Sunday, November 26, 2017

'पद्मावती' जैसा विवाद नया नहीं!

- हेमंत पाल 

  संजय लीला भंसाली की इतिहास के कथानक पर बनी फिल्म 'पद्मावती' को लेकर विवाद कुछ ज्यादा ही गहरा गया। पहले समझा जा रहा था कि फिल्म की कथित तथ्यात्मक गलती ही विरोध का मुद्दा है, पर अब इस विवाद की गर्भ से राजनीति ने जन्म ले लिया। फिल्म में रानी पद्मावती के किरदार को किस तरह पेश किया गया और मुग़ल बादशाह अलाउद्दीन खिलची और पद्मावती के बीच प्रेम का स्वप्नदृश्य जैसा कोई सीन है या नहीं, अभी ये सिर्फ कयास हैं। क्योंकि, किसी ने फिल्म नहीं देखी। 'पद्मावती' को लेकर इन दिनों देश में जो हालात बने हैं, उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ और तुष्टिकरण नीति काम कर रही है। क्योंकि, जो फिल्म अभी सेंसर के पास नहीं पहुँची, किसी ने उसे देखा नहीं, फिर भी विवाद आसमान पर पहुँच गया?
  ये पहला अवसर नहीं है, जब किसी फिल्म को राजनीतिक कारणों से विरोध झेलना पड़ा हो! 'पद्मावती' से पहले भी ऐसी कई फ़िल्में बनी हैं, जिनके परदे पर नहीं उतर पाने के पीछे राजनीतिक कारण रहे हैं। कुछ फ़िल्में तो काटछांट के बाद रिलीज हो गई, लेकिन ऐसी भी फ़िल्में हैं जिन्होंने अभी तक परदे का मुँह नहीं देखा। लेकिन, इन फिल्मों को लेकर जो भी आपत्तियाँ उठी, उन सभी में सेंसर बोर्ड की भूमिका रही! यदि उन फिल्मों को बैन भी किया गया तो वो काम भी सेंसर ने ही किया, किसी नेता ने नहीं! लेकिन, 'पद्मावती' संभवतः पहली फिल्म है, जिसे शूटिंग के वक़्त से ही विरोध का सामना करना पड़ा! सेंसर के सामने जाने से पहले सिर्फ अनुमान के आधार पर ही फिल्म का विरोध सड़क पर उतर आया।     
  हिंदी फिल्मों को बैन किए जाने का इतिहास टटोला जाए तो 1921 बनी मूक फ़िल्म ‘भक्त विदुर’ भारतीय इतिहास की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे बैन किया गया था। इस फिल्म में एक हिंदू पौराणिक किरदार विदुर था। उसके और महात्मा गाँधी के बीच काफ़ी समानताएं दिखाई गई थी। इस  किरदार ने गाँधी टोपी पहनी थी, और फिल्म को बैन करने की यही सबसे बड़ी वजह भी यही मानी गई थी। इसके बाद आपातकाल के समय 1977 में आई 'किस्सा कुर्सी का' लेकर जमकर विवाद हुआ था। अमृत नाहटा की इस फिल्म की कहानी गंगू नाम के एक किरदार की थी, है जो जनता को मूर्ख बनाकर राष्ट्रपति बन जाता है। माना गया था कि इस फिल्म जरिए इंदिरा गांधी की सरकार की आलोचना की गई थी। सेंसर ने इस फिल्म  51 आपत्तियां लगाई गए थी। फिल्म के मूल प्रिंट को संभवतः जला तक दिया गया था। आपातकाल के बाद फिल्म दोबारा बनी, रिलीज पर चली नहीं!
   गुलजार की 1975 में आई फिल्म 'आंधी' को रिलीज के 26 हफ्ते बाद बैन कर दिया गया। संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी। सुचित्रा ने एक नेता आरती देवी का किरदार निभाया, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन से प्रेरित बताया गया था। इसके बाद आपातकाल लग गया। 1977 में आम चुनाव हुए और नई सरकार बनी, तब इसे फिर रिलीज किया गया। 2005 में बनी टीडी कुमार की फिल्म 'सोनिया' की कहानी सोनिया गाँधी से प्रेरित थी, इसलिए फिल्म को सेंसर में उलझना ही था और वही हुआ भी! सेंसर ने इसे पास करने से मना कर दिया था। निर्माता से कहा कि पहले सोनिया गांधी से अनुमति ले! फिल्म में कोई भी बड़ा एक्टर नहीं था. अंततः ये रिलीज ही नहीं हुई!
  इसी साल मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' के परदे पर आने से पहले ही विवाद हो गया था। आरोप था कि ये फिल्म संजय गाँधी को लेकर बनाई गई थी। फिल्म पर रोक लगवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका तक दाखिल की गई! अंततः फिल्म रिलीज तो हुई, पर दर्शकों को आकर्षित सकी! ये तो वो फ़िल्में हैं जो किसी राजनीतिक व्यक्ति के जीवन पर बनी, इसलिए उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा! लेकिन, अपने आपत्तिजनक विषय, अत्यधिक खुलेपन और ज्यादा हिंसात्मक दृश्यों के कारण भी कई फिल्मों को बैन किया गया है। लेकिन, 'पद्मावती' पहली ऐसी फिल्म है जिसे ऐतिहासिक तथ्यों पर ही संदेह किया जा रहा है और जिसे सेंसर ने भी नहीं देखा, पर विरोध का गुबार आसमान तक पहुँच गया!
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Friday, November 24, 2017

धार की धारदार राजनीति में चुनाव 'शून्यता' का तड़का!

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में धार की राजनीतिक जागरूकता बेजोड़ है! प्रदेश के जिन इलाकों को अपनी राजनीतिक चैतन्यता के लिए उँगलियों पर गिना जाता है, उनमें धार भी है। इंदौर की जीवन शैली से प्रभावित और आदिवासी इलाके की सीमा से लगे धार को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के नेताओं का गढ़ माना जाता है। यहाँ की राजनीतिक जागरूकता का आलम ये है कि 
  मध्यप्रदेश में धार की राजनीतिक जागरूकता बेजोड़ है! प्रदेश के जिन इलाकों को अपनी राजनीतिक चैतन्यता के लिए उँगलियों पर गिना जाता है, उनमें धार भी है। इंदौर की जीवन शैली से प्रभावित और आदिवासी इलाके की सीमा से लगे धार को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के नेताओं का गढ़ माना जाता है। यहाँ की राजनीतिक जागरूकता का आलम ये है कि 
यहाँ के लोग हर वक़्त राजनीति में ही जीते हैं। राजनीति को ही ओढ़ते हैं और वही बिछाते भी हैं। यही कारण है कि ये शहर हमेशा ही राजनीति की ख़बरों में की सुर्ख़ियों में रहता है। आजादी के बाद ये शहर बरसों तक हिन्दू महासभा के प्रभाव में रहा। इसके बाद यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी जड़ें जमाई! भाजपा के पितृपुरुष कहे जाने वाले कुशाभाऊ ठाकरे, बसंतराव प्रधान और विक्रम वर्मा जैसे बड़े नेता इसी शहर से राजनीति के शिखर पर पहुँचे! बरसों तक यहाँ की राजनीति में केशरिया रंग घुला रहा! लेकिन, सुरेंद्रसिंह नीमखेड़ा, शिवभानुसिंह सोलंकी, जमुनादेवी और प्रतापसिंह बघेल जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने भी समय-समय पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई! फिलहाल धार अपने नाम के अनुरूप फिर चर्चा में है। यहाँ की भाजपा विधायक नीना वर्मा के चुनाव को अदालत ने लगातार दूसरी बार शून्य घोषित कर दिया।  

