Friday, June 25, 2021

फिल्म संगीत में शास्त्रीयता का तड़का!

 - हेमंत पाल

    ज यदि किसी से पूछा जाए कि उन्हें कौनसा संगीत पसंद है, तो निश्चित रूप से जवाब में कोई फ़िल्मी गीत ही सुनाई देगा! जवाब गलत नहीं है, क्योंकि ये फिल्म संगीत की लोकप्रियता है कि संगीत को फ़िल्मी गीतों का पूरक मान लिया गया। फ़िल्मी गीत लोगों के दिलों दिमाग में इस तरह रच-बस गए कि उन्हें ही असली संगीत समझा जाने लगा! जबकि, हमारे देश में शास्त्रीय संगीत को बहुत ऊंचा दर्जा मिला है। संगीत के घरानों और संगीतज्ञों की परंपरा बहुत पुरानी है। सामान्यतः पक्के शास्त्रीय रागों का फ़िल्मी गीतों से सीधा वास्ता तो नहीं होता। लेकिन, इन गीतों में शास्त्रीय संगीत का दखल हमेशा ही रहा है। वास्तव में फिल्म संगीत भी शास्त्रीय संगीत का ही अंग है, पर उसने शास्त्रीयता की बंधन से रास्ता निकालकर उसे सुगम बना दिया। शास्त्रीय संगीत पहले राज दरबारों की रौनक था। पर, फिल्म संगीत के विकसित होने शास्त्रीय संगीत का दायरा सिकुड़ गया, पर लोकप्रियता नहीं घटी! इसके बावजूद कालजयी फिल्मों के गीत शास्त्रीय संगीत की बंदिशों में ही रचे गए!  
    सिनेमा संगीत में शास्त्रीय संगीत की परम्परा का निर्वहन नहीं होता। यह एक तरह से मुक्त संगीत होता है। इसमें शास्त्रीय संगीत की शैली और ताल का अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग किया जाता है। यही स्थिति वाद्य यंत्रों के साथ भी होती है। कई फ़िल्मी गीतों में ताल के साथ तबले का उपयोग देखा गया, जबकि तबला उत्तर भारतीय वाद्य है। कर्नाटक संगीत में ताल के साथ मृदंगम या पखावज का उपयोग होता है। अब तो शास्त्रीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत के साथ फ्यूजन बनाने का प्रयोग किया जाने लगा है। शास्त्रीय संगीत से जुड़े गीत भी आजकल बेहद चर्चित हो रहे हैं। मोरा पिया मोहे बोलत नाही (राजनीति), अलबेला सजन आयो री (हम दिल दे चुके सनम), आओगे जब तुम साजना (जब वी मेट), ओरे पिया (आजा नच ले) जैसे गीत शास्त्रीय संगीत की ही दें हैं। फिल्मों में जो भी नामचीन संगीतकार हुए हैं, सभी ने किसी न किसी गुरु के सानिध्य में संगीत की शिक्षा ली है। एसडी बर्मन, मदन मोहन, कल्याणजी-आनंदजी, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की मूल संगीत शिक्षा शास्त्रीय ढंग से ही हुई थी। संगीत स्कूलों से निकले जानकार भी संगीतकार बने। लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कॉलेज से निकले कई गुणी संगीतकारों ने फिल्मों में संगीत दिया। उनमें सरस्वती देवी और मदन मोहन का नाम उल्लेखनीय है। 
     'बैजू बावरा' के साथ संगीतकार नौशाद ने हिंदी फिल्म गीतों में एक शास्त्रीय संगीत का एक नया रूप पेश किया था। शास्त्रीय संगीत से सजी 1952 में आई इस फिल्म की सफलता में संगीत का बड़ा हाथ था। तब नौशाद रतन, अनमोल, शाहजहाँ और 'मदर इंडिया' जैसी फिल्मों में संगीत के कारण पहचाने जाने लगे थे। 'बैजू बावरा' के गीतकार शकील बदायुनी भी नौशाद की खोज थे, लेकिन, इस फिल्म के लिए उन्हें उर्दू छोड़ना पड़ी और शुद्ध हिंदी में गीत लिखे। गीतों के साथ भजन 'मन तड़पत हरि दर्शन कोई आज' भी संगीतबद्ध किया गया था। नौशाद ने 'बैजू बावरा' के लिए डीवी पलुस्कर व उस्ताद अमीर खां की आवाज का भी इस्तेमाल किया था। नौशाद ने शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल कर कई अच्छे फ़िल्मी गीत रचे। 1972 में 'पाकीजा' के संगीतकार गुलाम मोहम्मद के निधन के बाद नौशाद ने ही इस फिल्म का संगीत पूरा किया था। 'अंदाज' और 'दुलारी' जैसी फिल्मों के जरिए लता मंगेशकर के करियर को बढ़ाने में उनकी भूमिका रही। वे पहले संगीतकार थे, जिन्होंने फिल्म संगीत में बांसुरी, सितार, सारंगी का एक साथ इस्तेमाल किया। 
    मूक फिल्मों को आवाज मिलने के बाद संगीत का सिलसिला तेजी से चला। इसका असर ये हुआ कि फिल्मों की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर शास्त्रीय संगीत के कई दिग्गजों ने भी फिल्म संगीत में योगदान दिया। विख्यात बांसुरी वादक पन्नालाल घोष अपने करियर के शुरूआती दौर में फिल्मों से जुड़े रहे। 1957 में आई फिल्म ‘बसंत बहार’ में लता मंगेशकर के गाए गीत 'मैं पिया तेरी तू माने या न माने, दुनिया जाने तू जाने या न जाने' में पन्नालाल घोष को बांसुरी बजाने के लिए दिल्ली से बंबई लाया गया था। उनकी बांसुरी ने इस गीत को अमर बना दिया। सरस्वती देवी के संगीतकार बनने की कहानी भी इससे अलग नहीं है। हिमांशु राय के कहने पर वे फिल्मों में संगीत देने के लिए राजी हुईं थीं। वे शास्त्रीय गायन में माहिर थीं, पर उन्हें प्रसिद्धि मिली सिनेमा की पहली महिला संगीतकार के रूप में! 'अछूत कन्या' और 'जीवन नैया' में सरस्वती देवी के संगीत ने जो किया, वो इतिहास बन गया। 'गूंज उठी शहनाई' के गीत 'तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं' में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने जो मधुरता घोली, उसे आज भी उसे सुनने वाले महसूस करते हैं। 
