Friday, April 23, 2021

खबरों की प्रतिद्वंद्विता में अफवाहों का बाजार गर्म

   जब से सोशल मीडिया सक्रिय हुआ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ख़बरों की होड़जोड़ मची, तब से अफवाहों का बाजार ज्यादा गर्म होने लगा! ऐसे में सबसे ज्यादा अफसोसजनक ख़बरें होती है, किसी की मौत की गलत जानकारी देना। बाद में जब असलियत सामने आती है, तो सब दुबककर माफ़ी तो मांग लेते हैं, पर वे ये नहीं जानते कि अफवाह के बाजार में आने और उसके खंडन के बीच का समय उस व्यक्ति के परिजनों और उसे जानने वालों के लिए कितना त्रासद होता है! ऐसा ही एक ताजा मामला है लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को लेकर उड़ी अफवाह का! बाद में खबर की वास्तविकता सामने आ गई, पर सवाल ये उठता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के बारे में ऐसी कोई जानकारी मिलने पर उसकी पुष्टि क्यों नहीं की जाती! कम से कम न्यूज़ चैनलों की इतनी जिम्मेदारी तो बनती है!
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- हेमंत पाल 

   लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और इंदौर से भाजपा की आठ बार सांसद रहीं सुमित्रा महाजन के निधन की अफवाह गुरुवार देर रात जमकर उड़ी। दिल्ली, मुंबई से इंदौर तक फोन घनघनाने लगे! स्थिति यहाँ तक आ गई कि महाजन के बेटे मंदार को वीडियो जारी करके अपनी माता के स्वस्थ होने की जानकारी देना पड़ी। कुछ ऑडियो मैसेज भी जारी किए गए, जिनमें सुमित्रा महाजन ने खुद अपने स्वस्थ होने की बात कही और इस अफवाह पर चिंता जताई! शशि थरूर ने तो सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि तक देने में देर नहीं की। झूठी खबर पोस्ट होते ही वायरल होने लगी! लेकिन, सच्चाई सामने आते ही शशि थरूर की जमकर किरकिरी हुई। ट्रोल होते देख शशि थरूर ने अपने ट्वीट के लिए माफी मांगी। इस बात का खंडन करते हुए पार्टी ने कहा कि सुमित्रा महाजन पूरी तरह से स्वस्थ हैं। उनकी कोविड रिपोर्ट भी नेगेटिव आई है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने भी ट्वीट किया कि ताई पूरी तरह से स्वस्थ हैं और भगवान उनको लंबी उम्र दे। राजस्‍थान के मंत्री और राजस्थान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने भी इस बारे में ट्वीट किया, जो उन्होंने बाद में डिलीट कर दिया। 
   इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी अपनी आदत के मुताबिक पीछे नहीं रहा और सबसे पहले खबर देने की होड़ में इस बात को प्रचारित किया। करीब सभी चैनलों ने सुमित्रा महाजन के निधन की गलत खबर को बिना पुष्टि किए दिखाया! शायद ही कोई न्यूज़ चैनल होगा, जिसने इस दौड़ में हिस्सा नहीं लिया हो! लेकिन, किसी ने न तो प्रशासन से जानकारी लेना ठीक समझा और न महाजन के परिवार से! जबकि, वास्तव में सुमित्रा महाजन की पिछले दिनों तबीयत बिगड़ गई थी। उन्हें हल्का बुखार था, इसलिए उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया था। बताते हैं कि पूरी जाँच के लिए उन्हें बॉम्बे हॉस्पिटल में रखा गया है, वहीं से यह बात फैली।  
      नेताओं और चर्चित लोगों के निधन की ऐसी गलत ख़बरों का बाजार हमेशा ही गर्म रहा है। कई बार तो जिम्मेदार लोगों ने भी इस मामले में गलती की। 1979 में भी जयप्रकाश नारायण की मौत की अफवाह उड़ गई थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने संसद में शोकसभा का आयोजन तक कर दिया था। बाद में चंद्रशेखर को कार के ऊपर चढ़कर भीड़ को बताना पड़ा कि खबर गलत है और जयप्रकाश नारायण अभी ज़िंदा है! ऐसे मामलों में अटल बिहारी बाजपेई को भी लोगों ने नहीं छोड़ा। दो-तीन बार उनको लेकर अफवाह उड़ी। खबर बाहर आते ही लोगों ने इसे वायरल किया और उन्हें श्रद्धांजलि देना शुरु कर दिया गया। लोगों ने बिना पुष्टि के खबर को सच मानकर उसे आगे बढ़ाया। लेकिन, कुछ देर बाद खबर झूठी निकली। उड़ीसा के बालासोर जिले में एक प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल ने तो बिना जानकारी अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि दे दी। बाद में प्रिंसिपल ने अपनी गलती के लिए माफी मांगी। लेकिन, कलेक्टर ने उन्हें निलंबित कर दिया था। 
   समाजवादी नेता अमर सिंह के निधन की भी 3 मार्च 2020 को अफवाह उड़ी थी। जबकि, इसके उनका निधन इसके पाँच महीने बाद हुआ था। कई लोगों ने सोशल मीडिया पर अमर सिंह की सेहत के बारे में जानकारी लेना चाही, तो कई ने उनके निधन को लेकर ट्वीट किए। उनको सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियां दी जाने लगी। बढ़ती अफवाहों को देखकर सिंगापुर के अस्पताल में इलाज करवा रहे अमर सिंह ने खुद एक वीडियो जारी किया और इन अफवाहों पर विराम लगाया। अमर सिंह ने कहा था कि 'रुग्ण हूं, त्रस्त हूं व्याधि से लेकिन संत्रस्त नहीं हूं। हिम्मत बाकी है, जोश बाकी है और होश भी बाकी है। हमारे शुभचिंतक और मित्रों ने बड़ी तेजी से अफवाह फैलाई कि यमराज ने मुझे अपने पास बुला लिया है! ऐसा बिल्कुल नहीं है! मेरा इलाज चल रहा है! 6 मार्च 2020 को सोशल मीडिया पर उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर भी अफवाह उड़ा दी गई थी, जिससे हड़कंप मच गया। मामले को संज्ञान में लेते हुए एडीजी लॉ एंड ऑर्डर ने एसएसपी देहरादून को कड़ी कार्रवाई के निर्देश दिए थे। 15 नवंबर 2015 को सोशल मीडिया पर विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल के मौत की अफवाह उड़ी थी। इसके बाद विहिप के आईटी सेल ने ऐसी अफवाहों का खंडन किया था।  दरअसल, इलाहाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान सिंघल की तबियत अचानक से काफी खराब हो गई थी। इसके बाद उन्हें गुड़गांव के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। हाल ही में लालू यादव को लेकर भी ऐसी ही एक खबर सुनने में आई थी। 
