Friday, June 30, 2023

रील लाइफ का विवाद, रियल लाइफ का फसाद!

- हेमंत पाल

      किसी फिल्म से जुड़ा विवाद राजनीति जैसे सदाबहार गरमागरम मुद्दे को पीछे छोड़ दे, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। बात हो रही है 'आदिपुरुष' की जिसने राजनीति और उससे जुड़े मुद्दों को भी भुला दिया। हर तरफ सिर्फ एक फिल्म की ही चर्चा है वो भी नकारात्मकता से भरी हुई। कोई भी उसके पक्ष में कोई तथ्य नहीं रख रहा। उसके डायलॉग, कहानी का प्रस्तुतिकरण और यहां तक कि चरित्रों की वेशभूषा पर बहस चल पड़ी। रामायण की पौराणिक कहानी पर बनी 'आदिपुरुष' अपनी रिलीज के पहले शो से ही विवादों में है। दरअसल, किसी फिल्म को लेकर विवाद होना नई बात नहीं है। कई ऐसी फिल्में आई, जिनका विवादों से लम्बा नाता रहा। किंतु, इस फिल्म की ढेरों खामियों ने सबको पीछे छोड़ दिया। सिर्फ संवादों की बात नहीं फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है, जो विवाद का कारण बना। फिल्म को लेकर मेकर्स ने जितनी सफाई दी, मामला उतना उलझता गया। एक जमाना था, जब फिल्मों को निगेटिव पब्लिसिटी से दूर रखने की कोशिश की जाती थी। पर, अब हर फिल्म मेकर चाहता है कि उसकी फिल्म की रिलीज से पहले वो चर्चा में आए।  
     पहला शो देखकर थियेटर से बाहर आए दर्शकों ने 'आदिपुरुष' के प्रति नाराजगी व्यक्त करना शुरू कर दिया था। शुरुआती मसला फिल्म के कुछ संवादों को लेकर उठा। खासकर हनुमान जी के रावण को लेकर बोले गए संवादों को दर्शकों ने रामायण की मर्यादा के अनुरूप नहीं पाया। इसके लिए फिल्म के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर निशाने पर लिया गया। बाद में दर्शकों और समीक्षकों की नजर फिल्म के खराब निर्देशन और एक्शन दृश्य दिखाने के लिए उपयोग किए गए चमत्कारिक दृश्यों पर गई, तो निर्देशक ओम राउत को ट्रोल किया जाने लगा। समीक्षकों का कहना है कि जब भी जनभावनाओं से जुड़ी कोई फिल्म बनाई जाए, तो उसके साथ ज्यादा आजादी लेना ठीक नहीं है। क्योंकि, लोग रामायण से जुड़ी हर बात जानते हैं, इसलिए वे कोई खिलवाड़ पसंद नहीं करेंगे। इसके अलावा राम के प्रति धारणा आदर्श पुरुष की बनी हुई है। 
    संभवतः 'आदिपुरुष' पहली ऐसी फिल्म है जिसके संवादों ने देश के बाहर भी विरोध को बढ़ा दिया। सीता के चित्रण को लेकर काठमांडू और पोखरा में सभी हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया। फिल्म में एक संवाद है 'सीता माता भारत की बेटी है।' इसे लेकर काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह ने काठमांडू महानगरीय क्षेत्र में हिंदी फिल्मों पर प्रतिबंध लगाया। इसके बाद नेपाल सेंसर बोर्ड ने संवाद से 'भारत' शब्द को म्यूट करके चलाने की अनुमति दी। इसके बावजूद काठमांडू के मेयर ने 'आदिपुरुष' के मेकर्स से फिल्म से उस संवाद को हटाए जाने की मांग की। जबकि, पौराणिक कथाओं के अनुसार सीता जनकपुर के मिथिला (नेपाल) में जन्मी थी। वे मिथिला के नरेश राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं।
     'आदिपुरुष' के ज्यादा विवादास्पद होने की बड़ी वजह संवाद लेखक मनोज मुंतशिर की सफाई को भी माना गया। उन्होंने खेद जताने के बजाए यह कहा कि फिल्म रामायण नहीं, बल्कि उससे प्रेरित है। 'आदिपुरुष' रामायण महाकाव्य नहीं है और न इसका रूपांतरण है। बल्कि, रामायण में हुए युद्ध का एक छोटा सा हिस्सा बनाया गया है। फिल्म के निर्देशक ओम राउत ने भी इस पूरे विवाद पर सफाई दी कि रामायण का दायरा इतना बड़ा है कि इसे किसी के लिए भी समझना आसान नहीं है। जो रामायण सीरियल हमने टीवी पर देखी है, यह ऐसा नहीं है। हम इसे रामायण पर आधारित फिल्म नहीं कह सकते। इसलिए इसे 'आदिपुरुष' कहा गया। फिल्म के संवाद  निर्देशन के अलावा फिल्म में किरदारों के लुक को लेकर भी विरोध हुआ। राम भगवान की मूंछ भी दर्शकों को पसंद नहीं आई। रावण की भूमिका निभाने वाले सैफ अली के लुक को अलाउद्दीन खिलजी से मिलता-जुलता बताया गया। 
      देखा गया है कि जब भी कोई फिल्म विवादों में आती है, उसकी चर्चा ज्यादा होती है। ऐसे में फिल्म को लेकर लोगों की उत्सुकता भी बढ़ जाती है कि आखिर फिल्म में ऐसा क्या है। कहा जा सकता है कि फिल्मों से जुड़े विवाद उसके प्रमोशन का भी काम करते हैं। जिज्ञासावश दर्शकों की संख्या बढ़ जाती है और मेकर्स को इसका फ़ायदा मिलता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जब मेकर्स ने ही विवाद खड़े किए, ताकि फिल्म रिलीज होने तक चर्चा में रहे। जब भी किसी फिल्म को लेकर विवाद हुआ, देखा गया है कि मुद्दा सिर्फ दर्शकों और फिल्म बनाने वाले तक सीमित नहीं रहा। कई सामाजिक और राजनीतिक संगठन भी झंडे, बैनर लेकर विवाद को बढ़ाने का काम करने लगते हैं, ताकि इस बहाने उनकी भी मार्केटिंग हो। 'आदिपुरुष' के साथ भी यही हुआ। शुरू में इसकी कमाई आसमान छूने लग, पर बाद में दर्शकों ने भी फिल्म को नकार दिया और अब शायद फिल्म अपनी लागत भी न निकाल पाए। 
     विवादों से घिरी ऐसी कुछ फिल्मों पर नजर दौड़ाई जाए तो संजय लीला भंसाली की 2017 की फिल्म 'पद्मावत' की रिलीज से पहले भारी विवाद हुआ था। निर्देशक पर इतिहास से छेड़छाड़ के आरोप भी लगे। भंसाली की ही फिल्म 'गोलियों की रासलीला राम-लीला' भी विवादित रही। पहले इसके नाम के साथ 'रामलीला' शब्द जुड़ा होने से हिंदू भावना आहत होने का विवाद हुआ। प्रकाश झा की 'लिपस्टिक अंडर माई बुरखा' को लेकर भी विवाद उठा था। गाली-गलौज के साथ ही इसमें एक खास समुदाय भावनाओं को आहत करने की भी कोशिश हुई। शाहरुख खान की फिल्म 'रईस' को लेकर भी आपत्ति उठी थी। 1973 में आई फिल्म 'गरम हवा' भारत-पाक के विभाजन पर बनी थी। इस फिल्म को भी विरोध का सामना करना पड़ा था। 
     1975 में आई 'जूली' अपने अलग से कथानक को लेकर विवादों में फंसी थी। इसी साल (1975) आई 'आंधी' को इंदिरा गांधी और उनके निजी रिश्तों पर आधारित बताकर काफी विवाद उठा था। जबकि, 1994 में आई डाकुओं पर बनी 'बैंडिट क्वीन' को लेकर एक समाज ने आपत्ति उठाई थी। समलैंगिक रिश्तों पर 1996 में बनी दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' का तो विषय ही विवाद का हिस्सा बना था। इसी साल बनी मीरा नायर की 'कामसूत्र: अ टेल ऑफ लव' का तो देश में प्रदर्शन ही बैन कर दिया गया था। अनुराग कश्यप की 2003 की फिल्म 'पांच' अपने ड्रग और सेक्सुअल कंटेंट को लेकर इतनी विवादों में आ गई थी कि रिलीज ही नहीं हो सकी। 'हवा आने दे' (2004) फिल्म का विषय भारत और पाकिस्तान युद्ध पर आधारित था। लेकिन, सेंसर बोर्ड ने इसमें इतने कट लगा दिए कि भारत में तो यह फिल्म रिलीज ही नहीं हुई। 
    2005 में आई दीपा मेहता की 'वाटर' बनारस के आश्रम में रहने वाली विधवा की जिंदगी पर बनी रही। इस फिल्म को लेकर भी काफी हंगामा हुआ। अनुराग कश्यप की 'ब्लैक फ्राईडे' (2007) मुंबई बम ब्लास्ट पर बनाई गई थी। इसे लेकर इतना विवाद हुआ कि रिलीज से पहले मेकर्स को कोर्ट में इसके लिए लड़ना पड़ा था। उरी हमले के बाद पाकिस्तानी फिल्म कलाकारों को इंडस्ट्री में बैन कर दिया था। करण जौहर की 2016 की फिल्म 'ए दिल है मुश्किल' में फवाद खान अहम भूमिका में थे। मामला उलझने के बाद फवाद के कई सीन काटने पड़े। 2022 में रिलीज हुई 'सम्राट पृथ्वीराज' चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म थी। आरोप लगा था कि सम्राट पृथ्वीराज और इतिहास को गलत ढंग से पेश किया गया। इस वजह से अक्षय कुमार की यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गई थी। 
      विवाद तो 'द कश्मीर फाइल्स' को लेकर भी जमकर हुए और इस पर राजनीति भी हुई। देशभर में इसे लेकर दो पक्ष बन गए थे। एक पक्ष का कहना था कि कश्मीर में पंडितों पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। पर, इस विवाद ने फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट जरूर करवा दिया। ऐसा ही विवाद ‘द केरला स्टोरी’  को लेकर भी हुआ। यह फिल्म हिंदू लड़कियों के धर्मांतरण और उनके आतंकी संगठन को ज्वाइन करने की कहानी पर बनी है। ये तीन महिलाओं की कहानी है, जिन्होंने कथित तौर पर इस्लाम कबूल किया और आईएसआईएस में शामिल होने के लिए अपने घर से चली गईं! इसके बाद '72 हूरें' भी विवाद की लाइन में है। 'आदिपुरुष' और उससे पहले की फिल्मों को लेकर जो भी आपत्तियां उठी, उन्हें देखकर लगता है कि अब फिल्म बनाना आसान नहीं रह गया। ज्यादा क्रिएटिविटी और प्रयोग फिल्मकारों के गले पड़ सकते हैं।  
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सिनेमा भी रेल हादसों से मुक्त नहीं!

