Sunday, October 29, 2017

नजर आती है नए विषय की छटपटाहट!

- हेमंत पाल

   हिंदी सिनेमा का सफर प्रेम, बदला, राजनीति, धर्म, कॉमेडी और पारिवारिक विवादों तक ही सीमित है। इस दायरे से बाहर भी फ़िल्में बनती रही हैं। आज के सिनेमा को देखा जाए तो हिंदी मीडियम, तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, टॉयलेट : एक प्रेमकथा, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, नाम शबाना और बरेली की बरफी जैसी फिल्में भी हैं। इस बीच राजनीतिक फिल्मों का भी दौर आया। 'कलयुग' एक श्रेणी में मिसाल थी, उसके बाद 'सत्ता' जैसी फिल्मों ने सत्ता समीकरण में स्त्री-विमर्श के हस्तक्षेप से नया मोर्चा संभाला। बाद में राजनीति की छौंक मणिरत्नम, मृणाल सेन, गुलजार की तरह विशाल भारद्वाज और प्रकाश झा ने भी लगाई। राजनीति और पारिवारिक संबंधों को लेकर गुलजार ने 'आंधी’ के बाद राजनीतिक षडय़ंत्रों की कॉमिक सिचुएशन पर ‘हु तू तू’ और फिर विशाल भारद्वाज के साथ आतंकवाद के रिश्तों को पनपाती ‘माचिश’ का निर्माण किया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में राजनीति की बिसात पर आज युवा, रंग दे बसंती, पार्टी या ए वेडनेसडे और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फिल्मों की जरुरत ज्यादा है। 
 अब 'ट्रेन टू पाकिस्तान' या 'अर्थ 1947' के बजाए आज की राजनीति का नया आकलन करने वाली ‘परजानिया’ जैसी फिल्मों की सख्त जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो राजनीतिक सिनेमा के नए तेवर सामने कैसे आएंगे? दरअसल, समस्या यह नहीं है कि राजनीतिक फिल्में कैसे बनाई जाएं, बल्कि असल समस्या फिल्मों को राजनीतिक बनाने की है। हमारे हिंदी सिनेमा का कमर्शियल नजरिए से देखने वाला तबका इसे आसान बनाकर 'फना' जैसी फिल्म बनाता है। तो दूसरा बौद्धिक खेमा सिनेमा की अवधारणा में अचानक कैद होकर-शैक्सपीयर ड्रामे के रूपांतरण का मजा लेता है! उसे ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के अपराध जगत में भी प्रेम और राजनीति की गठजोड़ के छद्म रूपक की नई लीला रचकर संतुष्टी होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा को शेक्सपीयर के नाटकों से कहीं ज्यादा हिंदी उपन्यासों के कथानक की दरकार होनी चाहिए। सवाल खड़ा होता है कि क्या उन उपन्यासों में नई पटकथाओं की गुंजाइश नहीं है, जो नया सिनेरियो प्रस्तुत कर सकें? 
  जमींदार के खूंटे से बंधी दलित राजनीति के जिस प्रपंच को श्याम बेनेगल ‘निशांत’ और ‘मंथन’ से दिखा चुके थे। उन हलकों में प्रतिकार की ताकत पैदा की प्रकाश झा के नए सिनेमा ने! ‘दामुल’ यदि उसका बेहतरीन उदाहरण है, तो ‘अपहरण’ उसी मानसिकता वाले औजारों से अलग तेजी से बदती राजनीति के हिंसक प्रतिरूपों की पहचान है। बाद में इसे प्रकाश झा ने 'राजनीति' में और पैना किया। ‘राजनीति’ से पहले राजनीति के नए आयाम ‘गुलाल’ दिखा चुकी है। युवा पीढ़ी के प्रतिबिंबों को झलकाती एक से एक बेहतर तस्वीरें रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्नाभाई, दिल्ली-6 तक में दिखाई और आजमाई जा चुकी हैं। 
   राजनीतिक विषयों पर जब भी कोई फिल्म आती है, परदे पर उतरने से पहले ही वह चर्चित हो जाती है। लोगों में उत्सुकता जगा जाती है। लेकिन, प्रकाश झा की फिल्म का नाम ‘राजनीति’ होते हुए भी इस फिल्म को लेकर कोई कॉन्ट्रोवर्सी नहीं हुई! जबकि, गांधी परिवार को लेकर राजनीति पर बनी फिल्में रिलीज के पहले ही खूब पब्लिसिटी बटोरती हैं। बरसों पहले आई गुलजार की ‘आंधी’ को भी जमकर कॉन्ट्रोवर्सी हुई थी। क्योंकि, उसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी से मिलते जुलते किरदार और गेटअप में प्रस्तुत किया गया था। हाल  मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' को लेकर भी यही सब हुआ। इसमें नील नितिन मुकेश का लुक संजय गाँधी से मिलता जुलता था। पर, जितना विवाद हुआ, उतनी फिल्म फिल्म नहीं चली! लेकिन, ये नितांत सत्य है कि सौ साल बाद भी भारतीय सिनेमा दायरे से बाहर नहीं आ पाया! उसकी छटपटाहट तो दिखती है, पर कोई कोशिश करना नहीं चाहता! सब प्रेम कहानियाँ, एक्शन या कॉमेडी बनाकर सौ करोड़ के क्लब शामिल होने के सपनों की गिरफ्त से ही बाहर नहीं आ पा रहे!
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Friday, October 27, 2017

कांग्रेस की करवट के नीचे कहीं दब न जाए भाजपा!

