Monday, June 27, 2022

बिखरा सा लग रहा, इंदौर में भाजपा महापौर का चुनाव प्रचार!

- हेमंत पाल 

    इंदौर में नगर निगम चुनाव की हलचल अब चरम पर है। महापौर पद के लिए भले ही 19 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं, पर मुख्य मुकाबला तो कांग्रेस के संजय शुक्ला और भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव के बीच ही है। उधर, निगम के 85 वार्डों के लिए 341 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सबसे कम दो-दो उम्मीदवार 20 वार्डों में और सबसे अधिक 10 उम्मीदवार 1 वार्ड में है। शहर में प्रचार का माहौल फिलहाल गरम है। पर कांग्रेस के बनिस्बत भाजपा के महापौर उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव के प्रचार में अजीब सा बिखराव नजर आ रहा है। जबकि, दोनों पार्टियों के पार्षदों ने अपने-अपने वार्डों में अच्छा माहौल बनाया हुआ है। कांग्रेस के संजय शुक्ला के प्रचार का रुख आक्रामक है। उन्होंने अपना प्रचार भी जल्दी शुरू किया था और वे आधा शहर कवर कर चुके हैं। उनके मुकाबले पुष्यमित्र भार्गव का नाम देर से फ़ाइनल हुआ और प्रचार भी देर से शुरू हुआ। कांग्रेस से विधायक संजय शुक्ला के मैदान में उतरने के बाद भाजपा को मशक्कत भी ज्यादा करना पड़ रही है। इसलिए कि भाजपा उम्मीदवार आम मतदाता के लिए बिल्कुल नया चेहरा है। 
    भाजपा महापौर के चुनाव प्रचार में बिखराव को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पार्टी उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव शहर के लिए सक्रिय राजनीति का चेहरा नहीं है। वे कभी राजनीति में थे, कार्यकर्ता ये भी नहीं मान रहे। यदि उनकी जगह रमेश मेंदोला, मधु वर्मा, गोविंद मालू, सुदर्शन गुप्ता, गौरव रणदिवे या गोलू शुक्ला भाजपा के उम्मीदवार होते तो माहौल कुछ अलग ही होता। इसलिए कि इन नेताओं की पार्टी के अलावा अपनी भी लोकप्रिय है। उनके पास अपने समर्थकों की भी फ़ौज है। जबकि, पुष्यमित्र भार्गव के पास ऐसे कार्यकर्ताओं और समर्थकों की कमी साफ़ नजर आ रही है।    
   शहर में जनसंपर्क का आगाज करने में भी कांग्रेस आगे रही अब जनता तक पहुंचने में भी आगे निकल रही है। कांग्रेस के महापौर उम्मीदवार ने करीब आधा शहर नाप लिया। वे जनता के बीच अपनी जनसेवक की छवि बनाने के लिए पूरा जोर लगाते दिखाई भी दे रहे हैं। वे विधायक हैं, इसलिए उन्हें इसमें परेशानी भी नहीं आ रही। वे कभी कचौरी तलते, कभी किसी बच्चे को गोद में उठाते और कभी किसी बुजुर्ग के पैर पड़ते नजर आते हैं। उनके समर्थक भी संजय शुक्ला के कोरोना काल में किए कामों को जनता के बीच पहुंचाते नजर आ रहे हैं। पर, पुष्यमित्र प्रचार के लिए जनता के बीच ये सब नहीं कर पा रहे। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने विधानसभा और वार्डवार जिम्मेदारी तय की है। जबकि, कांग्रेस के महापौर उम्मीदवार के चुनाव का संचालन संजय शुक्ला की ही टीम के पास है। उधर, भाजपा की चुनाव संचालन समिति में विधायक रमेश मेंदोला को चुनाव प्रभारी, मधु वर्मा को चुनाव संचालक और प्रदेश कार्यसमिति सदस्य प्रमोद टंडन को चुनाव सह संचालक बनाया है। 
      संजय शुक्ला के पास मतदाताओं के बीच बोलने को भी बहुत कुछ है। जबकि, भाजपा उम्मीदवार के पास ऐसे कोई मुद्दे नहीं, जिस पर वे हमलावर बन सके। वे पिछले चार भाजपा महापौरों की उपलब्धियों को ही गिना रहे हैं। कांग्रेस उम्मीदवार भाजपा के कार्यकाल की खामियों के साथ नगर निगम में दो साल के अफसर राज पर भी उंगली उठा रहे हैं। उन्होंने ऐसे वादों की भी झड़ी लगा दी, जो जनता को आकृष्ट करते हैं। नगर निगम के अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई करने, व्यापारियों को निगम के ट्रेड लाइसेंस से मुक्त करने और कथित 'पीली गैंग' से मुक्त करने का वादा करने से भी नहीं चूक रहे। लेकिन, पुष्यमित्र भार्गव ने ऐसा कोई वादा किया हो, ये दिखाई या सुनाई नहीं दिया। 
   संजय शुक्ला पहले भी कई चुनाव लड़ चुके हैं और पार्षद भी रहे हैं। वे राजनीतिक परिवार से हैं, इसलिए चुनावी हथकंडे भी जानते हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के अलावा उनकी खुद की भी एक बड़ी टीम संजय शुक्ला के पीछे है। उनके मुकाबले भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव के पास राजनीतिक अनुभव का अभाव है। वे कोई चुनाव नहीं लड़े और न राजनीतिक रूप से कभी सक्रिय रहे। इसलिए वे उन चुनावी हथकंडों में भी पारंगत नहीं है, जो जरुरी होते हैं। जहां तक कार्यकर्ताओं का मसला है, तो प्रचार में उनका अनमनापन साफ नजर आ रहा है। शायद इसलिए कि पुष्यमित्र भार्गव का कार्यकर्ताओं से कभी आत्मीय जुड़ाव नहीं रहा। भाजपा कार्यकर्ता पार्टी के प्रति समर्पण के कारण ही उनके साथ दिखाई दे रहे हैं। भाजपा के महापौर उम्मीदवार के प्रचार में एक और कमी यह खल रही है कि कोई बड़ा नेता उनके साथ नजर नहीं आ रहा! वे जिस भाजपा विधायक के क्षेत्र में जाते हैं, वहां के विधायक साथ हो जाते हैं, पर प्रचार में वो गर्माहट का अभाव है जो भाजपा पहचान रही है। बताते हैं कि उम्मीदवार ने खुद ही सीनियर नेताओं से संपर्क नहीं किया।             
    6 जुलाई को होने वाले नगरीय निकाय चुनाव में अब सप्ताहभर का समय बचा है। दो दिन पहले चुनाव प्रचार भी थम जाएगा। ऐसे में से दोनों पार्टियों के महापौर और पार्षद पद के उम्मीदवार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने की कोशिश में हैं। सुबह से देर रात तक सभी उम्मीदवारों का समय मतदाताओं को लुभाने और वादे करने में बीतता है। लेकिन, दोनों पार्टियों के सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा का प्रश्न महापौर उम्मीदवारों को जीत दिलाना है। कांग्रेस उम्मीदवार ने तो उनके नाम की अधिकृत घोषणा से काफी पहले प्रचार शुरू कर दिया था। बल्कि, ये कहना ज्यादा सही होगा कि वे डेढ़ साल से ही इस तैयारी में लगे हैं। क्योंकि, कोरोनाकाल से पहले जब कमलनाथ की सरकार के समय निकाय चुनाव की तैयारी शुरू हुई थी, तभी कांग्रेस ने संजय शुक्ला के नाम की घोषणा कर दी थी। 
    भाजपा ने पुष्यमित्र भार्गव के नाम की घोषणा 17 जून को की। ऐसे में उनको गिनती के 17 दिन का समय प्रचार के लिए मिला। इस कारण वे कभी पैदल तो कभी खुली जीप से उतरकर जनसंपर्क कर रहे हैं। लेकिन, खुली जीप में हाथ हिलाकर समर्थन मांगने से मतदाता नाराज भी हैं। बीते सोमवार को एक घटना भी ऐसी हुई, जिसे मतदाताओं की नाराजगी समझा गया। पुष्यमित्र भार्गव जब वार्ड 70 के द्रविड़ नगर में आने वाले थे, तो वहां के लोग उनके स्वागत के लिए हार-फूल लेकर इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद वहां से भार्गव की जीप निकली जो इन लोगों को अनदेखा करती हुई निकल गई। जो हुआ उसे वहां खड़े लोग समझ नहीं पाए। जब यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो कांग्रेस ने इसे जमकर आड़े हाथ लिया। जबकि, भाजपा की सोशल मीडिया टीम के हाथ अभी तक कोई ऐसा मसाला हाथ नहीं लगा, जिसे वे प्रचारित कर सकें।   
   इस बार के नगर निगम चुनाव में 18 लाख 35 हजार 316 मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। इनमें से 3 लाख 70 हजार ऐसे मतदाता हैं, जो 18-19 साल के बीच के है। कुल मतदाताओं में इनका प्रतिशत लगभग 21 है। 30 से 39 साल के लगभग 5 लाख 27 हजार मतदाता हैं। इनकी भी चुनाव में अहम भूमिका रहेगी। यही कारण है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों युवा नेताओं को आगे लाने के साथ उन्हीं को लुभाने की ज्यादा कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस ने युवाओं को लुभाने में सीनियर नेताओं को हाशिए पर नहीं रखा, पर भाजपा ने इस बार पुराने नेताओं को किनारे जरूर कर दिया। नतीजा क्या होगा, ये तो समय बताएगा, पर अभी जो हालात हैं, वो बराबरी की टक्कर के नहीं लग रहे!   
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Saturday, June 25, 2022

