Monday, May 27, 2019

'मौन' में छुपी वाचालता को पहचानिए!

  

 'मौन' क्या है, खामोश रहना या फिर बोलने की क्रिया का बंद हो जाना? वास्तव में ये 'मौन' जीवन की आंतरिक शक्ति है। देखा जाए तो वर्तमान दौर में बोलना एक कला है। व्याख्यान, संभाषण, उपदेश और वाकपटुता इसी कला के अलग-अलग आयाम हैं! किंतु, सबसे बड़ा है मौन रहना! क्योंकि, मौन की ताकत आपके बोल व्यवहार से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है। मौन रहना या मौन रह पाना साधना के साथ वरदान भी है! मौन में सत्य को पहचानने और उसके परीक्षण की अद्भुत शक्ति होती है। जो व्यक्ति 'मौन' धारण करता है, उसकी विजयी होने की संभावना ज्यादा होती है! क्योंकि, प्रतिद्वंदी उसकी शक्ति को भांप नहीं पाता। वाचालता की स्थिति में चिंतन और शब्दों का चयन विपरीत भाव में रहते हैं! क्योंकि, तब बोलने के साथ ही सुनने की क्रिया भी आरंभ हो जाती है। यह स्थिति मानसिक धरातल पर अवरोध पैदा करती है और आत्मशक्ति घटाती है! ऐसे में एकाग्रता भी भंग होती है। अभिव्यक्ति की आजादी व बड़बोलेपन की पराकाष्ठा के बीच भी 'मौन' की शक्ति कभी कम नहीं है! 
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- हेमंत पाल 

    इंसान की पहचान पहले उसके काम और उसके बाद बोल व्यवहार से होती है। ऐसे कई अवसर आते हैं, जब व्यक्ति के बोल, उसके ज्ञान, आचार-विचार, व्यवहार एवं व्यक्तित्व को दर्शाने का माध्यम बनता है। इसके विपरीत कई बार ऐसे भी हालात बनते हैं, जब व्यक्ति का बोलना ही विवाद का कारण बन जाता है! सवाल उठता कि तब क्या किया जाए? अपनी बात को ज्यादा तार्किक ढंग से कहा जाए या मौन रहा जाए? बेहतर होगा कि ऐसी स्थिति में चुप रहे! क्योंकि, कई बार हम गुस्से, तनाव या मानसिक दबाव के हालात में लोगों को चुप रहने की सलाह देते हैं। ये कदम अच्छा भी है! लेकिन, क्या खुद उस पर अमल करते हैं? कई बार हमें खुद अफ़सोस होता है कि काश उस वक़्त हम चुप रहे होते!
    इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिन मामलों की रचनात्मक उपयोगिता न हो, वहाँ मौन रहा जाए! घर और बाहर हर जगह ये आत्म-अनुशासन बेहद जरुरी है। छोटी-छोटी बातें, जैसे कौन आया और कौन नहीं, किसने क्या पहना, क्या बनाया, क्या खाया, देर से क्यों आई, जल्दी क्यों चली गई वगैरह! ऐसी टीका-टिप्पणी व्यर्थ होती हैं! इस पर बहस भी की जाए तो वह व्यक्ति की नासमझी ही दर्शाती है। मौन की एक वजह यह भी है कि जब तक किसी मामले की ठोस और सप्रमाण जानकारी न हो, बहस करने के बजाए चुप रहना ही बेहतर है। यदि ऐसे में बहस की जाए तो उससे अपनी छवि ही धूमिल होगी। ऐसे वक़्त में विपक्षी अपने तर्क की सत्यता साबित कर दे, तो उसे सहजता से स्वीकार किया जाए और बहस पर पूर्णविराम लगा दें, अन्यथा आप कुतर्क करने वाले कहलाएंगे।
कबीरदास ने भी कहा है : 
     कबीरा यह गत अटपटी, चटपट
     लखि न जाए,
     जब मन की खटपट मिटे, 
     अधर भया ठहराय!
 (इसका अर्थ है, होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें और शांत होंगे जब मन में खटपट मिट जाएगी। हमारे होंठ भी ज्यादा इसीलिए चलते हैं, क्योंकि मन अशांत रहता है। जब मन अशांत है, तो होंठ चलें या न चलें कोई फर्क नहीं पड़ता! क्योंकि, मूल बात तो मन की अशांति से है, जो बनी हुई है)
   सभी जानते हैं कि शरीर का सबसे जटिल और ताकतवर हिस्सा है हमारा दिमाग! व्यायाम से शरीर को फायदा होता है, उसी तरह दिमाग को सबसे ज्यादा लाभ चुप रहने या मौन रहने से होता है। बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो मौन एक तरह से दिमाग की सर्विसिंग वाली क्रिया है। चुप रहना सिर्फ जुबान को आराम देना नहीं है! बल्कि, ये एक तरह साधना है और साथ ही एकाग्रता भी! कल्पना कीजिए कि आप किसी शांत स्थल पर ध्यान कर रहे हों, तभी आपके शरीर के किसी अंग पर खुजली होने लगती है। आप उसी अवस्था में अपनी उँगलियों को सक्रिय करते हैं और खुजली मिटा लेते हैं! लेकिन, विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए! आपको व्यवधान में भी ध्यान की आदत डालना हो, तो इस अवस्था को टालना ही बेहतर होगा! ठीक वैसे ही कि जब और जहाँ हमें लगे कि बोला जाना चाहिए, वहां मौन रहें!
  बोलने के मौके पर मौन धारण कर लेना, आसान बात नहीं है! ये एक तरह की साधना है़। मनोविज्ञान के जानकार और करियर विशेषज्ञ भी ज्ञान और स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए एकाग्रता और शांतमन को प्राथमिकता देते हैं। मन का शांत रहना मौन से ही संभव है! जब हम कुछ समय के लिए दिमाग और जुबान दोनों से मौन रहते हैं, तो हम अपने आपसे ही बात करते हैं। दरअसल, ये वक़्त आत्ममूल्यांकन की तरह होता है। इससे नई मानसिक ऊर्जा प्राप्त होती है़ और इस सकारात्मक ऊर्जा के लिए जीवन में ये सबसे आसान उपाय है। मनोविश्लेषक केली मैकगोनिगल का मानना है कि जब हम मौन रहते हैं, तभी दिमाग में सकारात्मक विचार आते हैं! इन विचारों को हम बाद में अमल में लाते हैं। इसी से हमारे भीतर सकारात्मक प्रवृत्ति निर्मित होती है। 
  ये व्यक्ति की सामान्य कमजोरी होती है कि वह कभी अपना अपमान नहीं सहता! कभी ऐसे हालात होते भी हैं तो खुद को चुप रख पाना मुश्किल होता है। लेकिन, ऐसे में भी कुतर्क करने से अच्छा है कि मौन साधा जाए! जो व्यक्ति आपके बारे में अनर्गल बातें कर रहा है, उसे उसी की भाषा में जवाब देने से दोनों के लिए परिणाम गलत ही निकलेगा। अच्छा हो कि ऐसे में बड़प्पन दिखाएं और मौन रहकर उसे उसी के हथियार से हरा दें। एक और बात, जब कोई दूसरा बोल रहा हो, तो उसे मौन रहकर सुना जाए! ये किसी भी वार्तालाप का प्राथमिक सिद्धांत है। लेकिन, जीवन में ऐसा कभी होता नहीं है! ये सिद्धांत लोग अकसर भुला देते हैं। एक बेहतर वार्तालाप के लिए भी जरुरी है कि मौका आने पर आप अपनी बात बताएं, लेकिन जब दूसरा बोले तो आप भी उसकी बात को पूरी तरह सुनें! उससे भी ज्यादा जरूरी है कि जब कोई और वार्तालाप में शामिल हो, तो उसे टोके नहीं! अकसर देखा जाता है कि वार्तालाप के दौरान कुछ लोग अपने अतिरेक ज्ञान को दर्शाने की कोशिश करते हैं! लेकिन, उनका ज्ञान ज्यादा देर छुप नहीं पाता और उजागर हो जाता है! अच्छा हो कि हम उनके ज्ञान की गंगा को बहने दें, ताकि अंततः वो उसी में डूबने भी लगे!
   मौन का मतलब यह नहीं होता कि मुँह बंद रखा जाए! असल बात है मन से और दिमाग से मौन रहना! यदि किसी दबाव में चुप रहा जाए, तो उसमें सकारात्मकता नहीं आती! जब आप खुद को बहुत ज़्यादा महत्व नहीं देंगे, तभी ये स्थिति आएगी और मौन रहने में कोई अड़चन भी नहीं होगी! अगर आपको ये अहम्ल है कि मैं क्यों चुप रहूँ, मैं भी जवाब दे सकता हूँ तो फिर ये साधना नहीं है! एक बात ये भी है कि मौन रहना हमारे सोच की शक्ति को बढ़ाता है़! इसलिए साधना के सभी पंथ में मौन की अहमियत को स्वीकारा गया है। हमारी कार्य संस्कृति में सिर्फ उत्पादकता की बात की जाती है। पूछा जाता है कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है या आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं? इस सवाल के मूल में एक ही तत्व रहता है 'क्या किया जा सकता है?' इसका जवाब हमें वाचालता से नहीं, मौन में मिलता है! हमारा मौन हमें मानसिक विचलन की स्थिति से कुछ समय के लिए स्वतंत्रता देता है। कई बार यही मौन ज्यादा उत्पादकता का माध्यम बनता है। 
   मौन का अर्थ है अंदर और बाहर दोनों तरफ से चुप रहना! जबकि, आमतौर पर हम ‘मौन’ का अर्थ ये लगाते हैं कि जुबान खामोश रहे! वास्तव में ये बड़ा ही सीमित अर्थ है। किसी के शब्दहीन हो जाने का तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वो चुप हो गया! वास्तव में वो निःशब्द होकर भी चिल्ला रहा है, शब्दहीन है पर चीख रहा है। ... बस उसके शब्द हमारे कानों तक नहीं पहुँच रहे हैं। वो बोल तो रहा है, पर आवाज़ नहीं आ रही। दरअसल, शब्दहीनता और ध्वनिहीनता को मौन न समझा जाए! वास्तविक मौन है, मन का शांत होना! आंतरिक ख़ामोशी में लगातार शब्द मौजूद भी रहें, तो भी मौन बना रहता है। उस मौन में कुछ बोलते भी रहो, तो मौन पर कोई फर्क नहीं आता! ये भी याद रखा जाना चाहिए कि मौन का महत्व इसलिए है कि भाषा की भी अपनी विकृतियां हैं। ऐसी स्थिति में वही व्यक्ति चुप रह सकता है, जो अंदर से मजबूत हो! क्योंकि, आंतरिक कमजोरी और अल्पज्ञता ही वाचालता के लिए विवश करती है। कमजोर मन और क्षीण अभिव्यक्ति वाला व्यक्ति ही अपनी बात कहने के लिए लालायित होता है। व्यक्ति की वैचारिकता जब परिपक्व होने लगती है, तो उसकी सुनने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है! उसका बोलना स्वत: घट जाता है। मौन का आशय सर्वथा ये नहीं होता कि बोला ही न जाए! बोलते रहने पर भी मौन भाव बना रहता है, यानी अनावश्यक न बोला जाए! संयमित भाषा भी मौन के समान ही है। कब बोलना, क्या बोलना जैसी बातें भी व्यक्ति को तभी स्मरण रहती हैं, जब वो बोलते हुए भी मौन की मर्यादा का पालन करता है। क्योंकि, मौन का मर्यादा से भी संबंध है। मर्यादित आचरण तभी संभव है, जब मौन का पालन किया जाए!
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वाद, विवाद और बॉलीवुड!