- हेमंत पाल
 
  मध्यप्रदेश में कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में बड़ा दांव खेलने की तैयारी में है। ये दांव क्या होगा, अभी इस पर कयास ही लगाए जा रहे हैं। लेकिन, ये तय है कि इस बार कांग्रेस भाजपा को वॉकओवर देने के मूड में नहीं है। 2003 में जब दिग्विजय सिंह ने सत्ता खोई थी, तब दस साल तक राजनीति से दूर रहने का प्रण लिया था। लेकिन, कांग्रेस में उसमें पाँच साल और जोड़कर भाजपा को पूरे 15 साल सत्ता-सुख भोगने का मौका दे दिया। पर, अब नहीं लगता कि कांग्रेस 'मिशन 2018' को हल्के में लेगी। इन दिनों कांग्रेस की राजनीति जिस तरह करवट ले रही है, उससे काफी कुछ अनुमान लगाए जा सकते हैं! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम नई भूमिका के लिए तय हो रहे हैं। उधर, राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा से भाजपा के खिलाफ खामोश अलख जगाने में लगे हैं। वे चर्चा से बाहर होते हुए भी चर्चा से बाहर हैं। पर, ख़बरों के गर्भ में उनकी भूमिका पहले से निर्धारित लग रही है। कयासों का लब्बोलुआब ये है कि तीनों बड़े नेताओं किरदार लिखे जा चुके हैं। इंतजार है उनके मंच पर उतरने का!   
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  विधानसभा चुनाव की निकटता को देखते हुए कांग्रेस पार्टी नए सिरे से रणनीति बनाने में जुट गई है। उसे लग गया है कि प्रदेश में भाजपा सरकार के प्रति लोगों में नाराजी लगातार बढ़ रही है। यही कारण है कि सुप्त पड़ी कांग्रेस अपनी 15 साल पुरानी सलवटें दूर करने में लग गई! पार्टी के वे तारणहार जो अभी तक कांग्रेस से बेखबर थे, वे फिर सक्रिय होने लगे! उनकी जय जयकार करने वाले भी कड़क खादी में नजर आने लगे! कांग्रेस के जिन दिग्गजों के पास कांग्रेस की कमान समझी जाती है, उनके बयान फिर मीडिया में नजर आने लगे! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव खिलाफ फिर तलवारें भांजी जाने लगी है। कमलनाथ को अरुण यादव जगह मुखिया बनाने की चर्चाएं हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सामने आने के कयास लगाए जाने लगे!
  मध्यप्रदेश के ग्वालियर-चंबल संभाग की कांग्रेस राजनीति बरसों से सिंधिया घराने से प्रभावित रही है। माधवराव सिंधिया ने यहाँ एकछत्र राजनीति की! कुछ वही चेहरा लोग अब ज्योतिरादित्य सिंधिया में देखने लगे हैं। उनके आचार-विचार से लगाकर व्यवहार तक में माधवराव सिंधिया की छवि है! अब, जबकि प्रदेश एक बार फिर चुनाव के मुहाने पर है, कांग्रेस को मुख्यमंत्री पद के लिए ज्योतिरादित्य सबसे सटीक उम्मीदवार नजर आए। मुद्दे की बात ये कि भाजपा में ज्योतिरादित्य की संभावित उम्मीदवारी से घबराहट दिखाई देने लगी है। पिछले दिनों उन पर भाजपा की तरफ से जिस तरह के अराजनीतिक हमले किए गए, वो इस घबराहट को स्पष्ट भी करते हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी सौंपी थी! कई टिकट उनकी सलाह पर दिए गए! चुनाव रणनीति बनाने में उनका दखल रहा! लेकिन, नतीजा उम्मीद के अनुरूप नहीं रहा, क्योंकि पूरे देश में मोदी-लहर थी! लेकिन, अब ऐसा कोई माहौल दिखाई नहीं दे रहा! न कोई लहर है न आँधी! बल्कि, अब भाजपा के तीन कार्यकालों को कसौटी पर कसे जाने का वक़्त जरूर आ गया!
  अगले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस संगठन में हलचल है। प्रदेश अध्यक्ष बदला जाना तय माना जा रहा है! अरुण यादव के बाद जिसे प्रदेश कांग्रेस का मुखिया बनाया जाएगा, वही नेता चुनाव भी कराएगा! यही भांपकर पार्टी हाईकमान नए सिरे से रणनीति बनाने में जुटा है! प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सबसे ताकतवर नाम कमलनाथ का सामने आया है! इस नाम की काट करने की कोशिश कहीं से नहीं की गई, तो माना गया कि ये पार्टी की रणनीति का ही कोई हिस्सा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की संभावित भूमिका तय हो जाने के बाद स्वाभाविक सा सवाल है कि फिर दिग्विजय सिंह कहाँ होंगे? क्या वे अपनी आध्यात्मिक नर्मदा परिक्रमा के बाद घर लौट जाएंगे? तो ये बात किसी के गले नहीं उतरती! समझा जा रहा है कि वे विधानसभा चुनाव के दौरान परदे के पीछे रणनीतिकार हो सकते हैं। क्योंकि, दिग्विजय सिंह का नेटवर्क आज भी बेजोड़ है। लेकिन, दिग्विजय सिंह फिलहाल खामोश हैं! उन्हें पता है कि मतदाताओं के बीच उनकी छवि अभी चुनाव जिताने वाली नहीं है। पर, प्रदेश में सबसे बड़ी कांग्रेस लॉबी आज भी उनके पास है।
  इस बात से शायद कोई इंकार नहीं करेगा कि आज ज्योतिरादित्य सिंधिया किसी भी राजनीतिक पार्टी के मुकाबले कांग्रेस के सबसे ज्यादा स्वीकार्य यूथ आइकॉन हैं। उनकी जोड़ का युवा नेता किसी पार्टी के पास नहीं! यदि कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर ज्योतिरादित्य पर दांव लगाती है, तो भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी, उनके खिलाफ माहौल बनाना, जो आसान नहीं है! लगातार तीन चुनाव जीतकर भाजपा ने अपने सारे राजनीतिक हथियार आजमा लिए हैं! अब ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जो मतदाताओं को आकर्षित करेगा! एक तरफ भाजपा का चुनाव प्रचार रक्षात्मक होगा, वहीं कांग्रेस की भूमिका हमलावर की होगी। ऐसे में ज्योतिरादित्य सिंधिया का चेहरा कांग्रेस के लिए सोने पर सुहागा होगा! 
  उधर, दिग्विजय सिंह अपने समर्थकों के साथ 3,300 किलोमीटर लम्बी और लगभग 6 माह की नर्मदा परिक्रमा पर हैं। ये यात्रा विजयदशमी से शुरु हुई थी। मध्यप्रदेश में अगले साल दिसंबर में और गुजरात में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है। दिग्विजय की यह यात्रा मध्यप्रदेश के 110 और गुजरात के 20 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजर रही है। दिग्विजय की इस यात्रा को 'मास्टर स्ट्रोक' माना जा रहा है। वे यात्रा के दौरान तो कोई राजनीतिक बातचीत नहीं कर रहे, पर इस नर्मदा परिक्रमा के बाद वे प्रदेश सरकार पर बड़ा हमला बोलेंगे, इस बात को अच्छी तरह समझा जा रहा है। दिग्विजय सिंह ने इसे अपनी आध्यात्मिक यात्रा बताया जो पूरी तरह से गैर-राजनीतिक है। लेकिन, उस वक्त जब कांग्रेस का सारा नेतृत्व गुजरात और हिमाचल प्रदेश की चुनाव रणनीति में जुटा है, आखिर दिग्विजय की इस यात्रा के मायने क्या हैं?
दिग्विजय ने खुद भी कहा कि वे अभी नर्मदा के तट पर हैं। इसलिए केवल यात्रा की ही बात करेंगे। यात्रा के बाद वह खुलकर राजनीति करेंगे और मध्यप्रदेश की गली-गली में घूमेंगे। सभी की नजर इस यात्रा पर है। लोग इस यात्रा के मायने ढूंढ रहे हैं। लेकिन, दिग्विजय कहते हैं कि अभी और कोई बात नहीं! फिलहाल सिर्फ नर्मदा और परिक्रमा के बारे में बात कीजिए। कांग्रेस नेताओं का दावा है कि भले ही ये उनकी निजी यात्रा हो मगर इससे विधानसभा चुनावों के पहले पार्टी को ताकत मिलेगी! जब कोई नेता धार्मिक या आध्यात्मिक यात्रा करे और राजनीति से विलग रहे, ये कैसे संभव है?
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Saturday, October 21, 2017

