Sunday, May 29, 2016

क्रिकेट के मैदान में कई हीरोइनें बोल्ड हुई!

- हेमंत पाल 

   हिंदुस्तान में क्रिकेट लोगों की रग-रग में बसा है और फ़िल्मी कलाकारों को भगवान की तरह पूजा जाता है! इसलिए दोनों के प्रति लोगों की दीवानगी का अपना अलग ही अंदाज़ है! ये भी सच है कि क्रिकेट और अभिनय ऐसी विधाएं हैं, जिनकी राह आपस में कहीं नहीं मिलती! पर, दोनों में रिश्ता गहरा है! जब से देश में आईपीएल शुरू हुआ, दोनों में नजदीकियां और ज्यादा बढ़ी! शाहरुख़ खान, प्रीटी जिंटा और शिल्पा शेट्टी ने तो टीम ही खरीद ली! खैर, ये तो व्यवसायिक दोस्ती है, पर क्रिकेट खिलाडियों और फ़िल्मी हीरोइनों के बीच प्रेम प्रसंग, शादी और तलाक बरसों से चर्चित रहा है! आज भी इस तरह के किस्सों को विराम नहीं लगा, बल्कि दोस्ती नए-नए किस्से सुनाई दे रहे हैं! अनुष्का शर्मा और धमाकेदार बल्लेबाज विराट कोहली का प्रेम प्रसंग इन दिनों सुर्खियां में हैं! विराट जब भी बड़ा शॉट लगाते हैं, कैमरा स्टेडियम में अनुष्का ढूंढने लगता है! ये जोड़ी कई जगह साथ देखे जाते हैं। दोनों ने ही अपने प्यार से कभी इंकार नहीं किया! बीच में दोनों के ब्रेकअप का भी हल्ला उड़ता रहा!
     पिछले साल अक्टूबर में ऑफ-स्पिनर हरभजन सिंह ने जालंधर में एक्ट्रेस गीता बसरा से शादी की! हरभजन सिंह और गीता के बीच लम्बे समय तक प्यार चला! गीता बसरा हिंदी और पंजाबी फिल्मों में अभिनय कर रही हैं! गीता बसरा ने 2006 में ‘दिल दिया है' से बॉलीवुड में डेब्यू किया और एक टीवी रियलिटी शो में दोनों की मुलाकात हुई थी! वैसे फिल्मीं दुनिया में शायद ऐसा पहला रिश्ता शर्मिला टेगोर और मंसूर अली खान पटौदी में हुआ था! नवाब खानदान से जुड़े मशहूर बल्लेबाज मंसूर अली खान पटौदी से प्रेम के बाद दिसंबर 1969 को दोनों ने शादी की थी! भारतीय टीम के कप्तान रहे मोहम्मद अजहरउद्दीन और संगीता बिजलानी का रिश्ता भी काफी चर्चा में रहा! अजहर शादीशुदा थे, लेकिन संगीता के लिए उन्होंने अपनी पत्नी नौरीन को तलाक दे दिया और 1996 में दोनों ने शादी कर ली! अभी ये रिश्ता किस मोड़ पर है, इसे लेकर भी कई तरह की चर्चाएं हैं! संगीता को अजहर का नाम एक बैडमिंटन खिलाड़ी से जुड़ने पर आपत्ति है।
  ये जोड़ियां सिर्फ देश तक ही सीमित नहीं रही! वेस्टइंडीज, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान तक के क्रिकेटरों पर बॉलीवुड की हीरोइनों का दिल आया है! वेस्टइंडीस के बल्लेबाज विवियन रिचर्ड्स और एक्ट्रेस नीना गुप्ता बीच मोहब्बत के किस्से तब ख़बरों में आए जब नीना ने शादी के बगैर ही बेटी मसाबा को जन्म दिया! दोनों ने शादी नहीं की, पर ये रिश्ता आज भी कायम है! लेकिन, पाकिस्तानी बल्लेबाज मोहसीन खान और खूबसूरत हीरोइन रीना रॉय के बीच ये रिश्ता लम्बा नहीं चला! इनके प्यार की शुरुआत मेल मुलाकातों से हुई थी, जिसे अफवाह माना गया! बाद में दोनों ने अप्रैल 1983 में शादी कर ली। दोनों कराची रहने चले गए! क्रिकेट से संन्यास के बाद मोहसीन ने मुंबई में फिल्मों में भी किस्मत आजमाई, पर बात नहीं बनी! बाद में इस दोनों के बीच इतना तनाव उभरा कि इन्होने तलाक ले लिया। आईपीएल-2010 में ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज शान टैट की मुलाकात मॉडल माशूम सिंघा से हुई! इसके बाद दोनों ने शादी कर ली! पहली बार दोनों आईपीएल की एक पार्टी में मिले थे! जून 2014 में मुंबई में शादी के बाद ये एडिलेड में बस गए हैं। शान क्रिकेट से जुड़े हैं और माशूम एक इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी चला रही हैं।
  ये तो हुए वो किस्से जिनके प्यार को मंजिल मिली! ऐसे किस्सों की भी कमी नहीं है, जो अधूरे ही रहे! रवि शास्त्री जब भारतीय टीम के कप्तान थे, तब अमृता सिंह उन पर लट्टू हो गई थी। लेकिन, कुछ मतभेदों के कारण ये दोस्ती रिश्ते में नहीं बदल सकी! एक और क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली और नगमा को लेकर भी ख़बरें उडी! दोनों को कई बार आंध्रप्रदेश के शिव मंदिर में देखा गया! इस मुद्दे की वजह से सौरव और उनकी पत्नी डोना के बीच भी काफी विवाद होने की भी बातें सामने आई! बाद में नगमा ने इस संबंध को स्वीकार भी किया! तेज गेंदबाज जहीर खान और एक्ट्रेस ईशा के रोमांस को भी हवा मिली! आठ साल तक दोनों रिलेशनशिप में रहे, पर दोनों ने ही इस रिलेशन को खत्म कर लिया! पाकिस्तान के पूर्व खिलाडी वसीम अकरम और सुष्मिता सेन भी जब एक टीवी रिएलिटी शो में जज बनकर आए तो एक-दूसरे को दिल दे बैठे! लेकिन, इनकी बात भी आगे नहीं बढ़ी! धाकड़ बल्लेबाज युवराज सिंह और हेजल के बारे में कहा जाता है कि इनकी तो सगाई भी हो चुकी हैं और जल्द हीं शादी कर सकते हैं। लेकिन, अभी इस राज का खुलासा नहीं हुआ! ये किस्से अभी खत्म नहीं हुए! आगे भी क्रिकेट और बॉलीवुड हीरोइनों के बीच प्रेम की गंगा बहती रहेगी!
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Friday, May 27, 2016

कमलनाथ में मध्यप्रदेश का राजनीतिक तलाशती कांग्रेस!