- हेमंत पाल

   बॉलीवुड से जुड़ा हर व्यक्ति अपनी कला से ही चर्चित हो, ये जरुरी नहीं! कुछ लोग अपनी हरकतों, विवादस्पद बयानों और ऐसे ही कुछ क़दमों के कारण ख़बरों में बने रहते हैं। ये सिर्फ बॉलीवुड में ही नहीं होता, हर क्षेत्र में होता रहा है। लेकिन, बॉलीवुड से जुड़ी सेलिब्रिटी की हवा ज्यादा जल्दी फैलती है! क्योंकि, ये लोग हर वर्ग के लोगों की नजर में होते हैं और हमेशा कैमरे की नजर में होते हैं! यही कारण है कि इनकी छोटी-छोटी बातें भी बड़े विवाद की तरह चर्चित हो जाती है! कई बार इनकी बातें गैर-फ़िल्मी भी होती है, पर उन्हें खबर बनते देर नहीं लगती!  
  इस श्रृंखला में ताजा मामला विवेक ओबरॉय का है। उन्होंने लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल से ऐश्वर्या रॉय बच्चन को जोड़ते हुए सोशल मीडिया पर एक मीम शेयर किया! इस मीम में ऐश्वर्या के अलावा सलमान खान, अभिषेक बच्चन और आराध्या बच्चन की भी तस्वीरें थीं। विवेक के इस ट्वीट शेयर करने पर सोशल मीडिया में भूचाल आ गया! बॉलीवुड के कई कलाकारों ने विवेक ओबेरॉय को खुलकर नसीहत दी। शुरू में तो बच्चन परिवार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, पर दो दिन बाद अमिताभ बच्चन ने एक ट्वीट साझा कर उस मामले पर अपना अप्रत्यक्ष दृष्टिकोण रखा! उन्होंने ट्वीट किया कि ’सोशल मीडिया पर सोच समझकर ज़िक्र करो, ए दोस्त कहीं सामाजिक ऐतबार से ग़ैर मुनासिब ना हो! 
   विवेक के इस कदम पर सोनम कपूर, कीर्ति खरबंदा, ज्वाला गुट्टा और उर्मिला मातोंडकर ने भी विरोध जताया। विवेक के ट्वीट शेयर के बाद उर्मिला ने जवाबी ट्वीट किया ‘बहुत शर्मनाक! ये बहुत ही बुरा टेस्ट है। विवेक ओबेरॉय ने काफी अनुचित पोस्ट की! अगर आप महिला और छोटी बच्ची से माफी नहीं मांग सकते, तो कम से कम उस पोस्ट को हटाने की शिष्टता तो दिखाइए!' इस मीम विवाद पर शुरू में विवेक ने कहा कि इसमें मेरी गलती क्या है, जो मैं माफी मांगू? लेकिन, जनता के गुस्से और महिला आयोग की सक्रियता के बाद विवेक सहम गए! उन्होंने माफी मांगते हुए विवादित ट्वीट डिलीट भी कर दिया! क्योंकि, उन्हें समझ आ गया था कि जो गलती हुई है, उसे लेकर बहस नहीं की जा सकती! विवेक ने अपनी पोस्ट में लिखा कि मैंने 10 साल में दो हज़ार से ज़्यादा अंडरप्रिव्लेज़्ड लड़कियों की मदद की है! मैं महिलाओं के अनादर का सोच भी नहीं सकता! अगर मेरे मीम शेयर करने से किसी एक महिला को भी बुरा लगा है, तो मैं माफी मांगता हूँ! 
 विवेक ओबरॉय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक फिल्म में लीड रोल निभाया है! इसे लेकर भी वे चर्चा में हैं। नरेंद्र मोदी की ये बायोपिक फिल्म पहले चुनाव प्रक्रिया के बीच में रिलीज होने वाली थी! पर, इसे रोक दिया गया था! ओमंग कुमार के निर्देशन में बनी इस फिल्म में विवेक ने नरेंद्र मोदी का किरदार निभाया है। इस फिल्म को लेकर भी काफी विवाद है, लेकिन इन विवादों से विवेक ओबरॉय का सीधा सरोकार नहीं बनता! फिर भी उन्होंने फिल्म को एक कलाकार की तरह न लेते हुए विवाद में दखल देने की कोशिश की थी! अभी  ठंडा ही पड़ा था कि इस मीम मामले ने विवेक को सुर्ख़ियों में ला दिया!   
  ऐसा नहीं है कि विवेक ओबरॉय पहले कलाकार हैं, जिन्होंने विवाद खड़ा किया है! बॉलीवुड में ये सब चलता रहा है! क्योंकि, सेलिब्रिटी और विवादों का रिश्ता काफी पुराना है। कुछ ही लोग होंगे, जिन्हें अपनी जुबान काबू में रखना आता है और वे कभी सुर्खियां नहीं बने! कभी उनकी निजी जिंदगी चर्चा में होती है तो कभी फिल्‍में! समाजवादी पार्टी सांसद और अभिनेत्री जया बच्‍चन भी एक बार विवाद में फँस गई थी, जब उन्होंने एक फिल्‍म प्रमोशन के समय कहा था कि हम उत्तर प्रदेश से हैं, हमें हिंदी बोलनी चाहिए!' इसके बाद एमएनएस और शिवसेना ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, जिसके बाद उन्‍हें माफी मांगनी पड़ी! 
  सोनम कपूर ने ऐश्‍वर्या राय को आंटी कहकर सुर्खी बटोरी थी! बाद में सफाई देते हुए कहा कि ऐश्वर्या ने मेरे पापा के साथ काम किया, तो ज़ाहिर है मैं उन्हें आंटी ही कहूँगी! सोनम ने लेखिका शोभा डे को जीवाश्‍म कहकर हंगामा कर दिया था! उन्होंने कहा कि वे 60 साल की एक पॉर्न लेखिका हैं। फिल्म सेंसरशिप को लेकर विशाल भारद्वाज जैसे संजीदा फिल्मकार का बयान था कि सेंसर बोर्ड तालिबान की तरह व्यवहार कर रहा है। इसे भी सेंसर्ड करने और कांट-छांट करने की ज़रूरत है। आशुतोष गोवारीकर ने तो प्रियंका चोपड़ा के अभिनय पर ही टिप्पणी की थी! गोवारीकर का कहना था कि प्रियंका मैं आपसे प्यार करता हूँ! लेकिन, मुझे समझ नहीं आता कि आपको बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड कैसे मिल गया, जबकि ऐश्वर्या उसी कैटेगरी में जोधा-अकबर के लिए नॉमिनेट हुई थीं। विवेक ओबरॉय न तो पहले व्यक्ति और न आखिरी जिन्होंने विवादस्पद हरकत की! आगे भी ये सब होता रहेगा, क्योंकि हर सेलिब्रिटी के अंदर भी अच्छा और बुरा किरदार जो छुपा होता है!
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Sunday, May 19, 2019

एक हादसा है, हाॅलीवुड का ये तमाशा!

