Monday, November 30, 2015

सजग वोटर के सामने सहमें से हैं नेता!


काउंट डाउन - 1 
रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव 
- हेमंत पाल 
  ये लोकसभा उपचुनाव कौन जीतेगा? ये सवाल झाबुआ से बाहर किसी से पूछा जाए, तो राजनीति की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाला शख्स सहजता से भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया का नाम ले देगा! लेकिन, झाबुआ में जब यही सवाल किसी स्थानीय व्यक्ति से किया जाए, तो वो साफ़ जवाब नहीं देगा! ये भी हो सकता है कि खुद प्रतिप्रश्न कर ले कि आपको क्या लगता है, कौन जीतेगा? झाबुआ के आदिवासी फिलहाल चुनाव को लेकर खामोश हैं और किसी निष्कर्ष के संकेत नहीं दे रहे! यही कारण है कि यहाँ भाजपा थोड़ी असमंजस में है!
  इस बात को मौजूं न माना जाए, पर ये नितांत सच है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ भी गंभीरता लिया जा रहा है। इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री महीनेभर से लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं कर रहे हैं! मुख्यमंत्री लगातार दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए कर रहे हैं कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! संगठन के कई बड़े नेता महीनेभर से झाबुआ में डेरा डाले हैं। 
  इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की हल्की लकीरें उभरी हैं। क्योंकि, झाबुआ के आदिवासियों की खासियत है कि वो अपेक्षाकृत जागरूक, सजग और गंभीर है। वो जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देता! देश, दुनिया की हर खबर से वाकिफ भी रहता है! ये लोग मजदूरी करने गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और राजस्थान तक जाते हैं! इसलिए उन्हें पता है कि देश का राजनीतिक मौहाल कैसा है! यही वजह है कि झाबुआ के आदिवासी को बरगलाना आसान नहीं है। उसे प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता! 
   झाबुआ के ग्रामीण इलाकों के टोला और मजरों में आदिवासियों के बीच भी चुनाव को लेकर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं! पर, ये सारी बातचीत उनके अपने बीच तक ही सीमित है! किसी भी बाहरी आदमी को वे मन की बात बताने से परहेज करते हैं! जोर देकर पूछने पर वे 'गांव में चर्चा है' जैसे जुमले गढ़ लेते हैं! उनके मन की थाह लेना भी आसान नहीं है। भाजपा के जो बाहरी नेता झाबुआ  डेरा डाले हैं, उन्हें भी चुनाव जीत जाने का भरोसा है, पर किसी बड़े अंतर की जीत  दावा करने से वे बचते नजर आ रहे हैं।       
  उधर, कांग्रेस आश्वस्त सी लग रही है कि वो मैदान मारने में कामयाब हो जाएगी! कांग्रेस के इस भरोसे के पीछे एक आधार भी नजर आता है कि कांतिलाल भूरिया के मुकाबले भाजपा की निर्मला भूरिया की लोकप्रियता कम है! फर्क सिर्फ इतना है कि निर्मला भूरिया के पीछे पूरी शिवराज सरकार खड़ी नजर आ रही है और कांतिलाल के साथ उनकी स्थानीय टीम है! पेटलावद हादसे के बाद सरकार ने स्थिति को संभाल जरूर लिया, पर अभी भी लोगों के दिल के दिल घाव भरे नहीं हैं! पेटलावद में वो बारूद तो जलकर ख़ाक हो गया, पर जो बारूद लोगों के दिलों में धधक रहा है वो कहाँ फटेगा, कह नहीं सकते! कागजों पर तो दोनों ही बड़ी पार्टियाँ जीत के दावे करने में पीछे नहीं हट रही! लेकिन, असल सच तो उन लोगों को पता है जिनके लिए कांग्रेस और भाजपा पार्टियाँ नहीं 'पंजे' और 'फूल' तक सीमित है! 
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काउंट डाउन - 2 
कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं!