मनोरंजन में आने लगा देसीपन!

- हेमंत पाल

   एक ही ढर्रे पर चलने वाले टेलीविज़न के सीरियलों की पृष्ठभूमि में बदलाव नजर आने लगा है। अब नए कथानकों पर भी सीरियलों की कहानियां गढ़ी जाने लगी। अभी तक छोटे शहरों और कस्बों पर केंद्रित सीरियलों के परिवार देखने में आम संस्कारी परिवारों जैसे दिखते थे। लेकिन, उनकी मानसिकता आम लोगों से नहीं जुड़ती थी, पर अब कुछ अलग दिखने लगा! जिस मकसद से उन्हें रचा गया वह अब पीछे छूटता नजर नहीं आता है। वास्तव में टीवी के ये सीरियल परिवार और समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति, रीति-रिवाज, ऊंच-नीच, धर्म और जाति के आधार पर उनके शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने के इरादे से मैदान में उतरे थे। लेकिन, इनमें से अधिकांश सामाजिक व्यवस्था में सुधार की कोई नई दिशा नहीं दिखा पाए। दरअसल, मजबूरी शायद ये रही कि किसी ने भी लीक तोड़ने का खतरा नहीं उठाया।
   किसी भी फिल्म या सीरियल से यथार्थ की हद तक स्वाभाविकता की उम्मीद नहीं की जा सकती। यथार्थ और कल्पना के बीच फर्क तो बना रहना भी जरुरी है। लेकिन, कल्पनाशीलता में विश्वसनीयता का आभास होना चाहिए। दर्शक को चरित्र अपने आसपास के लगें, उनकी खुशी और दर्द से दर्शक खुद से जोड़ पाए यही किसी सीरियल की सार्थकता मानी जाती है। इस कसौटी पर फिलहाल कुछ सीरियल जरूर खरे उतरते दिखाई दिए हैं। ‘लाइफ ओके’ के नए चेहरे 'स्टार भारत' पर आने वाले सीरियलों में भारतीय परंपरा और समाज की नई पहचान नजर आ रही है। मनोरंजन का देसीपन नजर आने लगा है, जो हमारे आसपास की कहानी लगती है। 
 अभी तक हो ये रहा था कि यदि किसी सीरियल को दर्शकों ने पसंद कर लिया तो उसी फार्मूले को भुनाने के चक्कर में उसके कथानक को अनावश्यक विस्तार दिया जाने लगता है। ये प्रयोग हर चैनल पर होते हैं और हर चैनल ने सीरियलों का अपना एक अलग ही समाज बना रखा है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा महिलाओं के किरदार पर! क्योंकि, सीरियलों वाले समाज में महिलाओं के दो ही रूप हैं। वो या तो शोषण करने वाली कुटिल सास, बुआ, दादी या भाभी है या फिर सबकुछ सहने वाली बहू! कथानक को सही ठहराने के लिए इस पर मान्यताओं और परंपराओं का आवरण चढ़ा दिया गया।
  महानगरों और शहरों में बसने वाले समाज में हालात भले बदले हों, लेकिन सीरियलों की दुनिया में रूढ़ियों का सोच जस का तस है। इस पर दलील यह दी जाती है कि आज के टेलीविजन दर्शकों को यही नाटकीयता पसंद है। लेकिन, इस आड़ में सीरियल बनाने वाले अपने अधकचरे समाज को सही ठहरा रहे हैं। क्योंकि, उनका तर्क है कि नई सामाजिक व्यवस्था देना या नई सोच जगाने का दायित्व उनका नहीं है। सीरियलों ने समाज से ही अपने किरदार बनाए हैं और अपने नजरिए से उन्हें विकसित किया। लेकिन, धीरे-धीरे बदल रही है। अब नए विषय उठाए जा रहे हैं। चरित्रों को भावनात्मक पहचाने देने की कोशिश हो रही है।
 सीरियलों का रंगरूप बदलने का सिलसिला अब नए सिरे से शुरू हुआ है। पारिवारिक साजिश और सामाजिक सुधार का ढिंढोरा पीटने वाले सीरियलों की दौड़ में कुछ ऐसे सीरियल भी जुड़े, जिन्होंने मानवीय रिश्तों की संवेदनाओं को उभारा। इन सीरियलों ने एक अलग विषयों से दर्शकों को बांधने की कोशिश की। परिवार वही रहे, पर उनकी मानसिकता बदलने लगी। ईर्ष्या और बदले के तत्व इन सीरियलों में भी रहे, पर वे कथानक पर हावी नहीं हुए। रिश्तों में उतार-चढ़ाव तो दिखा, लेकिन वे जोड़ने की कोशिश में वे ज्यादा लगे नजर आए।
 'स्टार भारत' के इन सीरियलों में नाटकीयता तो है, जो मनोरंजन की खातिर होना भी चाहिए। लेकिन, साजिशों का भंवरजाल नहीं! इन गिनती के सीरियलों ने सकारात्मक सोच देने की भी कोशिश की है। आज स्थिति यह है कि सीरियल पारिवारिक पृष्ठभूमि के हों या इतिहास के पन्नों को साकार करने वाले। या फिर पौराणिक अथवा दंतकथाओं की पृष्ठभूमि वाले! कुछ को छोड़कर सभी की स्थितियां गढ़ने की कल्पनाशीलता एक जैसी हैं। देखना है कि सफल फार्मूलों की नक़ल करने वाले चैनल 'स्टार भारत' के सकारात्मक सोच की नक़ल करते हैं या नहीं?
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Sunday, October 15, 2017