- हेमंत पाल

  बाॅक्स आफिस के शीशे चटखाने वाली हाल ही में रिलीज हॉलीवुड फिल्म 'एवेंजर्स: एंडगेम' की भारत में सफलता निश्चित ही सिने प्रेमियों के मन में हलचल पैदा करती है। सवाल उठाती है, कि क्या हमारी संवेदनाओं पर खोखली अवधारणाएं हावी होती जा रही है? अभी तक 3 बिलियन डाॅलर यानी 20 हजार करोड रूपए कमाने वाली इस फिल्म के किरदारों और कथा वस्तुओं को देखा जाए तो इसमें कहीं भी मानवीय संवेदना के दर्शन नहीं होते। छोटे से प्रसंगों से आँखों का दरिया छलकाने वाले भारतीय दर्शक भी इस फिल्म को आँख फाड़-फाड़कर इस तरह देख रहे हैं, जैसे उनके सामने कोई तमाशा हो रहा हो! ऐसा तमाशा जो उनके दिमाग को सुन्न करके संवेदनहीन बना रहा है। 
    ये बात 'एवेंजर्स : एंडगेम' तक सीमित नहीं है। हम अपनी याददाश्त पर जोर दें, तो पाएंगे कि इससे कहीं ज्यादा बिजनेस करने वाली जेम्स कैमरून की फिल्म 'अवतार' भी हॉलीवुड का ऐसा ही तमाशा था, जो हमारी इस दुनिया में घटित होने वाली घटनाओं से परे और अविश्वसनीय था। इसके नीले- हरे रंगों से रंगे पात्रों ने फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया को पूरा करके प्राकृतिक रूप से ऑक्सीजन का उत्सर्जन करने में भले ही सफलता न पाई हो! लेकिन, सिनेमाघरों में बैठे करोड़ों दर्शकों की सांसों को तेज कर कार्बन डाई आक्साइड की परत को और घना बनाते हुए बाॅक्स ऑफिस पर पैसा लूटाने में कोई कोताही नहीं बरती! 
  यदि टाइटैनिक का घटनाक्रम और इससे जुडीं संवेदनाओं को बख्श भी दिया जाए, तो अभी तक हाॅलीवुड की तमाम कमाऊ फिल्मों ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसमें रत्तीभर भी मानवीय संवेदना छलकी हों! स्टार वार्स: द फोर्स अवेकंस, एवेंजर्स : इंफिनिटी वार, जुरासिक वर्ल्ड, फ्यूरिस, एवेंजर्स : एज आफ अल्ट्रान और ब्लैक पैंथर जैसी फिल्मों में भले ही चकाचौंध का दरिया उछला हो! इनमें अविश्वसनीय घटनाओं का सैलाब उमड़ा हो, लेकिन इन फिल्मों में एक भी ऐसा घटनाक्रम नहीं था जिससे सिनेमाघर में बैठे दर्शक की भावनाएं उद्धलित हुई हों! हाॅलीवुड की पिछली फिल्में चाहे वह हैरी पाॅटर एंड द डेथली हाॅल, आयरन मैन, ट्रांसफार्मर्स : डार्क आफ द मून, लार्ड आफ द रिंग : रिटर्न आफ द किंग, द डार्क नाइट राइजेस, टाॅय स्टोरीज या द हाॅबिट : एन अनएक्सपेक्टेड जर्नी ही क्यों न हो! इन फिल्मों का तकनीकी पक्ष भले ही उजला हो, पर संवेदनाओं के नाम पर इन फिल्मों ने अमावस्या का स्याह अंधकार ही परोसा!  
  ऐसी बात नहीं कि हाॅलीवुड ने कभी संवेदनाओं को दर्शकों की आँखों के सामने उतारा ही नहीं! आरंभिक दिनों से लेकर पिछले दो दशक तक हाॅलीवुड ने ऐसी कई फिल्मों की सौगात दी, जो मानवीय संवेदनाओं को पूरे जज्बे के साथ रूपहले पर्दे पर पेश करने में कामयाब रही हैं। चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में जीवन की कडवाहट के ऊपर हास्य की चाशनी चढाने का काम हॉलीवुड ने ही किया! सोफिया लाॅरेन जैसी अभिनेत्री की श्याम श्वेत फिल्म 'द टू वूमेन' देखकर अंग्रेजी न समझने वाले दर्शकों की ऑंखें भी छलछला जाती थी। बाॅलीवुड की दर्जनों फिल्में ऐसी हैं, जो मानवीय संवेदनाओं की अनुगामी और अग्रगामी रही हैं। लेकिन, आधुनिकता और तकनीकी सुविज्ञता की सुविधाओं ने लगता है हाॅलीवुड की संवेदनाओं को भी मशीनी बना दिया।  
  वास्तव में देखा जाए तो सिनेमा का बीज एक ऐसे बीज के साथ बोया गया था, जिसका मकसद एक संवेदनशील वृक्ष की तरह पल्लवित होकर सिनेमाधर में बैठे दर्शकों की संवेदनओं को उकेरकर मानवीय पक्ष को प्रतिपादित किया जा सके। यह पक्ष हमारी देशी फिल्मों में आज भी कायम है। राहत की बात है भारतीय फिल्मकारों की संवेदनाएं अभी सोई नहीं है। वह सुई धागा, पीकू, पिंक और इस लहर पर सवार इसी तरह की फिल्मों का निर्माण कर दर्शकों की संवेदनाओ को मरने से बचा रहे हैं। वरना हमारे कुछ फिल्मकार तो हाॅलीवुड की संवेदनहीनता की धार में बहकर उसी तर्ज पर फिल्में बनाने का दुःसाहस भी कर चुके हैं। पिछले दिनों प्रदर्शित सलमा-सितारों से जड़ी अमिताभ और आमिर खान अभिनीत 'ठग्स आफ हिन्दुस्तान' को दर्शकों ने ठुकराकर साबित कर दिया कि वे भले हाॅलीवुड की असंवेदनशीलता पर तालियां बजाते हों, लेकिन जब हिन्दुस्तानी सिनेमा से रूबरू होंगे तो मानवीय संवेदनाएं ही उनके लिए सर्वोपरि होंगी। यह बात हमारे फिल्मकार भी याद रखें, तो उनके लिए अच्छा होगा! अन्यथा हाॅलीवुड की भेड़चाल का शिकार होकर वह सिनेमाई हादसे का रचकर कंगाल होते रहेंगे।
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कांटाजोड़ मुकाबले में फँसी भाजपा की साख!


धार लोकसभा सीट



 - हेमंत पाल

    इस आदिवासी सीट पर पिछले चुनाव में मोदी लहर का ख़ासा असर था। लेकिन, इस बार माहौल बदला हुआ है। विधानसभा चुनाव में जिले की 7 में से 6 सीटों पर कांग्रेस ने जीत का झंडा लहराया! यही कारण है कि भाजपा के सामने लोकसभा चुनाव कठिन चुनौती है। इस सीट पर आदिवासी वोट बाजी पलटने की स्थिति में हैं। क्योंकि, 8 में से 6 सीटें आदिवासी बहुल है। अलग-अलग इलाकों में यहाँ के सामाजिक समीकरण भी बदले हुए हैं। बदनावर इलाके में पाटीदार वोटर ज्यादा हैं, तो कुक्षी में आदिवासियों के अलावा जैन वोट नतीजे प्रभावित करने की स्थिति में हैं। ब्राह्मण, राजपूत और मुस्लिम वोटों का भी कुछ इलाकों में प्रभाव है।
  प्रदेश की आदिवासी बहुल वाली आरक्षित ये लोकसभा सीट लम्बे समय तक हिन्दू महासभा की सीट रही है! यही कारण है कि शुरूआती चुनाव में यहाँ से जनसंघ को जीत मिली। लेकिन, चुनावी समीकरणों के हिसाब से यहाँ कांग्रेस का कब्ज़ा ज्यादा समय तक रहा! इसलिए कांग्रेस के मुकाबले यहाँ भाजपा को थोड़ा कमजोर आंका जा रहा है। धार शहर ने भाजपा को कुशाभाई ठाकरे, कालूराम विरुलकर और विक्रम वर्मा जैसे नेता दिए जिन्होंने भाजपा को अपने शुरुआती काल में संवारा था। प्रदेश में जब भी भाजपा की सरकार रही, धार से किसी न किसी नेता को मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व मिलता रहा! पिछले तीन चुनाव के नतीजों को देखें, तो यहां की जनता ने किसी एक पार्टी को लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार नहीं चुना! आदिवासी समुदाय पर कांग्रेस का काफी प्रभाव रहा है। 
   2014 के पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान भाजपा की सावित्री ठाकुर ने कांग्रेस के उमंग सिंघार को हराया था। वास्तव में पिछला चुनाव ऐसा था, जिसमें मोदी-लहर पर सवार होकर कई अपरिचित नेताओं ने चुनाव की वैतरणी पार कर ली थी। लेकिन, इस बार भाजपा की स्थिति उतनी सुखद और एकतरफा नहीं है। नरेंद्र मोदी के 5 साल के कार्यकाल में बहुत कुछ ऐसा घटा, जिसका जवाब इस बार भाजपा के उम्मीदवारों को देना पड़ रहा है। इस बार भाजपा ने छतरसिंह दरबार को और कांग्रेस ने दिनेश गिरेवाल को मैदान में उतारा है। आश्चर्य की बात ये कि दोनों ही पार्टियों ने जनभावनाओं की अनदेखी की। कांग्रेस के तीन बार के सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी की उम्मीदवारी करीब-करीब तय माना जा रहा था। लेकिन, पार्टी की आपसी गुटबाजी के कारण बेहद कमजोर उम्मीदवार दिनेश गिरेवाल को टिकट मिल गया! यही स्थिति भाजपा में भी रही, जब छतरसिंह दरबार को पार्टी ने उम्मीदवार बनाया।      इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा! संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले 2 लाख से ज्यादा वोट मिले हैं। भाजपा के कमजोर दिखाई देने का एक बड़ा कारण ये भी है कि छतरसिंह दरबार को स्थानीय भाजपा के सभी गुटों का समर्थन नहीं है! इसलिए उनका पलड़ा हल्का नजर आ रहा है। जबकि, पार्टी हित में कांग्रेस के सभी धड़े एक हो गए! जिला कांग्रेस अध्यक्ष बालमुकुंद गौतम का कहना है कि धार जिले में कांग्रेस के नेताओं में कोई मतभेद नहीं है! व्यक्तिगत रूप से भले कुछ लोगों में वैचारिक मतभेद हों, पर पार्टी के लिए सभी एक हैं! जो प्रदर्शन हमने विधानसभा चुनाव में किया, उससे बेहतर नतीजा हम लोकसभा चुनाव में देंगे। इस लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की 8 सीटें आती हैं। सरदारपुर, मनावर, बदनावर, गंधवानी, धरमपुरी, महू (अंबेडकर नगर), कुक्षी और धार। 8 विधानसभा सीटों में से 6 पर कांग्रेस और 2 पर भाजपा का कब्जा है। 
  धार लोकसभा क्षेत्र का पहला चुनाव 1967 में हुआ था, तब यहाँ से जनसंघ के भारतसिंह चौहान चुनाव जीते थे। वे यहाँ से तीन बार लोकसभा चुनाव जीते। दो बार जनसंघ से और 1977 में भारतीय लोकदल से। लेकिन, 1980 में यहाँ पहली बार कांग्रेस के फतेहभानु सिंह ने चुनाव जीता। इसके बाद लगातार 3 लोकसभा चुनाव यहां पर कांग्रेस का कब्जा रहा! 1984 में प्रतापसिंह बघेल जीते तो सूरजभान सिंह 1989 और 1991 का चुनाव जीते! 1996 में धार लोकसभा से भाजपा के छतरसिंह ने कांग्रेस के सुरजभानु सोलंकी को हराया, जो शिवभानु सोलंकी के बेटे हैं। 1996 के चुनाव में जीत हांसिल करने वाली भाजपा को 1998 में हार का मुँह देखना पड़ा और कांग्रेस के गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी यहां के सांसद चुने गए। सालभर बाद 1999 में  हुए लोकसभा चुनाव में फिर कांग्रेस के राजूखेड़ी को जीत मिली। हारने के बाद भाजपा ने एक बार फिर इस सीट पर जीत हांसिल की। 2009 में कांग्रेस के गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी ने एक बार फिर इस सीट पर वापसी की और भाजपा के मुकाम सिंह को मात दी।  
  धार जिले की आबादी 25,47,730 है और 78.63% आबादी ग्रामीण इलाके में रहती है। 21.37% आबादी शहरी क्षेत्र में जो भाजपा प्रभाव में है। धार आदिवासी क्षेत्र में आता है और यहाँ 51.42% आबादी आदिवासी है। 7.66% आबादी अनुसूचित जाति की है। 2014 के चुनाव में यहां पर 16,68,441 मतदाता थे! जिनकी संख्या अब बढ़ गई है। आदिवासी इलाकों में आज भी कांग्रेस की जड़ें गहरी है! प्रदेश में कमलनाथ की सरकार बनने और किसानों की कर्जमाफी के बाद स्थिति में बदलाव आया है। कांग्रेस की 'न्याय' योजना भी अपना असर दिखा सकती है। इस कारण यहाँ कांग्रेस दमदार नजर आ रही है! अब देखना है कि धार में विधानसभा चुनाव वाले नतीजे दोहराए जाते हैं या कुछ बदलाव आता है!   
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Saturday, May 18, 2019