   पिछले साल लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांतिलाल भूरिया निश्चिंत हो गए थे, कि अब चुनावी राजनीति से पाँच साल की छुट्टी! लेकिन, अचानक हालात बदले और दिलीपसिंह भूरिया के निधन से सीट खाली हो गई! इंदौर जाकर रहने लगे कांतिलाल भूरिया को फिर झाबुआ जिले की राजनीति में सक्रिय होना पड़ा! उन्होंने वक़्त का फ़ायदा उठाया और फिर संपर्क बनाकर अपनी पकड़ मजबूत करने में लग गए! आज उसी का नतीजा है कि वे कई बार सभी 8 विधानसभा क्षेत्रों चक्कर लगा चुके हैं! जबकि, भाजपा इस मामले में पिछड़ गई! उम्मीदवारी की घोषणा में देरी इसका सबसे बड़ा कारण रहा! 
  झाबुआ और आलीराजपुर की राजनीति करीब एक सी है! दोनों आदिवासी जिले हैं और दोनों की तासीर भी एक है। लेकिन, रतलाम की बात अलग है! रतलाम शहरी इलाका है, जहाँ का राजनीतिक सोच भी अलग है। दोनों आदिवासी जिलों में फिलहाल कोई पार्टी दावा नहीं सकती कि किसका पलड़ा भारी है! क्योंकि, आदिवासी मतदाता अमूमन खामोश रहता है! पर, रतलाम में भाजपा का दबदबा साफ़ दिख रहा है!  पर,बाकी जगह ये स्थिति नहीं है। मतदाताओं का मूड भांपने के बाद भाजपा के नेता भी समझ रहे हैं कि किसी ओवर-कॉन्फिडेंस के किसी मुगालते में न रहा जाए तो ही बेहतर होगा! हवा भी बताती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में 'मोदी लहर' में कांतिलाल के तम्बू उखड गए थे, पर अब वैसे हालात नहीं हैं! आज न तो कोई हवा है, न आँधी है और न कोई लहर! ऊपर से बिहार की हार और महंगाई ने भाजपा का ग्राफ नीचे गिरा दिया! मुद्दे की बात ये कि इन सवालों के भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है! उस पर पेटलावद हादसे ने भी सरकार को सवालों में घेर लिया! दबी जुबान से ही सही, लोग पूछ तो रहे हैं कि हादसे का मुख्य आरोपी राजेंद्र कासवां कहाँ है? ये भी खुसुर-पुसुर है कि चुनाव के बाद उसे पकड़ भी लिया जाएगा! वो चुनाव तक ही फरार है!
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काउंट डाउन - 3 
कांग्रेसी गुटों के 'महागुटबंधन' ने बदला माहौल! 
    गठबंधन के बाद 'महागठबंधन' राजनीति में गढ़ा गया एक नया शब्द है। बिहार में छोटे राजनीतिक दलों को चुनाव में सफलता क्या मिली, इस 'महागठबंधन' फॉर्मूले के नए-नए आयाम गढ़े जाने लगे! लगता है कांग्रेस ने भी इस सफलता से कुछ सबक लिया है! तभी अचानक झाबुआ में कांग्रेस का एक अलग ही रूप नजर आने लगा! इस उपचुनाव को लेकर कांग्रेस के अंदर बदलाव भी दिखाई दिया, जो ये अहसास कराने के लिए लिए काफी है कि यहाँ प्रचार में कांग्रेस के गुटों ने भी 'महागुटबंधन' बना लिया! इस उपचुनाव में जो माहौल बदला है, वो इसी फॉर्मूले का नतीजा है।      
   अभी तक बिखरे नज़र आने वाले कांग्रेसी नेता एक साथ और एक मंच पर आकर प्रचार में जुट गए! इस उपचुनाव से छिड़ककर दूरी बनाने वाले नेता दिवाली के बाद ज्यादा ही सक्रिय नजर आए! शायद ये सब बिहार चुनाव के नतीजों का ही आफ्टर इफेक्ट है। पार्टी को उम्मीद है, कि वे इस चुनावी फॉर्मूले के बल पर मध्यप्रदेश के इस उपचुनाव में भी फतह हांसिल कर लेंगे। इस उत्साह का असर इन दिनों झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम जिलों में साफ़ देखने को मिल रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, सचिन पायलेट, मोहन प्रकाश और संजय निरुपम  समेत कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने यहाँ सभाएं की और कर रहे हैं। चुनाव का नतीजा चाहे कुछ भी हो, पर यह तय है कि बिहार चुनाव के नतीजों ने गुटों में बंटी कांग्रेस को एकजुट जरूर कर दिया!  