वक़्त के साथ बदला प्यार का अंदाज

- हेमंत पाल

  हमारे यहाँ फिल्मों का दौर समय, काल और परिस्थितियों के साथ बदलता रहा है। कहानियाँ बदली, संगीत बदला, कॉमेडी बदली और सबसे ज्यादा बदला है प्यार का अंदाज! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में नायक-नायिका पेड़ों के चारों तरफ घूमकर या खेतों में गाने गाकर प्यार जताते थे। इस बहाने वे प्यार का इजहार भी कर देते थे। जब वे प्यार के अहसास से सराबोर होते, लहलहाते खेतों में हाथों में हाथ डालकर प्रेम-गीत गुनगुनाते नजर आते थे। लेकिन, ये अंदाज समाज के बदलने साथ बदलता गया। बीच में एक दौर ऐसा भी आया जब खेतों में पनपने वाला प्यार बगीचों में उतर आया! कश्मीर की हसीन वादियों के सुहाने मौसम में प्यार की भाषा बोली जाने लगी। इसके बाद ये प्यार कश्मीर की वादियों से नीदरलैंड के ट्यूलिप बागान और स्विट्जरलैंड की बर्फीली वादियों तक पहुँचा।

  आज समय भले ही बदल गया हो, प्यार का अंदाज भी बदल गया हो, पर हकीकत ये है कि सिनेमा में भी प्यार की परिभाषा और प्यार का अर्थ वही है जो पहले था। प्यार करने वाले लोग बदल गए! वक़्त के साथ उनका अंदाज भी बदल गया! प्यार को व्यक्त करने का तरीका बदल गया, लेकिन प्यार नहीं बदला प्यार का अहसास नहीं बदला। फिर भी सिनेमा के परदे पर प्यार के अंदाज का जो अहसास आज भी याद किया जाता है, वो सिनेमा के कुछ कालजयी दृश्य। 
  हिन्दी फिल्मों के स्वर्णिम काल में मोहब्बत में डूबे नायक-नायिका की आँखे बोलती थी। आंखों ही आँखों में प्यार का इजहार हो जाया करता था। उनकी प्यार की गहराई दर्शक उनकी आँखों में ही पढ़ लेते थे। 'आवारा' में नरगिस और राजकपूर के बीच रोमांटिक दृश्यों को कोई कैसे भूल सकता है? 'मुगल-ए-आज़म' का वो रोमांटिक सीन जिसमें दिलीप कुमार पंख से मधुबाला के चेहरे को सहलाते हैं। दोनों के चेहरे के बदलते भावों से ही दर्शकों को उनके मनोभावों का अहसास हो जाता था।
 इसके बाद समय बदला और सिनेमाई प्यार का अंदाज भी! रोमांटिक भावनाओं को उभारने के लिए प्रेम में पगे गीत के साथ प्रकृति की खुबसूरती का भी सहारा लिया गया। बर्फीली वादियों के दृश्य भी नायक-नायिका के बीच के प्यार के संकेत बन गए। अब नायक नायिका की खूबसूरती की तारीफ करते हुए प्यार व्यक्त करने लगा। 'शोले' जैसी एक्शन फिल्म में भी रोमांस का रंग चढ़ा। धर्मेंद्र के पानी की टंकी पर चढ़ने का वो दृश्य आज भी याद किया जाता है। इसी तरह अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के बीच प्यार के खामोश इजहार ने भी दर्शकों के दिल को छू लिया था।
 आज के वक़्त में फिल्मों में प्यार को व्यक्त करने के दृश्य बेहद रोचक अंदाज में दिखाए जाने लगे। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में नायक शाहरुख़ खान का खुद से ये कहना 'राज, अगर ये तुझे प्यार करती है तो पलट के देखेगी ... पलट … पलट!' ऐसे ही एक फिल्म 'सोचा न था' में नायक आधी रात को नायिका की बालकनी फांदकर घर में घुसकर पूछता है 'आखिर क्या है मेरे और तुम्हारे बीच?' ये ऐसे दृश्य हैं जो रोचक होने के साथ नए दौर के प्रेमियों की भावनाएं भी दर्शाते हैं।
  हिंदी सिनेमा में प्यार के इजहार के कुछ दृश्यों सबसे रोचक था 'दिल चाहता है' का वह दृश्य जिसमें नायक दूसरे की शादी में कई लोगों की मौजूदगी में अपने प्यार का इजहार करता है। इसमें यह दर्शाने की कोशिश की गई थी कि भागती जिंदगी में प्यार जैसे मुलायम अहसास को समझने के लिए समय नहीं मिल पाता। इसलिए कभी-कभी जीवन की आपाधापी में नायक, नायिका प्यार के अहसास को महसूस किए बिना प्यार का इजहार कर देते हैं।
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Friday, October 13, 2017

मध्यप्रदेश में अगला चुनाव यानी अच्छी छवियों का संघर्ष!