रहस्य और रोमांच के धागों से बुने ये अनोखे किरदार!

- हेमंत पाल 

     फिल्में चाहे किसी भी देश या किसी भी भाषा की हो, कुछ विषय और किरदार ऐसे होते हैं, जो हर भाषा की फिल्मों से अछूते नहीं रहते! उन्हीं में से एक है जासूस और इस विषय पर गढ़े गए कथानक। हिंदी में भी दर्शकों के मूड को ध्यान रखकर कई जासूसी फिल्में बनाई गई। ऐसे कथानकों पर बनी फिल्मों में दर्शकों को बांधकर रखने की अद्भुत क्षमता होती है। क्योंकि, जासूसी के किरदारों के प्रति दर्शकों में हमेशा ही कौतूहल का भाव रहा है। तेज दिमाग, चपलता और जासूस की फुर्ती दर्शकों को हमेशा रोमांचित करती रही है। जबकि, बेहद शांत सा दिखाई देने वाला जासूस का असल चरित्र इसके विपरीत होता है। अपने आपको दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए वह धोखे की कला और झूठ बोलने में माहिर होता है।
      हॉलीवुड की फिल्मों में जासूसी की फ़िल्में सबसे ज्यादा बनी और अभी भी बन रही है! 'जेम्स बांड' सबसे चर्चित सीरीज है, जिसने जासूसी को ज्यादा लोकप्रिय बनाया। कई बड़े हॉलीवुड अभिनेताओं ने इस सीरीज में अपनी अदाकारी दिखाई। इन फिल्मों की लोकप्रियता का आलम यह है कि हर चार फिल्म के बाद अभिनेता बदल दिया जाता है। इस सीरीज से प्रभावित होकर हिंदी में भी कई फ़िल्में बनी, पर सीरीज नहीं बन सकी। सलमान खान को लेकर 'टाइगर' सीरीज की दो फ़िल्में जरूर बनी और पसंद भी की गई! अब तीसरी फिल्म पर काम चल रहा है।
          हिंदी में सबसे अच्छी जासूसी फिल्म कौनसी है, यदि इस सवाल का जवाब ढूंढा जाए तो शायद इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता! क्योंकि, हर समय काल में जासूसी पर फ़िल्में बनी और पसंद की गई। धर्मेंद्र, जितेंद्र, अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती और सनी देओल से लगाकर सलमान खान तक ने ऐसे किरदार निभाए हैं। साउथ की इंडस्ट्री में भी इस विषय पर कई प्रयोग हुए। लेकिन, वहां जासूसी पर 2013 में बनी कमल हासन की फिल्म 'विश्वरूपम' को अभी तक की बेहतरीन जासूसी फिल्म माना जाता है। कमल हासन की फिल्म 'विश्वरूपम' में वैश्विक आतंकवाद दिखाया गया। तकनीकी तौर पर भी ये बेहद रोमांचक फिल्म थी। इसमें पत्नी को ही अपने पति पर जासूस होने का शक होने लगता है। यहीं से फिल्म की कहानी शुरू होती है। तमिल में बनी और हिंदी में डब की गई 'विश्वरूपम' को अब तक की सबसे पसंद की जाने वाली जासूसी फिल्मों में गिना जाता है।
     1954 में 'अंधा नाल' फिल्म बनी, जो 1943 की एक घटना पर आधारित थी। 'अंधा नाल' तमिल शब्द है जिसका मतलब होता है 'उसी दिन!' इसमें एक शख्स को इसलिए गोली मार दी जाती है, जब वो शहर में बमबारी कर रहा होता है। पुलिस जांच में कई संदिग्धों को पकड़ा जाता है। इन सबका कत्लेआम का इरादा था। अकीरा कुरोसावा की कृति रैशोमोन को देखकर निर्देशक बालचंद्र ने उसी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने की सोची और बिना किसी गाने के फिल्म बनाई। 1954 में ऐसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। पारंपरिक फिल्मों के बीच इस फिल्म को पसंद किया गया था। ऐसी फिल्मों के बनने का सिलसिला आगे बढ़ाया 'ज्वेल थीफ' (1967) ने। देव आनंद की भूमिका वाली विजय आनंद की इस फिल्म में एक साधारण आदमी को हीरे-जवाहरातों के गिरोह का सरगना मान लिया जाता है। उसे 'ज्वेल थीफ' के नाम से जाना जाने लगता लगता है। जब सारे हालात उसके खिलाफ हो जाते हैं, तब वो सच्चाई जानने के अभियान पर निकलता है। अंडरकवर एजेंट के रूप में वो महंगी जेवरात की चोरी करने वाले गैंग का पर्दाफाश करना चाहता है। जब राज खुलता है तो सच्चाई कुछ और ही निकलती है।
     1970 में आई विजय आनंद की सफल फिल्म 'जॉनी मेरा नाम' में देव आनंद ने अंडरकवर सीआईडी एजेंट की भूमिका निभाई थी, जो प्रेमनाथ की अवैध गतिविधियों पर नज़र रखता है। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल भी रही। सामाजिक फ़िल्में बनाने वाले 'राजश्री' ने भी 1977 में महेंद्र संधु को लेकर 'एजेंट विनोद' बनाई। ये फिल्म एक विख्यात साईंटिस्ट को अपहर्ताओं से छुड़ाने के कथानक पर बनी थी। 2012 में भी इसी नाम से सैफ अली खान को लेकर फिल्म बनाई गई। 1979 में यूरोप में फिल्माई गई फिल्म 'द ग्रेट गैम्बलर' में अमिताभ बच्चन ने भी अंडरकवर जासूस की भूमिका की थी, जो षड्यंत्रकारियों से उन कांफिडेंशियल डॉक्यूमेंट हासिल करने की कोशिश करता है, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा होते हैं।