     ये तो हुई नेताओं को लेकर उड़े अफवाहों के किस्से। लेकिन, फिल्म अभिनेताओं को लेकर भी ऐसी ख़बरें अक्सर उड़ती रहती है। अमिताभ बच्चन की तबीयत खराब होते ही उनके मरने की झूठी खबरें सोशल मीडिया पर आने में देर नहीं लगती। यहाँ तक कि उनके फोटो भी जारी कर दिए जाते हैं! ये जानते हुए कि वे अभिनेता हैं और उन्होंने कई फिल्मों में मरने के सीन किए हैं। पिछले कुछ महीने पहले ऐसी तस्वीर पहले व्हाट्सऐप पर आई, इसके बाद ट्विटर पर बच्चन की मृत्यु का हंगामा हो गया। बाद में खुद अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर इस बात को ग़लत ठहराया। ऐसे ही दिलीप कुमार, लता मंगेशकर और आशा पारेख के बारे में हो चुका है। दिलीप कुमार तो जब भी अस्पताल में भर्ती होते हैं, कहीं न कहीं उनके बारे में अफवाह उड़ ही जाती है। कैंसर से बीमार अभिनेता विनोद खन्ना जब अस्पताल में थे, उनके बारे में भी खबर सामने आई थी कि उनका निधन हो गया। मेघालय की भाजपा कमेटी ने विनोद खन्ना की मौत की झूठी अफवाह सुनकर दो मिनट का मौन भी रख लिया! हालांकि, बाद में माफी मांगते हुए कहा था कि हम विनोद खन्ना से माफी मांगते हैं! विनोद खन्ना की हालत में सुधार हो रहा है! 
      20 फ़रवरी 2017 को अभिनेत्री फरीदा जलाल की मृत्यु की अफवाह जमकर ट्रेंड हुई थी। बाद में अपने मरने की खबर पर फरीदा जलाल ने एक इंटरव्यू में कहा कि पहले तो मुझे लगा कि ये मज़ाक है, तो मैंने इस बात को तूल नहीं दिया। लेकिन, जब मेरा मोबाइल लगातार बजने लगा तो मैं खीझ उठी! कहा कि मैं ज़िंदा हूँ, ये अफवाह न फैलाएं! जबकि, फरीदा जलाल का निधन इस अफवाह के काफी दिनों बाद हुआ। लोगों ने तो रैप गायक हनी सिंह तक को नहीं छोड़ा। वे जब कुछ समय तक संगीत से दूर हुए, तो अफवाह फैला दी कि हनी सिंह चल बसे! उनकी मौत की वजह एक्सीडेंट बताया गया था। लेकिन, फिर हनी सिंह ने सोशल मीडिया पर लिखा कि ये सब अफवाह है, जो मुझसे नफरत करने वाले फैला रहे हैं! 
    बॉलीवुड अभिनेत्री सोनाली बेंद्रे को कैंसर हुआ था। उन्होंने लम्बे समय तक न्यूयार्क में अपना ट्रीटमेंट करवाया। लेकिन, 8 सितम्बर 2018 को भाजपा नेता राम कदम ने उन्हें श्रद्धांजलि देता एक ट्वीट किया, जिसके बाद यह फेक न्यूज सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। सोनाली की मौत की गलत सूचना फैलाने वालों को उनके पति गोल्डी बहन ने जमकर लताड़ा और निंदा करते हुए कहा था कि कृपया इस तरह की गलत सूचनाएं प्रसारित न करें। पिछले साल लॉक डाउन की घोषणा के बाद दर्शकों की मांग पर दूरदर्शन पर 'रामायण' का प्रसारण फिर से शुरू हुआ था। दर्शकों ने इसे खूब पसंद किया और इस प्रोग्राम ने टीआरपी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। इसी बीच 4 मई 2020 को 'रामायण' में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी के निधन की अफवाह सोशल मीडिया पर फैली। इसके बाद उनके परिवार ने स्पष्ट किया कि ये खबर सही नहीं है। उनके भतीजे कौस्तुभ ने ट्वीट करते हुए लिखा था कि मेरे अंकल अरविंद त्रिवेदी लंकेश पूरी तरह से स्वस्थ और सुरक्षित हैं। ऐसे में उनकी मौत की अफवाह न फैलाएं। 
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Friday, April 16, 2021

फिल्म संगीत में लोक संगीत का तड़का

- हेमंत पाल

   भारतीय समाज में संगीत और गीत के बिना कोई कार्यक्रम, कोई रीति-रिवाज पूरी नहीं होती। जनम से लेकर मरण तक की सारी परम्पराएं और सामाजिक कार्य ऐसे ही गीत और संगीत से सराबोर हैं। इस मस्ती में मन को सराबोर करने में लोक संगीत का बड़ा हाथ है। यह लोक संगीत हमारे जीवन में रंग भरते हैं, दिल को छूते हैं और आंखें भी नम करते हैं। कोई और संगीत इसकी जगह नहीं ले सकता। यहाँ तक कि देशभक्ति का जज्बा भी लोक संगीत से ज्यादा कोई नहीं जगा सकता! दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की पहचान का एक बड़ा कारण उसका संगीत भी है। गीत और संगीत का संयोजन फिल्मों का अभिन्न अंग होता है। कहानी के बीच में गीतों को इस तरह पिरोया जाता है कि सब एकाकार लगता है। हम सनातन हैं, हमारी संस्कृति सनातन हैं, हमारा राष्ट्र सनातन है और हमारे लोक गीतों से और लोक संगीत का भी पता चलता है। रामचरित मानस लोकगीत है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने सुंदर तालबद्ध तरीके से संजोया है। यही कारण है कि सदियों से इसे सभी भारतीय वाल्मीकि रामायण से अधिक गाते और सुनते हैं।
     हिंदी सिनेमा ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही फिल्म की कहानी में नहीं पिरोया, लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से अपनाया है! लोक संगीत हमारी लोक संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा है! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाए और बजाए जाने वाले गीतों को जब फिल्मों ने अपनाया तो वे अपनी सीमाओं से निकलकर पूरी दुनिया में छा गए। इस तरह लोक संगीत को देश के कोने-कोने तक पहुँचने का मौका मिला। इसका श्रेय हमारे संगीतकारों को दिया जा सकता है, जो देश के अलग-अलग प्रांत और पृष्ठभूमि से आए हैं। फिल्मों में कई बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत बज रहा है। जिस संगीतकार को मौका मिला, उसने अपने इलाके के लोक संगीत को भुनाया! लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया!
   ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लोक संगीत ने ही हमारी संस्कृति को आजतक सहेजकर रखा है। हमारी जड़ों को ज़मीनी खाद इन्ही लोक गीतों से मिल रही है। क्योंकि, इनमें अजब सी मस्ती होती है, जो दिल को प्रफुल्लित कर देती है। होली पर कई गीत गाए जाते हैं, पर बात 'सिलसिला' के लोकगीत 'रंग बरसे भीगी चुनर वाली रंग बरसे' के बिना पूरी नहीं होती। अमिताभ के ही गाए 'बागबान' के गीत 'होली खेलत रघुबीरा अवध में होली खेलत रघुबीरा’ भी उतना ही पसंद किया जाता है। 'गोदान' के गीत 'होली खेलत नंदलाल बिरज में होली खेलत नंदलाल' को कोई भूल नहीं सकता! वी शांताराम की फिल्म 'नवरंग' के गीत 'अरे जा रे हट नटखट न खोल मेरा घूँघट' का जादू भी आज तक बरक़रार है। वहीं 'गोदान' का गीत 'पिपरा के बतवा सरीखे मोर मानव के हियरा में उठत हिलोर' नायक के मन में अपने गाँव की हूक जगाता है, अपने गाँव की सोंधी सुगंध को याद कराता है। वैसे ही जैसे 'मेरे देश में पवन चले पुरवाई ओ मेरे देश में' कराता है।
     'मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे चोला' पंजाब का बच्चा-बच्चा गाता है, होली में गाते हुए नाचता है। इस लोक संगीत को और सुर देने की कोशिश एआर रहमान ने की! लेकिन, वे उसकी आत्मा नहीं जगा पाए, जो जमीन से जुड़ी लाल ने जगाई थी। कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो 'ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान' पर अपनी आँखें नम न कर ले। खासकर यदि वह अपने वतन से दूर है तो! क्योंकि, यह गीत उसके पास उसके देश की मिट्टी की सुगंध लेकर आता है। ये लोक संगीत की ही तरंग है कि नौशाद एक ही फिल्म में ठेठ भोजपुरी में सुनाते हैं 'नैन लड़ गई हैं तो मनवा मा खटक होई बे करी' तो उसी नायक से पंजाबी ताल पर भी गँवा देते हैं 'उड़े जब जब जुल्फें तेरी' और किसी दर्शक को यह बात खटकती भी नहीं। आज दशकों बाद भी ये दोनों गाने हमें आनंदित करते हैं। 
    इधर, कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने गुजरात के लोक संगीत की अजब मिठास घोली है! गरबा और डांडिया इसी गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। फिल्मों में गुजराती लोक संगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जाता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोक धुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस' फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हाँगकाँग’ में 'हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया तेरी जय-जयकार' गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया! उत्तर भारत की लोक धुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! 'सिलसिला' का होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे‘ और 'लम्हे' का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी 'दिल्ली-6' में छत्तीसगढ़ का लोकगीत शामिल किया था 'सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे' जिसे काफी पसंद किया गया!
     लोक संगीत इस तरह का संगीत है, जो हाथ दर हाथ आगे बढ़ता रहा। वह कभी किसी की मिल्कियत नहीं होता! नदी के पत्थर की तरह लोक संगीत लुढ़कता रहा, बहता रहा और खूबसूरत आकार में ढलता रहा। यही लोकगीत की खासियत भी है! फिल्मों ने इनकी पहचान को स्थाई जरूर बना दिया! इसलिए जब तक हिंदी फिल्मों में संगीत रहेगा, लोक संगीत को उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता! ऐसा नहीं कि आज के ज़माने के संगीतकार लोक संगीत और गीत से दूर गए! उनके पास शायद जड़ों से जुड़ी धुनों के बिना सदाबहार गीत देना मुश्किल हैं, वर्ना इतनी सुपरहिट फिल्में लोक संगीत से ही नहीं पहचानी जाती। संजय लीला भंसाली की 'पद्मावत' घूमर गीत के बिना अधूरी है। 'इंग्लिश विंगलिश' की भावुकता बिना ‘नवराई माझी लाडा ची’ दिल को पकड़ न पाती। 'माचिस' को याद करते ही ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ अपने आप होंठों पर आ जाता है। 'मिशन कश्मीर' का गीत 'भुंबरो भुंबरो श्याम रंग भुंबरो’ के बिना पूरी नहीं लगती। 'हम दिल दे चुके सनम' में 'निम्बुडा निम्बुडा' ही नायिका की भोली अल्हड़ता को उभार सकता है। इतना ही नहीं, फिल्म न चले लेकिन उसके लोकगीत उसे हमारे यादों में बसा देते हैं। चाहे वह 'दिल्ली-6' का 'ससुराल गेंदा फूल' हो या 'दुश्मनी' का 'बन्नो तेरी अखियाँ सुरमेदानी' गीत हो! 'तीसरी कसम' यदि अमर हुई है, तो वह भी उसके लोक संगीत के कारण। फिल्म संगीत से लोक संगीत की हिस्सेदारी को अलग कर दिया जाए, तो सुरों की ये दुनिया विधवा की जिंदगी की तरह बेरंग हो जाएगी।  
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Thursday, April 15, 2021

इंदौर में जनता के लिए कोरोना से किला लड़ाता अकेला नेता!