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  धार विधानसभा क्षेत्र का पिछला चुनाव नतीजा एक बार फिर सुर्खियों में है। हाई कोर्ट ने इस बार भी भाजपा विधायक नीना वर्मा का चुनाव शून्य घोषित कर दिया। वे 
भाजपा के बड़े नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री विक्रम वर्मा की पत्नी हैं। 
ये लगातार दूसरी बार है, जब हाई कोर्ट ने नीना वर्मा का चुनाव तकनीकी आधार पर रद्द किया है। धार के मतदाता और कर सलाहकार सुरेशचंद्र भंडारी ने 
याचिका दायर करते हुए आरोप लगाया था कि नीना वर्मा ने अपने नामांकन फॉर्म में कई अधूरी जानकारियां दी थीं। कुछ जानकारियाँ तो उन्होंने दी ही नहीं, जिनके आधार पर उनका चुनाव शून्य किया जाना चाहिए। इसी तरह 2008 के विधानसभा चुनाव में एक वोट से चुनाव हारे कांग्रेस उम्मीदवार बालमुकुंद गौतम ने भी कोर्ट में याचिका लगाकर वोटों की गिनती के समय निरस्त किए गए तीन डाक मतपत्रों को चुनौती दी थी। हाई कोर्ट ने इस चुनौती को सही माना और न्याय के इतिहास में पहली बार ऐतिहासिक फैसला देते हुए पराजित उम्मीदवार गौतम को विधायक घोषित किया। ये लगातार दूसरा मौका है, जब एक ही भाजपा विधायक का चुनाव दूसरी बार अदालत ने शून्य घोषित किया है। जबकि, 2013 में पराजित कांग्रेस उम्मीदवार गौतम ने भी याचिका दायर की है, जिसका फैसला होना बाकी है।   
  अदालत द्वारा भाजपा विधायक नीना वर्मा का विधानसभा चुनाव शून्य घोषित किया जाना एक न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि जिस भाजपा विधायक का चुनाव शून्य घोषित किया गया, उनके पति विक्रम वर्मा खुद पाँच बार विधायक, राज्यसभा सदस्य और राज्य तथा केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। यदि उनकी पत्नी का ही चुनाव नामांकन फॉर्म गलत भरा जाए, ये बात आसानी से गले नहीं उतरती! दूसरा सवाल ये है कि यदि नामांकन फॉर्म में कोई खामी थी, तो तत्कालीन चुनाव अधिकारी ने उस अधूरे भरे नामांकन फॉर्म को किस आधार पर स्वीकार किया? उम्मीदवार की इस गलती को तो हाई कोर्ट में मान लिया और सजा भी सुना दी, पर उस चुनाव अधिकारी की गलती की सजा कौन देगा, जिसने अधूरे भरे नामांकन फॉर्म को स्वीकार किया था? पिछले विधानसभा चुनाव में भी अदालत ने नीना वर्मा का निर्वाचन शून्य घोषित किया था। तब भी तकनीकी त्रुटि को आधार माना गया था। डाक मतपत्रों की गिनती करते समय जो मतपत्र सही पाए गए थे, बाद में उनमें से तीन मतपत्रों को रद्द करके नीना वर्मा को एक वोट से विजयी घोषित किया गया था। बाद में अदालत ने उन मतपत्रों को वैध माना और कांग्रेस के निकटतम प्रतिद्वंदी बालमुकुंद गौतम को विधानसभा की सदस्यता दिलाने का आदेश दिया। 
गौतम कुछ समय के लिए विधायक भी रहे और उन्हें ही 2008 से 2013 के लिए विधायक माना जाता है।    
  
नीना वर्मा के नामांकन फॉर्म पर सवाल उठाते हुए सुरेशचंद्र भंडारी ने उनके चुनाव के खिलाफ चुनाव नतीजों के बाद 23 जनवरी 2014 को नीना वर्मा के खिलाफ ये याचिका लगाई थी। मामले में अंतिम सुनवाई 21 सितंबर को हुई, जिस पर कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। न्यायाधीश आलोक वर्मा ने फैसला सुनाते हुए विधायक नीना वर्मा का चुनाव शून्य घोषित कर दिया। हालांकि, हाईकोर्ट ने नीना को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 45 दिन का समय भी दिया है। याचिका दायर करने वाले भंडारी की और से अदालत के सामने सूचना के अधिकार कानून के तहत मिले दस्तावेज पेश करके कहा था कि नीना वर्मा ने वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक दाखिल नहीं किया था। श्रीमती वर्मा के की और से प्रस्तुत नामांकन पत्र के 24 स्तंभ खाली छोड़े गए, जो कि चुनाव आयोग के नियमों का उल्लंघन है। अदालत के समक्ष इस याचिका पर 142 बार सुनवाई हुई, जिसमें नीना वर्मा की ओर से 38 अंतरिम आवेदन पेश कर, विचार की प्रार्थना की गई। 
  इससे पहले 2008 में हुए विधानसभा चुनाव में भी नीना वर्मा मात्र एक वोट से विजयी घोषित हुई थीं। दूसरे नंबर पर आने वाले कांग्रेस के बालमुकुंद गौतम ने इसको लेकर लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी। अंततः अदालत ने नीना वर्मा का निर्वाचन रद्द करके गौतम को विधायक पद की शपथ दिलाने के निर्देश दिए थे। 2013 में फिर विधानसभा के चुनाव हुए। भाजपा उम्मीदवार के तौर पर नीना वर्मा ने अपने पिछले प्रतिद्वंदी बालमुकुंद गौतम को दस हज़ार से ज्यादा बड़े अंतर से उन्हें हराकर चुनाव जीता और विधायक बनी। लेकिन, इस बार फिर दो चुनाव याचिकाएं लगाई गई। एक याचिका सुरेशचंद्र भंडारी की थी, जिसपर फैसला आ गया, जबकि दूसरी याचिका पराजित कांग्रेस उम्मीदवार बालमुकुंद गौतम की है। सुरेशचंद्र भंडारी की याचिका पर तो हाई कोर्ट ने फैसला सुना दिया। पर, अभी बालमुकुंद गौतम की याचिकाओं पर फैसला आना बाकी है। 
  बालमुकुंद गौतम ने अपनी याचिका में आरोप लगाया है कि मतदान से ठीक पहले 72 ईवीएम मशीनें बदली गई। जब निर्वाचन अधिकारी को इस बारे में शिकायत की गई, तो उन्होंने इससे इंकार किया, लेकिन बाद में इस बात को स्वीकार किया कि ईवीएम मशीनों की कंट्रोल यूनिट और बैलेट यूनिट बदली गई थी। गौतम की इसी याचिका में नीना वर्मा को भ्रष्ट आचरण के तहत अयोग्य घोषित करने की भी मांग की गई है। चुनाव प्रचार के दौरान गौतम को अपंग कांग्रेस का उम्मीदवार बताया गया, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं बनता! गौतम के कारोबार को चुनाव प्रचार का मुद्दा बनाया गया, जो कि चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों के मुताबिक अनुचित है। एक अन्य चुनाव प्रचार भाषण में कांग्रेस उम्मीदवार गौतम को 'भूत' कहकर उसे बोतल में बंद करके गाड़ने तक की बात कही गई! अभी इस याचिका पर फैसला लंबित है। वास्तव में ये फैसला चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और निर्वाचन व्यवस्था के लिए भी एक सबक है।  
  नीना वर्मा के निर्वाचन के खिलाफ लगी याचिका में जो फैसला आया, इसके बाद धार प्रदेश में एक पहली ऐसी विधानसभा बन गई, जहां लगातार दो बार चुनाव याचिका के कारण परिणाम प्रभावित हुए हैं। हालांकि, विधायक नीना वर्मा को 45 दिन का स्टे मिला हुआ है। इस समयावधि में वे विधायक रहेंगी। वहीं वे सुप्रीम कोर्ट की शरण में भी जा सकती हैं। इन सबके बावजूद ये विधानसभा क्षेत्र न केवल प्रदेश में बल्कि देशभर में इस तरह के फैसले के मामले में सुर्खियों में आ गया। धार विधानसभा में चुनाव याचिकाएं 2008 से ही चली आ रही हैं। आमतौर पर यह माना जाता था कि चुनाव याचिकाओं को लेकर परिवर्तन की स्थिति नहीं बनती! लेकिन, धार विधानसभा ऐसा क्षेत्र बन गया हैं, जहां पर लगातार दो बार हाईकोर्ट ने फैसले देकर स्थितियों को पलटा है। 
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Sunday, November 19, 2017

फ्लॉप फिल्म का घाटा डिस्ट्रीब्यूटर्स ही क्यों झेले?


