Sunday, January 29, 2017

निरर्थक विरोध की वेदना झेलते फिल्मकार

- हेमंत पाल 
  हमारे देश में अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है और उतनी ही आजादी विरोध करने की भी! लेकिन, कई बार विरोध का अतिरेक इतना बढ़ जाता है कि वो हिंसा में परिवर्तित हो जाता है। जयपुर के जयगढ़ किले में फिल्मकार संजय लीला भंसाली के साथ हुई मारपीट की घटना न तो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतीक है और न विरोध का! ये शब्दशः कथित करणी सेना की गुंडागर्दी है। भंसाली के खिलाफ उनकी नाराजी का कारण 'पद्मावती' में अलाउद्दीन खिलची और रानी पद्मावती के बीच कथित रूप से फिल्माए जा रहे प्रेम दृश्यों को लेकर था। खिलची का किरदार रणवीर सिंह और पद्मावती का किरदार दीपिका पादुकोण ने निभाया हैं। अभी न तो किसी को फिल्म के कथानक की जानकारी है और न खिलची और पद्मावती के बीच प्रेम प्रसंग का ही कोई दावा किया गया। फिर विरोध की ये हिंसक परिणति किसलिए, ये सोचने वाली बात है!  

    फिल्मों के रिलीज़ से पहले उनका विरोध आजकल फैशन बनता जा रहा है। कभी फिल्म के कलाकारों को लेकर मुट्ठियां तन जाती है, कभी उनके नाम या कथानक लेकर! हाल ही में अक्षय कुमार की फिल्म ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ को लेकर भी विवाद गहराया! विरोध करने वालों की दलील है कि फिल्म में अक्षय कुमार ने नंदगांव के रहने वाले एक शख्स का किरदार निभाया है। जबकि, अभिनेत्री भूमि पेडणेकर बरसाना की रहने वाली युवती है। फिल्म के एक दृश्य में नंदगांव के रहने वाले युवक को बरसाना की लड़की से शादी करते दिखाया गया है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक ये कृष्ण और राधा के गाँव हैं, इसलिए लोगों को इस प्रेम कथा से आपत्ति है। संतों ने बरसाना में महापंचायत बुलाकर फिल्म के विरोध का आह्वान किया। फिल्म के शीर्षक एवं कहानी में नंदगांव-बरसाना की वर्षों प्राचीन परंपरा को तोडऩे का आरोप लगाया गया है। कहा गया कि उन्होंने फिल्म का ऐसा नाम क्यों दिया! 

  इससे पहले आमिर खान की फिल्म 'पीके' में धर्म गुरुओं के कथित चित्रण को लेकर लोगों की नाराजी सामने आई थी! सलमान खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' के नाम को लेकर भी आवाज उठी थी! संजय लीला भंसाली की ही एक फिल्म 'रामलीला' का नाम भी विरोध के बाद बदला गया! अक्षय कुमार की फिल्म 'ओह माय गॉड' को लेकर तो लोग अदालत पहुँच गए थे! मामला सिर्फ धार्मिक भावनाओं तक ही सीमित नहीं है! अमिताभ बच्चन की फिल्म 'सरकार' के कथानक को भी पहले बाल ठाकरे पर केंद्रित समझकर उनके समर्थकों ने बाहें चढ़ा ली थी! लेकिन, बाद में जब फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखा तो लोग शांत हो गए! सबसे ताजा मामला 'उड़ता पंजाब' का है। ये एक सामाजिक समस्या पर बनी फिल्म है, लेकिन उसे पंजाब के खिलाफ दर्शाकर लोगों को सड़क पर खड़ा कर दिया गया था!    

  फिल्मों के नाम, उनके कथानक और काम करने वाले कलाकारों को लेकर जिस तरह विरोध की परंपरा पनप रही है, ये अच्छा संकेत नहीं है! सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए चंद लोग जेबी संगठन बनाकर ऐसे काम करने के मौके ढूंढते रहते हैं। दरअसल, अभिव्यक्ति की आजादी का आशय कानून को हाथ में लेना या दूसरे की अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण नहीं होता! यदि किसी को कुछ पसंद नहीं है, तो वे अपनी आलोचना कि अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र हैं। वे सार्थक विरोध करें, लेख लिखें, कविताएँ करें, नुक्कड़ नाटक करें! हिंसा कभी किसी विरोध का सही तरीका कभी नहीं हो सकता! फिल्म के व्यापक दृष्टिकोण को न समझते हुए उसके किसी एक दृश्य की आलोचना कुत्सित मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। पर, हो वही रहा है!  
---------------------------------------------------------------------------

Sunday, January 22, 2017

बॉलीवुड में भी घरानों का दबदबा


- हेमंत पाल 

  बॉलीवुड और राजनीति में बहुत ज्यादा समानता है। दोनों में परिवारवाद है, घराने हैं, अपना आदमीवाद है और आसमान छूते सूरज को सलामी देने की परंपरा है। जिस तरह राजनीति में गॉड फादर की ऊँगली पकड़कर आगे बढ़ा जाता है! वही सब बॉलीवुड में भी होता है। दरअसल, बॉलीवुड सितारों का घराना है। कुछ घराने ऐसे हैं जिन्होंने बरसों से बॉलीवुड में दबदबा बना रखा है। इन घरानों से जुड़े कई एक्टर और एक्ट्रेस शोहरत की बुलंदियों पर हैं। कपूर खानदान ऐसे ही घरानों में आता है। बॉलीवुड में ये सबसे ताकतवर घराना माना जाता है। इसके फाउंडर थे पृथ्‍वीराज कपूर जिन्‍होंने 1944 मे पृथ्‍वी थियेटर की शुरुआत की थी। इस घराने से राजकपूर से लगाकर ऋषि कपूर, रणबीर और करीना तक निकले हैं। दूसरा बड़ा घराना मंसूर अली खान पटौदी का है। पटौदी थे तो क्रिकेटर पर उन्होंने एक्‍ट्रेस शर्मीला टेगोर से शादी करके इस घराने की नीवं डाली! शर्मीला और मंसूर के बच्‍चे सैफ अली खान, सोहा अली खान और सबा खान हुई। इस घराने का करीना के बहाने कपूर घराने का भी रिश्ता है।  