     अमिताभ बच्चन की सबसे सफल फिल्मों में से एक 'डॉन' (1978) भी जासूसी पर ही बनी थी। इसे चंद्रा बारोट ने बनाया था। कथानक के मुताबिक, पुलिस एक अपराधी को पकड़ने के लिए एक नाटकीय किरदार को अपराधियों के गिरोह में भेजती है, जिससे वो पुलिस का खबरी बन सके। लेकिन, इस किरदार के मरने की सच्चाई सामने आते ही पुलिस उस अपराधी गिरोह को पकड़कर सलाखों के पीछे पहुंचा देती है। इस फिल्म के बाद अमिताभ बच्चन का स्टारडम बढ़ गया था। 1994 में बनाई गई 'द्रोहकाल' भी आतंकवाद पर केंद्रित फिल्म थी। दो पुलिस वाले आतंकवाद को खत्म करने की ठानते हैं। वे दो जासूसों की आतंकवादी संगठनों में घुसपैठ कराते हैं। लेकिन, एक आतंकियों के हाथों मारा जाता है। जिंदा बचे जासूस को आतंकियों से बचाया जाता है। जबकि, आतंकवादी पुलिस के जासूसों का पता लगाने की कोशिश करने लगते है। 'द्रोहकाल' की कहानी आतंकवादियों के सामाजिक और लोकतांत्रिक उथल-पुथल के बीच खुद को खड़ा करने पर रची गई थी।
    रवि नगाइच ने 1967 में जितेंद्र को हीरो बनाकर फिल्म 'फर्ज' बनाई। इसमें जितेंद्र की भूमिका सीक्रेट एजेंट-116 की थी, जो अपने साथी एजेंट की हत्या का राज खोलता है। इसके बाद रामानंद सागर ने 1968 में धर्मेंद्र को लेकर फिल्म 'आंखें' बनाई। इसका कथानक देश के खिलाफ षड़यंत्र रचने वाले गिरोह को ख़त्म करने पर केंद्रित था। इसमें धर्मेंद्र ने जासूस की भूमिका की थी। मिथुन चक्रवर्ती को अपने शुरूआती करियर में ऐसी ही कुछ फिल्मों से सफलता मिली थी। उनमें एक 1979 में बनी 'सुरक्षा' भी थी। यह हॉलीवुड की जेम्सबांड जैसी फिल्मों की घटिया नकल थी। इसमें मिथुन ने सीक्रेट एजेंट 'गनमास्टर जी-9' का किरदार निभाया था, जो दुश्मनों का षड़यंत्र बेनकाब करता है।
    2008 की फिल्म 'मुखबिर' में पुलिस स्टेशन का जीवन बताया गया है। इसमें पुलिस अधिकारी के आदेश पर एक नौजवान जेल से छूटते ही पुलिस का मुखबिर बन जाता है। वह सफलतापूर्वक आतंकवादी संगठनों, ड्रग डीलरों और अंग तस्करी करने वाले गिरोहों में घुसपैठ कर लेता है। यह फिल्म मणिशंकर के निर्देशन में बनी थी। 2013 में 'मद्रास कैफे' की कहानी श्रीलंका में उपजे हालातों पर केंद्रित थी। जॉन अब्राहम की भूमिका वाली इस फिल्म की कहानी इंदिरा गांधी की हत्या पर खत्म होती है। फिल्म में जासूसी के जटिल हालातों और अधिकारियों के राजद्रोह भी देखने को मिला था। सुजीत सरकार की इस फिल्म में भेदभाव और मानसिक दुविधाओं को बेहतर तरीके से दिखाया गया। इसी साल (2013) बनी 'डी डे' मोस्ट वांटेड अपराधी को मारने पर आधारित थी। इरफ़ान खान की अदाकारी और निखिल आडवाणी निर्देशित इस फिल्म में देश के जासूसों कहानी है, जिसमें गोल्डमैन कोड नाम के एक आदमी को मारना होता है। जबकि, अंडरकवर रॉ एजेंट को पाकिस्तान में गोल्डमैन को जिंदा खोजना होता है। इसके लिए तीन भारतीय एजेंट पाकिस्तान जाते हैं।
    सीक्रेट एजेंट की हिंदी फिल्मों की कहानियों में लीड रोल आमतौर पर हीरो निभाते रहे हैं। लेकिन, 2012 में विद्या बालन ने 'कहानी' में जासूस की भूमिका निभाई थी। सुजॉय घोष की इस फिल्म में विद्या बालन ने ऐसी महिला का किरदार निभाया, जिसका पति गुम हो जाता है और वो उसकी खोज करती है। बाद में 2018 में आई 'राजी' में आलिया भट्ट ने रॉ एजेंट की भूमिका की थी। 'नाम शबाना' भी एक ऐसी ही फिल्म थी जिसमें महिला सीक्रेट एजेंट अपने कामयाब होती है। फिल्म में तापसी पन्नू ने शबाना का किरदार निभाया था।
      सलमान खान की फिल्म 'एक था टाइगर' (2012) को जासूस रवीन्द्र कालिया के जीवन से प्रेरित फिल्म बताया जाता है। इसमें सलमान ने रॉ के अंडर कवर एजेंट की भूमिका निभाई थी। उसे एक एनआरआई वैज्ञानिक की गतिविधियों पर नज़र रखने की जिम्मेदारी मिलती है। कबीर खान द्वारा निर्देशित यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई। इस सीरीज की दूसरी फिल्म 2017 में आई जिसे 'टाइगर जिंदा है!' नाम दिया गया। अब इसकी तीसरी फिल्म आना है। आना बाकी है।  निर्देशक नीरज पांडे की फिल्म बेबी, अनिल शर्मा की 'द हीरो : लव स्टोरी ऑफ ए स्पाई' और हुसैन जैदी की किताब 'मुंबई एवेंजर्स' पर 'फैंटम' भी बनी थी। इसमें सैफ अली खान मुख्य भूमिका में थे। अभी ऐसे किरदार और कहानियां ख़त्म नहीं हुई, जासूसी किरदारों पर कई नई कहानियां गढ़ी जा रही है। इसलिए कि ये किरदार हमेशा ही दर्शकों की पसंद रहा है। 
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Friday, June 17, 2022

देसी छवि के दर्द से कराहता नारी का आदर्श रूप!

