Monday, October 29, 2018

टिकट के दावेदारों ने समीकरण गड़बड़ाए



  इन दिनों मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियाँ अपने-अपने उम्मीदवारों के कटघरे में खड़े हैं! दोनों पार्टियों को समझ नहीं आ रहा कि उनके लिए चुनाव जीतने वाला चेहरा कौनसा है! चुनाव से पहले लगा था कि दोनों के लिए उम्मीदवारों का चयन ज्यादा बड़ी मुश्किल नहीं बनेगा। भाजपा ने दर्जनभर सर्वे जरिए पता कर ही लिया था, कि उसका कौनसा विधायक फिर चुनाव लड़ने लायक है और कौनसा नाकारा! इसलिए जो नाकारा है, वो किनारे कर दिया जाएगा और उसकी जगह कोई नया आ जाएगा! उधर, कांग्रेस को तो 180 करीब नए चेहरे ढूँढना है, इसलिए उसके लिए भी ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी! पर, जमीन पर ये सारे अनुमान गलत साबित हुए! दोनों पार्टियों में टिकट को लेकर जमकर घमासान मचा है। 100 से ज्यादा विधायकों के टिकट काटने का दावा करने वाली भाजपा को एक-एक टिकट काटने में पसीना आ गया। ऐसे में चुनाव समिति को समझ नहीं आ रहा, कि किसका टिकट काटे? उधर, कांग्रेस इस मुसीबत में है कि दावेदारों की भीड़ में किसे टिकट दें! जीत के दावों के बीच कौनसा चेहरा वास्तव में दांव लगाने लायक है! दोनों के सामने मुश्किल एक ही है कि किसे टिकट दें और किसे नहीं! टिकट चाहने वालों की भीड़ ने कांग्रेस, भाजपा की सारी चुनावी रणनीति पर पानी फेर दिया। दिल्ली से लगाकर भोपाल तक चले मंथनों के कई दौर भी धरे रह गए। 
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- हेमंत पाल

    मलनाथ जब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, तब दावा किया गया था कि अब कांग्रेस एक है। पार्टी में गुटबाजी और 'अपना आदमीवाद' की राजनीति बिल्कुल ख़त्म हो गई। इस बार टिकट उसी मिलेगा, जो वास्तव में जीतने की कूबत रखता होगा! ये बात कहने और सुनने में बहुत अच्छी लगती है। कांग्रेस का ये दावा भी अच्छा लगा, पर ऐसा हुआ नहीं! एक-एक सीट के लिए खींचतान चल रही है। विधायकों की 45-50 सीटें छोड़ जाएं, तो बची हुई अधिकांश सीटों पर घमासान मचा है। न तो कोई टिकट के दावेदार पार्टी की बात समझने को तैयार हैं, न पार्टी के नेता आपसी गुटबाजी से उभरे! टीवी सर्वे पर कांग्रेस की संभावित जीत ने पार्टी को इतना उत्साहित कर दिया कि पार्टी के सारे आका अपने मोहरों पर दांव लगाने पर तुले हैं। हर बड़ा नेता इस कोशिश में है कि जीत वाली सीटों पर उसके ही समर्थक को टिकट मिले ताकि उसका पलड़ा भारी रहे। लेकिन, इस पूरी कवायद में दिग्विजय सिंह की 'संगत में पंगत' वाली रणनीति कामयाब होती दिखाई दे रही है। वही एक नेता हैं, जिन्हें पूरे प्रदेश की जमीनी हकीकत पता है।    
     कांग्रेस ने भले ही दिग्विजय सिंह को किनारे करने का नाटक किया हो, पर टिकटों की इस मारामारी से ये बात सामने आ गई कि अभी उनकी ताकत चुकी नहीं है। यदि वे नेपथ्य में हैं, तो ये भी उनकी ही कोई रणनीति का कोई हिस्सा है। उन्होंने इस बार स्वयं ही चुप रहने और मंच पर दिखाई न देने की भूमिका चुनी है। दिग्विजय सिंह के पीछे रहने का ही नतीजा है, कि कई सीटों पर बिना किसी विवाद के सहमति बनने की बातें कही गई! कांग्रेस का दावा है कि शुरुआती 70 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम अंतिम रूप से तय हो गए हैं। लेकिन, ऐसा सभी सीटों के लिए हो सकेगा, ऐसा नहीं लगता। पिछले चुनावों की ही तरह इस बार भी अंतिम समय तक नाम उलझे रहेंगे। पहले माना जा रहा था कि टिकटों का फैसला कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पसंद-नापसंद पर निर्भर करेगा, पर ऐसा नहीं हुआ और न ऐसा होना संभव था। दिग्विजय सिंह पार्टी में एक बड़ा फैक्टर है, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
   ये बात सभी जानते हैं कि प्रदेश की कांग्रेसी सियासत तीन-चार नेताओं के प्रभाव क्षेत्र में बंटी है। ग्वालियर-चंबल इलाके में ज्योतिरादित्य सिंधिया, महाकौशल में कमलनाथ और मालवा, निमाड़ और बुंदेलखंड में दिग्विजय सिंह का दबदबा है। जबकि, बघेलखंड में नेता विपक्ष अजय सिंह का असर है। पहले इन नेताओं के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों को ही टिकट मिलते थे! लेकिन, इस बार कहा जा रहा था कि अब यह फॉर्मूला अब नहीं चलेगा! एजेंसियों से कराए जा रहे कई सर्वे पर भी पार्टी काफी हद तक भरोसा कर रही है। यही प्रयोग गुजरात और कर्नाटक में भी किया गया था, जिसके अच्छे नतीजे रहे। पार्टी ने इस बार के सर्वे का सैंपल साइज भी हर विधानसभा में 5 हज़ार वोटर्स से बढ़ाकर 15 हज़ार कर दिया था। इसलिए कि जो आकलन निकले वो ज्यादा सटीक हो। क्योंकि, इस बार सर्वे के नतीजों को ही टिकट का आधार बनाया गया है। उम्मीदवारी का अंतिम फैसला किसी नेता के प्रति निष्ठा से नहीं होगा! कांग्रेस की योजना भाजपा से पहले ही टिकट फाइनल करने की थी। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका। पहले यहाँ तक कहा गया था कि जिन 50 सीटों पर कांग्रेस पिछले पाँच विधानसभा से चुनाव नहीं जीत सकी थी, वहाँ उम्मीदवारों की घोषणा सितंबर में कर दी जाएगी! लेकिन, ये काम अक्टूबर अंत तक भी नहीं हुआ! 
  भाजपा में भी हालात काबू में नहीं हैं। वहाँ भी एक-एक नाम पर जमकर छिड़ी हुई है। पार्टी ने भले ही पहले 100 से ज्यादा टिकट काटने की बात कह दी हो, लेकिन अब ये संभव नहीं लग रहा। अब घटते-घटते बात 60-65 टिकटों पर आ गई! जिस भी विधायक को अपने टिकट पर संकट नजर आ रहा है, वो विद्रोह की भूमिका में नजर आने लगता है। पार्टी ने 2008 और 2013 में टिकट का फार्मूला बनाया था 'मिनिमम रिक्स-मैक्सिमम रिजल्ट।' इसके अच्छे नतीजे निकले थे। दोनों बार 50 से ज्यादा टिकट बदले गए थे। इस बार ये गाज किस पर गिरेगी, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कुछ विधायकों की सीटें बदलने की भी कोशिश की जा रही है। इनमें विधायकों के अलावा कुछ मंत्री भी शामिल है। 
   ये भी सही है कि मौजूदा विधायकों के टिकट कटने की खबरों ने भी पार्टी के अंदर भूचाल सा ला दिया है। पार्टी का तर्क है कि सर्वे में जिनके जीतने के आसार नहीं हैं, उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा! लेकिन, कोई भी ये मानने को तैयार नहीं है! संघ का तर्क है कि नेतृत्व को लेकर लोगों में गुस्सा नहीं है, लेकिन विधायकों के प्रति लोगों में जबरदस्त नाराजी है। यदि इस गुस्से ठंडा करना है, तो चेहरे बदलना ही होंगे! लेकिन, ये कोई मानने को तैयार नहीं कि उसके नीचे से जमीन खिसक रही है। भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि टिकट काटते हैं, तो विद्रोह का खतरा है! यदि टिकट देते हैं, तो लोगों की नाराजी झेलना पड़ेगी! एक तरफ कुंआ है और दूसरी तरफ खाई! पर इसी संकट से निकलना ही तो चुनाव प्रबंधन में परीक्षा की असली घड़ी है!
    भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भले ही प्रदेश संगठन पर इस बार 200 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा हो, पर हालात ऐसे नहीं है कि पार्टी इस लक्ष्य तक पहुँच पाएगी! किसानों की नाराजी, एंटी इनकम्बैंसी, एट्रोसिटी एक्ट, सवर्णों का गुस्सा भाजपा को शायद ही टारगेट तक पहुंचने दे! परिस्थितियों को देखते हुए पार्टी भी संभल संभलकर फैसले कर रही है। जबकि, भाजपा की कमजोरी को ही कांग्रेस ने अपनी ताकत बनाया है। प्रदेश सरकार की 15 साल की खामियों, किसानों की नाराजी, बेरोजगारी, अफसरशाही और सरकार के अधूरे वादों को कांग्रेस ने अपना चुनावी मुद्दा बनाया है। लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर है कि पार्टी का चेहरा बनने वाले उम्मीदवार कौनसे हैं। क्योंकि, दोनों पार्टियां जिसे चुनाव में उतारेगी, वही उसकी जीत का आधार बनेंगे!  
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फिल्मों में हिट रहा 'चोर' फार्मूला!


