Sunday, February 28, 2016

एक अपराधी का 'हीरो' किरदार!


- हेमंत पाल 

  एक अपराधी के रूप में संजय दत्त जेल से सजा काटकर रिहा हो गया! पर, पुणे के यरवदा जेल के बड़े दरवाजे से वो अभिनेता बनकर निकला! जेल के दवाजे से ही उसने एक्टिंग शुरू कर दी! कहा जा रहा है कि एक अपराधी का जेल से बाहर आने का सीन भी उनकी आने वाली किसी फिल्म का हिस्सा होगा! लेकिन, संजय दत्त की रिहाई को लेकर जिस तरह का मीडिया हाइप क्रिएट किया गया, वो समझ से पर था! मीडिया ने भी उस संजय दत्त को भुला दिया, जिसे अवैध हथियार रखने के आरोप में 5 साल की सजा हुई थी! दो हिस्सों में सजा काटकर वो आठ महीने पहले बाहर आ गया! उसके साथ जेल प्रशासन ने भी अपराधी के बजाए अभिनेता जैसा व्यवहार किया! पैरोल, फरलो की मनचाही छुट्टी के बाद उसे अच्छे व्यवहार के कारण सजा पूरी होने से पहले छोड़ दिया गया!          

   संजय दत्त की रिहाई का टीवी के परदे पर लाइव प्रसारण किया गया! लगा जैसे संजय का जेल से बाहर आना देश की किसी समस्या के हल होने जैसा हो! सोशल मीडिया पर हर तरफ से स्वागत के विचार उमड़ रहे हैं! जिस तरह का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, उससे लग रहा है कि कानून ने संजय के साथ बहुत नाइंसाफी की! इस अभिनेता ने पुणे में यरवडा जेल से निकलते ही राष्ट्रध्वज को बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज में सलाम किया। उनका ये अंदाज हैरान करने वाला था! क्योंकि, शायद ही किसी मुजरिम ने जेल से रिहाई के बाद तिरंगे को सलाम किया हो! हैरान करने वाली बात इसलिए कि संजय दत्त जब पहली बार 2007 में जमानत मिलने के बाद जब इसी जेल से बाहर आए थे, तब उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया था। अपना सामान उठाए दोस्त युसूफ नलवाला के साथ बाहर निकल आए थे। 

  संजय दत्त को भले ही टाडा जज प्रमोद कोदे ने टाडा के आरोप से बरी कर दिया था। लेकिन, अवैध हथियार रखने के आरोप में उन्होंने 44 महीने की सजा काटी है, ये दाग उनकी पहचान से कभी जुदा नहीं हो सकता! शुरू में संजय दत्त का नाम 1993 के बम धमाकों से जिस तरह जुड़ा था, वो उनके माथे पर कलंक था। इसलिए भी कि वे उस सुनील दत्त के बेटे हैं, जिनकी देश में पहचान समाज सेवक और भले आदमी के रूप में रही है! वे सजा काटकर जेल बरी हो गए हों, फिर भी ये दाग जीवनभर उनका पीछा करता रहेगा! जब भी संजय दत्त पैरोल और फरलो पर जेल से छूटकर आए, तो मीडिया में उल्लेख 1993 बम धमाकों से जोड़कर ही होता था। क्योंकि, लोगों के लिए कानून की इस बारीकी को समझना मुश्किल ही है। यही वजह है कि संजय दत्त की रिहाई के पहले और बाद में कुछ लोग 'देशद्रोही' लिखे बैनर लेकर उनकी रिहाई का विरोध करते भी दिखे। लेकिन, उन्हें कैमरे ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। रिहाई के बाद संजय दत्त ने बार-बार कहा कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ! मीडिया से विनती करता हूँ कि मेरा नाम 1993 के धमाकों से नहीं जोड़ें। ये भी कहा कि वे 23 साल से जिस आज़ादी के लिए तरस रहे थे, वो उन्हें अब मिली! लेकिन, मुझे पता है कि खुद को ये दिलासा देने में अभी वक्त लगेगा कि मैं अब आज़ाद हूँ! 
 दरअसल, संजय दत्त की रिहाई को भी फ़िल्मी सीन की तरह देशभक्त के जेल से बाहर आने जैसा साबित करने की कोशिश की गई! उन्होंने 'तिरंगे को सलाम' भी राष्ट्रभक्ति के एक प्रतीक की तरह किया! ताकि, पूरे देश में ये संदेश जाए कि सजा के बाद भी उनकी देशभक्ति में कमी नहीं आई! संभव है कि संजय की रिहाई को लेकर भी कोई कथानक लिखा गया हो! इस मौके को भुनाने के लिए वास्तविक हालात को ही फ़िल्मी सेट बना लिया गया हो! एक सजायाफ्ता अपराधी की एक नई छवि बनाने का पूरा सीन तैयार किया गया हो! इस सीन में पुणे से मुंबई आने के बाद सबसे पहले सिद्धिविनायक मंदिर और फिर मां नरगिस की कब्र पर जाने का जिक्र भी होगा! क्योंकि, संजय दत्त को मालूम है कि वे आम आदमी नहीं हैं, जो जेल से निकालकर दुनिया की भीड़ में गुम जाए! उनका हर कदम लोगों की नजर में होगा! इसीलिए जेल से बाहर आते ही झुककर धरती को छूना और जेल के दरवाजे के ऊपर फहराते तिरंगे को एक सैनिक की तरह सलामी देना सामान्य बात नहीं है! लेकिन, ये बात छुपाकर रखी गई, ताकि सब कुछ सहज लगे और हैरान करे, मीडिया में खबर भी बने? भले ही संजय दत्त का ये अंदाज फ़िल्मी हो और किसी फिल्म का हिस्सा भी बने, पर जेल जाने के बाद रिहाई को भी इस अभिनेता ने कैश तो कर ही लिया! इसीलिए गुप्त कथानक में उनका देशभक्त दिखना सेलुलॉइड में भी दर्ज हो गया! जो 'देशद्रोही' लिखे नारे लिखे बैनर लेकर खड़े थे, वे खलनायक बनकर कोने तक सीमित हो गए! उमा भारती भी संजय दत्त को कोसकर मीडिया की सुर्खी बनना चाहती थी, पर कहीं नजर भी नहीं आई! 
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Friday, February 26, 2016