- हेमंत पाल 

    भारतीय संस्कृति और सिनेमा का आपसी गठजोड़ हमेशा ही काफी गहरा रहा है। सिनेमा ने संस्कृति से जुड़ी बहुत सी कहानियां गढ़ी! मनोरंजन के लिए संस्कृति के खजाने से चुनिंदा कथानक लिखे गए, जिन्हें सराहना भी मिली। लेकिन, फिल्मकारों ने संस्कृति के आदर्श फ़िल्मी रूप से नारी की छवि को अलहदा रखा। सिनेमा के प्रारंभिक काल से ही नारी छवि को लेकर अपनी तरफ से ख़ास कुछ नहीं किया। बल्कि, उसी देसी छवि को बरक़रार बनाए रखने की कोशिश की, जो घरों या समाज में उसकी बनी थी। इसका कारण यह भी कहा जा सकता है कि तब का समाज आज से कुछ ज्यादा ही परम्परावादी था। इसका एक प्रमाण यह भी है कि शुरू में महिलाओं का अभिनय करना भी सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं था। ऐसी स्थिति में पुरुष कलाकारों ने ही नारी रूप धरकर ये किरदार निभाए।
   धीरे-धीरे जब समाज ने सिनेमा के प्रभाव को महसूस किया तो महिला कलाकारों को अभिनय करने की इजाजत दी गई। इन्ही कोशिशों में सिनेमा ने नारी की ममता वाली छवि के साथ भावनात्मक बहन, प्यारी पत्नी और जीवन को निछावर कर देने वाली नारी के चरित्र को चित्रित किया। याद कीजिए 'सरस्वतीचंद्र' में नूतन को कुछ इसी रूप में चित्रित किया गया था। सिनेमा के कथानकों में यह देसी नारी रुष्ट होती थी, टूटती थी, बिखरती है और कभी संघर्ष के लिए तनकर खड़ी भी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा की संस्कृति और उसमे रचने-बसने वाली नारी का शुरुआती दौर कुछ इसी तरह गुजरा। समाज पर फिल्म का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ता है, इसे तो बाद में स्वीकारा गया। क्योंकि, यह कथानक पर आधारित मनोरंजन है, जिसमें देखने वाले को बांधे रखने की ताकत होती है। 
    सिनेमा में नारी के योगदान की बात की जाए, तो यह काम 1930 के बाद ही शुरू हुआ। समाज में व्याप्त नारी की विडंबनाओं को लेकर कई फिल्में बनाई गई। जिनमें दुनिया न माने (1937), अछूत कन्या (1936), आदमी (1939), देवदास (1935), इंदिरा एमए (1934), बाल योगिनी (1936) फ़िल्में बनी! ये वे फ़िल्में थीं, जिनमें नारी जीवन से संबंधित पीड़ाओं को उजागर किया गया। इसमें बाल विवाह, बेमेल विवाह, पर्दा प्रथा और अशिक्षा प्रमुख रहे। पर, देखा जाए तो हिंदी सिनेमा में हर तरह से सबसे ज्यादा बदलाव आजादी के बाद ही आया। इसके साथ ही फिल्मों में व्यावसायिकता भी बढ़ी। ऐसे में जिन सामाजिक विषयों के कथानकों पर फ़िल्में बनना थी, उन्हें भुला दिया गया। क्योंकि, जब व्यावसायिकता बढ़ी तो फिल्मकारों का मकसद मुनाफे पर केंद्रित होने लगा था। इसके साथ ही शुरू हुआ नारी जीवन के सिनेमाई शोषण का नया दौर। हर पक्ष का हर तरह से शोषण किया गया। नारी को ऐसी वस्तु में बदल दिया, जिसकी विशेषताओं और कमजोरियों दोनों का व्यावसायिक इस्तेमाल किया जा सके। अगर कभी नारी जीवन की पीड़ाओं को फिल्मों का विषय बनाया गया, तो उसे बनावटी रूप में प्रस्तुत किया। इस तरह कि उससे नारी जीवन की वास्तविक जटिलता का एहसास तक नहीं होता था। इसके विपरीत फिल्म का अंत समस्या के ऐसे समाधान के साथ होता था, जिसका न तो तर्क से कोई संबंध होता था, न वास्तविकता से। 
     अगर किसी फिल्म में नारी पीड़ा उभरकर सामने भी आती, तो उसमें दाम्पत्य जीवन में देह सुचिता, नारी पतिव्रता, आदर्श नारी के गुण ज्यादा दिखाए जाते! जहां वह अपने ससुराल वालों के अत्याचार को पूरे धैर्य के साथ सहती और पति को परमेश्वर समझकर पूजती। इस समय में फिल्मों में पति-पत्नी के संबंधों को पहले तो आदर्श रूप में दर्शाया गया, फिर इसमें शक की वजह से दरार पैदा की जाती रही। हालात ऐसे बनाए जाते, कि घर तोड़ने का ठीकरा नारी पर ही मढ़ दिया जाता। परन्तु बाद में स्थितियां निर्मित कर किसी एक नारी को गलत ठहराकर, उससे माफी मंगवाकर, संबंधों को एक कर दिया जाता। अनुभव, गृह क्लेश, दूरियां, ये कैसा इंसाफ, श्रीमान-श्रीमती जैसी फिल्मों में नारी का नौकरी करना, उसका विदेशी संस्कृति को अपनाना आदि रवैये दिखाकर ऐसे ही हालात पैदा किए गए थे। 