- हेमंत पाल 


  कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के 'मिशन 2018' के लिए तैयारी शुरू कर दी! पहला काम तो पार्टी शायद अध्यक्ष बदलकर करेगी! इसके लिए माहौल भी बनने लगा! अरुण यादव की कुर्सी का दावेदार लगभग तय हो गया! उद्योगपति और नेता कमलनाथ इस दावेदारी में सबसे आगे खड़े हैं! वैसे दौड़ में महाराजा और नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी माना जा रहा है, पर वे पीछे छूट गए! कमलनाथ समर्थकों का उत्साह भी दर्शा रहा है कि उनके नेता के पक्ष में कुछ 'अच्छा' होने वाला है! असम में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी संगठन में जिस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही जा रही है, उसमें मध्यप्रदेश के भी शामिल होने का अंदेशा है! फिर भी इस यक्ष प्रश्न का जवाब नहीं मिल रहा कि कमलनाथ के आने भर से पार्टी को कौनसा सत्ता का च्यवनप्राश मिल जाएगा? जो भी हो, अभी तो कांग्रेस में अंदर ही अंदर खदबदाहट जारी है!   
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   कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चाओं ने फिर जोर पकड़ लिया! कुछ महीने पहले प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने ये कहकर सनसनी मचा दी थी कि यदि कमलनाथ उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जाती है तो पार्टी की हालत सुधरेगी! कमलनाथ पार्टी में नई जान फूंक देंगे। कुछ विधायकों ने भी बच्चन की बात का समर्थन किया था! एक विधायक निशंक जैन ने तो कदम आगे बढ़कर कहा कि कमलनाथ को न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए, बल्कि अगले चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। इसी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी नाम चलाया गया, पर सिंधिया का ज्यादा समर्थन होता दिखाई नहीं दिया!  पिछले विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के एक धड़े ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश की कमान सौंपने के लिए अभियान चलाया था। लेकिन, बात चुनाव अभियान प्रभारी तक सीमित हो गई थी! उस समय भी सिंधिया समर्थकों की दाल नहीं गल पाई!
   मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव की नियुक्ति के साथ ही उनके बदले जाने के भी कयास लगने लगे थे। कांग्रेस ने उनमें कौनसी योग्यता देखकर उन्हें पार्टी की कमान सौंपी थी, इस बात का आकलन आजतक हो रहा है! क्योंकि, 2014 की हार के बाद कोई भी बड़ा नेता ये जिम्मेदारी सँभालने को तैयार नहीं हुआ था! लेकिन, 2018 के चुनाव नजदीक आने के साथ ही कांग्रेसियों को उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी! उन्हें लग रहा है कि यदि साझा रणनीति बनाकर मेहनत की जाए तो किला फतह करना मुश्किल नहीं है! लेकिन, जिसे जंग का सेनापति बनाया जाएगा, तय है कि जीत के बाद वही किले को भी संभालेगा! यही कारण हैं कि प्रदेश कांग्रेस में सेनापति बनने की होड़ लग गई! अरुण यादव बाद कुर्सी का सही दावेदार कौन होगा कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और? इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है! मैहर उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद मिले संकेतों के आधार पर ही मान लिए गया था कि कमलनाथ ने प्रदेश में पार्टी की बड़ी कुर्सी के लिए अपनी कोशिशें तेज कर दी! दिल्ली की राजनीति में फिलहाल उनके पास कोई बड़ी भूमिका नहीं है! करीब ढाई साल बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है! प्रदेश में अपनी भूमिका निर्धारित करने के प्रयासों के तहत ही वे इस तैयारी में लग गए है।
 वैसे इसकी तैयारी काफी पहले कर ली गई थी! लेकिन, सही समय का इंतजार किया जा रहा था, जो शायद अब आ चुका है। असम में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी की सबसे बड़ी टीम में भी बहुत कुछ बदलाव होने के संकेत हैं! इसी बदलाव की बयार में प्रदेश में भी कुर्सी पलट का दौर चलना करीब-करीब तय समझा जाना चाहिए! दिल्ली की बड़ी टीम में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों महासचिव पद की उम्मीद में हैं। लेकिन, प्रदेश से दिग्विजय सिंह भी महासचिव हैं, जिन्हें बदले जाने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही! इसलिए कार्यकारिणी में सिंधिया और कमलनाथ के समकक्ष किसी भूमिका की गुंजाइश नजर नहीं आ रही! ये भी एक कारण है कि कमलनाथ ने मध्यप्रदेश में खुद के लिए सम्भावनाएं खोज ली है! वे यहां कांग्रेस के 'मुखिया' बनना चाहते हैं! क्योंकि, उनकी नजर 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। तीसरी संभावना दिग्विजय सिंह को लेकर भी है, लेकिन शायद वे स्वयं अब खुलकर प्रदेश की राजनीति करने के मूड में नहीं है! पार्टी आलाकमान भी मध्य प्रदेश में अब किसी प्रयोग से बचना चाहता है!
   इंदिरा गाँधी के तीसरे बेटे के रूप में चर्चित कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की मांग अब सतह से ऊपर आने लगी है। साथ ही प्रदेश की राजनीति में इसके मायने भी निकाले जाने लगे! क्या दिल्ली दरबार में कमलनाथ का कद छोटा हो गया? क्या इस सोची-समझी रणनीति के पीछे दिग्विजय सिंह की कोई भूमिका हैं? या फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को टक्कर देने के लिए पिछड़े वर्ग के किसी नेता को पार्टी की कमान सौंपना कांगेस की मजबूरी है? जहाँ तक इस संभावित बदलाव में परदे के पीछे दिग्विजय सिंह की मौजूदगी भाँपने वालों का अनुमान है कि दिग्गी राजा की मदद के बिना कमलनाथ प्रदेश में कोई चमत्कार नहीं कर सकते! आज भले ही दिग्गी राजा खुद चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं हों, पर कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी फ़ौज उनके ही पास है! सिंधिया समर्थकों के मुताबिक कमलनाथ को सीएम प्रोजेक्ट करके वे एक बड़ा दांव खेलने के मूड में हैं! इस तरह दिग्गी राजा 2023 में अपने बेटे जयवर्धन सिंह के लिए राह आसान कर रहे हैं! क्योंकि, उम्र के इस पड़ाव में कमलनाथ लम्बी रेस का घोड़ा नहीं हैं! यदि यही दाँव पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया लगाती है, तो दिग्गी राजा के अपने बेटे के लिए देखे सपने पूरे नहीं होंगे!  
     मध्यप्रदेश में कांग्रेस की मज़बूरी है कि वो प्रतिद्वंदी के खिलाफ मोर्चा बनाने के बजाए आपस में ही ज्यादा जूझती रहती है! भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए 'मिशन-2018' की रणनीति बनाने की जगह कांग्रेस फिर प्रदेश अध्यक्ष पद की जोड़-तोड़ में लग गई! प्रदेश अध्यक्ष को लेकर फिर लॉबिंग शुरू हो गई! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। दोनों नेताओं के समर्थक अपने आकाओं पक्ष में यश-कीर्ति गान में लग गए हैं! ये सब संयोग नहीं है, बल्कि सोच-समझकर हो रहा है। मुखिया के लिए खुद का नाम उछालने के पीछे इन नेताओं की मौन सहमति भी होगी! इन दोनों नेताओं की सक्रियता के बीच ऐसे नजारे भी दिखे, जो इस बात का संकेत था कि नेतृत्व उनके हाथ में हो, तभी प्रदेश में कांग्रेस की वापसी संभव है। हालांकि, राजनीतिक जानकारों के मुताबिक इससे कांग्रेस की गुटबाजी का संदेश मतदाताओं के बीच जा रहा है। ऐसे हालातों की वजह से ही जनता कांग्रेस को नकार भी रही है। यदि कांग्रेस अभी भी नहीं संभली, उसे 2018 में भी उसी दोराहे पर खड़े होने को मजबूर होना होगा!
  सवाल यह है कि कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या ये दोनों नेता पूरे प्रदेश में अपनी पकड़ रखते हैं? कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र महाकौशल तक सीमित है और ज्योतिरादित्य की पकड़ ग्वालियर-चंबल के अलावा मालवा के कुछ इलाकों तक है! ये दोनों बड़े नेता हैं, पर इतने बड़े भी नहीं कि पूरे प्रदेश में कांग्रेस नैया पार लगा दें! ये खुद तो पाने लोकसभा चुनाव जीत गए, पर विधानसभा चुनाव में इन्हीं के इलाके में कांग्रेस की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है! 2003 से 2016 के बीच प्रदेश में हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में इन नेताओं ने पार्टी के लिए कोई तमगा नहीं जीता! वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव तो दोनों के मुकाबले बेहद कमजोर हैं! उनकी राजनीतिक सीमाएं निमाड़ (खंडवा और खरगोन) ये आगे नहीं जाती! ऐसे में कैसे यकीन किया जा सकता है कि कमलनाथ (या किसी और) के आने भर से कांग्रेस के सूखते पेड़ में हरियाली छा जाएगी और वो फलों से लद जाएगा! इस माहौल का हश्र जो भी हो, दिलचस्प तो होगा!
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Sunday, May 22, 2016

हर दौर में सफल रहा 'रियल सिनेमा'

हेमंत पाल 

  फिल्मों के निर्माण का एक अलग ही दौर चलता है! कभी एक्शन वाली फ़िल्में आती हैं तो मसाला फिल्मों की लाइन लग जाती है! प्रेम कहानियों का सिलसिला शुरू होता है तो सिनेमा का परदा रूमानी नजर आने लगता है! इस नजरिए देखा जाए तो इन दिनों ऐसी फ़िल्में ज्यादा आ रही हैं जिनकी कहानियां वास्तविक घटनाओं के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं! बॉलीवुड ने इसे 'रियल सिनेमा' का नाम दिया! इस तरह की फ़िल्में 80 दशक की कला फिल्मों तरह नहीं होती और न बायोपिक होती हैं! कहानी वास्तविकता लिए होती है, पर उसमें सारे फ़िल्मी मसाले डालकर तड़का लगाया जाता हैं। ताजा दौर में एयरलिफ्ट, नीरजा, अलीगढ, ट्रैफिक के बाद 'सरबजीत' इस श्रृंखला की नई फिल्म है।  
   कभी इस तरह की फ़िल्में बनाने में आईएस जौहर को महारथ हांसिल थी! अपनी इस विधा की शुरुवात उन्होंने ‘नास्तिक’ बनाकर की थी जो देश के बंटवारे में विस्थापित होकर आए लोगों के दुख-दर्द की कहानी थी! असल में तो 'नास्तिक' खुद जौहर के अपने निजी अनुभवों की ही कहानी थी! इसके बाद इस फिल्मकार ने सच्ची घटनाओं ही अपनी फिल्मों के विषय बना डाले! पुर्तगालियों से गोआ की आज़ादी की लड़ाई पर ‘जौहर-महमूद इन गोआ’ बनाई ,तो कश्मीर के मसले पर ‘जौहर इन काश्मीर।’ बांग्लादेश युद्ध का प्रसंग आया तो ‘जय बांग्ला देश’ फिल्म बना डाली! आपातकाल में जबरन नसबंदी प्रति नाराजी दिखाते हुए 1978 में जौहर ने ‘नसबंदी’ भी बनाई!
 हर दौर में ये फ़िल्में इसलिए ज्यादा बनती रहती है कि दर्शक ऐसी फिल्मों को पसंद करते हैं! मनगढंत कहानियों की अपेक्षा सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों को देखने में लोग ज्यादा रूचि भी दिखाते हैं। देखा जाए तो इस तरह की लगभग सभी फिल्मों ने अच्छा बिजनेस किया! कुवैत से भारतीयों को बचाकर लाने वाली घटना पर बनी 'एयरलिफ्ट' ने तो कई बड़ी फिल्मों पछाड़ दिया! 380 विमान यात्रियों के अपहरण की सच्ची घटना पर बनी फिल्म 'नीरजा' ने कई साल बाद उस घटना को ताजा कर दिया! अलीगढ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर की जिंदगी पर बनी 'अलीगढ' को भी प्रशंसा मिली! मुंबई के एक ट्रैफिक हवलदार की जिंदादिली पर बनाई गई फिल्म 'ट्रैफिक' को भी दर्शकों ने सराहा! पिछले साल आई 'मांझी : द माउंटेन मैन' में बिहार के दशरथ मांझी की कहानी फिल्माई गई थी, जिसने अकेले 22 साल में सिर्फ़ हथोड़े और छैनी से पहाड़ काटकर रास्ता बना डाला और 70 किलोमीटर की दूरी को एक किलोमीटर में समेट दिया था! दशरथ मांझी पहाड़ काटने का फ़ैसला तब लेते हैं, जब उनकी पत्नी पहाड़ से गिर जाती हैं और 70 किमी दूर अस्पताल तक उसे पहुंचने में इतनी देरी हो जाती है कि वह उन्हें खो बैठते हैं। 
   हाल ही में रिलीज फिल्म 'सरबजीत' शायद सच्ची कहानियों पर अब तक बनी फिल्मों में मील का पत्थर साबित होगी! यह फिल्म गलती से पाकिस्तान  सीमा में चले गए भारतीय किसान सरबजीत सिंह के जीवन पर आधारित है! जिसे पाकिस्तान में आतंकवाद और जासूसी का दोषी करार देकर मौत की सजा सुना दी जाती है। भाई को छुड़ाने के लिए उसकी बहन दलजीत कौर बीड़ा उठाती है। लेकिन, सारे कूटनीतिक और व्यक्तिगत प्रयासों के बाद भी सरबजीत जीवित देश नहीं लौटता! ये फिल्म भाई को इंसाफ दिलाने के लिए एक बहन के संघर्ष की कहानी है। निर्देशक उमंग कुमार ने भी कहा कि उन्होंने फिल्म को पूरे दिल से बनाया है। मूल कहानी में कोई बदलाव नहीं किया गया! सरबजीत की बहन दलबीर ने जैसा बताया, हमने इसमें वैसा फिल्माया! पूरी सच्चाई के साथ बिना तथ्यों में बदलाव किए फिल्म को बनाया। 
  इस तरह की फ़िल्में सिर्फ भारत में नहीं, हॉलीवुड में भी बनती हैं! अमेरिकन आर्मी स्नाइपर क्रिस काइल के जीवन पर आधारित फिल्म 'अमेरिकन स्नाइपर' ​में व्यक्तिगत तौर पर युद्ध के पहलुओं और इसके लोगों पर भावनात्मक ​प्रभाव को ​दिखाया गया था! जॉन हैम की फिल्म 'मिलियन डॉलर आर्म' भी एक सच्ची कहानी पर आधारित है, जिसमें खेल एजेंट जेबी बर्नस्टाइन को दो किशोर भारतीय बच्चे मिलते हैं, जो शानदार बेसबॉल खेल सकते हैं। उन्हें बाद में अमेरिकी बेसबॉल टीम के लिए साइन किया जाता है। बर्नस्टाइन ने ही रिंकू सिंह और दिनेश पटेल युवकों को खोज निकाला था। इसके लिए उन्होंने एक रियालिटी शो का सहारा लिया और क्रिकेट खेलने वाले दोनों लड़कों को अमेरिकी लीग के लिए चुना गया! इसके अलावा ओसामा बिन लादेन के आखिरी दिनों पर भी 'जीरो डार्क थर्टी' फिल्म बन चुकी है। हॉलीवुड और बॉलीवुड में 'रियल सिनेमा' का चलन कभी ख़त्म नहीं होने वाला! जैसे ही कोई दिलचस्प घटना घटेगी, उसे सेलुलाइड पर उतारने वाले लाइन में खड़े मिलेंगे!   
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Thursday, May 19, 2016

याद रखना होंगे 'सिंहस्थ' से मिले नए सबक!