  'बच्चन घराने' का भी अपना दबदबा है। कवि हरिवंशराय बच्‍चन के बेटे अमिताभ बच्‍चन ने ये घराना बनाया और आज वे शिखर पर हैं। अमिताभ ने 1973 में जया भादुड़ी से शादी की। दो बच्‍चे हुए बेटी श्वेता और अभिषेक। अभिषेक ने बॉलीवुड एक्‍ट्रेस और एश्‍वर्या राय से शादी की। एक है देओल घराना जो धर्मेन्‍द्र और हेमामालिनी के लिए जाना जाता है। धर्मेन्‍द्र ने दो शादियां की। पहली पत्‍नी से दो बेटे सनी और बाबी देओल हुए। दूसरी पत्नी हेमा मालिनी से दो बेटियां ईशा और अहाना देओल हैं। लेकिन, आज सबसे ज्यादा डंका बज रहा है 'खान घराने' का। जाने माने फिल्न लेखक सलीम खान ने सुशीला से शादी की जिनसे उन्‍हे सलमान, अरबाज और सुहेल तीन बेटे हुए। सलीम के दो बेटियां भी हैं जिनमे से एक को उन्‍होने गोद लिया है।
  यदि बॉलीवुड घरानों की हो तो भट्ट घराने को भुलाया नहीं जा सकता। इस घराने में तीन भाई मुकेश भट्ट, विक्रम भट्ट और महेश भट्ट हैं। महेश दो शादियां की।किरन के बाद उन्होंने उन्होंने सोनी राजदान से दूसरी शादी की। महेश और किरन के दो बच्‍चे हैं पूजा और राहुल भट्ट हैं। जबकि, सोनी राजदान से महेश भट्ट की दो बेटियां अलिया और शाहीन भट्ट है। मोहित सूरी महेश भट्ट के भतीजे हैं। बॉलीवुड के मशहूर एक्‍टर इमरान हाशमी भी महेश भट्ट के भतीजे हैं।
  फ़िल्मी दुनिया में रोशन घराना भी काफी पुराना है। संगीतकार रोशन के परिवार का बॉलीवुड में काफी सम्मान है। एक्‍टर डॉयरेक्‍टर राकेश रोशन के भाई राजेश संगीतकार हैं। राकेश रोशन ने फिल्मकार जे ओमप्रकाश की बेटी शादी की थीं। राकेश के दो बच्‍चे हुए बेटी सुनेना और बेटा रितिक रोशन। एक्शन और डांस से जुडी फिल्मों में रितिक का कोई जोड़ नहीं है।बॉलीवुड में मुखर्जी भी एक घराना है। पुराने ज़माने की मशहूर एक्‍ट्रेस तनुजा और नूतन बहनें हैं। नूतन के बेटे मोहिनीश एक्‍टर हैं। तनुजा के दो बेटियां काजोल और तनीशा मुखर्जी हैं। काजोल ने अजय देवगन से शादी की है। रानी मुखर्जी डॉयरेक्‍टर राम मुखर्जी की बेटी हैं। बॉलीवुड में दूसरा कपूर घराना जितेन्द्र का है। जितेन्‍द्र को बॉलीवुड का जंपिंग जैक कहा जाता था। उन्होंने शोभा से शादी की और उन्‍हे दो बच्‍चे हुए। एकता कपूर जो मशूहर बॉलीवुड प्रोड्यूसर हैं और तुषार कपूर। 
-----------------------------------------------------------------

Friday, January 20, 2017

सरकार को नहीं पता 'आनंद' और 'सुविधा' का अंतर?

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में अब कोई दुखी नहीं होगा, लोग हमेशा खुश रहेंगे! दिल से खुश नहीं भी होंगे, तो खुश रहने या दिखाने की आदत तो डालना होगी! कम से कम चेहरे पर दिखाना तो होगा ही कि वे खुश भी हैं और खुशहाल भी! इसलिए कि सरकार यही चाहती है। सरकार ने सप्ताहभर का 'आनंद उत्सव' भी इसीलिए मना लिया! भूटान ने 1972 में 'हैप्पीनेस इंडेक्स' का मॉडल बनाया था! वहाँ जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) के बजाए लोगों की खुशियों को देश की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस मॉडल से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी 'आनंद विभाग' बनाना तय किया और बना भी दिया। कहा गया कि इस विभाग के जरिए लोगों को जीवन से तनाव दूर करने और खुश रहने के उपाय बताए जाएंगे। लेकिन, जो किया जा रहा है, उससे सरकार का मकसद स्पष्ट नहीं हो रहा! गरीबों को पुराने कपडे बाँट देने से उनकी जरूरत तो पूरी हो जाएगी, पर वे खुश हो जाएंगे ये सरकार का भ्रम है! लगता है 'आनंद' और 'सुविधा' के फर्क को ठीक से समझा नहीं गया! 'आनंद' किसी को दिया नहीं जा सकता, ये अंदर से उपजता है! उसे खोजनाभर होता है। सरकार के 'आनंद' की परिभाषा में यही खोट नजर आ रही है! लोगों के अभाव की पूर्ति कर देने से वो व्यक्ति सुखी तो हो सकता है, पर आनंदित नहीं! 'आनंद' कभी खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता! वह तो मौजूद है, उसे केवल जाना जाता है।
   मध्य प्रदेश में नए बने आनंद विभाग के तहत सप्ताहभर का 'आनंद उत्सव' मनाया गया! उत्सव की शुरुवात पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि सरकार का लक्ष्य लोगों के जीवन में खुशियां लाना है। सभी को घर और शिक्षा देना सरकार की प्राथमिकता है। मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि जो आनंद फकीरी में है, वो अमीरी में कहाँ? लोग आँसू बहाते रहें और सरकार चलती रहे तो ऐसी सरकार चलाने का क्या मतलब है? धन, दौलत, पद या प्रतिष्ठा से आनंद नहीं आता, बल्कि सकारात्मक सोच से जीवन में आनंद भरता है। मुख्यमंत्री के मुताबिक जियें तो आनंद से जियें और लोग एक दूसरे के काम आएं। सरकार के मुखिया होने के नाते मुख्यमंत्री के विचार बहुत अच्छे हैं! लेकिन, 'आनंद' और 'सुख' में सरकार कहीं न कहीं भ्रम में है। आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती, ये अन्तर्निहित है। इसलिए सुविधाभोगी सुख को आनंद नहीं समझा जाना चाहिए। 'आनंद' और 'सुख' में बड़ा अंतर है। अभाव के कारण दुख होना स्वाभाविक है, पर सुख होने पर आनंद की अनुभूति होगी, ये नहीं कहा जा सकता! आनंद का सही मतलब है जहाँ बाहर की कोई भी प्रतिक्रिया हमें प्रभावित नहीं करे, न दुख का न सुख का! सुख और दुख बाहर से आई हुई अनुभूतियां हैं। 'आनंद' वह अनुभूति है जिसमें कुछ भी बाहर से नहीं आता। 'आनंद' बाहर का अनुभव न होकर स्वयं का अनुभव है।
   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब इस विभाग के प्रारूप को सामने रखा था, तब उनका कहना था कि मनुष्य के जीवन में भौतिक खुशहाली और समृद्धि से आनंद नहीं आ सकता। इस विभाग का मकसद लोगों को निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठाने से रोकना है, ताकि सकारात्मकता बनी रहे। लोगों के जीवन में खुशियां लाने के लिए योग, ध्यान, सांस्कृतिक आयोजन जैसे सभी उपाय किए जाएंगें। सबसे पहले शहरों में रहने वाले बच्चों पर प्रयोग किया जाएगा! इसके तहत छात्रों को खुश रखने के लिए योग, ध्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा! लेकिन, जो हुआ उसमें ऐसी कोई कोशिश नजर नहीं आई! सरकार की इस घोषणा से एक उम्मीद जागी थी। किंतु, शुरुआती कदम असरदार नहीं दिखा! सिर्फ आनंद विभाग बना देने से ही खुशहाली आ जाती और सरकारी विभागों के कामकाज इतने ही असरदार होते, तो महिला एवं बाल कल्याण विभाग का मकसद अभी तक पूरा हो चुका होता! ग्रामीण विकास तो अब तक का नया अध्याय लिख चुका होता! शिक्षा, स्वास्थ्य और गृह विभागों से किसी को कोई शिकायत ही नहीं होती! कृषि विभाग किसानों के वारे-न्यारे कर चुका होता! लेकिन, अब तक ऐसा कुछ हुआ है न होगा और न ऐसे कोई आसार ही हैं! न महिलाओं और बच्चों का जीवन स्तर सुधरा और न ग्रामीण विकास की दिशा में कोई ठोस काम हुआ! सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा सब जानते हैं। 
  जिस प्रदेश की सरकार पर 82 हजार 261 करोड़ 50 लाख रुपए का कर्ज हो! मौजूदा समय में हर व्यक्ति करीब साढ़े 15 हजार रुपए का कर्जदार हो, वो 'आनंद' महसूस कैसे कर सकता है? जो सरकार लोगों को आनंदित करने के लिए अलग विभाग खोलकर बैठी है वहाँ अपराधों का ग्राफ भी आसमान छू रहा है! पिछले साल ही महिलाओं से जुड़े अपराधों में करीब सात प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। प्रदेश में हर साल महिला अपराधों पर अंकुश लगाने के प्रयास किए जाते हैं। महिलाओं की सुरक्षा और योजनाओं पर सरकार करोड़ों रुपए बहाती है। लेकिन, जमीनी हकीकत अलग है। 2015 में जनवरी से जून तक कुल 24,233 महिला अपराध हुए, जबकि 2016 की उसी अवधि में 25,860 अपराध दर्ज किए गए। हत्या के प्रयासों में 16 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। साधारण मारपीट, छेड़छाड़, अपहरण, दहेज हत्या, दहेज प्रताड़ना, आगजनी, धमकी, मानव तस्करी और बाल अपराध की घटनाओं का आंकड़ा भी लगातार बढ़ रहा है। इसके बावजूद कोई आनंद का अनुभव कैसे कर सकता है!
  लोगों के जीवन में खुशहाली लाने का काम सरकार का है, ये नितांत सत्य है! लेकिन, गरीबों को पुराने कपडे बाँट देने, उनकी जरूरतों का सामान दे देने या उनके साथ थोड़ी देर पतंग उड़ा लेने से किसी को 'आनंद' की अनुभूति हो जाएगी, ये कैसे संभव है! सिर्फ गरीब को ही आनंद जरुरत है, सरकार का ये सोच भी सही नहीं कहा जा सकता! बेहतर होता कि सरकार ये प्रयोग करने से पहले अपने दायित्व के प्रति भी गंभीरता दिखाती, इसके बाद ही ये कोशिश शुरू करती! आज मध्यप्रदेश में रहने वाला हर अमीर और गरीब व्यक्ति भ्रष्टाचार, महंगाई, बिजली, पानी, बेरोजगारी और नौकरशाही से त्रस्त है। जब तक सरकार इन समस्याओं से निजात नहीं दिला सकती 'आनंद विभाग' जैसे प्रयोगों की कोई जरुरत नहीं हैं। गुदगुदाकर किसी को थोड़ी देर तो हंसाया जा सकता है। पर, ये दिल से निकली ख़ुशी नहीं होगी! यदि सरकार लोगों को निजी जीवन में ख़ुशी देना चाहती है, तो उसे पहले अपने विभागों को उनकी जिम्मेदारी के प्रति कसना होगा! इसके बाद लोगों की निजी जिंदगी में झांककर दुःख दूर करने की कोशिश करना चाहिए!  
   साथ में मॉर्निंग वॉक करने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए कई बार साथ खड़े होकर बेवजह हंस लेते हैं! चुटकुले सुनकर भी हंसी आ जाती है, गुदगुदी भी हंसाती है! पर, ये सब कहीं से भी 'आनंद' नहीं होता! क्योंकि, ये क्षणिक है। शायद उसी तरह सरकार को लगा होगा कि वो भी लोगों को गुदगुदाकर हंसने के लिए मजबूर कर सकती है! जिन लोगों के जीवन में तनाव है, अभाव है और हर वक़्त चिंता है। उनको 'आनंद' देने में सरकार को बरसों लग जाएंगे! वाहवाही के लिए सरकार सप्ताहभर का उत्सव मनाकर अपनी सफलता का जश्न मना ले, पर इससे कोई आनंदित हुआ होगा, ऐसा नहीं लगता! इसलिए कि खुशहाली का समृद्धता से कोई वास्ता नहीं होता! कुछ लोग तो अभाव को अपनी नियति समझकर भी खुश रहते हैं! उनके लिए सरकारी सुविधाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखती! 
-----------------------------------------------------------------------------------