- हेमंत पाल

     ड़ीसा के बालासोर में पिछले दिनों हुए रेल हादसे ने पूरे देश को झकझोर दिया। इस हादसे ने चंद पलों के लिए जैसे जिंदगी को थाम लिया था। इसके बावजूद रेलों का सफर अनवरत जारी है। रेलें अभी भी रोज लाखों यात्रियों को गंतव्य पर पहुंचा रही थी। इसलिए कि रेल हमारे जीवन का हिस्सा बन गई! हादसों के बावजूद पहिये कभी थमते नहीं हैं। माना जाता है कि रेलों में रोज एक छोटा सा भारत सफर करता है। 16 अप्रैल 1853 को देश में जब पहली रेलगाड़ी चली थी, उसके बाद अब तक के 70 साल का सफर तय करते हुए भारतीय रेल सेवा दुनिया का चौथी सबसे बड़ी रेल सेवा बन गई। रेल केवल पटरी पर ही नहीं दौड़ती, हिंदी फिल्मों मे भी यही रेल फिल्म की कहानी और अलग-अलग सिचुएशन का महत्वपूर्ण अंग बनकर दिखाई देती है। लेकिन, हिंदी फिल्मों में हादसों पर चंद फ़िल्में ही बनी। याद किया जाए तो 1980 में रवि चौपड़ा के निर्देशन में बनी 'द बर्निंग ट्रेन' अकेली फिल्म थी, जिसकी कहानी ट्रेन हादसे पर केंद्रित थी। उसके बाद आज 4 दशक बाद भी किसी निर्माता ने ट्रेन हादसे पर कभी फिल्म नहीं बनाई। जबकि, हॉलीवुड में इस विषय पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं। अलबत्ता हिंदी फिल्मों में ट्रेन एक ऐसा रोचक माध्यम रहा, जिसे अकसर फिल्माया जाता रहा।       
      'द बर्निंग ट्रेन' में विनोद खन्ना, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, जितेंद्र, परवीन बाबी और डैनी जैसे कई बड़े कलाकारों ने काम किया था। फिल्म की कहानी पहली बार पटरी पर उतरने वाली सुपरफास्ट ट्रेन पर आधारित थी, जिसके पहले सफर में ही उसमें एक साजिश के तहत आग लग जाती है। इस हादसे के दौरान उसके ब्रेक भी फेल हो जाते हैं। ट्रेन में बैठे सैकड़ों यात्रियों की जान बचाने के लिए कई उपाय किए जाते हैं, तब ट्रेन को सुरक्षित रोका जाता है। लेकिन, ये फिल्म बहुत ज्यादा पसंद नहीं की गई। उधर, हॉलीवुड में 1979 में आई 'डिज़ास्टर ऑन द कोस्टलर' एक अमेरिकन टीवी एक्शन ड्रामा फिल्म थी। इस फिल्म की कहानी दो पैसेंजर ट्रेन के बीच टक्कर पर आधारित थी। 
      2010 में आई फिल्म 'अनस्टॉपेबल' एक सच्चे हादसे पर बनी एक्सीडेंट फिल्म थी। इस एक्शन, थ्रिलर फिल्म का डायरेक्शन और प्रोडक्शन टोनी स्कॉट और डेंजल वाशिंगटन ने किया था। फिल्म में एक पटरी पर दौड़ती मालगाड़ी बताई गई थी। जिसे दो लोग रोकने की कोशिश करते हैं और अंत में उसे रोक लेते हैं। 1985 में आई 'रनअवे ट्रेन' अमेरिकन एक्शन थ्रिलर फिल्म थी, जो उन तीन लोगों की कहानी थी, जो एक ट्रेन में फंस जाते हैं। यह ट्रेन अलास्का की बर्फ में लगातार दौड़ती रहती है। इसे ऑस्कर के लिए भी नॉमिनेट किया गया था। 2019 की फिल्म 'डीरेल्ड' थ्रिलर के साथ हॉरर फिल्म थी। फिल्म में एक्सीडेंट के बाद रेल नदी में गिर जाती है और यात्री डूबती ट्रेन में फंस जाते हैं। लेकिन, कहानी का असली ट्विस्ट ही पानी की गहराइयों में छिपा था। 
      सिनेमा के परदे पर रेल कई बार कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। चाहे आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' का शुरूआती दृश्य हो या श्याम बेनेगल की कला फिल्म 'मम्मोह' में फरीदा जलाल की भारत से पाकिस्तान की मर्मस्पर्शी विदाई का रेल हर जगह मौजूद रही! दर्शकों के दिलों को धड़काने वाली फिल्मों में रेल और उसका प्लेटफार्म प्रेम, द्वेष, मिलन, रहस्य, रोमांच, अपराध, मिलन-जुदाई के साथ आंसू और मुस्कान जैसी भावनाओं को शिद्दत के साथ सेल्यूलाइड पर उकेरता रहा है। भारत के विभाजन की त्रासदी को एमएस सथ्यू की फिल्म 'गर्म हवा' में बखूबी से दर्शाया गया था। अमिताभ बच्चन की फिल्म 'नास्तिक' में भी विभाजन की त्रासदी को दर्शाने के लिए ट्रेन को बतौर प्रतीक लिया गया, तो सनी देओल की फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के कारण रेलवे प्लेटफार्म और चलती ट्रेन में हिंसा के दृश्यों ने दर्शकों में सिहरन पैदा कर दी थी। जबकि, सलमान खान की 'बजरंगी भाईजान में इसी रेल ने दो पड़ौसी मुल्कों के संबंधों को दिखाया था। 
       1934 में आई 'तूफान मेल' में पहली बार चलती ट्रेन में स्टंट दृश्य फिल्माए थे। उस सदी के पांचवें दशक में जब नाडिया हंटर लेकर जब ट्रेन की छत पर खलनायकों को पीटती थी, तो सिनेमा हाल तालियों और सीटियो से गूंज जाता था। चलती ट्रेन में स्टंट और मारधाड़ के लिए दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' का रेल डकैती सीन जो इंदौर के पास पातालपानी में फिल्माया गया था, बहुत ही रोमांचक था। सलीम जावेद ने इस दृश्य को उलट-पुलटकर 'शोले' में शामिल किया था। बोनी कपूर के फिल्म 'रूप की रानी चोरों का राजा' में विदेशी स्टंट डायरेक्टर की मदद से चोरी का दृश्य फिल्माया गया था। लेकिन वह रोमांचक दृश्य भी फिल्म को सफल नहीं बना पाया। इसी तरह जंजीर, दीवार, दो भाई, सन आफ सरदार, विधाता और द ट्रेन में रेल का रोमांचक उपयोग किया गया था।
      रेल को शीर्षक बनाकर जो फिल्में बनी उनमें शम्मी कपूर और सुनील दत्त की पहली फिल्म रेल का डिब्बा और रेलवे प्लेटफार्म के अलावा द ट्रैन, ट्रैन टू पाकिस्तान, द बर्निंग ट्रेन, तूफान मेल, चेन्नई एक्सप्रेस, स्टेशन मास्टर और एक चालीस की लास्ट लोकल चर्चित हैं। ज्यादातर फिल्मों में रेल का डिब्बा नायक-नायिका की नोक-झोंक या सौम्य मिलन और फिर प्रेम के पनपने का कारण बनता रहा है। राजेंद्र कुमार की मेरे महबूब, जितेंद्र की मेरे हुजूर, राजेश खन्ना की 'आराधना' से लेकर शाहरुख खान की 'चमत्कार' और 'चेन्नई एक्सप्रेस' तक यह परंपरा लगभग सभी नायकों ने निभाई। 'पाकीजा' में ट्रैन का वह दृश्य यादगार बन पड़ा था जिसमें राजकुमार सोती हुई मीना कुमारी के खूबसूरत पैरों पर फिदा होकर कागज पर संदेश छोड़ जाते है 'आपके पांव देखे ... बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर न रखिएगा, मैले हो जाएंगे!' इसी फिल्म के लोकप्रिय गीत चलते-चलते कोई मिल गया था के अंत में रेल की सीटी का बेहतरीन प्रयोग किया गया था। 
      जुदाई की त्रासदी से दर्शकों का दिल चीर देने वाले रेल दृश्यों में राज कपूर की 'तीसरी कसम' और कमल हसन की 'सदमा' भुलाए नहीं भूलते। इसी तरह 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के अंतिम दृश्य में रेल से जा रहे शाहरुख से मिलने के लिए काजोल का हाथ छोड़ते हुए अमरीश पुरी का कहना 'जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी' भी फिल्मों का यादगार संवाद बन गया। कुछ फिल्में जिनकी कहानी को आगे बढ़ाने में रेल का योगदान अविस्मरणीय कहा जाएगा। हिंदी सिनेमा में मिलने और बिछड़ने के सिलसिले को आगे बढ़ाने में रेल की भूमिका नकारी नहीं जा सकती है। 'दो उस्ताद' में राज कपूर और शेख मुख्तार रेल के कारण एक-दूसरे बिछुड़ जाते हैं, तो 'हेरा-फेरी' में सलीम-जावेद ने इसी की नकल करके अमिताभ और विनोद खन्ना को मालगाडी के माध्यम से जुदा किया था। जहां तक रेल के यादगार दृश्यों का सवाल है तो 'किक' में सलमान खान का सामने से आती हुई ट्रेन को साइकिल से लांघने और 'गुलाम' में रुमाल हाथ में लेकर आमिर खान का रेल के सामने से गुजरने का दृश्य बरबस सामने आ जाता है।
      वैसे तो लगभग सभी कलाकारों ने रेल के डिब्बे में सफर करते मारधाड़, प्यार मोहब्बत या गाने की परम्परा को आगे बढ़ाया है। लेकिन, कुछ कलाकार ऐसे हैं जिन्हें रेल से ज्यादा ही प्यार था। देव आनंद भी ऐसे ही कलाकार थे। उन्होंने 'जब प्यार किसी से होता है' में 'जिया हो जिया ओ जिया कुछ बोल दो, सोलहवां साल में 'है अपना दिल तो आवारा' और काला बाजार में 'ऊपर वाला जानकर अनजान है' गाकर दर्शकों को गुदगुदाया था। जितेन्द्र ने 'मेरे हुजूर' में रूख से जरा नकाब हटाओ, राजेश खन्ना ने 'आराधना' में मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू, 'आपकी कसम' में जिंदगी के सफर में और 'अजनबी' में हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले गाया है। 'अजनबी' में तो राजेश खन्ना स्टेशन मास्टर भी बने थे। शम्मी कपूर ने 'प्रोफेसर' में मैं चली मैं चली, फिल्म 'ब्वाय फ्रेंड' में  मुझको अपना बना लो और 'विधाता' में दिलीप कुमार के साथ रेल ड्राइवर बनकर हाथों की चंद लकीरों को पटरी पर दौड़ाया था।
      इस तरह के रेल वाले गीतों में 1941 की फिल्म 'डॉक्टर' का गीत आई आज बहार, 'दिल से' का मलाइका और शाहरुख का चल छैयां छैंया, फिल्म 'जागृति' का आओ बच्चां तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की, फिल्म 'दोस्त' का गाड़ी बुला रही है, 'रफूचक्कर' का बाम्बे से बड़ौदा तक, 'शोले' का टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो, 'हमराज' का नीले गगन के तले, 'जमाने को दिखाना है' का अरे होगा तुमसे प्यारा कौन, 'खूबसूरत' का इंजन की सीटी में म्हारो दिल डोले तो बेहद लोकप्रिय हुए! लेकिन। अशोक कुमार का 'आशीर्वाद' में गाया गीत रेल गाड़ी भारत का पहला रैप गीत माना जाता है। हिंदी फिल्मों में रेल की महत्ता को स्थापित करने वाली फिल्मों में छलिया, वीर जारा, बंटी और बबली, जब वी मेट, ये जवानी है दीवानी, इश्क़जादे, किक, गुंडे, टायलेट एक प्रेमकथा, कुछ कुछ होता है, जानी गद्दार, पति पत्नी और वो और चेन्नई एक्सप्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अब इसी परम्परा को आगे बढाने के लिए रोहित शेट्टी 'पंजाब एक्सप्रेस' के माघ्यम से एक्शन, कामेडी और रोमांस का तड़का लेकर आने वाले हैं। फिल्मों से रेल का रिश्ता अटूट है और यह बना भी रहना चाहिए। पर, न तो कभी फिल्मों में रेल पटरी से उतरे और न रियल में। क्योंकि, ये दर्द बेहद दुखदायी होता है। 
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भाजपा अपने दावों में वोटरों को तो चैलेंज न करें!