   व्यावसायिक सिनेमा ने अभी तक नारी की जो छवि पेश की है, यह उसका वही आदर्श रूप है, जो धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। यही पूंजीवादी समाज में नारी की वास्तविक स्थिति का प्रतिबिंब भी है। इसके अनुसार नारी जीवन की इससे अलग कोई सार्थकता नहीं है, कि वह अपने पति और बच्चों के लिए जिये, अपनी दैहिक पवित्रता की रक्षा करें और हर तरह से अपने पति के प्रति एकनिष्ठ रहे। कोई ऐसा कदम न उठाए, जिससे घर की इज्जत पर आंच आए। जो नारी इन जीवन मूल्यों को स्वीकार नहीं करती, उन्हें हिंदी फिल्मों में खलनायिका की तरह पेश किया जाता है। नारी के यही दो रूप  हिंदी सिनेमा को स्वीकार्य रहे, जिसका समसामयिक नारी के यथार्थ से कोई संबंध नहीं है। फिल्मों में परवीन बाबी, डिम्पल कपाड़िया, स्मिता पाटिल और जीनत अमान ऐसी ही अभिनेत्रियां रही हैं, जिन्होंने नारी स्वतंत्रता को अपनी फिल्मों में उभारा। इनमें से कुछ की उनकी बोल्डनेस छवि नारी पीड़ाओं से परे रही। फिल्मों में नारी का चरित्र एकनिष्ठ, प्रेम और पवित्रता की देवी सुख-दुःख सहकर भी पति, पुत्र और परिवार को सुख देने वाली बनी रही। परन्तु वास्तविकता में नारी यथार्थता से बहुत दूर खड़ी दिखाई पड़ी। 
      अगर नारी समस्या और चरित्रों को लेकर फिल्म बनी भी है, तो वह इक्का-दुक्का ही रही। नारी के चरित्रों को दर्शाया भी गया, तो उनमें क्लब में जाना, शराब पीना, सिगरेट पीने को ज्यादा उभारा गया। सिनेमा में नारी दो रूपों में काफी चित्रित हुई। एक तो 'सौन्दर्य साधन' के रूप में, दूसरी 'देवी' के रूप में! इसके अलावा नारी की अपनी सामाजिक समस्या को लेकर बहुत कम फिल्मकारों ने फिल्में बनाई। हिंदी सिनेमा में नारी छठे दशक के बाद से ही निर्देशन, संगीत, लेखन के क्षेत्र में नजर आने लगी। इस प्रभाव के कारण आज महिलाओं की सिनेमा में भागीदारी बढ़ी और कई फिल्मों में उनका योगदान नजर आने लगा। फिल्मकारों में उनका नाम भी जुड़ गया। इनमें अपर्णा सेन, कल्पना लाज़मी, मीरा नायर, दीपा मेहता, तनुजा चन्द्रा, फराह खान, पूजा भट्ट, जोया अख्तर के नाम याद किए जा सकते हैं। इन्होंने नारी प्रधान समस्याओं को उठाया, उसकी बारीकियों तक पहुंची, पर इसके बावजूद वे आम नारी की वेदना को नहीं दिखा सकीं।
   50 के और 60 के दशक में विमल राय, गुरू दत्त, महबूब खान और राज कपूर जैसे फिल्म बनाने वालों ने नारी के कई रूप पत्नी, मां, प्रेमिका का सही चित्र प्रस्तुत किया। इन फिल्मों के विषय नारी की अंतर्द्वंद और विचारों पर केन्द्रित रहे। मदर इंडिया, प्यासा, कागज के फूल, प्रेम रोग और 'मधुमति' जैसी फिल्मों ने यह साबित किया कि किस तरह नारी अपने व्यक्तित्व को जीती है! वह किस तरह वह खुश रहती है। उसका आंतरिक हृदय क्या कहता है और वह किस तरह समाज और परिवार को देखते हुए कहां पहुंचना और रहना चाहती है। 
      केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ में जहां एक नारी उभरकर समाज की नारियों में जागृति लाने का काम करती है। वहीं, मुजफ्फर अली की 'उमराव जान'  की भूमिका में रेखा एक कोठे वाली डांसर के रूप में भी नारी संवेदनाओं की स्थितियों को उजागर करती है। दरअसल, सिनेमा का संबंध यथार्थ से होता है और यथार्थ से संबंध के कारण स्वाभाविक है कि नारी जीवन का चित्रण फिल्मों में हो। लगभग सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में लगातार ऐसी फिल्में बनती रही, जिनमें नारी जीवन के यथार्थ को कलात्मक उत्कर्षता के साथ प्रस्तुत किया गया। हिंदी सिनेमा के 70, 80 और 90 के दशक में स्त्री पक्ष को लेकर जबरदस्त बदलाव आया। इस बदलाव ने परदे पर ही नारी चरित्रों को नहीं बदला! बल्कि, इसमें समाज में पल रही उस विचारधारा को भी तोड़ा कि नारी सिर्फ घर की चारदीवारी में रहकर घर का कामकाज और बच्चों को पालने के लिए होती है।
     70 और 80 के दशक के दौरान दो बीघा जमीन, बूट पालिश, जागृति, झनक-झनक पायल बाजे, सुजाता, गाइड, उपकार और 'आनंद' जैसी फिल्मों ने स्त्री की एक अलग छवि बनाई। इसके अलावा ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अभिमान’ और ‘मिली’ जैसी फिल्मों ने सामाजिक अंतर्द्वंद और नारी जीवन की सच्चाई का चित्रण किया। इन फिल्मों ने नई सोच को उजागर किया, जहां नारी चरित्र को अपने करियर से भी प्यार दिखाया गया। 90 के दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ा गया, भारत में बाजार के उदारीकरण और अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण की शुरुआत हुई। इसके बाद से हिंदी सिनेमा में विदेशी भागीदारी बढ़ी और भारतीय समाज में हॉलीवुड की फिल्मों का अच्छा प्रभाव देखकर उसी तरह की तकनीक और शैली का विकास हुआ। बड़े पैमाने पर भारतीय समाज की स्त्रियों पर प्रभाव हिंदी सिनेमा मे भी देखा गया। इसके बाद ही नारी चरित्र के उस देसीपन को भी तिलांजलि मिली, जो बरसों से फ़िल्मी परदे पर बना था। लम्बे संघर्ष के बाद आज फिल्मों में नारी का वही रूप दिखाई दे रहा है, जो समाज में है।   
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Saturday, June 11, 2022