शराबबंदी को लेकर सरकार दो कदम आगे, चार कदम पीछे

- हेमंत पाल 

  मध्य प्रदेश सरकार ने प्रदेश में शराबबंदी की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर दिए! कैबिनेट ने नई आबकारी नीति को मंजूरी भी दे दी। संकेत हैं कि सरकार शराबबंदी को लेकर कोई बड़ा फैसला भी ले सकती है। दरअसल, सरकार अब अपने उन्हीं क़दमों को पीछे खींच रही है, जो उसने कभी आगे बढ़ाए थे! सरकार ने कैबिनेट में भी जो फैसले लिए गए, वे तार्किक रूप से सही नहीं लगते! प्रदेश में यदि शराबबंदी फैसला किया जाता है, तो सरकार को सबसे पहले इसके साढ़े 8 हज़ार करोड़ के राजस्व के नुकसान की भरपाई का विकल्प ढूँढना होगा! नए कर लगाकर इसकी पूर्ति की जाती है तो सरकार को लोगों की नाराजी झेलना पड़ सकती है! 
  नई नीति में तय किया गया कि कोई नई शराब दुकान नहीं खुलेगी! नर्मदा नदी के किनारे की दुकानों को भी बंद किया जाएगा। नर्मदा के किनारे से 5 किमी के दायरे में शराब की दुकान नहीं रहेगी। बेहतर होता कि सरकार उमा भारती के कार्यकाल के समय लिए गए उन फैसलों का अध्ययन कर लेती, जिसमें उन्होंने उज्जैन, ओंकारेश्वर समेत प्रदेश के सभी धार्मिक शहरों को शराब से मुक्त रखने का निर्णय लिया था! आज के फैसले से उमा सरकार का फैसला कहीं ज्यादा सही दिखाई देता है। नेशनल हाई-वे के किनारे बनी शराब दुकानों को हाई-वे से 500 मीटर की दूर हटाने से भी समस्या हल नहीं होगी! ये दूरी ज्यादा होना थी, जिससे आसानी से शराब मिलना संभव न हो! हाई-वे पर बोर्ड लगाकर भी दुकानदार शराब के शौकीनों को आमंत्रित कर सकते है! उन्हें सरकार कैसे रोकेगी?   
  आज सरकार आंशिक शराबबंदी को लेकर नए नियम बना रही है। लेकिन, भाजपा सरकार के पिछले दो कार्यकालों में शराब की दुकानों की संख्या लगातार बढ़ाई गई! पूर्व वित्त मंत्री रहे राघवजी ने तो इसे राजस्व बढ़ाने का आसान फार्मूला ही मान लिया था। शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए आउटलेट खोलने एवं शराब से वैट टैक्स कम करने के प्रस्ताव भी कैबिनेट में विचारार्थ रखे गए थे! 10 लाख से ज्यादा आयकर देने वालों को 100 बोतल शराब घर में रखने की छूट देने तक का प्रावधान किया गया! लेकिन, तब सामने आई नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद सरकार को अपने कदम खींचना पड़े! यदि सरकार वास्तव में शराबबंदी की तरफ कदम बढ़ा रही है तो शराब की दुकानें रात साढ़े 11 बजे तक खुली रखने की छूट क्यों दी गई? रेस्टोरेंटों में रात 12 बजे तक शराब परोसने का समय दिया गया! जबकि, राजस्थान और दिल्ली में शराब दुकानों के खुलने एवं बंद होने के बीच का समय घटाया गया है! सरकार ने हर साल 20 फीसदी बढ़ने वाले दुकान आवंटन शुल्क को भी घटाकर 15 फीसदी कर दिया गया!  
   शराब से जुड़े कैबिनेट के ताजा फैसलों से लगता नहीं कि इस विषय को गंभीरता से समझा भी गया! शराब दुकानों के बाहर 'मदिरापान हानिकारक है' के बोर्ड लगाने से जागरूकता आएगी, ये सोचना भी अपने आपको भ्रमित करना है। क्योंकि, यदि ऐसा होता तो सिगरेट की डिब्बी पर लिखी चेतावनी पढ़कर लोग कब से सिगरेट त्याग चुके होते! एक फैसला ये भी किया गया कि शराब दुकान मालिकों से उन शराबियों की लिस्ट मांगी जाएगी, जो आदतन शराबी हैं! ये बेहद हास्यास्पद लगता है। ये कैसे संभव होगा और क्या दुकानदार सभी शराब खरीदने वालों के नाम, पते दर्ज करेगा? शराब का किसी भी तरह का प्रचार प्रतिबंधित ही है, फिर भी प्रदेश सरकार ने फैसला किया कि मीडिया में शराब का प्रचार प्रतिबंधित किया जाएगा! वास्तव में प्रचार शराब का नहीं होता, बल्कि उसी ब्रांड नाम से किसी और उत्पाद जैसे सोडा या ग्लास का होता है! बेहतर होता कि सरकार 'शराब के ब्रांड' के प्रचार को प्रतिबंधित करती, जो नहीं किया गया! जो फैसले लिए गए वो सरकार की गंभीरता को तो नहीं, अधूरे होमवर्क को जरूर सामने लाते हैं।    
-----------------------------------------