- हेमंत पाल  

     चुनाव की नजदीकी को देखते हुए हर पार्टी अपनी जीत और मिलने वाली सीटों की संख्या के दावे करने से नहीं चूकती। यहां तक कि मंच से मिलने वाला वोट प्रतिशत तक बता दिया जाता है। दरअसल, ये नेताओं का आत्मविश्वास होता है। लेकिन, यदि ऐसे दावों में 'दंभ' नजर आए, तो वो नुकसान देता है। पार्टियां अपने आत्मविश्वास को बढ़ा-चढ़ाकर उसे अति-आत्मविश्वास की सीमा तक ले जाकर अपनी बात कहती हैं। परंतु, यदि उनकी बातों में दंभ छुपा हो, तो वो मतदाताओं को भी रास नहीं आता! इन दिनों ऐसा ही कुछ माहौल है।  
     भाजपा के नेता पिछले कुछ सालों से अपने चुनावी भाषणों में वादों के साथ अपने दंभ का दिखावा करते आए हैं। उनका यह अति-आत्मविश्वास और उसके साथ 'दंभ' जैसा प्रदर्शन भारी पड़ रहा है। इसलिए कि चुनाव के समय राजनीतिक पार्टियां वोटरों के सामने याचक होती हैं। वोटरों को दंभ नहीं दिखाया जा सकता। चुनाव में सीटें जीतने के दावे करना अलग बात है, पर सीटों के आंकड़े कई बार उल्टे पड़ जाते हैं। पिछले चुनाव में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सीटें जीतने के ऐसे ही आंकड़े दिए गए थे। उसके बाद कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में भी सीटों की जीत के ऐसे ही दावे किए, जो बाद में सही नहीं निकले। इन सबके बीच उत्तर प्रदेश में भी चुनाव हुए। वहां भाजपा आसमान फाड़ बहुमत से जीती। लेकिन, वहां की बात अलग थी। उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने कोई ताकतवर प्रतिद्वंदी पार्टी नहीं थी, जो भाजपा को चुनाव में बराबरी की टक्कर दे सके। बाकी राज्यों में यह स्थिति नहीं है। 
     साल के अंत में कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को भी राज्यों में बराबरी की प्रतिद्वंदी पार्टियों के सामने उतरना है। जहां तक दावों की बात है, तो भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में भी यही किया। हर नेता ने 150 सीटों का दावा किया। लेकिन, जब नतीजे आए तो पार्टी दो अंकों से आगे नहीं बढ़ सकी। अब उसी तरह का दावा मध्यप्रदेश के लिए भी किया जा रहा है। भाजपा का नारा है 'अबकी बार 200 पार!' यहां तक कि पार्टी 51% वोट मिलने का भी दावा करने से नहीं चूक रही। पार्टी के नजरिए से यह गलत नहीं है। हर पार्टी को अपनी बात का दावा करने का पूरा हक़ है और यही लोकतंत्र भी है। लेकिन, ऐसे में वोटर को लगता है कि फिर मैं कहां हूँ, जबकि वोट मुझे देना है और कौन सी पार्टी सरकार बनाएगी, ये तय करना मेरा काम है! 
     मुद्दा यह है कि भाजपा के इस दावे में जो दंभ दिखाई दे रहा है, वो मतदाताओं को कहीं न कहीं प्रभावित कर सकता है। क्योंकि, चुनाव में सिर्फ पार्टी के कार्यकर्ता ही वोटर नहीं होते। असल वोटर तो आम जनता होती है। वह पार्टी के कामकाज, भविष्य की योजनाओं और उसके नेताओं के चरित्र का निर्धारण करते हुए वोट का फैसला करती है। किंतु, देखा जा रहा है कि भाजपा के नेता मंच पर दंभ के साथ 'अबकी बार 200 पार' का दावा करने से पीछे नहीं हट रहे! संभव है कि यह दंभ उन पर भारी पड़ जाए। सबसे बड़ी बात यह कि वोटरों के सामने इस तरह का दावा करना इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि वोट तो वोटर्स को ही देना है। उन्हें कैसे भरमाया जा सकता है कि उनकी पार्टी कितनी सीटें जीत रही है।  
     यह पहली बार नहीं हुआ, जब भाजपा के नेता इस तरह का दावा कर रहे हैं। पिछले चुनाव में भी पार्टी के बड़े नेताओं ने मध्य प्रदेश में 200 सीटों का दावा किया था। जबकि, पार्टी बहुमत लायक सीटें भी नहीं जुटा पाई थी। 2018 में ही छत्तीसगढ़ में 65 सीटें जीतने की बात कही गई थी, पर वहां भी पार्टी बहुमत से बहुत दूर रही। राजस्थान में 150 सीटों दावा किया था, लेकिन वहां भी पार्टी हार गई। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 200 सीट जीतने की बात बड़े दंभ से कही गई थी। पर, मामला दो अंकों में सिमटकर रह गया। ऐसे दिखावे करना स्वाभाविक है, इसमें कुछ भी गलत नहीं। पर, उस दावे में इतना घमंड तो नजर न आए कि ये वोटरों को उनके अधिकारों में हनन जैसा लगता है। क्योंकि, आखिर वोट तो वोटरों को ही देना है!
     मध्यप्रदेश में भाजपा को सरकार में 18 साल से ज्यादा हो गए। इतने लंबे अरसे बाद यदि कोई पार्टी यह कहे अभी उसे कई काम करना बाकी है, तो यह बात गले नहीं उतरती। क्योंकि, 18 साल का समय बहुत लंबा होता है। 2004 में जब भाजपा मध्य प्रदेश की सत्ता में आई थी, तब जो बच्चे पैदा हुए थे, वे इस बार वोटर बन गए हैं और इस बार वोट डालने जाएंगे। आशय यह कि 18 साल में एक पूरी नई पीढ़ी खड़ी हो गई, लेकिन पार्टी के वादे पूरे नहीं हुए। इतने समय बाद भी पार्टी सीटों की संख्या के दावे करे, तो यह उसके पक्ष की बात नहीं कही जा सकती। चुनावी वादों और दावों में आत्मविश्वास जताना अलग बात है, पर सीटें जीतने की संख्या और वोट प्रतिशत के दावों को दंभ के साथ मंच से कहना किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता। 
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Tuesday, June 20, 2023

भाजपा में कुछ बड़ा होने की आहट सुनाई देने लगी!

    भाजपा भले ही मध्यप्रदेश में 200 सीट का दावा कर रही हो, पर सच्चाई इससे कोसों दूर है। 51% वोट मिलना भी असंभव सी बात है। कर्नाटक के बाद देशभर में भाजपा जिस तरह बचाव की मुद्रा में है, वो किसी से छुपा नहीं। ऐसे हालात में कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रदेश भाजपा में संगठन स्तर पर कोई बड़ा बदलाव संभव है। क्योंकि, पार्टी की यह कमजोरी साफ़ नजर आने लगी। इन हालात में पार्टी के सामने विकल्प सीमित हैं। पार्टी हाईकमान या तो कैलाश विजयवर्गीय पर दांव लगाएगा या राजेंद्र शुक्ल पर। लेकिन, दोनों की अपनी खूबियां और खामियां हैं। 