हिंदी सिनेमा में खूब चली भाइयों की जोड़ी!

- हेमंत पाल

      सिनेमा में जब भी पारिवारिक रिश्तों को भुनाने का फार्मूला आजमाया गया, भाई-बहन या भाई-भाई के रिश्तों को ज्यादा तरजीह दी गई। इसलिए कि किसी भी परिवार में सबसे मजबूत रीढ़ इन्हीं रिश्तों की होती है। बहनों पर आधारित छोटी बहन, बड़ी बहन, मंझली दीदी जैसी कई फिल्में बनी, तो भाईयों पर आधारित फिल्में भी कम नहीं हैं। ऐसी फिल्मों के शीर्षकों पर नजर दौड़ाई जाए तो 'भाई' शीर्षक से जुड़ी फिल्मों की संख्या बहन से ज्यादा निकलेगी। भाई, दो भाई, भाई-भाई, बड़ा भाई, चल मेरे भाई, मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, मेरे भैया, बिग ब्रदर, हैलो ब्रदर, गुरु भाई, भाई हो तो ऐसा, मैं और मेरा भाई। हमारे यहां यदि रागिनी और पद्मिनी से लेकर करीना और करिश्मा जैसी बहनों ने नाम कमाया, तो भाईयों ने भी अभिनय के क्षेत्र में अपना दमखम दिखाया है। इसमें कुछ भाई सफल तो कुछ असफल रहे। सफल भाइयों में अशोक कुमार और किशोर कुमार हैं, तो इनके तीसरे भाई अनूप कुमार ज्यादा चल नहीं पाए। कपूर ब्रदर्स ने सबसे ज्यादा नाम कमाया, फिर चाहे वो राज कपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर हों या ऋषि कपूर और रणधीर कपूर। कपूर भाई का होना सफलता की गारंटी है। ऐसा होता तो राज कपूर के तीसरे बेटे राजीव कपूर और अनिल कपूर के छोटे भाई संजय कपूर भी सफलता के झंडे गाड़ते। अभिनय की दुनिया में नाम या भाई का रिश्ता नहीं, दर्शकों की पसंद ज्यादा मायने रखती है।    
    ऐसा भी हुआ कि एक भाई के सफल होने पर दूसरा भाई वैसी ही सफलता की आस लगाकर परदे की दुनिया में कूद पड़ता है। लेकिन, उसे असफलता ही हाथ लगती है। दिलीप कुमार की सफलता से प्रेरित होकर उनके भाई नासिर खान ने भी कोशिश की, पर ज्यादा नहीं चल सके। सुनील दत्त चाहकर भी अपने भाई सोमदत्त को सफलता का दीदार नहीं करवा पाए। मनोज कुमार भी अपने भाई को अभिनेता बनाने के चक्कर में पारिवारिक कलह में ऐसे उलझे कि उबर नहीं पाए। प्रेमनाथ के साथ उनके भाई राजेन्द्र नाथ तो सफल रहे, लेकिन नरेन्द्र नाथ ज्यादा नहीं चले। आमिर खान के भाई फैजल खान, फिरोज खान के भाई संजय खान और अकबर खान, सलमान खान के भाई अरबाज खान और सोहेल खान की कहानी भी इससे कुछ अलग नहीं है। अभिनय के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी भाईयों ने अपनी किस्मत आजमाई। गायन में जिस तरह मंगेशकर बहनों का एक छत्र राज चलता रहा, पर भाइयों में ऐसी कोई जोड़ी नहीं दिखी। 
    देव आनंद के भाई विजय आनंद और चेतन आनंद ने कुछ फिल्मों में अभिनय पर हाथ आजमाए। वे बेहतरीन निर्देशक जरूर बनें। पर, चाहकर भी दूसरे देव आनंद नहीं बन पाए। निर्देशन के क्षेत्र में आनंद बंधुओं की सफलता का ग्राफ सबसे ज्यादा ऊंचा रहा। चेतन आनंद गंभीर निर्देशन के क्षेत्र में अग्रणी रहे, तो विजय आनंद ने मनोरंजक फिल्मों में खूब नाम कमाया। उनकी तरह देव आनंद भी निर्देशक बने, पर 'हरे राम हरे कृष्ण' और 'देस परदेस' को छोड़कर तीसरी सफल फिल्म का निर्देशन नहीं कर पाए। संयोग से यह दोनों सफल फिल्में भाई-बहन और भाई-भाई के प्रेम पर ही आधारित थी। राज कपूर के साथ शम्मी कपूर और शशि कपूर ने, रणधीर कपूर के साथ ऋषि और राजीव कपूर, फिरोज खान के साथ संजय खान और अकबर खान ने निर्देशन की परम्परा को आगे बढ़ाया! लेकिन, इनमें भी एक भाई सफल तो दूसरा असफल रहा। अब्बास-मस्तान भाईयों की जोड़ी जरूर निर्देशन के क्षेत्र में कुछ हद तक सफल रही। हिन्दी सिनेमा में राकेश रोशन और उनके छोटे भाई राजेश रोशन दोनों ने अपार सफलता पाई, लेकिन दोनों के क्षेत्र अलग-अलग थे।  
    कई फिल्मों में रियल लाइफ के भाईयों ने रील लाइफ में साथ-साथ काम किया। इस तरह की फिल्मों में 'चलती का नाम गाड़ी' सबसे सफल फिल्म है जिसमें अशोक कुमार किशोर कुमार और अनूप कुमार की तिकड़ी ने कॉमेडी की गाड़ी को पर्दे पर दौड़ाया था। अशोक कुमार और किशोर कुमार ने 'भाई भाई' और 'रागिनी' में भी काम किया। जबकि, किशोर कुमार और अनूप कुमार ने 'झुमरू' और 'हम दो डाकू' में अभिनय का जौहर दिखाया। अशोक कुमार और अनूप कुमार की जोडी 'आंसू बन गए फूल' में दिखाई दी थी। जबकि, आनंद बंधु की तिकड़ी दर्शकों ने 'काला बाजार' में देखी थी। तीनों के किरदार अलग थे। विजय आनंद और चेतन आनंद 'हकीकत' में थे, तो देव आनंद और विजय आनंद 'तेरे मेरे सपने' में साथ नजर आए। कपूर परिवार के भाई भी कुछ फिल्मों में साथ नजर आए। राज कपूर और शम्मी कपूर ने ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'चार दिल चार राहें' में साथ काम किया तो शम्मी कपूर और शशि कपूर, अनिल कपूर के पिता और शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली के सेक्रेटरी एसके कपूर की पहली फिल्म 'जब से तुम्हे देखा' में एक साथ कव्वाली गाते दिखाई दिए थे। 
    शशि कपूर ने बड़े भाई की दो फिल्मों 'आग' और 'आवारा' में राज कपूर के साथ किया। लेकिन, दोनों साथ में कभी स्क्रीन शेयर नहीं कर पाए। क्योंकि, दोनों फिल्मों में शशि कपूर ने राज कपूर के बचपन का रोल किया था। रणधीर कपूर और ऋषि कपूर 'हाउस फ़ूल 2' में साथ दिखाई दिए थे। इसके अलावा दिलीप कुमार और नासिर खान 'गंगा-जमुना' में साथ दिखाई दिए, तो सलमान और अरबाज 'प्यार किया तो डरना क्या' में साथ थे। खान बंधुओं की तिकड़ी 'हैलो ब्रदर' में भी साथ नजर आई, तो सलमान और सोहेल हेलो, मैंने प्यार क्यूँ किया और 'ट्यूबलाइट' में साथ थे। 'मेला' नाम से तो कई बार फिल्में बनीं, लेकिन संयोग से दो बार बनी 'मेला' में सगे भाइयों ने साथ काम किया। एक मेला में फिरोज खान और संजय खान थे, तो दूसरी में आमिर खान और उनका फ्लॉप भाई फैजल खान कोई कमाल नहीं दिखा पाए थे।
    रिश्ते के भाइयों के अलावा कुछ फ़िल्मी कथानकों में दो भाइयों के रिश्तों की प्रगाढ़ता को बहुत अच्छे ढंग से फिल्माया गया। मनोज कुमार की कालजयी फिल्म 'उपकार' की कहानी भी दो भाइयों मनोज कुमार और प्रेम चौपड़ा पर केंद्रित थी। 'राम लखन' के दो भाई अनिल कपूर और जैकी श्रॉफ को कोई कैसे भूल सकता है। फ़िल्म 'भाई' में सुनील शेट्टी और कुणाल खेमू ने भाइयों की भूमिका निभाई थी। शाहरुख़ ख़ान और सलमान खान ने 'करन-अर्जुन' में जो काम किया उसे आजतक याद किया जाता है। अक्षय कुमार और सिद्धार्थ मल्होत्रा ने फिल्म 'ब्रदर्स' में अक्षय कुमार और सिद्धार्थ मल्होत्रा भाई बनकर आए थे। 'आंखें' में गोविंदा और चंकी पांडे के किरदार 'मुन्नू' और 'मुन्नू' का नाम सुनते ही चेहरे पर हंसी आना स्वाभाविक है। 
   अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की फिल्म 'दीवार' का नाम सुनते ही सबसे पहले दिमाग में 'तुम्हारे पास क्या है' वाला डायलॉग कान में गूंजने लगता है।  इसके साथ दोनों भाइयों के बीच का सन्नाटा सुनाई देता है। संजय दत्त और कुमार गौरव की फ़िल्म 'नाम' में संजय दत्त और कुमार गौरव भाई बने थे। सुनील दत्त और राजेंद्र कुमार फिल्म 'मदर इंडिया' की राधा यानी नरगिस दत्त हों या फिर मुंशी सभी किरदार अमर हैं। इनमें ही एक किरदार था दो भाइयों का जिसे सुनील दत्त और राजेंद्र कुमार ने निभाया, इनका नाम बिरजू और रामू था। अमिताभ बच्चन, गोविंदा और रजनीकांत की फिल्म 'हम' के ये तीनों भाई किसी मिसाल से कम नहीं थे। 'अमर अकबर एंथोनी' में भी तीन भाइयों की कहानी में अमिताभ, विनोद खन्ना और ऋषि कपूर थे। 'परवरिश' में अमिताभ के साथ फिर विनोद खन्ना भाई बनकर आए। अमिताभ और ऋषि कपूर की फिल्म 'नसीब' में दोनों भाई बनकर नज़र आए थे। सनी देओल-बॉबी देओल को 'अपने' में देखकर लगा ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं। जब तक हिंदी फिल्मों में रिश्तों के पत्ते फेंटे जाते रहेंगे भाई-भाई के किस्सों की भी कमी नहीं आएगी।   
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Thursday, June 2, 2022

आज भी याद आते हैं 'दूरदर्शन' के वे सीरियल!