- हेमंत पाल 

   अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव न तो चुनावी हथकंडों से जीता जा सकेगा और न वादे करके या कथित रंगीन सपने दिखाकर! यदि स्थितियां सामान्य रही तो बरसों बाद देश में ये ऐसा चुनाव होगा, जिसमें सत्ताधारी भाजपा की लोकप्रियता, मतदाताओं में पैठ और उसकी नीतियों का निष्पक्ष मूल्यांकन होगा। लगातार तीन चुनाव जीतकर भाजपा ने पिछले सालों में क्या कुछ किया, लोगों ने उसे कितना सही समझा, क्या फिर भाजपा को मौका दिया जाना चाहिए? अगला चुनाव इन सारे सवालों का सही आकलन होगा। इसलिए कि अगले चुनाव में जब भाजपा मतदाताओं के सामने वोट मांगने खड़ी होगी, तब उसके पास कोई ऐसा बहाना नहीं बचेगा कि वो मतदाताओं से आँख चुरा सके! उसे अपने तीन कार्यकाल का पूरा बही-खाता मतदाताओं के सामने रखना होगा। पार्टी के पास बचने का विपक्ष के असहयोग का कोई बहाना भी नहीं होगा। जबकि, कांग्रेस के पास सरकार के खिलाफ आरोपों की लम्बी फेहरिस्त होगी। 

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   जब भी कोई चुनाव आता है, सत्ताधारी पार्टी के सामने सबसे बड़ा संकट अपनी सरकार बचाने का होता है। मध्यप्रदेश में भाजपा ने लगातार तीन बार चुनाव जीतकर अपना झंडा गहरे तक तो गाड़ दिया, पर असली चुनाव इस बार है। भाजपा को लगातार दो बार कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की नाकामियों, कांग्रेस की आपसी सिर फुटव्वल और जीत के अतिआत्मविश्वास ने दिलाई। जबकि, भाजपा को मिली तीसरी जीत का कारण मोदी-लहर था। इससे कोई इंकार भी नहीं करेगा। लेकिन, इस बार ऐसे कोई फैक्टर नजर नहीं आ रहे, जो भाजपा को आसान जीत दिला सकें। भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने के लिए कड़ी चुनौती से जूझना है। क्योंकि, ऐसे कई कारण है जो भाजपा की राह में रोड़े अटकाएंगे। सबसे बड़ा रोड़ा है, भाजपा नेताओं की छवि! लोगों ने जिस विश्वास से कांग्रेस के बदले भाजपा को चुना था, वो विश्वास कई मायनों ध्वस्त हुआ। 
  भाजपा नेताओं की छवि का ग्राफ पिछले पाँच सालों में कुछ ज्यादा ही नीचे आया! ईमानदारी, मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी, पक्षपात, लोगों के प्रति व्यवहार और सामाजिक छवि के मामले में भाजपा नेताओं की छवि गिरी है। आज कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं करता कि भाजपा के विधायक, नेता और मंत्री ईमानदार, व्यावहारिक, गैर-पक्षपाती हैं। देखा जाए तो आज राजनीति की सारी खामियाँ भाजपा नेताओं में ही नजर आती हैं। ये खामी इसलिए ज्यादा नजर आती है, क्योंकि पार्टी के बड़े नेता और संघ के पैरोकार सुचिता के दंभ में चूर हैं। वे इस बात का दावा करने का मौका भी नहीं चूकते कि वे ही जनता के सही प्रतिनिधि हैं। इन सारी बुराइयों से कांग्रेस भी अलहदा नहीं है, लेकिन न तो उनके पास सत्ता है कथित बेईमानी करने के मौके! इसलिए चुनाव में मतदाताओं की नाराजी उन पर कम ही उतरेगी। कहने का तात्पर्य ये कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा नेताओं की छवि ज्यादा दागदार है। ऐसे में पार्टी को उन चेहरों को किनारे करना होगा, जो पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं। क्योंकि, पार्टी की छवि उन्हीं लोगों से बनती है, जो उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।         
 भाजपा भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि उसके लिए अगला विधानसभा चुनाव आसान नहीं है। सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलने वाला, मतदाता सारे वादों का हिसाब मांगेंगे! पिछले चुनाव में मोदी-लहर ने विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका अदा की थी। इस बार ऐसी कोई उम्मीद नहीं कि केंद्र सरकार का कामकाज प्रदेश में जीत का मददगार बनेगा। क्योंकि, 'अच्छे दिन आएंगे' जैसे लोक लुभावन नारे, नोटबंदी और जीएसटी की नाराजी का खामियाजा भी प्रदेश में भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। ऐसे में सरकार बचाने का यही उपाय है कि अच्छी छवि वाले चेहरों को चुनाव के मैदान में उतारा जाए। पार्टी ने भी इस आशंका को भांप लिया है। अतः जिन विधायकों की छवि अच्छी नही है, उनका टिकट कटना लगभग तय है। पिछली बार मोदी-लहर में कई ऐसे लोग जिनकी छवि अच्छी नहीं थी, फिर भी वे विधायक बनने में कामयाब हो गए थे। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं होगा। ऐसे विधायकों पर गाज गिरनी तय है, जिनकी छवि दागदार है। इसकी संख्या कितनी होगी, अभी यह कह पाना अभी मुश्किल है। लेकिन, ये दो अंकों से आगे भी बढ़ सकती है। पार्टी आलाकमान के इशारे पर प्रदेश के ऐसे विधायकों की सूची बनना शुरू हो गया है, जिनकी जनता के बीच नकारात्मक छवि बनी है।
  संघ को भी मध्यप्रदेश के बारे में जो रिपोर्ट मिली है, उसके सरकार के हालात ठीक नहीं हैं। इसमें समय रहते बड़ा सुधार नहीं किया गया तो भाजपा के लिए 'मिशन-2018' मुश्किल हो जाएगा। जनता निचले स्तर के भ्रष्टाचार से परेशान है। योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो रहा! घोषणाओं के बाद भी योजनाओं का फायदा वंचितों तक नहीं पहुंच रहा! अफसरों की मनमानी से लोग परेशान हैं। मंत्री और संगठन के पदाधिकारी जनता के प्रति गंभीर नहीं हैं। संघ की स्पष्ट हिदायत है कि लोगों की नाराजी के जो भी कारण हैं, उनपर काबू पाया जाए! फिर भी कोई सुधार नजर नहीं आ रहा। क्योंकि, निरंकुश अफसरशाही और खुद को खुदा समझने वाले मंत्रियों और विधायकों के तेवर अब लोगों को रास नहीं आ रहे! उनमें बदलाव आता है, तो लोग ये समझेंगे कि ये सिर्फ दिखावा और चुनाव जीतने का हथकंडा है!
  भाजपा नेताओं के बेलगाम बोल और तेवर अब जनता के निशाने पर हैं। भाजपा के इन नेताओं पर न तो पार्टी कोई कार्रवाई करती है और न सत्ता के भय से प्रशासन ही कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा पाता है। अब इस सबका मूल्यांकन आने वाले चुनाव में होगा। भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष सुदर्शन गुप्ता, रामेश्वर शर्मा, सांसद चिंतामणि मालवीय, विधायक शंकरलाल तिवारी, सुदर्शन गुप्ता, कालूसिंह ठाकुर और वेलसिंह भूरिया के धमकी भरे ऑडिया भी लोगों ने सुने हैं। ये सारे सबूत पार्टी की नीयत और सरकार की मंशा पर भी सवाल खड़े करते हैं! संगठन पदाधिकारियों की वाचालता इसलिए भी ध्यान देने वाली हैं, क्योंकि संघ की समन्वय बैठक में इन नेताओं ने ही भ्रष्टाचार को लेकर अफसरों पर हमला बोला था! किसी भी नजरिए से देखा जाए तो इस बार विधानसभा का चुनाव भाजपा के लिए आसान चुनौती नहीं है। उसे चौथी बार चुनाव जीतने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना होगा। जबकि, मुकाबले में खड़ी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है। कांग्रेस के उम्मीदवारों की छवि पर कोई उंगली भी नहीं उठाई जा सकेगी! ऐसे में छवि बचाने का सबसे बड़ा संकट भाजपा के सामने ही है। 
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Thursday, October 12, 2017