- हेमंत पाल 

    इन दिनों तमाम टीवी चैनलों और राजनीतिक रैलियों में 'चोर' शब्द की धूम है। हर राजनीतिक पार्टी प्रतिद्वंदी को ज्यादा बड़ा चोर साबित करने पर तुली है। राजनीति में तो ये फार्मूला ज्यादा सफल नहीं रहा! लेकिन, फिल्मों के लिए 'चोर' फार्मूला हमेशा से हिट रहा है। फिल्मों का इतिहास टटोलकर देखा जाए, तो 'चोर' शीर्षक से बनी अधिकांश फिल्में या गाने हिट हुए हैं। बाॅलीवुड की पहली हिट फिल्म कहलाने का श्रेय 1943 में प्रदर्शित अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' को जाता है, जिसने कोलकाता के एक सिनेमा हाॅल में लगातार साढ़े तीन साल चलने का रिकार्ड बनाया था। 1975 में मुंबई के मराठा मंदिर में प्रदर्शित 'शोले' का भी लगातार पांच साल से ज्यादा चलने का रिकॉर्ड 32 साल तक कायम रहा। 'किस्मत' में अशोक कुमार ने चोर का चरित्र निभाया था, वहीं शोले के दोनों नायक धर्मेन्द्र और अमिताभ चोर बने थे।  
   हिन्दी फिल्मों में 'चोर' का चरित्र ब्लेक-शेड वाला न होकर ग्रे-शेड वाला होता है, जो नायिका से लेकर दर्शकों का दिल जीतकर बाॅक्स ऑफिस को लूटने में कामयाब होता है। कई फिल्में ऐसी भी बनी, जिनमें क्लाइमेक्स से पहले तक तो नायक को चोर दिखाया जाता है, लेकिन अंतिम रील आते-आते वो पुलिस वाला बन जाता है। 'ज्वैल थीफ' इस तरह की सबसे ज्यादा मनोरंजक फिल्म थी, जिसमें दर्शक आखिरी तक देव आनंद को चोर ही समझते हैं, लेकिन क्लाइमेक्स में अशोक कुमार को चोर के रूप में देखकर सब चौंक जाते है। 
  अशोक कुमार ने आरंभिक दिनों कई अपराधिक फिल्मों में चोर की भूमिका निभाई। उसके बाद देव आनंद लगभग हर दूसरी फिल्मों में चोर ही नहीं महिला दर्शकों के चितचोर भी बनें। राजकपूर ने 'आवारा' में चोर की भूमिका निभाकर दुनियाभर में वाहवाही लूटी, तो उनके भाई शम्मी कपूर भी ज्यादातर फिल्मों में चोर बने। सबसे छोटे भाई शशि कपूर तो इससे एक कदम आगे निकले। वह एनसी सिप्पी की एक फिल्म में न केवल चोर बने, बल्कि चोर बनकर उन्होंने 'चोर मचाए शोर' में खूब शोर मचाया और बाॅक्स आफिस पर पैसा भी बटोरा!
   हिन्दी फिल्मों के कई निर्माता-निर्देशकों को 'चोर' विषयों पर फिल्में बनाने या निर्देशित करने में महारथ हांसिल थी। गुरूदत्त गंभीर फिल्मकार बनने से पहले 'चोर' विषय पर सीआईडी, 12'ओ क्लाॅक जैसी सफल फिल्म बना चुके थे। विजय आनंद, शक्ति सामंत, राज खोसला जैसे फिल्मकारों ने हिन्दी फिल्मों में चोरों का जमकर महिमा मंडन किया। ऐसे ही निर्देशकों की बदौलत हिन्दी फिल्मों के चोरों पर दर्शकों का खूब प्यार उमड़ा है। हिन्दी फिल्मों में शायद ही कोई अभिनेता हो, जो कभी चोर न बना हो। मनोज कुमार जैसा कलाकार भी 'बेईमान' में चोर का चरित्र निभा चुके हैं। अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, देव आनंद, शत्रुघ्न सिंहा, राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र जैसे पुराने नायकों ने कई फिल्मों में चोर बनकर दर्शकों को लुभाया। अब शाहरूख, सलमान और आमिर भी इस दौड में पीछे नहीं हैं। 'धूम' सीरिज की सारी फिल्मों का कथानक चोरों के इर्द गिर्द ही घूमता रहा। 
   'चोर' शीर्षक से बनी फिल्मों में ज्वैल थीफ, चोरी मेरा काम, चोर-चोर, दो चोर, तू चोर में सिपाही, हम सब चोर हैं, अलीबाबा चालीस चोर, चोर मचाए शोर, बम्बई का चोर, चोर और चांद, थीफ आफ बगदाद, बैंक चोर, नामी चोर, महाचोर, चोर बाजार प्रमुख है। कुछ ऐसी फिल्में भी हैं, जिनमें नायक तो शरीफ होता है लेकिन नायिकाएं चोर होती हैं। जीनत अमान, मुमताज, हेमा मालिनी और श्री देवी ऐसी भूमिकाओें में खूब फबती रही है। नीतू सिंह की एक फिल्म का शीर्षक ही 'चोरनी' था। 
   हिन्दी फिल्मों के 'चोर' केवल शीर्षक तक ही सीमित नहीं रहे। ऐसे कई हिन्दी गीत हैं जिन्हें 'चोर' शब्द के प्रयोग ने हिट बनाया है। ऐसे गीतों में चुरा के दिल मेरा, चुरा लिया है तुमने जो दिल तो, मैं एक चोर मेरी रानी, शोर मच गया शोर, आया बिरज का बांका चोर, मेरी गली में आया चोर, इस दुनिया में सब चोर चोर, जब अंधेरा होता है आधी रात को एक चोर निकलता है। मैं एक चोर मेरी रानी गीत को भी लोगों ने खूब सुना और गुनगुनाया है। सलीम जावेद ने तो अपनी फिल्म 'दीवार' में अमिताभ के हाथ पर 'मेरा बाप चोर है' लिखकर हिन्दी सिनेमा में चोर को न केवल अमर कर दिया, बल्कि बाॅलीवुड को चोर विषय पर हिट फिल्म बनाने का एक फार्मूला भी बता दिया है। 
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भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को सत्ता का मौका देगी!