'संघ' और 'तिरंगे' के बहाने राजनीति की नूरा कुश्ती


हेमंत पाल 


    राजनीति का अपना अलग ही अंदाज है। यहाँ सत्ता और विपक्ष में तनातनी भी तभी तक रहती है, जब दोनों के राजनीतिक स्वार्थ टकराते हैं! वरना सत्ताधारी और विपक्ष के नेता हर जगह गलबैयां डाले दिखाई दे सकते हैं। विधानसभा और संसद में इसका नजारा कभी भी देखा जा सकता है। लेकिन, कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि दोनों पार्टियों के राजनीतिक अहं टकरा जाते हैं! फिर बीच का रास्ता निकालकर कूटनीतिक मात देने की चाल चली जाती है। ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों हुई, जब कांग्रेस ने 'संघ' कार्यालय पर तिरंगा झंडा फहराने का एलान किया! कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि उसकी इस घोषणा का विरोध होगा और उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा! पर ज्यादातर स्थानों पर 'संघ' कार्यालयों पर कांग्रेस नेताओं का स्वागत किया गया और तिरंगा फहराने का मौका दिया! कुछ जगह विरोध भी हुआ! यानी न तुम हारे, न हम हारे!
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  दिल्ली के जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के मसले की पृष्ठभूमि में जारी सियासी रस्साकशी चली! कांग्रेस को लगा कि जो भाजपा चीख-चीखकर राष्ट्रभक्ति का गुणगान कर रही है, उसी की मातृ संस्था 'संघ' के कार्यालयों पर कभी राष्ट्रध्वज नहीं फहराया जाता! इस नजरिए से कांग्रेस का आइडिया सौ टंच सही था! क्योंकि, यदि 'संघ' अपने कार्यालयों पर झंडा फहराने से इंकार करता तो, कांग्रेस को उस पर ऊँगली उठाने का मिलता! 'संघ' की राष्ट्र भक्ति पर कथित रूप से संदेह किया जाता! कानून-व्यवस्था के मुताबिक ये मामला टकराव वाला भी था और राजनीति में सनसनी लाने वाला भी! कांग्रेस को भरोसा था कि अपनी इस रणनीति से वो भाजपा और 'संघ' दोनों को कटघरे में खड़ा कर देगी! पर, वास्तव में ऐसा हुआ नहीं! 'संघ' की एक चाल ने कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया! इसके बावजूद ये असमंजस बरक़रार रहा कि आखिर इस सबके पीछे 'संघ' की मंशा क्या थी?
  कांग्रेस और 'संघ' बनाम भाजपा के बीच सबसे दिलचस्प नजारा इंदौर में हुआ! मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर देशभक्ति के नाम पर महज जुबानी जमा खर्च करने का आरोप लगाया। अध्यक्ष की अगुवाई में करीब 800 कांग्रेस कार्यकर्ता राजबाड़ा क्षेत्र में जमा हुए और जुलूस बनाकर रामबाग़ स्थित 'संघ' कार्यालय की ओर बढे! कुछ दूरी पर पुलिस ने जवानों की तैनाती कर बैरिकेड लगा रखे थे! जुलूस को रोक दिया गया। प्रशासन ने अरुण यादव समेत 20 नेताओं को 'संघ' कार्यालय जाने की अनुमति दी। कांग्रेस नेताओं का यह दल जब संघ कार्यालय पहुंचा तो उसे आश्चर्य हुआ! 'संघ' के पदाधिकारियों ने कांग्रेस नेताओं का लाल-कालीन बिछाकर और तिलक लगाकर स्वागत किया! 'संघ' और भाजपा के सियासी दुश्मनों को चाय-नाश्ता करवाया गया! इसके बाद अरुण यादव को 'संघ' कार्यालय की छत पर ले जाया गया, जहाँ भगवा ध्वज के ठीक पास तिरंगा फहराया! इस दौरान 'संघ' के पदाधिकारी भी मौजूद रहे! यानी कांग्रेस ने जिस टकराव और जवाबी हमले की तैयारी कर रखी थी, वैसा कोई प्रसंग नहीं हुआ! 
   जबकि, भोपाल में जब कांग्रेस नेताओं ने 'संघ' कार्यालय जाने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस ने रोका और झड़प हुई! गुस्साए कार्यकर्ताओं ने संघ प्रमुख मोहन भागवत का पुतला जलाया! 'संघ' और भाजपा के खिलाफ़ नारेबाजी की! कांग्रेस ने संघ के दफ्तर के पास धरना भी दिया। इस दौरान भारी संख्या में पुलिस बल तैनात था। अहतियात के तौर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पहले ही गिरफ्तार कर लिया। जिला कांग्रेस अध्यक्ष पीसी शर्मा तिरंगा झंडा लेकर रैली के साथ समिधा कार्यालय की बढ़े इससे पहले भारी संख्या में रास्ते में लगे पुलिस बल ने उन्हें रोक लिया। पुलिस ने करीब 100 कांग्रेसियों को गिरफ्तार कर सेंट्रल जेल ले गई। बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। ये सिर्फ भोपाल में ही नहीं हुआ, कई और स्थानों पर भी कांग्रेस और पुलिस बीच झड़प हुई! 
  तिरंगा फहराने के इस मामले में पूरे प्रदेश में कहीं 'संघ' ने कांग्रेस नेताओं का स्वागत किया! कहीं पुलिस ने उन्हें रोका और लाठियां बरसाई! देवास में स्वागत किया गया, तो दतिया और भिंड में कांग्रेस का विरोध किया गया। आलीराजपुर में पुलिस ने सिर्फ दो कांग्रेस नेताओं को ही 'संघ' कार्यालय जाने दिया। मुरैना, शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, भिंड में कांग्रेस ने संघवाद से मुक्ति दिवस मनाकर विरोध किया। उज्जैन में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पुलिस ने 'संघ' कार्यालय जाने से रोका। इस दौरान कार्यकर्ताओं और पुलिस में झड़प हुई। कांग्रेसी सड़क पर ही बैठ गए। पुलिस ने कांग्रेसियों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बीच मौका पाकर कुछ कांग्रेसी तिरंगा ध्वज लेकर 'संघ' कार्यालय पहुंच गए। जहाँ पहले से स्वागत के लिए बैठे 'संघ' पदाधिकारियों ने पुलिस की मौजूदगी में कांग्रेसियों से तिरंगा ध्वज ग्रहण किया। 'संघ' कार्यालय में भारतमाता की प्रतिमा के सामने फहराया गया। राष्ट्रगान हुआ। उसके बाद माहौल सामान्य हो गया। 
  ये बात समझ से पर है कि इस सबके पीछे आखिर 'संघ' की कूटनीति क्या थी? 'संघ' यदि कांग्रेस की तिरंगा फहराने की घोषणा की हवा निकालना चाहता था, तो 'संघ' कार्यालय के आसपास पुलिस क्यों तैनात करवाई गई? और यदि कांग्रेस के नेताओं को तिरंगा फहराने से रोकना ही था, तो फिर तिलक लगाकर स्वागत क्यों किया गया? भगवा के पास में ही तिरंगा क्यों फहराया गया, वो भी कांग्रेस नेताओं के साथ खड़े होकर? यदि 'संघ' ने कांग्रेस नेताओं के फैसले में सहमति जता ही दी थी, तो फिर भोपाल समेत कुछ स्थानों पर कांग्रेस नेताओं को रोका क्यों गया? पुलिस ने इसे कानून व्यवस्था का मामला समझकर 'संघ' कार्यालय को छावनी क्यों बनाया? तय है कि इस सबके पीछे कहीं न कहीं कोई असमंजस के हालात तो थे ही! ये भी हो सकता है कि तिरंगा फहराने में सहमति बनाने में इतनी देर हो चुकी थी कि न तो पुलिस को हटाना संभव हो सका और न सभी 'संघ' कार्यालयों को समय रहते इसकी सूचना दी जा सकी! वरना 'संघ' की ये दोहरी नीति सामने नहीं आती!      
  इस पूरे प्रसंग में कांग्रेस इसलिए खुश हुई कि उसने जो कहा, वो किया! जिस 'संघ' कार्यालय पर बरसों से सिर्फ भगवा ध्वज फहराता रहा, वह उसके साथ तिरंगा भी फहराया! फर्क सिर्फ ये पड़ा कि कांग्रेस के नेताओं को तिरंगा फहराने की अपनी घोषणा के वक़्त जिस टकराव उम्मीद थी, वो नहीं हुआ! इसका एक नुकसान ये हुआ कि 'संघ' और भाजपा की राष्ट्रभक्ति को कटघरे में खड़ा करने का अवसर चूक गया! लेकिन, कांग्रेस अध्यक्ष ने संघ कार्यालय पर तिरंगा फहराने के बाद ये जरूर कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्रियों और भाजपा नेताओं की ओर से लोगों को देशप्रेम की बड़ी-बड़ी सीख दी जा रही है। लेकिन, संघ ने देशप्रेम के नाम पर अब तक जुबानी जमा खर्च ही किया है। 'संघ' को देशभक्ति की अवधारणा को वास्तविक अर्थों में अपनाना चाहिए। हमने संघ कार्यालय पर आज तिरंगा फहराया। हम उम्मीद करते हैं कि कार्यालय में देश का राष्ट्रीय झंडा नियमित तौर पर ठीक उसी तरह फहराया जाता रहेगा, जिस तरह यहां भगवा ध्वज फहराया जाता है। 
   उधर, 'संघ' ने भी पलटवार किया! इंदौर में जारी विज्ञप्ति में संगठन के विभाग कार्यवाह दिलीप जैन ने कहा कि तिरंगा राजनीति का नहीं, बल्कि भावनात्मक विषय है। देशभर में 'संघ' के स्वयंसेवक सभी राष्ट्रीय पर्वों पर अपने मोहल्लों, बस्तियों, कार्यस्थलों आदि स्थानों पर झंडावंदन कार्यक्रमों में सम्मिलित होते हैं। भगवा ध्वज हमारी संस्कृति का प्रतीक है। इसलिए संघ के स्वयंसेवकों ने इसे गुरु का स्थान दिया है। इस सिलसिले में विवाद का कोई विषय नहीं है। संघ कार्यालय में वरिष्ठ प्रचारक प्रकाश सोलापुरकर ने भी कहा कि मुद्दा कोई भी हो, कांग्रेस नेता यहां आए, अच्छी बात है। हमें भी बुलाएंगे तो कांग्रेस भवन में तिरंगा फहराने आएंगे। अर्थात पूरे मामले में न तो कांग्रेस जीती न 'संघ' हारा! दोनों ने ही अपनी-अपनी जीत का जश्न मनाया और पीठ थपथपाई! ये शायद उन चंद राजनीतिक प्रसंगों में से एक है, जब दोनों धुर विरोधी एक झंडे के नीचे खड़े दिखाई दिए हों! कुछ लोगों जहन में ये सवाल भी उठा कि कहीं ये राजनीति की कोई नूरा कुश्ती तो नहीं हुई? 
  चलते चलते ये भी बता दें कि आखिर 'संघ' और 'तिरंगे' के पीछे की राजनीति क्या है! क्या कारण है कि कांग्रेस को 'संघ' कार्यालय पर तिरंगा फहराना राजनीतिक मुद्दा लगा! दरअसल, 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का इतिहास देखा जाए तो इसकी स्थापना 27 सितम्बर 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। तब से पूरे देश में हर जगह अनेकों शाखाएं और अनुयायी हैं। 'संघ' ने कभी भी तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज का दर्जा नहीं दिया। 'संघ' ने 17 जुलाई 1947 को तिरंगे की जगह भगवा को ही राष्ट्रीय ध्वज बनाने की मांग की थी! जब 22 जुलाई 1947 को तिरंगे को आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय ध्वज की उपाधि दी गई, तो सबसे पहले निंदा करने वाली संस्था 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' ही थी। 14 अगस्त 1947 को इन्होंने अपनी पत्रिका में एक कालम भी छापा 'मिस्ट्री बिहाइंड द भगवा ध्वज।' संघ ने 14 अगस्त 1947 को ही अपने नागपुर कार्यालय में और 26 जनवरी 1950 को तिरंगा फहराया था। उसके बाद से कभी भी किसी भी 'संघ' शाखा में तिरंगा नहीं फहराया गया! 
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Sunday, February 21, 2016