Sunday, January 15, 2017

रीमेक की तरह रीमिक्स का भी दौर


- हेमंत पाल 

   फिल्मों के रीमेक की तरह इन दिनों पुराने फ़िल्मी गीतों को रीमिक्स करके नया कलेवर देने का भी दौर चल पड़ा है। जनवरी 2017 में रिलीज हुई फिल्‍म 'ओके जानू' का बॉक्स ऑफिस रिजल्ट भले ही अच्छा नहीं रहा हो, पर इस फिल्म के गीत 'हम्मा - हम्मा' को पसंद करने वालों की बड़ी कतार है। श्रद्धा कपूर और आदित्‍य रॉय कपूर पर फिल्माए इस गाने को खासा पसंद किया गया। ये 'बॉम्‍बे' फिल्म के गाने 'हम्‍मा-हम्‍मा' का रीमेक है। इस गीत के रिलीज होने के शुरुवाती 5 दिनों में ही यूट्यूब पर एक करोड़ 75 लाख से ज्‍यादा बार देखा गया! एक और फिल्‍म 'बार बार देखो' के गाने ' तेनु काला चश्‍मा जंचता है' ने भी तहलका मचाया! ये 2005 में आए 'तेनु काला चश्‍मा जचदा' का नया वर्जन है। फिल्‍म 'वजह तुम हो' में भी 2002 में आई फिल्म 'कांटे' के गाने 'माही वे' का रीमेक किया गया।

   ये तो वो गाने हैं, जिन्हें उनके नए रूप में भी सुनने वालों ने पसंद किया। लेकिन, हर पुराने गीत का नए रूप को इतना पसंद नहीं किया गया। आयुष्मान खुराना ने 'हवाईजादे' में एक गीत गाया था ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है।’ यह गाना 1954 में बनी फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ का है जिसे सुरैया और तलत महमूद ने गाया था। ये एक क्लासिक गीत है, जिसे आज भी भुलाया नहीं गया। ये वो जमाना है जहां मौलिकता गायब है। रचनात्मकता और कुछ नया करने के नाम पर एक भौंडे प्रयास किए जाने लगे हैं। आयुष्मान ने इस गाने को एक नया अंदाज तो दिया, पर इसे क्लासिक नहीं कहा जा सकता। उनकी ही एक और फिल्म ‘नौटंकी साला’ में भी दो पुराने गीतों को रीमिक्स बनाकर में पेश किया गया था। ये गीत थे ‘सो गया ये जहां’ और ‘धक-धक करने लगा’। पर, 'तेज़ाब' और 'बेटा' के ये दोनों ही गीत श्रोताओं को लुभा नहीं पाए! हालांकि, इस फिल्म के अन्य मौलिक गीतों ने श्रोताओं के कानों में लंबे समय तक मधुर रस घोला। 
   पुराने गीतों को नए कलेवर में प्रस्तुत करने का दिनों सिलसिला कुछ ज्यादा ही तेज है। लेकिन, आज के संगीतकार क्लासिक गीतों के साथ पूरा न्याय नहीं कर सकते! यही कारण है कि वे आलोचना से बचने के लिए गीतों को रीमिक्स नहीं कहते, ट्रिब्यूट नाम देते हैं। अक्षय कुमार की फिल्म ‘बॉस’ में ‘हर किसी को नहीं मिलता’ को नए अंदाज में पेश किया गया! जब इसकी आलोचना हुई तो कह दिया कि इस गीत के जरिये अक्षय कुमार ने स्व फीरोज खान को अपनी श्रद्धांजलि दी है। ’वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा’ में 'अमर-अकबर-एंथोनी' का लोकप्रिय गाना ‘तैयब अली प्यार का दुश्मन’ नई तरह बनाकर फिल्माया गया! लेकिन, इस रीमिक्स के साथ पूरा न्याय नहीं हुआ! ऋषि कपूर का नीतू सिंह के प्रति जिस दीवानेपन को इस गाने के माध्यम से अभिनीत किया था, वो इमरान खान नहीं कर सके! 
  साजिद खान ने ‘हिम्मतवाला’ के सभी गीत मूल ‘हिम्मतवाला’ से कॉपी किए थे। लेकिन, सुनने में आज भी पुरानी 'हिम्मतवाला' के गीत ही कानों में गूंजते हैं। ‘चालबाज’ के गीत ‘न जाने कहां से आई है’ से प्रेरित होकर ‘आई मी और मैं’ में ‘ना जाने कहां से आया है’ की रचना की गई। धुन वही रखी पर बोल बदल दिए गए। इस तरह तैयार हो गया दो दशक पूर्व के लोकप्रिय गीत से प्रेरित नए जमाने का एक हिप-हॉप गीत। नए कलेवर में ढले इस गीत को युवा श्रोताओं ने कुछ हद तक पसंद भी किया। लेकिन, जिस तरह हिट फिल्मों के रीमेक के साथ गंभीरता नहीं बरती जा रही, वही गीतों के साथ भी हो रहा है! शुरू में तो नए संगीत में रचे पुराने गीतों को तो लोग पसंद करते हैं, पर जल्द ही ऊबने भी लगते हैं। जबकि, पुराने गीतों का अपना माधुर्य है, सिर्फ उनके बोल नहीं संगीत में भी एक कशिश होती थी! पुराने गीतों को कितना भी नए रंग में रंग दिया जाए, असल सुकून तो उनके वास्तविक संगीत में ही है।  
------------------------------------------------------------

Friday, January 13, 2017

नौकरशाही में राजनीतिक दखल के दर्द की इंतेहाँ

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश सरकार इन दिनों एक नए संकट का सामना कर रही है। एक पुलिस अफसर के तबादले को लेकर उस शहर की जनता सड़क पर आ गई! लोगों का आरोप है कि ये तबादला राजनीतिक दबाव में किसी का हित साधने के लिए किया गया है। ये पहली बार हुआ कि किसी पुलिस अफसर के समर्थन में इस तरह का माहौल बना हो! जबकि, सामान्यतः जनता में पुलिस की छवि ऐसी नहीं होती कि उनके समर्थन में कोई स्वतः स्फूर्त आंदोलन खड़ा हो जाए! किसी अफसर का तबादला नई बात नहीं है, पर जिन परिस्थितियों में ये हुआ है वो सवाल करता है! इसलिए कि हमारे देश की नौकरशाही अंग्रेज राज की विरासत हैं। इस सेवा की स्थापना भारतीयों को दबाने और औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा के लिए की गई थी! जबकि, भारतीय और अंग्रेजी नौकरशाही के चरित्र और स्वरूप में बहुत फर्क है। अफ़सोस की बात तो ये कि आजादी के सात दशक बाद भी देश की सरकारों ने इस चरित्र को लोकतंत्र की अपेक्षाओं के अनुरूप ढालने की दिशा में कुछ नहीं किया! अब हालात ये हैं कि नेता, नौकरशाहों और पुलिस अफसरों को अपना निजी सेवक समझने लगे हैं। राजनीतिक दखल के कारण अच्छे अफसर महत्वपूर्ण पद पाने से वंचित रह जाते हैं। जबकि, राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के प्रति वफादारी दिखाने वाले नौकरशाहों को आसानी से बड़े पद मिल जाती है। प्रशासनिक और पुलिस सेवा अधिकारियों को राजनीतिक दखल का बहुत ज्यादा सामना करना पड़ता है। इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया, परिस्थिति काबू से बाहर हो जाएगी! 