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- हेमंत पाल
 
   ध्यप्रदेश भाजपा में इन दिनों कुछ ख़ास चल रहा है। निश्चित रूप से इसे तूफान से पहले की आहट भी समझा जा सकता है। इस पर कांग्रेस के अलावा भाजपा की भी नजरें टिकी है। भाजपा का दिल्ली हाईकमान भी सारी स्थितियों को समझ रहा है और वहां फाइल खुली हुई है! भाजपा के नजरिए से आकलन किया जाए तो पार्टी को प्रदेश के किसी भी अंचल में ताकतवर नहीं आंका जा रहा। मालवा-निमाड़ में भाजपा की कमजोरी पिछले चुनाव में ही सामने आ गई थी। महाकौशल और विंध्य में भी उसका प्रभाव एकछत्र वाला नहीं है। ग्वालियर-चंबल में इस बार सिंधिया समर्थक भाजपाइयों और मूल भाजपा में खींचतान होना तय है। 
    मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का माहौल अब धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों में एक जैसी तैयारियां हैं। दोनों एक-दूसरे पर छिटपुट हमले भी करते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं, लेकिन भाजपा के लिए किसी भी स्थिति में अपनी सरकार बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उनका आकलन किया जाए, तो माहौल भाजपा के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस की भी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। लेकिन, भाजपा का जो नुकसान होगा, वहीं कांग्रेस के लिए राजनीतिक फायदा होगा। 
   अभी चुनाव की रणभेरी नहीं बजी, पर दोनों तरफ सेनाएं सज गई है। ऐसी स्थिति में भाजपा के सामने ज्यादा चुनौती ज्यादा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी में आने के बाद भाजपा कार्यकर्ता और नेताओं की नाराजगी को संभालना आसान दिखाई नहीं दे रहा। कई सीटों पर इस तरह का संकट दिखाई दे रहा है। सबसे ज्यादा चुनौती ग्वालियर-चंबल संभाग में है। यहां सिंधिया के साथ भाजपा में आए उनके समर्थक नेता जब टिकट मांगेंगे, तो राजनीतिक विवाद शुरू होंगे। यही स्थिति बुंदेलखंड में भी बनती दिखाई दे रही है, जहां सिंधिया समर्थक मंत्रियों और मूल भाजपा के मंत्रियों में खींचतान शुरू हो गई। गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह और गोविंद राजपूत के बीच में पिछले दिनों जो विवाद चला वह अभी शांत नहीं हुआ।  
   इन सबके बीच सबकी नजरें इस बात पर लगी है कर्नाटक चुनाव से भाजपा को जो सबक मिला, उसका मध्य प्रदेश के चुनाव में क्या असर होगा। क्योंकि, दोनों राज्यों में स्थिति करीब-करीब समान है। मध्यप्रदेश की ही तरह कर्नाटक में भी भाजपा ने जोड़-तोड़ से सरकार बनाई थी। इस बार के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में तो भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। जोड़-तोड़ की ठीक वैसी स्थिति मध्यप्रदेश में भी बनी थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से आए 22 विधायकों ने कमलनाथ की सरकार को पलट दिया था। उस समय तो भाजपा ने उपचुनाव में 7 सीटें हारकर भी अपनी सरकार बना ली। लेकिन, अब स्थिति इतनी आसान दिखाई नहीं दे रही। पार्टी में  जिस तरह के खींचतान वाले हालात बताते हैं, वो चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले हैं। 
    कांग्रेस सत्ता में नहीं है, उसे नुकसान का कोई खतरा नहीं है। एक सकारात्मक पक्ष यह भी है, कि भाजपा की तरह कांग्रेस में अपेक्षाकृत गुटबाजी कम दिखाई दे रही। कमलनाथ की अगुवाई में पार्टी चुनाव लड़ेगी, इसमें कोई शक नहीं। यदि बहुमत मिलता है, तो वे मुख्यमंत्री भी होंगे। दिग्विजय सिंह जिस तरह से कमलनाथ का समर्थन कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि अब कमलनाथ की राह में कोई बड़ा संकट नहीं है। यदि कोई सिर उठाने की कोशिश भी करता है, तो उसका कोई मतलब नहीं होगा। नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह ने कुछ बयानबाजी करके माहौल बदलने की कोशिश जरूर की थी, पर उसका कोई असर दिखाई नहीं दिया, तो वे भी शांत हो गए। 
     हाल के घटनाक्रम से एक बात साफ़ हो गई कि विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा असर भाजपा संगठन की कमजोरी का सामने आएगा। प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा ने अपने कार्यकाल में कोई ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं की, जिससे लगे वे पार्टी की सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने में मददगार बन सकते हैं। क्योंकि, उन्होंने अपने कार्यकाल में भाजपा में गुटबाजी को जितना बढ़ाया, अब उसका नुकसान सामने दिखाई देने लगा है। इसलिए यह समझा जा रहा है कि वे रहेंगे तो पार्टी को ज्यादा नुकसान देंगे। यदि उन्हें हटाया जाता है तो कोई नया अध्यक्ष हालात को संभाल सकेगा, उसमें भी शंका है। आशय यह कि विष्णु दत्त शर्मा के होने या न होने दोनों स्थितियों में पार्टी को नुकसान ज्यादा है। पार्टी भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रही है। 
     कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले यदि भाजपा में कोई बड़ा फेरबदल होता है, तो वह प्रदेश अध्यक्ष का जाना ही होगा। लेकिन, बाकी बचे चार-पांच महीने में भाजपा में ऐसा कौन सा नेता है, जिसके पास बाजी पलटने की ताकत है, तो वह दिखाई नहीं दे रहा। विकल्प के रूप में राजेंद्र शुक्ला पर पार्टी दांव खेल सकती है। लेकिन, वे विंध्य के नेता हैं, इसलिए मध्य प्रदेश के बाकी हिस्सों में उनका कोई असर नहीं है। जबकि, भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम मध्य प्रदेश से मिलेगी। यहां आदिवासियों पर आज भी कांग्रेस का असर है। 
    ऐसी स्थिति में संभव है कि पार्टी कैलाश विजयवर्गीय पर दांव खेले! पार्टी की कमजोर कड़ी महाकौशल भी है। बुंदेलखंड में भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में भारी थी, इस बार वहां उसकी वो ताकत दिखाई नहीं दे रही। ग्वालियर चंबल संभाग में तो निश्चित रूप से कांग्रेस को फायदा होगा। क्योंकि, यहां टिकट बंटवारे के साथ ही सिंधिया समर्थकों और मूल भाजपा के नेताओं में विवाद होना तय है। इन सारे हालात को देखकर लगता है कि पार्टी में कोई बड़ा बदलाव संभावित है। वो क्या होगा, इसका इंतजार कीजिए!    
    इन हालात में संभव है कि पार्टी कैलाश विजयवर्गीय पर दांव खेले! किंतु, पार्टी की कमजोर कड़ी महाकौशल भी है। बुंदेलखंड में भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में भारी थी, इस बार वहां उसकी वो ताकत दिखाई नहीं दे रही। ग्वालियर चंबल संभाग में तो निश्चित रूप से कांग्रेस को फायदा होगा। क्योंकि, यहां टिकट बंटवारे के साथ ही सिंधिया समर्थकों और मूल भाजपा के नेताओं में टिकट बंटवारे में विवाद होना तय है। इन सारे हालात को देखकर लगता है कि पार्टी में कोई बड़ा बदलाव संभावित है। वो क्या होगा, इसका इंतजार कीजिए!    