चार दशक बाद भी आस्था बरक़रार


हेमंत पाल 

   हिंदी फिल्मों में जब भी धर्म का जिक्र हुआ, दर्शकों ने उसे हाथों हाथ लिया! भगवान की शरण में बॉलीवुड की फिल्मों ने कई बार सफलता का स्वाद चखा है। ब्लैक एंड व्हाइट के जामने में आई 'रामराज्य' से लगाकर आजतक जब भी परदे पर भगवान उतरे, फ़िल्मकार को उनका आशीर्वाद जरूर मिला! बॉलीवुड में सबसे ज्यादा कमाई का रिकॉर्ड भी एक धार्मिक फिल्म 'जय संतोषी माँ' के ही नाम है। 1975 में आई इस फिल्म ने अपनी लागत का कई गुना बिजनेस करके 'शोले' जैसी फिल्म को टक्कर दी थी! जब 'शोले' रिलीज हुई, उन्हीं दिनों 'जय संतोषी माँ' फिल्म भी प्रदर्शित हुई। लेकिन, दोनों ही फिल्मों के कथानक में विरोधाभास था। 'शोले' में हिंसा की भरमार थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' के जरिए आस्था और विश्वास का संदेश दिया गया था। दोनों फिल्मों का सबसे मजेदार तथ्य यह था कि 'जय संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' के मुकाबले अधिक था! 'शोले' में गब्बरसिंह की गोलियाँ खून बिखेर रही थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' में दर्शक सिनेमाघर में आरती गा रहे थे। आज 41 साल बाद फिर संतोषी माँ का जिक्र इसलिए कि अब यही कहानी छोटे परदे के चैनल 'एंड टीवी' पर आई है और पसंद भी की जा रही।    

   'जय संतोषी माँ' अपने समय में जबरदस्त चली थी! दर्शकों ने इसे सिर्फ फिल्म की तरह नहीं लिया, बल्कि सिनेमाघर को मंदिर की तरह पूजने भी लगे थे। दर्शक हॉल में चप्पल-जूते पहनकर नहीं आते थे! श्रद्धा इतनी उमड़ पड़ी थी कि आरती के वक़्त लोग सीट से खड़े होकर तालियां बजाते और सिक्के चढ़ाते थे! गांवों और शहरों में हर जगह श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा था। हर शुक्रवार महिलाएं संतोषी माता का व्रत करने लगी! मंदिरों में संतोषी माता की मूर्ति स्थापित की जाने लगी थी। संतोषी माता की व्रत कथा सुनी और सुनाई जाने लगी! गुड़-चने का प्रसाद बंटने लगा। लड़कियों से लेकर बूढ़ी महिलाएं तक शुक्रवार व्रत रखकर उद्यापन करने लगी थी! इस फिल्म के बाद भी संतोषी माता को लेकर आस्था का ज्वार कम नहीं हुआ! यही कारण है कि चार दशक बाद भी छोटे परदे पर इस देवी के चमत्कारों वाली कहानी को देखने को दर्शक जुट रहे हैं। 
  इसे शायद संतोषी माँ का ही चमत्कार माना जाना चाहिए कि आमिर खान के साथ 'लगान' जैसी बड़ी फिल्म में हीरोइन का किरदार निभाने वाली और फिर 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में संजय दत्त साथ काम कर चुकी ग्रेसी सिंह 'संतोषी मां' के किरदार में हैं। ग्रेसी 13 साल बाद दर्शकों सामने आई हैं। जबकि, टीवी की बड़ी कलाकार कही जाने वाली रतन राजपूत माता की भक्त की भूमिका में हैं। रतन राजपूत अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, बिग बॉस , और 'महाभारत' जैसे सीरियल में भी काम कर चुकी हैं।
  फिल्म इंडस्ट्रीज में एक्शन के साथ-साथ धर्म और ईश्वर के चमत्कारों को दिखाने वाली फिल्मों का हमेशा ही वर्चस्व रहा है। बीते साल की सुपर हिट फिल्म 'बजरंगी भाईजान' का नायक हनुमान भक्त है। ‘अग्निपथ’ रितिक रोशन गणेश का गाना भगवान गणेश को समर्पित था। शाहरुख खान ने भी जब ‘डॉन’ का रीमेक बनाया तो गणेश की स्तुति की! अमिताभ बच्चन की तो करीब सभी हिट फिल्मों में भगवान या अल्लाह का आशीर्वाद साथ चला है कुली, अमर-अकबर- एंथनी, सुहाग हो या ‘दीवार’ सभी में आस्था का कोई न कोई तड़का लगा है। अक्षय कुमार ने भी जब ‘खिलाड़ियों के खिलाड़ी’ में जय शेरावालिए तेरा शेर ... गाया तो धूम मच गई। जब बॉलीवुड में हर तरफ भगवानों का ही बोलबाला है। ऐसे में 'संतोषी माँ' का जादू चार दशक बाद भी सर चढ़कर बोल रहा है तो ये आश्चर्य की बात नहीं है?  
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Friday, February 19, 2016

तनाव बुआ-भतीजे के रिश्तों में, तड़का लगा संघ और भाजपा का!