- हेमंत पाल 

   फिल्म एक ऐसा बिजनेस है, जिसमें सफलता की कोई गारंटी नहीं! यानी पूरी तरह से असुरक्षित बिजनेस! बड़े बड़ा कलाकार और निर्देशक दावे से नहीं कह सकता कि उसकी फ़िल्में चलेंगी ही! ऐसे सैकड़ों उदाहरण है, जब भारी भरकम बजट से बनी फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान भोगता है फिल्म को खरीदकर सिनेमाघरों में चलाने वाला डिस्टीब्यूटर। निर्माता तो फिल्म के बनने से पहले ही बेचकर मुनाफा कमाकर बाहर निकल जाता है। जब से फिल्म के संगीत, ओवरसीज, डिजिटल और इसी तरह के दूसरे अधिकार बिकने लगे हैं, फिल्म लागत निकालना ज्यादा आसान हो गया! अब पहले जैसे हालात नहीं है जब 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने के बाद राजकपूर परिवार संकट में आ गया था! आज तो 'ट्यूबलाइट' के फ्लॉप होने पर भी कबीर खान और सलमान खान करोड़ों कमा लेते हैं।     
  सामान्यतः किसी फिल्म के फ्लॉप होने पर कोई भी निर्माता कंपनी डिस्ट्रीब्यूटर्स को पैसा नहीं लौटाती! लेकिन, सलमान खान ने आगे का सोचकर 'ट्यूबलाइट' के कुछ घाटे को खुद भी सहा और डिस्ट्रीब्यूटर्स को आधा पैसा लौटाया। जबकि, फ्लॉप फिल्म से भी सलमान खान ने 180 से 200 करोड़ रुपए की कमाई की है। 35 करोड़ रुपए लौटाने पर भी उन्हें खास फर्क नहीं पड़ा। सलमान खान ने फिल्म की रिलीज से पहले देश में फिल्म के थिएटर अधिकार 132 करोड़ रुपए में, संगीत अधिकार 20 करोड़ में, सैटेलाइट और इंटरनेट अधिकार बेचकर करीब 210 करोड़ रुपए जमा कर लिए थे। ये फिल्म सलमान और कबीर ने मिलकर बनाई थी, तो निश्चित रूप से सलमान का हिस्सा ज्यादा होगा! सलमान और कबीर तो फायदे में रहे, लेकिन जो नुकसान हुआ वो डिस्ट्रीब्यूटर्स का हुआ! मीडिया में भले ही सलमान के इस कदम की वाहवाही हो रही हो, पर सलमान के पहले कई और कलाकार ये काम चुके हैं।
   शाहरुख़ खान भी 'दिलवाले' की असफलता पर डिस्ट्रीब्यूटर्स को पैसा दे चुके हैं। 'दिलवाले' ने बॉक्स ऑफिस पर 150 करोड़ रुपए का कारोबार किया था। लेकिन, फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर्स को घाटा उठाना पड़ा। फिल्म के निर्माण शारुखान की कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट और रोहित शेट्टी प्रोडेक्शन ने मिल कर किया था लेकिन इतनी बड़ी स्टारकास्ट और भारी प्रमोशन भी फिल्म को डूबने से नहीं बचा पाया। इससे पहले 2001 और 2005 में भी शाहरुख खान डिस्ट्रीब्यूटर्स के घाटे को सहन कर चुके हैं। 2001 में रिलीज हुई 'अशोका' और 2005 में 'पहेली' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई थी, जिस कारण डिस्ट्रीब्यूटर्स को भारी नुकसान हुआ!
  सलमान खान की पिछली बड़ी फ्लॉप फिल्म 'वीर' थी। सलमान ने वादा किया था कि अगर फिल्म नहीं चली तो वो डिस्ट्रीब्यूटर्स के पैसे लौटा देंगे। लेकिन, 'वीर' बुरी तरह फ्लॉप हो गई थी, पर सलमान ने किसी के पैसे नहीं लौटाए। इसके बाद सलमान खान का सिक्का चलने लगा। सालों बाद उन्हें फिर झटका मिला और 'ट्यूबलाइट' बुझ गई! दूसरी तरफ शाहरूख खान हैं, जो हर बार ये काम करते रहे हैं। अशोका, पहेली और दिलवाले तीनों ही बार शाहरूख ने डिस्ट्रीब्यूटर्स का पैसा लौटाया।
   रणबीर कपूर और कटरीना कैफ की फिल्म 'जग्गा जासूस' रिलीज़ भी हुई पर फ्लॉप भी हो गई! इस फिल्म को रणबीर, अनुराग बसु और सिद्धार्थ रॉय कपूर ने बनाया था। रणबीर कपूर ने कहा था कि यदि फिल्म कमाई नहीं कर पाती, तो वे डिस्ट्रिब्यूटर्स के पैसे लौटा देंगे। लेकिन, अभी ऐसी कोई खबर बाहर नहीं आई कि 'जग्गा जासूस' से घाटा खाए डिस्ट्रीब्यूटर्स नुकसान की भरपाई करने की कोशिश हुई है। रणबीर ने तो ये तक कहा था कि ये 1950 में मेरे दादाजी राज कपूर की फिल्मों के जमाने से होता आ रहा है। जब 'मेरा नाम जोकर' रिलीज़ हुई थी, तब डिस्ट्रिब्यूटर्स ने घाटा झेला था। लेकिन, जब 'बॉबी' हिट हुई तो मेरे दादाजी ने फायदे का एक बड़ा हिस्सा सिनेमाघर मालिकों की जगह डिस्ट्रिब्यूटर्स को दिया था। अगर मैं अपनी फिल्मों से पैसा कमा रहा हूँ तो घाटा होने पर ड्रिस्ट्रिब्यूटर्स का पैसा लौटा दूंगा। यदि ये परंपरा चल गई तो फिल्म इंडस्ट्री को संभालना आसान जाएगा। क्योंकि, हिट फिल्म से केवल निर्माता ही नहीं, डिस्ट्रिब्यूटर्स और सिनेमा मालिक तक पैसा कमाते हैं। कई बार इसमें घाटा भी हो जाता है। अगर घाटा होता है तो उसकी भरपाई करना अच्छा बात है। शाहरुख़ और सलमान के अलावा अन्य कलाकार भी पहल करें तो इसमें बुराई क्या है?
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Friday, November 17, 2017

इंदौर की राजनीतिक जागरूकता को किसकी नजर लगी?