     उस्ताद अल्ला रक्खा खां ने 50 के दशक में करीब 20 फिल्मों में संगीत दिया। इनमें 'सबक' और 'बेवफा' चर्चित हुई। सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खां ने 1952 में फिल्म 'आंधियां' का संगीत दिया। विख्यात सितार वादक पं रविशंकर ने 'धरती का लाल' में पहली बार संगीत दिया था। चेतन आनंद की फिल्म 'नीचा नगर' में भी रविशंकर का ही संगीत गूंजा था। 1948 में उदय शंकर ने नृत्य नाटिका पर आधारित फिल्म ‘कल्पना’ बनाई थी। तय है कि भाई की फिल्म में रविशंकर ही संगीत देंगे! सत्यजीत राय की बांग्ला फिल्म पाथेर पांचाली, अपूर संसार और उनकी पहली हिंदी फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' का संगीत भी उन्होंने ही दिया। 1960 में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'अनुराधा' और 'गोदान' की संगीत रचना भी रवि शंकर की ही थी। बांसुरी वादक पं हरिप्रसाद चौरसिया ने संतूर वादक शिवकुमार शर्मा के साथ जोड़ी बनाकर शिव-हरि के नाम से 1982 में यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' में संगीत दिया था। बाद में इसी बैनर की डर, लम्हे और 'चांदनी' में भी इसी जोड़ी ने संगीत दिया। ये सभी फिल्में अपने संगीत माधुर्य के कारण भी लोकप्रिय हुई। 
   अमीर खां ने 1955 में वी शांताराम की फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' में वसंत देसाई के संगीत निर्देशन में एक गीत भी गाया था। 1960 की 'मुगल-ए-आजम' के एक गीत के लिए नौशाद ने बड़े गुलाम अली खां तक को राजी कर लिया था। पं भीमसेन जोशी ने 1957 में 'बसंत बहार' में मन्ना डे के साथ एक गीत गाने के बाद 1958 में 'तानसेन' और 1985 में 'अनकही' के लिए भी गीत गाए। 1973 में 'बीरबल माय ब्रदर' में उनकी पंडित जसराज के साथ जुगलबंदी बेहद पसंद की गई थी। वी शांताराम की फिल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' में किशोरी अमोनकर ने एक गीत गाया था। प्रकाश झा की फिल्म 'आरक्षण' में अलका याज्ञनिक के साथ पं छन्नूलाल मिश्रा ने 'सांस अलबेली' में आवाज दी थी।
     फिल्मी गीतों में रागों पर आधारित गीतों की बात करें, तो इनमें राग भैरवी का भरपूर उपयोग हुआ। छोड़ गए बालम (बरसात), फुल गेंदवा न मारो (दूज का चाँद), लागा चुनरी में दाग (दिल ही तो है) और दुनिया बनाने वाले (तेरी कसम) भी भैरवी की दें थे। 'बरसात' फिल्म के तो सभी गीत भैरवी पर आधारित थे। 'बैजू बावरा' का गीत तू गंगा की मौज में, केएल सहगल का गाया गीत बाबुल मोरा नैहर, फिल्म 'शोला और शबनम' का रफी-लता का गीत 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम' से लगाकर एआर रहमान के फिल्म 'दिल से' के गीत 'जिया जले जान जले' तक सभी गीत राग भैरवी में रचे गए। इसके बाद राग शिवरंजनी में भी कई संगीतकारों ने गीत बनाए। शंकर-जयकिशन ने बहारो फूल बरसाओ, जाने कहाँ गए वो दिन, संसार है एक नदिया जैसे गीतों की रचना की। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन, हेमंत कुमार ने कहीं दीप जले कहीं दिल और आरडी बर्मन ने मेरे नैना सावन भादो जैसे सुमधुर गीत दिए। जाने कहाँ गए वो दिन (मेरा नाम जोकर), ओ साथी रे (मुकद्दर का सिकंदर), तेरे मेरे बीच में (एक दूजे के लिए) और 'संगम' का गीत ओ मेरे सनम भी शिवरंजनी की ही देन है। राग बागेश्वरी भी फ़िल्मी गीतों का प्रिय राग रहा। 'कुदरत' का गीत तूने ओ रंगीले और 'मधुमति' का आ जा रे परदेसी भी इसी राग पर आधारित थे। 
   रागों और फ़िल्मी गीतों का लम्बा साथ रहा है। इनमें राग बिहाग, राग भैरव, भीमपलासी, राग भूपाली, राग दरबारी कान्हड़ा, राग देस, राग जयजयवंती, राग जौनपुरी, राग काफी और राग केदार प्रमुख हैं, जिन पर रचे गए गीत लोकप्रिय रहे। भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों की अच्छी खासी श्रृंखला फिल्म संगीत में मिलती है। राग यमन में भी फिल्मी गीतों की संख्या बहुत है, जिनकी लम्बी सूची बनाई जा सकती है। फिल्मी गीतों में ज्यादातर यमन कल्याण का प्रयोग देखने मिलता है। गीत चाहे पुरानी फिल्मों के हों या नई फिल्मों के यमन कल्याण राग का उपयोग हर कालखंड में हुआ है। फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत का शुरू से ही होता रहा है। लेकिन, बदलते दौर में पाश्चात्य संगीत की अलग-अलग शैलियों ने फिल्म संगीत पर अपना असर डाला और फिल्म संगीत में बदलाव होता रहा! लेकिन, शास्त्रीय संगीत की मूल अवधारणा जो पहले थी, वह आज भी कायम है। यही वजह है कि आज रचे जाने वाले पाश्चात्य शैली पर आधारित गीत ज्यादा दिन सुनने वालों  पर नहीं चढ़ते! वे सिर्फ उत्तेजना जगाने के लिए होते हैं और युवाओं की पसंद माने जाते हैं। 
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Thursday, June 17, 2021

मुलाकातों के दौर में सत्ता परिवर्तन के कयासों की रिसन!

    राजधानी भोपाल में पिछले दिनों अच्छी खासी राजनीतिक हलचल रही। भाजपा की राजनीति को उंगलियों पर नचाने वाले कई बड़े नेता भोपाल पहुंचे और यहाँ प्रदेश के नेताओं से मेल-मुलाकात की। बिना किसी संदर्भ और प्रसंग के होने वाली इन मुलाकातों को लेकर कई तरह के कयास लगाए गए! उनमें से एक यह भी था कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा को बदला जा रहा है! राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। लेकिन, मध्यप्रदेश में अभी सत्ता परिवर्तन के लिए सही वक़्त नहीं आया! भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल आने के बाद अफवाहों की धुंध लम्बे समय तक बनी रही। पर, न तो ऐसा कुछ हुआ और न होना था। लेकिन, सोशल मीडिया पर गुणा-भाग लगाने वालों ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदला जरूर जाएगा, पर अभी सही वक़्त नहीं आया!      