  अभी तक इस संसदीय उपचुनाव को लेकर कांग्रेस बहुत ज्यादा गंभीर नहीं लग रही थी! कांतिलाल भूरिया की आदिवासियों के बीच पकड़ होने से लग रहा था कि हार-जीत का अंतत बहुत ज्यादा नहीं होगा! पर, कांग्रेस ये चुनाव जीत सकती है, इस बात का दिल से भरोसा किसी भी बड़े नेता को नहीं था! लेकिन, माहौल बदला है, बिहार में भाजपा वाले गठबंधन की हार से! यदि सारे संसाधन झोंककर और नरेंद्र मोदी की 26 रैलियां कराने के बाद भी भाजपा बिहार में हार सकती है, तो क्या इस उपचुनाव के नतीजे को पलटा नहीं जा सकता? जब ये सवाल कांग्रेसी नेताओं के मन में कौंधा, तो उन्होंने उत्साह से कमर कस ली और जंग के मैदान में उतर पड़े! आज हालात ये हैं कि दिवाली से पहले तक ख़म ठोंककर जीत का दावा करने वाले भाजपा नेता अनमने से हैं! जीतने की बात तो कर रहे हैं पर अंतर कितना होगा? इस सवाल पर कन्नी काटने लगे! 
   कांतिलाल भूरिया को कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह खेमे का नेता माना जाता है। इसलिए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि दूसरे गुटों के मुखिया इस जंग में शामिल होंगे! लेकिन, दिवाली के बाद जिस ताबड़तोड़ तरीक से कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली है, भाजपा हतप्रभ है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की रतलाम वाली सभा में कम लोगों की मौजूदगी को लेकर कुछ सवाल उठे थे! लेकिन, पेटलावद में उनकी सभा में आई भीड़ ने उस कमी को पाट दिया! प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने भी इस बात को स्वीकार किया कि दिवाली बाद कांग्रेस ने जिस तरह का चुनाव प्रचार किया, उससे प्रतिद्वंदी खेमे के दिल की धड़कने बढ़ गई! उन्हें तो कांतिलाल भूरिया की जीत का पूरा भरोसा भी है! क्योंकि, बिहारी की तरह यहाँ का आदिवासी मतदाता भी किसी को अपने मन की थाह नहीं लेने देता!   
   इस सारी कवायद का एक असर ये भी है कि जिस अरुण यादव को कमजोर प्रदेश अध्यक्ष समझ जा रहा था, वो फिर पार्टी की नजर में चढ़ गए! जबकि, भाजपा के चुनाव प्रचार के सारे सूत्र मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने हाथ में रखे हैं! भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान को एक तरह से साइड लाइन ही कर दिया गया! इसलिए कि उनकी अनसोची बयानबाजी से पार्टी कई बार मुश्किल में पड़ चुकी है! अब यदि ये उपचुनाव भाजपा जीतती है तो जीत का सेहरा सिर्फ शिवराज सिंह के माथे पर होगा! पर यदि नतीजे इसके विपरीत रहे तो …? जवाब समझा जा सकता है!
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काउंट डाउन - 2 
कागज पर भाजपा, जमीन पर कांग्रेस भारी? 