- हेमंत पाल     

मध्यप्रदेश की राजनीति में रियासतों की सियासत का कुछ अलग ही अंदाज है। ख़ास बात ये भी कि राज्य के गठन से ही इनका राजनीति में दखल बना हुआ है। रियासतों के बगैर मध्यप्रदेश में किसी भी पार्टी की राजनीति नहीं चली! कांग्रेस हो या भाजपा कोई भी पार्टी इन रियासतदारों को नकार नहीं पाई! इसका कारण उनका अपने इलाके में रसूख भी रहा है और आर्थिक रूप से मजबूत होना भी! राज्य में 18 साल तक तो सत्ता की कमान इनके ही हाथ रही! लेकिन, कभी-कभी इन्हीं रियासतों के झगडे भी पार्टियों को झेलना पड़ते हैं। हाल ही में सिंधिया परिवार का आपसी विवाद भी राजनीतिक नजरिए से सामने आया! भतीजे ज्योतिरादित्य और बुआ यशोधरा के बीच जो बयानी जंग चली, वो दिखाई तो राजनीतिक दी, पर है वो पारिवारिक! इस तरह के झगडे इन रियासतदारों के प्रभाव वाले इलाके में पार्टियों का फ़ायदा करने के साथ ही नुकसान भी करते रहे हैं। 

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  रियासतों का राजनीति से गहरा रिश्ता रहा है। आजादी के बाद जब रियासतें नहीं बची तो उन्होंने सियासत कि राह पकड़ ली और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने लगे! देश के करीब सभी राज्यों में यही हुआ और मध्यप्रदेश में भी! कई रियासतों के राजाओं ने अपनी विचारधारा और सुविधा के मुताबिक अपनी पार्टियां चुन ली! ज्यादातर ने कांग्रेस का हाथ थामा! क्योंकि, आजादी के बाद यही पार्टी सत्ता में थी और उसके बाद भी कई साल तक रही! कुछ ने कांग्रेस विरोध के लिए विपक्ष का हाथ थामा! लेकिन, कुछ रियासतें ऐसी भी रहीं, जो कांग्रेस में भी रहीं और विपक्ष का पल्ला भी पकडे रहीं। तब विपक्ष का मतलब था जनसंघ! ग्वालियर की सिंधिया रियासत ऐसे ही परिवारों में थी, जो दोनों पार्टियों में थी! माँ विजयाराजे सिंधिया जनसंघ में थी और बेटा माधवराव सिंधिया कांग्रेस में! माँ कि तरह तीन में से दो बेटियाँ वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया भी जनसंघ का दामन थामे रही! तीसरी बुआ उषा राजे है, जो नेपाल के शमशेर जंग बहादुर राणा की पत्नी है। आज दोनों बुआ भाजपा कि बड़ी नेता हैं! वसुंधरा राजे राजस्थान कि मुख्यमंत्री हैं और यशोधरा राजे मध्यप्रदेश में मंत्री! समय ने पलटा खाया और माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस के बड़े नेता बन गए! लेकिन, अब इनके राजनीतिक मतभेद निजी मनभेदों में बदल गए हैं! इसके पीछे कारण भले निजी हों, पर दर्शाया राजनीतिक ही जाता है।    
   ताजा मामला है बुआ यशोधरा राजे और भतीजे ज्योतिरादित्य के बीच जुबानी जंग का! रिश्तों में भले ही ये दोनों सियासतदार बुआ-भतीजे हैं, लेकिन सियासत के मैदान में एक-दूसरे के राजनीतिक दुश्मन हैं! यही कारण है कि जब भी मौका मिलता है, दोनों वार करने का मौका नहीं चूकते! न शिवपुरी सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया मौका गंवाते हैं, न मध्यप्रदेश की उद्योग मंत्री यशोधरा राजे! हाल ही में ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस के एक कार्यक्रम में यशोधरा राजे और भाजपा पर निशाना साधा! उन्होंने कहा कि झूठ बोलना तो भाजपा के डीएनए में है। शिवपुरी विधायक (यानी बुआ यशोधरा राजे) अपने वादे पूरे करने के लिए हमेशा 6 महीने का वक्त मांगती रहती हैं! ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी बुआ और उद्योग मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया का नाम लिए बिना कहा कि यदि प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार होती तो हम विकास कार्यों को पूरा करने के लिए जनता से बार-बार समय नहीं मांगते! झूठे वादे करना भाजपा के डीएनए में है और संघ उन्हें झूठ बोलना सिखाता है। भतीजे के कटाक्ष पर बुआ भी चुप नहीं रही! उन्होंने पलट वार किया कि उन्होंने तो जनता से 6 माह का वक़्त माँगा है! लेकिन, ज्योतिरादित्य तो केंद्र में 8 साल मंत्री रहे, तब उन्होंने क्या किया? मैंने तो सिर्फ 6 महीने का वक्त मांगा है! उन्होंने भतीजे ज्योतिरादित्य को भाषा की मर्यादा और पद की गरिमा का ध्यान रखने की भी नसीहत देने का मौका नहीं चूका! 
  सिंधिया परिवार के अंदरुनी झगडे कभी भी चौखट में कैद नहीं रहे! यदा-कदा बाहर आकर चर्चा का विषय बनते रहे हैं। माँ विजयाराजे सिंधिया और बेटे माधवराव में बरसों तक बोलचाल बंद रही! लेकिन, इसके पीछे कहीं भी राजनीतिक कारण जिम्मेदार नहीं रहे! दो अलग-अलग पार्टियों में होने से दोनों के बीच का तनाव बढ़ता जरूर रहा! अब, जबकि ये दोनों नहीं है, ये मोर्चा फिर भी खुला है। एक तरफ माधवराव सिंधिया के बेटे और कांग्रेस के बड़े नेता ज्योतिरादित्य हैं, दूसरी तरफ उनकी दो बुआ राजस्थान कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्यप्रदेश कि उद्योग मंत्री यशोधरा राजे हैं! ज्योतिरादित्य से दोनों के ही रिश्तों में खटास है। शिवपुरी का हाल का मामला इसी खटास का एक नमूना भर था! 
  सियासत की आड़ में किए जाने वाले इन सारे हमलों के पीछे सिंधिया खानदान कि संपत्ति का विवाद एक बड़ा कारण है। इस परिवार की ग्वालियर समेत देशभर में करीब 20 हजार करोड़ की संपत्ति है। इस परिवार में संपत्ति को लेकर हमेशा ही विवाद होते रहे हैं। ये कोई नई बात नहीं है। जानकार बताते हैं कि 1971 में प्रिवीपर्स समाप्त होने के बाद सिंधिया परिवार ने अपनी संपत्ति का मौखिक रूप से बंटवारा कर लिया था। लेकिन, फिर 1989 में संपत्ति के दावे को अदालत में चुनौती दी गई। ये प्रकरण पुणे की अदालत में विचाराधीन है। ग्वालियर के किले में स्थित सिंधिया स्कूल को लेकर भी विवाद कि ख़बरें हैं।

   वसुंधरा राजे आज राजस्थान कि मुख्यमंत्री हैं, पर वे कभी मध्यप्रदेश से चुनाव नहीं जीत पाईं! जबकि, मध्यप्रदेश की राजनीति में माधवराव सिंधिया का वर्चस्व बना रहा! वे लगातार चुनाव जीतते रहे। वसुंधरा राजे ने भिंड से 1984 में लोकसभा चुनाव लड़ा था। लेकिन, वसुंधरा राजे जीत नहीं सकी! इसके बाद उन्होंने कभी मध्यप्रदेश का रुख नहीं किया और राजस्थान को ही अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बनाया! वसुंधरा राजे का राजस्थान से रिश्ता तब का है, जब 1972 में उनका विवाह धौलपुर राजघराने में हुआ था। धौलपुर से ही उन्होंने 1985 में पहली बार विधानसभा चुनाव भी जीता। लेकिन, पहले भाई माधवराव से और बाद में ज्योतिरादित्य से उनकी दूरी बरक़रार रही! ये वैमनस्य यहाँ तक था कि वे राजस्थान की मुख्यमंत्री थी और ज्योतिरादित्य केंद्र में मंत्री, पर कभी दोनों आपस में नहीं मिले! ज्योतिरादित्य कई बार सरकारी कार्यक्रमों में राजस्थान गए, पर बुआ से नहीं मिले!  
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Sunday, February 14, 2016