भाजपा की प्रतिष्ठा से जुड़ी इंदौर की सीट!

   इंदौर लोकसभा सीट भाजपा का गढ़ रही है। लेकिन, भाजपा ने इस बार यहाँ से सुमित्रा महाजन 'ताई' का टिकट 75 साल पार होने के फार्मूले के तहत काट दिया। इसलिए यहाँ से नए उम्मीदवार शंकर लालवानी को उम्मीदवार बनाया गया है। ऐसे 'ताई' का दायित्व बनता है कि वे भाजपा उम्मीदवार के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करें। हालांकि, 'ताई' ने ये जरूर कहा कि मैं शंकर के पीछे खड़ी हूं! लेकिन, उनकी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा! यह बात भी सामने आ रही है कि सुमित्रा महाजन खुद नहीं चाहती कि उनकी राजनीतिक विरासत पर कोई आसानी से कब्ज़ा जमा ले। ऐसे में भाजपा के लिए अपना गढ़ बचाना आसान नहीं है। उधर, कांग्रेस में इस बार कुछ ज्यादा ही उत्साह नजर आ रहा है। क्योंकि, संसदीय क्षेत्र की 8 में से 4 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं। इसके अलावा तीन मंत्री सज्जन वर्मा, तुलसी सिलावट और जीतू पटवारी भी दम लगा रहे हैं। क्योंकि, ये उनकी प्रतिष्ठा का मामला है। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि मतदाता किसे चुनता है और क्यों?
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- हेमंत पाल

  भाजपा ने इंदौर लोकसभा सीट से सिंधी उम्मीदवार शंकर लालवानी को टिकट दिया है। जबकि, कांग्रेस ने जैन समाज से जुड़े गुजराती पंकज संघवी को उनके सामने मैदान में उतारा! लेकिन, शंकर लालवानी का नाम घोषित होने पर पार्टी में ख़ुशी जाहिर करने वाले कम दिखे। उनकी उम्मीदवारी को पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पसंद बताया जाता है। ये भी दावा किया जा रहा है कि लालवानी भाजपा की और से देश के अकेले सिंधी उम्मीदवार है। शायद पार्टी ने उन्हें सिंधी समाज को संतुष्ट करने के लिए मैदान में उतारा है। लालकृष्ण आडवानी का टिकट काटे जाने के बाद पार्टी के पास किसी सिंधी नेता को टिकट देने का दबाव था, जिसे इंदौर में देकर पूरा किया गया। आडवानी को टिकट नहीं दिए जाने से सिंधी समाज नाराज था और इंदौर के सिंधी समाज ने अपना विरोध भी दर्ज कराया था।
   जब भाजपा ने सुमित्रा महाजन को टिकट न देकर इस सीट लटकाए रखा तो कांग्रेस को लगा कि भाजपा सुमित्रा महाजन की जगह इंदौर से किसी बड़े नाम को मैदान में उतार सकती है! लेकिन, जब शंकर लालवानी का नाम सामने आया तो कांग्रेस ने भी पंकज संघवी का नाम फायनल करने में देर नहीं की! पंकज संघवी इंदौर से पहले लोकसभा, विधानसभा और महापौर का चुनाव हार चुके हैं। लेकिन, फिलहाल के राजनीतिक समीकरणों में वे ताकतवर नजर आ रहे हैं। 
  इंदौर लोकसभा सीट कई राजनीतिक कारणों से बेहद खास है। 16वीं लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन इंदौर की लोकसभा सीट से ही चुनकर आई थी। शहर की जनता को 'ताई' से बेहद लगाव है। यही कारण है कि यहां के मतदाताओं ने उन्हें 8 बार सांसद बनाया! 1989 में वे यहां से पहली बार चुनाव लडी और फिर ये सीट उन्हीं की हो गई। 1989 से लगातार वो यहां से सांसद रहीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के सत्यनारायण पटेल को करीब साढ़े 4 लाख से ज्यादा वोटों से हराया था! जीत का ये अंतर देश में दस प्रमुख जीत में से एक था। 
   1957 में यहाँ पहली बार लोकसभा का चुनाव हुआ था, जिसमें कांग्रेस के कन्हैयालाल खादीवाला को जीत मिली थी। 1962 में मजदूर नेता होमी दाजी 6293 मतों से जीते थे। आपातकाल के बाद 1977 में इस सीट से कल्याण जैन को जीत हांसिल हुई। इसके बाद दो बार कांग्रेस यहाँ से जीती। लेकिन, जब 1989 में यहाँ से भाजपा ने सुमित्रा महाजन को मौका दिया, तो ये सीट उनकी हो गई! 1989 में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी को हराया था। जबकि, इससे पहले 'ताई' विधानसभा चुनाव हार चुकी थीं। इससे पहले वे 1982 में इंदौर नगर निगम की पार्षद रह चुकीं थीं। इंदौर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत विधानसभा की 8 सीटें आती हैं। इंदौर के क्षेत्र क्रमांक 1 से 5, राऊ, सांवेर और देपालपुर! फिलहाल यहाँ की 8 में 4 सीटें कांग्रेस और 4 भाजपा के पास है। यानी टक्कर बराबरी की है। 
  इंदौर से 1989 के बाद पहली बार कांग्रेस को यहाँ से जीत की उम्मीद में नजर आ रही है। क्योंकि, भाजपा के टिकट की घोषणा के साथ ही इस लोकसभा क्षेत्र में समीकरण बदल गए। सुमित्रा महाजन के चुनाव मैदान से बाहर होने के बाद कई दावेदारियां सामने आई! लेकिन, जब अपेक्षाकृत कमजोर नेता शंकर लालवानी को टिकट दिया गया, तो भाजपा में खींचतान नजर आने लगी! अभी जो नेता प्रचार अभियान से जुड़े हैं, वे दिल से सक्रिय नहीं हैं। जबकि, कांग्रेस में ये माहौल नजर नहीं आ रहा! इसका कारण ये भी है कि कांग्रेस में दावेदार कम थे और जो थे उन्हें भी टिकट न मिलने का मलाल भी नहीं है।     
   2011 की जनगणना के मुताबिक इंदौर की जनसंख्या 34,76,667 है. यहां की ज्यादातर आबादी शहरी क्षेत्र में रहती ही. इंदौर की 82.21 फीसदी आबादी शहरी और 17.79 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में रहती है. यहां की 16.75% आबादी अनुसूचित जाति की है, जबकि 4.21% अनुसूचित जनजाति के लोगों की। यहां इस बार 24 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। 
  चुनावी समीकरणों को देखा जाए तो शंकर लालवानी ने पार्षद, नगर निगम की कई समितियों और इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के दो बार अध्यक्ष रहते हुए भी अपनी कोई टीम नहीं बनाई! पार्टी कार्यकर्ताओं से भी उनके रिश्ते इतने मधुर नहीं रहे कि चुनाव जिताने के लिए सब जुट जाएं! यहाँ तक कि टिकट मिलने के बाद भी उन्होंने शहर के पार्टी क्षत्रपों को जोड़ने की कोशिश नहीं की! यही कारण है कि उनके आसपास जो भी लोग नजर आ रहे हैं, वो मुँह दिखाई कि रस्म ही ज्यादा निभा रहे हैं। जमीनी राजनीति से लालवानी का वैसे भी दूर-दूर तक वास्ता नहीं रहा! ऐसी स्थिति में इंदौर लोकसभा के लिए उन्हें गांवों से बढ़त मिलना मुश्किल है। इसलिए भी कि लोकसभा क्षेत्र के दो विधानसभा क्षेत्र सांवेर और देपालपुर ग्रामीण हैं और दोनों ही सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं। भाजपा में संभावित सेबोटेज की चर्चा इतनी ज्यादा है कि पार्टी के संगठन मंत्री रामलाल को 23 मई तक के लिए इंदौर में डेरा डालना पड़ा! यानी भाजपा में सबकुछ उतना सामान्य नहीं है, जितना दिखाने की कोशिश की जा रही है! 
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जीवन से जुड़ा सिनेमा!