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Sunday, June 18, 2023

फिल्मों से हटा फ्लॉप का फंदा, बॉक्स ऑफिस का बदलता गणित!

- हेमंत पाल

     भारतीय राजनीति में ये जुमला खूब चला कि 'अच्छे दिन आएंगे!' अच्छे दिन कौन से थे और वो आए या नहीं, ये अलग मामला है! लेकिन, यदि सिनेमा के अच्छे दिन की बात की जाए, तो वे आ चुके हैं। बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दर्शकों का फिल्मों से मोहभंग हो गया था। इसके बाद कोरोना ने सिनेमा की कमर तोड़ी और दर्शकों के सामने ओटीटी जैसा विकल्प खड़ा हो गया। पर, अब लगता है वास्तव में सिनेमा के अच्छे दिन आ गए। अब वो हालात भी नहीं रहे, जब फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता था और फिल्म पिटने पर अपनी संपत्ति तक बेचना पड़ती थी। अब वो स्थिति नहीं है। कोई भी फ़िल्म आसानी से सौ-दो सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो फिल्म निर्माण के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद इस उद्योग का चेहरा पूरी तरह बदल गया। अब हर साल हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। बॉक्स ऑफिस पर भले ही फिल्म हिट न हो, पर निर्माता की जेब खाली नहीं होती। 
     हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा पुराने इतिहास में कई उतार-चढाव देखे। कभी फ़िल्में दर्शकों की पसंद से उतरी, तो कभी विपरीत परिस्थितियों की वजह से उसे बुरे दिन देखने पड़े। लेकिन, कोरोना काल और उसके बाद के हालात और विकट रहे, जब कुछ फिल्मों के बायकाट का दौर शुरू हुआ। यह प्रवृत्ति क्यों पनपी और इसका क्या असर हुआ ये अलग मुद्दा है। पर इसने फ़िल्मी दुनिया की कमर जरूर तोड़ दी। किसी भी मुद्दे को लेकर कलाकारों का बहिष्कार किया गया और उनकी फिल्मों का बायकाट! लेकिन, इसका उन दर्शकों पर असर नहीं हुआ, जिन्हें इन सारे मुद्दों से कोई सरोकार नहीं होता! यदि फ़िल्में अच्छी थीं, तो उन्हें पसंद किया गया और बॉक्स ऑफिस पर उन फिल्मों ने अच्छा कारोबार भी किया। लेकिन, वैसे हालात नहीं है। बिगड़े दौर के बाद अब सिनेमा के परदे पर फिर चमक लौट आई है। 'गंगूबाई' के बाद 'ब्रह्मास्त्र' और 'पठान' ने उन सिनेमाघरों की रंगत वापस लौटा दी, जो दर्शकों के बिना बेरंग हो गई थी। इसलिए कहा जा सकता है कि सिनेमा के अच्छे दिन वापस लौट आए।       
      दो साल में फिल्मों का बॉक्स ऑफिस परफॉर्मेंस देखा जाए, तो निश्चित रूप से इसे अच्छे दिनों की शुरुआत कहा जाएगा। क्योंकि, उन दिनों में ज्यादातर बड़े सितारों की फिल्में फ्लॉप हुई। अक्षय कुमार, आमिर खान, सलमान खान, रणवीर सिंह और रणवीर कपूर जैसे कई नामचीन सितारों की फिल्मों ने तो पानी नहीं मांगा। कोरोना काल के बाद महज दो-तीन फिल्मों जैसे कार्तिक आर्यन की 'भूल भुलैया-2' और अजय देवगन की 'दृश्यम-2' ही पसंद की गई। 
      ये दोनों फिल्मों ने बायकॉट मुहिम में भी अच्छा कारोबार किया। लेकिन, पहले आलिया भट्ट की गंगूबाई, रणवीर कपूर की ब्रह्मास्त्र और शाहरुख खान की 'पठान' ने नई उम्मीद जगाई, इसका असर अभी भी देखा जा सकता है। अब यदि विक्की कौशल और सारा अली की 'जरा हटके जरा बचके' भी दर्शकों को पसंद आई तो ये उसी उम्मीद का असर कहा जाएगा। अच्छे दिनों का सबूत सिर्फ शाहरुख़ खान की फिल्म 'पठान' की आसमान फाड़ कमाई ही नहीं है। 'द कश्मीर फाइल्स' के बाद 'द केरल स्टोरी' भी ऐसी फिल्म है जिसने विवादों से घिरने के बावजूद कमाई के नए रिकॉर्ड बनाए। 
    जबकि, एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में फ़िल्में महीनों तक चलती थीं! 6 महीने चली तो 'सिल्वर जुबली' और साल भर में 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! उनके लिए अपने पसंदीदा कलाकार की फिल्म को बार-बार देखना एक अलग तरह का शगल था। इसके अलावा फर्स्ट डे, फर्स्ट शो फिल्म देखने का अपना अलग ही जुनून तब के दर्शकों में देखा गया। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी होना तो आम बात थी। ऐसे में टिकट खिड़की से मुट्ठी में मसली हुई टिकट पा लेना भी किसी स्पर्धा जीत लेने जैसी ख़ुशी का प्रसंग था।
       ऐसे भी किस्से हैं, जब लोग अगले दिन का पहला शो देखने के लिए देर रात या अलसुबह से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। लेकिन, अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! अब टिकट खिड़की भी पहले की तरह नहीं रही, सब ऑनलाइन हो गया! अब तो किसी दर्शक के खिड़की पर जाए बिना ही पूरा हॉल बुक हो जाता है। इतने बदलाव के बाद भी फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं। पीढ़ी बदल गई, पर दर्शकों की पसंद नहीं बदली।    
     हमारे यहाँ फिल्म बनाना भी एक तरह से जुनून ही रहा। दादा साहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई, तब उनका सब कुछ कर्ज में डूब गया। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते। क्योंकि, फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। वो स्थिति नहीं कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच तो यह है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप ही नहीं होती। फिल्मकारों ने कमाई के कई तरीके खोज लिए। फिल्म से जुड़े इतने सारे अधिकार (राइट्स) होते हैं कि फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में तो कामयाब हो जाती हैं।
    फ़िल्मी सितारों की लोकप्रियता पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेते हैं। बताते हैं कि यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' बुरी तरह फ्लॉप हुई। इस फिल्म ने प्रचार से ऐसा आभामंडल बनाया था कि शुरू के तीन दिन में ही इसने कमाई कर ली। 
    हाल ही में आई सलमान खान की 'किसी का भाई किसी की जान' के साथ भी यही हुआ। फिल्म तो नहीं चली, पर इसके कई राइट्स ने लागत से ज्यादा कमाई कर ली। फिल्म निर्माण का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा। अब तो अप्रवासी भी इसमें पैसा लगाने लगे। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया!
     फिल्म निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आ गया। हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सैटेलाइट, ओवरसीज, म्यूजिक और ओटीटी के लिए अलग-अलग राइट्स फिल्म की रिलीज से पहले ही बेच दिए जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। प्रोडक्शन हाउसों ने तो सिनेमा कारोबार का पूरा खेल ही बदल दिया। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनेजमेंट’ करते हैं। मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे। जिस तरह से फिल्मों के दिन फिरे हैं अब रणवीर सिंह की फिल्म 'गली बॉय' के गाने 'अपना टाइम आएगा' की तरह फिल्मकार भी यही उम्मीद कर सकते हैं!    
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Sunday, June 11, 2023