   उज्जैन में शताब्दी का दूसरा सिंहस्थ अपने अंतिम चरण की और है। हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का ये 'स्नान पर्व' सदियों से देश के जिन चार पवित्र शहरों में सदियों से आयोजित होता आ रहा है, उज्जैन उनमें से एक है। ये एक धार्मिक आयोजन है जिसका महत्व पवित्र नदी में स्नान, देव दर्शन और संत समागम तक सीमित है। अंग्रेजों के शासनकाल में भी ये आयोजन होते रहे! इतिहास गवाह है कि अंग्रेजी शासकों ने भी हिन्दुओं के इस धार्मिक आयोजन को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी! लेकिन, इस बार सिंहस्थ कई तरह के विघ्न आए! प्राकृतिक आपदाओं ने व्यवस्था बिगाड़ी! इंतजामों में खामी नजर आई! साधू-संतों में नाराजी के भाव उभरे, श्रद्धालुओं को परेशानी का सामना करना पड़ा! उम्मीद के मुताबिक श्रद्धालु भी नहीं आए! सरकार और मेला प्रशासन ने भी सिंहस्थ की जिस सफलता की उम्मीद की थी, वो पूरी नहीं हुई! सवाल उठता है सरकार की मेहनत, करोड़ों के खर्च और आयोजन में लगी कर्मचारियों और अधिकारियों की इतनी बड़ी फौज होने के बावजूद कहाँ और कौनसी ऐसी खामी रह गई जिसने इस सिंहस्थ पर सवालिया निशान लगा दिया? 
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हेमंत पाल 

  उज्जैन में सिंहस्थ को शुरू हुए चार सप्ताह पूरे होने वाले हैं! लेकिन, यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या देखकर लग नहीं लगा कि इस बार ये दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समागम बन सका! सरकार और प्रशासन ने शुरुवाती चार दिन में ही 25 लाख से ज्यादा लोगों के पहुंचने के दावे किए थे! पहले शाही स्नान में ही 50 लाख लोगों के आने का अनुमान लगाया गया था! लेकिन, 15 लाख लोगों से ज्यादा श्रद्धालु नहीं पहुँचे! यही स्थिति दूसरे और तीसरे शाही स्नान में भी देखने को मिली! सरकार ने सिंहस्थ से पहले ही इस धर्म समागम में करीब 5 करोड़ लोगों के आने का सिर्फ अनुमान ही नहीं लगाया, बल्कि दावा किया था! उसी अनुमान के मुताबिक व्यवस्थाएं की गईं, जिन पर तीन हजार करोड़ रुपए की मोटी रकम खर्च की गई! 
   सिंहस्थ में सरकार और प्रशासन ने जो इंतजाम किए गए थे, वे आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या के अनुमान पर ही किए गए थे! लेकिन, ये आकलन सही नहीं निकला! ट्रेने भी खाली गई, बसों में भी श्रद्धालुओं की संख्या कम रही! रेलवे ने सिंहस्थ को देखते हुए काफी तैयारियां की थी! लेकिन, रेलवे को उम्मीद से काफी कम यात्री मिले! इंदौर की तरफ से जाने वाली ज्यादातर ट्रेनें खाली जा रही हैं। रेलवे आधिकारियों के अनुसार इंदौर की तरफ से कोई भीड़ ही नहीं जा रही! कहा गया कि सूखा और खेती में हुए नुकसान की वजह से बार सिंहस्थ में ग्रामीण इलाकों से आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बहुत कम रही! मध्य वर्ग भी सिंहस्थ में नहीं पहुंचा! आंधी-तूफान और बेमौसम बरसात और लोगों के मारे जाने की घटना से भी सिंहस्थ आने वालों की संख्या में कमी आई है। ये तो वो कारण हैं जो हालात के मद्देनजर निकाले गए! वास्तव में कुछ ऐसे छुपे कारण भी हैं, जिनकी वजह से बार के सिंहस्थ से श्रद्धालु कट गए! यहाँ तक कि बार सरकारी एजेंसियों के अलावा व्यापारिक संस्थानों को भी घाटा उठाना पड़ा! जबकि, अमूमन ऐसा होता नहीं है। रेलवे को भी अनुमान था एक करोड़ से ज्यादा लोग रेलवे से सफर करेंगे! जबकि, इंदौर उज्जैन जाने वाले यात्रियों यात्री की संख्या ही लाख तक नहीं पहुंची! यही हालत बसों की भी है! इंदौर में अतिरिक्त बस स्टैंड बनाकर, हर मिनिट बसें चलाए जाने का इंतजाम किया गया था! लेकिन, अधिकांश बसें खाली रवाना हुई! किराया भी कम किया गया था, पर बस ऑपरेटरों ने सरकार की नहीं सुनी और किराया बढ़ा दिया!     
  सिंहस्थ में व्याप्त मौलिक सुविधाओं की कमी और अव्यवस्थाओं के कारण साधु-संतों के तल्ख तेवरों ने भी सरकार की मुसीबतें कई बार बढ़ाई! एक ओर जहां अखाड़े हालात न सुधरने पर उज्जैन छोड़ने की चेतावनी दे चुके थे! वहीं, परी अखाड़ा की प्रमुख त्रिकाल भवंता ने विशेष सुविधाओं की मांग करते हुए जिंदा समाधि लेने की कोशिश ने भी प्रशासन को परेशान कर दिया! शासन और प्रशासन के लाख दावों के बावजूद मेला क्षेत्र में व्यवस्थाएं पूरी तरह ठीक नहीं हुई! कई अखाड़ों की शिकायत रही कि मेला क्षेत्र में उन्हें वे सुविधाएँ मिली, जिसके लिए आश्वस्थ किया गया था! यहाँ तक कि बिजली और पानी की व्यवस्था भी सही तरीके से नहीं हुई! आशय यह कि जिस आयोजन के लिए पूरी सरकार ने जी-जान से मेहनत की, उसकी कार्ययोजना में ये सब कैसे छूट गया? 
  उज्जैन में आए आँधी, तूफ़ान और बरसात से सबसे ज्यादा तबाही सिंहस्थ के मेला क्षेत्र में हुई। साधू-संतों के कई पंडाल और पेड़ धराशायी हो गए। 7 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा! 100 से ज्यादा लोग घायल भी हुए! ये प्राकृतिक आपदा थी, जिसपर किसी का जोर नहीं है! लेकिन, जब सिंहस्थ जैसे बड़े आयोजन की कार्ययोजना बनती है, जिसमें लाखों लोगों के आने का अनुमान हो, तो इस तरह के अप्रत्याशित हादसों पर भी विचार किया जाता है! आपदा प्रबंधन किसी भी मैनेजमेंट का जरुरी हिस्सा होता है! लेकिन, उज्जैन के सिंहस्थ में इसकी अनदेखी क्यों की गई? आयोजन की कार्ययोजना बनाते समय ही विचार किया जाता है कि यदि कहीं आग लग गई, आंधी-तूफ़ान आ गया, जलजला आ गया तो उसपर किस तरह उसपर काबू पाया जाएगा? क्या ये उपाय पहले से नहीं किए जाने थे? पर नहीं किए गए! किए जाते तो पहली बार हुई बरसात से अफरा-तफरी के हालात निर्मित नहीं होते! जब मौसम विभाग ने समय पूर्व चेतावनी दे दी थी, तो उसकी अनदेखी क्यों की गई! बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं ने उज्जैन कुछ व्यस्थाओं की तारीफ भी की! इसलिए कि आने वाले लोगों की संख्या अनुमान से कम रही! यदि सरकार के दावों के मुताबिक 5 करोड़ लोग सिंहस्थ में आते तो ये सारे इंतजाम धराशायी हो सकते थे।    
  इस बार सरकार को अपनी तैयारियों के मुकाबले श्रद्धालुओं की कमी इसलिए ज्यादा अखरी, क्योंकि उसने सिंहस्थ बहाने प्रदेश में पर्यटन बढ़ने और कारोबारी अवसरों के विस्तार के सपने देख लिए थे! सरकार को लगा कि सिंहस्थ केवल आस्था का ही महापर्व नहीं है, इसके जरिए पर्यटन और कारोबार के अवसरों को बढ़ाया जा सकता है। उम्मीद लगाई गई थी कि आस्था के इस पर्व की बदौलत प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 10 हज़ार करोड़ रुपए का इजाफा होगा! क्योंकि, इस धार्मिक आयोजन पर राज्य सरकार ने साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च भी किए हैं! देश-विदेश में ब्रांडिंग और विज्ञापन पर ही सैंकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर दिए हों, वो छोटा आयोजन तो हो नहीं सकता! लेकिन, प्रदेश और उज्जैन की अर्थव्यवस्था पर सिंहस्थ के तात्कालिक और दूरगामी प्रभाव के अनुमान पूरी तरह सही नहीं निकले! पिछले सिंहस्थ के मुकाबले इस सिंहस्थ का बजट भी 80% बढ़ाया गया था। उज्जैन और आसपास के शहरों में जो निर्माण कार्य किए जाना थे, वो सिंहस्थ पूरा होने के बाद तक पूरे नहीं हुए!
  सरकार के अतिआत्मविश्वास और दावे ने उज्जैन में होटल का किराया बहुत अधिक बढ़ा दिया था! लेकिन, अपेक्षित श्रद्धालु नहीं आने से होटल कारोबार को नुकसान हुआ! कई होटलों ने अपने किराए कम भी किए! ये सिर्फ होटल व्यवसाय तक की बात नहीं है! उज्जैन तक के रास्तों पर सैकड़ों नए ढाबे और रेस्टोरेंट बन गए थे, उन्हें भी नुकसान हुआ! कई रेस्टोरेंट तो अधूरे ही छोड़ दिए गए! सरकार ने मेला परिसर में अस्थायी दुकान निर्माण के लिए जगह का आवंटन किया था, ताकि कारोबारी इस एक माह लंबे आयोजन में अवसरों का लाभ उठा सकें। स्केचिंग, नकली रत्न-आभूषणों, पारम्परिक कपडे, भोजनालय, रिफ्रेशमेंट सेंटर जैसे तमाम कारोबार में उछाल की उम्मीदें लगाई गई थी! लेकिन, ये सारे व्यवसायी अब नाउम्मीद हुए! उज्जैन में 12 साल में यही एक ऐसा अवसर होता है, जिसका हर व्यवसायी को इंतजार होता है! लेकिन, इस बार श्रद्धालुओं की कमी और बेतरतीब इंतजामों ने सारे व्यापार की कमर तोड़ दी! जो श्रद्धालु उज्जैन आए भी तो किसी तरह क्षिप्रा में नहाकर भागने जल्दी में रहे! ये वो सच्चाई हैं, जो भविष्य की सरकारी कार्ययोजनाओं के सबक भी हैं!
   जहाँ तक पर्यटन बढ़ने की बात है तो जब लोग उज्जैन ही नहीं आए तो फिर अन्य पर्यटन स्थलों पर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता! ऐसे आस्था से ओतप्रोत पर्व में सरकार के अपने आयोजनों ने भी आने वाली भीड़ को प्रभावित किया! 'वैचारिक महाकुंभ' जैसे कार्यक्रमों के लिए भी सिंहस्थ सही जगह नहीं थी! अतिविशिष्ठ लोगों के आने से कानून व्यवस्था की सख्ती ने लोगों का गुस्सा भी बढ़ाया! सदियों से सिंहस्थ को लेकर जो धार्मिक धारणा और आस्था रही है, उसे बदलने की सरकार की कोशिशों ने भी विवादों को बढ़ावा दिया! साधू-संतों ने भी कुछ मुद्दों पर नाराजी व्यक्त की! ये सारे वो सबक हैं, जिनके बारे में सरकार को सोचना होगा!   
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Sunday, May 15, 2016