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- हेमंत पाल 

   राजनीति की अपनी एक धारा है। ये धारा जरा भी बदली तो कयास लगाने वालों के कान खड़े हो जाते हैं। उनके अनुमानों के घोड़े दिमाग के अस्तबल से कूदकर नए-नए समीकरण गढ़ने लगते हैं। कुछ ऐसा ही पिछले दिनों भोपाल में देखने में आया। पश्चिम बंगाल चुनाव में कई महीनों से व्यस्त चल रहे भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भोपाल पहुंचे तो यहाँ मंत्रियों और नेताओं से मिले, जो औपचारिक मुलाकातें थी। इसी के आसपास राज्यसभा सदस्य और प्रदेश में सत्ता बदल के सूत्रधार रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी भोपाल पहुंचे और मुख्यमंत्री समेत प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा समेत कई नेताओं से मिले। इन दो नेताओं के राजधानी आने से कयास लगाने वालों को मौका मिल गया और वे स्वाभाविक मेलजोल के पीछे कारण खोजने में लगे। मीडिया भी पूरे दमखम से सक्रिय हो गया। जबकि, न तो कुछ होना था और न हुआ! किसी के हाथ में नेताओं के बीच बातचीत का कोई सिरा नहीं था! लेकिन, फिर भी सारे अनुमान लगाए गए। इसमें सबसे सशक्त था, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को बदला जाना! पर, कोई ये नहीं बता पाया कि अभी ऐसा करना क्यों जरूरी है! कोरोना संक्रमण के इस दौर में जब सरकार पूरे दमखम से काम कर रही है, उसे बदले जाने का आधार क्या है! दरअसल, ये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर किया गया मीडिया ट्रायल था, और कुछ नहीं!
     फोटो मूक होते हैं, कुछ बोलते नहीं! लेकिन, कयासबाजों ने फोटो के भी मतलब निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी! ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा ने अपने घर भोजन पर बुलाया था, उनकी परोसगारी का फोटो देखकर कई तरह अनुमान लगाए गए। इनमें कुछ कयास थे, सिंधिया का मुख्यमंत्री या पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनना। वीडी शर्मा और सिंधिया के बीच की बातचीत औपचारिक थी, जिसमें सिंधिया समर्थक किसी मंत्री को आमंत्रित नहीं किया गया, इसे लेकर भी टिप्पणियां की गई! जबकि, मेजबान का अधिकार है, कि वो किसे भोजन पर आमंत्रित करे! जब एक ही पार्टी के दो राजनेता अकेले में मिलते हैं, तो निश्चित है कि उनकी बातचीत में राजनीतिक वार्तालाप तो होगा ही, पर वो मुख्यमंत्री बदले जाने को लेकर हो ये जरूरी तो नहीं! लेकिन, जिस तरह मीडिया और सोशल मीडिया पर ख़बरों का बाजार गर्म रहा, ऐसा लगने लगा कि भाजपा नेतृत्व के सामने मध्यप्रदेश का राजनीतिक संकट उबर आया हो, जिसका तत्काल निराकरण किया जाना है! जबकि, ऐसा कुछ नहीं था। देखा जाए तो मध्यप्रदेश में फिलहाल ऐसी कोई पैचीदगी नहीं है, जितनी उसके सामने उत्तर प्रदेश सरकार को लेकर है।   
   इन राजनीतिक अटकलों को प्रदेश सह प्रभारी शिव प्रकाश के भोपाल दौरे से भी बल मिला। लेकिन, जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और संघ को इस मामले में दखल देना पड़ा। बताते हैं कि सभी नेताओं को हिदायत दी गई कि मेल-मुलाकातों को इतना प्रचारित न किया जाए कि उनसे अफवाहों का धुँआ निकलने लगे। ये हिदायत इसलिए दी गई कि सरकार और संगठन को लेकर कुछ नेता और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा गुट नाखुश है। इस राजनीतिक सक्रियता को इसी नजरिए से देखा गया था। अब सत्ता-संगठन के बीच तालमेल की कोशिश की जाने लगी है। वास्तव में मेल मुलाकात की शुरुआत वीडी शर्मा, सुहास भगत और हितानंद शर्मा ने दिल्ली में प्रहलाद पटेल के घर पहुंचकर ही की थी। यह सब ऐसे समय में हुआ जब प्रदेश में एक लोकसभा व तीन विधानसभा सीटों के साथ नगरीय निकाय चुनाव होना है।
     ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल आने को लेकर कयास कुछ ज्यादा ही लगाए गए। वे मुख्यमंत्री से मिले तो निगम-मंडलों में उनके समर्थकों को एडजस्ट किए जाने की संभावनाएं तलाशी जाने लगी। जबकि, इस मुलाकात की ऐसी कोई खबर भी छनकर शायद बाहर नहीं आई कि एजेंडा क्या था! ये मुलाकात इतनी सहज और स्वाभाविक थी, कि न तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने इसे लेकर कोई ट्वीट किया और न इस न इस बारे में कोई बात ही की। ज्योतिरादित्य ने भी मुलाकात पर कोई ट्वीट नहीं किया। राजनीति को अनुमान के आधार पर विश्लेषित करने वालों ने जितनी संभावनाएं आंक रखी थी, ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दिया। क्योंकि, ऐसा कुछ होना भी नहीं था। अफवाहों के इस गुब्बारे की बाद में कैलाश विजयवर्गीय और नरोत्तम मिश्रा ने ये कहकर हवा निकाल दी, कि जो समझा जा रहा है, ऐसा कुछ नहीं है। कैलाश विजयवर्गीय ने प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों को बकवास बताते हुए कहा कि राज्य में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं और रहेंगे। मीडिया कोई भी कहानी बना दे, उसमें कोई दम नहीं है। नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें बकवास है। ये सामान्य मुलाकातें हैं, इन्हें राजनीतिक रंग देना उचित नहीं है। कोविड के मौजूदा दौर में काम कम है, तो एक-दूसरे से मिलकर अपने संबंध मधुर कर रहे हैं। जबकि, नरोत्तम मिश्रा ने इसे व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की देन बताते हुए तंज कसा और कहा कि इस यूनिवर्सिटी का वाईस चांसलर बनने के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं होती।  
   अब सारी संभावनाओं का निष्कर्ष यह है कि यदि फिलहाल मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन के आसार नहीं हैं, तो फिर कब? क्या अगला विधानसभा चुनाव शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ही पार्टी लड़ेगी! देखा जाए तो इस बात के आसार कम हैं! शिवराज सिंह को चुनाव से पहले बदला तो जाएगा, पर अभी सही समय नहीं आया! नेताओं की मेल-मुलाकातों के पीछे भले ही सत्ता परिवर्तन कोई संदर्भ न हो, किंतु भाजपा के बड़े नेता इस संभावना को अच्छी तरह भांप तो रहे हैं। क्योंकि, दमोह उपचुनाव में भाजपा की हार एक बड़ा राजनीतिक हादसा है। सारे संसाधन और ताकत लगाकर भी भाजपा अपने पाले में आए राहुल लोधी को जितवा नहीं सकी। अब सारा दारोमदार निकाय चुनाव पर है कि इसमें भाजपा का प्रदर्शन कैसा रहता है। जिसकी बहुत ज्यादा उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती कि कोरोना काल में लोग जितना परेशान हुए हैं, वो सारा गुस्सा सरकार पर ही निकलेगा! 
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जंगल के साथ परदे से भी जानवर गुम!