   संजय शुक्ला कांग्रेस के बहुत बड़े नेता नहीं है! वे इंदौर शहर की छह विधानसभा सीटों में से एक के विधायक हैं और पहली बार चुने गए। उनकी राजनीति की शुरुआत पार्षद से हुई थी! कांग्रेस ने उन्हें अगले निकाय चुनाव में इंदौर से महापौर पद का उम्मीदवार भी बनाया है। लेकिन, अभी इस नेता का जिक्र इसलिए कि कोरोनाकाल में उन्होंने अपनी सक्रियता से अपना कद इतना बढ़ा लिया कि कांग्रेस के अलावा भाजपा के सारे नेता भी उनके सामने बौने नजर आने लगे! उनकी पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि भाजपा की रही है, पर आज वे इंदौर में कांग्रेस के बड़े नेताओं की गिनती में आ गए। इसलिए कि कोरोना संक्रमण के दौर में वे अकेले नेता हैं, जो जनता के साथ कंधे से कंधा लगाकर खड़े हैं। जनता की परेशानियों में जिस तरह साथ दे रहे हैं, उन्हें इंदौर का सोनू सूद कहा जाने लगा है!    
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हेमंत पाल

     राजनीति का अपना अलग ही गणित होता है। यहाँ रातों-रात कोई जननेता तभी बनता है, जब जनता उसे अपना हमदर्द समझती है। जब जनता को लगता है कि उनके साथ खड़ा नेता निस्वार्थ भाव से उनकी मदद कर रहा है, तो वे भी उसके साथ हो जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि संजय शुक्ला ने कोरोना पीड़ित लोगों को लेकर कुछ ऐसे बड़े कदम उठाए, जिसने उन्हें सीधे जनता से जोड़ दिया। उन्होंने कुछ ऐसी घोषणाएं भी की, जिनसे उनकी ऐसी छवि बन गई, जो निश्चित रूप से महापौर पद के चुनाव में उनके लिए मददगार साबित हो सकती है। अभी तक उनकी पहचान इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-एक के विधायक के रूप में थी, पर अब वे पूरे शहर में ऐसे नेता की तरह पहचाने जाने लगे हैं, जो संकट की इस घड़ी में जनता के साथ हैं। उनकी सक्रियता को देखकर लोग अब उन नेताओं को ढूंढ रहे हैं, जो नेतागिरी में तो हमेशा आगे रहते हैं, पर आज जब जनता को उनकी जरूरत है, तो कोई नजर नहीं आ रहा! भाजपा के कुछ नेता तो हर समय प्रशासन के साथ गलबहियां करते ही दिखाई दे रहे हैं! वे सरकारी मीटिंगों में बेवजह कुर्सी तोड़ते दिखाई देते हैं या 'क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप' की बैठकों में प्रशासन के पक्ष में हाथ खड़े करते हैं! उन्हें इस बात का अहसास नहीं कि उनका ये काम जनता को कितना रास आ रहा है!   
     शहर में कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए संजीवनी मानी जाने वाले रेमडेसिवीर इंजेक्शन की कमी पड़ी, तो इसे खरीदने वालों की दवा बाजार में हज़ारों लोगों की भीड़ लग गई! सुबह से लाइन में लगे इन लोगों को इंजेक्शन मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी, पर वे लाइन में लगे रहे। भूख और प्यास लगने पर भी किसी ने लाइन से हटने की कोशिश नहीं की। ये त्रासदी जब मीडिया ने उजागर की, तो दूसरे दिन संजय शुक्ला बिस्कुट और पानी लेकर लाइन में खड़े लोगों के बीच पहुँच गए। इसके बाद वे कांग्रेस के दूसरे नेताओं के साथ कलेक्टर से मिले और 5 हज़ार रेमडेसिवीर इंजेक्शन की मांग करते हुए कलेक्टर के सामने ब्लेंक चैक सामने रख दिया। वे उन गरीब मरीजों के लिए इंजेक्शन चाहते थे, जो इसे 10 और 15 हज़ार में खरीदने में असमर्थ हैं। उन्हें इंजेक्शन मिले या नहीं, ये अलग मसला है, पर उनकी इस कोशिश ने लोगों का दिल जीत लिया। उनकी आर्थिक सम्पन्नता इतनी है कि उनके ब्लैंक चैक पर शंका भी नहीं की जा सकती।   
    इसके बाद उन्होंने कोरोना मरीजों के इलाज के लिए पहल करते हुए अपने हॉस्टल को सरकार को सौंपने की घोषणा की। कांग्रेस विधायक ने इंदौर के प्रभारी बनाए गए मंत्री तुलसीराम सिलावट के सामने कोरोना मरीजों के इलाज के लिए इस हॉस्टल में 200 बिस्तरों वाला अस्पताल खोलने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि इस समय कोरोना के मरीजों को इलाज के लिए अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि स्वास्थ्य विभाग यहाँ अस्थाई अस्पताल शुरू करे। अभी शैक्षणिक गतिविधियां बंद होने से उनका यह हॉस्टल खाली है। उन्होंने यह प्रस्ताव भी किया कि यदि हॉस्टल को कोरोना मरीजों के इलाज के लिए उपयोग में लाया जाता है तो वे यहाँ भर्ती मरीजों के इलाज, दवाइयां और भोजन की व्यवस्था खुद के खर्च पर करेंगे। कोरोनाकाल के इस संकट में पहली बार इंदौर के किसी जनप्रतिनिधि ने जनता की मदद करने के लिए इस तरह का प्रस्ताव रखा है।