   ये उपचुनाव स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता बजाए कांग्रेस और भाजपा के लिए नाक का सवाल ज्यादा बन गया है। भाजपा इस चुनाव के जरिए देशभर में ये संदेश देना चाहती है कि बिहार हारने के बाद भी उसकी जमीनी पकड़ बरक़रार है! जबकि, कांग्रेस की हरसंभव कोशिश है कि चाहे जो हो, उसे जीतकर ये साबित करना है कि बिहार जैसा माहौल पूरे देश में है! नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिनों' की जिस आँधी ने भाजपा की नैया पार लगा दी थी, अब वो थम चुकी है! दिल्ली के बाद बिहार इसी का संकेत है। अब ये तो नतीजे बताएँगे कि नरेंद्र मोदी से 'अच्छे दिनों की उम्मीद', दिलीपसिंह भूरिया के प्रति सहानुभूति और शिवराज सिंह चौहान के सुशासन का जादू अभी जिन्दा है या नहीं!  
  प्रदेश के अन्य आदिवासी इलाकों की राजनीति और झाबुआ की कहानी अलग है! यहाँ राजनीतिक जागरूकता दूसरे आदिवासी इलाकों से ज्यादा है। झाबुआ, आलीराजपुर पर कांग्रेस ने दशकों तक अपना ख़म ठोंककर रखा! जब पूरे देश में कांग्रेस के तम्बू ढह रहे थे, तब भी यहाँ 'पंजा' मजबूत था! कांतिलाल भूरिया दो दशक तक आदिवासी राजनीति कि धुरी रहे हैं! स्थानीय राजनीति में उनकी धाक अभी कम नहीं हुई है ! ये भी याद रखने वाली बात है कि ये लोकसभा क्षेत्र प्रदेश की उन 9 सीटों में शामिल है, जहां कांग्रेस पिछला लोकसभा चुनाव डेढ़ लाख से कम वोटों से हारी थी। 
  दिलीप सिंह भूरिया ने 5 बार कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर के टिकट पर चुनाव जीता! 2014 में वे पहली बार भाजपा के का झंडा लेकर चुनाव लड़े और जीते भी! इस संसदीय सीट पर दिलीपसिंह भूरिया10वीं बार और कांतिलाल भूरिया 5वीं बार मैदान में थे। दिलीपसिंह ने 1977 से 1996 तक लगातार छह बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और 1980 से 1996 तक पांच बार सांसद चुने गए। लेकिन, आदिवासियों में पैठ और जमीनी पकड़ के मामले में कांतिलाल भूरिया हमेशा आगे रहे! इसलिए कि राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता के कारण दिलीपसिंह की इलाके में जमीनी पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर ही रही! 
   इस लोकसभा क्षेत्र में झाबुआ के 3, आलीराजपुर के 2 और रतलाम के 3 विधानसभा क्षेत्र हैं। थांदला, झाबुआ और सैलाना वो सीटें हैं, जहाँ पकड़ के मामले में कांग्रेस आगे है। आलीराजपुर, पेटलावद, जोबट, रतलाम लोकल और रतलाम ग्रामीण में फिलहाल भाजपा कागजों पर मजबूत है। पिछले विधासभा चुनाव में पेटलावद पर तो निर्मला भूरिया का कब्जा बरक़रार ही रहा! वे सबसे अधिक 18,668 वोटों से जीतीं। झाबुआ सीट से पवेसिंह पारगी ने अपने प्रतिद्वंद्वी को हराया था! आलीराजपुर में नागरसिंह चौहान की जीत भी 11 हज़ार से ज्यादा वोटों की रही! जबकि, जोबट से माधोसिंह डाबर तथा थांदला से कलसिंह भावर ने जीत दर्ज की थी। 