   विधानसभा चुनाव की दुंदुभि बज चुकी है। मध्यप्रदेश के दो परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंदी फिर आमने-सामने हैं। एक के पास डेढ़ दशक की सत्ता की ताकत है, तो दूसरे के पास प्रतिद्वंदी की खामियों की फेहरिस्त! इस चुनाव में एक पार्टी अपनी उपलब्धियां गिनाएगी, दूसरी उसकी खामियां ढूंढेंगी! लेकिन, इस बार के चुनाव की खासियत है कि मतदाता किसी आँधी, तूफान से प्रभावित नहीं है। उसे पार्टी और उम्मीदवार को समझने का पूरा मौका मिल रहा है। मतदाता की ख़ामोशी इस बात का अहसास नहीं कराती कि उसके मन में क्या है! लेकिन, ये सच है कि सत्ताधारी पार्टी की गलतियां ही इस बार निर्णायक होगी। मतदाता उसे इन गलतियों की सजा देगा या माफ़ करेगा, यही अगली सरकार का फैसला करेगा।  
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 - हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटने का सपना देख रही कांग्रेस इन दिनों अच्छे उम्मीदवारों को लेकर संकट में है। पार्टी को ऐसे उम्मीदवार नहीं मिल रहे, जो  भाजपा के मुकाबले डंके की चोट पर चुनाव जीतने का दावा कर सकें। पार्टी को अभी ऐसे चेहरों की जरुरत है जिनकी छवि साफ़ हो और जो भाजपा उम्मीदवारों पर हावी हो सकें। पश्चिम मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका भी कांग्रेस की इस परेशानी अछूता नहीं है। इंदौर, उज्जैन संभाग की 25 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहाँ पार्टी के पास सौ टंच चुनाव जीतने वाले चेहरे नदारद हैं। क्योंकि, लगातार तीन विधानसभा चुनाव की हार ने कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास खोखला कर दिया। जब कोई पार्टी लगातार चुनाव हारती है, तो उसके पास नए चेहरों का अकाल पड़ जाता है। नए लोग पार्टी से कन्नी काटने लगते हैं और पुराने नेता मायूस होकर बैठ जाते हैं। 
  चुनाव के उत्साह में भले ही नए, पुराने नेता चुनाव जीतने का दावा कर रहे हों, पर लगता नहीं कि वे कोई चमत्कार कर सकेंगे! इंदौर में ही कांग्रेस को 5 ऐसे चेहरे नहीं मिल रहे, जिन पर दांव लगाया जाए। इंदौर जिले में विधानसभा की 9 सीटें हैं, जिनमें 6 सीटें शहरी हैं। सांवेर, महू और देपालपुर ग्रामीण सीटें हैं। पिछले दो चुनाव छोड़ दिए जाएं तो तीनों ग्रामीण सीटों की तासीर हमेशा बदलती रही है। महू से पिछले दो विधानसभा चुनाव भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय जीते। इससे पहले वे इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-2 से चुनाव लड़ते रहे हैं। महू से फिर कैलाश विजयवर्गीय चुनाव लड़ते हैं, तो यहाँ कांग्रेस उम्मीदवार के लिए जीत आसान नहीं होगी। देपालपुर से भी मनोज पटेल ने दो चुनाव जीते हैं, जबकि यहाँ लम्बे समय तक कांग्रेस का झंडा लहराया। यहाँ इस बार मनोज पटेल से लोगों की नाराजी के कारण भाजपा कमजोर दिख रही है, पर सारा दारोमदार कांग्रेस के चेहरे पर टिका है। यदि कांग्रेस ने किसी नए चेहरे पर दांव लगाया तो यहाँ पंजा मजबूत हो सकता है। उधर, सांवेर की सीट पर कांग्रेस के तुलसी सिलावट ने हमेशा अपना दम दिखाया है, पर पिछले चुनाव में मोदी की आँधी में वे भी अपनी सीट बचा नहीं सके थे। लेकिन, जीतने वाले राजेश सोनकर पिछले 5 साल में अपना प्रभाव नहीं छोड़ सके। इस बार फिर इन्हीं दोनों के बीच मुकाबले की उम्मीद की जा रही है। 
    शहर की दो विधानसभा सीटें ऐसी हैं जो लम्बे समय से भाजपा के कब्जे में हैं। ये हैं क्षेत्र क्रमांक-2 और 4 क्षेत्र। क्षेत्र क्रमांक-2 मिल मजदूरों का एरिया कहा जाता है, जहाँ से कैलाश विजयवर्गीय ने कई बार चुनाव जीता और दो चुनाव पहले अपनी सियासी सल्तनत अपने दोस्त रमेश मेंदोला को सौंपकर किला फतह करने महू चले गए। ऐसे में रमेश मेंदोला ने पिछला चुनाव 92 हज़ार से जीतकर अपने दावे को एकबार फिर मजबूत किया है। इस बार भी यहाँ कांग्रेस सिर्फ खानापूरी के लिए चुनाव मैदान उतरेगी, यह जानते हुए कि रमेश मेंदोला को हराना आसान नहीं है। पिछले चुनाव की लीड कम हो सकती है, पर इतनी कम भी नहीं कि कांग्रेस का झंडा लहराने लगे।   
    डेढ़ दशक तक सत्ता से बाहर रहने वाली कांग्रेस के सामने अच्छे उम्मीदवारों के अभाव का संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। लेकिन, कांग्रेस का राजनीतिक वनवास इस बार ख़त्म हो जाएगा, इस बात का दावा भी नहीं किया जा सकता। भाजपा जिस आक्रामक ढंग से चुनाव लड़ने की तैयारी में है, कांग्रेस उसके मुकाबले कई मोर्चों पर बेहद कमजोर है। चुनाव को लेकर कांग्रेस के नेताओं ने भी रणनीति बनाई होगी, पर वो रणनीति अभी तक किसी भी नजरिए से कारगर होती दिखाई नहीं दे रही। मेहनत के बावजूद कांग्रेस में एक बिखराव सा लग रहा है। उम्मीद की जा रही थी, कि कमलनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में एकजुटता आएगी और लोगों को पार्टी की ताकत दिखेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी के तीन दिग्गजों की तीन धाराएं स्पष्टतः अलग-अलग दिशाओं में बहती नजर आ रही है। कहीं-कहीं तो ये धाराएं आपस में उलझ भी रही है। अब देखना है कि उम्मीदवारों की घोषणा के बाद चुनावी माहौल कैसा बनेगा। वैसे भी कांग्रेस के पास खोने के लिए बहुत बड़ी सियासी जायदाद नहीं है। पार्टी पिछले चुनाव में जीती 57 सीटों से वो नीचे उतरेगी, ऐसा भी नहीं लगता! लेकिन, ये तय है कि कांग्रेस इस चुनाव में जो भी पाएगी, वो उसे भाजपा की गलतियों से ही मिलेगा।   
  फिलहाल कांग्रेस को सारी उम्मीदें पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी के धुंआधार प्रचार और भाजपा की कमजोरी से है। राहुल गाँधी भोपाल, विंध्य, महाकौशल और ग्वालियर-चंबल इलाके में चुनाव प्रचार का अपना पहला दौर पूरा कर चुके हैं। अब उनका फोकस मालवा-निमाड़ पर है, जहाँ कांग्रेस को अपनी उस खोई पहचान को पाना है, जो कभी उसकी ताकत हुआ करती थी। 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिमी मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में कांग्रेस ने अपनी जमीन ही खो दी। कांग्रेस की सबसे बुरी स्थिति 2003 और 2013 में हुई, जब मालवा से कांग्रेस के कई गढ़ उखड़ गए थे। इस बार क्या पार्टी उन पुराने किलों को से फतह कर पाएगी, ये सवाल मौंजूं है। 
  मालवा-निमाड़ की 66 में से मालवा की 48 विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जिसे कई चुनाव में कांग्रेस ने ख़म ठोंककर जीती हैं। लेकिन, पिछले चुनाव में इनमें से 44 पर भाजपा का झंडा लहराया। इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि खोई हुई साख को फिर पा लिया जाए। पार्टी को ये इसलिए भी संभव लग रहा है, कि इस बार किसान आंदोलन, एससी-एसटी एक्ट जैसे मुद्दे भाजपा के खिलाफ जाते दिख रहे हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि इन मुद्दों को भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करके अपने वोट बैंक को मजबूत किया जाए। मंदसौर में हुए किसान आंदोलन के बाद कांग्रेस ने इस मामले को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राहुल गाँधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया यहाँ दो-दो बार आम सभाएं कर लोगों की संवेदनाओं को झकझोर चुके हैं। जबकि, एससी-एसटी मामले पर सवर्ण-ओबीसी सरकारी कर्मचारी उद्वलित हैं। अब दारोमदार इस पर है, कि कांग्रेस लोगों की नाराजी को किस तरह वोटबैंक में तब्दील कर पाती है। 
   मालवा-निमाड़ इलाके में भी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व पांसा फैंकने की कोशिश में है। यही कारण है कि राहुल गाँधी को महांकाल और ओंकारेश्वर ले जाने की योजना है। ब्राह्मणों को रिझाने के लिए उन्हें भगवान परशुराम की जन्मस्थली जानापाव भी ले जाने का विचार है। इन सारी तैयारियों का लक्ष्य है कि पार्टी के प्रदर्शन को सुधारा जाए। कांग्रेस की कोशिश है कि इंदौर जिले की 9 विधानसभा सीटों में से जिन 8 पर भाजपा का कब्जा है, उसमें सेंध लगाई जाए। जबकि, धार जिले की 7 में से 5 सीटें भाजपा के पास हैं। झाबुआ की भी 3 में से 2 सीटें भाजपा ने जीती थीं। यहाँ की एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था। जबकि, नीमच की सभी 3 सीटें, मंदसौर की 4 में से 3 सीटें, उज्जैन जिले की सभी सातों सीटें, रतलाम जिले की सभी 5 सीटें, देवास की सभी 5 सीटें, शाजापुर की सभी 3 सीटें और आगर जिले की दोनों सीटों पर भाजपा काबिज है। पिछले चुनाव में जिन 7 जिलों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था, पार्टी की कोशिश होगी कि वहां कोई चमत्कार किया जाए! लेकिन, वो चमत्कार कैसे होगा ये कोई नहीं जानता! शायद भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को मौका देंगी। जबकि, भाजपा पुरानी गलतियों को सुधारने के बजाए नए चुनावी पांसे फैंककर मतदाताओं को भरमाने में लगी है।     
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Sunday, October 21, 2018

देखिए, अच्छी भी है फ़िल्मी दुनिया!