छद्म हिंदूवाद के सामने धार का असली गुस्सा



- हेमंत पाल 

    धार में बसंत पंचमी के दिन जो हुआ वो न तो सांप्रदायिक सद्भाव था, न शांति की कोई पहल! वो सिर्फ अंडर हैंड डीलिंग थी। सरकारी नुमाइंदों और छद्म हिंदूवादियों के बीच! दोनों के बीच एक तात्कालिक समझौता था। इसके तहत दिखावे का ऐसा प्रपंच किया गया कि सबकुछ असली जैसा लगा! भोजशाला में हिन्दुओं ने पूजा भी की, मुस्लिमों ने नमाज भी पढ़ी! दिखावा इस तरह किया गया, जैसे हिन्दुओं ने गढ़ जीत लिया हो! अखंड पूजा और हवन को प्रचारित किया गया! ये भी कहा गया कि नमाज तो हुई ही नहीं! जबकि, सबकुछ एक अलिखित समझौते की तरह स्पष्ट था! धार के लोग भी इस सच्चाई को समझ रहे थे! पर, मजबूर थे। क्योंकि, जिनके हाथ लोगों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की लगाम सौंपी थी, वे उनके ही हाथों ठगे भी गए। 

  दूसरे दिन उन्हीं छद्म हिंदूवादियों के खिलाफ जो गुस्सा फूटा, वो असली था। 
इस गुस्से को न तो किसी का नेतृत्व था और कोई इसकी अगुवाई कर रहा था! कोई मीटिंग नहीं, कोई योजना नहीं और न किसी ने आगे आकर उकसाया! संघ और हिन्दू जागरण मंच के जो नेता अपनी उग्र भाषा और तर्कों से जिस हिंदूवाद की अगुवाई कर रहे थे, ये नाराजी उनके खिलाफ थी! नाराजी उन लोगों की भी थी, जिनके यहाँ बसंत पंचमी के मुहूर्त में होने वाली शादियाँ शहर में किसी अनहोनी की आशंका में टाल दी गई थी! बैंड-बाजे वाले, हलवाई, गैस-बत्ती लादने वाले गरीब भी दुखी थे! उन व्यापारियों का भी गुस्सा उबल आया, जिनकी दुकानें कई दिन तक बंद रही! दस दिन तक स्कूल बंद होने से बच्चों की पढाई का जो नुकसान हुआ, ये गुस्सा उन माता-पिता का था! उन गरीबों का भी था, जिनकी दो हफ्ते की मजदूरी मारी गई!  
  तात्पर्य यह कि जब सबकुछ इतनी आसानी से ही होना था, तो 8 हज़ार पुलिस जवानों से इस अमन पसंद शहर को छावनी बनाने की जरुरत क्या थी? यदि पहले से तय था कि भोजशाला कि छत पर नमाज पढ़वाना है और परिसर में नीचे सरस्वती पूजा और हवन होना है तो है तो आपत्ति किसे थी? सरकार के नुमाइंदे के तौर पर प्रभारी मंत्री और संघ के नेता की अगुवाई में हिंदूवादियों ने बंद कमरे में कोई फार्मूला निकाल लिया था, तो लोगों को उससे अनभिज्ञ क्यों रखा गया? सुबह हिन्दुओं को भोजशाला में पूजा करने से रोकने के पीछे क्या कारण था? शोभायात्रा के दोपहर एक बजे भोजशाला पहुँचने के बाद ही लोगों को अंदर क्यों ले जाया गया? शहर काजी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज था, उसे दो दिन पहले ख़त्म क्यों किया गया? क्या ये सब एक तयशुदा योजना के तहत नहीं किया गया?  ये वो सवाल हैं, जिनका जवाब खोजने के लिए ही आज आम लोग सड़क पर पत्थर लेकर उतर आए और जहाँ-तहाँ अपना गुस्सा निकाला!       
   भोजशाला का मसला महज चार दिन का है। अब शुक्रवार और बसंत पंचमी का संयोग बरसों बाद आएगा! इस आंदोलन की अगुवाई करने वाले कथित हिंदूवादी नेता किसी और काम में व्यस्त हो जाएंगे! आज जो अधिकारी और नेता तनाव वाले इस मामले को सुलझाने इनके घर तक आ गए, वो शायद कल इन्हें पहचानेंगे भी नहीं! यही सच जानकर इन हिंदूवादी नेताओं ने बीच का फार्मूला निकाला और अपने प्रभाव में सरकार और प्रशासन को दबाने का पाखंड किया! जो हुआ, उसमें सब शामिल रहे! सरकार भी, प्रशासन भी और ये छद्म हिंदूवादी भी! भोजशाला में नमाज न होने देने का नकली दबाव बनाया गया! जबकि, छत पर नमाज की तैयारियों कि खबर सभी को थी! जब तय समय के मुताबिक नमाज हो गई, तो हिन्दूओं की शोभायात्रा भोजशाला पहुंची! रैलिंग तोड़ने का नाटक करके भीड़ को अंदर जाया गया! बताया ये गया कि प्रशासन ने हमारी मर्जी  मुताबिक व्यवस्था कर दी, इसलिए हम अब पूजा करने भोजशाला के अंदर प्रवेश कर रहे हैं! अब भावनात्मक रूप से धार के छले और ठगे गए लोगों कि नजरें इस पर लगेंगी कि भोजशाला मामले को शांति से निपटा देने के किसे क्या ईनाम मिलता है!  
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
09755499919 
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Friday, February 12, 2016

भोजशाला, राजधर्म और तालमेल की राजनीति!


   मध्यप्रदेश के धार शहर में प्राचीन ऐतिहासिक इमारत 'भोजशाला' इन दिनों सांप्रदायिक तनाव का बहाना बनी हुई है! हिन्दू इसे मंदिर मानते हैं और मुस्लिमों का कहना है कि ये मस्जिद है! दोनों अपनी जगह सही हैं! क्योंकि, सरकारी रिकॉर्ड में भी इसका स्पष्ट खुलासा नहीं है। लेकिन, जब कहीं उलझन वाले हालात हों तो वहाँ राजनीति शुरू होने में देर नहीं लगती! यही सब धार में हो रहा है! एक तरफ सरकार के मुखिया शिवराजसिंह चौहान है, जिन्हें 'राजधर्म' का पालन करते हुए बसंत पंचमी पर हिन्दुओं को पूजा करने का समय देना है! दूसरी तरफ मुस्लिमों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए व्यवस्था के तहत नमाज  इंतजाम करना है। जबकि, भाजपा के ही कुछ नेता और पार्टी के अनुषांगिक संगठन संघ और विहिप ही उनकी राह में कांटे बो रहे हैं! 
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- हेमंत पाल 
 
   राजधर्म की राह कभी आसान नहीं होती! इसमें कई तरह की अड़चने आती है। सबसे ज्यादा दिक्कत भी वही लोग पैदा करते हैं, जिनके भरोसे या जिनके साथ राजधर्म का पालन किया जाता है। भोजशाला के मामले में प्रदेश भाजपा के एक बड़े नेता रघुनंदन शर्मा ने कह दिया कि बसंत पंचमी पर मुस्लिम भोजशाला में नमाज नहीं पढ़े! बहुसंख्यकों को पूजा का मौका दें! पिछले कुछ सालों में धार के प्रशासन ने हिन्दुओं के साथ ज्यादतियां की है। उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई! इस बार प्रशासन हिन्दुओं की भावनाओं को समझे! उन्हें बसंत पंचमी पर पूरे दिन भोजशाला में पूजा की अनुमति दें! बसंत पंचमी साल में एक बार आती है और शुक्रवार महीने में 4 या 5 आते हैं। पचास शुक्रवार में से यदि मुस्लिमों को एक दिन नमाज पढ़ने की छूट नहीं मिलेगी, तो उनके साथ अन्याय नहीं होगा। लेकिन, साल में एक बार आने वाली बसंत पंचमी के दिन पर्व न मनाने देना, हिन्दुओं के साथ अन्याय होगा! प्रशासन पूरे दिन पूजा की अनुमति दे, उन्हें बाहर नहीं खदेडें। हिन्दुओं को बाहर खदेड़ना ज्यादती है। अल्पसंख्यक समाज को भी चाहिए कि वह बड़ा दिल करें। अगले शुक्रवार को तीन-चार बार नमाज पढ़ लें! धार की सांसद सावित्री ठाकुर ने भी जन भावनाओं का इशारा देखते हुए, भगवा झंडा थाम लिया! सरदारपुर और धरमपुरी के विधायक भी पूजा के समर्थन में खुलकर सामने आ गए! धार के कई भाजपा नेता भी विहिप और संघ के साथ खड़े हैं! ऐसे हालात में राजधर्म की राह और ज्यादा मुश्किल हो जाती है। 