हेमंत पाल

   मय के साथ बहुत कुछ बदला और उसके साथ मनोरंजन के तरीके भी बदले। फिल्मों का लम्बा दौर चला, कई बार उसमें भी बदलाव आया। यह दौर आज भी चल रहा है। फर्क इतना आया कि पीढ़ियों बदलने के साथ दर्शकों की पसंद बदलती गई। 80 के दशक में फिल्मों के साथ मनोरंजन का नया माध्यम टेलीविजन भी इसमें जुड़ गया। इससे दर्शकों को घर में बैठकर मन बहलाने का विकल्प मिल गया। सबसे पहले आया 'दूरदर्शन' जिसने दर्शकों का बरसों तक मनोरंजन किया। आज भले ही 'दूरदर्शन' मनोरंजन की दौर में पिछड़ गया हो, पर उस पीढ़ी के दर्शकों की यादों में आज भी दूरदर्शन के सीरियल चस्पा है। शुरू में दूरदर्शन के प्रसारण का समय भी सीमित था। पर, जब भी कोई कार्यक्रम शुरू होता, पूरा परिवार टीवी के सामने बैठ जाता था। जिन घरों में टीवी नहीं था, वे भी पड़ौसी या परिचितों के यहां बिन बुलाए पहुंच जाते थे। ये दर्शक सिर्फ मनोरंजन के कार्यक्रम देखने के लिए ही नहीं जुटते थे, बल्कि वे कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रमों को देखने का भी मौका नहीं छोड़ते!             
     भारतीय टेलीविजन इतिहास में 'हम लोग' पहला सीरियल था, जो 7 जुलाई 1984 को दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। दर्शकों को यह शो इतना पसंद आया था कि इसके चरित्र विख्यात हो गए! इस सीरियल की कहानी लोगों की रोजमर्रा की बातचीत का हिस्सा बन गई थी। इस सीरियल ने देश के मध्यम वर्ग की ज़िंदगी को बहुत नजदीक से दर्शाया था। इसकी लोकप्रियता का पैमाना कुछ वैसा ही था, जैसा बाद में 'रामायण' और 'महाभारत' का रहा! 'रामायण' को भारतीय टेलीविजन के सबसे सफल सीरियलों में से एक माना जाता है। रामानंद सागर के इस सीरियल का असर ऐसा था दर्शकों की धार्मिक भावनाएं उभरकर सामने आ गईं! जबकि, रामानंद सागर पर इसके असर का चरम ये था, कि उन्होंने उसके बाद फ़िल्में बनाना ही छोड़ दिया था। दूरदर्शन पर ये सीरियल जब पहली बार प्रसारित किया गया गाँव व शहरों में कर्फ्यू जैसा माहौल हो जाता था। जिनके घरों में टीवी नहीं था, वे दूसरों के घर जाकर 'रामायण' देखते थे। आज की पीढ़ी को ये बात अचरज लग सकती है, पर सच यही था।  
    बाद में बीआर चोपड़ा ने भी 'महाभारत' बनाकर छोटे परदे पर कुछ ऐसा ही जादू किया था। ये सीरियल 2 अक्टूबर 1988 को पहली बार प्रसारित हुआ। इस सीरियल की शुरुआत सबसे खास हिस्सा होता था जब हरीश भिमानी की आवाज गूंजती थी 'मैं समय हूं!' ब्रिटेन में इस धारावाहिक का प्रसारण बीबीसी ने किया, तब इसकी दर्शक संख्या 50 लाख पार कर गई थी। 'दूरदर्शन' के सफल सीरियलों में 'चंद्रकांता' भी रहा, जिसका प्रसारण 4 मार्च 1994 को शुरू हुआ था। देवकीनंदन खत्री के फंतासी उपन्यास पर बने इस सीरियल को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। 
    दूरदर्शन पर 1994 में प्रसारित हुए 'अलीफ लैला' के दो सीजन में 260 एपिसोड प्रसारित हुए! जादू, जिन्न, बोलते पत्थर, एक मिनट में गायब हो जाना, राजा व राजकुमारी की कहानी को मिलाकर बने इस सीरियल को लोग आज भी याद करते हैं। '1001 नाइट्स' पर आधारित इस धारावाहिक में मिस्र, यूनान, फ़ारस, ईरान और अरब देशों की बहुत सी रोमांचक कहानियां थीं जिनके हीरो 'सिन्दबाद', 'अलीबाबा और चालीस चोर', 'अलादीन' हुआ करते थे। रामानंद सागर ने 'रामायण' से पहले 'विक्रम और बेताल' बनाया था। इस धारावाहिक के सिर्फ 26 एपिसोड ही प्रसारित हुए थे। ये 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था। ये महाकवि सोमदेव की लिखी 'बेताल पच्चीसी' पर आधारित था। 
   जंगल, जंगल बात चली है पता चला है ऐसे ... ये वो लाइन है, जिन्हें गुलजार ने 'जंगल बुक' सीरियल के लिए लिखा था। ये लाइनें और ये सीरियल आज भी उस दौर के दर्शकों के दिलों में बसा है! बच्चों से लेकर बड़ों तक को बेसब्री से इंतज़ार रहता था। दूरदर्शन पर ये जापानी एनिमेटेड इंग्लिश सीरीज़ आती थी जिसे हिंदी में रूपांतरित किया था। कई गांव में तब बिजली नहीं होती थी, तो लोग बैटरी से टीवी को जोड़कर ये शो देखते थे। यही क्यों 80 और 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित ऐसे कई सीरियल है, जो बहुत ज्यादा पसंद किए गए।
    'हम लोग' और 'बुनियाद' तो लोकप्रियता में मील का पत्थर थे। इनके अलावा भी ऐसे कई सीरियल हैं, जो निर्माण के मामले में भले ही आज से हल्के दिखाई देते हों, पर अपने कथानक कारण दर्शकों की पहली पसंद थे। आरके नारायण की कहानियों पर आधारित 'मालगुडी डेज़' भी बच्चों का सीरियल था, जिसका प्रसारण 1987 में हुआ था। इसे भी लोगों ने काफी पसंद किया था। इसमें स्वामी एंड फ्रेंड्स तथा वेंडर ऑफ स्वीट्स जैसी लघु कथाएं व उपन्यास शामिल थे। इसे हिन्दी और अंग्रेजी में बनाया गया था। इसके 39 एपिसोड प्रसारित हुए थे, फिर इसे 'मालगुडी डेज़ रिटर्न' नाम से पुनर्प्रसारित भी किया गया था। हमारे देश के बच्चों को अपना पहला सुपर हीरो 'शक्तिमान' 27 सितम्बर 1997 को मिला था। इसका अपना अलग ही क्रेज़ था। 400 एपिसोड वाला यह शो करीब 10 साल तक चला! 
   'भारत एक खोज' भी दूरदर्शन का 53 एपिसोड तक चला एक कालजयी कार्यक्रम था। यह 1988 से 1989 के बीच हर रविवार प्रसारित होता था। जवाहरलाल नेहरु की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ (भारत की खोज) पर आधारित यह टीवी सीरीज़ शायद टेलीविज़न के इतिहास में अब तक का सबसे बेहतरीन रूपांतरण है। इसके निर्माता और निर्देशक हिन्दी फिल्मों के मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल थे। अंकुर, निशांत, मंथन और भूमिका जैसी फिल्मों के लिए चर्चित बेनेगल समानांतर सिनेमा के बड़े निर्देशकों में हैं। 
      बेनेगल ने ही 80 के दशक में जो सीरियल बनाया, जो न सिर्फ दूरदर्शन बल्कि देश के टीवी सीरियलों के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। 80 के दशक में जब 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे सीरियलों ने हर घर में अपनी जगह बनाई थी। उस समय सरकार को लगा कि भारत के इतिहास पर भी एक टीवी सीरियल बनाया जाना चाहिए। बेनेगल ने देश के दर्शकों तक भारत की इसी अनसुनी कहानी को पहुंचाने का मुश्किल काम किया। वास्तव में श्याम बेनेगल की दिलचस्पी 'महाभारत' बनाने में ज्यादा थी। लेकिन, वह पहले ही बीआर चोपड़ा को दिया जा चुका था। जब उनके पास भारतीय इतिहास पर 'भारत एक खोज' बनाने का ऑफर आया तो वे मना नहीं कर सके।
   दूरदर्शन पर धार्मिक सीरियलों में रामायण, महाभारत, जय हनुमान, श्री कृष्णा, ॐ नमः शिवाय, जय गंगा मैया। ऐतिहासिक सीरियलों में टीपू सुल्तान, अकबर द ग्रेट, द ग्रेट मराठा, भारत एक खोज, चाणक्य। पारिवारिक सीरियलों में स्वाभिमान, अंजुमन, संसार, बुनियाद, हम लोग, कशिश, फ़र्ज़, वक़्त की रफ़्तार, अपराजिता, इतिहास, शांति, औरत, फरमान, इंतज़ार और सही, हम पंछी एक डाल जैसे कालजयी सीरियल भला कौन भूला होगा। कॉमेडी और मनोरंजन वाले सीरियल ये जो है जिंदगी, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, विक्रम और बेताल, सुराग, मालगुडी डेज, तेनालीराम, व्योमकेश बक्शी, कैप्टेन व्योम, चंद्रकांता, शक्तिमान, आप-बीती, फ्लॉप शो, अलिफ़ लैला, आँखें, देख भाई देख, एक से बढ़कर एक, ट्रक धिना धिन, तहकीकात जैसे कई नाम है।
    उस समय एनिमेशन इंडस्ट्री ज्यादा विकसित नहीं थी, इसलिए विदेशी सीरियलों को डब करके परोसे गए। डिज्नी के मोगली जंगल बुक, टेलस्पिन, डक टेल्स, अलादीन, ऐलिस इन वंडरलैंड, गायब आया जैसे सीरियल बहुत देखे गए। 'सुरभि' दूरदर्शन का पहला ऐसा कार्यक्रम था, जिसमें नियमित इनामी प्रतियोगिता होती थी। भारत की संस्कृति और सामान्य ज्ञान से संबंधित सवाल पूछे जाते थे। इनाम में भारत के विभिन्न राज्यों के टूर-पैकेज दिए जाते थे। एक एपिसोड में मचान बाँधकर लगाए गए पौधे दिखाए गए थे। उन मचानो से बेलें लटक रही थी। पूछा गया था कि ये किस चीज़ की खेती है। इसके जवाब में उस एपिसोड में लाखों पोस्टकार्ड मिले, जो रिकॉर्ड था। इसी से अंदाजा लगाया गया कि 'सुरभि' कितना लोकप्रिय सीरियल था। लेकिन, अब दूरदर्शन उस पीढ़ी की यादों में दर्ज होकर रह गया।  
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गोविंद सिंह को सामने करके कांग्रेस ने कई निशाने साधे!