एक मोहब्बत की दूरियाँ और मजबूरियां


 - हेमंत पाल 

अक्टूबर के इस सप्ताह बालीवुड की सदाबहार जोडी अमिताभ और रेखा दोनों का जन्मदिन हैं  एक दिन आगे-पीछे जन्मे अमिताभ और रेखा कभी फिल्मों में एक दूसरे के आगे पीछे घूमते थे। रही बात परदे पर इनकी केमिस्ट्री की, तो इस जोडी को भी दर्शकों ने राजकपूर और नर्गिस या धर्मेन्द्र हेमा मालिनी की जोडी की तरह सराहा और पसंद किया। आज भी  रेखा और अमिताभ की  सदाबहार और खूबसूरत जोड़ी का जिक्र होता है। लोग दोनों की अधूरी प्रेम कहानी को भी याद करते हैं। अमिताभ बच्चन और रेखा का नाम बॉलीवुड की दुनिया में जोड़ियों की लिस्ट में काफी चर्चित नाम हैं।  दो अनजाने से बनी इस बालीवुड     की बेहतरीन जोड़ी ने आखिरी बार यश चोपड़ा की रोमांटिक ड्रामा फिल्म 'सिलसिला' में एक साथ     काम किया था।
  अमिताभ का साथ मिलते ही रेखा का फिल्मी कैरियर उडाने भरने लगा। मानो अमिताभ उनके लिए किस्मत की लॉटरी का टिकट लेकर आए हों। मशहूर फिल्म निर्देशक प्रकाश मेहरा की फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में रेखा और अमिताभ की जोड़ी ने पहली बार शोहरत के आसमान को छुआ था। देखते ही देखते इस जोड़ी ने हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया था। हिन्दी सिनेमा की जोड़ियों की एक पुरानी आदत है कि पर्दे पर दिखाई गई प्रेम कहानी निजी जिंदगी की भी प्रेम कहानी बन जाती है। रील लाइफ के प्यार को रियल लाइफ के प्यार में बदलने की जो परंपरा राजकपूर-नर्गिस, देवआनंद-सुरैया, दिलीप कुमार-मधुबाला, ऋषि कपूर-नीतू सिंह, रणधीर कपूर-बबीता और धर्मेन्द्र हेमा मालिनी ने आरंभ की थी। उसी परम्परा को अमिताभ-रेखा ने बड़े प्यार से आगे बढाया। जैसे-जैसे इन दोनों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट होने लगी, वैसे-वैसे ही निजी जिंदगी में भी इनका प्यार गहरा होता चला गया। दोनों की एक साथ की गई सुपरहिट फिल्में सुहाग, मि. नटवरलाल, गंगा की सौगंध, नमक हराम, खून पसीना और सिलसिला हैं।
  अमिताभ पर अपने हुस्न का जादू चलवाने के लिए रेखा ने खुद को पूरी तरह बदल दिया था। बतौर अभिनेत्री पहली हिंदी फिल्म सावन भादो में सांवली और मोटी सी दिखने वाली रेखा, अमिताभ से प्यार के बाद काफी बोल्ड दिखने लगी थीं। इन दोनों के चाहने वाले आज भी फिल्म 'सिलसिला' में दिखाई गई अमिताभ और रेखा की लव स्टोरी को याद करते हैं। फिल्म 'कुली' की शूटिंग के दौरान हुए हादसे के बाद फिल्मी दुनिया के दो परिंदों की सच्ची प्रेम कहानी का अंत हो गया था। 'कुली' के दौरान घायल अमिताभ की जान की दुआ मांगने के लिए रेखा ने वह सब किया जो शायद 'किसी' ने नहीं किया होगा। उज्जैन आकर महामृत्युंजय जाप और परिक्रमा के प्रभाव से अमिताभ तो बच गए! लेकिन, दोनों के बीच प्यार नहीं बच पाया।
  इस दौरान दोनों के बीच एक तनाव की स्थिति निर्मित हो गई, जिस वजह से दोनों के सिवा तीसरा कोई नहीं जानता था! आज भी यह बात राज ही है कि 'कुली' के दौरान हुई घटना के बाद ऐसा क्या हो गया था जो अमिताभ और रेखा को एक-दूसरे का साथ छोड़ना पड़ा। बीच-बीच में दोनों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण की खबरें आती है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में जया और रेखा आमने सामने आ गए और दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन कर शिष्टाचार और सौहाद्रता का परिचय दिया जो वास्तविक कम और फिल्मी ज्यादा दिखाई दे रहा था।
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Monday, October 2, 2017