मधुबाला की खूबसूरती और मुस्कान, जिस पर हुई दुनिया कुरबान!

- हेमंत पाल

     ई साल पहले कोलकाता से निकलने वाली एक समाचार पत्रिका ने एक बड़ी कवर स्टोरी की थी, जिसका शीर्षक था 'सबसे सुंदर कौन?' इस स्टोरी के लिए पत्रिका ने फ़िल्मी दुनिया के कई नए-पुराने लोगों से बातचीत की गई! इसके अलावा फिल्मों के जानकारों के भी इंटरव्यू लिए। सबसे एक ही सवाल किया था कि फ़िल्मी दुनिया में अब तक की सबसे सुंदर अभिनेत्री कौन है! कई नाम सामने आए, पर ज्यादातर का का निष्कर्ष था कि हिंदी फिल्मों की अब तक की सबसे खूबसूरत हीरोइन सिर्फ मधुबाला है! सौ सालों से ज्यादा पुरानी हो चुकी फ़िल्मी दुनिया में यह अजब बात है कि आज भी मधुबाला को ही परदे की सबसे सुंदर हीरोइन माना जाता है। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के जमाने से आजतक इस अभिनेत्री की खूबसूरती को कोई टक्कर नहीं दे सका।
     इस बीच परदे पर कई खूबसूरत चेहरे दिखाई दिए, पर मधुबाला जैसा कालजयी कोई नहीं रहा! नरगिस, नूतन, वहीदा रहमान से लगाकर माधुरी दीक्षित, मीनाक्षी शेषाद्री और श्रीदेवी के अलावा ऐश्वर्या राय जैसी भी सामने आई जिन्हें सुंदरता के मापदंडों पर खरा पाया गया। लेकिन, फिर भी जो नाक-नक्श और चेहरे की भाव-भंगिमाएं मधुबाला में थी, वो किसी और में नहीं देखी गई।   
    अभिनय में तो मधुबाला को महारत हासिल थी ही, उनकी खूबसूरती का भी कोई मुकाबला नहीं था। आज जब भी फिल्मों की खूबसूरत अभिनेत्रियों का जिक्र आता है, तो बात मधुबाला पर आकर ही ठहर जाती है। 50 के दशक की इस दिलकश हीरोइन को सौ सालों में भी कोई अभिनेत्री मात नहीं दे सकी। उनकी सादगी, उनकी मुस्कान और वो गहरी आंखें। वाकई उनके चेहरे ऐसी खूबसूरत थीं, जिसे किसी श्रृंगार की जरूरत महसूस नहीं गई। मीना कुमार की तरह मधुबाला को भी हिंदी सिनेमा की ट्रेजडी क्वीन कहा जाता रहा। उनकी असल जिंदगी भी इससे अलग नहीं रही। बहुत कम उम्र में दिल की बीमारी के चलते मधुबाला दुनिया से विदा हो गई।
    मधुबाला सिर्फ खूबसूरती के लिए ही नहीं, अपनी स्टाइल के लिए काफी मशहूर रही। वैसे तो वे 50 के दशक की अभिनेत्री थी। लेकिन,  उनका फैशन सेंस आज भी याद किया जाता है। इस अभिनेत्री ने 'मुग़ल-ए-आज़म' में माथे पर बड़ा सा मोतियों का लटकन वाला मांग टीका और बड़ी सी नथ को पहना था ,वो आज के फैशन से बाहर नहीं हुआ। इस फिल्म में दर्शक मधुबाला के अभिनय से ज्यादा खूबसूरती पर फिदा हुए थे। फिल्म में उन्होंने अनारकली का किरदार निभाया था। आज भी कोई सोच नहीं सकता कि मधुबाला के सिवाय कोई और अभिनेत्री इस किरदार को निभा सकती है। 
    मधुबाला के बाद यदि किसी को परदे पर सबसे खूबसूरत माना जाता है, तो वे थी नूतन। मधुबाला यदि दिलकश खूबसूरती की मालकिन थी, तो नूतन  के पास नैसर्गिक सुंदरता थी। 'बंदिनी' और 'सरस्वतीचंद्र; में नूतन की नैसर्गिक सुंदरता को बखूबी पहचाना गया था। 'मिस इंडिया' का खिताब जीतने वाली वे पहली अभिनेत्री थी। 1955 में आई फिल्म 'सीमा' में अपने अभिनय के लिए नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड भी मिला था। 1963 की 'बंदिनी' में अपने जीवंत अभिनय के लिए नूतन को फिर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। नूतन को 1974 में सरकार ने देश के चौथे सबसे बड़े सम्मान पद्मश्री से नवाजा था। 
     मशहूर अभिनेत्री शोभना समर्थ की बेटी नूतन को अभिनय तो विरासत में मिला था। मां अभिनेत्री थीं, फिर भी इन्हें अपनी जगह बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। क्योंकि, उस दौर में गठीले बदन की गोरी हीरोइनों को पसंद किया जाता था। दुबली और सांवली लड़कियों को कोई काम नहीं देता था। नूतन को भी उनके लुक के कारण कई बार ताने मिले। बचपन में नूतन खुद ही अपने आप को दुनिया की सबसे बदसूरत लड़की समझने लगी थी। नूतन को देखकर मां शोभना को लगता था कि वो फिल्मों के लायक नहीं है। लेकिन, एक समय ऐसा आया जब उन्हें नैसर्गिक सुंदरता ख़बसूरती की मिसाल समझा गया। 
     परदे की खूबसूरत अभिनेत्रियों में वनमाला को भी गिना जाता है। पर, वे ज्यादा समय तक ही फिल्मों में नहीं रहीं। वे रॉयल फैमिली की थीं। उनके पिता पिता कर्नल रायबहादुर बापूराव पवार अंग्रेज राज में शिवपुरी के कलेक्टर थे। लेकिन, वे बेहद सख्त थे। 1940 में उनकी पहली मराठी फिल्म 'पांडव' आई। इसके बाद सोहराब मोदी ने इन्हें 'सिकंदर' की हीरोइन बनाया। यह फिल्म ब्लॉकबस्टर रही और वनमाला रातों रात स्टार बन गईं। पृथ्वीराज और सोहराब जैसे बड़े कलाकार होने के बावजूद वनमाला की खूबसूरती से दर्शकों का ध्यान खींचा था। लेकिन, जब ये फिल्म ग्वालियर के रीगल सिनेमाघर में आई तो पिता वनमाला को देखकर गुस्से में आग बबूला हो गए। उन्होंने सिनेमाघर के स्क्रीन पर ही गोलियां दाग दी। जिससे वहां अफरा-तफरी मच गई। इसके बाद परिवार ने भी वनमाला से रिश्ते तोड़ लिए। उनकी कई अच्छी फिल्में आईं, लेकिन परिवार की नाराजी उन्हें हमेशा खलती रही। वनमाला ने पिता से सुलह करना चाहा, तो उन्होंने शर्त रख दी कि घर आना है, तो फिल्मों से दूरी बनानी पड़ेगी। वनमाला मुंबई से ग्वालियर आ गई। पिता की जिद पर वापस तो आईं, पर दुनिया का मोह छोड़ दिया। वनमाला कुछ दिन बाद वृंदावन के एक आश्रम चली गई और जीवनभर साध्वी बनी रही।   