   मध्यप्रदेश के छोटे शहर कटनी को अभी तक चूना पत्थर की खदानों के लिए जाना जाता था! लेकिन, अब इस चूने में पानी पड़ गया और चारों तरफ उबाल आ गया! छोटे से शहर के लोगों ने अपनी आवाज से प्रदेश की सरकार को हिला दिया। कटनी के पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी के तबादले को लेकर लोग सड़क पर आ गए। यहाँ की जनता का आरोप है कि सरकार ने हवाला कारोबार में घिरे अपने मंत्री संजय पाठक को बचाने के लिए पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया। जबकि, पुलिस जांच में सामने आया था कि हवाला कारोबारियों, बैंक व बैंक अफसरों की सांठगांठ से नोटबंदी के बाद पुराने नोटों की अदला-बदली का बड़ा घोटाला हुआ। पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी को ये सबूत मिल गए थे कि इस काले धंधे के पीछे संजय पाठक का हाथ है। पुलिस अधीक्षक पर दवाब बनाया गया, जब दवाब काम नहीं आया तो उनका तबादला करवा दिया गया। हैरान करने वाली बात ये है कि उन्हें छह महीने पहले कटनी में पदस्थ किया गया था। उनके सख्त और ईमानदार रवैये से लोग खुश थे। लेकिन, गौरव तिवारी से तबादले से कटनी से जो चिंगारी उठी है वो आवाज़ ईमानदार अफसरों के हक में जनक्रांति का संकेत है। संजय पाठक सरकार के वे मंत्री हैं, जो दल बदलकर कांग्रेस से भाजपा में आए हैं। जब तक वे कांग्रेस में थे, उनपर और उनके कारोबार पर भाजपा ऊँगली उठाती रही! लेकिन, जब से वे भाजपा में आए हैं वे और उनका कारोबार दोनों पवित्र हो गए!
   हमारे यहाँ नौकरशाही पर राजनीतिक दबाव के किस्से नए नहीं हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, अफसरों को अंकुश में रखना हर सरकार का शगल होता है। असल बात तो ये है कि ये किसी एक प्रदेश का किस्सा नहीं है, हर प्रदेश की सरकार में ये होता है। इन बातों से पूरी दुनिया भी वाकिफ है। तीन साल पहले अमेरिका की एक थिंक टैंक संस्था ने भी अपनी रिपोर्ट में भी कहा था कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में तत्काल सुधार की जरूरत है। राजनीतिक दखलअंदाजी के कारण यह अक्षम होती जा रही है। 'कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' द्वारा जारी रिपोर्ट 'द इंडियन ऐडमिनिस्ट्रेशन सर्विस मीट्स बिग डेटा' में कहा गया था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाएं राजनीतिक दखलअंदाजी, पुरानी पड़ चुकी कार्मिक प्रक्रियाओं नीति क्रियान्वयन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इनमें तुरंत सुधार की जरूरत है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार को नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया का पुनर्गठन करना चाहिए। नौकरशाही और राजनीति, दोनों में अच्छे और बुरे लोग हैं। मगर सबसे ज्यादा दोषारोपण नौकरशाही पर ही होता है। विदेशी ही नहीं, भारतीय भी नौकरशाही को अक्षम मानते हैं। हांगकांग की 'पॉलिटिकल एंड इकानॉमिक रिस्क कंसलटेंसी' के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भी एशिया में सबसे निकम्मी नौकरशाही भारत की है। इस सर्वेक्षण में कहा गया कि विदेशी निवेशक ही नहीं, किसी भारतीय के लिए भी वहाँ की नौकरशाही से काम करवाना निराशाजनक अनुभव जैसा है।
   भाजपा के राज में ये दखल अपरिहार्य इसलिए भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अफसरों को कह चुके कि लोकतंत्र में ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ आवश्यक है। उन्होंने नौकरशाहों के सामने स्पष्ट कहा था कि वे इसे सुशासन में बाधा के तौर पर नहीं देखें! 'राजनीतिक हस्तक्षेप' और 'अनुचित हस्तक्षेप' में अंतर स्पष्ट करते हुए मोदी ने कहा था कि इनमें से एक व्यवस्था के लिए ‘अनिवार्य और अपरिहार्य’ है वहीं दूसरे से व्यवस्था ‘नष्ट’ हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने सिविल सर्विस डे पर अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आगे बढ़ने में नौकरशाही मिजाज और राजनीतिक हस्तक्षेप की अकसर बाधक के तौर पर चर्चा की जाती है। जबकि, लोकतंत्र में, नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप साथ-साथ चलते हैं। यह लोकतंत्र की विशिष्टता है। अगर हमें इस देश को चलाना है, तो हमें अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। लेकिन, राजनीतिक हस्तक्षेप अनिवार्य और अपरिहार्य है अन्यथा लोकतंत्र काम नहीं कर पाएगा।
  सुप्रीम कोर्ट ने भी 2013 के अपने एक अहम फैसले में कहा था कि नौकरशाहों के आए दिन होने वाले तबादलों की परंपरा को खत्म किया जाए। उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए उनका कार्यकाल सुनिश्चित करना चाहिए! राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण ज्यादातर नौकरशाहों के कामकाज में गिरावट आती है। इसलिए जरूरी है कि नौकरशाहों की तैनाती एक निश्चित अवधि के लिए की जाए। कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य था, क्योंकि देश की शीर्ष अदालत ने एक बार फिर देश के राजनीतिक नेतृत्व को उनके कर्त्तव्यों की याद दिलाई! नौकरशाही के कामकाज में सुधार की सलाह देते हुए न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा था कि नौकरशाहों की नियुक्ति, स्थानांतरण और उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई को नियंत्रित करने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि जब तक संसद कानून नहीं बनाती है, तब तक अदालत के दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा। अदालत ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों से कहा है कि वह नौकरशाहों का कार्यकाल तय करने के लिए तीन महीनों के भीतर दिशानिर्देश जारी करें। जबकि, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को शीर्ष नौकरशाहों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रोमोशन और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई आदि की प्रक्रिया तय करने के लिए सिविल सर्विस बोर्ड बनाने का निर्देश दिया था! लेकिन, तीन साल से ज्यादा वक़्त बीत जाने पर भी सर्वोच्च अदालत के निर्देशों को अनदेखी ही की गई!
  भारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही की भूमिका क्या है? राजनीतिक नेतृत्व, जन प्रतिनिधियों और मंत्रियों के साथ नौकरशाहों का संबंध क्या है? क्या इस समय जो रिश्ता है, वह बरकरार रहना चाहिए या उसमें बदलाव की जरूरत है? ऐसे सवाल हमेशा उठते रहे हैं! देखा भी गया है कि ईमानदार और अपनी आत्मा की आवाज पर काम करने वाले अफसरों को अच्छे काम का ईनाम तबादले के रूप में मिलता है। ऐसे कई मामले सामने आए, जब ईमानदार अफसरों को बार-बार तबादले झेलने पड़े हैं। कटनी के बहाने नौकरशाही और नेताओं के बीच रिश्ते का सवाल एक बार फिर उभरा है। जबकि, लोकतंत्र में नौकरशाही को सरकार का 'फौलादी फ्रेम' कहा जाता है। सरकारें तो बदलती रहती हैं, नौकरशाही स्थिर रहती है। क्योंकि, नौकरशाही का काम कानून के दायरे में सरकार की नीतियों और योजनाओं को लागू करना है। लेकिन, सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों  गिरावट के साथ ही नेताओं और अफसरों के बीच का रिश्ता भी बदलता गया! अफसरों की निष्ठा सरकार के प्रति है, किसी दल विशेष के प्रति नहीं! क्योंकि, आज यदि एक दल सत्ता में है तो कल वही विपक्ष में हो सकता है। यही कारण है कि ईमानदार नौकरशाह राजनीतिक रूप से तटस्थ रहते हैं। लेकिन, सामान्यतः ऐसा होता नहीं है! चंद नौकरशाह ने तो अपने जमीर को बरक़रार रखा। पर, ऐसे भी कम नहीं हैं, जिन्होंने बहती गंगा में हाथ धोना ही बेहतर समझा! नतीजा ये हुआ कि उन पर राजनीति का वरद हस्त काबिज हो गया। जबकि, ईमानदारी से अपना कर्त्तव्य निभाने वाले गौरव तिवारी जैसे अफसरों को तबादले का दंश झेलना पड़ता है!  
----------------------------------------------------------------------------