  आलीराजपुर में भाजपा विधायक नागर सिंह की ताकत भाजपा के लिए फायदेमंद होगी! उनके मुकाबले का कांग्रेस आलीराजपुर  में कोई नेता नजर नहीं आता। यहाँ से भाजपा का आगे रहने तय माना जा रहा है! जिले की दूसरी विधानसभा सीट जोबट में भी मैदान कांग्रेस के लिए आसान नहीं हैं! यहाँ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बागी उम्मीदवार को हराकर माधोसिंह डावर ने कमल खिलाया था। भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया पेटलावद इलाके में क्या जादू कर दिखाती हैं, ये आज भी एक यक्ष प्रश्न है! क्योंकि, पेटलावद हादसे को लेकर लोगों की नाराजी अभी दूर नहीं हुई है! मुआवजे और राहत से तो किसी परिवार के दुःख को कम सकता? थांदला में कांग्रेस पहले भी बेहतर नहीं थी और आज भी स्थिति ठीक है। लेकिन, फिर भी यहाँ से किसे बढ़त मिलेगी,  दावा  सकता! झाबुआ विधानसभा सीट हमेशा से कांग्रेस के लिए फायदेमंद। यदि कांग्रेस मतदाताओं  को अपने पक्ष में करने में कामयाब हुई, तो यहाँ से कांग्रेस को बढ़त मिलना तय है। ख़ास बात ये कि अब कांतिलाल भूरिया कि भतीजी कलावती भूरिया कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव में दम लगा रही है। कलावती की पकड़ को वही समझ सकता है,  झाबुआ की रजनी को नजदीक से देखा हो! ये तो हुई आलीराजपुर और झाबुआ जिले की 5 विधानसभा सीटों की बात! रतलाम की 3 सीटों की हवा अगली क़िस्त में!
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काउंट डाउन - अंतिम 
सारा दारोमदार रतलाम के मिजाज पर टिका!
 
  इस संसदीय सीट की तासीर दो तरह की है! आलीराजपुर और झाबुआ आदिवासी बहुल वाला इलाका है और रतलाम जिला पूरी तरह शहरी! झाबुआ जिले में कांग्रेस थोड़ी मजबूत नजर आ रही है, तो भाजपा को उम्मीद है कि वो रतलाम में कांग्रेस को पटकनी दे देगी! राजनीति के जमीनी आकलन से भाजपा भले ताकतवर नजर आ रही हो, पर आदिवासी मतदाता के मानस को अंदर तक भांप पाना आसान नहीं है। दशकों तक कांग्रेस की परंपरागत सीट रहा ये संसदीय क्षेत्र आज कांग्रेस की झोली में नहीं हो, पर पांसा पलटते देर नहीं लगती! संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों में रतलाम (शहर)  छोड़कर कांग्रेस और भाजपा में हार-जीत का अंतर इतना बड़ा नहीं है कि उसे पाटा नहीं सके! कांग्रेस यदि वोटर्स की मानसिकता बदलने में कामयाब रही तो इस लोकसभा उपचुनाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं। किन्तु, स्थानीय राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों का आकलन है कि 21 नवंबर तक 'पंजा' सबको ताकतवर दिखेगा, पर 24 को 'कमल' ही खिलेगा! शायद ये आकलन इसलिए है कि चुनाव के समीकरण एक रात पहले ही बदलते हैं! 
   इस लोकसभा क्षेत्र में दो जिलों झाबुआ और आलीराजपुर के साथ तीसरा जिला रतलाम है। इस जिले की तीन विधानसभा सीटें इस संसदीय क्षेत्र में जुड़ती हैं। रतलाम (शहर), रतलाम (ग्रामीण) और सैलाना! रतलाम शहर सीट कभी कांग्रेस के वोटों की फसल का गोदाम था! लेकिन, अब इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का असर बढ़ा है। शहरी इलाकों में भाजपा को वैसे भी मजबूत माना जाता है! इसलिए यहाँ से कांतिलाल भूरिया को बड़ी बढ़त मिल सकेगी, इस बात पर फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता! कांग्रेस को होने वाले संभावित नुकसान की बड़ी वजह ये भी है कि यहाँ पार्टी का संगठन दमदार नहीं रहा! रतलाम की भाजपा राजनीति के केंद्र रहे हिम्मत कोठारी उर्फ़ 'सेठ' ने कांग्रेस के अधिकांश स्थानीय नेताओं के गले में पट्टा डाल रखा है। कांग्रेस उम्मीदवार के पास कभी रतलाम में कार्यकर्ताओं की बड़ी फ़ौज हुआ करती थी! अब वो हालात नहीं है! इसके विपरीत कांग्रेस को उम्मीद कि वो मैदान मार लेगी, पर इसका कोई ठोस आधार नजर नहीं आ रहा! 