- हेमंत पाल
    
    किसी भी फिल्म की जान उसके नायक और नायिका होते हैं। कथानक के केंद्र बिंदु में यही दो चरित्र छाए रहते हैं। दर्शक भी फिल्म के बारे कोई अनुमान लगाने से पहले उसके नायक और नायिका पर नजर डालता है। लेकिन, कुछ ऐसे अपवाद भी होते हैं, जिनमें नायक, नायिका हाशिए पर चले जाते हैं और फिल्म का तीसरा चरित्र उभरकर सामने आता है। ये तीसरा चरित्र कोई जानवर भी हो सकता है। लेकिन, ऐसी फिल्मों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली है। इनमें कुछ ऐसी फ़िल्में भी हैं, जिनमें जानवर की भूमिका को इतना सशक्त बनाया गया कि वो नायक पर भारी पड़ गया। कई बार ये जानवर अपनी मौजूदगी से ऐसी छाप छोड़ जाते हैं कि उनका अभिनय सब पर भारी पड़ता है। ऐसी कई फिल्में हैं, जो सिर्फ जानवरों के कारण पसंद की गई और उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया। लेकिन, जीवन की भागदौड़ में पता भी नहीं चला कि कब जानवर फिल्मों से गायब हो गए।
    जानवरों का हिंदी फिल्मों में इस्तेमाल का इतिहास बहुत पुराना है। पहली फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' के कई दृश्यों में भी जानवर नजर आए थे। जानवर और इंसान एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए वे लंबे समय तक परदे पर अपनी मौजूदगी बताते रहे। 30 और 40 के दशक में नाडिया की फिल्मों में जानवर सबसे ज्यादा दिखाई दिए! फिल्मों में जानवरों की भूमिकाओं में भी अंतर दिखा। धर्मेंद्र की 'कर्त्तव्य' जैसी कुछ फ़िल्में छोड़ दी जाए, तो ज्यादातर फिल्मों में इनका हिंसक रूप दिखाई नहीं दिखा। गाय और गौरी, हाथी मेरे साथी, रानी और जानी, धरम वीर, खून भरी मांग, मर्द, तेरी मेहरबानियां, दूध का कर्ज़, कुली और 'अजूबा' जैसी फिल्मों में जानवरों को इंसान का दोस्त या मददगार ही बताया गया। अक्षय कुमार की 'इंटरटेनमेंट' में तो जानवर की भूमिका अहम थी। सुंदरबन के बाघों पर बनी फिल्म 'रोर' को भी इसी लिस्ट में जोड़ा जा सकता है। लम्बे अरसे बाद इंसान और जानवर के बीच संघर्ष को लेकर 'शेरनी' फिल्म आई। इसमें वन अधिकारी विद्या बालन एक खतरनाक बाघिन को पकड़ने वाली टीम का नेतृत्व करती है। बाघिन खतरनाक है, पर विद्या बालन उसे जीवित पकड़ना चाहती है। वास्तव में ये इंसान और जानवर के बीच संवेदना का रिश्ता है, जिसे फिल्म में उभारा गया।  
      जानवर बरसों से हिंदी फिल्मों का असरदार हिस्सा रहे हैं। लेकिन, पिछले दो दशकों में ऐसी फिल्मों की संख्या में कमी आ गई। इसका कारण व्यावसायिक या दर्शकों की बदलती रूचि ही नहीं, मनुष्य और प्रकृति के कमजोर पड़ते रिश्तों का भी प्रमाण है। फिल्मों में जानवरों की मौजूदगी कम या लगभग ख़त्म होने के पीछे एक बड़ा कारण सरकार के 'वन्य जीव कानूनों' का कड़ा होना भी है। कोई फिल्म निर्माता बेवजह कानूनी उलझनों में पड़ना नहीं चाहता। लेकिन, जिस तरह हॉलीवुड में तकनीकों का इस्तेमाल करके इंसान और जानवर के संबंधों पर फिल्म बनाई जाती है, ऐसे प्रयोग भारतीय फिल्मकारों ने नहीं किए। दिलीप कुमार की फिल्म 'नया दौर' में जानवर और मशीन के बीच फंसे इंसान के द्वन्द को दिखाया गया था। अंत में जीत जानवर की होती है, पर आज वो स्थिति नहीं है। जैसे-जैसे मशीनों पर हमारी निर्भरता बढ़ी, जानवरों से हमारी दूरी बढ़ती गई। इस बात से इंकार नहीं कि तकनीकी तौर पर सिनेमा पहले से बेहतर हुआ है। पर, क्या इसका ये मतलब निकाला जाए कि अब जानवरों को परदे पर दिखाने की जरूरत ही ख़त्म हो गई! अब इसके लिए एनीमेशन और दूसरी तकनीकों का सहारा लिया जा रहा है। तकनीक के अलावा वैचारिक रूप से परिपक्व होते सिनेमा में अब जानवरों के साथ जंगल के लिए भी जगह नहीं बची! जबकि, जानवरों पर बनी फिल्मों को पसंद करने वालों की कमी नहीं है! 
       डिज्नी की फिल्म 'जंगल बुक' ने रिलीज के शुरुआती तीन दिन में बॉक्स ऑफिस पर 40.19 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई की! ये भारत में प्रदर्शित किसी भी हॉलीवुड फिल्म की कमाई का रिकॉर्ड है। इस फिल्म में इंसान के साथ जानवर भी मुख्य भूमिका में है। जानवर और इंसान के आपसी रिश्तों पर 2012 में बनी आंग ली की फिल्म 'लाइफ ऑफ पाई' ने भी हमारे यहाँ अच्छी कमाई की। ये एक लड़के और बाघ के रिश्ते की कहानी थी। फिल्म फैंटेसी ड्रामा थी और बाघ भी असली नहीं था। इसे सीजीआई (कंप्यूटर ग्राफिक इमेज) तकनीक से बनाया गया था। इसके बावजूद सब कुछ असली जैसा लगा। ख़ास बात ये कि हॉलीवुड की ये दोनों फ़िल्में भारत पर केंद्रित इंसान और जानवर के रिश्तों पर बनी थी। लेकिन, दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले भारत में फिल्मों से जानवर और जंगल दोनों गायब हो रहे हैं।      फिल्मों में जानवरों का किस तरह इस्तेमाल हुआ इसके कई उदाहरण हैं। 'हाथी मेरे साथी' में अभिनेता राजेश खन्ना और तनुजा मुख्य भूमिका में थे। फिल्म में हाथी और इंसान के बीच की दोस्ती को दिखाया गया है। रामू नाम के इस हाथी के किरदार को परदे पर दर्शकों ने बहुत पसंद किया। हाथी अपने मालिक को बचाने के लिए अपनी जान तक दे देता है। 'कुली' में अमिताभ बच्चन का डायलॉग था 'बचपन से सिर पर अल्लाह का हाथ है, अल्लाह रक्खा मेरे साथ है।' दरअसल, अल्लाह रक्खा एक बाज होता है, जो हमेशा अमिताभ का साथ देता है। फिल्म के पोस्टर में भी ये बाज था। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसका किरदार कितना अहम था। 'मैंने प्यार किया' का गाना 'कबूतर जा जा' में भाग्यश्री अपनी चिट्ठी कबूतर से सलमान खान तक पहुंचाने को कहती हैं। क्लाइमैक्स में यह कबूतर विलन पर हमला भी करता है। फिल्म 'कट्टी-बट्टी' में इमरान खान और कंगना के रोमांस से ज्यादा केमिस्ट्री तो इमरान और उसके पालतू कछुए की देखने को मिलती है! इसके अलावा फिल्मों में नाग-नागिनों पर भी कई फ़िल्में बनी। 'नागिन' और 'नगीना' जैसी फिल्मों में तो इंसानों से ज्यादा सांप ही छाए रहे। 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' में करीना कपूर और रितिक रोशन के अलावा एक तोता और कुत्ते का भी अहम रोल है। 