- हेमंत पाल

   सिनेमा की दुनिया पर अकसर तोहमत लगाई जाती है, कि यहाँ के स्वार्थी होते हैं। कोई किसी का साथ नहीं देता और चढ़ते सूरज का तिलक किया जाता है। कुछ मामलों में ये बात सही भी है! पर, कुछ लोग इससे अलग भी हैं, जो दूसरों का दर्द समझते हैं और मदद का हाथ बढ़ाने से पीछे नहीं रहते! जिंदादिल फिल्मकारों से जुड़े ऐसे कुछ किस्से, जो बताते हैं कि सिनेमा की दुनिया उतनी बुरी भी नहीं, जितनी समझी जाती है। 
     मोहम्मद रफी एक बार गाने की रिकार्डिंग के लिए स्टूडियों की लिफ्ट से ऊपर जा रहे थे। उस रिकॉर्डिंग स्टूडियो का पुराना लिफ्ट मैन रफ़ी साहब को जानता था। उसने मोहम्मद रफी की तरफ शादी का कार्ड बढ़ाते हुए कहा 'मेरी बेटी की शादी है, आप आइएगा।' रफी साहब ने अनमने से कार्ड ले लिया, उसकी तरफ देखा भी नहीं। लिफ्ट मैन ने भी इसे कमजोर लोगों की नियति मान लिया और चुप हो गया। करीब घंटेभर बाद मोहम्मद रफी रिकार्डिंग करके लौटे! वापसी में उसी लिफ्ट मैन से पूछा 'शादी किस दिन है, ये कहते हुए एक लिफाफा उसके हाथ में दिया।' रफी के इस बदले व्यवहार को वो समझ नहीं पाया! थोड़ी देर बाद फिल्म के निर्देशक ने कहा कि रफी साहब से गुस्सा मत होना! उस समय वे रिकार्डिंग के लिए जा रहे थे, इसलिए उनका ध्यान केवल गाने पर था। लेकिन, जब गाने की रिकार्डिंग हो गई तो मुझसे कहा कि मेरी फीस में अपना पैसा भी मिलाइए नीचे लिफ्ट मैन की बेटी की शादी है। 
   जाने-माने गायक मुकेश के घर के पास एक प्रेस की दुकान थी। वह प्रेस वाला अकसर अपने साथियों से कहता था कि मुकेशजी उससे आते-जाते बात करते हैं, मेरी उनसे दोस्ती है। जब उस प्रेस वाले की लड़की की शादी तय हुई, तो लोगों ने कहा कि मुकेशजी को क्यों नहीं बुलाते, वो तो तुम्हारे दोस्त हैं! उसने झिझकते हुए शादी का निमंत्रण मुकेशजी को दे दिया। उसने सोचा नहीं था कि वास्तव में मुकेशजी उसकी बेटी की शादी में आएंगे। शादी के दिन मुकेशजी जब वे सांजिदों के साथ मंडप में पहुंचे, तो वह घबरा गया। उसे लगा कि उसने मुकेशजी को गाने के लिए थोडी बुलाया था। वह मुकेशजी के पास गया और कहने लगा 'आपको तो बस आने के लिए कहा था, बेटी की शादी है आपके गाने का ख़र्चा कैसे दे पाऊंगा। ऊपर से तबला, बाँसुरी और सारंगी अलग।' मुकेशजी ने कहा कि तुम्हारी बेटी क्या मेरी बेटी नहीं। तुमसे पैसा कौन मांग रहा है। मैं तो बारातियों को गाना सुनाने आया हूँ। मुकेशजी ने उस शादी में देर रात तक गीत गाए। देर रात जब वे घर लौटे तो बेटे नितिन से कहा कि वहाँ गाने में इतना सुकून मिला, जितना अाजतक रिकॉर्डिंग में भी नहीं मिला! मुकेशजी ने वहाँ सिर्फ गाने ही नहीं गाए, उस बेटी को तोहफे में अच्छे-खासे पैसे भी देकर आए थे। 
  मुकेशजी अकसर सर्दियों की रात दिल्ली में कार से सड़क पर निकलते और फुटपाथ पर सोते भिखारियों को कंबल ओढ़ा देते थे। एक बार एक भिखारी ने उन्हें ऐसा करते पहचान लिया, लेकिन कहा कुछ नहीं। बस, उनका एक गीत 'दुनिया मैं तेरे तीर का या तक़दीर का मारा हूँ' गाने लगा। मुकेशजी ने कहा ये गीत तुमने कहाँ सुना? भिखारी ने कहा हमारी किस्मत में ये कहाँ कि मुकेशजी हमें ये गीत सुनाएं या हम उनके प्रोग्राम में जाएं। इस पर मुकेशजी ने कहा कि यहीं रहना मैं लौटकर आता हूँ। मुकेश वापस आए तो उस भिखारी के लिए अपने शो के चार टिकट लाएं, साथ में तीन सौ रुपए दिए और कहा 'परसों मुकेशजी का कार्यक्रम है वहाँ आ जाना।' भिखारी ने पांव छू लिए और कहा 'मैं आपको पहचान गया था, पर हिम्मत नहीं थी, इसलिए आपका गीत गा दिया।' 
 मीना कुमारी बहुत अच्छी शायरा थी, लेकिन कभी मंचों पर नहीं गाती थी। एक बार किसी ने कहा कि सैनिको के लिए कवि सम्मेलन है, आप कभी मंच पर नहीं आतीं, पर हो सके तो सैनिकों के लिए आइए! मामला सैनिकों का था तो मीनाजी वहाँ गईं भी और कविताएं भी पढ़ी! उन्होंने कविता के लिए पैसा लेना तो दूर, अपनी तरफ से सैनिक कल्याण कोष में अच्छी खासी रकम दे आईं।
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Tuesday, October 16, 2018

कांग्रेसी सियासत के गलियारों में दिग्विजयी धमक!