  कांग्रेस का भरोसा इस बात पर टिका है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को रतलाम (शहर) से जो 55 हज़ार की लीड मिली थी, जो महापौर चुनाव में घटकर 24 हज़ार हो गई! रतलाम (ग्रामीण) से भी भाजपा को करीब 30 हज़ार की लीड मिली थी! भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया पिछला लोकसभा चुनाव 1 लाख 8 हज़ार से चुनाव जीते थे, उसमें रतलाम की 2 सीटों का योगदान ही करींब 85 हज़ार वोटों का रहा था! भाजपा की कोशिश है कि ये लीड बढे नहीं तो कम से कम घटे भी नहीं! रतलाम ग्रामीण भाजपा की कमजोरी को भाजपा के नेता भी भांप रहे हैं! क्योंकि, सरकार से किसान खुश नहीं हैं और महंगाई भी आसमान फाड़ रही है! ऐसे में लीड बढ़ेगी, ये कहना नासमझी होगी! अब नरेंद्र मोदी की हवा का माहौल नहीं है और न इस उपचुनाव को लेकर लोगों में कोई रूचि है! ऐसे में तय है कि भाजपा की लीड बढ़ेगी तो नहीं! ये कांग्रेस के फायदे वाला संकेत है! 
  वोटिंग के अगले दिन देवउठनी ग्यारस है, हिन्दू परंपरा के मुताबिक उस दिन से शादी-ब्याह शुरू जाते हैं! ऐसे में ज्यादातर लोग शादियों में बिजी हो जाते हैं! जिसका सीधा असर वोटिंग पर होगा, जिसका नुकसान भाजपा को हो सकता है! लेकिन, कांग्रेस को नुकसान का गणित ये है कि रतलाम नगर निगम के 69 पार्षदों में कांग्रेस के 13 ही हैं, उनमे भी 7 या 8 ही कांतिलाल भूरिया का साथ देंगे! 
   जहाँ तक जातीय समीकरण की बात है तो रतलाम में ब्राह्मण, जैन और मुस्लिम वोट करीब-करीब बराबर हैं! मुस्लिम वोट तो भाजपा को मिलने से रहे! दादरी, गो-मांस पर विवाद के बाद मुस्लिमों का परंपरागत बैंक कुछ खिसका भी है! इसी तरह जैन वोटर्स भी पूरी तरह भाजपा के साथ होंगे, इसमें शक किया जा रहा है! हिम्मत कोठारी और चैतन्य काश्यप इस कोशिश में तो हैं, लेकिन, लगता नहीं कि ऐसा होगा! जैन समाज ज्यादातर व्यापारी वर्ग है! इस दिवाली पर बढ़ी महंगाई ने जिस तरह व्यापारियों का नुकसान किया है, वो उनके लिए भूलने वाली बात नहीं है। यहाँ के ब्राह्मण वोटर्स भी एक मुश्त भाजपा के साथ खड़े होंगे, इस बात दावा नहीं किया जा सकता! यदि आलीराजपुर और झाबुआ के जातीय समीकरणों पर नजर दौड़ाई जाए तो यहाँ 85% वोटर्स आदिवासी हैं! इनमें से बड़ी संख्या उन वोटर्स की है, जो दशकों तक 'पंजे' के साथ रहे हैं!  