     'शोले' में बसंती के तांगे की घोड़ी धन्नो भी भुलाने वाला कैरेक्टर नहीं है। इस फ़िल्म में तांगा दौड़ का काफी लंबा सीन है। 'एंटरटेनमेंट' फिल्म का तो नाम ही कुत्ते के नाम पर पड़ा। फिल्म में कुत्ते का नाम 'एंटरटेनमेंट' हैं कहानी कुत्ते के इर्द-गिर्द घूमती है। इसलिए कि वो करोड़ो की दौलत का वारिस होता है। 'हम आपके हैं कौन' में यदि कुत्ता टफी न होता, तो फिल्म का एंड सुखद न होता। सलमान खान और माधुरी दीक्षित की शादी कराने में इसी कुत्ते का योगदान था। फिल्म 'दिल धड़कने दो' में प्लूटो एक कुत्ता है, जो फिल्म की कहानी भी सुनाता है। प्लूटो को आमिर खान ने आवाज दी। 'मां' फिल्म में जितेंद्र और जया प्रदा मुख्य भूमिका में थे। जयाप्रदा को कुछ लोग मार देते हैं और वो आत्मा बन जाती हैं। उन्हें केवल उनके घर का कुत्ता देख पाता है, जो जयाप्रदा के साथ मिलकर बदला लेता है। 'नगीना' में श्रीदेवी के अभिनय को कौन भूल सकता है। फिल्म में श्रीदेवी नागिन के किरदार में होती है, जो अपना बदला लेती हैं। 'आंखे' में गोविंदा और चंकी पांडे मुख्य रोल में थे। गोविंदा और चंकी के बाद जो कैरेक्टर अहम था वो था एक बंदर का। उस बंदर ने फिल्म में जो धमाल मचाया था वो देखते ही बनता था। 'दूध का कर्ज' में जैकी श्रॉफ और नीलम कोठारी की भूमिकाएं थी. इस फिल्म में एक सांप अहम किरदार में था। गंगू को चोरी के झूठे आरोप में फंसा कर मार दिया जाता है। गंगू के परिवार में एक सांप भी रहता है। पार्वती (गंगू की पत्नी) उस सांप को अपना दूध पिलाती है और सालों बाद वो सांप अपने दूध का कर्ज अदा कर गंगू की हत्या का बदला लेता है! 'तेरी मेहरबानियां' में जैकी श्रॉफ नायक थे, जिसके साथ मोती नाम का एक कुत्ता हमेशा साथ रहता है। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती बताई गई। कुछ लोग जैकी श्रॉफ की हत्या कर देते हैं, जो मोती देख लेता है। वो अपने मालिक की हत्या का बदला लेते हुए सभी हत्यारों को मार देता है। 
    हिंदी के मुकाबले तमिल फिल्मों में जानवरों का सबसे ज्यादा उपयोग किया गया है। हिंदी में डब की गई दक्षिण भारतीय फिल्मों की हमेशा मांग रही है। एक्शन और जानवरों पर फिल्माए गए फिल्मों के लिए यह मांग और भी ज्यादा है। नेल्सन वेंकटेशन की फिल्म 'मॉन्स्टर' को बहुत पसंद किया। इसमें एक चूहे की मुख्य भूमिका है। 'मॉन्स्टर' कम बजट की फिल्म है, इसके बावजूद इसने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की। जीवा अभिनीत 'गोरिल्ला' को असली चिम्पांजी पर फिल्माया गया था। जीवा के मुताबिक जानवरों के साथ काम करना आसान नहीं होता। लेकिन, कुत्ते और हाथियों वाले फिल्मों की मांग ज्यादा है। अशोक सेलवन की फिल्म 'जैक' और योगी बाबू की 'गोरखा' दो ऐसी फिल्में हैं, जिनमें कुत्ते अहम भूमिकाओं में हैं। जबकि, 'कुमकी-2' और 'राजा भीमा' की कहानी हाथियों पर केंद्रित है। 
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Thursday, June 10, 2021

पोस्टर के कोने से झांकती है पूरी फिल्म!

- हेमंत पाल

   स सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि फ़िल्में सिर्फ प्रचार से चलती हैं। ये काम पहले भी होता था और आज भी होता है! लेकिन, वक़्त के साथ प्रचार का तरीका और संसाधन बदलते गए। पहले फिल्म के प्रचार पर इतनी मेहनत नहीं होती थी, जितनी आज होती है। तब उतनी प्रतिद्वंदिता भी नहीं थी। आज तो फिल्म की परिकल्पना से उसके रिलीज होने और उसके बाद तक दर्शकों को आकर्षित करने की कोशिश चलती है। लेकिन, एक वक़्त था जब फिल्मों के प्रचार का सबसे सशक्त माध्यम उसका पोस्टर होता था। तब ये दर्शकों  सूचना मात्र हुआ करता था। उसे देखकर दर्शक अनुमान लगाता था कि फिल्म के कलाकार कौन हैं उसके कथानक आधार क्या है। उस वक़्त प्रचार का कोई माध्यम नहीं था, बस पोस्टर ही ऐसी बेजान चीज थी जो बोलती थी। यानी पोस्टर तब भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं। ये पोस्टर कला का भी एक हिस्सा हैं। दर्शकों के साथ संवाद का माध्यम होने के साथ इनमें उस फिल्म का इतिहास भी छुपा हैं। फिल्म के 100 दिन पूरे होने, सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली होने पर अलग से पोस्टर छापकर लगाए जाते रहे हैं। 
      मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों के शुरूआती दिनों तक हाथों से पोस्टर बनाए जाने लगे थे। फिर उन्हें छपवाकर सिनेमाघरों और शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों में चिपकाया जाता। शुरुआती समय से ही फिल्मों के प्रचार में पोस्टर का सबसे बड़ा हाथ होता है, यही कारण है कि आज प्रसार के पचासों तरीकों के बावजूद फिल्मी पोस्टरों का प्रचलन बंद नहीं हुआ, बदल जरुर गया। लेकिन, अब हाथ से बनाए जाने वाले पोस्टरों का चलन लगभग बंद  हो गया और उसकी जगह मल्टीमीडिया तकनीक से छपे होर्डिंग ने ले ली। आज फिल्मी पोस्टरों में कम्प्यूटर से डिजाइन किए विनाइल पोस्टरों का उपयोग बढ़ा है। पोस्टर बनाने वालों की भी एक अपनी अलग दुनिया थी! वे फिल्म के मूड को दर्शकों तक चंद चेहरों के जरिए पहुंचा देते थे। दुनियाभर में अपनी पैंटिंग के लिए विख्यात एमएफ हुसैन ने भी जीवन के संघर्ष के दिनों में फिल्मी पोस्टर बनाए थे।
   फिल्मों को पोस्टर के जरिए प्रचारित करने का चलन कब शुरू हुआ, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन, सबसे पुराना उपलब्ध पोस्टर 1924 में बनी मराठी फिल्मी 'कल्याण खजाना' का मिला है। मराठा शासक शिवाजी के जीवन पर बनी इस फिल्म के लिए फिल्म के निर्देशक बाबूराव पेंटर ने पहली बार पोस्टर बनाया था। उनका पूरा नाम बाबूराव कृष्णाराव मिस्त्री था और वे थिएटर कंपनियों के लिए सीन पेंट किया करते थे, उनका काम ऐसा था तो उनका उपनाम 'पेंटर' पड़ गया। वे पहले फिल्म निर्देशक थे, जिन्होंने प्रचार के लिए फिल्मों के पोस्टर की जरूरत को समझा। बाद में दूसरे निर्माता-निर्देशकों ने भी पोस्टर का महत्व और दर्शकों पर उसके प्रभाव को समझा और पोस्टर बनवाना शुरू किए। बाद में यही फिल्मों के प्रचार का मुख्य तरीका बन गया।
     ये भी कहा जाता है कि बाबूराव पेंटर ने 1923 में अपनी फिल्म 'वत्सलाहरण' के प्रचार के लिए पहली बार पोस्टर बनाया था। पोस्टर के जरिए फिल्मों के प्रचार में शुरुआती योगदान बाबूराव पेंटर का ही रहा है। वे सिर्फ फिल्मों के पोस्टर ही नहीं बनाते थे, फिल्मों की कहानी और कलाकारों के फोटोयुक्त प्रचार पुस्तिकाएं भी बांटा करते थे। ऐसी पुस्तिकाओं का चलन बाद में बहुत बढ़ गया था। 'आलम आरा' (1931) के लिए बनाया जुबैदा का उनका पोस्टर बहुत चर्चित रहा था। 1913 में दादा साहेब फाल्के ने पहली भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण और निर्देशन किया था। लेकिन, इसका कोई पोस्टर नहीं, प्रदर्शन की सूचना देने वाला विज्ञापन था। डेढ़ घंटे की इस फिल्म के रोज चार शो होते थे और दोगुना प्रवेश शुल्क लिया गया था। तब अखबारों में सूचना जैसे विज्ञापन के साथ हैंडबिल बांटे जाते थे। क्योंकि, फिल्म दर्शकों तक पहुंचने का यही एक साधन था। 
     इन पोस्टरों में उपयोग किए जाने वाले बहुरंग और नायक, नायिका और खलनायक के चेहरे के भाव फिल्म की कहानी का अहसास भी करा देते थे। इसके अलावा कई बार कॉमेडियन को भी इन पोस्टर में जगह मिला करती थी! लेकिन, ये सम्मान जितना महमूद और जॉनी वॉकर को जितना मिला, उतना किसी और हास्य कलाकार को नहीं! चटख रंग में हीरो का अंदाज और हीरोइन के जलवे दिखाए जाते थे, तो खलनायक का चेहरा क्रूरता से भरा होता था। उसकी आँखों से ललामी झलकती थी! यदि फिल्म डाकुओं की हुई (मेरा गांव-मेरा देश, कच्चे धागे, गंगा की सौगंध) तो हीरो के हाथ में बंदूक और डांस करती हीरोइन छाई रहती थी! पोस्टर से दर्शकों को आकर्षित करने में पेंटर अपनी सारी कलाकारी झौंक देते थे। फिल्मों के पोस्टर में कलाकारों के हर मनोभाव व्यक्त करने के लिए अलग-अलग रंगों का उपयोग किया जाता रहा है। यदि फिल्म प्रेम कहानी हो और रोमांटिक भावना दर्शाना हो, तो गुलाबी रंग ज्यादा उंडेला जाता था। खलनायक का क्रूर चेहरा नीले रंग से रंगा होता था और लाल होंठ उसकी क्रूरता को और गाढ़ा करते थे। 
   अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन बनाने में  पोस्टर का बड़ा हाथ रहा है। दर्शक पोस्टर पर अमिताभ का गुस्सैल अंदाज देखकर ही टिकट खरीदते थे। लेकिन, सुपरहिट फिल्म 'जंजीर' के पोस्टर में अमिताभ का चेहरा जया भादुड़ी से बहुत छोटा था। इस फिल्म के पोस्टर में प्राण, अजीत और जया इसलिए छाए थे, क्योंकि वे अमिताभ से बड़े कलाकार थे। लेकिन, 'दीवार' तक आते-आते अमिताभ का कद शशि कपूर से ज्यादा बड़ा हो गया। उनके पोस्टर के अलावा कटआउट भी लगने लगे थे। इन फ़िल्मी पोस्टर की ही महिमा कही जाना चाहिए कि सलीम-जावेद से पहले किसी स्क्रिप्ट राइटर का नाम कभी पोस्टर पर नहीं आता था। लेकिन, सलीम-जावेद की लोकप्रियता जा आसमान छूने लगी तो कलाकारों के साथ उनका नाम भी दिया गया। ये बात भी अविश्वसनीय भले लगे, पर सच है कि 'मदर इंडिया' के सुपरहिट होने के पीछे इस फिल्म के पोस्टर का बड़ा योगदान था। इस फिल्म के प्रचार के लिए के आसिफ ने कुछ नहीं किया था। लेकिन, फिल्म का एक पोस्टर फिल्म की अपार सफलता  कारण बन गया। इस पोस्टर में खुद को बैल की जगह जोतकर खेत जोतती और पीड़ा से कराहती नरगिस को दिखाया था। इस पोस्टर को देखने के बाद शायद ही कोई खुद को फिल्म देखने से रोक पाया होगा। फिल्म के पोस्टर ने एक औरत के संघर्ष को जिस तरह प्रदर्शित किया, वो पहले कोई नहीं कर पाया था।   