    मध्यप्रदेश की विधानसभा में डॉ गोविंद सिंह की गिनती वरिष्ठ नेताओं में ही होती है। फ़िलहाल सदन में उनसे वरिष्ठ सिर्फ मंत्री गोपाल भार्गव ही हैं, जो 8वीं बार के विधायक हैं। इसके बाद गोविंद सिंह का ही नंबर आता है। वे भिंड जिले की लहार सीट से 7वीं बार विधानसभा चुनाव जीते। कांग्रेस में तो वे सबसे वरिष्ठ विधायक हैं ही! पार्टी ने उनके लम्बे राजनीतिक अनुभव, पार्टी के प्रति समझ और सरकार पर हमले की रणनीति को देखते हुए ही उन्हें नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी सौंपी है। अभी तक भले नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी कमलनाथ निभा रहे थे! पर, सदन में शिवराज सरकार को घेरने की पूरी रणनीति गोविंद सिंह ही बनाया करते थे। आज भी उनका मानना है कि कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं छोड़ा है! बल्कि, अपनी जिम्मेदारी बांटी है। 

- हेमंत पाल

    लम्बे अरसे बाद मध्य प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला। दो पद संभाल रहे कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष पद छोड़ दिया। अब यह पद ग्वालियर-चंबल के कद्दावर नेता डॉ गोविंद सिंह को सौंपा गया है। लेकिन, गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के कई राजनीतिक मायने हैं। देखा जाए तो कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साध लिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल के सबसे बड़े नेता हैं और कांग्रेस से उनके जाने के बाद पार्टी को इस इलाके में ऐसे नेता की जरूरत थी, जो 2023 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा से हर स्तर पर मुकाबला कर सके। गोविंद सिंह उस काम में माहिर हैं! भाजपा भी जानती है कि वे कच्चे खिलाड़ी नहीं है।
    दोनों ही पार्टियों के लिए 2023 का विधानसभा चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न है। 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने का कारण भी यही था कि इस अंचल से कांग्रेस ने अच्छी सीटें जीती थीं। कांग्रेस की सरकार गिरने का कारण भी यही अंचल था। इस क्षेत्र की 34 सीटें इस बार भी निर्णायक साबित होने वाली हैं। अब कांग्रेस को भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुकाबले के लिए कांग्रेस को ऐसे ही आक्रामक नेता की जरूरत थी, जो न तो सिंधिया से दबे, न डरे और सामने आकर मुकाबला कर सके। गोविंद सिंह के राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो वे हर पन्ने पर सिंधिया परिवार का मुखर विरोध करते दिखाई देंगे। सिंधिया जब कांग्रेस में थे, तब भी अगर उनके खिलाफ कोई बात होती तो गोविंद सिंह खुलकर उस पर प्रतिक्रिया देते थे। ऐसे में उनको डराने, झुकाने जैसी स्थिति तो शायद कभी नहीं बनेगी। इसलिए कहा जा सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव में इस इलाके का चुनाव दिलचस्प होगा। 
     गोविंद सिंह 7वीं बार विधायक चुने गए है। वे दिग्विजय सिंह और कमलनाथ दोनों की सरकारों में मंत्री भी रहे। कांग्रेस संगठन में उन्होंने कई बड़ी जिम्मेदारियां निभाई। विधानसभा में भी कई समितियों में उन्होंने काम किया है। मध्यप्रदेश में उनकी पहचान कांग्रेस के बड़े नेता के तौर पर होती है। पार्टी के दिल्ली दरबार में भी उनकी सीधी पहुंच है। उन्हें दिग्विजय सिंह के करीबी माना जाता हो! लेकिन, वे सामंजस्य के भी बड़े खिलाड़ी हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के पीछे कहीं न कहीं दिग्विजय सिंह का दबाव रहा है। लेकिन, ऐसी कोई बात इस वरिष्ठ नेता का कद छोटा करती है। वे पार्टी में अपनी एक अहम् जगह रखते हैं और इसी की खातिर उन्हें यह पद मिला।  
    जब ये हालात बने कि अब कमलनाथ को नेता प्रतिपक्ष का छोड़ना पड़ेगा, तो कमलनाथ गुट की तरफ से यह दबाव बनाया जाने लगा कि किसी युवा विधायक को यह पद दिया जाना चाहिए। लेकिन, विधानसभा चुनाव की निकटता और भाजपा की आक्रामकता को देखते हुए गोविंद सिंह का चयन सबसे सही निर्णय रहा। गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनाने के फैसले के पीछे मूलतः दो कारण थे। एक तो उनका सीनियर होना और दूसरा उनका ग्वालियर-चंबल इलाके से ऐसा मुखर नेता होना जो सिंधिया के सामने ख़म ठोंककर खड़ा हो सकता है। उनके नाम पर न तो कमलनाथ को एतराज हुआ न दिग्विजय सिंह और न अरुण यादव को। गोविंद सिंह का नाम सबकी सहमति वाला नाम समझा जा सकता है। 
   ग्वालियर-चंबल इलाका ठाकुरों का है। कई सीटों पर यहां ठाकुर ही निर्णायक स्थिति में हैं। भाजपा के पास इस वर्ग से नरेंद्र सिंह तोमर है। वे बड़े नेता भले हों, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद उनका प्रभाव घटा है! भाजपा की तरफ झुकाव को लेकर ठाकुरों में भी असमंजस है। क्योंकि, सिंधिया और ठाकुरों में कभी आसान तालमेल संभव नहीं है। ऐसे में गोविंद सिंह का कांग्रेस में कद बढ़ना पार्टी के लिए फायदेमंद हैं। इसके अलावा गोविंद सिंह को चुनाव मैनेंजमेंट का भी अच्छा अनुभव है। सिंधिया बगावत के बाद 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस को कई सीटें जिताने में भी उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे समय-समय पर पार्टी में अपनी उपयोगिता भी साबित कर चुके हैं। 
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