का दुश्मन हमेशा ही दोस्त होता है। तस्वीर से गूंजते खामोश स्वर भी यही बता रहे हैं कि बात दो दोस्तों के बीच किसी ऐसे दुश्मन के बारे में हो रही है जो दोनों के निशाने पर है! अब यह समझने वाली बात है कि दोनों का कॉमन दुश्मन कौन है? ... सही समझा आपने! बात उसी को निपटाने के बारे में ही हो रही है।

मेरा बाप ये ... तेरा बाप कौन?

आजादी के बाद से अब तक राजनीति की भाषा कितनी बदली है, यह जानना हो तो बीते आठ-दस दिन के अखबार उठा कर पन्नो पलट लीजिए।! पता चल जाएगा राजनीति की भाषा की दिशा क्या है। भारतीय जनता पार्टी के मुखिया नितिन गडकरी ने कहा कि कांग्रेस औरंगजेब की औलाद है तो कांग्रेस की तरफ से दिग्विजयसिंह ने बयान उछालते हुए अपने स्वर्गीय पिता का नाम बताया और गडकरी से उनके बाप का नाम पूछ लिया! यदि यह वाक् संघर्ष बंद कमरे में हुआ होता तो शायद भाषा का दंश इतना गहरा नहीं होता, पर जो कुछ हुआ सब सरेआम और खुल्लम खुल्ला हुआ! इसका माध्यम बना मीडिया जिसे पहले भड़काने और फिर भड़भड़ाने में मजा आता है।
इस पूरे प्रसंग में गौर करने वाली बात यह है कि गडकरी और दिग्वजयसिंह दोनों ही अपनी-अपनी पार्टी के बड़े नेता हैं और दोनों सुसंस्कृत परिवार से आते हैं। दोनों के पास भाषाई समझ है, उनके शब्दकोष में शब्दों का इतना अकाल भी नहीं है कि उन्हें अपनी बात को साफ तौर पर कहने के लिए गर्त भरे शब्दों का इस्तेमाल करना पड़े। फिर क्या कारण था कि उन्हें गली-कूचे में बोले जाने वाले अव्यावहारिक शब्दों का सहारा लेना पड़ा? दरअसल, यह एक संकेत है कि आने वाली राजनीति का स्तर क्या होगा! नेता कैसे होंगे, नेतागिरी कैसी होगी, उनका बोल व्यवहार क्या होगा और सबे बड़ी बात तो यह कि विपक्ष के प्रति उनका रवैया दोस्ताना होगा या दुश्मनों जैसा!
देखा गया है कि जब भी किसी बड़े नेता के मुंह से कोई गलत बात निकल जाती है तो उस पार्टी के भोंपू बने प्रवक्ता इसे जुबान का फिसलना बताकर विवाद को किनारे करने की कोशिश करते हैं। याद किया जाए तो हमेशा यही होता आया है और इस कृत्य से कोई भी पार्टी अछूती नहीं है। जब गडकरी ने पिछले तीन चार मौकों पर अपनी जुबान को फिसलने का मौका दिया तो भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने अपना रटा-रटाया बयान देकर कुछ ऐसी भाव भंगिमाएं बनाई जैसे कुछ हुआ ही न हो। यदि पार्टी के शीर्ष पर बैठे नेताओं की जुबान इतनी फिसलनभरी होगी तो उम्मीद की जा सकती है कि उनके कर्म कैसे होगे। यहां कांग्रेस की गलती यह कही जा सकती है कि उसने भी अपनी जुबान को फिसलने का पूरा मौका दिया। यदि कांग्रेस अपना जवाबी अंदाज बदल लेती तो बेहतर होता।
राजनीति के बोल व्यवहार का अंदाज यही रहा और इसे अपने तई लगाम नहीं लगाई गई तो इसका अगला चरण निश्चित रूप से हाथापाई ही होगा। क्योंकि, आज मीडिया को इन्हें वाक् संघर्ष करते देख जो मजा आ रहा है, मल्लयुद्ध करते देख शायद उससे भी ज्यादा मजा आएगा। अभी तो इलेक्ट्रानिक मीडिया को सिर्फ बाईट मिलती है, फिर तो वीडियो शॉट भी मिलेंगे। तब बात बाप का नाम बताने और पूछने तक ही सीमित नहीं रहेगी, उससे आगे निकलकर गालियों के जरिए नजदीकी रिश्ता भी जोड़ा जाने लगेगा। विधानसभाओं की दीर्घाओं में होने वाला माईक उखाडों जंग तब सड़कों पर ही लड़ जाने लगेगी और राजनीतिक ताकत का फैसला भी शायद बाजुओं की ताकत से ही होगा।