वयस्क होते छोटे परदे के बड़े सवाल!



हेमंत पाल 
  छोटा परदा अब बच्चा नहीं रहा, वो इतना बड़ा हो गया है कि घर का ड्राइंग रूम उसके लिए छोटा पड़ने लगा! इस छोटे परदे ने जब घरों में जन्म लिया था, तब उससे पारिवारिक और संस्कारित मनोरंजन की उम्मीद की गई थी! लेकिन, धीरे-धीरे ये भ्रम खंडित हो गया! इस छोटे से टीवी के परदे पर भी अश्लीलता, हिंसा, फूहड़ता का कचरा भरता चला गया! स्थिति ये आ गई कि छोटे परदे पर अश्लीलता को लेकर बड़ी बहस चलने लगी! पहले मुद्दा बड़े परदे यानी सिनेमा तब सीमित था, पर अब टीवी पर अश्लीलता भी इस बहस में शामिल हो गई! आजकल टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में अभद्रता, अश्‍लील और द्विअर्थी भाषा, अश्लील चित्रण, सेक्स उत्तेजना और नग्नता भुनाया जा रहा है। एक वक़्त वो भी था जब परिवार के साथ टीवी देखते हुए यदि परिवार नियोजन जैसा कोई विज्ञापन आ जाता था तो लोग असहज हो जाते थे। आज खुलेपन की आंधी ने मर्यादा सारी सीमाएं लांग ली! सारी वर्जनाएं टूटकर बिखर गई! समाजशास्त्रियों ने भी कहना शुरू कर दिया कि टीवी के जो कार्यक्रम परिवार के सभी सदस्यों के साथ बैठकर न देखे जा सकें, उन्हें वयस्क श्रेणी में रखा जाए! इन्हें प्राइम टाइम में बिल्कुल नहीं दिखाया जाए! किन्तु, टीवी इंडस्ट्री के लोगों की नजर में ये उनकी आजादी पर हमला हैं। 
  ये बात सिर्फ टीवी के बनाए जाने वाले कार्यक्रमों पर ही नहीं, छोटे परदे पर प्रदर्शित की जाने वाली फिल्मों पर भी लागू होती है। फिल्मों को टीवी पर दिखाने से पहले फिर से सेंसर करने की व्यवस्था नहीं होती! कारण है कि जो फ़िल्में सेंसर से 'ए' सर्टिफिकेट लेकर रिलीज होती हैं, उन्हें भी बेरोकटोक टीवी पर दिखा दिया जाता है। यही कारण था कि ऐसे एक मामले में अदालत को दखल देकर 'ग्रैंड मस्ती’ के टीवी प्रीमियर पर रोक के आदेश देने पड़े थे। सेंसर बोर्ड ने तो सरकार से टीवी पर आयटम सांग्स भी न दिखाने की अनुशंसा की थी! बोर्ड का सुझाव था कि ऐसे गानों के लिए ‘ए’ सर्टिफिकेट जारी किया जाए। लेकिन, इन गानों का प्रसारण रोका नहीं जा सका! सीरियल और रियलिटी शो में भी अश्लीलता, हिंसा और कॉमेडी शो में द्विअर्थी संवादों की भरमार होने लगी! 2010 में सरकार ने ‘बिग बॉस’ व ‘राखी का इंसाफ’ जैसे रियलिटी शो को रात 11 बजे बाद प्रसारित करने के आदेश दिए थे। लेकिन, वो सब बीती बात हो गई!
  इससे भी बड़ा मसला है टीवी पर दिखाए जाने विज्ञापनों का! सूचना मंत्रालय ने 2011 में डियोड्रेंट के विज्ञापनों में होने वाले यौन प्रदर्शन पर उंगली उठाई थी। इसके बाद भी विज्ञापनों में अश्लीलता पर अंकुश नहीं लगा! एक गोरा बनाने वाली क्रीम के विज्ञापन ने देश में उत्पाद की विश्वसनीयता लेकर नई बहस छेड़ी थी! इस विज्ञापन की हर तरफ निंदा की गई। सड़क से संसद तक इस विज्ञापन को लेकर विवाद हुआ! लेकिन, अंततः हुआ कुछ नहीं! क्या कारण है कि विज्ञापन बनाने वाली एजेंसियां एडवर्टाइज़मेंट स्टेंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया के नियमों का पालन करने में चूक जाती है? जो विज्ञापन दूसरे देशों में दिखाना प्रतिबंधित हैं वे भारत में आसानी से दिखाए जाते हैं। अंडरगारमेंट के विज्ञापनों को क्यों बेहद अश्लील और उत्तेजक तरीके से बनाया जाता है? कई बार इन विज्ञापनों को बंद करने का नोटिस भी दिया गया, लेकिन न कुछ हुआ और न होगा! जिन विज्ञापनों में बहुत अधिक अश्‍लीलता और महिलाओं के लिए अपमानजनक चित्रण होता है, ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी, पर अंततः मामला रफादफा हो गया! कई बार इन विज्ञापनों में चित्रण अश्‍लील नहीं होता, पर उसका अर्थ अपमानित करने वाला होता है। 
  दरअसल, टीवी को घर के ड्राइंगरूम का हिस्सा माना जाता है! परिवार खासकर महिलाओं और बच्चों के मनोरंजन का ये सबसे सुलभ साधन है। यही कारण है कि सीरियल, रियलिटी शो, कॉमेडी शो और फिल्मों में दिखाई देने वाली अश्लीलता चिंता का कारण बनती जा रही है। फिल्मों की तरह टीवी के शोज को प्रसारण से पहले किसी कसौटी पर नहीं परखा जाता! इनकी समीक्षा तभी होती है, जब दर्शक आपत्ति लें! जागरूकता बढ़ने से हमारे यहाँ टीवी कंटेंट के खिलाफ शिकायतें बढ़ रही हैं। कई मामले तो कोर्ट तक भी पहुंचे हैं। ज्यादातर शिकायतें टीवी विज्ञापनों में अश्लील दृश्यों, फूहड़ कॉमेडी शो में द्विअर्थी संवादों, महिलाओं के चरित्र चित्रण और हिंसात्मक दृश्यों को लेकर उठती हैं! सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी का भी कहना है कि टीवी और इंटरनेट पर हद से ज्यादा अश्लीलता परोसी जाने लगी है, जिसे अब कंट्रोल करने की जरूरत है। जिस पैमाने पर फिल्मों में न्यूडिटी को जज किया जाता है, ठीक उसी तरह टीवी और इंटरनेट पर भी इसे आंका जाना चाहिए। टीवी पर परोसी जा रही फिल्मों की तुलना में टीवी शो को जज करने में दोहरी नीति अपनाई गई है, इसे सही किया जाना चाहिए। निहलानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि न्यूडिटी पर केवल एक ही पॉलिसी होनी चाहिए! जबकि, टीवी पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के निर्माताओं से सेल्फ रेगुलेशन की उम्मीद की जाती है। लेकिन, ये नीति भी दम तोड़ने लगी है। 
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Friday, May 13, 2016

रिरियाता सा क्यों हैं, मध्यप्रदेश में शराबबंदी का नारा!



  केरल और बिहार के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शराबबंदी का नारा बुलंद होने लगा है। लेकिन, शराबबंदी की मांग को लेकर जो कुछ किया जा रहा है, उसमें जनसमर्थन कम प्रपंच ज्यादा नजर आ रहा! प्रदेश सरकार को सद्बुद्धी के लिए शराब दुकान के सामने यज्ञ और प्रार्थना जैसे प्रपंच किए जा रहे हैं कि जनजागृति आए, सरकार चेते और शराबबंदी लागू करने पहल हो! इस बात से इंकार नहीं कि शराब की वजह से अपराध बढ़ रहे हैं! इससे सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित होती हैं। मध्यप्रदेश में तेजी से बढ़े अपराध, विशेषकर महिला अपराधों में बढ़ोत्तरी की मुख्य वजह शहरों से गाँव तक शराब ही रहा है। इसलिए कहा जा रहा है कि बिहार की तरह मध्यप्रदेश में भी शराबबंदी की जा सकती है! लेकिन, इसका जवाब कौन देगा कि सरकार को शराब व्यवसाय से मिलने वाले करीब 8 हज़ार करोड़ के राजस्व की पूर्ति कहाँ से होगी? जिन राज्यों में पहले शराबबंदी की थी, वहाँ शराब बिक्री फिर क्यों शुरू करना पड़ी? इस बात की भी पड़ताल जाना चाहिए कि इसके पीछे क्या कारण थे? 
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हेमंत पाल 
 
  मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों में महिलाओं द्वारा शराब की दुकान हटानें और उन्हें स्थानांतरित करवाने लिए कई आंदोलन हुए! इन आंदोलनों को सफलता भी मिली! महिलाओं के विरोध के माध्यम से उठे इन आंदोलनों से नारी मन की पीड़ा को आसानी से समझा जा सकता है। प्रदेश में बढ़े अपराधों के साथ आत्महत्याओं के मामलो में भी शराब एक मुख्य कारण रहा है। यह बात अलग है कि राज्य को प्राप्त होने वाले राजस्व का एक बड़ा करीब 8 हज़ार करोड़ रुपए सालाना शराब व्यवसाय से ही मिलता है। कई राज्यों की सरकारें आपराधिक प्रवृत्तियों एवं बीमारियों की रोकथाम के लिए नशीले पदार्थों की बिक्री कम करने एवं उसे प्रतिबंधित करने पर विचार कर रही हैं! लेकिन, मध्यप्रदेश में सरकार शराब के माध्यम से अधिक राजस्व पाने के लिए 'नई आबकारी नीति' में शराब ज्यादा बिक्री के लिए शराब कारोबारियों छूट देती रही है। 
   सरकार के पिछले दो कार्यकाल में प्रदेश में शराब की दुकानों की संख्या लगातार बढ़ाई गई! पूर्व वित्त मंत्री रहे राघवजी ने तो इसे प्रदेश की आय बढ़ाने का आसान फार्मूला ही माना था। शराब की खुली बिक्री बढ़ाने के लिए आउटलेट खोलने एवं शराब से वैट टैक्स कम करने के प्रस्ताव भी कैबिनेट में विचारार्थ रखे गए! 10 लाख से ज्यादा आयकर देने वालों को 100 बोतल शराब घर में रखने की छूट देने का प्रावधान भी किया गया! लेकिन, सरकार को मिली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद सरकार को अपने कदम वापस लेना पड़े! फिर भी सरकार ने शराब की बिक्री बढ़ाने का एक गुपचुप तरीका ईजाद कर लिया! प्रदेशभर में शराब की दुकानें रात साढ़े 11 बजे तक खुली रखने की छूट दी गई! वहीं, रेस्टोरेंट में रात 12 बजे तक शराब परोसे जाने की छूट दी गई! जबकि, राजस्थान और दिल्ली में शराब दुकानों के खुलने एवं बंद होने के बीच का समय घटाया गया है! इसलिए कि शराब पीकर होने वाले उत्पात को काबू किया जा सके! सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अपने फैसले में राजमार्गो पर संचालित शराब की दुकानों को हटाने हेतु आदेशित किया जा चुका है, लेकिन राज्य में हाईवे से शराब की दुकाने हटाने की कोई पहल अब तक नहीं जा सकी है।
  प्रदेश सरकार ने हर साल 20 फीसदी बढ़ने वाले दुकान आवंटन शुल्क को भी घटाकर 15 फीसदी कर दिया गया! प्रदेश में फिलहाल करीब 2748 देशी और 936 विदेशी शराब की दुकानें संचालित हो रही हैं। प्रदेश सरकार ने जब से शराब पर 5 फीसदी वैट टैक्स लगाया है, शराब की बिक्री में 8 से 10 फीसदी की गिरावट आई! इसलिए सरकार उक्त प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही है। सरकार ने सिगरेट से वैट टैक्स की दर को भी कम किया है, ताकि सिगरेट की बिक्री में आई गिरावट को रोका जा सके। प्रदेश पर फिलहाल राजकोषीय घाटा करीब 13500 करोड़ रुपए का है! राज्य पर कर्ज भी 1 लाख करोड़ से ज्यादा का है। बढ़ रहे स्थापना के मुकाबले प्रदेश सरकार को शराब के माध्यम से मिल रहा राजस्व एक बड़ी राहत है। यदि सरकार प्रदेश में शराबबंदी का फैसला करती है, तो राजस्व की पूर्ति हो पाना संभव नहीं है! ऐसी स्थिति में मजबूर होकर सरकार को नए कर लगाना पड़ेंगे, जो उसके लिए काफी भारी पड़ेगा! हरियाणा सरकार ने शराबबंदी लागू करके लोगों पर अन्य टैक्स लगाए थे, जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ा था!  
   शराबबंदी करने वाला बिहार नया राज्य है, जहाँ चुनावी वादे के तहत नितीश कुमार सरकार ने एक अप्रैल से शराबबंदी कर दी! राज्य में शराबबंदी की मांग करने वाली अधिकांश महिलाएं दलित वर्ग की हैं! वे मुख्यमंत्री से यह शिकायत करती रही हैं कि शराब ने उनका घर बर्बाद कर दिया, इसलिए राज्य में शराब पर प्रतिबंध लगाया जाए। लेकिन, शराब से करीब 4 हज़ार करोड़ से ज्यादा का राजस्व कमाने वाली सरकार के पास इसकी भरपाई का कोई ठोस विकल्प नहीं है! इतने बड़े नुकसान की भरपाई का और कोई रास्ता भी नहीं है! अगर दूसरी चीजों पर टैक्स लगाकर राजस्व की भरपाई कोशिश की गई, तो लोगों का गुस्सा सरकार पर फूटेगा। पिछले साल बिहार ने शराब बिक्री से 3300 करोड़ का राजस्व कमाया गया! ये राजस्व दूसरे करों से करीब 800 करोड़ रुपए ज्यादा था। इस साल सरकार को शराब से 4000 करोड़ से ज्यादा की कमाई होती! माना जा रहा है कि चुनावी घोषणा के दबाव में यह सरकार को यह जल्दबाजी महंगी पड़ सकती थी।   शराबबंदी के मामले में हरियाणा का प्रयोग काफी ख़राब रहा! जब बंसीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे, तब उन्हें 21 महीने में शराबबंदी के अपने फैसले को पलटना पड़ा था। जिन महिला आंदोलनकारियों की पहल पर बंसीलाल ने शराबबंदी लागू की थी, उन्हीं महिलाओं ने फिर मुख्यमंत्री से शराब बिक्री चालू करने की भी मांग की थी! क्योंकि, उनके पति दिल्ली और पंजाब की सीमा पर बने ठेकों से शराब पीकर लड़खड़ाते हुए देर रात घर पहुँचते थे और कई बार दुर्घटना शिकार हो जाते! शराबबंदी का नारा महिलाओं की जरूरत से शुरू होता है और उन्हीं से इस नारे को ताकत मिलती है। लेकिन, पुराने अनुभवों से ऐसा लगता है कि हड़बड़ी और बिना तैयारी के शराबबंदी के नियम को लागू करना नुकसानदेह सिद्ध होता है। जिन महिलाओं की मांग का ख्याल रखकर इस तरह के नियम को लागू किया जाता है! बाद में वे हीं उसे हटाने की अपील करती देखी गई हैं। हरियाणा के गांवों में महिलाओं ने अपनी शिकायतें मंत्री के पास पहुंचानी शुरू कर दी थीं कि उनके पति शाम होते ही सीमा से सटे पंजाब, उससे आगे राजस्थान या दूसरे राज्यों में भी निकल जाते हैं और फिर अक्सर अवैध शराब हाथ में होने की वजह से पुलिस की गिरफ्त में आ जाते हैं। विपक्ष ने भी बंसीलाल सरकार को राजस्व में कमी से होने वाले घाटे और महंगाई पर घेरना शुरू कर दिया था।
  जब हरियाणा में शराबबंदी ख़त्म करने की घोषणा की गई, तो वहां इतना जश्न हुआ था, जितना शायद शराबबंदी लागू होने पर भी नहीं हुआ! हरियाणा में शराबबंदी के 21 महीनों में इससे जुड़े किस्सों की भयावहता ने तमाम हदें लांघ दी थीं। शराबबंदी से हुए राजस्व के नुकसान के अलावा उन 21 महीनों के दौरान प्रदेश में शराब से जुड़े करीब एक लाख मुकदमे दर्ज किए गए थे। इस दौरान करीब 13 लाख शराब की बोतलें बरामद की गईं थी। वहाँ जहरीली शराब पीने की एक घटना में भी 60 लोग मारे गए थे। विरोध के कारण प्रदेश के मंत्रियों का गांवों में जाना मुश्किल हो गया था। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने शराबबंदी के फैसला वापस ले लिया और शराबबंदी को अपना मिशन बताने वाले खुद बंसीलाल ने भी शराबबंदी हटाने के पक्ष में ही अपनी राय दी! 
 अगस्त 2014 में केरल सरकार ने शराबबंदी की घोषणा की थी, जिसे बार और होटल मालिकों ने चुनौती दी थी। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने शराबबंदी पर केरल सरकार के फैसले को बहाल रखा और फैसला दिया कि अब वहां सिर्फ पांच सितारा होटलों में ही शराब परोसी जाती है। लेकिन, चोरी छुपे कितनी शराब बिकती है, ये बात तभी सामने आती है जब जहरीली शराब पीने से लोगों के मारे जाने का कोई हादसा होता है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मिजोरम और हरियाणा में शराबबंदी के प्रयोग नाकाम हो चुके हैं। आंध्र में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने यह कहकर शराबबंदी हटा दी थी, कि इसे पूरी तरह लागू कर पाना संभव नहीं! शराबबंदी वाले राज्य में सबसे बड़ा संकट इसकी तस्करी है, जिसे रोकना आसान काम नहीं! शराबबंदी के दौर में गांव के घर-घर में शराब बनाने का कारोबार शुरू हो जाता है। ऐसे में कहाँ से जहरीली शराब बनकर कब लोगों तक पहुंच जाती है, यह पता लगाना तक प्रशासन के लिए चुनौती बनता है। इसी जहरीली शराब की वजह से देश के अलग-अलग इलाकों से बड़ी तादाद में लोगों के मरने की खबरें आती रही हैं। ऐसी हर घटना के बाद समझा जाता है कि दूसरी जगहों के लोग सस्ती शराब को लेकर सावधानी बरतेंगे और शराब से मरने की घटनाएं सामने नहीं आएंगी। 
  एक पहलू यह भी है कि शराबबंदी का सीधा असर राज्य की पर्यटन व्यवस्था पर भी नकारात्मक पड़ता है। केरल की तरह शराबबंदी के दौर में भी फाइव स्टार होटलों को शराब बेचने के मामले में छूट रहती है, लेकिन हर पर्यटक की पहुंच वहां तक नहीं होती! देखा गया है कि शराबबंदी के कारण पर्यटन उद्योग को तो मार झेलनी ही पड़ती है, राज्य में बेरोजगारी में भी इजाफा होता है। शराबबंदी का पहला असर डिस्टिलरीज के बंद होने के तौर पर सामने आता है। एक बड़ा तबका इन डिस्टिलरीज के अलावा ठेकों, अहातों, होटलों, रेस्तराओं और परिवहन से भी जुड़ा है। शराबबंदी के बाद ऐसे लोग अक्सर बेरोजगारी का शिकार हो जाते हैं और कई बार अपने हालात से तंग आकर गलत कदम उठा लेते हैं। फिर शराबबंदी के कारण इससे जुड़े बहुत से दूसरे उद्योग भी बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं, जिनके कारण राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर गहरी चोट लगती है। जाहिर है, शराबबंदी के बाद के नतीजों के कई आयाम हैं, जिनकी अनदेखी किसी भी राज्य और उसके प्रशासन पर भारी पड़ सकती है।
   शराब एक अरसे से हमारे समाज को नासूर की तरह साल रही है। इसके कारण कितने ही परिवार उजड़ गए और कई लोगों को लाचारी का मुंह देखना पड़ा। दुर्भाग्य की बात यह है कि तंबाकू पर रोक लगाने के लिए तो फिर भी सरकार गंभीर दिखाई देती है, लेकिन शराब के प्रति वैसी तत्परता नहीं दिखाई जाती। यह राज्यों का विषय है और चूंकि उनकी आमदनी का मुख्य जरिया भी है, इसलिए सरकार इसके प्रति गंभीरता से मुंह मोड़ लेती है, जिसका हश्र समाज को भुगतना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि यह नीति चिरस्थायी तौर पर लागू हो, न कि एक अरसे बाद सरकार अपने खाली होते खजाने से त्रस्त होकर इसे वापस ले ले। जैसे हरियाणा और आंध्र प्रदेश व दूसरे राज्यों में हुआ!
 भारतीय संविधान के निर्देशक नियमों में धारा-47 के मुताबिक चिकित्सा उद्देश्य के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पेयों और ड्रग्ज पर सरकार प्रतिबंध लगा सकती है। जिनमें तत्कालीन मद्रास प्रोविंस और बॉम्बे स्टेट व कई अन्य राज्य शामिल थे, ने शराब के खिलाफ कानून पारित किया था! 1954 में भारत की एक चौथाई आबादी इस नीति के तहत आ गई। तमिलनाडु, मिजोरम, हरियाणा, नगालैंड, मणिपुर, लक्षद्वीप, कर्नाटक ने शराबबंदी तो लागू की। लेकिन, सरकारी खजाना खाली होते देखकर यह पाबंदी हटा दी गई। इस नीति का लाभ सिर्फ इसे लागू करने वाली एजंसियों और अवैध शराब बनाने वालों को पहुंचा जिन्होंने खूब धन कमाया।
  शराबबंदी का समर्थन करने वाले अकसर गुजरात को उदाहरण के रूप में सामने रखते हैं! वहां 1960 से शराबबंदी है और कोई भी राजनीतिक पार्टी जो सत्ता में हो, राज्य में शराबबंदी से पाबंदी हटाने का सोच भी नहीं सकती! लेकिन, गुजरात में कुछ लोगों ने ऐसी बीमारी खोज ली है, जिसका इलाज शराब से ही संभव है। गुजरात में 60 हजार से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जिनके पास शराब खरीदने और पीने का परमिट है। सिविल अस्पताल के डॉक्टर से ऐसी बीमारी का सर्टिफिकेट ले लिया जाता है, जो सिर्फ शराब पीने से ही ठीक हो सकती है।इस आधार पर 'प्रोहेविशन विभाग' परमिट जारी करता है। जिनके पास पीने के लिए परमिट नहीं होता उनके लिए अवैद्य शराब बेचने वाले मौजूद हैं जो एक फोन पर ये सुविधा उपलब्ध कराते हैं! गुजरात को शराब पर पाबंदी से होने वाले टैक्स भरपाई के लिए केंद्र सालाना 1200 करोड़ देता है। ये राशि 1960 से ही मिल रही है! लेकिन, ये समस्या स्थाई है! 
  मध्यप्रदेश में यदि शराबबंदी फैसला किया जाता है, तो सरकार को सबसे पहले इसके राजस्व के नुकसान की भरपाई का विकल्प ढूँढना होगा! नए कर लगाकर इसकी पूर्ति जाने से सरकार को लोगों की नाराजी झेलना पड़ सकती है! ये फैसला हर पक्ष  देखकर किया जाए, सिर्फ लोगों की वाहवाही लूटना उसका मकसद न हो! क्योंकि, मध्यप्रदेश की सीमा जिन राज्यों लगती है, उनमें गुजरात के अलावा किसी भी राज्य में शराबबंदी नहीं है! ऐसे में वहाँ से अवैद्य शराब आवक होने लगेगी, जो सरकार के लिए नया सरदर्द होगा! 
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Sunday, May 8, 2016