Sunday, January 8, 2017

ख्वाबों की सौदागरी है रियलिटी शो

- हेमंत पाल 
   एक वक़्त था जब टीवी पर मनोरंजन के लिए ख़बरें, पुराने फिल्में गाने, कॉमेडी शो और सप्ताह में एक फिल्म दिखाई जाती थी। रात को दस बजे टीवी के कार्यक्रम बंद हो जाते थे। लेकिन, आज टीवी चौबीसों घंटे मनोरंजन परोसता है। सीरियल, फिल्मों और फ़िल्मी गानों से ज्यादा टीवी पर देखे जाने वाले कार्यक्रम हैं रियलिटी शो! प्रचारित किया जाता है कि ये वास्तविक होते हैं! कहने को ये रियलिटी हों, पर सबकुछ पटकथा जैसा लगता है और होता भी है। एंकर की मस्ती, जजों की टिप्पणी और प्रतियोगियों के परफॉरमेंस सबकुछ पहले से तय होता है। रियलिटी शो की काल्पनिक दुनिया को दर्शक वास्तविक समझ लेते हैं और उसी में खो जाते हैं। 
    दरअसल, टीवी के परदे के ये रियलिटी शो प्रदर्शन का मंच मुहैया कराने वाला बाजार बन गए हैं। अब तो प्रतियोगियों को डांस और गायन और दूसरे हुनर सिखाने के लिए स्कूल भी खुल रहे हैं। रियलिटी शो में हिस्सा लेने की तैयारियों के बहाने खड़े हो रहे नए बाज़ार का दायरा शहरों से लेकर कस्बों तक फैल गया। बीते दस सालों में देशभर में हजारों स्कूल खुल चुके हैं। जहाँ रियलिटी शो के लिए प्रतियोगी तैयार किए जाते हैं। टीवी आज हर घर में है। युवा अपनी प्रतिभा को बड़े मंचों तक ले जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कोई सही राह दिखाने वाला नहीं! इस कारण सिखाने वालों की बाढ़ सी आ गई! वास्तव में तो ये रियलिटी शो ख्वाबों का कारोबार कर रहे हैं। इन कार्यक्रमों के जरिए मिलती लोकप्रियता और धन को भुनाने का खेल महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक चल रहा है। परेशानी सिर्फ इतनी है कि कई बार बच्चों व युवाओं को भ्रम में रखकर सिर्फ धंधा किया जा रहा है।
  बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि क्या रियलिटी शो की तैयारियों के नाम पर सिर्फ कारोबार किया जा सकता है? क्या बच्चों के मासूम ख्वाबों का दोहन करना उचित है? और क्या सिर्फ सिखाकर किसी बच्चे को रियलिटी शो का विनर बनाया जा सकता है? इन सवालों का सीधा जवाब नहीं है। लेकिन, यह मानने वाले कम नहीं है कि तैयारियों के नाम पर न सिर्फ कारोबार हो रहा है बल्कि बच्चों और युवाओं को भरमाया जा रहा है। छोटे शहरों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, लेकिन उसे सही दिशा नहीं मिल पाती। सिखाने वाले उन्हें दिशा दे सकते हैं, लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है। कोई भी ट्रेनर कभी बेसुरे गायक से यह नहीं कहता कि तुम अपना वक्त बर्बाद मत करो! नाम  लोकप्रियता की चाह कच्ची उम्र में बच्चों को जीवन की राह से भटका देती हैं। वे सिर्फ और सिर्फ रियलिटी शो का हिस्सा बनने को बेकरार दिखते हैं, और जब उन्हें होश आता है, काफी देर हो चुकी होती है। इसमें उसके परिवार का भी कम दोषी नहीं है। 
  आज कई स्कूल कॉमेडी सिखाते हुए मिल जाएंगे। लेकिन, क्या कॉमेडी जैसी विधा सिखाई जा सकती है? फिर, टेलीविजन पर कॉमेडी के रियलिटी शो में हम जो देखते हैं,वह कई री-टेक के बाद हुई परफारमेंस होती है। डांस और गाने तक तो रियलिटी शो ठीक हैं, पर ऐसे शो के लिए प्रतियोगियों को पूरी तरह तैयार करना संभव नहीं है, जब तक प्रतियोगी में नैसर्गिक प्रतिभा न हो! क्योंकि, जब तक प्रतियोगी खुद सुर में न हो, उसे गाने की विधा नहीं सिखाई जा सकती! पर ये उन बच्चों के परिजनों को भी सोचना चाहिए जो बच्चों के जरिये खुद फैमस होने के सपने देखने लगते हैं, और कच्ची उम्र में ही अपने बच्चे का आत्मविश्वास तोड़ देते हैं!     
------------------------------------------------------------------------------------

भाजपा की चाल, चरित्र और चेहरा सबसे अलग कैसे?


- हेमंत पाल 

    भारतीय जनता पार्टी कि राजनीति की अपनी अलग धारा है। भाजपा के नेता अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं और देश की जनता को जो सलाह देते हैं, उस पर कभी खुद अमल नहीं करते! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी के जिस चाल, चरित्र, चेहरे और शुचिता की बात करते हैं, उसका पालन उनकी ही पार्टी में नहीं हो रहा! पार्टी जिस आदर्शवाद की दुहाई देती है, उस नजरिए से तो भाजपा शासित राज्यों को देश के आदर्श राज्य होना था, पर इस नहीं है? मध्यप्रदेश के संदर्भ में ही देखा जाए तो यहाँ 13 सालों से भाजपा की सरकार है, फिर भी रामराज्य जैसा नजारा तो हरगिज नहीं है! अफसरशाही, भ्रष्टाचार, अपना आदमीवाद, बढ़ते अपराध, भ्रष्ट राजनीति, भ्रष्ट नौकरशाही समेत वो सारी खामियां हैं, जो किसी गैर-भाजपा शासित राज्य में भी होगी! यदि भाजपा वास्तव में देश में रामराज्य की कल्पना कर रही है, तो इसकी शुरुआत अपने ही घर से होना चाहिए! कई गैरकानूनी काम धंधों के अलावा नोटबंदी के इस दौर में पकडे जाने वालों में भाजपा के नेता भी तो हैं!