   रतलाम में कांग्रेस ने अपनी चुनावी रणनीति भी बदली है! पार्टी ने रतलाम के सारे सूत्र इंदौर के नेता महेश जोशी के हाथ में दे दिए हैं, जिन्होंने कुशलगढ़ छोड़कर रतलाम में डेरा डाल लिया! चुनावी रणनीति का दारोमदार आजकल उनकी देखरेख में हो रहा है! इसके अलावा कई छोटे, बड़े नेताओं ने भी कमर कसकर पूरा जोर लगा दिया! दरअसल, ये भाजपा के चुनावी हमले का ही जवाब है! दिवाली के बाद जब पूरे संसदीय इलाके में भाजपा ने अपना प्रचार अभियान तेज किया और मुख्यमंत्री में गली-गली में चुनावी सभाएं करना शुरू कर दिया तो कांग्रेस ने भी उसी कूटनीति का इस्तेमाल करके हवा बनाना चालू कर दिया! कांग्रेस को फायदा देने वाला एक संकेत ये भी है कि पूर्व विधायक पारस सकलेचा कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं! यदि वे अपने समर्थन से कांग्रेस को मदद दे सकने में कामयाब हुए, तो शायद कांग्रेस की उम्मीद पूरी हो सकेगी!   
 रतलाम जिले की तीसरी सीट है सैलाना! ये वही इलाका है, जहाँ पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से पछाड़ा था! सैलाना विधानसभा से भाजपा को हमेशा ही नुकसान उठाना पड़ा है। प्रभुदयाल गेहलोत के दबदबे के कारण यहाँ भाजपा हमेशा ही कमजोर रही है। प्रभुदयाल गेहलोत खुलकर कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं, जिसने कांग्रेस का उत्साहवर्धन किया है! मुख्यमंत्री ने इस बार सैलाना इलाके में पूरा जोर लगा दिया है! देखना है कि 24 नवंबर को नतीजे क्या कहते हैं?
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Saturday, November 28, 2015

भाजपा को कई सबक दे गई उपचुनाव की ये हार!


- हेमंत पाल 

   

   राजनीति में अतिआत्मविश्वास हमेशा धोखा देता है। प्रतिद्वंदी को कमजोर समझने की जो गलती भाजपा ने बिहार में की, वही रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट के उपचुनाव में भी दोहराई गई! इस चुनाव में भाजपा ने कई ऐसी गलतियां की, जो वक़्त रहते सुधारी जा सकती थी! चुनावी जंग जीत लेने का अतिआत्मविश्वास और स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं को जिस तरह हाशिये पर रखकर ये चुनाव लड़ा गया, वो आगे के लिए भी सबक है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि इस चुनाव के नतीजों का सत्ता और संगठन पर क्या असर होगा? क्या सरकार उन गलतियों को सुधारेगी, जो पार्टी की हार का कारण बने? क्या संगठन आने वाले चुनावों में यही चुनावी प्रयोग करेगा, जो रतलाम-झाबुआ और आलीराजपुर में किए गए? दरअसल, ये नतीजे सिर्फ एक लोकसभा उपचुनाव तक सीमित नहीं हैं! ये एक चिंगारी है, जो सुलग गई! यदि वक़्त रहते इसे बुझाया नहीं गया तो इसके दावानल बनते देर नहीं लगेगी!