- हेमंत पाल 

   इंदौर में भाजपा के चार विधायक और नामचीन सांसद होते हुए भी चारों तरफ राजनीतिक ख़ामोशी जैसा माहौल है। किसी का भी पूरे शहर पर दबदबा दिखाई नहीं देता! भाजपा के सभी विधायक अपने-अपने क्षेत्र तक सिमटे हुए हैं। कैलाश विजयवर्गीय के पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और दिल्ली चले जाने से शहर में राजनीतिक खालीपन साफ़ नजर आने लगा। भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में भी है। खबरिया चैनलों के कैमरों के सामने नकली आंदोलन करके कुछ नेता विरोध की औपचारिकता जरूर पूरी कर लेते हैं, पर उससे लोग प्रभावित नहीं होते! राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, उनकी हर गतिविधि प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती!  कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है।   

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   इंदौर में पिछले करीब दो साल से अजीब सा राजनीतिक सन्नाटा है। न कोई हलचल, न राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के हथकंडे और न सालभर बाद होने वाले चुनाव को लेकर कोई तैयारी! कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में कहीं कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आती! प्रदेश में सरकार भाजपा की है, पर इंदौर का कोई भी भाजपा नेता शहर में अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर दिखाई नहीं देता! कहने को इंदौर में भाजपा के चार विधायक हैं और जिले में सात, फिर भी चारों तरफ खामोशी है। प्रदेश के मंत्रिमंडल में इंदौर का नेतृत्व क्या गायब हुआ, शहर की राजनीतिक जागरूकता को ही जंग लग गया! शुरू में समझा गया था कि ये सन्नाटा किसी बड़े तूफान के अंदेशे का संकेत है। लेकिन, अब लग रहा है कि शहर से धीरे-धीरे राजनीतिक चैतन्यता ही गायब हो रही है। कहा जा सकता है कि इससे पहले शहर में जो राजनीतिक हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से दिल्ली जाने के बाद से शहर की राजनीतिक जीवंतता को जैसे ग्रहण लग गया! 
  आज भी इस शहर में थोड़ी राजनीति तभी दिखाई देती है, जब कैलाश विजयवर्गीय इंदौर में नजर आते हैं। दरअसल, कोई नेता किसी शहर को कितनी ऊर्जा दे सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ! उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद से ही इंदौर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। ये चारों एक साथ भी तभी नजर आते हैं, जब कोई राजनीतिक मज़बूरी हो! महू से खुद विजयवर्गीय ही विधायक हैं, सांवेर और देपालपुर के विधायक भी हाशिए पर हैं। ये विधायक भी शहर भीड़ बढ़ाते तभी नजर आते हैं, जब पार्टी का कोई बड़ा नेता शहर में होता है। 
 पिछले दो दशक में कैलाश विजयवर्गीय अकेले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। लेकिन, अब लोग ये जरूर मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा ही अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है! आज भी उनके शहर में होने पर जो राजनीतिक ऊर्जा दिखाई देती है, वो सामान्य दिनों में नदारद ही रहती है।   
   दो-ढाई दशक पहले तक कैलाश विजयवर्गीय का कार्यक्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) इंदौर के सबसे पिछड़े इलाकों में था। परदेशीपुरा, नंदानगर, क्लर्क कॉलोनी, सुखलिया और मालवा मिल, कल्याण मिल को इंदौर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले लोग पिछड़ा इलाका कहते थे। इस बात से विजयवर्गीय अनभिज्ञ नहीं थे! उन्हें पता था कि गरीब मिल मजदूरों वाले उनके कार्यक्षेत्र से इंदौर के लोग कटकर रहते हैं। एक चुनावी सभा में विजयवर्गीय ने कहा भी था कि यदि में चुनाव जीता तो लोग खरीददारी के लिए राजबाड़ा जाना भूल जाएंगे! आज वो स्थिति आ भी गई! उन्होंने इस इलाके की कमान सँभालते ही पहला काम ये किया कि परदेशीपुरा, नंदानगर और पाटनीपुरा जैसे इलाके को व्यावसायिक रूप देना शुरू किया! धीरे-धीरे इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियाँ आकार लेने लगी! आज यहाँ सभी बड़े ब्रांड्स के शोरूम और दुकानें हैं। इंदौर के सराफा बाजार जैसी यहाँ सोने-चाँदी की कई बड़ी दुकानें हैं। अपने इलाके का चेहरा बदलने की कोशिश को सिर्फ राजनीति नहीं कहा जा सकता! कुछ मायनों में ये राजनीति तो थी, पर उसके पीछे दूरदृष्टि थी! जिस परदेशीपुरा के लोगों को अपना पता बताने में संकोच होता था, आज उन्हें वही पता बताने में फख्र होता है। दरअसल, ये एक नेता का स्तुतिगान नहीं, उनकी उस राजनीतिक शैली की बानगी है जिसका बाकी नेताओं में घोर अभाव नजर आता है। लेकिन, उनकी इस कार्य शैली की सराहना करने वाले कम, आलोचक ज्यादा हैं! 
  यदि बात कांग्रेस की राजनीति की जाए तो इंदौर में महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की है, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! कृपाशंकर शुक्ला आज भी हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। उनकी आवाज में अभी भी खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! महेश जोशी ने लम्बे समय तक अपने आपको राजनीति से अलग कर लिया था। लेकिन, पिछले करीब एक साल में फिर नजर आने लगे हैं। लेकिन, उनकी सक्रियता में कमी है। इसे उम्र का असर भी कहा जा सकता है, लेकिन उनकी जुबान का कड़वापन अब पार्टी के कार्यकर्ताओं को रास आएगा, इस बात में शंका है। क्योंकि, प्रदेश से कांग्रेस की सत्ता को गए पंद्रह साल हो गए और इस दौरान कार्यकर्ताओं की नई फ़ौज आ गई, जिसे कड़वी भाषा सुनने की आदत नहीं है। ऐसी स्थिति में शहर में वे फिर अपना असर कायम कर पाएंगे, ये नहीं कहा जा सकता।  
  शहर में राजनीतिक सन्नाटा बढ़ाने में कांग्रेस के बयानवीर नेताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। भाजपा सरकार के किसी भी फैसले और नीतियों पर सतही बयान देकर कांग्रेस के कुछ अखबारी नेता अपनी कॉलर भले खड़ी कर लेते हों, पर जमीन पर उनकी कहीं कोई पकड़ नहीं है। शहर में कांग्रेस का सिर्फ एक विधायक राऊ से जीतू पटवारी है। लेकिन, इंदौर में उसके समर्थक भी उँगलियों पर गिने जाने वाले चेहरों से ज्यादा नहीं हैं। जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गई है, सत्ता के गोंद से चिपके नेता भी आजाद हो गए! कांग्रेस गुटों में बंट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने  अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे! 
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Monday, November 13, 2017

कभी भी, कहीं भी मनोरंजन यानी 'वेब सीरीज'

- हेमंत पाल 

  आजादी से पहले और आजादी के बाद के कई सालों तक हमारे मनोरंजन का सिर्फ एक माध्यम था सिनेमा! जब भी किसी को लगता कि वो काम से थक गया है, उसके कदम सिनेमा की तरफ मुड़ जाते थे। फिर आया टेलीविजन का दौर। 80 के दशक के मध्य से टीवी ने अपने पंख फैलाए और घर के सदस्यों को एक कोने तक समेट दिया। तब से अभी तक टीवी की दुनिया में बहुत कुछ बदलता गया। फिर मोबाइल में फोन करने और सुनने के अलावा नए विकल्प खुले। दुनिया डिजिटल हुई तो घर के कोने में रखा बड़ा टीवी साढ़े पांच इंच के मोबाइल में समा गया! टीवी के दर्शक मोबाइल तक पहुँच गए। लेकिन, डिजिटल का अपना अलग आनंद है। यहीं से उपजा मनोरंजन का नया माध्यम 'वेब सीरीज!' अब आप कभी भी, कहीं भी मोबाइल फोन या लैपटॉप जरिए वेब सीरीज तक जा सकते हैं। 