     संजय शुक्ला ने ऑक्सीजन बनाने की 10 ऑटोमेटिक मशीन लगाने की भी घोषणा की। वे चाहते हैं कि इससे अस्पताल में भर्ती होने के इंतजार में बैठे मरीजों की जान बचाई जा सकेगी। क्योंकि, कांग्रेस की एक टीम ने जब अस्पतालों का दौरा किया तो देखने में आया कि बिस्तर के अभाव कई मरीज एम्बुलेंस में पड़े हैं! ऑक्सीजन के अभाव में कई की सांसे भी उखड़ जाती है। अस्पताल में डॉक्टर्स ने बताया कि ऑक्सीजन की कमी बनी हुई है। बड़ी संख्या में मरीज ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं। बहुत से मरीज अस्पताल में भर्ती होने के लिए इंतजार में हैं। उनका भी ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है। अस्पतालों में दौरे के समय उन्हें कुछ डॉक्टरों ने बताया कि ऑक्सीजन बनाने वाली ऑटोमेटिक मशीन 'ऑक्सीजन कंसंट्रेटर' की शहर में बहुत जरूरत है। यदि यह मशीन लगाई जाती है, तो कई मरीजों की जान बच सकती है। संजय शुक्ला ने तत्काल जानकारी लेकर अपनी तरफ से दस मशीन लगाने की घोषणा की। 45 हज़ार से डेढ़ लाख रुपए कीमत की ये मशीनें हवा से ऑक्सीजन खींचकर मरीज की ऑक्सीजन की पूर्ति करती है। उन्होंने शहर के समाजसेवियों और संगठनों से भी मशीनों की अपील की! इसका असर ये हुआ कि कई लोग इस पहल में उनका साथ देने के लिए राजी हो गए। अब ये मशीनें सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, एमटीएच हॉस्पिटल और एमआरटीवी हॉस्पिटल के परिसर में तंबू लगाकर लगाई जाएगी। इससे उन मरीजों को लाभ मिलेगा, जो इलाज के लिए अस्पताल लाए जाते हैं, पर बिस्तर खाली नहीं होने पर उन्हें भर्ती नहीं किया जाता। 
   संजय शुक्ला को अस्पताल के दौरे से ये जानकारी भी मिली कि अस्पतालों में मरीजों के इलाज पर पूरी तरह ध्यान भी नहीं दिया जा रहा। ऑक्सीजन की कमी के साथ-साथ रेमडेसिवीर इंजेक्शन के लिए भी मारामारी है। उन्हें पता चला कि यूनिक अस्पताल में 78 मरीज ऐसे हैं, जिन्हें तत्काल इंजेक्शन की जरूरत है। जबकि, मंगलवार को अस्पताल को सिर्फ 27 इंजेक्शन दिए गए। बुधवार को कोई इंजेक्शन नहीं भेजा गया। जबकि, मरीज को लगातार 5 दिन यह इंजेक्शन दिया जाना जरूरी है। ऐसी ही जानकारी दूसरे अस्पतालों से भी मिली। विधायक जब शहर के वर्मा हॉस्पिटल पहुंचे, तो मरीजों के परिजनों ने बताया कि अस्पताल के मैनेजमेंट ने उनसे कहा है कि रेमडेसिवीर इंजेक्शन नहीं है, आप खुद इंतजाम करें। लेकिन, संजय शुक्ला के पहुँचने पर अस्पताल से 24 इंजेक्शन निकले! अब विधायक अपनी टीम के साथ अब शहर के सभी अस्पतालों की हालत जानेंगे और खामियों का पता लगाएंगे। वे अस्पताल में भर्ती मरीजों के परिजनों से भी बात कर रहे हैं, ताकि असलियत का पता लगाया जा सके। 
   संजय शुक्ला ने सोशल मीडिया पर जनता के नाम एक अपील भी जारी की है। इसमें कहा गया कि अगर आपके परिजन इंदौर में किसी भी सरकारी या प्राइवेट अस्पताल में कोरोना बीमारी के कारण भर्ती है और उनको रेमडेसिवीर इंजेक्शन की जरूरत है, आप मुझसे सीधे संपर्क करें। उन्होंने इस अपील के साथ दो मोबाइल नंबर भी जारी किए हैं। लोगों ने उनसे संपर्क किया और उन्हें मदद भी मिली। इंदौर के लोगों का कहना है कि पहली बार वे किसी नेता को इस तरह सक्रिय देख रहे हैं। क्षेत्र क्रमांक-एक के लोगों के लिए ये नई बात नहीं है, पर इंदौर में पहली बार कोई ऐसा नेता सामने आया जो अस्पतालों में नकेल डालने के साथ प्रशासन के सामने खड़ा होकर सवाल कर रहा है! ऐसे में लोग संजय शुक्ला में मुंबई के सोनू सूद की छवि देख रहे हों, तो कोई गलत भी नहीं है!
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Friday, April 9, 2021

हीरो की मौत हुई और फिल्म चल पड़ी!

हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों को हिट कराने के अपने अलग ही टोटके हैं। कभी किसी क्लाइमैक्स से कोई फिल्म हिट हो जाती है, तो उसे टोटके की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर लिया जाता है। इसलिए कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों की पसंद-नापसंद का किसी को पता नहीं! जिस सलमान खान के नाम पर बॉक्स ऑफिस के सामने लाइन लग जाती है, उसी सलमान की फिल्म 'ट्यूब लाइट' ईद के दिन रिलीज होकर फ्लॉप हो जाती है। अमिताभ बच्चन और आमिर खान की फिल्म 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' ऐसे धड़ाम से गिरती है, कि पानी तक नहीं मांगती! यही कारण है कि फिल्मकार टोटकों के बहाने फिल्म हिट कराने के फॉर्मूले ढूंढा करते हैं! ऐसा ही एक फार्मूला है, हीरो की मौत का! कुछ फ़िल्में सिर्फ इसलिए चल निकली, कि उनमें हीरो की मौत ने दर्शकों को रुला दिया था। अमिताभ बच्चन की दीवार और शोले, राजेश खन्ना की 'आनंद' की सफलता के पीछे एक कारण यह भी माना जाता है। 'गाइड' में भी फिल्म के अंत में देव आनंद की मौत हो जाती है।    
     फिल्म में हीरो के मरने का फार्मूला नया नहीं है। जब से फ़िल्में बनाना शुरू हुई, इसका सैकड़ों बार इस्तेमाल किया जा चुका है। दिलीप कुमार से लगाकर राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार तक की फिल्मों में हीरो की मौत हुई। आज के दौर की आशिकी, रांझणा, शॉर्टकट, रोमियो, लुटेरा से 'धड़क' तक में हीरो को मारा गया। इन दिनों फिर यह फिल्मों का नया ट्रेंड बनता जा रहा है। संजय लीला भंसाली की अधिकांश फिल्मों में नायक का अंजाम यही होता है। मिलन लुथरिया की फिल्म 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' के अंत में अजय देवगन और उसके सीक्वल में अक्षय कुमार के मरने के दृश्य हैं। तिग्मांशु धूलिया की फिल्म 'बुलेट राजा' में सैफ अली खान की मौत होती है। 
   फ़िल्मी प्रेम कहानियों का एक कड़वा सच है कि इनका अंजाम सुखद नहीं होता। ऐसी कहानियों को सच्चाई से जोड़ने के लिए एक्टर का मरना जरूरी होता है। ऐसा होता है, तभी दर्शक इससे खुद को जोड़कर महसूस करते हैं। इससे दर्शकों की भावनाएं द्रवित होती है और फिल्म के प्रति आकर्षण बढ़ता है। देखा गया है कि फिल्मों में दुखद अंत हमेशा से कामयाबी का कारण बने हैं। मुगल-ए- आजम, एक दूजे के लिए, कयामत से कयामत तक, 'शोले' तथा हॉलीवुड की 'टाइटैनिक' इसके जीवंत उदाहरण हैं। ट्रैजेडी लोगों की जिंदगी की हकीकत है। यही कारण है, कि जब दर्शक उस ट्रैजेडी को परदे पर घटित होते देखते हैं, तो उससे जुड़ जाते हैं। इसलिए कि हिट फिल्मों का कोई निर्धारित फार्मूला तो है नहीं! दर्शकों को उद्वेलित करके यदि उन्हें सिनेमाघर तक खींचा जा सकता है तो फिल्मकार इसे भी आजमाने से नहीं चूकते!  
   ताजा दौर के हीरो में अक्षय कुमार ऐसे अभिनेता हैं, जो कई फिल्मों के अंत में मारे गए हैं। इस लिस्ट में 'केसरी' तेरहवीं फिल्म थी, जिसमें ईशर सिंह का अंत में मारा जाता है। 2.0, राउडी राठौर, खाकी, गब्बर इज बैक, अजनबी, फैमिली, जॉनी दुश्मन, संघर्ष, अफलातून, खिलाड़ी 420, तस्वीर और 'दोस्ती: फ्रेंड्स फॉरएवर' भी ऐसी फ़िल्में थी जिनमे अक्षय की मौत के दृश्य फिल्माए गए। 'रांझणा' में धनुष, 'देवदास' और ' कल हो न हो' में शाहरुख़ खान, 'सत्या' में मनोज बाजपेई की मौत होती है! 'काई पो चे' में सुशांतसिंह राजपूत, 'शाहिद' में राजकुमार राव, 'ओंकारा' और ' वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में अजय देवगन, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में मनोज बाजपेई, 'धूम' में जॉन अब्राहम, 'जन्नत' में इमरान हाशमी फिल्म के हीरो थे, पर अंत में इनकी मौत हो जाती है। 'क्योंकि' में सलमान खान, 'आशिक़ी 2' में आदित्य रॉय कपूर और 'धड़क' के अंत में हीरो ईशान खट्टर की मौत फिल्माई गई। 'रंग दे बसंती' में के अंत में हीरो आमिर खान की मौत होती है। 
   तीन फ़िल्में ऐसी है, जिनमें हीरो की मौत के दृश्य बेहद प्रभावशाली रहे और दर्शक सुबकते हुए सिनेमाघर से बाहर निकले। ये फिल्म थी 'आनंद' जिसके आखिरी सीन में राजेश खन्ना ने जान डाल दी थी। यही कमाल अमिताभ बच्चन ने 'दीवार' और 'शोले' में किया और दर्शकों का दिल जीत लिया था। लेकिन, इससे पहले 'गाइड' में देव आनंद ने कमाल किया था, उसका कोई जवाब नहीं! हीरो की मौत के सुपरहिट फॉर्मूले का जिस एक एक्टर पर अभी तक प्रयोग नहीं किया गया, वे हैं रजनीकांत! वे दक्षिण और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अलावा विदेशों में भी अपनी पहचान रखते हैं। बॉक्स ऑफिस पर उनके नाम से ही फिल्म हिट हो जाती है। इस सुपरस्टार की लोकप्रियता इतनी ज्यादा है, कि कोई भी डायरेक्टर उनकी मौत का दृश्य फिल्माने की हिम्मत नहीं कर पाया। उन्हें डर लगता है कि अगर उन्होंने परदे पर रजनीकांत को मरते दिखाया, तो कहीं फिल्म फ्लॉप न हो जाए! इस कारण रजनीकांत ने बरसों से मरने का सीन नहीं किया। 