       फिल्मी पोस्टर फिल्म का प्रचार तो करते है, पर कभी ये विवाद भी खड़े करते हैं। 'क्रिमिनल' फिल्म के पोस्टर में नायिका की हत्या को लेकर पोस्टरों में ऐसा माहौल बनाया गया था कि उसकी वास्तव में हत्या हो गई। शाहरुख़ खान की फिल्म 'रा-वन' के एक पोस्टर को धूमधड़ाके साथ प्रदर्शित किया गया था। लेकिन, उसके बारे में कहा गया कि वो हॉलीवुड की एक फिल्म की हूबहू नकल है। फिल्म 'हेट स्टोरी' के अश्लील पोस्टर ने भी विवाद खड़ा किया था। प्रोड्यूसर एकता कपूर की वेब सीरीज 'हिज स्टोरी' के पोस्टर पर भी विवाद हुआ। सुधांशु सरिया ने एकता कपूर पर पोस्टर चोरी का आरोप लगाया। उनका कहना था कि ये उनकी फिल्म 'लोएव' के पोस्टर की नक़ल है। इस विवाद के बाद ऑल्ट बालाजी ने पोस्टर को डिलीट कर दिया था। डायरेक्टर अमजद खान की फ़िल्म 'गुल मकई' को लेकर भी फ़तवा जारी हुआ था। पाकिस्तानी एजुकेशन एक्टिविस्ट मलाला यूसुफजई पर आधारित इस फ़िल्म के पोस्टर पर धार्मिक ग्रंथ के अपमान का आरोप लगा। नोएडा के एक मुस्लिम धर्मगुरु ने इस अपमान को लेकर फ़तवा जारी किया था। पोस्टर में मलाला को हाथ में एक किताब लिए दिखाया गया, दूसरी तरफ ब्लास्ट का सीन है। उन्हें लगता है कि यह एक धार्मिक ग्रंथ है। 
   समय के साथ पोस्टर तकनीक में भी अंतर आता रहा। शुरुआत से साठ के दशक तक पोस्टर हाथ से बनते रहे। उसके बाद पोस्टर बनाने की कट-पेस्ट तकनीक लोकप्रिय हुई। इसमें पोस्टर बनाने वाले फोटो से कलाकारों की छवि काटकर उसे कोलाज बनाकर चिपका देते थे। इसके बाद पोस्टर विधा पर छपाई तकनीक ने ऐसा जलवा दिखाया कि पोस्टर सिर्फ चेहरों तक सीमित नहीं रहे। कंप्यूटर डिजाइनिंग ने इसे आसान और प्रभावी बना दिया। जो पोस्टर कलाकार मास्टरपीस पोस्टर बनाने माहिर थे, वे इतने लोकप्रिय हो गए कि फिल्मकार उन्हें कोई भी कीमत देने को तैयार हो जाते। इन पोस्टरों की कलात्मकता को इतना पसंद किया गया कि देश सबसे बड़े आर्ट कॉलेज मुंबई के जेजे स्कूल आफ आर्टस में इन्हें पढाया जाने लगा। 
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Saturday, June 5, 2021

छातों के नीचे गढ़े कई दृश्य और गीत


- हेमंत पाल 
     बारिश के मौसम में छाता जिंदगी का एक हिस्सा है। अमीर हो या गरीब, ये साधन सबके लिए एक ही काम करता है। ये बारिश के अलावा सूरज के ताप से बचाने के साथ जीवन की समृद्धि दर्शाने का भी प्रतीक है। जो जितना अमीर होता है, उसकी छतरी उतनी महंगी होती है। एक जमाना था, जब हाथ में छतरी या छाता होना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। तब छतरी सम्पन्न लोगों के हाथों में ही नजर आती थी। लेकिन, जब छाता सामाजिक वजूद रखने लगा, तो फिल्मों ने भी इसकी शान को स्वीकारा! हमारी फ़िल्में जीवन से जुड़ी है, इसलिए छातों ने फिल्मों में कथानक के मुताबिक अपनी जगह बनाई। कई फ़िल्मी गीतों में जमकर छतरियां उपयोग की गई, साथ ही फ़िल्मी दृश्यों में छतरियों को अलग-अलग संदर्भों में दिखाया गया! कभी छतरियों को नायक, नायिका के रोमांस का बहाना बनाया गया, तो कभी हिंसक दृश्यों को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए छतरियों की आड़ ली गई। गांव का सूदखोर जब वसूली के लिए जाता है, तो उसका एक गुर्गा उसके ऊपर छतरी ताने दिखाई देता है। कन्हैयालाल और जानकीनाथ को पुराने दर्शकों ने कई बार ऐसे दृश्यों में देखा होगा। फिल्मी मास्टरजी भी छाते का उपयोग करते बहुत देखे गए। 
     राज कपूर ने अपनी कई फिल्मों में छतरी से प्रभाव पैदा करके कहानी को आगे बढ़ाया! कई फिल्मों में छतरी को नायक ने हथियार की तरह इस्तेमाल कर गुंडों की धज्जियां भी बिखेरी है। पुरानी फिल्मों के खलनायक केएन सिंह की खलनायकी का एक अलग अंदाज था। अभिजात्य वर्ग का ये खलनायक हमेशा सूट-बूट और हैट पहने दिखाया गया। मुँह में पाइप दबाए केएन सिंह जब परदे पर आते तो दर्शकों में सिहरन सी होती थी। उनके इस अभिजात्य अंदाज़ में कई फिल्मों में हाथ छतरी भी दिखाकर प्रभाव पैदा किया जाता था। आशय यह कि छतरी सिर्फ बारिश से बचने का साधन ही नहीं, इसके जरिए फिल्मों में कई अनूठे प्रसंग भी गढ़े गए।  
      इसके बावजूद फिल्मों में छाते को कहानी से जोड़कर कथानक को आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। लेकिन, गीतों में बतौर प्राॅप छातों का प्रयोग लम्बे समय से होता रहा है और आज भी ये दिखाई देता है। कथानक में छातों के इस्तेमाल का जिक्र किया जाए, तो ऐसी दो फिल्में ही ध्यान में आती है जिनमें छातों का बेहतरीन उपयोग किया गया। पहली फिल्म है, मनोज कुमार निर्देशित 'पूरब और पश्चिम' जिसकी शुरुआत की रीलें ब्लैक एंड व्हाइट थी। इसमें देश के गद्दार देशप्रेमी कृष्ण धवन की जानकारी ब्रिटिश सिपाहियों दे देते हैं, जो उसे बरसते पानी में उसे गोलियों से छलनी कर देते हैं। प्राण छाते की आड़ से यह सब होते देख लेता है। इस दृश्य को फिल्माने में मनोज कुमार ने छाते का बेहद प्रभावी उपयोग किया था। इसके बाद सनी देओल की फिल्म 'अर्जुन' में मुंबई के एक उपनगरीय रेलवे स्टेशन के बाहर बरसात का दृश्य था, जिसमें हजारों लोग छाता लिए आते-जाते हैं। इन्हीं छातों की आड़ में एक हत्या हो जाती है। इस सीन की शूटिंग के लिए कई लोग बुलाए गए थे। यह दृश्य बारिश में शूट होना था और तलवारें भी चलना थी। हर आदमी के हाथ में दो-दो छाते थे। कभी तलवारों से छाते फट जाते, कभी छाते लेकर चल रहे लोगों के चेहरों पर छातों की तीलियां चुभ जाती। बहुत मुश्किल ये सीन पूरा हुआ! लेकिन, जब दर्शकों ने परदे पर इसे देखा तो ये हिंदी सिनेमा के चंद कालजयी दृश्यों में एक बन गया था। इस दृश्य में सैकड़ों छाते दिखाकर निर्देशक राहुल रवैल और सिनेमेटोग्राफर बाबा आजमी ने उसे यादगार बना दिया था। 