कांग्रेस के पास इंदौर में आठ सीटों के आठ नेता भी नहीं!

- हेमंत पाल   

  इंदौर में कांग्रेस की राजनीति बुरी तरह थक चुकी है। शहर में आज कांग्रेस की राजनीति का कोई नामलेवा नहीं बचा। फिर भी नेताओं का अहम् और मतभेदों के अध्याय कम नहीं हुए। अब तो हालत ये हो गई कि इंदौर में सारे कार्यकर्ता नेता बन गए। कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम में लगी कुर्सियों का भरना तक मुश्किल हो गया है। लेकिन, पोस्टरों पर नेताओं के चेहरों की चमक कम नहीं हो रही। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पीढ़ियां बदल जाने और एलईडी के ज़माने में भी पार्टी फ्यूज बल्बों से अपना घर रोशन करने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि दिमाग पर जोर डालने पर भी इंदौर की राजनीति में पाँच ऐसे नेता याद नहीं आते जो नई पीढ़ी से उभरे हों! आज भी पार्टी ने तीन दशक पुराने नेताओं को ही कांग्रेस का कर्णधार बना रखा हैं। ये खुद तो कुछ कर नहीं पाते, नए नेताओं को भी उभरने नहीं देते!
  इंदौर जिले में विधानसभा की आठ सीटें हैं, पर आज पार्टी के पास ऐसे आठ नेता नजर नहीं आते, जिन्हें सालभर बाद चुनाव लड़ना है। विधानसभा की पाँच सीटें इंदौर में ही हैं, जिनमें चार पर भाजपा का कब्ज़ा है। सिर्फ राऊ की सीट कांग्रेस के पास है, जहाँ से जीतू पटवारी विधायक हैं। तय है कि पटवारी फिर वहीं से चुनाव लड़ेंगे, पर बाकी की चार सीटों पर पार्टी की कोई तैयारी नजर नहीं आती। जैसा कि हमेशा होता है, इस बार भी एकवक्त पर पत्ते फैंटे जाएंगे और जिसके पास ट्रम्प होगा, टिकट उसे मिल जाएगा। इंदौर में कांग्रेस के नेताओं में जितने मतभेद हैं, उनका विधानसभा चुनाव तक सुलझना संभव नहीं है। मुद्दे की बात ये कि पिछले एक दशक से शहर में कांग्रेस का ऐसा कोई नेता बचा, जो सर्वमान्य हो! 
  कांग्रेस ने तो इंदौर में 'मिशन-2018' की जिम्मेदारी महेश जोशी को सौंपी है। उन्होंने भोपाल में संगठन कार्यालय पर अपना काम भी शुरू कर दिया है। महेश जोशी ने पिछले चुनाव के बाद सक्रिय राजनीति से अपने आपको मुक्त कर लिया था और पैतृक गांव कुशलगढ़ में जा बसे थे। उन्हें वापस बुलाकर पार्टी ने काम सौंपा है। वे इंदौर समेत प्रदेश स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोड़ने के काम में लगे हैं। लेकिन, वे ये काम ठीक से कर सकेंगे, इसमें शक है। क्योंकि, अब उनकी कोड़ा-फटकार राजनीति का दौर नहीं रहा। वे जिस लहजे में बात करते हैं, वो आज की पीढ़ी के नेताओं को सुनने की आदत नहीं है। उनकी संगठन क्षमता पर किसी को शक नहीं है और पार्टी के सभी बड़े नेता उनके कायल रहे हैं। लेकिन, वे राजनीति की बदलती धारा के मुताबिक खुद को बदल नहीं सके! यही कारण है कि उनके सक्रिय होते ही उनके विरोध के मोर्चे भी उभर गए!
  कांग्रेस का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो इंदौर में कांग्रेस को सक्रिय करने की कोशिश करता दिखाई देता हो! शहर कांग्रेस के अध्यक्ष का मसला भी उलझा हुआ है। कांग्रेस तभी दिखाई देती है, जब कोई बड़ा नेता इंदौर आता है। महिला कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष शोभा ओझा भी तभी अवतरित होती हैं, जब बड़ा मंच सजता है। राऊ के विधायक जीतू पटवारी ही अकेले नेता हैं, जो हर फटे में टांग अड़ाने माहिर माने जाते हैं। लेकिन, उनकी गतिविधियां सेल्फ प्रमोशनल एक्टिविटी ज्यादा लगती है। कई कांग्रेसी नेता तो भाजपा के आभामंडल से प्रभावित होकर अंदर से भाजपाई ही हो गए! इसके अलावा जिन्हें कांग्रेसी नेता कहा जाए वे सिर्फ बयानबाजी और नकली आंदोलन से खुद को जिंदा रखने की कोशिश तक सीमित हैं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है।
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Sunday, October 1, 2017