  दरअसल, बड़े और छोटे परदे के बीच मनोरंजन का ये नया माध्यम मोबाइल की स्क्रीन पर उभर रहा है। ये गाने, गेम्स या फिल्में नहीं बल्कि सीरीज हैं। यानी सीरीयलनुमा छोटे-छोटे एपीसोड्स, जो सिर्फ ऑनलाइन ही उपलब्ध होते हैं। उन्हें मोबाइल, टैब या कम्प्यूटर पर ही देखा जा सकता है। ये सीरीज आज का यूथ बेहद पसंद करता है। इसका ट्रेंड इतनी तेजी से बढ़ा कि टीवी और फिल्मों के कई बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने में जुट गए। 
  अमेरिका में वेब सीरीज का चलन 2003 से है। लेकिन, हमारे देश में ये शुरुआती दौर हैं और इनके सब्जेक्ट यूथ तक सीमित हैं। लेकिन, उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में वेब सीरीज में हर किसी के लिए कुछ न कुछ होगा। इसमें दर्शकों के लिए मनोरंजन है, तो प्रोडक्शन हाउसेस के लिए पैसा भी! इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि यशराज, इरोज-नाऊ और बालाजी जैसे कई बड़े प्रोडक्शन हाउस वेब सीरीज बनाने लगे। कई कंपनियां तो फिल्म और टीवी के कंटेंट को सीरीज बनाकर मोबाइल पर ले आई! अमेरिकी घरों में फिल्म और सीरियल पहुंचाने वाली कंपनी ने अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ को भी वेब सीरीज में तब्दील कर अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचा दिया। 'यशराज' भी अपनी फिल्मों को इसी तरह उतारने की तैयारी में है। 
  समझा जा रहा है कि वेब सीरीज की पहुँच बहुत तेजी बढ़ेगी, क्योंकि कई कंपनियां इनमें बिजनेस की संभावनाएं देख रही हैं। इसे वेब क्रांति का नाम भी दिया जा रहा है। जैसे-जैसे वेब सीरीज के दर्शक बढ़ेंगे, उतनी ही तेजी से इसका बिजनेस बढ़ेगा। फिलहाल डिजिटल विज्ञापन का बाजार करीब 4 हज़ार करोड़ रुपए का है। वेब सीरीज को मिलने वाले विज्ञापनों से अब ये बाजार तेजी से बढ़ रहा है। यूवा  दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए और वेब सीरीज में वो उन्हें फ्री मिल रहा है। स्वाभाविक है कि इसके दर्शक तो बढ़ेंगे ही। लेकिन, वेब सीरीज के कंटेंट को हमेशा ताजा बनाकर रखना  है। क्योंकि, वेब या मोबाइल पर दर्शक का पूरा कंट्रोल होता है। वह मर्जी से अपना मनोरंजन चुन सकता है।
  फिल्म और टीवी के अलावा मनोरंजन के इस नए माध्यम का आसानी मिलने का है, जो न सिर्फ आसानी से उपलब्ध होगा, बल्कि समय की बाध्यता से भी मुक्त होगा। ये युवाओं को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। लेकिन, भविष्य में ये दौर बदलेगा और हर उम्र को ध्यान में रखकर काम होगा। वेब सीरीज का टारगेट फिलहाल युवा केंद्रित है, इसलिए इसकी भाषा में खुलापन भी ज्यादा है। इसलिए इसे पारिवारिक मनोरंजन नहीं कहा जा सकता। लेकिन, मोबाइल पर होने से यह माध्यम निजी मनोरंजन से जुड़ा है और दर्शक अपनी समझ से कंटेंट का चुनाव कर सकते हैं। इसे फिल्म या टीवी का विकल्प समझना भी गलती होगी। वास्तव में वेब सीरीज की असली टक्कर तो अपने आप से है। यदि दर्शकों को बेहतर कंटेंट मिलता रहा तो वे इसमें बंध जाएंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वेब सीरीज के दर्शकों के दिमाग से उतरने में देर नहीं लगेगी।
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Friday, November 10, 2017

दिग्विजय की नर्मदा परिक्रमा को यहाँ से देखिए!

- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश में इन दिनों राजनीति के बाजार में सबसे ज्यादा शोर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा का है। जो यात्रा गैर-राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक है, उसकी राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा है। भाजपा इस यात्रा के संभावित निष्कर्षों को भांपने कोशिश कर रही है, तो कांग्रेस में भी नए-नए कयास लगाए जा रहे हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस यात्रा में शामिल होने के बाद राजनीतिक विघ्नसंतोषियों की जुबान भी बंद है। स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी के पत्र ने संघ और भाजपा को परेशान कर दिया। इस यात्रा से दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता जिस तरह बढ़ रही है, उससे भाजपा के साथ कांग्रेस के नेता भी सहम गए! क्योंकि, विधानसभा चुनाव से पहले यदि दिग्विजय के राजनीतिक पुनर्वास के हालात मजबूत हो गए तो कई कांग्रेस नेताओं की नींव दरक सकती है। जबकि, भाजपा और संघ दोनों में इस यात्रा को लेकर घबराहट नजर आने लगी है। 
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  राजनीति से जुड़े हर नेता की नजर इस यात्रा पर लगी है। नर्मदा परिक्रमा के मायने ढूंढ जा रहे हैं। लेकिन, अभी तक किसी के हाथ ऐसा कोई सूत्र नहीं लगा, जिससे दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा की अबूझ तिजोरी को खोला जा सके! दिग्विजय ने खुद भी स्पष्ट कर दिया कि फिलहाल राजनीति पर कोई बात नहीं! अभी सिर्फ नर्मदा और परिक्रमा के बारे में चर्चा कीजिए। वे यात्रा के दौरान तो कोई राजनीतिक चर्चा नहीं कर रहे! पर, परिक्रमा के बाद वे सरकार पर बड़ा हमला बोलेंगे, ये तय है। दिग्विजय की इस यात्रा को राजनीति की चौंसर पर 'मास्टर स्ट्रोक' माना जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश के राजनीतिक हलकों में दिग्विजय सिंह लम्बे समय से खामोश हैं! उन्हें पता है कि मतदाताओं के बीच अभी उनकी छवि चुनाव जिताने वाली नहीं है। लेकिन, प्रदेश में सबसे बड़ी कांग्रेस लॉबी आज भी उनके पास है। गाँव-गाँव में उनके समर्थकों की फ़ौज है। इस परिक्रमा के बाद इसमें इजाफा हो रहा है।
  कांग्रेस मान रही है कि भले ही ये दिग्विजय की ये यात्रा निजी हो, पर इससे पार्टी को ताकत मिलेगी और विधानसभा चुनाव में पार्टी उभरकर सामने आएगी! लेकिन, जब कोई नेता धार्मिक या आध्यात्मिक यात्रा करे और राजनीति से विलग रहे, ये संभव नहीं है? राजनीति में चौंकाना हमेशा ही दिग्विजय सिंह का शगल रहा है। तय है कि असली दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा के बाद ही सामने आएंगे! तब उनके पास भाजपा सरकार के खिलाफ बोलने के लिए बहुत कुछ होगा! उनकी ख़ामोशी में भी एक गर्जना छुपी होती है, बस उसे सुनने और समझने वाले चाहिए! इस यात्रा के बाद जो दिग्विजय सिंह सामने आएंगे, वो शायद उनका नया रूप होगा। 
 नर्मदा परिक्रमा का अहम पहलू यह है कि दिग्विजय यात्रा पूरी होने तक नर्मदा का तट छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। ये शिवराजसिंह चौहान की उस शाही नर्मदा परिक्रमा से अलग है, जो टुकड़ों-टुकड़ों में जश्न माहौल में पूरी हुई थी। दिग्विजय ने अपनी इस यात्रा में कांग्रेस के झंडे तक का इस्तेमाल नहीं किया। क्योंकि, वे इस यात्रा पर कोई सियासी लेबल लगाना नहीं चाहते, पर यही वो तरीका था जिससे वो लगातार चर्चा में भी बने हुए हैं। उनकी नर्मदा परिक्रमा ने दलगत राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। इसका नतीजा ये हुआ कि आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा समर्थित लोग भी उनके स्वागत के लिए आगे आ गए। दिग्विजय की कार्यशैली दर्शाती है कि उनसे नेताओं के वैचारिक मतभेद राजनीतिक दलों की भिन्न विचारधारा की वजह से है, किसी दुश्मनी से नहीं! 
  दिग्विजय सिंह ने इस यात्रा को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप दिया है। यही कारण है कि वे राजनीतिक भेदभाव भी नहीं कर रहे। ये भी एक कारण है कि भाजपा में घबराहट है। परिक्रमा करते-करते वे भाजपा के बड़े नेता प्रह्लाद पटेल के घर भी पहुंच गए! प्रह्लाद ने मौका मिला तो नर्मदा भक्त होने के नाते वे भी इस परिक्रमा यात्रा में शामिल होंगे। भाजपा के पूर्व विधायक राणा रघुराज सिंह तोमर ने भी इस परिक्रमा के दौरान दिग्विजय सिंह का स्वागत करके सियासी हड़कंप मचा दिया। तोमर इन दिनों भाजपा की सक्रिय राजनीति से दूर हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह से मुलाकात के लिए वे राजनीति की स्क्रीन पर दिखाई दिए। दिग्विजय सिंह जब सिंगाजी पहुँचे तो राणा रघुराज सिंह तोमर उनके स्वागत में खड़े थे। तोमर को देखते ही दिग्विजय सिंह ने उन्हे गले लगा लिया।
   भाजपा और संघ में इसलिए भी तनाव है कि हरिद्वार स्थित भारत माता मंदिर के संस्थापक और पूर्व शंकराचार्य ज्योर्तिमठ स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि ने दिग्विजय सिंह को पत्र लिखकर उनकी नर्मदा परिक्रमा की सराहना की। सत्यमित्रानंद को संघ के काफी नजदीक माना जाता है। अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि नर्मदा की परिक्रमा का महत्व हमारे शास्त्रों में वर्णित है। यह यात्रा एक आदर्श की स्थापना में सहायक होगी! मेरी नर्मदा माता से प्रार्थना है कि वे आपका मनोरथ पूरा करने की कृपा करें। सत्यमित्रानंद ने अपने पत्र में परिक्रमा में शामिल होने की भी इच्छा भी व्यक्त की। जवाब में दिग्विजय ने उन्हें लिखा कि आपकी उपस्थिति और प्रत्यक्ष आशीर्वाद मेरे लिए एक अद्वितीय और अनमोल उपहार होगा। लेकिन, आपके स्वास्थ्य और हरिद्वार से मां नर्मदा के तट की दूरी को दृष्टिगत रखते हुए मैं आपसे प्रार्थना करूंगा कि आप इतनी दूर आने का कष्ट न उठाएं! परिक्रमा पूरी होने पर आशीर्वाद के लिए मैं स्वयं हरिद्वार आऊँगा। सत्यमित्रानंद गिरी और दिग्विजय सिंह के बीच पत्राचार की खबर के सामने आने के बाद संघ में हलचल हुई, उसकी लहर को सभी ने महसूस किया। इस पत्राचार के तत्काल बाद संघ प्रमुख मोहनराव भागवत ने अपनी इंदौर यात्रा के दौरान स्वामी सत्यमित्रानंद से मुलाकात की, जिसके ख़ास मायने हैं।
  दिग्विजय सिंह की छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले ये नहीं समझा गया था कि ये खामोश यात्रा सियासत को झकझोरने लगेगी! पर ये होता दिखाई देने लगा है। जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ती जा रही है, उसके सियासी मंतव्य खोजे जाने लगे हैं। इसके चलते संघ और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होता दिखाई देने लगा है। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बना रखी है! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा जा रहा है। सरकार भी इस परिक्रमा पर नजर रखने में कोई कोताही नहीं बरत रही। सरकार पर यात्रा के असर का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है, कि कई अधिकारियों ने लाइव अपडेट के लिए दिग्विजय सिंह के 'फेसबुक' पेज को लाइक किया है। परिक्रमा से पहले सरकार इस मसले पर तवज्जो नहीं दे रही थी, लेकिन अब वो स्थिति नहीं है।
  इस यात्रा में पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के शामिल होने के बाद इसके सियासी मतलब निकाले जाने लगे हैं। लेकिन, यदि ज्योतिरादित्य और कमलनाथ नहीं आते, तो दूसरी तरह की चर्चाओं का दौर चलता। ज्योतिरादित्य खंडवा जिले के मोरटक्का में दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा में शामिल हुए और करीब 7 किलोमीटर साथ चले। जबकि, कमलनाथ खरगोन जिले के कसरावद क्षेत्र में इस यात्रा का हिस्सा बने। दोनों कांग्रेस नेताओं ने नर्मदा परिक्रमा को दिग्विजय की संकल्प यात्रा बताया। इस पूरे घटनाक्रम पर राजनीति को समझने वालों नजर रही। क्योंकि, ये तीनों बड़े नेता प्रदेश में कांग्रेस में सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी माने जाते हैं। इन तीनों के साथ आने से जहाँ कांग्रेस को ताकत मिली, वहीं भाजपा की रात की नींद भी हराम हुई है। क्योंकि, ये मिलन कहीं न कहीं भाजपा के लिए परेशानी का कारण बन सकता है। 
  अपनी सियासी मुखरता के लिए चर्चित दिग्विजय सिंह की परिक्रमा के दौरान ख़ामोशी को गंभीरता से समझा जा रहा है। परिक्रमा के दौरान राजनीति को लेकर मीडिया के सवालों पर उनका मौन किसी बड़े धमाके का संकेत है। वे बाद में भी खामोश रहेंगे, वे ऐसा भी नहीं भी नहीं कहते! लेकिन, वे जो बोलेंगे वो सरकार के लिए बड़ी परेशानी का कारण ही बनेगा। यह यात्रा मध्यप्रदेश के 110 और गुजरात के 20 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरेगी। जब ये नर्मदा परिक्रमा प्रदेश के करीब आधे विधानसभा क्षेत्रों की जमीनी हकीकत का जायजा लेकर बरमान घाट पर पूरी होगी, तब चुनाव की बिसात बिछ चुकी होगी। इसके बाद जब दिग्विजय सिंह अपने वादे के मुताबिक़ खुलासे करेंगे, तब चुनाव सामने होंगे। दिग्विजय सिंह खुद तो चुनाव नहीं लड़ेंगे, मगर चुनाव में वो जो बोलेंगे उसके कुछ ठोस मायने होंगे, जिनका भाजपा के पास जवाब नहीं होगा! इस परिक्रमा के बहाने मध्यप्रदेश की राजनीति में वो चेहरा फिर प्रासंगिक हो गया जिसे दौड़ से बाहर समझ लिया गया था।
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Sunday, November 5, 2017

इस बार का 'बिग बॉस' पटरी से उतरा!