   इंडस्ट्री में एक मनहूस सच्चाई ये भी है कि के आसिफ ने जिस भी हीरो को अपनी फिल्म के लिए साइन किया, उसकी मौत हो गई! उन्होंने अपनी फिल्म 'मुगल ए आजम' का नाम पहले 'अनारकली' रखा था और नूतन को उस रोल के लिए साइन किय़ा था, जिसे बाद में मधुबाला ने निभाया। उन्होंने फिल्म की कहानी सैयद इम्तियाज अली ताज के उपन्यास 'अनारकली' से ली थी और चंद्रमोहन को बतौर हीरो लिया था। दस रील शूट भी हो गईं, लेकिन चंद्रमोहन की अचानक मौत हो गई। बाद में दिलीप कुमार को हीरो लिया तो नूतन ने काम करने से इंकार कर दिया। इसके बाद न मधुबाला को साइन किया और फिल्म का नाम भी 'अनारकली' से 'मुगल ए आजम' कर दिया गया। के आसिफ ने गुरुदत्त को लेकर 'लव एंड गॉड' बनाना शुरू की, तो गुरुदत्त चल बसे! फिर उन्होंने इस फिल्म में संजीव कुमार को साइन किया तो उनका भी फिल्म पूरी होने से पहले निधन हो गया। उनकी मौत के 23 साल बाद उनकी पत्नी ने 1986 में इस अधूरी फिल्म को किसी तरह रिलीज किया था। यानी कि फिल्म में हीरो की मौत को कामयाबी की तरह आजमाने के किस्से अनंत हैं। 
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Sunday, April 4, 2021

ज्यादा नहीं डराती, हिंदी की डरावनी फ़िल्में

- हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों ने काफी हद तक हॉलीवुड की फिल्मों की नक़ल कर ली और मुकाबला भी किया! लेकिन, डरावनी फिल्मों के मामले में हिंदी सिनेमा बहुत पीछे है। सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी सिनेमा के खाते में दस फ़िल्में भी नहीं है, जिन्होंने दर्शकों को डराकर मनोरंजन किया हो! जबकि, हॉलीवुड की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो दर्शक अकेले देखने से बचते हैं। हिंदी में हर साल कई फिल्में बनती हैं, पर उनमें डर को विषय बनाकर बनाई जाने वाली फ़िल्में इक्का-दुक्का होती है! पर, इन्हें देखकर डर नहीं लगता! 70 और 80 के दशक की फिल्मों में डरावनी फिल्मों का मतलब होता था भूत! लेकिन, समय के साथ हिंदी में बनने वाली हॉरर फिल्मों की गुणवत्ता में कुछ सुधार हुआ है। 'स्त्री' जैसी कुछ फ़िल्में जरूर आईं, जिन्होंने दर्शकों को भयभीत भी किया और आखिरी दृश्य तक बांधकर भी रखा! 
    हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्नों को पलटा जाए, तो मधुबाला की फिल्म 'महल' (1949) कमाल अमरोही की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। इस फिल्म को हिंदी की पहली डरावनी फिल्म भी कहा जाता है। लेकिन, इसमें दर्शकों को डराने की कोशिश नहीं की गई, फिल्म की कहानी जरूर डर से जुड़ी थी। इस फिल्म को खेमचंद प्रकाश के संगीत ने ज्यादा रहस्यपूर्ण और डरावना बनाया था। इसके 25 साल बाद 1975 में बनी अमेरिकी फिल्म 'द इंकार्नेशन ऑफ़ पीटर प्राउड' की कहानी 'महल' से प्रेरित थी। 60 के दशक में दो ऐसी फ़िल्में आई, जिन्हें डरावनी कहा गया। ये थीं वहीदा रहमान और विश्वजीत की 'बीस साल बाद' (1962) और 'कोहरा' (1964) इन दोनों फिल्मों के निर्माता, निर्देशक, लेखक, नायक और नायिका और यहाँ तक कि संगीतकार तक एक ही थे। ;बीस साल बाद' आधी रात में भटकती एक रहस्यमयी महिला की कहानी थी। इसे हॉलीवुड के कॉनन डॉयल की फ़िल्म 'द हाउंड ऑफ़ बास्केरविल्ले' से प्रेरित बताया जाता है। जबकि, 'कोहरा' डेफ्नी डू मॉरिएर के उपन्यास रेबीका पर बनी थी। इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स की बहुत तारीफ हुई थी। ये दोनों फ़िल्में हेमंत कुमार ने बनाई थी और दोनों फिल्मों की कामयाबी में इसके संगीत का बड़ा हाथ था, जिसे हेमंत कुमार ने ही दिया था। 
    1965 की फिल्म 'भूत बंगला' महमूद की लिखी, निर्देशित फिल्म थी। इसमें मुख्य भूमिका भी महमूद ने ही निभाई थी। इस फिल्म में एक भयानक संगीत थ्रिलर बनाया गया था जो गानों पर नाचते हुए भूतों के साथ था! इसी साल (1965) में ही आई राजा नवाथे की फिल्म 'गुमनाम' भी डराने वाली फिल्म थी। इसमें सात लोगों को हवाई जहाज से एक वीरान द्वीप में उतार दिया जाता है और वहां एक-एक करके उनकी हत्या होने लगती है। मनोज कुमार फिल्म के नायक थे और शंकर-जयकिशन का संगीत फिल्म की जान था। इसके बाद लम्बे अरसे तक ऐसी फ़िल्में परदे से नदारद रही। राजकुमार कोहली ने रीना रॉय और रेखा की 'नागिन' (1976) और मल्टी स्टारर 'जानी दुश्मन' (1979) बनाई। इन दोनों फिल्मों में सितारों की भीड़ जुटाकर उन्होंने गज़ब के रहस्य का माहौल बनाया। दोनों फिल्मों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत था, जो काफी पसंद किया गया। 1980 में आई 'फिर वही रात' एक रहस्यमय थ्रिलर फिल्म थी, जिसे डैनी डेन्जोंगपा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना अभिनीत इस फिल्म में किम यशपाल ने एक महिला की भूमिका निभाई थी, जो गंभीर बुरे सपने से पीड़ित होती है और इलाज की तलाश में है।