   मध्यप्रदेश में सियासी माहौल गरमा रहा है। पार्टियों में सही उम्मीदवार के लिए बार-बार पत्ते फैंटे जा रहे हैं। चुनाव की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सपाक्स, जयस और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी समेत और भी कई छोटी-छोटी पार्टियां भी दांव खेलने को तैयार हैं। डेढ़ दशक से प्रदेश की सत्ता में काबिज भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती 165 विधायकों में से जीतने वाले चेहरों को चुनना है। जबकि, कांग्रेस को अपने सिर्फ 57 विधायकों में से उन्हें चुनना है, जो उसके लिए सत्ता की सीढ़ी बन सकें। सारा दारोमदार उम्मीदवारों के चयन का है। जिस भी पार्टी ने मतदाताओं की नब्ज पहचानकर सही चेहरे को उम्मीदवार चुना, उसके लिए ये जंग आसान हो जाएगी। भाजपा का तो पूरा संगठन इस काम में लगा है! उधर, कांग्रेस में भी पार्टी आलाकमान के साथ प्रदेश के तीनों प्रमुख नेता अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की कोशिश में हैं। लेकिन, हवा बताती है कि कांग्रेस के टिकटों के फैसले में दिग्विजय सिंह का पलड़ा कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से कहीं ज्यादा भारी है।   
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- हेमंत पाल   
   र पार्टी के लिए चुनाव के मौसम में सबसे मुश्किल काम होता है, ऐसे उम्मीदवार को खोजना जो उसकी रीति-नीति पर खरा उतरने के साथ जीतने वाला मोहरा बन सके। मध्यप्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनाव का दारोमदार इसी पर टिका है। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने उम्मीदवारों को कई कसौटियों पर परख रही है। भाजपा ने तो काफी पहले से इसके लिए सर्वेक्षण करवाए और कई रिपोर्ट पर काम किया। ये काम कांग्रेस ने भी किया, पर अंतिम स्थिति में टिकट वितरण में किस नेता का पलड़ा भारी रहेगा, इसे लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में 57 सीटें मिली थी, इसलिए उसे अधिकांश नए चेहरों पर दांव लगाना होगा। पिछला चुनाव जीतने वाले विधायकों में से भी कुछ के टिकट कटना तय है, पर ज्यादातर विधायक फिर मैदान में दिखाई देंगे! अभी ये सवाल ही है कि किन विधायकों के टिकट कटेंगे और चुनाव में नए चेहरों को उतारने में किसका पलड़ा भारी रहेगा? कांग्रेस के चाणक्य कहे जाने वाले नेता दिग्विजय सिंह का, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का या फिर नए जोश वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का?
    विधानसभा चुनाव से पहले कहा जा रहा था, कि पार्टी ने टिकट बंटवारे से दिग्विजय सिंह को दूर रखने का फैसला किया है! लेकिन, हालात देखकर कहा नहीं जा सकता कि पार्टी ने ऐसा कोई फार्मूला तय किया होगा! ये किसी भी स्थिति में संभव भी नहीं है। सियासी अनुमान हैं कि प्रदेश की अधिकांश सीटों पर उनके दखल से ही नाम तय हो रहे हैं। चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सक्रियता को लेकर भी काफी भ्रम था। उनकी भूमिका क्या होगी, उन्हें प्रदेश की राजनीति में दखलंदाजी के योग्य समझा भी जाएगा या नहीं! ऐसे कई सवाल हवा में थे। लेकिन, पंद्रह साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर रहने वाले दिग्विजय सिंह ने 'नर्मदा-परिक्रमा' के बाद न केवल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय वापसी की, बल्कि पार्टी को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रदेशभर का दौरा भी किया। उनका 'संगत में पंगत' वाला फार्मूला काफी हद तक सफल माना गया। प्रदेश में समन्वय समिति के मुखिया के रूप में उन्होंने पार्टी को एक सूत्र में बांधने की जो कोशिश की, जो सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है। 
    प्रदेश कांग्रेस में फिलहाल दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की विधानसभा सीटों के समीकरण से वाकिफ हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़े नेता जरूर हैं, पर प्रदेश की सभी 230 सीटों पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं मानी जा सकती! कमलनाथ का प्रभाव महाकौशल के कुछ जिलों तक सीमित हैं। जबकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया का मालवा में जोर है, पर सभी सीटों पर नहीं! वे शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, मुरैना, और ग्वालियर की सीटों की तासीर को ही ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की अधिकांश सीटों को समझते हैं। उन्हें हर जगह की तासीर और वो समीकरण भी पता हैं, जो चुनाव पर असर डाल सकते हैं। दिग्विजय सिंह की यही राजनीतिक पकड़ उन्हें टिकट वितरण में मददगार बनाती है। 
  कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! उनसे नफरत तो की जा सकती है, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! उन्हें राजनीति का चाणक्य भी इसीलिए कहा जाता है, कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजियों को पलट दिया है। अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवादास्पद भी बने! फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! लेकिन, कांग्रेस में उनका वजन बरकरार रहा। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी पकड़ से पार्टी को मजबूती तो दी है। दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद हुई हार से आहत दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! जबकि, राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने पहले कभी ऐसा किया हो! लेकिन, जब से वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया जाने लगा है!
     दिग्विजय सिंह ने बेहद रणनीतिक तरीके से राजनीति में वापसी की है। उनकी छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले समझा नहीं गया था कि ये खामोश और अराजनीतिक यात्रा एक दिन सियासत को झकझोर देगी! यात्रा की शुरुआत में तो इसे गंभीरता सी नहीं लिया गया, पर जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ती गई, उसके सियासी मंतव्य खोजे जाने लगे। इसके चलते संघ और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होने लगा था। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया। आज जो दिग्विजय सिंह दिखाई दे रहे हैं, वो काफी हद तक नर्मदा यात्रा से मिली ऊर्जा से ही लबरेज है! इस चुनाव के बाद यदि किसी नेता के सबसे ज्यादा उभरने की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दिग्विजय सिंह ही होंगे! क्योंकि, उनके पास खोने को कुछ नहीं है।
   पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा और निमाड़ भाजपा का सबसे ताकतवर गढ़ रहा था। रतलाम, झाबुआ, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, आलीराजपुर, देवास और सीहोर की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है। इंदौर की 9 सीटों में से 8, धार की 7 में से 5 सीटें और मंदसौर की 4 में से 3 सीटों पर भाजपा ने झंडा गाड़ा था। सीहोर जिले की मालवा क्षेत्र की 2 सीटें हैं, इन पर भी भाजपा जीती थी। लेकिन, इस बार मालवा और निमाड़ का माहौल भाजपा के पक्ष में झुका दिखाई नहीं दे रहा। 2013 के मुकाबले भाजपा कमजोर नजर आ रही है। इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं। करीब सवा साल पहले मंदसौर जिले से शुरू हुए उग्र किसान आंदोलन ने पूरे मालवा को अपने प्रभाव में लिया था। यहाँ पुलिस फायरिंग में मारे गए 7 किसानों के कारण पूरे प्रदेश में भारी हंगामा भी हुआ। मृतक किसानों में 5 पाटीदार समुदाय से आते थे, जो मालवा का प्रभावशाली किसान वर्ग है। बुंदेलखंड और मालवा में दलित आबादी बहुत बड़ी है। उज्जैन जिले में प्रदेश के सबसे ज्यादा दलित रहते हैं। इनके कर्मचारी संगठन सपाक्स की सबसे ज्यादा सक्रियता भी मालवा में है। सपाक्स खुलकर शिवराज सरकार के विरोध में है। इन सब चीजों के चलते भाजपा की राह बहुत आसान समझ नहीं आ रही। ऐसे में यदि कांग्रेस ने सही उम्मीदवारों को चुन लिया तो भाजपा के लिए ये चुनाव मुश्किल बन सकते हैं। 
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Sunday, October 14, 2018

'मी-टू' का शोर छोटी मछलियों तक ही?


    देश में जब से 'मी-टू' का बवाल मचा है, बॉलीवुड से रोज ऐसी नई खबरें आना शुरू हो गई! इन हरकतों में जबरदस्ती किस करने से लेकर हाथ पकड़ने जैसी बातें शामिल हैं। देखा जाए तो बाॅलीवुड के लिए यह व्यवहार नई बात नहीं है। इस बार यह 'मी-टू' के नए नाम के साथ जगजाहिर हुआ है, वरना काॅस्टिंग काउच के नाम से ऐसी घटनाएं गाहे-बगाहे सामने आती रही हैं। 'मी-टू' के तूफान को सुनामी बनाने में मीडिया का भी बड़ा योगदान है। सारे टीवी चैनलों ने जिनके पास सुर्खियां बटोरने वाले विषयों का अकाल पड़ा था, उन्होंने बात का बतंगड बनाकर इसे राष्ट्रीय मसला बना दिया। जबकि, बच्चा-बच्चा जानता है कि फिल्मी दुनिया में लेन-देन की यह परम्परा उतनी ही पुरानी है, जितनी यह इंडस्ट्री।
    जिन लोगों ने भी 'मी-टू' से जुड़ी खबरें पढ़ी या सुनी होगी, उन्होंने एक बात नोट की होगी कि इसमें आरोप तो नामी-गिरामी लोगों पर लगे! लेकिन, आरोप लगाने वाली हस्तियां उतनी नामी गिरामी नहीं हैं। कई अभिनेत्रियों का नाम तो लोगों ने पहली बार 'मी-टू' के वाक़ये में ही सुना होगा। सवाल उठता है कि क्या फिल्मी दुनिया में इस तरह की घटनाएं केवल छोटी अभिनेत्रियों के साथ ही होती है? हकीकत तो यह है कि तमाम बड़ी अभिनेत्रियां भी कभी न कभी ऐसे दुर्व्यवहार की शिकार हो चुकी है। लेकिन, इस मामले में वे अभी तक खामोश हैं। मजे की बात है कि जिन लोगों ने तथाकथित रूप से उनके साथ 'मी-टू' कैटेगरी का सलूक किया गया है। यदि कंगना रनौत को छोड़ दिया जाए, तो 'मी-टू' पर किसी बड़ी अभिनेत्री की आप-बीती सामने नहीं आई। जबकि, हेमा मालिनी, रेखा, जीनत अमान और माधुरी दीक्षित भी इस तरह की हरकतों का शिकार हो चुकी हैं।
    यासीर उस्मान ने अपनी पुस्तक 'रेखा : अनटोल्ड स्टोरी' में लिखा है कि फिल्म 'अनजान सफर' के समय रेखा की उम्र केवल 15 साल की थी। फिल्म के निर्देशक राजा नवाथे और नायक विश्वजीत ने एक चाल चली। निर्देशक चाहते थे कि रेखा को बिना बताए विश्वजीत उसे अपनी तरफ खींचकर जकड़ ले और उसके होंठों पर जबरदस्त चुंबन कर ले। कैमरा चालूू होती ही विश्वजीत ने रेखा को जोर से अपनी और खींचा और पूरे पांच मिनट तक उसके होंठों को चूमते रहे। इस हरकत से रेखा रोती रही और पूरी यूनिट बेशरमों की तरह ठहाके लगाते रही। देखा जाए तो यह एक तरह से यौन शोषण का ही मामला है। लेकिन, रेखा यह सब सहकर आज भी खामोश हैं।
    'जानेमन' के सेट पर नशे में धुत्त प्रेमनाथ ने हेमामालिनी को बूरी तरह से जकड़ लिया था। हेमा मज़बूरी में चिल्लाती रही, तब देवआनंद ने आगे बढ़कर उसे प्रेमनाथ के शिकंजे से छुडवाया था। ये वैसी ही घटना है, जिसे आज की चंद अभिनेत्रियां 'मी-टू' का नाम दे रही है। इस मामले में हेमा मालिनी आज भी चुप है। जीनत अमान की हालत तो और भी खराब हुई थी। कंगना रनौत आज शादी के वादे और उसके बाद जिस शोषण की बात कर रही है, वह घटना जीनत की जिंदगी में बुरे सपने की तरह घट चुकी है। रितिक रोशन के ही ससुर संजय खान ने जीनत अमान से निकाह करने के बाद उसका शोषण किया और 'अब्दुल्ला' के सेट पर उसे बुरी तरह पीटा भी। लेकिन, आज क्या जीनत अमान उस घटना का जिक्र करेगी? देश के रईस खानदान की बहू और पूर्व अभिनेत्री टीना मुनीम के गाल पर चोट का एक निशान देखा जा सकता है। यह निशान उन्हें राजेश खन्ना ने दिया था। क्या टीना अपने आपको 'मी-टू का शिकार कहलाने का साहस दिखा सकती है? एक पार्टी में नशे में चूर राजकपूर ने देव आनंद को नीचा दिखाने के लिए जीनत अमान को पकड़कर उसका चुंबन लिया था। इसके बाद ही देवआनंद और जीनत के रिश्ते में दरार आई थी। लेकिन, तब से अब तक ऐसी घटनाओं का विरोध नहीं किया गया।
     यह ठीक है किसी भी क्षेत्र में महिलाओं का यौन शोषण नहीं होना चाहिए। आज मेनका गाँधी इस तरह की घटनाओं के लिए एक कमेटी बनाने का वादा कर रही है। जबकि, वे खुद देश के एक बडे राजनीतिक परिवार के युवराज के शोषण का शिकार बन सकती थी। उनके फौजी पिता यदि संजय गांधी के सामने बंदूक लेकर नहीं आते, तो शायद मेनका भी देश की अनगिनत लडकियों की तरह संजय गांधी की अय्याशी का शिकार बन सकती थी। हो सकता इस बात की टीस उनके दिल में आज भी हो! लेकिन, शायद तमाम बड़ी हस्तियों की तरह उनकी भी यह मजबूरी हो सकती है कि 'मी-टू जैसे वाकये का शिकार होने के बावजूद वे इसका समर्थन तो कर सकती हैं, लेकिन खुद अपने आपको इसका विक्टिम मानने का साहस नहीं जुटा पा रही!
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आरक्षण विरोध की आवाज बनने लगी 'सपाक्स समाज' पार्टी