   एक जमाना था जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता सीना ठोंककर अपनी चाल, चरित्र और चेहरा सबसे अलग होने का दावा करते थे। राजनीति में शुचिता के झंडाबरदार होने का दम भरते थे। कांग्रेस को भ्रष्टाचार की ‘गंगोत्री’ बताते थे। लेकिन, धीरे-धीरे स्थितियां बदल गई। भाजपा खुद भ्रष्टाचार के आरोपों में सने अपने नेताओं के बचाव में फूहड़ तर्क देती दिखाई देती है। कानूनी कमजोरियों की आड़ ली जाती है। सबूत की खामी को बचाव की ढाल बनाया जाता है। जबकि, देखा जाए तो राजनीति तर्कों से तर्क नहीं, विश्वसनीयता से चलती है। जो मतदाता जिस नेता को अपना प्रतिनिधि चुनता है, उसके भरोसे पर खरा उतरना जरूरी है। जन-विश्वास की कसौटी पर कसा जाए तो भाजपा के अधिकांश नेताओं के दामन उजले दिखाई नहीं देते! भोपाल में ही आयकर विभाग ने भाजपा नेता और आवास संघ के पूर्व अध्यक्ष सुशील वासवानी के यहाँ छापा मारा। वासवानी के खिलाफ लंबे समय से आय से अधिक संपत्ति रखने की शिकायत थी। वासवानी पर आरोप है कि उन्होंने नोटबंदी के बाद कोऑपरेटिव बैंक के अपने खाते में आय से अधिक कैश जमा किया था। नोटबंदी के बाद बैंक के जरिए बड़े पैमाने पर कालेधन को सफेद किया गया है। वासवानी की पत्नी किरण वासवानी बैरागढ़ स्थित महानगर बैंक की चेयरमैन हैं।
   राजनीति में सदैव नैतिकता की दुहाई देने वाला दल (भाजपा) और उसका मार्गदर्शक संगठन (आरएसएस) नफे-नुकसान का हिसाब कर कदम उठा रहा है। इस गणित से मौजूदा भाजपा नेतृत्व को लगता है कि भाषाई जुगाली से जनता को भरमाया जा सकता है, तो ये शायद उनकी गलती होगी! भाजपा के पुराने नेता भी मानते हैं कि ये अंतर्द्वंद्व का दौर मानते हैं। पुरानी भाजपा में कार्यकर्ताओं में मतैक्य था, अब गुटबाजी है। जनसंघ के समय सेवा, सत्कार और समाज कल्याण की भावना सबसे ऊपर थी। तब कार्यकर्ता पार्टी के कार्य को मजदूरी नहीं मानता था। आज कार्यकर्ता पैसे और पद की इच्छा पहले रखता है। अपने खून-पसीने से पार्टी को सींचने वाले गरिमामय लोगों को अपनी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं से अपमानित होना पड़ता है। मूल कार्यकर्ता की अवहेलना हो रही है। यह भी विचित्र है कि सालों से जो नेता वंशवाद को कोसते रहे वे आज भाजपा में उन्हीं के पालक-पोषक मौजूद हैं।
 जनसंघ के समय से 90 के दशक तक के कार्यकर्ता जो काम करते थे, वो आज के कार्यकर्ता नहीं कर सकते। पहले दो जोड़ी धोती-कुर्ता और एक साइकल से व्यक्ति समाज और देशसेवा में जुटता था। अब तो राजनीति में आने के कुछ ही दिनों में महंगी गाड़ी में सवारी का लोभ उभरने लगता है। नए कार्यकर्ताओं में त्याग और समाजसेवा का अभाव साफ़ नजर आता है। भाजपा का देशसेवा और हिंदुत्व का एजेंडा तो कभी का इतिहास में कहीं खो चुका है। अब कार्यकर्ता और नेता पुराने नेताओं को पहचाने तक नहीं। वे भले ही बाद में आए हों, लेकिन जिन्‍होंने पार्टी को सींचा और यहां तक पहुंचाया उन्हें तो याद रखना चाहिए। पार्टी में जिस शुचिता, ईमानदारी और नैतिकता को मूल मंत्र माना जाता था, वो कहीं पीछे छूट गया। अटल बिहारी बाजपेई की सरकार एक वोट से गिर गई, लेकिन उन्होंने वोट नहीं खरीदा! आज पार्टी के नेता पुराने सिद्धांतों को दीवार पर लटकाकर तो रखते हैं, लेकिन अपनाते नहीं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद चाटुकारों और अवसरवादियों का बोलबाला है। पुराने कार्यकर्ता उपेक्षित हैं।
  भाजपा आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांतों के पालन का भी दावा करती है। उसका कहना है कि देश में करीब 1600 पार्टियां हैं, लेकिन बहुत कम आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांतों पर काम करती हैं। दावे के मुताबिक भाजपा ऐसी अकेली पार्टी है, जहां आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांत का प्रभावी तरीके से पालन होता है। जहां जमीनी स्तर से जुड़ा कार्यकर्ता भी अपनी कड़ी मेहनत और लगन के बल पर शीर्ष पद पर पहुंचने की सोच सकता है। भाजपा में पद पाने के लिए किसी को परिवार विशेष में जन्म लेने की जरूरत नहीं! पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता जो लगन से काम करता है सत्ता और संगठन में शीर्ष पद पर पहुँच सकता है। लेकिन, क्या ये बात संजय पाठक के संदर्भ में सही साबित होती है? पाठक कांग्रेस से भाजपा में आए और प्रदेश सरकार में मंत्री बन गए। वे प्रदेश सरकार में स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री हैं। उनके पास सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय संभालते हैं, पर उनका खुद का कारोबार न सूक्ष्म है, न लघु और न मध्यम! वे भारी भरकम कारोबार वाले आसामी है। वे मंत्रिपरिषद के सबसे रईस मंत्री भी हैं। विधानसभा चुनाव के समय ही उन्होंने अपनी संपत्ति 141 करोड़ रुपए घोषित की थी। क्या ये सरकार और पार्टी संगठन में जमीनी कार्यकर्ताओं की भारी उपेक्षा नहीं है।
  आज भ्रष्टाचार के कटघरे में भले ही अफसरों को खड़ा किया जाता हो! पर, सच ये है कि पूरी व्यवस्था ही चौपट है। प्रदेश के सरकारी दफ्तरों के चपरासी से लगाकर बाबू तक के हाथ आरोपों से सने हुए हैं! सरकारी बाबुओं और राजस्व के सबसे छोटे कर्मचारी पटवारियों तक के यहाँ छापों में करोड़ों रुपए मिल रहे हैं! पकडे गए नोट गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली सरकारी एजेंसियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान हजारों करोड़ रुपए की काली कमाई उजागर की! इन छापों से यह बात स्पष्ट हो गई कि सरकारी व्यवस्था का पूरा अमला ही भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के घर में नकदी और जेवरात रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। बेनामी संपत्ति का तो अम्बार लगा है। प्रदेश में भ्रष्टाचार के किस्सों की कमी नहीं है! हर किसी के पास एक नई कहानी है। बड़े अफसर से लेकर पटवारी तक करोड़पति बन गए!
  आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में ऐसी कंपनियों के नाम सामने आए हैं, जिन्होंने हजारों करोड़ रुपयों को काले से सफ़ेद में बदल दिया! ये कंपनियां काली कमाई को नकद में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। आयकर विभाग का मानना है कि कई मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर अपने मातहतों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। दरअसल, नौकरशाहों की पहचान कारपोरेट घराने के प्रतिनिधियों की रह गई है। इस प्रतिनिधि को वेतन तो जनता की कमाई से मिलता है, लेकिन वह काम किसी बड़े घराने के लिए करता है!
  उद्योगपतियों की फाइलें सरकारी दफ्तरों में तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन, किसी परेशान की पेंशन की फाइल पर से धूल तक नहीं झड़ती! इसलिए कि ज्यादातर लोग व्यवस्था का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते! उन्हें ऐसा न करने और व्यवस्था से मिलकर चलने की सलाह ही ज्यादा मिलती है। जो व्यवस्था से लड़ने की कोशिश भी करते हैं, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, जहां उसकी बात सुनी जाए! क्या ये सच नेताओं से छुपा है? इस मसले पर सरकार से नाराज चल रहे बाबूलाल गौर की टिप्पणी सटीक है कि दोष घोड़े का नहीं उसका है जिसके हाथ में घोड़े की नकेल है! नौकरशाही प्रशासक की इच्छा शक्ति के आधार पर ही काम करती है। यह कहना उचित नहीं है कि अफसर सुनते नहीं! उनसे काम कराने का तरीका आना चाहिए। यानी घोड़े का दोष नहीं है, आपको अच्छी घुड़सवारी आनी चाहिए। घोड़ा कभी-कभी दुलत्ती भी मारता है तो उसे कंट्रोल करने का तरीका आना चाहिए।
------------------------------------------------------------------------