   रामगोपाल वर्मा ने जो चंद देखने लायक फिल्म बनाई, उनमें एक 'रात' (1992) को गिना जा सकता है। इस फ़िल्म में एक बिल्ली मर जाती है, जिसे एक लड़की की आत्मा अपने वश में कर लेती है। इसी निर्देशक की 2003 में आई फिल्म 'डरना मना है' 6 छोटी कहानियां थी, जो बेहद डरावनी हैं। उर्मिला मातोंडकर की 2003 में आई फिल्म 'भूत' भी रामगोपाल वर्मा ने बनाई थी। फिल्म का संगीत दर्शकों की रूह कंपा देता था। साउंड इफ़ेक्ट के कारण ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब हुई थी। लेकिन, विद्या बालन और अमीषा पटेल की फिल्म 'भूल भुलैया' (2007) प्रियदर्शन की ऐसी फिल्म थी, जो अपने साइकोलॉजिकल थ्रिलर विषय के कारण दर्शकों को डराने में ज्यादा कामयाब रही। रामगोपाल वर्मा निर्देशित फिल्म 'फूँक' 2008 में रिलीज़ हुई थी। काफी कम बजट में बनी फिल्म ने अच्छी कमाई की थी। यह फिल्म इतनी डरावनी थी की डायरेक्टर ने एलान किया था कि फिल्म को अकेले थिएटर में देखने पर 5 लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा। 2018 की फिल्म 'परी' अनुष्का शर्मा ने बनाई और उन्होंने ही इसमें काम भी किया था।  
   विक्रम भट्ट और मुकेश भट्ट ने भी डरावनी फिल्मों में हाथ आजमाया और 2002 में 'राज' बनाई। इसमें कोई स्पेशल इफ़ेक्ट नहीं था। सिर्फ़ कथानक और बिपाशा बसु की एक्टिंग ने पूरी फिल्म को डरावना बना दिया था। यह हॉलीवुड फिल्मकार मिशेल पफेर की फिल्म 'व्हाट लाइज बिनीथ' से प्रभावित थी। बाद में इसके सीक्वल भी बने। भट्ट कैम्प ने 2008 में '1920' नाम से फिल्म बनाई थी। ये फिल्म एक सुनसान हवेली, एक रहस्यमय चौकीदार और एक नए शादी-शुदा जोड़े के कथानक वाली फिल्म थी। इसमें न ख़ास ग्राफ़िक्स थे, न स्पेशल साउंड इफ़ेक्ट्स! फिर भी ये बेहद डरावनी फ़िल्म थी। 2010 में विक्रम भट्ट ने 'शापित' बनाई थी। इसमें उन्होंने डर का जो माहौल बनाया, वो अपनी कोशिश में सफल भी रहा। किरदार, लाइट, साउंड इफ़ेक्ट्स और अंधेरे के आस-पास बनी ये फ़िल्म, भट्ट कैम्प की दूसरी फ़िल्मों की तरह दर्शकों को डराने में कामयाब रही। 2013 की फिल्म 'हॉरर स्टोरी' के नाम से ही उसके डरावने होने का अहसास हो जाता है। फिल्म में कुछ दोस्तों का प्लान बनता है कि वो एक रात किसी भुतहा होटल में बिताएंगे। लेकिन, होटल जाने के बाद उनकी जिंदगी बदल जाती है। 2002 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म 'मकड़ी' ने भी बहुत डराया। इस फिल्म में चुड़ैल का किरदार शबाना आजमी ने निभाया था और अपनी एक्टिंग से उन्होंने दर्शकों को जमकर डराया। 2018 में आई 'स्त्री' एक हॉरर-कॉमेडी फिल्म है। अमर कौशिक की ये फिल्म गुदगुदाएगी भी है और डराती भी है। 
 
     हिंदी फिल्मों में डर को विषय बनाने और उसे कामयाब बनाने में सात भाइयों के बैनर 'रामसे ब्रदर्स' का बड़ा हाथ रहा है। रामसे ब्रदर्स ने परदे पर ख़ौफ़ का ऐसा माहौल बनाया कि वे इसके ब्रांड बन गए। 70 और 80 के दशक में इस बैनर ने क़रीब 45 फ़िल्में बनाईं। उस दौर में रामसे ब्रदर्स ने डर को अलग ही मुकाम तक पहुंचाया और अपनी पहचान बनाई! उन्होंने पहली फिल्म बनाई 'नन्ही मुन्नी लड़की' जो सफल नहीं हुई, मगर इस फ़िल्म के एक सीन जिसमें पृथ्वीराज कपूर एक भूत का मास्क पहनकर लड़की को डराते हैं, खूब वाहवाही बटोरी। इस एक सीन ने उन्हें भुतहा और डरावनी फ़िल्म बनाने की और प्रेरित किया। फिर उन्होंने बनाई 'दो गज़ ज़मीन के नीचे!' इस फिल्म ने तहलका मचा दिया। इस फ़िल्म की सफलता के बाद रामसे ब्रदर्स ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने तय किया कि अब वे सिर्फ़ डरावनी फ़िल्म ही बनाएंगे। फिर तो उन्होंने डरावनी फिल्मों की झड़ी लगा दी! दरवाज़ा, गेस्ट हाउस, पुराना मंदिर, पुरानी हवेली, बंद दरवाज़ा और 'वीराना' जैसी कई सफल फ़िल्में बनाईं! लेकिन, अब तो दर्शकों ने ऐसी फिल्मों से डरना बंद कर दिया। शायद यही कारण है कि ऐसी फ़िल्में बनना भी बंद हो गई!  
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