       परदे की सुंदर अभिनेत्रियों में वहीदा रहमान को भी सिनेमा की नेचुरल ब्‍यूटी मामाना गया। उनकी पहली फिल्म 'प्यासा' से ही दर्शकों में उनमें अभिनय की संभावनाएं देखी थी। अपने दौर में वहीदा में एक अजब सा आकर्षण रहा। आज भी उनका अंदाज, उनकी सादगी मन मोहिनी है। उनकी गिनती 70 के दशक की खूबसूरत अभिनेत्रियों में होती है। उन्होंने अपने अभिनय करियर में कई हिट फिल्में दी। गाइड, प्यासा, कागज के फूल और 'नीलकमल' उनकी सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली हिट फिल्में हैं। वहीदा रहमान का फिल्मी करियर तो सुर्खियों में रहा, उनकी निजी जिंदगी भी काफी चर्चा में रही। उनका नाम एक्टर डायरेक्टर गुरु दत्त के साथ जुड़ा, लेकिन बात शादी तक नहीं पहुंच सकी। इसके बाद एक्ट्रेस की जिंदगी में कमलजीत आए, जिनसे बाद में उनकी शादी हुई। वहीदा रहमान ने शादी के बाद भी एक्टिंग जारी रखी। लेकिन, उनकी सक्रियता कम होती गई। 1991 में अनिल कपूर और श्रीदेवी की फिल्म 'लम्हे' के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए अभिनय से ब्रेक लिया। इसके बाद वे ओम जय जगदीश, रंग दे बसंती और 'दिल्ली 6' जैसी फिल्मों में मां की भूमिका  में नजर आईं। तीन फिल्मफेयर और एक नेशनल अवॉर्ड जीत चुकीं वहीदा रहमान को 1972 में पद्मश्री और 2011 में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया।
       सिनेमा की 60 से 80 के दशक तक कई बड़ी फिल्मों में नजर आई नरगिस को भी खूबसूरत अभिनेत्रियों में गिना जाता है। सादगी और सुंदरता के कारण उन्हें 'लेडी इन व्हाइट' कहा जाता था। उनकी खूबसूरती को निर्धारित पैमाने से नहीं परखा जा सकता। लेकिन, उनके चेहरे में एक अजब सी कशिश थी, जो उस दौर की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में उनकी बेमिसाल सुंदरता को दर्शाती थी। वे हिंदी फिल्मों की पहली अभिनेत्री थी जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया। इसके अलावा वे राज्यसभा में मनोनीत होने वाली भी पहली फ़िल्मी हस्ती थीं। वे अपने जमाने में गजब की खूबसूरत और चार्मिंग पर्सनालिटी थी। वे करीब तीन दशक तक परदे पर सक्रिय रहीं। उन्हें दमदार एक्टिंग के साथ खूबसूरती के लिए भी पहचाना जाता था। नरगिस ने कई हिट फिल्में दी, जिनमें मदर इंडिया, श्री 420, चोरी-चोरी, अंदाज, आवारा, बरसात और आग समेत कई फिल्में शामिल हैं। उन्हें पहली बार बतौर हीरोइन 1942 में आई फिल्म 'तमन्ना' में देखा गया था। नरगिस अपने अभिनय के साथ खूबसूरती और लव लाइफ को लेकर भी चर्चा में रही। इस अभिनेत्री ने शादी तो सुनील दत्त से की। पर, सच्चाई यह थी कि राज कपूर और नरगिस की प्रेम कथाएं किसी से छुपी नहीं रही। 
     फिल्मों में सुंदरता के किस्से यहीं खत्म नहीं होते। हर दशक में कोई न कोई सुंदर हीरोइन परदे पर आई जिसके नाम के चर्चे हुए। 80 के दशक में स्मिता पाटिल को नूतन का प्रतिरूप माना गया था। पर, वे बहुत कम उम्र में दुनिया से चली गई। दुबली-पतली और सांवली स्मिता पाटिल ने 80 से ज्‍यादा हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, मलयालम और कन्‍नड़ फिल्‍मों में काम किया। इससे पहले दिव्या भारती की सुंदरता को भी पसंद किया गया। मधुबाला के बाद जिस एक्ट्रेस की खूबसूरती ने दर्शकों और सिनेमा की दुनिया को दीवाना बनाया वो दिव्‍या भारती ही थीं। पर, अफसोस कि वे एक हादसे का शिकार होकर चल बसी। मौसमी चटर्जी ने भी हिंदी के साथ ही बंगाली फिल्मों में भी खूब काम किया। 70 के दशक में वे सबसे महंगी अभिनेत्रियों में थीं।
    परदे पर मौसमी की मुस्‍कान की दीवानगी दर्शकों के सिर चढ़कर बोलती थी। इसके बाद मीनाक्षी शेषाद्री ने हिंदी, तमिल और तेलुगू फिल्‍मों में अपनी धाक जमाई। हीरो से शुरू हुआ उनका करियर मेरी जंग, शहंशाह, घायल और 'दामिनी' जैसी सुपरहिट फिल्मों से आगे बढ़ा। मीनाक्षी शेषाद्री ने 17 साल में 'ईव्स वीकली मिस इंडिया' का ताज जीता था। 1981 में टोक्यो में मिस इंटरनेशनल प्रतियोगिता में उन्होंने देश का प्रतिनिधित्व किया था। फिर सोनाली बेंद्रे की खूबसूरती और सादगी को भी सराहा गया। अभी सुंदरता की परख का ये सिलसिला समाप्त नहीं हुआ है। जब तक फ़िल्में हैं हीरोइनों में खूबसूरती का मुकाबला चलता रहेगा, पर अभी तो सबसे सुंदर चेहरा मधुबाला को ही माना गया है।    
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Friday, June 2, 2023

जब भी परदे पर आया तो दिलों पर छाया लोक संगीत!