- हेमंत पाल

   जब से परदे पर फ़िल्में दिखाई जाने लगी हैं, इनमें एक लहर भी चलती रही! समय, दर्शकों की रूचि और व्यावसायिक कारणों से सिनेमा के कथानकों में बदलाव आता रहा! लेकिन, ज्यादातर विषय ऐसे रहे, जिनमें देखने वाले का मनोरंजन हो! जब सिनेमा थोड़ा समृद्ध हुआ तो कथानकों को जीवन से जोड़ा जाने लगा, ताकि दर्शक को लगे कि जो वो देख रहा है वो सब वास्तविकता के नजदीक है। एक समय था जब ऐसे विषयों को कला सिनेमा का दर्जा दिया गया। इसे व्यावसायिक सिनेमा की मुख्यधारा से हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा गया था। इसे सिनेमा में एक नए आंदोलन की तरह देखा गया। ऐसे विषयों को वास्तविकता के और नैसर्गिकता के साथ भी जोड़ा गया। ऐसे सिनेमा में नए कलेवर में सामाजिक घटनाओं को परदे पर उतारने की कोशिश की गई! सबसे पहले बंगाली सिनेमा में कला या सामानांतर सिनेमा का सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे सिनेमाकारों के जरिए प्रवेश हुआ। इसके बाद ही हिन्दी सिनेमा में इस शैली का प्रादुर्भाव हुआ।
    माना जाता है कि सिनेमा में समानांतर फिल्मों की हवा सत्तर के दशक में काफी तेज थी। अंकुर, मंथन और निशांत जैसी फिल्मों को इसकी शुरूआत समझा जाता है! किंतु, इस सिनेमा का बीज तो 1920 से 1930 के दशक में ही पड़ गया था। 1925 में ही वी शांताराम ने एक मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई थी। फिल्म में एक किसान एक लालची साहूकार के कर्ज में अपनी जमीन गवां देता है। उसे पलायन करके शहर आता है और मजबूर होकर मिल मजदूर के रूप में काम करने लगता है। महिलाओं की दुर्दशा पर उन्होंने 1937 में 'दुनिया ना माने' बनाई थी, जो समानांतर फिल्म के शुरूआती उदाहरण हैं। 
  1940 से 1960 के बीच भी समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद, गुरूदत्त और वी.शांताराम ने पल्लवित किया। इस दौर की फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' बनाई जिसे पहले कॉन सिने फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। 1950 से 1960 के दौर की अधिकांश फिल्मों में सरकारी पैसा लगा था, ताकि कला फिल्मों को पोषित किया जा सके! ऐसे फिल्मकारों में सत्यजीत रे का नाम सबसे ऊपरहै। बाद में इस परम्परा को श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासारावल्ली ने आगे बढ़ाया। सत्यजीत की सर्वाधिक प्रसिध्द फिल्मों में पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) द वर्ल्ड आफ अप्पू (1959) प्रमुख हैं। 
  1970 और 1980 के दशक में समानांतर सिनेमा का नए सिरे से विकास हुआ। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, बाबूराम इशारा और सईद अख्तर मिर्जा और उसके बाद महेश भट्ट और गोविन्द निहलानी ने ऐसी फिल्मों को बौद्धिक वर्ग से आगे बढ़ाकर आम दर्शकों से जोड़ने की कोशिश की। श्याम बेनेगल की 'अंकुर' को मिली सफलता के बाद ऐसी फ़िल्में बनाने वालों का हौंसला बढ़ा! ये वही दौर था, जब इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, अमोल पालेकर, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी साथ मिला।1990 के शुरू में निर्माण लागत बढ़ने के साथ फिल्मों के व्यावसायिकरण का असर समानांतर फिल्मों पर पड़ा। इस तरह की फिल्मों का निर्माण लगभग बंद ही हो गया। फिल्मों में सामाजिक समस्याओं के बजाए गैंगवार को ज्यादा जगह दी गई। लिहाजा समानांतर सिनेमा का सिलसिला थम सा गया।
   समानांतर सिनेमा थोड़े बदले अंदाज में 2000 के बाद फिर लौट आया। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग होने लगे। मणिरत्नम की दिल से (1998) और युवा (2004), नागेश कुकनूर की तीन दीवारें (2003) और डोर (2006), सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), जानू बरूआ की मैने गांधी को नहीं मारा (2005), नंदिता दास की फिराक (2008) ओनिर की माय ब्रदर निखिल (2005) और बस एक पल (2006), अनुराग कश्यप की देव डी (2009) तथा गुलाल (2009) पियूष झा की 'सिकंदर' (2009 ) और विक्रमादित्य मोटवानी की 'उड़ान' (2009) से एक बार फिर समानांतर सिनेमा का अंकुरण होने लगा है। सफलता के नए कीर्तिमान बनाने वाली राजनीति, आरक्षण और कहानी जैसी फिल्मों को भी इसी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन, अब ये परंपरा वास्तविक सिनेमा की लहर में समा चुकी है। 
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Tuesday, May 14, 2019

'ताई' इतनी ही काबिल नेता हैं, तो टिकट से वंचित क्यों?