असली और दिखावटी प्रेम से सराबोर सिनेमा!


- हेमंत पाल 


  हिंदी फिल्मों के दर्शक बरसों से एक जैसी कहानियों में मनोरंजन ढूंढ रहे हैं! हर फिल्म में नायक और नायिका के बीच प्रेम कथा गढ़ी जाती है! खलनायक का किरदार निभाने वाला पात्र उनके प्रेम में अड़ंगे डालता है और अंत में नायक, नायिका मिलन जाता है। फिल्मों में प्यार, रोमांस, दिल्लगी, दीवानगी और थोड़ा एक्शन सफलता और असफलता का फार्मूला हैं। हिंदी सिनेमा का भूत, वर्तमान और भविष्य सब प्रेम की बुनियाद पर ही टिका है। सिर्फ फ़िल्मी कहानियाँ ही नहीं, कलाकारों के प्यार-मोहब्बत के चर्चे और रिश्ते टूटने की कहानियाँ भी सबसे बिकाऊ विषय हैं। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने से फिल्मों का परदा और कलाकारों का जीवन प्यार और नफरत के अलग-अलग रूपों से दर्शकों को आकर्षित करता रहा है। कभी ये प्रेम सही होता है, कभी इस प्रेम के पीछे कोई मकसद छुपा होता है।  

   ये सच है कि फिल्म की स्क्रिप्ट के मुताबिक कलाकार सिर्फ किरदार भूमिका निभाते हैं! लेकिन, परदे पर प्रेम का अभिनय करते हुए कब ये कलाकार सही में भी प्यार के बंधन में बंध जाते हैं, पता ही नहीं चलता! जिस प्रेम का वे सिर्फ परदे पर अभिनय करते हैं, उस मोहपाश में वे निजी जिंदगी में भी प्यार कर बैठते हैं! लेकिन, तीन घंटे की फिल्म की तरह ये मुहब्बत भी ज्यादा नहीं चलती! हालात ऐसे हो जाते हैं कि रिश्ते दरकने लगते हैं। हिंदी सिनेमा को सौ साल से ज्यादा हो गए, लेकिन वक़्त के साथ जिस तरह से फिल्म की तकनीक बदलती गई, उसी तरह प्रेम का व्याकरण भी बदल गया। हॉलीवुड सिनेमा का ही असर है कि प्रेम सिर्फ रोमांस में बदल गया और शगूफों के सहारे प्यार के अधकचरेपन की व्याख्या होने लगी। हिंदी सिनेमा में एक वो भी वक़्त था जब राज कपूर-नरगिस, दिलीप कुमार-कामिनी कौशल, देवआनंद-सुरैया, गुरुदत्त-वहीदा रहमान और राजेन्द्र कुमार-सायरा बानो की मुहब्बत के अफसानों पर बहुत कुछ कहा जाता रहा! लेकिन, आज ऐसी कौनसी प्रेम जोड़ी है, जिसके प्रेम के चर्चे हों? शायद अमिताभ-जया और ऋषि कपूर-नीतू सिंह के अलावा कौनसी ऐसी जोड़ी है, जो परदे पर बनी और निजी जिंदगी में भी आजतक बनी हुई है!   
  हिंदी सिनेमा परदे पर पचास के दशक में मुहब्बत जो सफर शुरु हुआ था, वो आज पूरी तरह कमर्शियल हो गया! मुद्दे की बात ये भी कल की प्रेम कथाएं जहाँ दर्शकों के लिए भी प्रेरणा बनी! असल प्रेम की कथाएं फिल्मों की कहानियों तक बनी! सारे प्रसंग फिल्मों के कलात्मक पक्ष बढ़ाने वाले साबित हुए! लेकिन, अब ये सब फिल्मों की चटखारेदार ख़बरें और शिगूफे बनकर रह गए! कहा भी जाता है कि फ़िल्मी दुनिया रोमांस के चटखारों की एक ऐसी पुड़िया है, जिसके खुलते ही हवा में अफवाहें तैरने लगती हैं। ऐसे कई किस्से हैं जब फिल्म में साथ काम करने की वजह से नायक और नायिका की मुहब्बत के किस्से परवान चढऩे लगे! आजकल जैसे 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' और 'कपूर एंड संस' में साथ काम करने वाले सिद्धार्थ मल्होत्रा और आलिया भट्ट की मुहब्बत के किस्सों से फ़िल्मी आसमान अटा पड़ा है! कभी-कभी मुहब्बत के ये किस्से महज फिल्म के प्रचार के लिए गढ़े जाते हैं! जैसे ही फिल्म प्रदर्शित हुई ये चर्चाएं दम तोड़ देती हैं! विधु विनोद चोपड़ा ने जब '1942 ए लव स्टोरी' फिल्म के लिए अनिल कपूर और मनीषा कोइराला को लिया, तो कई तरह की चर्चाएं खबर बनी! फिल्म की सफलता के इरादे से बहुत कुछ किया गया! देखते ही देखते इस जोड़ी के रोमांस की चर्चा आम हो गई। इस तरह के एक नहीं कई उदाहरण हैं, जब प्रायोजित मुहब्बत की धुन पर फिल्म की सफलता के गीत लिखे गए! 
  सिनेमा ने मुहब्बत और रोमांस के भ्रमजाल में एक लम्बा सफर पूरा कर लिया है। नकली खबरों को अफवाह बनाकर फिल्म की सफलता की राह तलाशी जाती है। मुद्दा ये है कि क्या निजी रिश्तों को अफवाह बनाकर अभिनय के सशक्त पक्ष को बरकरार रखा जा सकता है? क्या प्रेम का व्यवसायीकरण करके नकली रिश्तों का ग्लैमराइजेशन करना ठीक है? वास्तव में परदे की दुनिया के कलाकारों के लिए मुहब्बत और रोमांस की खबरें स्टेटस सिंबल की तरह हैं। नई हीरोइनें तो खुद को स्थापित करने के लिए सबसे पहले बड़े कलाकारों या क्रिकेट खिलाडियों के साथ अपने रोमांस की ख़बरें जानबूझकर उछालती हैं। निजी संबंधों और अंतरंगता के मनगढंत किस्सों को जोड़ती रहती हैं। नकली रोमांस की आड़ में खुद को प्रचारित करती हुई झुठलाती रहती हैं। केटरीना केफ-रणवीर कपूर, अनुष्का-विराट और सुशांत-अंकिता की बनती बिगड़ती प्रेम कहानियों के पीछे भी कुछ ऐसी ही सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता! सफलता को पुख्ता बनाने के लिए मनगढ़ंत किस्से फैलाने के लिए कई तिकड़में की जाती हैं। फ़िल्मी स्क्रिप्ट की नकली प्रेम कहानियों की तरह ही निजी जीवन में भी नकली प्रेम कथाओं के किस्से ज्यादा दिन सांस नहीं लेते! जिस तरह फिल्म का पोस्टर उतरते ही प्रेम कहानियाँ दम तोड़ देती वही हश्र अफवाहों वाली प्रेम कथाओं का भी होता है!   
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Friday, May 6, 2016