- हेमंत पाल 

  'बिग बॉस' एक समय टेलीविजन के सबसे लोकप्रिय रियलिटी शो में था। दर्शकों को इस शो का आठ महीने तक इंतजार होता था। लेकिन, लगता है अब ये शो दर्शकों की नजर से उतर रहा है। अभी तक इस रियलिटी शो के दस सीजन आ चुके हैं, ग्यारहवां सीजन हाल ही में शुरू हुआ। कलर्स चैनल पर आ रहा ये शो नीदरलैंड के 'बिग ब्रदर' का भारतीय संस्करण है। 'बिग बॉस' ऐसा शो है जिसमें बीस से ज्यादा प्रतियोगियों को एक साथ एक ही घर में लगभग तीन महीने रहना पड़ता है। बाहरी दुनिया से इनका कोई संबंध नहीं होता! इन्हें न तो समय का पता होता है न दिन का! इन पर सौ से ज्यादा कैमरे नजर रखते हैं और एक अज्ञात व्यक्ति इस शो को संचालित करता रहता है! इसी का नाम 'बिग बॉस' है। इस व्यक्ति की मौजूदगी केवल आवाज़ से प्रतीत होती है। इस घर में रहने के कुछ सख्त नियम-कायदे हैं, जिनका सभी को पालन करना होता है। कभी भी कोई नियम हटाया या बदला नहीं जा सकता! यही कारण है कि ये रियलिटी शो लोकप्रिय हुआ।  

  'बिग बॉस' के नौ सीजन में सिर्फ सेलिब्रिटी को ही प्रतियोगी बनाया जाता था। लेकिन, पिछले शो से प्रतियोगियों में आम लोगों को भी शामिल करने का सिलसिला शुरू हुआ! जितने सेलिब्रिटी थे, उतने ही आम लोग! लेकिन, पिछली बार आम लोगों में दो ऐसे बदमिजाज प्रतियोगी थे, जिन्हें बीच शो से होस्ट सलमान खान ने बाहर किया था। 'बिग बॉस' के सीजन-11 की शुरूआत करते हुए सलमान खान ने अपने सभी प्रतियोगियों को सख्त हिदायत दी थी कि कोई भी प्रतियोगी किसी तरह की बदतमीजी न करें! किन्तु, लगता है सलमान की इस हिदायत का किसी प्रतियोगी पर असर नहीं हुआ! इस बार भी शो के एक प्रतियोगी जुबैर खान को पहले ही हफ्ते में बाहर किया गया। जुबैर ने खुद को दाऊद की बहन हसीना पार्कर का करीबी बताया और घर में बदतमीजी की। जुबैर को उसके खराब व्यवहार के कारण शो से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। आकाश ददलानी ने भी खुद को संगीतकार विशाल ददलानी के खानदान का होने का दावा किया था। ऐसा ही कुछ झूठ अर्शी खान भी बोल चुकी है। 
  पिछले शो में दो लोग ही बदतमीज थे, इस बार अधिकांश प्रतियोगी झगड़ालू, बदतमीज और नकचढ़े हैं। सबसे ज्यादा बदमिजाज महिला प्रतियोगी शिल्पा शिंदे, अर्शी खान, सपना चौधरी और हिना खान हैं।  जबकि, पुरुष प्रतियोगियों में आकाश ददलानी, प्रियांक भी इसी श्रेणी के हैं। दो प्रतियोगी शिल्पा और विकास गुप्ता के बीच पुराना विवाद है जो 'बिग बॉस' के घर में नए सिरे से पनप गया! इसमें भी शिल्पा की चीख और चिल्लाहट दर्शकों को भी खलने लगी है। जिस तरह की भाषा इस रियलिटी शो में बोली जा रही है, वो सामान्य तौर पर सभ्य घरों में नहीं बोली जाती।      
 ऐसी ही एक प्रतियोगी है हिना खान। टीवी पर जब 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' सीरियल शुरू हुआ था, तब दर्शकों ने अक्षरा के किरदार में हिना खान को पसंद किया था। उसमें उन्हें आदर्श भारतीय बहू नजर आई थी! लेकिन, जब से दर्शकों ने हिना को 'बिग बॉस' में देखा, उससे चिढ़ सी होने लगी! अक्षरा का जो किरदार दिलों पर चढ़ा था, उसे उतरने में महीना भर नहीं लगा! अक्षरा सिर्फ एक किरदार था और 'बिग बॉस' की हिना असलियत है। 'बिग बॉस' का इतिहास बताता है कि यहाँ जिसकी भी नकारात्मक छवि बनी है वो परदे पर फिर ज्यादा दिन दिखाई नहीं दिया! क्योंकि, किरदार वाले जिस चरित्र को दर्शक वास्तविकता में ढूंढते हैं, वो तो सामने आ चुका होता है।    
 वाइल्ड कार्ड के जरिए घर में एंट्री लेने वाली यूट्यूब की अटपटी गायिका ढिंचैक पूजा का 'बिग बॉस' के घर में भद्दा मजाक उड़ चुका है अर्शी और हिना खान ने तो पूजा के सिर में जूं होने तक की बात कह दी। दरअसल, 'बिग बॉस' के घर में कब क्या हो जाए, कुछ भी कह पाना मुश्किल है! यहाँ कौन किसके साथ दुश्मनी कर बैठे या किसका दिल किससे जुड़ जाए इसका भी पता नहीं। अभी तक आए दस सीजन में दो हफ्ते बाद रोचकता आने लगती थी, पर इस बार के सीजन में सिवा विवाद, झगडे और छेड़छाड़ के और कुछ दिखाई नहीं दे रहा! इस बार शो में जिस तरह के प्रतियोगियों को चुना गया है, वो सही नहीं लगते! शो की निर्माण कंपनी इंडेमोल को यदि शो की लोकप्रियता को बनाए रखना है तो उन्हें भविष्य में प्रतियोगियों के चुनाव में सावधानी बरतना पड़ेगी। 
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Friday, November 3, 2017

शिवराज सिंह के सड़क सौंदर्य बोध की असलियत!



- हेमंत पाल 

सौंदर्य बोध का अपना अलग ही नजरिया है। कहते हैं कि सौंदर्य देखने वाले की आँखों में होता है। यदि कारण है कि प्रेम को सौंदर्य से जोड़कर देखा जाता है। जब किसी को किसी से प्रेम हो जाता है तो वो उसे दुनिया में सबसे खूबसूरत लगता है। फिर वो खूबसूरत हो या नहीं! शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने प्रदेश प्रेम में इतना वशीभूत हो गए कि यहाँ की सड़कों की तुलना अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन की सड़कों से कर दी! ये सच होता तो लोग इस बयान पर खुश भी होते! पर, इस बयान की जिस तरह धज्जियाँ उड़ी, उससे सच सामने आ गया। प्रदेश की सड़कों से जुड़े आंकड़े और सड़क हादसों की सच्चाई भी बताती कि मुख्यमंत्री ने जो दावा किया वो गलत था। प्रदेश की सड़कों के प्रति ये उनका छद्म नजरिया और महज सौंदर्य बोध था।

  मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के अमेरिका में सडकों को लेकर दिए गए बयान ने भूचाल ला दिया! शुरू में लगा कि ये बात उनके मुँह से अचानक निकल गई होगी! लेकिन, वे प्रदेश लौटकर भी अपने बयान पर कायम रहे। मुख्यमंत्री ने यह दावा भी कर दिया कि अमेरिका की वाशिंगटन की 92 फीसदी सड़कें खराब हैं। अपनी बात को सही साबित करने शिवराज सिंह ने ये भी कहा कि मैं यह बात पूरी गंभीरता से कहना चाहता हूँ कि मैं अमेरिका मध्य प्रदेश की ब्रांडिंग करने गया था। लेकिन, यहीं भ्रम भी उत्पन्न होता है कि ये बात सिर्फ ब्रांडिंग के नजरिए से कही गई थी या इसमें कुछ सच्चाई भी है? क्योंकि, उन्होंने मध्यप्रदेश की बेहतर सड़कों के उदाहरण में इन्दौर हवाई अड्डे से सुपर कॉरिडोर सड़क से शहर की और जाने वाली सड़क का जिक्र किया! जबकि, ये 10-12 किलोमीटर की ऐसी सड़क है कुछ समय पहले बनी है जो यदा-कदा ही उपयोग आती है। ये आम रास्ता भी नहीं है और ये इंदौर का ही एक हिस्सा है। 
  इस सड़क के सौंदर्य बोध से अभिभूत होकर मुख्यमंत्री ने वाशिंगटन की सड़कों की तुलना पूरे मध्य प्रदेश से कर दी, ये बात किसी के गले नहीं उतरी। इसके अलावा उन्होंने दबी जुबान से इंदौर-भोपाल और इंदौर-मंदसौर जाने वाली सड़क का भी नाम लिया। जबकि, ये दोनों ही सड़कें कहीं से भी वाशिंगटन की एक गली की सड़क से भी बेहतर नहीं हैं। मुख्यमंत्री ने जब अमेरिका में प्रदेश की सड़कों के बारे में तारीफों के पुल बांधे तब क्या उनके जहन में इंदौर-अहमदाबाद की दुर्दशा ख्याल नहीं था? ये सड़क सात साल पहले बनना शुरू हुई थी, पर आज भी अधूरी है। पिछले साल कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया ने संसद में भी ये मुद्दा उठाया था। उस दौरान सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने 31 जुलाई 2016 तक सड़क का काम पूरा होने की बात कही थी, लेकिन ये अभी तक भी पूरा नहीं हुआ। 1 जून को कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया ने अपना जन्मदिन न मनाते हुए कार्यकर्ताओं के साथ एनएच-59 हाइवे पर धरना-प्रदर्शन किया था। सांसद ने सड़कों की दुर्दशा को लेकर अधिकारियों के सामने रोष भी जताया था, लेकिन न कुछ होना था और न हुआ! 
  जब विपक्ष और मीडिया ने मुख्यमंत्री के इस बयान का छिद्रान्वेषण किया तो शिवराज सिंह ने कहा कि विपक्ष के हमारे मित्रों को हर चीज में राजनीति दिखती है। ये बात समझ से परे है कि जब कोई राजनीतिक व्यक्ति खुद की तारीफ में झूठे कसीदे काढ़ेगा तो उस पर क्या टिप्पणी भी नहीं की जा सकती? भोपाल लौटकर मुख्यमंत्री ने दावा किया कि प्रदेश में पिछले कुछ वर्षो में लगभग 1.5 लाख किलोमीटर नई सड़कों का निर्माण हुआ है। लेकिन, इसमें से कितने किलोमीटर सड़कें विश्वस्तरीय हैं? पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने ट्वीट के साथ राजधानी भोपाल की सड़कों की कुछ फोटो भी मुख्यमंत्री के दावे के बाद पोस्ट किए। सिंधिया ने लिखा कि कोई इनकी आंखों की पट्टी उतारे! शिवराजसिंह चौहान आंखे खोलिए और सच का सामना कीजिए, ये हकीकत है।
  सवाल ये भी उठता है कि जब प्रदेश की सड़कें वाशिगटन से अच्छी है तो फिर सड़क हादसे क्यों हो रहे हैं? इसका दोषी कौन है?मध्यप्रदेश में सड़क हादसों में रोज औसतन 27 लोगों की जान क्यों जाती है? इसलिए मुख्यमंत्री का दावा किसी के गले नहीं उतर रहा। जबकि, सरकार ने प्रदेश को 2020 तक सड़क दुर्घटना मुक्त करने का दावा किया है। देश में सड़क दुर्घटनाओं के मामले में तमिलनाडु के बाद मध्यप्रदेश दूसरे नंबर पर है। प्रदेश में हर 10 मिनट में एक सड़क हादसा होता है और हर घंटे एक की मौत होती है। कुछ साल पहले तक इस मामले में मध्य प्रदेश चौथे स्थान पर था। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत जानकारी में बताया गया कि 2014 से 2016 के बीच प्रदेश में कुल 1,32,498 सड़क दुर्घटनाएं हुर्इं। इसमें 28,911 लोगों की जान गई। वहीं देश में इस अवधि में 4,72,029 दुर्घटनाओं में 1,51,689 लोग मारे गए। गृह राज्य मंत्री द्वारा पेश रिपोर्ट के मुताबिक, मप्र में 2016 में 51,941 सड़क हादसे हुए, जो गत वर्ष की अपेक्षा 12.72 प्रतिशत ज्यादा है। इसमें 9,861 लोगों की मौत हुई।
 मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के अमेरिकी दावे के बाद उनको ट्रोल करने वालों ने उनके निर्वाचन क्षेत्र बुधनी से गुजरने वाले हाईवे तक की फोटो पोस्ट की। कुछ समय पहले इस सड़क से ऋषि कपूर ने भी सफर किया था और सड़क की हालत पर जमकर खिंचाई की थी। ऐसे ही शिवपुरी की सड़कों के बारे में हेमामालिनी ने टिप्पणी की थी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के निर्वाचन क्षेत्र विदिशा को बीना से जोड़ने वाली टोल रोड के फोटो भी वायरल हो रहे हैं। भोपाल को आसपास के जिलों से जोड़ने वाली अधिकांश सड़कें भी बदतर हालत में हैं। इंदौर से खंडवा जाने वाली सड़क तो जानलेवा है। धार जाने वाली सड़क भी आधी बदतर है। झाबुआ के आसपास की तो करीब सारी सड़कें गड्ढ़ों में उतर गई!
    सड़कों को लेकर मध्य प्रदेश हमेशा ही बदनाम रहा है। 2003 से पहले दिग्विजय सिंह सरकार के दौरान भी प्रदेश की सबसे ज्यादा छीछालेदर सड़कों को लेकर ही होती थी। आज भी हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। लोक निर्माण विभाग, मप्र ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण, ग्रामीण यांत्रिकी विभाग इन तीनों ने मिलकर प्रदेश में घटिया सड़कों का जंजाल बुन दिया है। लोक निर्माण विभाग की बनाई  63,637 किमी सड़क और ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण द्वारा बनाई 15,200 सड़कों की आज हालत बदतर है। प्रदेश में शहरों और ग्रामीण क्षेत्र की करीब 4 हज़ार किमी सड़कें तो खराब हैं ही राष्ट्रीय राजमार्ग और प्रदेश राजमार्ग की 1600 किमी सड़कें बदतर है। प्रदेश के कई जिलों में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना से तैयार सड़क नेटवर्क तो लगभग ख़त्म हो चुका है। लेकिन, सरकार का पूरा ध्यान सिर्फ शहरी क्षेत्र की सड़कों को सुधारने में हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से तैयार सड़कों में से 140 सड़कें तो पूरी तरह ख़त्म हो चुकी। इन सड़कों की बदहाली की रिपोर्ट तो प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुँच गई!   
  प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़कों के निर्माण के लक्ष्य में भी मध्यप्रदेश पीछे है। सन 2016-17 में प्रदेश के पास 6200 किमी की सड़क बनाने का लक्ष्य था, लेकिन ये समय पर पूरा नहीं हो पाया! यही नहीं बसाहटों को जोडऩे के मामले में भी मध्यप्रदेश काफी पीछे है। पिछले वित्त वर्ष में 2450 बस्तियों को सड़कों से जोड़ऩे का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन, ये लक्ष्य भी पूरा नहीं हुआ। आंकड़ों की नजर से देखा जाए तो मध्यप्रदेश अभी लक्ष्य से आधा काम भी नहीं हो पाया। फिर भी मुख्यमंत्री का ये दावा कि हमारी सड़कें वाशिंगटन से बेहतर हैं, मजाक से ज्यादा नहीं लगता। लेकिन, चुनाव से पहले मुख्यमंत्री ने विपक्ष को बैठे-ठाले एक गरमागरम मुद्दा थाली में परोसकर दे दिया। तय है कि अब सड़क के नाम पर सड़क पर राजनीति होगी! 
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