- हेमंत पाल

  चुनावी सभा को संबोधित करने रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदौर आए थे! उन्होंने अपनी लच्छेदार बातों से भीड़ को जमकर प्रभावित किया! लोगों से तालियां भी बजवाई! पर, अपने पीछे कुछ अनुत्तरित सवाल छोड़ गए! मोदी ने मंच से सुमित्रा महाजन 'ताई' की जमकर तारीफ की! लोकसभा संचालन की उनकी कुशलता को सराहा! आत्मीयता का प्रदर्शन भी किया! लेकिन, ये राज नहीं खोला कि उन्हें इंदौर से 9वीं बार उम्मीदवारी क्यों नहीं दी गई? जाते हुए मोदी ने 'ताई' से खाने की फरमाइश की, तो उनके लिए 'ताई' के घर से खाना तक एयरपोर्ट पहुँचाया गया! यानी इंदौर के नमक का कर्ज उन पर बाकी रह गया!
    शहर में ये सवाल सुलग रहा है, कि 'ताई' को भाजपा ने किस गलती की सजा दी? क्योंकि, नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में सुमित्रा महाजन के बारे में जो कहा, उसकी उम्मीद नहीं थी! 'ताई' की कार्य कुशलता, संगठनात्मक काबलियत, नेतृत्व क्षमता की सराहना की गई! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंदौर में सभा तो भाजपा उम्मीदवार शंकर लालवानी के लिए की, लेकिन मंच पर जलवा रहा सुमित्रा महाजन का! इस भीड़ भरी सभा का सबसे दिलचस्प पहलू था मंच पर 'ताई' के प्रति नरेंद्र मोदी की आत्मीयता का प्रदर्शन और उनकी तारीफ! मोदी ने लोकसभा संचालन में उनकी कुशलता के पुल बांधे! लेकिन, ये नहीं बताया कि इतनी सक्षम नेता को इंदौर से 9वीं बार उम्मीदवारी क्यों नहीं दी गई! उनकी कुशलता और क्षमता में ऐसी कौनसी खामी दिखी कि उन्हें खुद ही टिकट की दौड़ से हटने के लिए मजबूर किया गया। इंदौर लोकसभा सीट से लगातार 8 बार चुनाव जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाली सुमित्रा महाजन (ताई) के 9वीं बार चुनाव लड़ने में किसी को शंका नहीं थी! ये मान लिया गया था कि उनका विकल्प बनने माद्दा इंदौर के किसी नेता में नहीं है! लेकिन, जो हालात बने, उससे पांसा पलट गया। ऐसी राजनीतिक स्थिति बन गई (या बना दी गई) कि 'ताई' को खुद ही मीडिया को सार्वजानिक चिठ्ठी लिखकर मैदान से हटने का एलान करना पड़ा! मोदी की सभा ने इस घाव को फिर कुरेदकर सवाल जिंदा कर दिया है! यदि सुमित्रा महाजन में अद्भुत नेतृत्व क्षमता है! उन्होंने लोकसभा का सफल संचालन किया और संगठनात्मक रूप से भी वे बेजोड़ हैं तो फिर उनकी अयोग्यता की वजह क्या रही? क्या सिर्फ 75 साल का फार्मूला या फिर कोई अनबूझ कारण है? मालवा-निमाड़ की मंदसौर और खंडवा लोकसभा क्षेत्र के भाजपा उम्मीदवारों की घोषणा सबसे पहले की गई, पर इंदौर को महीनेभर तक होल्ड पर रखा गया! लगातार टाला जाता रहा, जब तक 'ताई' सम्मान की खातिर खुद मैदान से नहीं हटी! 
  सभा में मोदी ने कहा कि इंदौर से मेरा विशेष स्नेह रहा है! क्योंकि, ये सुमित्रा ताई का शहर है। उन्होंने 8 बार सांसद और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। अपने भाषण में उन्होंने करीब दस बार सुमित्रा महाजन का नाम लिया। मंच पर भी दोनों में काफी आत्मीयता नजर आई! दोनों नजदीक ही बैठे थे, क्योंकि ये प्रोटोकाल की जरुरत थी। मोदी का कहना था कि हमारी पार्टी में यदि कोई मोदी को डांट सकता है, तो वे सिर्फ 'ताई' हैं। काम के प्रति उनके समर्पण को ध्यान में रखते हुए मैं इंदौर को विश्वास दिलाता हूं कि शहर के विकास के मामले में 'ताई' की कोई इच्छा अधूरी नहीं रहेगी। इतना प्यार दोगे इंदौर वालों तो 'ताई' को मुझे खाना खिलाना पड़ेगा। बताते हैं कि नरेंद्र मोदी ने जाते समय 'ताई' से ये भी कहा कि बहुत भूख लगी है, भोजन लाई हो, तो गाड़ी में खा लूंगा। इस पर 'ताई' ने कहा कि सुरक्षा कारणों से नहीं ला पाई। बाद में उन्होंने बेटे मंदार को फोन करके खाना एयरपोर्ट भिजवाया और प्रधानमंत्री के स्टॉफ को सौंपा।
  बात सिर्फ 'ताई' को टिकट से वंचित करने तक सीमित नहीं है! मसला ये भी है कि इसका कोई कारण या राजनीतिक मज़बूरी सामने नहीं आ सकी! आम्बेडकर जयंती पर जब सुमित्रा महाजन लोकसभा परिसर में हुए कार्यक्रम में शामिल होने दिल्ली गईं थी, तब ये समझा जा रहा था कि शायद टिकट को लेकर अटका हुआ मसला सुलझ जाएगा और 'ताई' फिर इंदौर का नेतृत्व करने में सफल रहेंगी! लेकिन, बताते हैं कि नरेंद्र मोदी ने वहाँ उनसे कोई तवज्जो नहीं दी! इंदौर के एक पूर्व विधायक सत्यनारायण सत्तन ने तो खुलेआम 'ताई' को टिकट दिए जाने का विरोध किया! उन्होंने धमकी तक दी, कि यदि उन्हें टिकट दिया गया, तो वे भी चुनाव लड़ेंगे! इन अनुशासनहीनता की भी पार्टी ने अनदेखी की!  जिस मंच से नरेंद्र मोदी ने सुमित्रा महाजन की काबलियत का परचम लहराया, उस मंच पर पहले तो 'ताई' का फोटो तक नहीं लगाया गया था! बाद में खुद 'ताई' के आपत्ति लेने आनन-फानन में फोटो लगा! सुमित्रा महाजन को पहले टिकट से वंचित करने और बाद में उनको सर पर बैठाने का जो कारनामा कल इंदौर में दिखाई दिया, वो पार्टी की कोई रणनीति है या मज़बूरी? इस सवाल की खदबदाहट शहर में महसूस की जा रही है!
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मालवा-निमाड़ से अप्रत्याशित नतीजों का इंतजार कीजिए!


  जब पूरे देश में चुनाव की गर्मी ठंडी हो गई, तो मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में मौसम और चुनाव की गर्मी एक साथ जोश पर है। यहाँ की 8 लोकसभा सीटों पर अंतिम हफ्ते में दोनों पार्टियों के सारे राजनीतिक दिग्गज भी जोर लगाएंगे! भाजपा उम्मीदवारों के लिए नरेंद्र मोदी ने खंडवा और इंदौर में सभाएं ले ली! जबकि, कांग्रेस के लिए राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी दोनों प्रचार कर गए! लेकिन, अभी भी आठों में से ज्यादातर सीटों के नतीजों पर सवालिया निशान लगे है! क्योंकि, दोनों पार्टियाँ सेबोटेज के संभावित खतरे से भयभीत है। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था! बाद में झाबुआ-रतलाम सीट कांग्रेस ने उपचुनाव में जीती थी! लेकिन, अब भाजपा के लिए 8 में से 7 सीट जीतना आसान नहीं लगता! कांग्रेस भी सेबोटेज के खतरे से मुक्त नहीं है! मालवा-निमाड़ में जिस तरह के हालात हैं, अप्रत्याशित नतीजों से इंकार नहीं किया जा सकता!        
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- हेमंत पाल

 श्चिम मध्यप्रदेश के दो इलाके मालवा और निमाड़ की राजनीति की अपनी अलग ही कहानी है! इस इलाके की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर झंडा फहराना भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए नाक का सवाल है। पिछले लोकसभा (2014) में तो भाजपा ने अपना जादू दिखा दिया था! मोदी लहर में सभी 8 सीटों पर कमल खिला! लेकिन, बाद में हुए उपचुनाव में आदिवासी सीट झाबुआ-रतलाम भाजपा के हाथ से निकल गई! लेकिन, इस बार कहीं कोई आँधी, तूफ़ान या लहर दिखाई नहीं दी! इस नजरिए से देखा जाए तो सभी सीटों पर अभी तक चुनाव की असली गर्मी नदारद है! इंदौर और उज्जैन जैसे बड़े शहरों में अभी तक धुआंधार जनसंपर्क तक दिखाई नहीं दिया! इसके दो कारण हैं। एक तो मौसम की गर्मी और दूसरा नापसंद उम्मीदवार के प्रति कार्यकर्ताओं की मायूसी! भाजपा ने 8 में से 6 नए चेहरे मैदान में उतारे हैं। जबकि, कांग्रेस ने झाबुआ में कांतिलाल भूरिया को तो फिर से टिकट दिया, पर 2-3 सीटों पर अप्रत्याशित चेहरों को टिकट देकर सेबोटेज का खतरा झेल लिया! दरअसल, कांग्रेस में सेबोटेज का खतरा इसलिए कम है कि पिछला चुनाव वो हर सीट पर हारी थी! खंडवा, खरगोन, देवास, उज्जैन, धार, मंदसौर और इंदौर में भाजपा का डंका बजा था!
  मालवा-निमाड़ क्षेत्र की 8 में से 5 सीटों पर भाजपा ने पिछला चुनाव जीते उम्मीदवारों को बदल दिया और एक सीट (देवास-शाजापुर) पर जीते मनोहर ऊंटवाल के विधायक बन जाने पर उनकी जगह महेंद्रसिंह सोलंकी को टिकट दिया! भाजपा को यही फैसला भारी पड़ रहा है। सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर राजनीति में आए सोलंकी को देवास-शाजापुर के कार्यकर्ता पचा नहीं पा रहे। यही कारण है कि इस सीट को बचाने के लिए भाजपा परेशान है। पार्टी पदाधिकारियों की बैठक में उनके प्रति नाराजी की ख़बरें हैं। यहाँ टिकट के दावेदारों के अलावा स्थानीय नेता भी अपना असंतोष जाहिर करने से नहीं बच रहे! उनके सामने कांग्रेस ने कबीर के भजनों के लोकगायक प्रहलाद टिपानिया को उतारा है। टिपानिया की लोकप्रियता का कांग्रेस को फ़ायदा मिल रहा है। उनका पार्टी में कोई विरोध भी नहीं है! मतलब ये कि सेबोटेज का खतरा कांग्रेस में नहीं है! उज्जैन में भाजपा ने निवर्तमान सांसद चिंतामण मालवीय  हटाकर तराना से विधानसभा चुनाव हारे अनिल फिरोदिया को दांव पर लगाया, जो स्थानीय नेताओं की नाराजी की वजह बन गया! ऐसी स्थिति में काम का प्रदर्शन तो सब कर रहे हैं, पर वो संदेश मतदाताओं तक पहुंचेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता! कुछ ऐसे ही हालात कांग्रेस में भी लग रहे हैं! उम्मीद के विपरीत बाबूलाल मालवीय कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतर रहे! दोनों पार्टियों में खदबदाती नाराजी से किसे फ़ायदा होगा, ये कहना अभी मुश्किल है!
   भाजपा ने अपनी पहली लिस्ट में ही मंदसौर और खंडवा के निवर्तमान सांसदों सुधीर गुप्ता और नंदकुमार चौहान को टिकट देने का एलान कर दिया था! जबकि, इन दोनों के प्रति उनके इलाकों में पहले से ही असंतोष था! उनकी फिर उम्मीदवारी से पार्टी के कई नेता नाखुश हुए। वे प्रचार करने दिखावे के लिए घर से निकले, पर दिल से नहीं! इन दोनों सीटों पर ही भाजपा को कार्यकर्ताओं का असंतोष मुश्किल में डाल सकता है! कांग्रेस ने भी मंदसौर में मीनाक्षी नटराजन पर फिर भरोसा जताकर लगता है गलती की! ये फैसला स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के गले नहीं उतर रहा! यहाँ कांग्रेस भी सेबोटेज से मुक्त नहीं है! उधर, खंडवा सीट से दोनों पार्टियों के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष आमने-सामने हैं। नंदकुमार चौहान को टिकट देना भाजपा के जरुरी था, पर यहाँ के नेता इससे खुश नहीं लगे! स्थानीय स्तर पर पार्टी का एक दमदार चिटनिस गुट निष्क्रिय दिख रहा है! उनके मुकाबले में खड़े अरुण यादव को भाजपा के इसी सेबोटेज से जीत का भरोसा है। कांग्रेस को निर्दलीय विधायक शेरा भैया का रवैया ठीक नहीं लग रहा! उन्होंने अपनी पत्नी को तो मुकाबले से हटा लिया, लेकिन भाजपा से उनकी नजदीकी कांग्रेस के लिए है।       
  खरगोन और धार आदिवासी सीटें हैं और दोनों जगह भाजपा ने उम्मीदवार बदल दिए! खरगोन में देवेंद्र पटेल और धार में छतरसिंह दरबार को उम्मीदवारी दी! खरगोन में तो ज्यादा नाराजी दिखाई नहीं दे रही, पर धार में माहौल कुछ ज्यादा ही गरम है! यहाँ भाजपा की गुटबाजी का आलम शिखर पर है। ऐसे में छतरसिंह की हार-जीत सेबोटेज ही तय करेगी। उधर, धार में कांग्रेस की स्थिति भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती! यहाँ तीन बार सांसद रहे गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को टिकट मिलने के दावे किए जा रहे थे, पर गुटबाजी ने उनका पत्ता काट दिया! कांग्रेस ने दिनेश गिरेवाल को उम्मीदवार बनाया जो किसी के गले नहीं उतर रहा! दोनों तरफ असंतोष की आग बराबर लगी है! जिस पार्टी में कम सेबोटेज हुआ, उसकी जीत होगी! रतलाम-झाबुआ सीट पर कांग्रेस ने अपने चिरपरिचित उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया को फिर से मौका दिया है। जबकि, भाजपा ने एक रिटायर्ड अफसर गुमानसिंह डामोर जो झाबुआ विधायक भी हैं, उनको सामने उतारा है। वे झाबुआ के नहीं हैं, इसलिए स्थानीय नेता नाखुश हैं। कांग्रेस के सामने गुटबाजी जैसा कोई माहौल नहीं है। भाजपा में नाराजी का सबसे बड़ा कारण डामोर का बढ़ता कद है, जो सेबोटेज की वजह बन सकता है।
  इन सारे हालातों को देखकर मालवा-निमाड़ में भाजपा और कांग्रेस में से कोई भी जीत का दावा नहीं कर रहा! यही कारण है कि 23 मई के नतीजों को लेकर सबकी साँसे थमी हैं। कहा नहीं जा सकता कि चुनाव नतीजों का ऊंट किस करवट लुढ़क जाए! इसका कारण ये भी माना जा सकता है कि 2014 में भाजपा अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है। सभी 8 सीटें भाजपा की झोली में गई थी! इससे अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती और न उन नतीजों की पुनरावृत्ति संभव है।
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Saturday, May 11, 2019