आस्था के पर्व में 'समरसता' का राजनीतिक पाखंड


- हेमंत पाल 
  
  सिंहस्थ में उज्जैन आने वाले किसी भी श्रद्धालु से उसकी जाति, पांति या धर्म नहीं पूछा जाता और न पूछा जा रहा है। सिंहस्थ में आने वाला श्रद्धालु न तो दलित होता है न सवर्ण! धार्मिक आस्था और सरकार की सुपर ब्रांडिंग से सराबोर इस आयोजन का आकर्षण इतना ज्यादा है कि कई गैर-हिंदू भी क्षिप्रा में डुबकी लगा आए! लेकिन, संघ और भाजपा ने इस धार्मिक उत्सव में भी राजनीति करने का मौका ढूंढ लिया! उज्जैन में 'समरसता स्नान' और 'समरसता भोज' का आयोजन किया जा रहा है। भाजपा के कई दिग्गज नेता दलितों के साथ क्षिप्रा में डुबकी लगाएंगे! सवाल किया जा रहा है कि जब सिंहस्थ में सामाजिक समरसता पहले से विद्यमान है तो फिर ये दिखावा किस लिए? सिंहस्थ में जातिवाद का जहर क्यों घोला जा रहा है? क्या भाजपा के तरह के क़दमों से वर्ग संघर्ष नहीं भड़केगा? सिंहस्थ में आए साधू-संत और विपक्ष भी इसके खिलाफ हैं! दरअसल, ये सब संघ की रणनीति का हिस्सा है, जिसका पालन करना सरकार  मज़बूरी है।     
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  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा में 'सामाजिक समरसता' एक महत्वपूर्ण मसला है। संघ इस साल हिन्दुओं के बीच सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देशव्यापी अभियान चला रहा है। समरसता के बहाने संघ हिंदुत्व की भावना को ज्यादा से ज्यादा पोषित करने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए सिंहस्थ से अच्छी जगह कोई हो नहीं सकती! इसलिए भाजपा द्वारा 11 मई को उज्जैन में 'समरसता स्नान' और 'समरसता भोज' जैसा आयोजन किया जा रहा है। वास्तव में इसके पीछे एक राजनीतिक विचार काम कर रहा है। ये हालात इसलिए बने कि भाजपा बिहार चुनाव के दौरान संघ के मुखिया मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा की जरूरत बताने वाला बयान सामने आने के बाद अपना हश्र देख चुका है। भागवत के बयान ने जाति आधारित बिहार चुनाव में भाजपा को विपक्षी दलों के निशाने पर ला दिया था! यह आयोजन उस परिप्रेक्ष्य में भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। भागवत के बयान को विपक्ष ने उस चुनाव में बड़ा मुद्दा बना दिया था, जिससे भाजपा की जमकर किरकिरी भी हुई! अब उस गलती को दुरुस्त करने के लिए सिंहस्थ को माध्यम बनाया गया है। 
   राजनीतिक समीकरण साधने वाले समरसता स्नान में बड़ी संख्या में दलित एवं आदिवासी वर्ग को अन्य वर्गो के लोगों के साथ स्नान कराने की रणनीति है। समरसता स्नान के बाद ‘समरसता भोज’ का आयोजन भी किया गया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान समेत कई पार्टी नेता सिंहस्थ के दौरान 11 मई को क्षिप्रा में दलितों, आदिवासियों के साथ ‘समरसता स्नान’ कर आस्था की डुबकी लगाएंगे! इसलिए कि भाजपा इस वर्ग का दिल जीत सकें! यह 'समरसता स्नान' ऐसे वक़्त किया जा रहा है, जब संघ दलितों और आदिवासियों को अपने पाले में लाने के लिए हर संभव कोशिश में लगा है। प्रदेश भाजपा ने एक लाख दलितों को 11 मई को उज्जैन में एकत्रित करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी! हर विधायक को लक्ष्य दिया जा रहा है, कि वे अपने विधानसभा क्षेत्र से अधिकतम दलितों को लेकर उज्जैन पहुंचें। 
  संघ एक तरफ जहां समरसता अभियान चला रहा है, दूसरी और संयुक्त परिवार परम्परा को भी मजबूत बनाने के लिए घर-घर संपर्क अभियान शुरू कर रहा है। संघ का मानना है कि संयुक्त परिवारों के टूटने और एकल परिवार परंपरा से समाज में असंवेदनशीलता बढ़ी है। बहुत सी समस्याएं भी पैदा हो गई! इस कारण हिन्दू परिवार कमजोर हो रहे हैं। संघ ने एक सूची बनाई है जिसमें संयुक्त परिवार में रहने के फायदे एवं एकल परिवार के नुकसान बताए गए हैं। स्वयंसेवक संपर्क के दौरान संकल्प पत्र भी भरवाएंगे, जिससे हिन्दू परिवार सप्ताह में कम से कम एक बार साथ समय बिताने! साथ भोजन करने! सप्ताह में कम से कम एक दिन टीवी बंद रखकर की भी बात कही गई है। 
  कहा जा रहा है कि 2004 की तुलना में इस बार के सिंहस्थ पर भगवाधारियों का वर्चस्व स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इस धार्मिक आयोजन के फ्लॉप होने का एक बड़ा कारण भी शायद यही है। सरकार पूरी तरह से हिन्दुत्व के रंग में रंगी हुई हैं। मकसद है जनता में अपनी मजबूत पकड़ साबित करके अपना राजनीतिक गणित साधना, जो गड़बड़ाता दिख रहा हैं। सवाल उठता है कि सिंहस्थ-2016 को क्यों याद किया जाए? इसलिए कि इस धार्मिक आयोजन की जबरदस्त ब्रांडिंग हुई है! और अब सदियों की धार्मिक परंपरा से हटकर शाही स्नान को भी फीका कर देने वाले 'जाति विशेष' का मजमा जमाया जा रहा है। धर्म, आध्यात्म और सामाजिक समरसता के नाम पर जातीय समीकरण सुधारने के लिए भाजपा ने हर वो कोशिश की, जो सत्ता के समीकरण बनाए रखने के लिए बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। 
  'सामाजिक समरसता' के इस आयोजन के पीछे संघ के गुरु गोलवलकर के दार्शनिक विचारों को आधार बनाया गया है। सामाजिक समरसता के संदर्भ में उनका मानना था कि हिंदू समाज के उत्थान में ही राष्ट्र का उत्थान है और उसके पतन में राष्ट्र का पतन है। हिंदू समाज का पतन हुआ, इसलिए हिंदूराष्ट्र का पतन हुआ! हिंदू समाज का पतन आत्मविस्मृति के कारण हुआ! स्वार्थपरायणता के विभिन्न भेदों के कारण समाज का विघटन हुआ और समाज असंघठित अवस्था में समाज चला गया! हिंदूराष्ट्र के उत्थान के लिए हिंदू समाज का उत्थान होना जरुरी है। आत्मग्लानि दूर करने के लिए आत्मबोध जगाना पड़ेगा! स्वार्थपरायणता के स्थान पर नि:स्वार्थ भाव निर्माण करना पड़ेगा। सभी भेदों को भुलाकर एकात्मता का भाव जाग्रत कर एकात्म, एकरस, समरस हिंदू समाज का निर्माण करना पड़ेगा! इस साधनाकाल में गुरुजी ने आदर्श समाज की स्थिति, वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता, वनवासी बांधवों की स्थिति, समाजधारणा में धर्म का स्थान, समाज को उन्नत दिशा में ले जाने में धर्माचार्यों का योगदान, जातिभेद और राजनीति, भेदों को दूर करने के उपाय, दरिद्रनारायण की उपासना इन विषयों पर अपना चिंतन स्पष्ट किया था! संघ ने इस विचार को आगे बढ़ाया और भाजपा ने इसे अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए लपक लिया!
  हमेशा देखा जाता है कि संघ का इशारा भाजपा के लिए ब्रह्म वाक्य बन जाता है। संघ प्रमुख बार-बार सामाजिक समरसता पर जोर दे रहे हैं। एक कुंआ, एक मंदिर, एक शाला और एक श्मशान! इस सोच के तहत ही भाजपा ने समरसता स्नान का आयोजन किया है। क्षिप्रा नदी में दलितों को स्नान कराने के लिये पार्टी पूरी ताकत से जुट गई! संघ में लगातार समरसता का पारायण जारी है! इसे संघ विरोधी समझौतावादी रवैया कहते हों, लेकिन संघ समय के साथ बदलाव दिखाकर सुर्खियां पा रहा है। संघ का पूरा जोर अब हिन्दू समाज को स्वस्थ स्थिति में बचाए रखने का है। यही कारण है कि सामाजिक समरसता और परिवार परंपरा को मजबूत करने पर जोर दिया जा रहा है! जिसे संघ के अनुषांगिक संगठन 'भाजपा' ने सर-माथे पर ले रखा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देशभर में ‘जय भीम’ का नारा बुलंद कर रहे हैं! राज्यों में भाजपा की सरकारें भी हैसियत और परिस्थितियों के मुताबिक संघ की विचारधारा को पोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं! 
  सिंहस्थ-2016 अब उस दौर में प्रवेश करने जा रहा है, जब आस्था के पर्व में डुबकी लगाने वाले राजनीतिबाज ख़बरों में छाए रहेंगे! फिर वो वैचारिक धरातल पर समाज निर्माण का संदेश देने में खास रुचि ले रहा संघ हो, या उसके इशारे पर सत्ता की सियासत करने वाली भाजपा! ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या सिंहस्थ को संघ हाईजैक करने जा रहा है? इसका माहौल बनाने की जिम्मेदारी भाजपा को सौंपी है? भाजपा के प्रदेश प्रभारी और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे ने भाजपा की उस रणनीति का खुलासा कर दिया, जो सिंहस्थ की आड़ में हर वर्ग को यह संदेश देना चाहता है कि भाजपा के लिए राष्ट्रधर्म और देश का विकास सबसे ऊपर है। लेकिन जिस तरह चुनावी प्रबंधन के मोर्चे पर भाजपा और संघ अपने एजेंडे को सुनियोजित योजना के तहत अंजाम तक पहुंचाते हैं कुछ उसी तरह का अंदाज यहां सिंहस्थ के दौरान देखने को मिलेगा। 
 'समरसता स्नान' के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'वैचारिक महाकुंभ' में शिरकत की राजनीति गुल खिलाने लगेगी! नरेंद्र मोदी तो आंबेडकर जयंती पर उनके अनुयायियों को लुभाने के लिए महू दौरे के दौरान भी संदेश दे चुके हैं। प्रदेश स्तर पर भाजपा हर वर्ग के बुद्धिजीवियों की खोजकर उन्हें रिझाने के लिए जो कार्यक्रम करने जा रही है, उसका आकर्षण केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर होंगे! इसका मकसद सिंहस्थ के जरिए युवाओं का समर्थन हांसिल करना है। दूसरे शाही स्नान के बाद सबकी नजर मोहन भागवत पर रहेगी! वे 'वैचारिक महाकुंभ' का आगाज तो करेंगे ही, आदिवासियों के साथ शबरी महाकुंभ में भी शामिल होंगे। भागवत की इस यात्रा को सफल बनाने की बिसात सह सरकार्यवाह भैयाजी जोशी बिछा चुके हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय के इस दौर में जब आरक्षण का मुद्दा भाजपा के गले की फांस बन गया है, तब संघ प्रमुख सियासत से ऊपर उठकर भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने की जरूरत जताएंगे और आदिवासियों का दिल जीतने की कोशिश करेंगे! 
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Tuesday, May 3, 2016