अब दर्शकों चाहिए नई कहानियाँ


- हेमंत पाल 

  आज के सिनेमा ने मनोरंजन के मायने बदल दिए। अब सिनेमा मतलब टाइम पास नहीं बचा। फिल्मकारों ने भी समझ लिया है कि नई पीढ़ी के दर्शक लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होंगे। उन्हें कुछ ऐसा मनोरंजन देना होगा, जो सार्थक हो और जीवन करीब लगे! यही कारण है कि करण जौहर जैसे आधुनिक फिल्मकार भी अपने रोमांटिक सोच से बाहर निकले और 'बॉम्बे टॉकिज' जैसी फिल्म बनाने को मजबूर हुए। हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को ठीक से इसलिए भी समझा कि लोग बड़ी    मुश्किल से थिएटर की तरफ मुड़े हैं। बीच के कुछ साल ऐसे भी बीते जब दर्शकों ने सिनेमा से नाता ही तोड़    लिया था। 
  हाल के वर्षों में तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, हिंदी मीडियम, टॉयलेट : एक प्रेमकथा, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, नाम शबाना और बरेली की बरफी जैसी कुछ फिल्मों ने दर्शकों नई तरह का सिनेमा दिखाया। इंडस्ट्री को ऐसे पटकथाकार भी दिए, जो कुछ नया सोचते हैं। इन सभी फिल्मों में न तो स्‍टार थे और न बॉलीवुड मसाला। इसके बावजूद इन फ़ि‍ल्‍मों ने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया और अच्छी ख़ासी कमाई भी की। इसी का असर है कि इन दिनों बॉलीवुड फ़िल्मों में कहानियों की विषय वस्‍तु से लेकर उसे दिखाने का ढंग भी बदलने लगा है। 
  वैसे तो आज भी फ़िल्में हीरो प्रधान ही बनती हैं, लेक‍िन अब कहानी में चरित्र प्रधान होने लगे। दर्शकों का ध्यान अब हीरो, हीरोइन के अलावा अन्य चरित्रों पर भी जाता है। पाँच साल पहले क्या कोई 'पीकू' और 'शुभमंगल सावधान' जैसी फ़िल्‍मों के बारे में सोचा सकता था? इसमें भी 'शुभमंगल सावधान' का तो विषय ही ऐसा है जो बिल्कुल अनोखा है।  'शुभमंगल सावधान' जैसे निहायत निजी विषय पर भी फिल्म बनाने के प्रयोग को हिम्मत ही माना जाना चाहिए। लेकिन, आजकल ऐसे ही अनोखे और नए विषयों पर फ़िल्म बनाने के प्रयोग होने लगे। क्योंकि, अब दर्शकों की रूचि भी ऐसे विषयों को लेकर बढ़ी है।
  देखा जाए तो आज के सिनेमा ने तमाम तरह की रूढ़ियों और वर्जनाओं को खंडित किया है। इसने वक़्त की नब्ज को पहचाना और ऐसा दर्शक वर्ग तैयार किया, जिसे प्रेम और खून का बदला खून जैसी कहानियों में कोई रूचि नहीं है। अब तो कथानक, भाषा, पात्र के अलावा प्रस्तुतिकरण में भी बदलाव दिखाई देने लगा! सबसे बड़ी बात ये कि दर्शकों ने सिनेमा के इस बदले रूप को स्वीकार भी किया है। कुछ ऐसी फिल्में भी बनी, जिन्होंने सिनेमा और समाज के परम्परागत ढांचों को तोड़कर जीवन के बीच से नई कहानियां खोजी है। इस तरह के बदलाव पहले भी आए, लेक‍िन अब ऐसी फ़ि‍ल्‍में कुछ ज्‍़यादा बनने लगी जो हमारे आसपास की कहानी लगती है। सुपर हीरो वाली कहानियों की जगह चरित्र वाली कहानियाँ ज्यादा आ रही हैं। माना जा रहा है कि पटकथा लेखकों के निर्देशक बनने से ये दौर मुमकिन हुआ है। ये लोग असली जिंदगी की पैचीदगियों को परदे पर उतारना चाहते हैं, इसलिए वे हर पटकथा पर ज्यादा रिसर्च भी करते हैं। 
  'शुभमंगल सावधान' नए सोच के सिनेमा का सटीक नमूना है। कोई सोच सकता है कि नायक की कमजोर पुरुषत्व वाली समस्या को भी फिल्म की कहानी का विषय बनाया जा सकता है। परफॉर्मेन्स एंग्जायटी आदमी के जीवन पर किस हद तक असर डाल सकती है! सही जानकारी के अभाव में कोई मानसिक रूप से कितना परेशान हो सकता है! आज खुलेपन के दौर में इस फिल्म में बिना शारीरिक संबंध के भी पति-पत्नी के प्यार को अहमियत दी गई है। सिर्फ प्यार के आधार पर कैसे रिश्ता निभाया जा सकता है और एक साधारण सी लड़की पति की उस एंग्जायटी को दूर करने में सबसे ज्यादा मददगार बनती है। 'शुभमंगल सावधान' का ये विषय दर्शकों को भी लुभाया। क्योंकि, ये नई तरह के सोच वाली कहानी जो है। 
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