Sunday, January 1, 2017

छोटे परदे के बड़े-बड़े दर्द

- हेमंत पाल 

   देश में टेलीव‌िजन के अवतरण को 50 साल से ज्यादा हो गए! करीब डेढ़ दशक तो निजी मनोरंजन चैनलों को हो गए। इस दौरान सैकड़ों सीरियल दर्जनों चैनलों पर दिखाए गए! टीवी का एक ऐसा स्वर्णिम दौर भी आया जब 'रामायण' और उसके बाद बीआर चोपड़ा की 'महाभारत' देखने को दर्शक इतने लालायित रहते थे सडकों पर अघोषित कर्फ्यू जैसा माहौल हो जाता था। टीवी पर आने वाले राम और सीता के चरित्रों की पूजा की जाती थी। ये वही वक़्त था जब इन धार्मिक सीरियलों के प्रसारण पर टीवी की आरती उतारी जाती थी। रविवार को देर तक सोने वाले लोग भी 'रंगोली' देखने के लिए नींद का त्याग करने से नहीं हिचकते थे। तब शनिवार और रविवार की शाम को फ़िल्म का इंतजार किसे नहीं होता था! लेकिन, उसके बाद टीवी का मनोरंजन स्तर पारिवारिक षड्यंत्रों वाले सीरियलों में फंसकर रह गया। रिश्तों में साजिशों का छोंक लगाकर गढ़ी गई कहानियों पर बने सीरियल ही मनोरंजन बनते हैं। मनोरंजन का दूसरा फार्मूला बने रियलिटी शो! इनमें भी नाच, गाने वाले शो ही ज्यादा हैं। 

  टीवी के याद रखने लायक कार्यक्रम तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं! टीवी के दर्शक भी बंटें हुए हैं, इसलिए ये पता नहीं चलता कि दर्शकों की पसंद क्या है? टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट) का फार्मूला टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता दर्शाता है। पर, उसे भी सटीक आकलन नहीं माना जा सकता! आशय ये कि दर्शक क्या देखना चाहता है, ये कोई नहीं जानता! टीवी सीरियल के इतिहास में हम लोग, बुनियाद, ब्योमकेश बख्‍शी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, ये जो है जिंदगी, नीम का पेड़, कच्ची धूप, विक्रम और बेताल, अलिफ लैला, मालगुडी डेज, भारत एक खोज, परमवीर चक्र, रजनी, फौजी, चित्रहार और रंगोली को कौन भूल सकता है? पर, उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि कोई भी कार्यक्रम दर्शकों के दिल में ये जगह नहीं बना पाया? बिग बॉस, भाभी जी घर पर हैं, बालिका वधु, लॉफ्टर शो, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल को दर्शकों ने पसंद तो किया, पर इनका सुरूर स्थाई नहीं रहा! रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, चाणक्य, जंगल बुक, सास भी कभी बहू थी और कौन बनेगा करोड्पति जैसे कार्यक्रमों ने जरूर दर्शकों बांधे रखा! टीवी के मनोरंजन के उस दौर की तुलना आज से नहीं की जा सकती! इसलिए कि नई पीढ़ी के लिए सोशल मीडिया भी मनोरंजन का बड़ा माध्यम बन गया है।
  फिल्म और टीवी के मनोरंजन में सबसे बड़ा फर्क ये है कि सीरियलों की कहानियाँ और किरदार तभी तक दर्शकों की नजर में चढ़े रहते हैं, जब तक वो शो ऑनएयर होता है। शो के ख़त्म होते ही दर्शक उन्हें भुला देते हैं। लेकिन, दूरदर्शन के दौर में जो सीरियल आते थे, उन्हें लोग आज भी नहीं भूले! इसलिए कि उनका कथानक भारतीय परंपरा, जीवन शैली, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा रहता था! 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे शो धर्मग्रंथों पर आधारित थे तो 'चाणक्य' और 'चंद्रकांता संतति' को पसंद करने वालों की भी बड़ी संख्या थी! 'रजनी' जैसे सीरियल ने एक तरह से उपभोक्ता आंदोलन को जन्म दिया तो 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' स्वस्थ्य हास्य था! 'शक्तिमान' जहाँ बच्चों का पसंदीदा शो था, तो 'शांति' ने परिवारिक रिश्तों और एक औरत की कहानी को इस तरह से स्‍थापित किया कि आज के टीवी शो उसी लकीर पर चल रहे हैं। 
  अब तो ये सवाल उठने लगा है कि टीवी मनोरंजन का भविष्य क्या होगा? क्योंकि, धीरे-धीरे फिल्मों के लगभग बड़े कलाकार टीवी पर दिखाई देने लगे! शायद ही कोई ऐसा फिल्म एक्टर होगा, जिसने इस परदे से परहेज किया हो! ऐसे में मनोरंजन के इन दोनों माध्यमों में अंतर कैसे किया जाए? अमिताभ बच्चन से लगाकर सलमान खान और माधुरी दीक्षित से शिल्पा शेट्टी तक ने रियलिटी शो जरिए छोटे परदे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। फिल्मों से बाहर हुए कलाकार भी सीरियलों में नजर आने लगे! लेकिन, सिर्फ अमिताभ 'कौन बनेगा करोड़पति' और सलमान 'बिग बॉस' से अपना असर छोड़ने में कामयाब हुए हैं!  देखा जाए तो एक तरह से छोटे परदे के लिए ये भी खतरा ही है! दर्शक जिन चेहरों को फिल्मों से खारिज कर देते हैं, वही टीवी पर नजर आने लगेंगे तो मनोरंजन नई हवा का क्या होगा? दूसरे दर्दों साथ ये भी तो टीवी के लिए दर्द ही है! यदि ऐसा हुआ तो टीवी एक बार फिर 'बुद्धू बक्सा' साबित होगा!
---------------------------------------------------------