    1953 में आई फिल्म 'श्री 420' के गीत 'प्यार हुआ इकरार हुआ' के जहन में आते ही राज कपूर और नरगिस की जोड़ी स्मृतियों में कौंध जाती है। शाम ढलने के साथ गढ़े गए उस दृश्य को हिंदी फिल्मों का क्लासिक गीत ही नहीं, छतरी की आड़ में श्रेष्ठ रोमांटिक दृश्य भी माना जाता है। बरसात की फुहारों के बीच इस युगल गीत में प्रेम का उदात्त भाव स्पष्ट दिखाई देता है। इसमें पानी की बौछार, चाय वाले की केतली से उड़ती गर्म भाप और नरगिस की भाव भंगिमाओं ने इसे रोमांस की चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। कहा जा सकता है कि छतरी वाले गीतों और दृश्यों में राज कपूर को महारत हांसिल थी। उनकी फिल्म 'छलिया' में मनमोहन देसाई ने 'डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा' फिल्माकर बारिश में कल्याणजी-आनंदजी के संगीत का मजा दोगुना कर दिया था। इस गीत के साथ एक रोचक प्रसंग भी जुड़ा है। संगीतकार शंकर-जयकिशन को आपत्ति थी, कि गीत के बोलों में 'रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियां' सही लाइन नहीं है। क्योंकि, दिशाएँ तो चार होती थी। राज कपूर ने भी उनकी बात पर सहमति जताई! लेकिन, कहा कि जब शैलेंद्र ने लिखा है, तो कुछ कारण होगा। जब शैलेंद्र से पूछा गया तो उन्होंने दस दिशाएं गिनवा दी ऊर्ध्व-अधो, ईशान-नैऋत्य, आग्नेय-वायव्य, पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण गिनवा दी। 
    राज कपूर ने 'श्री 420' में छतरी को रोमांटिक दृश्य में उपयोग किया, तो फिल्म 'बूट पॉलिश' में उन्होंने समाज के दो वर्गों में भेद दिखाने के लिए छाते का प्रसंग बनाया था। फिल्म के दृश्य में राशन की लम्बी कतार में समाज के गरीब और समृद्ध वर्ग के लोग खड़े हैं। अचानक बारिश होने लगती है और भगदड़ हो जाती है. साथ ही दोनों वर्गों का भेद भी स्पष्ट हो जाता है। छाते वाला समृद्ध वर्ग छाता खोलकर फिर कतार में लग जाता है, जबकि समाज का वंचित वर्ग कतार छोड़कर अपने आपको भीगने से बचाने के लिए कहीं दुबक जाता है। फिल्म में भले ही ये सामान्य सा दृश्य था, पर सामाजिक स्तर पर इसके गंभीर मायने निकाले गए थे। रजनीकांत की फिल्म 'काला' के एक दृश्य में नायक एक छतरी के सहारे अपने दुश्मनों से लड़ता है और सबको मार गिराता है। वैसे रजनीकांत की फिल्मों में कुछ भी यथार्थ नहीं होता, फिल्म के दृश्य में जिस तरह छतरी को हथियार बताया गया, वो देखने में ही अच्छा लगता है।  
     राज कपूर से पहले गुरुदत्त अपनी निर्देशित फिल्म 'बाजी' में गीता दत्त पर 'देख के अकेली मोहे' गीत फिल्मा चुके थे। इसमें गीता बाली क्लब डांसर थी, जो रेनकोट पहनकर हाथों में छाता लेकर गाती है। यह गीत बरसात में नहीं, बल्कि क्लब में होता है, जहां गीता बाली छींटे उड़ाकर आभासी बरसात का अहसास कराती है। 'बाजी' के बाद गुरुदत्त ने 'मिस्टर एंड मिसेज-55' में 'ठंडी हवा काली घटा' गीत में मधुबाला और उनकी सहेलियों के हाथों में छतरी पकड़ाई थी। लेकिन, यहां बारिश की जगह स्विमिंग पूल नजर आ रहा था। अशोक कुमार और नलिनी जयवंत की फिल्म 'समाधि' के गीत 'गोरे गोरे ओ बांके छोरे' में भी छाते का प्रयोग किया गया था। 
      जब फिल्मी छातों में छुपकर रोमांस का जिक्र हो, तो देव आनंद की चर्चा होना लाजमी है। उनकी फिल्म 'काला बाजार' का हिट गीत 'रिमझिम के तराने लेके आई बरसात' में देव आनंद बारिश से बचने के लिए अखबार सिर पर रख लेते हैं! जबकि, वहीदा रहमान छाते में होती है, बाद में दोनों छाते के नीचे थोड़ा भीगते हुए दिखाई देते हैं। देव आनंद ने एक बार फिर 1969 में फिल्म 'महल' में आशा पारेख के साथ रंग बिरंगी छातों में 'ये दुनिया वाले पूछेंगे' गाते दिखाई दिए थे। इसके अलावा फिल्म 'एक साल' में जाॅनी वाकर और मीनू मुमताज 'दिल तो किसी को दोगे' गाते हुए धूप में छाता थामें दिखाई दिए, तो 'दो झूठ' में विनोद मेहरा बारिश में रोमांस का मजा लेने के लिए मौसमी चटर्जी से कहते हैं 'छतरी न खोल उड़ जाएगी।' इसके बाद 'मान गए उस्ताद' में शशि कपूर और हेमा मालिनी छतरी थामे शिकायत करते हैं 'एक छतरी और हम हैं दो।' जबकि, 'चालबाज' में श्रीदेवी रेनकोट पहने छाताधारियों के लिए अबूझ पहेली बनकर सुनती रहती है 'ना जाने कहां से आई है!' आमिर खान की कालजयी फिल्म 'थ्री इडियट्स' के गीत 'जुबी जुबी' में भी छाता दिखाई दिया था।   
    1982 की फिल्म 'नमक हलाल' में अमिताभ बच्चन और स्मिता पाटिल पर फिल्माया 'आज रपट जाएं तो' गीत में भी बारिश में स्मिता का छाता उड़ जाता है। बप्पी लहरी के संगीत से सजा यह गीत अपने समय में बहुत लोकप्रिय हुआ था। 'कोई मिल गया' में प्रीति जिंटा और रितिक रोशन छतरी लेकर 'इधर चला मैं उधर चला' गीत पर बारिश में झूमते दिखाई देते हैं। 'नाजायज' में 'अभी जिंदा हूं तो जी लेने दो भरी बरसात में पी लेने दो' और 'दरियादिल' में 'बरसे रे सावन कांपे मेरा मन' जैसे कई गीत बरसात और छाते की याद दिलाते हैं। 2006 में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए रस्किन बांड की कहानी 'द ब्लू अम्ब्रेला' पर आधारित फिल्म 'द ब्लू अम्ब्रेला' बनाई थी। अजय देवगन की आने वाली फिल्म 'मैदान' के पोस्टर में अजय देवगन फॉर्मल लुक में हाथ में छतरी और बैग लेकर फुटबॉल को किक मारते नजर आ रहे हैं। यानी अभी फिल्मों से छतरी का जमाना गया नहीं है। 
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