- हेमंत पाल

     जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से अब तक के दौर में बहुत कुछ बदला। सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आएंगे, जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के गीतों को अपने गीतों में जगह दी! सिनेमा के संगीत ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही कथानक का हिस्सा नहीं बनाया, बल्कि लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से पिरोया गया! इसलिए कि लोक संगीत हमारी संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा है! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाए और बजाए जाने वाले गीतों को जब फिल्मों ने अपनाया तो वे अपनी सीमा से निकलकर दुनियाभर में छा गए।
    इसलिए कि फ़िल्मी गीतों में सिर्फ शब्दों का ताना-बाना नहीं बुना जाता, इसके अलावा भी बहुत कुछ होता है। फिल्म के कथानक और पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। ऐसे में कई बार जब लोकगीतों को फिल्म के कथानक के अनुरूप पाया जाता है, तो उसे जगह दी जाती है। देखा गया है कि जब भी लोकगीतों और धुनों के प्रयोग किए, वे लोकप्रिय हुए। फिल्मों में बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत सुना जा रहा है। लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया!
    1981 में आई 'लावारिस' में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन ने अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' गीत रचा था। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। इतने सालों बाद आज भी इसे पसंद करने वालों की कमी नहीं है। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' का होली गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का रंग हैं। लोकगीतों में अजब सी मस्ती होती है, जो सुनने वाले के दिल को प्रफुल्लित कर देती है। होली पर कई गीत गाए जाते हैं, पर बात 'सिलसिला' के लोकगीत 'रंग बरसे' के बिना बात पूरी नहीं होती। अमिताभ के ही गाए 'बागबान' के गीत 'होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुबीरा’ भी उतना ही पसंद किया जाता है। 'गोदान' के गीत 'होली खेलत नंदलाल बिरज में' को कोई भूल नहीं सकता! वी शांताराम की फिल्म 'नवरंग' के गीत 'अरे जा रे हट नटखट न खोल मेरा घूँघट' का जादू भी आज तक बरक़रार है।
    मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' के गीत 'चना जोर गरम बाबू' पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था। राजश्री की फिल्म 'नदिया के पार' में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार का कथानक था, तो वही प्रभाव गीतों में भी नजर आया। फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीतों में कहीं न कहीं पूर्वांचल के लोकगीत सांस लेते सुनाई दिए थे। 'बहारों के सपने' फिल्म के गीत आजा पिया तोहे प्यार दूं, चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे में ब्रज के लोकगीतों का असर महसूस किया जा सकता है। 'मिलन' के गीत 'सावन का महीना पवन करे सोर' में भी गाँव के जीवन की निश्छलता दिखाई देती है।
       किशोर कुमार की 'पड़ोसन' के गीत 'इक चतुर नार' तथा 'मेरे भोले बलम' गीतों में लोकांचल को कौन महसूस नहीं करता! 'सरस्वतीचंद्र' के गीत 'मैं तो भूल चली बाबुल का देस' और 'अनोखी रात' के गीत 'ओह रे ताल मिले नदी के जल में' भी लोक जीवन की झलक है। राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गाने मोहे अंग लग जा बालमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दो आगे तीतर और 'सावन भादों' के गीत 'कान में झुमका चाल में ठुमका' में तो गाँव महकता है। 'हीर राँझा' फिल्म के गाने तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में तो साफ़ पंजाब की मिट्टी की सुगंध है। नितिन बोस की फिल्म 'गंगा जमना' के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज की छाप थी। नैन लड़ जइहैं तो मनवां, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूंढो ढूंढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे गीत से लोक जीवन से जुड़े थे।
      उत्तर भारत की लोक धुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! 'सिलसिला' का होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे‘ और 'लम्हे' का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी 'दिल्ली-6' में छत्तीसगढ़ का लोकगीत शामिल किया था 'सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे' को काफी पसंद किया गया! कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने भी अपने गीतों में गुजरात के लोक संगीत की मिठास घोली! गरबा और डांडिया गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। लेकिन, फिल्मों में गुजराती लोक संगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जाता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोक धुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस' फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हांगकांग’ में 'हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया' गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने ही इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया!
       'इंग्लिश विंगलिश' की भावुकता 'नवराई माझी लाडा ची' के बिना दिल को पकड़ नहीं पाती। 'माचिस' को याद करते ही ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ अपने आप होंठों पर आ जाता है। 'मिशन कश्मीर' का गीत 'भुंबरो भुंबरो श्याम रंग भुंबरो’ के बिना पूरी नहीं लगती। 'हम दिल दे चुके सनम' में 'निम्बुडा निम्बुडा' ही नायिका के भोलेपन और उसकी अल्हड़ता को उभार सकता है। इतना ही नहीं, फिल्म न चले लेकिन उसके लोकगीत उसे हमारे यादों में बसा देते हैं। चाहे वह 'दिल्ली-6' का 'ससुराल गेंदा फूल' हो या 'दुश्मनी' का 'बन्नो तेरी अखियां सुरमेदानी' गीत हो! 'तीसरी कसम' यदि अमर हुई है, तो वह भी उसके लोक संगीत के कारण। फिल्म संगीत से लोक संगीत की हिस्सेदारी को अलग कर दिया जाए, तो सुरों की ये दुनिया विधवा की जिंदगी की तरह बेरंग हो जाएगी।  
    'गोदान' का गीत 'पिपरा के बतवा सरीखे मोर मानव के हियरा में उठत हिलोर' नायक के मन में अपने गाँव की हूक जगाता है और गांव की सौंधी सुगंध याद दिलाता है। वैसे ही जैसे 'मेरे देश में पवन चले पुरवाई ओ मेरे देश में' कराता है। 'मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे चोला' पंजाब का बच्चा-बच्चा गाता है। ऐसा कौन होगा जो 'ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान' पर आँखें नम न करता हो। खासकर वे जो अपने वतन से दूर है तो! क्योंकि, इस गीत में मिट्टी की महक है। ये लोक संगीत की ही तरंग है कि नौशाद एक ही फिल्म में ठेठ भोजपुरी में सुनाते हैं 'नैन लड़ गई हैं तो मनवा मा खटक होई बे करी' तो उसी नायक से पंजाबी ताल पर भी गंवा देते हैं 'उड़े जब जब जुल्फें तेरी' और किसी दर्शक को यह बात खटकती भी नहीं। आज दशकों बाद भी ये दोनों गाने हमें आनंदित करते हैं।
     कुछ संगीतकारों के गीतों में तो लोक संगीत की खुशबू ही महकती रही है। नौशाद के गीतों में उत्तर भारत का लोक संगीत महकता था, तो अनिल बिस्वास और सलिल चौधरी के गीतों में रवींद्र संगीत हिलोरें मारता था। खय्याम ने पहाड़ी लोक संगीत से अपने गीतों को समृद्ध किया, तो सचिन देव बर्मन के गीतों में तराई का लोक संगीत था। ओपी नैयर, उनके सहायक जीएस कोहली और उषा खन्ना के गीतों में पंजाब की मस्ती साफ़ सुनाई देती थी जिसे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने भी कुछ हद तक अपनाया। कल्याणजी-आनंदजी ने गरबे पर आधारित गीतों से चाशनी घोली तो आनंद मिलिंद के पिता चित्रगुप्त ने पूर्वी और उत्तर भारत के लोक संगीत से सिने गीतों को सरोबार किया।
    हरिप्रसाद चौरसिया और शिव शर्मा के साथ साथ विशाल भारद्वाज ने उत्तर भारत और कश्मीर के लोकगीतों का सुंदर उपयोग किया है। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आरडी बर्मन ने गोवा के लोक गीतों को भी अपनाया। बॉबी का 'है है है है रे साहिबा' और 'सागर' का 'ओ मारिया ओ मारिया' ऐसे ही गीत हैं। राजेश रोशन ने इसी तर्ज पर मूंगड़ा रे मूंगड़ा में गुड़ की डली' गीत रचा था। ख़ास बात तो यह कि फिल्मों के गीतों में लोक गीतों का यह घालमेल इतनी सफाई से किया कि दर्शक समझ ही नहीं पाए। 'नया दौर' में धोती-कुर्ता पहने दिलीप कुमार और घाघरा चोली पहने वैजयंती माला पंजाब के लोक गीतों पर क्यों थिरकी या फौजी ड्रेस पहने मिथुन के साथ राजस्थानी वेशभूषा में अनिता राज 'गुलामी' में 'जिहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश' पर क्यों झूमे! यह लोक संगीत का जादू ही था, जिसने प्रांत और भाषा की दीवार ढहाकर कानों में माधुर्य और पैरों में थिरकन भरने का कमाल किया।
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