मध्यप्रदेश में 'सपाक्स समाज' के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिद्वंदी पार्टियां ये प्रचारित करने में लगी हैं कि ये थके, चुके और रिटायर्ड लोगों का संगठन है। इस पार्टी में ज्यादातर वे सरकारी अफसर हैं, जो नौकरी के बाद अब पार्ट टाइम राजनीति करना चाहते हैं। जबकि, जमीनी तौर पर देखा जाये तो ये सच नहीं है। यदि इन लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती, तो उनके लिए किसी भी पार्टी से जुड़कर राजनीति करना ज्यादा आसान होता। कई अफसरों ने ये किया भी है! लेकिन, यदि नई विचारधारा वाली रजनीतिक पार्टी की परिकल्पना की गई है, तो उसके पीछे कोई लक्ष्य निर्धारित है। जब 'सपाक्स' गैर-आरक्षित सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों का संगठन था, तब भी उसने पदोन्नति में आरक्षण के फैसले का विरोध किया! अब, जबकि इस संगठन के गर्भ से राजनीतिक पार्टी जन्म ले चुकी है, उसके सोच, संकल्प और विचारों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। बल्कि, इस पार्टी ने आरक्षण खिलाफ लोगों में दबे आक्रोश को बाहर लाने का काम किया है।                   
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- हेमंत पाल
    ध्यप्रदेश में चुनाव आचार संहिता की घोषणा के साथ ही राजनीतिक संघर्ष की दुंदुभि बज गई! सभी राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव के रण क्षेत्र में अपनी सेनाओं की जमावट करना शुरू कर दिया। प्रदेश की तासीर के मुताबिक यहाँ कांग्रेस और भाजपा परंपरागत प्रतिद्वंदी रहे हैं। बीच-बीच में तीसरे विकल्प के हल्के झटके जरूर आते रहे! लेकिन, कोई भी स्थाई रूप से तीसरा विकल्प नहीं बन सका। इस बार भी समझा जा रहा था कि कांग्रेस और भाजपा ही किला लड़ाएंगे, पर माहौल बदलता नजर आ रहा है। कर्मचारियों-अधिकारियों के संगठन 'सपाक्स' से जन्मी राजनीतिक पार्टी 'सपाक्स समाज' ने मालवा-निमाड़ में दोनों प्रमुख पार्टियों को घेर सा दिया है। इस पार्टी का असर कुछ ऐसा है, जो चार साल पहले दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' (आप) का महसूस किया गया था। प्रशासन की भट्टी में तपे अफसरों की बहुलता वाली इस पार्टी को आधार देने के लिए जिस तरह मेहनत की जा रही है, वो पार्टी की गंभीरता दर्शाती है।      
   'सपाक्स समाज' के बढ़ते असर ने सबसे ज्यादा भाजपा को प्रभावित किया है। क्योंकि, प्रदेश में 15 साल से काबिज भाजपा से लोगों की नाराजी जगजाहिर है। भाजपा को लग रहा है कि उसके प्रति मतदाताओं का गुस्सा 'सपाक्स समाज' को फ़ायदा दे सकता है। कांग्रेस 15 साल से सत्ता से बेदखल है और उसके पास खोने को कुछ है भी नहीं! यही कारण है कि पश्चिमी मध्यप्रदेश में 'सपाक्स समाज' को उम्मीद की किरण की तरह देखा जा रहा है। कांग्रेस के प्रति लोगों की नाराजी अपेक्षाकृत कम हैं। लम्बे समय से सत्ता में न होने से कांग्रेस पर उंगली भी नहीं उठाई जा सकती। जो लोग भाजपा से नाराज हैं और कांग्रेस को भी वोट देना नहीं चाहते, उनके लिए 'सपाक्स समाज' एक सार्थक विकल्प है। सत्ता से नाराजी के बहाव से 'सपाक्स समाज' फायदे में रहेगा। 
  कांग्रेस और भाजपा के सामने इसे तीसरा प्रतिद्वंदी समझे जाने के पीछे बड़ा कारण इससे जुड़े लोग भी है। कांग्रेस और भाजपा भले ही 'सपाक्स समाज' के पदाधिकारियों को रिटायर्ड, चुके और थके कहकर प्रचारित कर रहे हों, पर असलियत ये है कि यही वे लोग हैं, जिन्होंने सत्ता की खूबियों और खामियों को काफी नजदीक से देखा है! ये बरसों तक सत्ता और प्रशासन की कड़ी रहे हैं, इसलिए वे जानते हैं कि जनता से कैसे जुड़ा जाना चाहिए! इन लोगों ने सत्ता के दम्भ में चूर नेताओं के सामने जनता की बेबसी और मज़बूरी को भी महसूस किया है। इसके अलावा इनका सबसे सशक्त पक्ष है, इन्हें मिल रहा सवर्णों का सहयोग! एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ जब कांग्रेस और भाजपा के मुँह बंद है 'सपाक्स समाज' ही मुखरता से बोल पा रही है। इस पार्टी ने लोगों में आरक्षण के खिलाफ दबी चिंगारी को भी आवाज देने का काम किया है। अभी तक आरक्षण के प्रति नाराजी होते हुए भी लोगों के पास ऐसा कोई माध्यम नहीं था, जहाँ वे इस विरोध को व्यक्त कर सकें। 'सपाक्स समाज' ने उस विरोध को अपना झंडा बनाया है, जो कहाँ-कहाँ असर करेगा कहा नहीं जा सकता।  
   'सपाक्स समाज' की अपनी राजनीतिक विचारधारा ही भाजपा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। एससी-एसटी कानून में संशोधन का विरोध करने की हिम्मत इन दोनों ही पार्टियों में नहीं है। केंद्र में काबिज भाजपा सरकार ही एससी-एसटी एक्ट में संशोधन की जनक है, इसलिए वो तो इसके खिलाफ बोलने से रहे! कांग्रेस भी मूक होकर इसके पक्ष में हैं। क्योंकि, संविधान संशोधन के खिलाफ बोलने से मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उसके हाथ से निकल सकता है। 'सपाक्स समाज' का प्लस पॉइंट यही है कि इस पार्टी का जन्म ही इस विरोध के गर्भ से हुआ है। विधानसभा चुनाव में 'सपाक्स समाज' की आरक्षण विरोधी विचारधारा ही उसकी ताकत है। लेकिन, 'सपाक्स' के सदस्य सरकारी नौकरी में हैं, जो खुलकर राजनीति करने मैदान में नहीं आ सकते! इसलिए 'सपाक्स समाज' पार्टी को राजनीतिक पार्टी बनाकर मैदान में उतारा जा रहा है। पर, अब 'सपाक्स समाज' अकेला नहीं दिख रहा, करणी सेना, गुर्जर संगठन समेत कई सामाजिक संगठनों ने उसके साथ जुड़कर ताकत बढ़ाने का काम किया है।     
   'सपाक्स समाज' के प्रभाव वाले मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में 66 सीटें हैं। इनमें 35 सामान्य, शेष 31 सीटें अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। सामान्य वाली 35 सीटों पर 'सपाक्स समाज' ने सेंध लगाने की कोशिश की है और काफी हद तक वे सफल भी रहे हैं। खरगोन, खंडवा, उज्जैन, धार और इंदौर में इसे मिल रहा समर्थन राजनीतिक रूप से विधानसभा चुनाव में असर दिखाएगा ये तय है। निमाड़ और मालवा में कई प्रभावशाली लोगों का 'सपाक्स समाज' से जुड़ना भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी चिंता की बात है। चार साल पहले दिल्ली में 'आप' को भी गंभीरता से नही लिया गया था। लेकिन, इसी पार्टी में भाजपा की हवा निकाल दी थी! आश्चर्य नहीं कि तीसरे विकल्प के रूप में 'सपाक्स समाज' भी कुछ ऐसा ही चमत्कार कर दे! राजनीति में कुछ भी संभव है! वह भी ऐसी स्थिति में जब माहौल में कोई आँधी, लहार और तूफ़ान न हो! 2013 के विधानसभा चुनाव में मालवा इलाके में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को 10.76% वोट ज्यादा मिले थे। जबकि, निमाड़ में यह अंतर 8.33% था। इस बार कांग्रेस मालवा-निमाड़ को साधने की पूरी कोशिश में है। उन्हें उम्मीद है कि किसान आंदोलन के बाद भाजपा के खिलाफ लोगों में जो नाराजी पनपी है, इसका फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिल सकता है। लेकिन, 'सपाक्स समाज' की मौजूदगी दोनों के समीकरण बिगाड़ दे तो आश्चर्य नहीं!    
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Saturday, October 6, 2018