मनोविकार से ग्रस्त नायकत्व!

- हेमंत पाल

  एक प्रेमी ने अपनी कथित धोखेबाज प्रेमिका की उसकी शादी के मंडप में सिर्फ इसलिए हत्या कर दी! क्योंकि, उसने शादी से इंकार कर दिया था! बाद में उस प्रेमी युवक का कहना था कि यदि वो मेरी नहीं हो सकी तो किसी की कैसे हो सकती है! दरअसल, ये घटना उस फ़िल्मी हीरो के नायकत्व की तरह है, जो नायिका को अपनी जागीर समझता है! जो उसे नहीं मिलती तो उसे ख़त्म करने से भी नहीं हिचकिचाता! समाज में घट रही ऐसी घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार और व्यक्ति की संवेदनहीनता पर मुहर लगाती हैं। आज के युवा को उसके अहंकार पर चोट आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी हर लीक को तोड़ने में पीछे नहीं हटता! लेकिन, आखिर ये प्रेरणा आई कहाँ से, समाज से तो नहीं तो फिर फिल्मों से ही आई होगी?
  हमारे बदलते सामाजिक जीवन मूल्यों की बानगी पेश करके दर्शकों का नए आयामों से साक्षात्कार फ़िल्में ही कराती हैं। सामान्यतः फिल्मों के नायक को मर्यादित आचरण वाला और नकारात्मकता से बहुत दूर माना जाता है! अभी तक यही देखा भी गया है। लेकिन, कुछ फिल्मों में जब नायक अपने इस चरित्र से हटता है, तब भी वह नायक ही रहता है! फिर क्या कारण था कि प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आसक्त नायक कुछ फिल्मों में हिंसक एवं क्रूर प्रेमी बना? यह सवाल वस्तुतः एक समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय भी है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में प्रेम के विकृत रूप का परिचय कराती है।
    प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में बॉलीवुड में खूब बनीं। एक समय ऐसा भी था, जब शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए थे। मनोविकार से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार परदे पर शाहरूख खान ने ही चरितार्थ किया था। ‘बाजीगर’ से प्रेम में हिंसा का जो दौर शुरू हुआ था, उसे बाद में ‘डर’ और ‘अंजाम’ से विस्तार मिला! इसी मनोविकारी नायक वाली छवि ‘अग्निसाक्षी’ में नाना पाटेकर की दिखी! इसमें नाना पाटेकर ‘स्लीपिंग विद द एनमी’ के नायक जैसे पति साबित होते हैं। ‘नाना इस फिल्म में प्रेम के दुश्मन के रूप में नजर आए थे। ऐसा पति जिसे पत्नी की तरफ किसी देखना भी गवारा नहीं था! 
   90 के दशक की शाहरुख़ खान की इन फिल्मों ने प्रेम में नफरत के तड़के का रूप प्रदर्शित किया था। ये ऐसे नायक का चरित्र था, जो चुनौतियों से भागता है। शाहरूख ने जो किरदार निभाया था, वो कुंठित नायक का प्रतिबिंब था, जो प्रेम को अधिकार की तरह समझता है। वह प्यार तो करता है, पर उसमें स्वीकारने का साहस नहीं है। वो न तो मेहनत करना चाहता है न उसमें सही नायकत्व है। सबसे बड़ी बात ये कि वो इंतजार करना भी नहीं जानता! ये नायक जिस तरह की हरकतें करता है, उसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी है। उसके लिए खून बहाना बड़ी बात नहीं होती! 'डर' के नायक को याद कीजिए जो नायिका के एक तरफ़ा प्रेम में इतना पागल हो जाता है कि उसके पति को मारने की साजिश करने से भी बाज नहीं आता! 
  उपभोक्तावाद के इस दौर में भोगवादी संस्कृति की अंधड़ में हमारा दार्शनिक आधार दरकने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों में भी ऐसे नकारात्मक चरित्र गढ़े जाने लगे जो नायक होते हुए, प्रेम के दुश्मन बन जाते हैं। वास्तव में ये सिर्फ फ़िल्मी किरदार नहीं है! बल्कि, नवधनाढ्यों के उभार के बीच ऐसी कहानियां समाज के सच की गवाही हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और टेलीविजन इसी नकारात्मक प्रवृत्ति को आधार देते हैं। ऐसी फ़िल्में देखकर ही गैर-शहरी नौजवान गलत प्रेरणा लेकर भटक जाते हैं। वे परदे पर दिखाई जाने वाली घटनाओं को जीवन में उतारने की कोशिश जो करने लगते हैं।
  हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभाव और बाजारवाद से ग्रस्त रहा है। पश्चिमी जीवन की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही समाज में नई तरह का संकट बढ़ेगा। इसके साथ ही प्रेम के क्रूर चेहरे को भारतीय दर्शकों पर थोपने की कोशिशें भी जारी हैं। इसे दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि ये सबकुछ प्रेम के नाम पर ही हो रहा है। वास्तव में ये हमारी फिल्मों के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें प्यार और सामाजिक रिश्तों को तिलांजलि दी जाने लगी है। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में वह उसे समाप्त कर देने पर आमादा हो जाता है, जो उसके मनोविकार का संकेत है। ऐसा नायकत्व समाज और मनोरंजन दोनों के लिए खतरनाक है!
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Tuesday, May 7, 2019

'ताई' की राजनीतिक विरासत का सही उत्तराधिकारी कौन!