एक पार्टी, दो राज्य सरकारें और दो नजरिए

 - हेमंत पाल 

  आरक्षण को लेकर हाल ही में दो बड़े फैसले सामने आए! मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने सरकारी नौकरियों में आरक्षित वर्ग को पदोन्नति में आरक्षण को ख़त्म करने का आदेश दिया! उधर, गुजरात सरकार ने गरीब सवर्णों को भी 10% आरक्षण का आदेश दिया! सामाजिक नजरिए से देखा जाए तो दोनों ही फैसले एक-दूसरे के विपरीत हैं। एक ही पार्टी की एक सरकार सवर्णों को आरक्षण देने की वकालत कर रही है! जबकि, दूसरी सरकार आरक्षित वर्ग के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए कमर कसे है। राजनीति के नजरिए से देखा जाए तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा किसी के गले नहीं उतर रही! वे पदोन्नति में आरक्षण को राजनीतिक मुद्दा बनाने कोशिश कर रहे हैं। ये विचार किए बगैर कि इससे समाज का दूसरा वर्ग प्रभावित हो रहा है!   
   मध्यप्रदेश में हुआ हाई कोर्ट का ये फैसला नई बात नहीं है! उत्तर प्रदेश और बिहार की अदालतें ऐसे फैसले दे चुकी हैं! दोनों राज्य इसे लागू भी कर चुके हैं। पदोन्नति में आरक्षण का फैसला अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय किया गया था। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ मध्यप्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है। जबकि, संविधान में आरक्षित वर्ग को पदोन्नति में आरक्षण का कोई जिक्र नहीं है। सुप्रीम कोर्ट 2007 में ही इस मामले को डिसाइड कर चुका है। ऐसे में यदि मध्यप्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट भी जाती है तो उनका पक्ष कमजोर ही रहेगा! उत्तर प्रदेश सरकार तो इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में हार चुकी है। इलाहबाद हाई कोर्ट ने 4 जनवरी 2013 को इस तरह की आरक्षण व्यवस्था को अनुचित करार दिया था। राज्य सरकार ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा! सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में पदोन्नतियों में आरक्षण खत्म करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर मुहर लगा दी थी। पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था प्रदेश की पूर्ववर्ती मायावती सरकार ने 14 सितंबर 2007 से लागू की थी जिसे 15 जून 1995 से प्रभावी बनाया गया था।
  बिहार की नीतीश सरकार ने भी हाल ही में फैसला लेते हुए सरकारी नौकरियों में एससी/एसटी के प्रमोशन में आरक्षण को खत्म कर दिया! हाई कोर्ट के आदेश को आधार बनाकर राज्य सरकार ने यह फैसला लिया! पटना हाईकोर्ट ने अगस्त 2014 में आदेश पारित करते हुए राज्य सरकार के साल 2012 में जारी संकल्प को निरस्त कर दिया था। हालांकि, सरकारी फैसले में पहले से पदोन्नत कर्मियों को राहत दी गई! जिन कर्मियों का प्रमोशन रूका हुआ था, सामान्य प्रशासन विभाग ने संकल्प जारी कर सरकारी सेवाओं में प्रोन्नति में एससी-एसटी कर्मियों को वरीयता सहित आरक्षण का लाभ देने का निर्देश जारी किया था! पदोन्नति में आरक्षण खत्म करने के हाई कोर्ट के फैसले के बाद इस वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी लामबंद होने लगे हैं। उनका कहना है कि प्रदेश सरकार संकल्प पारित कर लोकसभा में आरक्षण बिल पारित करवाए! सरकार ताजा आंकड़ों के आधार पर नए 'पदोन्नति नियम 2016' बनाए। सांसद और विधायक प्रधानमंत्री पर दबाव बनाकर पदोन्नति  नियम बनाए जिन्हें संसद पारित करवाया जाए!
  उधर,  गुजरात सरकार ने हार्दिक पटेल द्वारा उठाए गए पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलन के सामने झुकते हुए प्रदेश में सभी गैर-आरक्षित जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को नौकरी और शिक्षा में 10% आरक्षण की घोषणा की! इस पहल से सवर्ण वर्ग के 6 लाख रुपए से कम आय वाले परिवारों को राज्य सरकार के इस फैसले का लाभ मिलेगा। कहा गया है कि यदि 10% कोटा लागू करने में हम किसी भी कानूनी लड़ाई को तैयार हैं। इससे एससी / एसटी और ओबीसी के लिए मौजूदा 49 प्रतिशत आरक्षण प्रभावित नहीं होगा। गुजरात सरकार ने राजस्थान और हरियाणा में लागू व्यवस्था को देखकर ये फैसला लिया है। राजस्थान और हरियाणा ने गुर्जर और जाट समुदायों के लिए विशेष कोटा घोषित किया गया है। गुजरात सरकार के इस कदम को राजनीतिक रूप से दमदार पाटीदार समाज को संतुष्टï करने के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य की आबादी में लगभग 12-15 प्रतिशत का योगदान रखने वाले पाटीदारों ने गुजरात में भाजपा सरकार के लिए महत्वपूर्ण समर्थन आधार खड़ा किया है। 
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Monday, May 2, 2016

नायिका के बगैर कैसी फ़िल्में?


हेमंत पाल 

  हिंदी फिल्मों का नायक कितना भी 'बड़ा' क्यों न हो, उसे पनाह नायिका के आगोश में मिलती है। हीरों को अपनी गलियों से लेकर पेड़ के इर्दगिर्द चक्कर लगवाने वाली नायिकाओं ने भी हिन्दी फिल्मों में राज करते हुए हर दौर के दर्शकों का भरपूर प्यार बटोरा! इन्हें देखकर वह आहें भरते हैं, सीटियां बजाते हैं और जब रात का अंधेरा पसरा होता है तो यही नायिकाएं पर्दे से उतर कर दर्शकों के सपने में आकर उनकी रातों को रंगीन भी बनाती हैं। समय के साथ नायिकाओं के चेहरे बदलते रहे हैं और उनके चेहते दर्शक भी बदलते रहे हैं। यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है नायिकाओं का आकर्षण जिसकी कच्ची डोर में बंधे दर्शक एक सदी से उन्हें निहार रहा है।

   एक जमाना था जब दर्शक गौहर, देविका रानी, नसीम बानो और शोभना समर्थ के दीवाने थे। उसके बाद दूसरा दौर आया जब नूरजहां और सुरैया के दीवाने उनके घरों के सामने रात दिन खड़े होकर उनकी एक झलक पाने को बेताब रहते थे। लेकिन, नायिकाओं को सितारा दर्जा दिलवाने में मधुबाला और नरगिस का नाम सबसे आगे है। नरगिस का अल्हड़ सौंदर्य देखकर दर्शक जहां मुग्ध हो जाते थे। वहीं मधुबाला में सौंदर्य के साथ अभिनय का जो सुंदर मिलाप था, वह आज भी कहीं दिखाई नहीं देता है। उनकी मौत के 50 साल बाद भी मधुबाला की कोई होड़ नहीं है।
    हिन्दी फिल्मों को नायक देने में जहां पंजाब का नाम सबसे उपर है, वहीं नायिकाओं को स्थापित करने में दक्षिण भारत का नाम सबसे पहले आता है। शुरूआती दौर में हिन्दी फिल्मों में मधुबाला, मीना कुमारी, शकीला, कामिनी कौशल, नूतन, आशा पारेख के बाद जब वैजयंती माला के साथ दक्षिण की खूबसूरती ने पर्दे पर पदार्पण किया तो हलचल मच गई! इसी परम्परा को पदमिनी और रागिनी ने आगे बढाया। लेकिन, स्वप्न सुंदरी हेमामालिनी के आते ही हिन्दी सिनेमा की सारी नायिकाएं बौनी दिखाई देने लगी। आज भी अपने सौंदर्य और गरिमा के बल पर हेमा मालिनी लोकप्रिय है। उनसे पहले वहीदा रहमान भी साउथ से ही आयी थी। जयाप्रदा के सौंदर्य से भी दर्शक बेसुध रहे। वैजयंती माला और हेमा मालिनी की तरह सुंदरता और अभिनय के बल पर राज करने वाली नायिकाओं की इसी परम्परा को श्री देवी ने बहुत खुबसूरती से आगे बढ़ाया। सही मायने में हीरोइन को नम्बर वन की पहचान देने में हेमा और श्री देवी का ही सबसे बड़ा हाथ है।
   हिन्दी फिल्मों में बंगाल का जो जादू सुचित्रा सेन ने फैलाया उसे आगे बढ़ाने के लिए पहले शर्मिला टैगोर आई, जिसने पहले रोमांटिक और बिकनी गर्ल तक की भूमिका कर सनसनी फैलाई। लेकिन 'अमरप्रेम' और 'आराधना' के बाद शर्मिला का स्वरूप ही बदल गया! वे स्थापित अभिनेत्री बन गई। तभी बंगाल से जया भादुड़ी और राखी ने उस परम्परा को बढ़ाया, फिर काजोल ने शाहरूख के साथ जोड़ी जमाकर सिनेमा के पर्दे पर धूम मचा दी। रानी मुखर्जी और सुष्मिता सेन का सांवला सौंदर्य भी दर्शकों के दिलों में गहरे तक उतरा। पर एश्वर्या राय ने अपनी अलग ही छाप छोड़ी। सौंदर्य की इस प्रतिमूर्ति का जादू लम्बे समय तक दर्शकों के दिल पर छाया रहा। 
   हिन्दी सिनेमा में मधुबाला ने अपनी निश्च्छल हंसी से जो माहौल बनाया था उसमे माधुरी दीक्षित ने रंग भरे। मधुबाला के बाद वह माधुरी ही थी, जिसने दर्शकों को सबसे ज्यादा आकर्षित किया और भरपूर सफलता भी पाई। माधुरी के अलावा जिन मराठी नायिकाओं ने समय समय पर दर्शकों को अपने सौंदर्य या अभिनय से रिझाया उनमें नूतन, तनुजा और स्मिता पाटिल प्रमुख हैं। इनके साथ साथ सिनेमा को मुमताज, बबीता, साधना, परवीन बाबी, नीतू सिंह, जीनत अमान, टीना मुनीम, शबाना आजमी, रेखा, करिश्मा कपूर, करीना कपूर और विद्या बालन ने भी रोशन किया। 
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