बदलते दौर का अक्स है ये नया सिनेमा


- हेमंत पाल 
    दलते हुए दौर में यदि सबसे पहले कहीं बदलाव देखना हो, तो सिनेमा में देखिए! ज़माने को तो बदलने में बरसों लग जाते हैं, पर सिनेमा का चेहरा चंद दिनों में अपने आपको बदल लेता है। एक ढर्रे पर चलता हुआ सिनेमा, एक झटके में नया दिखाई देने लगता है। दर्शकों की पसंद को सिनेमा ही बहुत जल्द समझता है! फिल्मकार जानते हैं कि दर्शकों की पसंद की प्लेट में अब क्या परोसा जाना चाहिए! फिलहाल जो दौर आया है, वह इसी बदलाव का संकेत है। बॉलीवुड ने इस सच को जरा देर से स्वीकारा, पर अब वो नया दौर दिखाई देने लगा है। बीते चंद सालों में फिल्मों की कहानियों में जो परिवर्तन आया, वो आने वाले कल के मनोरंजन का ही संकेत है।  
   घिसे-पिटे पुराने ढर्रे वाली रोमांटिक कहानियों, फूहड़ कॉमेडी और फिजूल की मारधाड़ वाली फ़िल्में अब दर्शकों की पसंद से बाहर हो चुकी है। दर्शक अब कुछ नया देखना चाहता है। उसे सार्थक मनोरंजन चाहिए न कि खोखली संवेदनों वाली रोतली फ़िल्में! वो जिंदगी की असली कहानियां देखना चाहता है, जिसमें चुनौतियां भी हों और उनका निराकरण भी सामने आए! उसे कुछ ऐसा देखना है, जो उसकी कल्पना से बाहर की बात न हो! साफ़ कहें तो दर्शक का रुख अच्छी कहानियों पर केंद्रित है, न कि निरर्थक मनोरंजन में! इस सच्चाई को नकारा भी कैसे जा सकता है कि फिल्म की कहानी ही सब कुछ होती है। एक्टिंग तो हर एक्टर कर ही लेता है, बशर्ते कहानी में दम हो!  
    सिनेमा के माध्यम से यदि पिछड़े सोच और पुरातन मान्यताओं पर चोट की जा रही है, तो सिनेमा को भी इसी दिशा में सोचना होगा। सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने में सिनेमा हमेशा ही एक अच्छा माध्यम रहा है, तो उसे ये प्रयास करना भी चाहिए। पिछले कुछ दिनों में इस तरह की जो भी फ़िल्में बनी, उन्हें सराहा भी इसीलिए गया कि उनमें कुछ नयापन है। समाज में वर्जनाओं की कमी नहीं है, पर जब तक सिनेमा के जरिए उन पर चोट नहीं होगी, समाज में नई सोच भी जागृत नहीं होगी। हिचकी, शुभ मंगल सावधान, पैडमेन, टॉयलेट : एक प्रेम कथा, न्यूटन, अलीगढ़ के बाद 'सुई-धागा' और 'बत्ती गुल-मीटर चालू' जैसी फ़िल्में इसी बदलाव का प्रतीक हैं। इनमें ऐसी कई फ़िल्में हैं जो वर्जित विषय पर बनी, पर उनका कहीं कोई विरोध नहीं हुआ और वे खूब चलीं! ऐसी फिल्मों को महज मनोरंजन नहीं, बल्कि गंभीर विषय के रूप में लिया गया।
    'सुई-धागा' में हथकरघा के आधार बनाकर कुटीर उद्योग के महत्व को दर्शाया गया है और अंततः इस श्रम की जीत भी दिखाई गई! इशारों में चीन के बढ़ते बाजार के बीच स्वदेशी की जरुरत को भी महसूस कराया गया है। 'बत्ती गुल मीटर चालू' बिजली चोरी और बिजली कंपनियों की मनमानी पर बनी फिल्म है। कौन सोच सकता था कि कभी कोई ऐसे विषयों पर भी फिल्म बनाने का साहस कर सकेगा? 'टॉयलेट : एक प्रेम कथा' और 'पैडमेन' तो समाज की पुरातन सोच को बदलने वाली ऐसी फ़िल्में हैं, जिनके बारे में कुछ साल पहले तक तो सोचा भी नहीं गया होगा?  
   अच्छी कहानियों की खोज में अब समाज के ऐसे चरित्रों पर भी बायोपिक बनाई जाने लगी, जिनके बारे में कभी आयडिया नहीं आया होगा। बड़े खिलाड़ियों और एक्टरों पर तो बायोपिक बनाना सामान्य बात है, पर अब तो सहादत हसन मंटो और आनंद कुमार पर भी बायोपिक बनाई जा रही है। आनंद कुमार आईआईटी के लिए हर साल अभावग्रस्त पर प्रतिभाशाली 30 बच्चों को पढ़ाते हैं। ऐसे ही साहित्य की दुनिया के सआदत हसन मंटो की जिंदगी पर भी फिल्म बनाई गई। थोड़ा इंतजार किया जाए, तो अभी और भी ऐसे चेहरे सामने आएंगे, जिनकी प्रतिभा और समाज के प्रति उनके योगदान को अभी तक सामने आने का मौका नहीं मिल पाया है। 
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Monday, October 1, 2018

कुछ अलग ही मूड में है इस बार मालवा और निमाड़!


   मध्य प्रदेश में मालवा-निमाड़ का राजनीतिक मूड बहुत कुछ तय करता है। ये वो इलाका है जहाँ के बारे में कहा जाता है कि जो भी पार्टी यहाँ आगे रहती है, वही प्रदेश में सरकार बनाती है। लम्बे समय से ये इलाका हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में रहा है, इसलिए यहाँ भाजपा हमेशा ही ताकतवर बनी रही। भाजपा और संघ से जुड़े कई नेता मालवा से ही निकले हैं। जातीय हिसाब से भी ये इलाका अजीब सा सामंजस्य रखता है। यहाँ आदिवासी सीटें भी हैं और सामान्य भी। अभी तक आदिवासियों को कांग्रेस समर्थित माना जाता था। पर, पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा-निमाड़ की अधिकांश आदिवासी सीटें भाजपा ने जीती थीं। यहाँ कुल 66 सीटें हैं, जिनमें 50 सीटें मालवा में हैं और 16 निमाड़ में। पिछले चुनाव में कांग्रेस के हाथ सिर्फ 9 सीटें लगी थीं। लेकिन, इस बार यहाँ का मिजाज अलग ही नजर आ रहा है।  