    इंदौर की भविष्य की राजनीति का सिक्का हवा में उछल चुका है! जब ये सिक्का नीचे गिरेगा तो ऊपर 'चित' आता है या 'पट' कोई नहीं जानता! तीन दशकों से जिस लोकसभा सीट पर सुमित्रा महाजन यानी 'ताई' के बहाने भाजपा का जो झंडा गड़ा था, वो आगे भी बरक़रार रहेगा? इस सवाल पर सभी खामोश हैं! शहर में कोई चुनावी हलचल नजर नहीं आ रही! जो थोड़ी बहुत सरगर्मी है, वो भी दिखावटी और नाटकीय ज्यादा लग रही! 'ताई' के उम्मीदवार रहते, भाजपा मजबूत होती, ये दावा करने वाले कम नहीं हैं! लेकिन, कांग्रेस में भी उत्साह जैसी बात नहीं है। जो दिख रहा है, वो जीत में बदलेगा ये नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, जो तीन मंत्री सक्रियता दिखा रहे हैं, कार्यकर्ता उन्हीं से ज्यादा नाराज हैं! ऐसे माहौल में वोटर ने भी अपने मुँह सिल लिए! वो भी मुँह देखी बात करने लगा! समझा जाए तो ये स्थिति भाजपा के लिए कुछ ज्यादा खतरनाक है! जिस भाजपा ने लगातार आठ बार जिस सीट को जीता, वहाँ आज इस पार्टी की जीत को लेकर असमंजस हैं।   
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- हेमंत पाल

   इंदौर की मौजूदा सांसद सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले कहा था कि वे अपनी आठ कार्यकाल की विरासत किसी योग्य व्यक्ति को ही सौंपेगीं! जब 'ताई' ने ये बात कही थी, उस वक़्त इसे भविष्य का कोई संकेत नहीं समझा गया था! तब माना जा रहा था कि भाजपा की अगली उम्मीदवार भी वही होंगी, इसलिए विरासत सौंपने जैसी तो कोई बात नहीं! लेकिन, लगता है पार्टी के बड़े चौकीदारों ने ये बात सुन ली और उसे गंभीरता से ले लिया! पार्टी ने देशभर के उम्मीदवारों की घोषणा करना शुरू कर दी, पर 'ताई' के नाम का कहीं पता नहीं था! इस बीच उन्हें ये संकेत भी मिलने लगे कि वे सम्मानजनक बिदाई ले लें और अपनी राजनीतिक विरासत को सौंपने की तैयारी कर लें! इसके बाद तो इंदौर से संभावित उम्मीदवारों की लाइन लग गई! करीब हर नेता का नाम चला! कुछ ऐसे नाम भी सामने आए जिनका कोई राजनीतिक वजूद नहीं है! बड़ी उथल-पुथल के बाद पार्टी ने इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के अध्यक्ष रहे शंकर लालवानी को उम्मीदवार बनाया!
    भारतीय जनता पार्टी के इस फैसले पर बहुत सी टिप्पणियाँ हुई! बहस-मुबाहिसे भी चले कि शंकर लालवानी को उनकी किस राजनीतिक योग्यता की खातिर उम्मीदवार बनाया है! क्योंकि, जितने भी नाम चले थे, उनमें शंकर लालवानी सबसे कमजोर हैं। सवाल करने वालों का ये तर्क भी सही है कि लालवानी कभी शहर के जननेता नहीं रहे! नगर निगम के पार्षद रहने के अलावा उन्होंने कभी जनता से जुड़कर राजनीति नहीं की। उनकी जितनी लोकप्रियता नहीं है, उससे कहीं ज्यादा उन पर उंगलियां उठाने वाले मुद्दे हैं। ये भी नहीं कहा जा सकता कि वे शहर में सिंधी समाज के एक छत्र नेता हैं! क्योंकि, उनकी उम्मीदवारी की घोषणा के साथ ही समाज में विरोध की आवाज भी उठी! लोकसभा क्षेत्र में सिंधियों के इतने वोट भी नहीं हैं कि वे नतीजों को पलट सकें! ये भी दावा नहीं किया जा सकता कि पूरा सिंधी समाज शंकर लालवानी के साथ है या सभी भाजपा सोच वाले हैं।
  इंदौर के सभी भाजपा नेता भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में भी नहीं हैं। जो खुद उम्मीदवारी की दौड़ में थे, वे पिछड़कर दुखी हैं और महज दिखावे के लिए झंडा उठाए हैं। ये स्वाभाविक भी है। क्योंकि, जो खुद सांसद बनने के सपने देख रहा हो, वो क्यों दूसरे के लिए नारे लगाएगा? शंकर लालवानी ने एक बड़ी राजनीतिक गलती ये भी की, कि जिस सत्यनारायण सत्तन ने सुमित्रा महाजन को टिकट दिए जाने के खिलाफ मोर्चा खोला था, उन्हें अपने प्रचार अभियान में कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी! सार्वजनिक रूप से तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं हुई, पर अंदर की खदबदाहट बताती है कि सत्तन को आगे रखने से वे मराठी वोटर्स खफा हैं, जो 'ताई' के पक्षधर हैं और लालवानी जिन्हें अपना समझ बैठे हैं। अब जबकि, वे सुमित्रा महाजन के विरोधियों के साथ खड़े हैं, मराठी वोट बैंक बिचकता नजर आ रहा है! ऐसे में कैसे कहा जाए कि जिस वोट बैंक को शंकर लालवानी अपने खाते में गिन रहे थे, वे वास्तव में उनके साथ हैं?
   यदि शंकर लालवानी और कांग्रेस उम्मीदवार पंकज संघवी के राजनीतिक अनुभव की तुलना करें, तो पंकज का दायरा ज्यादा बड़ा है! उन्होंने भी पार्षद का चुनाव जीतकर राजनीति में कदम जरूर रखा, पर बाद तीन बड़े चुनाव लड़े! वे विधानसभा, लोकसभा व महापौर का चुनाव लड़े, लेकिन जीते नहीं! चुनाव लडऩे के मामले में पंकज संघवी को वजनदार माना जा सकता है। गुजराती समाज से जुड़े पंकज के पास समाज की भी विरासत है। उनका परिवार शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा है, इसलिए भी उनके संपर्कों का दायरा भी बड़ा है! तीन बड़े चुनाव हारने का अनुभव भी कम नहीं होता!  उन्होंने उन ग्रामीण क्षेत्रों की भी ख़ाक छानी है, जहाँ लालवानी की अपनी कोई पहचान नहीं है! भाजपा के लिए परेशानी की बात ये भी है कि इंदौर के दोनों ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र सांवेर और देपालपुर कांग्रेस के पास हैं। कागजों पर भी शंकर लालवानी का पलड़ा कमजोर लग रहा है। उनके पक्ष में सिर्फ एक ही बात है कि नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले वोटर भाजपा उम्मीदवार को वोट देंगे। लेकिन, मोदी को नापसंद करने वाले भी तो कम नहीं है! 
   इस लोकसभा क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में से 4 कांग्रेस और 4 भाजपा के पास है। कांग्रेस के लिए अच्छी बात ये है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। इंदौर से जीतू पटवारी और तुलसी सिलावट मंत्री हैं और तीसरे सज्जन वर्मा भी इंदौर की राजनीति में दखल रखते हैं! इस नजरिए से माहौल का पलड़ा कांग्रेस के पक्ष में झुका लग रहा है। लेकिन, सुगबुगाहट ये भी है कि इन तीनों मंत्रियों की अकड़ से पार्टी कार्यकर्ता काफी नाराज है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इंदौर संसदीय क्षेत्र की 4 सीटें मिली थीं, जो कांग्रेस के लिए सकारात्मक है। पिछला लोकसभा चुनाव सुमित्रा महाजन करीब साढ़े 4 लाख वोट से जीती थीं। विधानसभा चुनाव में ये लीड घटकर 95,129 रह गई! जबकि, इंदौर क्षेत्र में सवा लाख नए वोटर भी बने हैं! ये सारे तथ्य शंकर लालवानी और पंकज संघवी की जीत के दावों पर सवाल खड़ा करते हैं! मराठी वोट किसका साथ देंगे, इस बारे में अभी सिक्का हवा में है! 'ताई' का खुद उम्मीदवार होना और किसी उम्मीदवार को जिताने के लिए 'ताई' की अपील से फर्क पड़ता है! यही स्थिति सिंधी वोटर्स की है। शहर का जो इलाका सिंधी और पंजाबी वोटर्स के प्रभुत्व वाला माना जाता है, वहाँ सज्जन वर्मा की भी खासी पकड़ है।     
  शंकर लालवानी की जीत को संदिग्ध बताने वालों ने ये तथ्य भी खोज निकाला कि इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के अध्यक्ष की कुर्सी राजनीतिक रूप से मनहूस है। जो भी इस कुर्सी पर बैठता है, उसका राजनीतिक सफर इसी के साथ समाप्त हो जाता है! राजनीति में अंधविश्वासों को गंभीरता से लिया जाता है, इसलिए इस बात को किनारे भी नहीं किया जा सकता! इस कुर्सी को संभाल चुके दोनों पार्टियों के 6 नेता आज नेपथ्य में हैं। आईडीए के पहले अध्यक्ष थे भाजपा के देवीसिंह राठौर जिनकी राजनीति इस कुर्सी से उतरने के बाद हाशिए पर चली गई! उनके बाद कांग्रेस के शिवदत्त सूद और कृपाशंकर शुक्ला अध्यक्ष बने, लेकिन उनकी राजनीति ने भी गति नहीं पकड़ी! प्रदेश में जब भाजपा की सरकार आई तो मधु वर्मा को आईडीए का अध्यक्ष बनाया गया! वे लगातार दो कार्यकाल अध्यक्ष रहे! लम्बे समय तक उनका कोई नामलेवा तक नहीं रहा! 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने राऊ से उम्मीदवार जरूर बनाया, पर वे चुनाव हार गए! शंकर लालवानी भी दो बार अध्यक्ष रहे हैं और अब लोकसभा के उम्मीदवार हैं। यदि वे चुनाव जीतते हैं तो उन्हें 'ताई' की विरासत की विरासत का सही चौकीदार तो माना ही जाएगा! साथ ही ये अंधविश्वास भी खंडित होगा कि आईडीए की कुर्सी राजनीतिक मनहूसियत की निशानी नहीं है। अब सारी नजरें इस बात पर लगी है कि लोकसभा चुनाव नतीजों का जो सिक्का हवा में है, वो किस तरफ गिरता है? क्योंकि, जितनी कमजोरी और ताकत शंकर लालवानी की गिनी जा रही है, उतनी पंकज संघवी के पास भी है।
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