  राजधर्म का सीधा सा मतलब है 'राजा का धर्म' यानी उस व्यक्ति का धर्म जिसके हाथ में व्यवस्था की कमान हो! महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विवेचन किया गया है। 'धर्मसूत्र' में भी राजधर्म की व्याख्या है। महाभारत युद्घ समाप्त होने के बाद भीष्म पितामह ने शर-शैया पर युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश दिया था। उन्होंने कहा था कि राजा जिन गुणों को आचरण में लाकर राज्य उत्कर्ष करता है, वे 36 गुण हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें। इनमें से एक गुण है 'आस्तिक रहते हुए राजा दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़ें।' इसी गुण के तहत राजधर्म का पालन करते हुए मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रशासन को हिन्दुओं को पूजा और मुस्लिमों को नमाज के लिए समय का निर्धारण करने की व्यवस्था का आदेश दिया है। जबकि, भाजपा से जुड़े संगठन उन्हें इसी राजधर्म से डिगाने की कोशिश कर रहे हैं।  
   सत्ता की प्राप्ति जनता के बहुमत से होती है। बहुमत की मांग होती है कि सत्ता न सिर्फ राजधर्म का पालन करे, बल्कि किए गए वादे भी पूरे करे! बहुमत ये भी चाहता है कि सत्ता पर बैठा शिखर पुरुष सिद्धांतों से समझौता किए बिना राजधर्म पालन करे! यही बात प्रदेश के मुख्यमंत्री पर भी लागू होती है। वे राजधर्म निभाते हुए अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि कायम रख पाते हैं या पार्टी के अनुषांगिक संगठनों के दबाव में झुक जाते हैं। प्रदेश में आज जो कुछ हो रहा है, उसके दूरगामी नतीजे सामने आना तय हैं! गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए दंगों से दुखी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'राजधर्म' का पालन करने की सलाह दी थी! जबकि, वाजपेयी खुद राजधर्म का पालन करते हुए अपनी सत्ता नहीं बचा सके थे! उन्होंने राजधर्म का ऐसा पालन किया कि अगले करीब एक दशक तक भाजपा केंद्रीय सत्ता से वंचित रही! 
  भोजशाला का पूरा हिन्दू आंदोलन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) के हाथ में हैं! विहिप के नेता सोहनसिंह सोलंकी ने इस आंदोलन की कमान थाम रखी है। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि ये वही सत्ताधारी दल है, जो 2003 में भोजशाला का गौरव लौटने की बात कर रहे थे! अब क्या हुआ! राजा भोज ने इसी धारा नगरी से अपनी संस्कृति को पूरी दुनिया में पहुँचाया था! भोजशाला में माँ सरस्वती को पुनः लेकर आना है! यहीं इतिहास अब गठित हो रहा है! प्रशासन की व्यवस्थाओं के बारें में उन्होंने कहा कि इतना पुलिसबल देखकर लग रहा है जैसे धार में आपातकाल लगा हो! 
   प्रदेश की सत्ता पर भाजपा काबिज है और संघ तथा भाजपा के बीच बेहद जुड़ाव वाला रिश्ता है। भाजपा का पुराना अवतार 'भारतीय जनसंघ' था, जिसकी कल्पना 'संघ' के राजनीतिक मोर्चे के रूप में की गई थी। फिर 1980 में भाजपा सम्पूर्ण राजनीतिक दल के रूप में अस्तित्व में आई! आज की भाजपा हो या पुरानी जनसंघ, इसका संगठन सचिव उसे पचास के दशक से संघ से ही मिलता रहा है! ऐसे में संघ के नेता अपनी ही कोटरी वाले सत्ता के मुखिया के खिलाफ खड़े हो जाएँ, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। मुख्यमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती ही ये है कि उन्हें राजधर्म निभाते हुए पार्टीधर्म का भी पालन करना है। 2003 में भाजपा की सरकार बनने में भोजशाला आंदोलन का बड़ा योगदान था! लेकिन, सरकार बनने के बाद भोजशाला और हिन्दू समाज की अनदेखी के चलते संघ, विहिप और भाजपा कार्यकर्ताओ में आक्रोश पनप रहा है।  
   भोजशाला आंदोलन की अगुवाई करने वाली भोज उत्सव समिति का आरोप ये भी है कि शिवराजसिंह चौहान ने 2003 में सांसद रहते तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह पर तुष्टिकरण का आरोप लगाया था। तब शिवराजसिंह चौहान ने भोजशाला के मस्जिद होने के कोई प्रमाण नहीं होने की बात कही थी! लेकिन, खुद मुख्यमंत्री बनने के बाद क्या हो गया? 2003 में शिवराजसिंह ने जो इच्छाशक्ति बताई थी, वही आज दिखाएं तो एएसआई का आदेश परिवर्तित होने में देर नहीं लगेगी! वे घोषणा कर दें कि मैं नमाज कराऊंगा, तो हम भोजशाला के बाहर पूजा करने को तैयार हैं। दिग्विजय सरकार ने कानून व्यवस्था का हवाला देकर 2003 में एएसआई का आदेश मानने से इंकार कर दिया था। इसी तरह पहल आज राज्य सरकार भी करे तो आदेश में संशोधन हो सकता है। अपनी बात के प्रमाण में समिति ने शिवराज सिंह के बयान का वीडियाे भी जारी किया। वे उस समय सांसद थे। अपने बयान में वे तत्कालीन दिग्विजयसिंह सरकार पर तुष्टीकरण का आरोप लगाते और भोजशाला में मस्जिद होने का कोई प्रमाण नहीं होने की बात कहते दिख रहे हैं। समिति ने कहा लंदन से मां वाग्देवी की प्रतिमा लाने के लिए पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने सकारात्मक पहल की है। राज्य सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही! 
  इन दिनों एक सवाल ये भी पूछा जा रहा है कि क्या भाजपा और संघ में दूरियां बढ़ रही है? यह भी सही है कि भाजपा में कई लोग हैं, जिनका संघ से कभी कोई संबंध नहीं रहा! वे संघ से संबंध रखना भी नहीं चाहते! कई लोग हैं, जो चाहते हैं कि भाजपा आरएसएस से अलग न केवल दिखाई दे! बल्कि, यथार्थ में अलग रहे और पार्टी इसी दिशा में बढे। यही सवाल भोजशाला के संदर्भ में भी सामने आ रहा है। यदि मुख्यमंत्री राजधर्म का पालन करते हुए अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं तो वे संघ की आँखों में खटक सकते हैं! लेकिन, ये सब बाद के सवाल होंगे! सबसे पहले तो यही देखना है कि राजधर्म को किस हद तक निभाते हैं?  
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Monday, February 8, 2016

प्रयोगों का मोहताज रहा फिल्म संगीत!