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- हेमंत पाल

    मध्यप्रदेश का राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से लगने वाला पश्चिमी क्षेत्र मालवा-निमाड़ कहलाता है। ये अभी तक तीसरी राजनीतिक शक्ति के प्रभाव से मुक्त रहा है। लेकिन, इस बार के विधानसभा चुनाव का माहौल कुछ अलग है। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि ऊंट किस करवट बैठेगा? क्योंकि, आदिवासियों के बीच 'जयस' ने, सवर्णों-पिछड़ों में 'सपाक्स' राजनीतिक पार्टी ने, पंचायतों में 'भारतीय पंचायत पार्टी' ने सेंध लगा दी है। पाटीदारों के स्वयंभू नेता हार्दिक पटेल भी चुनाव में अपना असर दिखाएंगे ये तय है। प्रशासनिक रूप से इंदौर और उज्जैन संभागों वाले इस इलाके में विधानसभा की 66 सीटें आती हैं। 2013 के चुनाव में मालवा की 50 सीटों में से 45 पर भाजपा जीती थी! जबकि, कांग्रेस केवल 4 सीटें ही जीत पाई थी। वहीं, थांदला सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था। निमाड़ की 16 में से 11 सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों ने जीत हांसिल की थी। कांग्रेस के हाथ महज 5 सीट ही लग थी। इस बार के विधानसभा चुनाव के लिए दोनों पार्टियां पूरी जोश से मैदान में हैं। अपनी पैठ बनाने के लिए सभी पार्टियां ने अलग-अलग रणनीति के साथ तैयारी की है। यह भाजपा का गढ़ है और 15 साल से पार्टी इसी इलाके में अपनी पकड़ के बल पर प्रदेश पर राज करती आ रही है। कहा जाता है कि जो मालवा-निमाड़ में जो जीत हांसिल करता है, उसे प्रदेश पर राज करने का मौका मिलता है। दरअसल, ये इलाका भाजपा के लिए साख और नाक का सवाल है। आपातकाल के पहले तक ये कांग्रेस का गढ़ रहा। लेकिन, उसके बाद से यहां भाजपा की जड़ें मजबूत होती गई! 
    मालवा-निमाड़ की 66 में से 35 सामान्य, 22 अनुसूचित जनजाति-22 की और 9 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। अभी भाजपा के पास सामान्य वाली 32, अजजा की 16 (थांदला के निर्दलीय विधायक समेत) और अजा की 9 सीटें हैं। जबकि, कांग्रेस के पास 3 सामान्य, 6 अजजा सीटें हैं। अजा की कोई सीट पिछली बार कांग्रेस नहीं जीत सकी थी। यहाँ की 12 सीटें शहरी इलाके में हैं, 11 अर्द्ध शहरी इलाकों में और 46 सीट ग्रामीण क्षेत्र की हैं। इनमें से कांग्रेस के जीतू पटवारी सिर्फ राऊ वाली अर्द्धशहरी सीट जीत सके थे। इसके अलावा सभी सीटें भाजपा के पास हैं। 2013 के चुनाव में मालवा इलाके में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को 10.76% वोट ज्यादा मिले थे, निमाड़ में यह अंतर 8.33% था। लेकिन, इस बार कांग्रेस मालवा-निमाड़ को साधने की पूरी कोशिश में है। उन्हें उम्मीद है कि किसान आंदोलन के बाद भाजपा के खिलाफ लोगों में जो नाराजी पनपी है, इसका फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिल सकता है।      
    प्रदेश और देश की राजनीति के ज्यादातर संघ और भाजपा के बड़े नेता इसी मालवा-निमाड़ से आते हैं। पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे, पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र सखलेचा, कैलाश जोशी के अलावा सत्यनारायण जटिया, विक्रम वर्मा, नंदकुमार सिंह चौहान और लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन, केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत भी यहीं से हैं। संघ में नंबर दो की हैसियत रखने वाले सुरेश भैय्याजी जोशी भी मालवा से ही हैं। जबकि, कांग्रेस की तरफ से सुभाष यादव और बाद में उनके बेटे अरुण यादव ने ही निमाड़ का प्रतिनिधित्व किया है। मालवा से कांग्रेस के नेता तो कई हुए, पर जिन्हें याद रखा जाए ऐसे नेताओं में आदिवासी इलाके से शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुना देवी ही रही। ये दोनों प्रदेश के उपमुख्यमंत्री तो रहे, पर मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे दूर ही रही। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव को आज भी यहाँ नाकारा नहीं जा सकता! इसका कारण ये कि मालवा का एक बड़ा क्षेत्र 'सिंधिया रियासत' का हिस्सा रहा है।  
  इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा 'जय आदिवासी संगठन' (जयस) और 'सपाक्स' के राजनीति में उतरने से भी समीकरण बदलने के आसार हैं। ये दोनों राजनीतिक पार्टियाँ नहीं, बल्कि संगठन हैं, पर अब इन्होंने राजनीति के लिए मैदान में उतरने की तैयारी की है। दोनों के ही कर्ताधर्ता मालवा से हैं। 'जयस' के डॉ हीरालाल अलावा झाबुआ से हैं और 'सपाक्स' के हीरालाल त्रिवेदी बड़नगर (उज्जैन) के हैं। डॉ अलावा दिल्ली के एम्स जैसा संस्थान छोड़कर आदिवासी युवाओं में अलख जगाने आ गए! जबकि, हीरालाल त्रिवेदी आईएएस से रिटायरमेंट के बाद सवर्णों और पिछड़ों को एकजुट करके 'सपाक्स' को खड़ा करने में सफल हुए। 'जयस' जनजातीय समुदाय के दबदबे वाली प्रदेशभर की 80 सीटों पर अपनी ताकत आजमाने की तैयारी में हैं। 'अबकी बार, आदिवासी सरकार' का नारा देने वाला 'जयस' यदि आदिवासी वोट काटने में सफल हुआ तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिलना तय समझा जा रहा है। उधर, 'सपाक्स' ने भी भोपाल में अपने सफल जमावड़े के बाद सभी 230 सीटों पर लड़ने का एलान कर दिया। दिल्ली से जुड़े पंचायत पदाधिकारियों के राष्ट्रीय संगठन ने भी 'भारतीय पंचायत पार्टी' (बीपीपी) बनाकर घुसपैठ शुरू की है। नरेश यादव की अगुवाई में इसे चुनाव आयोग ने रजिस्टर्ड कर 'पोस्ट बॉक्स' चुनाव चिन्ह भी आवंटित किया है। संगठन से राजनीतिक पार्टी बनकर जयस, सपाक्स और बीपीपी क्या रंग दिखाते हैं, ये चुनाव से पहले स्पष्ट हो जाएगा।     
    गुजरात चुनाव में भाजपा के लिए परेशानी खड़ी करने वाले पाटीदार नेता व 'किसान क्रांति सेना' के अध्यक्ष  हार्दिक पटेल मध्यप्रदेश में भी भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं। उनकी मौजूदगी पाटीदार समाज  प्रभावित करती है और मालवा-निमाड़ में इस समाज का असर है। प्रदेश की 58 सीटों को पाटीदार वोट प्रभावित करते हैं। जो ज्यादातर मालवा-निमाड़ सहित रीवा और सागर संभाग में रहते हैं। प्रदेश में 1 करोड़ 42 लाख लोग पाटीदार समाज के हैं। हार्दिक ने घोषणा की है, कि वे प्रदेशभर में आमसभा करेंगे। 17 दिन की जनजागृति यात्रा भी निकालेंगे, ये यात्रा 14 दिन मालवा-निमाड़ में रहेगी। घोषित तौर पर तो वे कांग्रेस या भाजपा के साथ होने की बात नहीं करते! लेकिन, सब जानते है कि वे हमेशा भाजपा के खिलाफ ही खड़े दिखाई देते है। 
    कृषि और व्यापार का केंद्र माने जाने वाले मालवा-निमाड़ पर भाजपा कुछ ज्यादा ही ध्यान दे रही है। क्योंकि, भाजपा को किसानों की नाराजी का भय सता रहा है, जिसके पीछे मंदसौर गोलीकांड है। देखा जाए तो प्रदेश में किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा जोर मालवा-निमाड़ में ही था। मंदसौर में हुए गोलीकांड में किसानों की मौत को कांग्रेस काफी हद तक भुनाने में सफल भी रही। इसके अलावा शिवराज सरकार पर उनकी ही पार्टी के लोग यह आरोप भी लगाते आए हैं कि पाँच साल से मालवा-निमाड़ को उपेक्षा का सामना करना पड़ा है। इंदौर, धार, देवास, शाजापुर, झाबुआ, रतलाम, मंदसौर, नीमच, और आलीराजपुर ऐसे जिले हैं जहां से इस बार सरकार में एक भी मंत्री नहीं रहा। जबकि, निमाड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए तीन मंत्री हैं। अब देखना ये है कि मालवा-निमाड़ का खामोश मतदाता के दिल में क्या छुपा है? 
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