- हेमंत पाल 

  फिल्मों की सफलता के पीछे कौन-कौन से कारणों को जिम्मेदार माना जाता है? इस सवाल का कोई सटीक जवाब खोज पाना आसान नहीं है! लेकिन, यदि तलाशा जाए तो जो मूल कारण सामने आएंगे, उनमें एक संगीत भी होगा! पहले, यह माना जाता था कि अगर फिल्म के गीत हिट हो जाते हैं तो फिल्म भी चल पड़ती है! पर, वक़्त के साथ कई बार ये कारण सही नहीं निकला! ऐसी कई फिल्मों के नाम याद किए जा सकते हैं, जिनके गीतों ने धूम मचाई, पर फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं माँगा! लेकिन, पिछले कुछ सालों में फ़िल्मी गीत, संगीत का रूप काफी बदल चुका है। पहले जहां गीतों पर थिएटर में सिक्कों की बरसात होती थी, पर अब वो दिन लद गए! आजकल तो ‘तू मेरे अगल-बगल है' और ‘सुन रहा है न तू, रो रहा हूं मैं' जैसे गीतों पर भी तालियां नहीं बजती! दरअसल, फिल्म संगीत का एक पूरा दौर ही बदल गया।

 एक वक़्त था जब फिल्म संगीत में प्रयोगों का जिक्र आता था, तो आरडी बर्मन का नाम जुड़ा होता था। उन्होंने हिंदी फिल्मों के संगीत को यूरोपीय संगीत की झलक दी! 70 और 80 के दशक में जब हिन्दी फिल्मों का संगीत पतन के दौर में था, जब ‘एक दो तीन' और ‘जुम्मा चुम्मा' जैसे नए ट्रेंड के गानों के साथ उन्होंने प्रयोग किए! ये आसान बात नहीं थी, पर बाद में ये ट्रेंड बन गया! इस समय के संगीत ने भारतीय सामाजिक स्थितियों को भी समझा और उसी के मुताबिक अपने संगीत को दिशा दी! पर, ये दौर भी लम्बा नहीं चला! लोग उस समय तो इन गानों पर खूब थिरके, लेकिन वे चाहने वालों की याद से नहीं जुड़ सके!
  कुछ साल पहले आई फिल्म ‘आशिकी-2' के गीतों को भी बहुत पसंद किया गया! वास्तव में ये भी एक प्रयोग ही था! इस फिल्म का संगीत किसी एक संगीतकार ने नहीं, बल्कि नए 5 संगीतकारों की एक टीम दिया था! जिसमें मिथोन, जीत गांगुली और अंकित तिवारी थे। जबकि, अमित त्रिवेदी ने देव डी, और वेकअप सिड जैसी फिल्मों में संगीत देकर अपनी एक पहचान बना ली थी! फिल्म संगीत के मामले में महिलाओं का नाम कम ही आता है। उषा खन्ना के अलावा किसी का नाम बरसों तक याद भी नहीं आया! लेकिन, अब संगीत में महिलाएं भी सामने आ रही है। स्नेहा खानविलकर को ‘गैंग ऑफ वासेपुर' से ‘वुमनिया' के संगीत के लिए पहचाना जाता है। स्नेहा बॉलीवुड की चौथी महिला संगीतकार हैं। उनसे पहले एक्ट्रेस नर्गिस कि माँ जद्दन बाई, सरस्वती देवी और उषा खन्ना रही हैं। स्नेहा का कहना हैं कि महिलाएं भी इस क्षेत्र बहुत आगे आ चुकी हैं! अब संगीत में पुरुषों का एकाधिकार नहीं है। वे ओए लकी लकी ओए, लव,-सेक्स और धोखा और भेजा फ्राइ-2 में भी संगीत दे चुकी हैं। ख़ास बात ये है कि इनकी पृष्ठभूमि छोटे शहर-कस्बे और गांव ही रहे हैं।
  बदलते समाज के साथ फिल्म संगीत भी बदलता है! कुछ बदलते संगीत के साथ समाज की पसंद बदलती जाती है। लेकिन, माना जाता है कि सच्चा संगीतकार वही है, जो सुनने वालों की पसंद को अपने प्रयोगों से बदल दे! क्योंकि, आज दुनियाभर के संगीत को सुनने तक सभी की पहुंच है! टेक्नोलॉजी ने सबकुछ आसान कर दिया! लोग प्रयोगों के लिए, कुछ नया सुनने के लिए भी तैयार हैं! यही कारण है कि आज के समय को हिंदी फिल्म संगीत का सबसे रोचक दौर कहा जा सकता है!
  आजादी के पहले पहले के संगीतकारों में कई पाकिस्तानी गायक शामिल थे! ये वही थे, जो पुराने संगीत घरानों से जुड़े थे! उनके संगीत में उर्दू का प्रभाव था! आज वही काम राहत फतेह अली खान और शफकत अमानत अली जैसे कलाकारों के फिल्म संगीत से जुड़ने से उर्दू और उन घरानों से रिश्ता रखने वाले गायक मिले हैं। यहीं संगीत ने एक तरह की करवट भी ली है। हिंदी फिल्मों के गीत दुनियाभर में सुने जाते हैं।
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Saturday, February 6, 2016

'सद्भाव' की अग्नि परीक्षा और छुपकर होते राजनीतिक हमले


   मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भाजपा के उन बड़े नेताओं में से एक हैं, जो डेढ़ दशक के अपने शासनकाल में अपनी धर्मनिरपेक्ष पहचान बनाने में सफल रहे हैं। वे हिंदूवादियों को भी पुचकारते रहते हैं और धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने वालों के पक्ष में भी खड़े दिखाई देते हैं! जबकि, उनकी पार्टी भाजपा पर हमेशा कट्टरपंथियों का पक्ष लेने के आरोप लगते रहे हैं! शिवराज ने अपने शासन से यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनकी राजनीतिक शैली धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है। वे संघ को राष्ट्रवादी बताने से भी नहीं कतराते! वहीँ मुस्लिमों के विकास के लिए योजनाओं की घोषणा करने से नहीं चूकते! प्रदेश को 'शांति का टापू' बताने की शिवराज सिंह की कोशिशें कुछ हद तक कामयाब भी हुई! लेकिन, हाल कुछ घटनाओं से इस पर दाग भी लगाया! अब बसंत पंचमी पर धार के भोजशाला में होने वाली पूजा और नमाज सरकार लिए सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा है! शिवराज सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए लिटमस टेस्ट जैसा होगा!  
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हेमंत पाल 

  भाजपा हमेशा से इस बात का दम भरती रही है कि उसके राज में सांप्रदायिक तनाव के हालात नहीं बनते! क़ानून व्यवस्था काबू में रहती है और पार्टी की हिंदूवादी छवि होते हुए भी मुस्लिम समुदाय भी खुद को ज्यादा सुरक्षित पाता है। इसके पक्ष में हमेशा आंकड़ों के तर्क दिए जाते हैं! पिछले एक दशक से शिवराजसिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, और उनके स्थायित्व का एक कारण भी यही माना जाता है! लेकिन, क्या आंकड़ों से किसी सरकार और मुख्यमंत्री को धर्मनिरपेक्ष साबित किया जा सकता है? ये ऐसा सवाल ऐसा है, जिसे लेकर सरकार और विपक्ष के बीच हमेशा तकरार चलती रहती है! यही सब मध्यप्रदेश में अभी भी जारी है! सरकार पास अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि साबित करने लिए सिर्फ सरकारी आंकड़े और घोषणाएं होती हैं! विपक्ष इन आंकड़ों को इस आधार पर झुठलाता रहा है कि सांप्रदायिक तनाव के हालातों को रिकॉर्ड में सही दर्ज नहीं किया जाता, इस कारण वास्तविकता और आंकड़ों में फर्क होता है! 

   पिछले एक दशक में शिवराजसिंह चौहान ने अपनी जो धर्मनिरपेक्ष पहचान बनाई है, उसका लाभ भी उन्हें मिला! लेकिन, अब इस पहचान पर आरोपों के छींटे पड़ने लगे हैं! पिछले कुछ दिनों में प्रदेश में ऐसी कई घटनाएँ हुई, जो प्रदेश के अंदर खलबलाते हालात का अंदाजा देती हैं। कुछ महीनों से प्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल तेज़ी से बिगड़ा है! हरदा, देवास, नीमच, सिवनी और मनावर इसी बात का सबूत है। सिर्फ यही नहीं, प्रदेश में और भी शहर और कस्बे हैं जहाँ इन दिनों तनाव का लावा अंदर ही अंदर खदबदा रहा है! जब भी मौका मिला, ये लावा उबलकर बाहर निकल सकता है! ऐसा ही एक शहर है धार, जहाँ भोजशाला के बहाने वातावरण गरमा रहा है। बसंत पंचमी पर हिन्दू पूरा दिन पूजा करने को अड़े हैं। जबकि, शुक्रवार होने से मुस्लिमों को दो घंटे नमाज पड़ने की छूट मिली है। ऐसे में सरकार है, जो मध्यस्थ बनकर सद्भाव के लिए हज़ारों पुलिस जवानों की तैनाती में दोनों धार्मिक आयोजन करवाना चाहती है! 
  सरकार के लिए ये सब आसान नहीं है कि दोनों धर्मावलम्बी जो चाहते हैं, वो किया जाए सके! क्योंकि, भोजशाला ऐसा कथित विवादस्पद धर्मस्थल है, जिसे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) मस्जिद मानता है! लेकिन, स्थानीय लोग इसे राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती मंदिर मानते हैं और इसे 'भोजशाला' कहते हैं। बरसों से यहाँ के लोग भोजशाला परिसर में बसंत पंचमी उत्सव मनाते रहे हैं! लेकिन, करीब 15 साल से यहाँ दोनों सम्प्रदायों के बीच तनातनी होने लगी! हिंदू संगठनों के मुताबिक ये सरस्वती मंदिर है, यहाँ नमाज़ नहीं हो सकती! जबकि, मुस्लिम संप्रदाय इसे मस्जिद बताता रहा है! दोनों के पास अपनी बात साबित करने के लिए तर्क हैं! एएसआई ने बीच का रास्ता निकालकर 2003 में एक व्यवस्था दी थी! इसके मुताबिक मंगलवार को हिन्दुओं को दो घंटे पूजा के लिए दिए और शुक्रवार को दो घंटे मुस्लिमों को नमाज के लिए दिए गए हैं! लेकिन, साल में सिर्फ एक दिन बसंत पंचमी को हिन्दुओं को सूर्योदय से सूर्यास्त तक पूजन की छूट दी गई है! यहाँ एएसआई से एक गलती ये हो गई कि यदि शुक्रवार को बसंत पंचमी आए तो व्यवस्था क्या होगी? इसका कोई उल्लेख एएसआई के आदेश में नहीं है! यही कारण है कि यदि बसंत पंचमी शुक्रवार को आती है तो तनाव उभर जाता है। 2006 में भी यही हुआ था और 2013 में भी! डेढ़ दशक में दो बार धार में बसंत पंचमी शुक्रवार के दिन आई! ऐसे में हिन्दुओं उत्साह दोगुना हो जाता है। इस साल फिर बसंत पंचमी (12 फ़रवरी) शुक्रवार को है और यही सरकार की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा भी! हज़ारों खाकी वर्दीधारियों की तैनाती से दबाव जरूर बनाया जा सकता है, पर सद्भाव का माहौल कतई नहीं बन सकता! पिछले दो अनुभव से ये बात स्पष्ट भी हो चुकी है। 
  शिवराजसिंह चौहान ने भी कहा है कि किसी भी स्थिति में धार के हालात बिगड़ने नहीं दिए जाएंगे! मध्य प्रदेश हमेशा से 'शांति का टापू' रहा है और रहेगा! किसी को भी प्रदेश के हालात बिगाड़ने की छूट नहीं दी जाएगी। अधिकारियों को निर्देश हैं कि जो भी माहौल बिगाड़ने की कोशिश करे, उसके ख़िलाफ सख़्त कार्रवाई की जाए! प्रदेश के मुखिया के तौर पर शिवराज सिंह का बयान अपनी जगह सही भी है और मौजूं भी! लेकिन, पहली बार भोजशाला विवाद में भाजपा के कुछ नेता और संघ भी खुलकर सामने आ गया हैं। ऐसे में क्या मुख्यमंत्री उनकी जिद को अनदेखा कर उनके खिलाफ कार्रवाई आदेश दे पाएंगे? यदि बसंत पंचमी पर धार में कोई तनाव उभरता है, तो इसके छींटे सरकार की धर्मनिरपेक्ष पहचान को भी प्रभावित करेंगे! एक दबा-छुपा सच ये भी है कि इस मामले में परदे के पीछे से राजनीति का खेल भी खेला जा रहा है! पार्टी में शिवराजसिंह चौहान विरोधी गुट भोजशाला की आड़ में मुख्यमंत्री पर निशाना साधकर बैठा है! उसे लग रहा है कि यदि धार में कोई बड़ा बवाल होता है तो मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे डाली जा सकती है!    
   प्रदेश में सिर्फ यही एक घटना नहीं है जिससे सरकार की छवि प्रभावित होगी! हरदा की घटना भी बिगड़ते हालात का उदहारण है! हरदा के खिरकिया स्टेशन पर ट्रेन में बीफ़ होने के शक में एक मुस्लिम दंपत्ति की पिटाई तक कर दी गई थी! इसके बाद कुछ हिंदूवादी नेताओं को गिरफ्तार किए जाने पर 'गोरक्षा कमांडो समिति' के एक नेता का एक ऑडियो भी सामने आया था, जिसमें उन्होंने हरदा के एसपी पर हिंदुओं के ख़िलाफ़ ग़लत कार्रवाई का आरोप लगाते हुए उन्हें धमकाया था!  उन्होंने खिरकिया में 2013 की तरह फिर दंगे की चेतावनी भी दी थी! याद दिला दें कि खिरकिया में सितंबर 2013 में एक बछड़े को मारने की अफ़वाह के बाद क़रीब 70 अल्पसंख्यकों के घरों और दुकानों में आग लगा दी गई थी! बाद में बछड़े की मौत का कारण पॉलिथीन खाना पाया गया था! 
   धार ज़िले के मनावर क़स्बे में पिछले दिनों विश्व हिंदू परिषद की शौर्य यात्रा के दौरान भी हिंसा भड़क गई थी! दोनों समुदाय ने एक-दूसरे पर पथराव किया! धामनोद, धरमपुरी और बाग़ भी इसी जिले के कस्बे हैं, जहाँ कुछ महीनों में किसी न किसी कारण तनाव हुआ है! वैसे प्रदेश का मालवा, निमाड़ इलाक़ा हमेशा से सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील समझा जाता रहा है। छोटी सी बात पर यहाँ बड़ा तनाव उभर जाता है! लेकिन, अब प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी ऐसी चिंगारी से आग भड़कने लगी है। ग्वालियर में भी हाल ही में साप्रंदायिक घटना हुई! पिछले साल खरगोन में कर्फ़्यू लगाने तक की नौबत आ गई थी! देवास में पिछले दिनों एक व्यक्ति की मौत के बाद कर्फ़्यू लागू करना पड़ा था। सिवनी जिले के बरघाट में ज़मानत पर छूटे एक संप्रदाय के तीन लोगों को जुलूस बनाकर गांव आने पर दूसरे संप्रदाय के लोगों ने हमला बोल दिया था! इसमें एक की मौत भी हो गई। अब सारी नजरें धार पर टिकी हैं कि बासंती रंगों के परिधान और बासंती व्यंजनों के लिए पहचानी जाने वाली 'बसंत पंचमी' पर धार में वास्तव में सद्भाव कायम रह पाता है, या हमेशा कि तरह खाकी का आतंक और दबाव बनाकर पूजा और नमाज की औपचारिकता भर पूरी जाती है? क्योंकि, हिंदूवादियों ने भी भोजशाला में पूरे दिन पूजन के लिए कमर कस ली है! उनके तेवर ढीले पड़ते नहीं दिख रहे! मुस्लिम संगठन भी एएसआई के आदेश के पालन को नमाज का आधार बना रहे हैं! ऐसे में बीच में खड़ी सरकार का फैसला ही उसे इस परीक्षा में पास करेगा या फेल!   
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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