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  रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में सत्ता और संगठन की सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा वो नहीं पा सकी, जो उसकी मंशा थी! जबकि, कांग्रेस ने पुरानी लीड के एक लाख से ज्यादा वोट कवर करते हुए 88 हज़ार से जीत दर्ज की! इससे साबित हो गया कि भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा अंडर करंट पूरे देश में फ़ैल रहा है! ये सिर्फ झाबुआ, रतलाम या आलीराजपुर तक की कहानी नहीं है! नरेंद्र मोदी की जिस मौसमी आँधी ने भाजपा को शिखर पर पहुंचा दिया था, वो शायद ढलान पर है! दिल्ली के बाद बिहार और अब रतलाम-झाबुआ में हुई हार इसी का संकेत है। इस हार को कुतर्कों के साथ स्वीकारते हुए भाजपा नेता कई नए तर्क दे सकते हैं! पर वे ये नहीं मानेंगे कि हमने गलत उम्मीदवार का चयन किया, इलेक्शन मैनेजमेंट में खामी थी, पेटलावद हादसे का आरोपी अब तक पकड़ा नहीं गया, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई और बाहरी नेताओं के हाथ में चुनाव का संचालन सौंपा गया! ये वो तात्कालिक फैक्टर हैं, जो पार्टी की हार का कारण बने! इसके अलावा सरकारी फैसलों से ग्रामीणों को जो परेशानी हो रही है, वो भी इस चुनाव के नतीजे से जाहिर होता है। 
   भाजपा का निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाना गलत फैसला ही था! पार्टी को लगा था कि दिलीप सिंह भूरिया के निधन की वजह से मतदाताओं में उनके परिवार के प्रति सहानुभूति रहेगी! लेकिन, पार्टी के लिए यही दांव उल्टा पड़ गया! पार्टी को शायद किसी ने ये सलाह नहीं दी कि आदिवासियों में इस तरह के मामलों में 'सहानुभूति' का कोई ख़ास महत्व नहीं होता! फिर निर्मला भूरिया की छवि भी नकारात्मक है। पेटलावद से चार बार चुनाव जीतने के बाद भी जनता से उनका संपर्क नहीं जैसा है। कार्यकर्ता और उनके क्षेत्र के लोगों को हमेशा शिकायत रहती है कि विधायक उनका फोन तक नहीं उठाती! आदिवासी अंचल में तो ये बात चर्चित है कि निर्मला की गाड़ी का कांच अब अगले चुनाव में ही उतरेगा! बाद में निर्मला भूरिया की कमजोर स्थित भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यहाँ तक कि उन्होंने इस लड़ाई को शिवराज बनाम कांतिलाल भूरिया बना दिया! लेकिन, मुख्यमंत्री का यह फैसला भी गलत साबित हुआ।कांग्रेस ने भाजपा की इसी कमजोरी को मुद्दा बनाया। 
  ये बात भी सच है कि झाबुआ के आदिवासी किसी अनजान के सामने अपने दिल की बात नहीं कहते! वे किसी भी मामले में जल्दी प्रतिक्रिया भी नहीं देते कि कोई कयास लगाया जा सके! वे काम की तलाश में गुजरात, महाराष्ट्र दिल्ली तक जाते हैं! उन्हें देश की नब्ज का भी पता होता है! वे जानते है कि देश का राजनीतिक माहौल कैसा है! ये पूरा इलाका गुजरात की सीमा से लगा है, और वहाँ की हवा से कुछ ज्यादा ही प्रभावित भी है! इसलिए माना जा कि गुजरात में भी माहौल बदल रहा है! जिसका संकेत उन्होंने झाबुआ-आलीराजपुर की सभी पाँचों विधानसभा सीटों के फैसलों से दे दिया! गुजरात में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव के लिए वोटिंग चल रही है! झाबुआ के नतीजे को यदि इशारा समझा जाए, तो गुजरात में भी बड़े फेरबदल से इंकार नहीं किया जा सकता! झाबुआ के आदिवासी की एक तासीर है कि उन्हें आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता! उन्हें प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता! जबकि, झाबुआ में डेरा डाले भाजपा के नेता आदिवासी मतदाताओं की नब्ज नहीं समझ सके, जिसका कांग्रेस को अंदाजा लग गया था! 
  भाजपा को दिवाली से पहले अंदेशा हो गया था कि झाबुआ की तीन और आलीराजपुर-रतलाम की एक-एक सीट से वो पिछड़ सकती है। लेकिन, भाजपा नेताओं को ये भी उम्मीद थी कि आदिवासी वोटों का जो घाटा होगा, उसकी पूर्ति रतलाम (शहर) क्षेत्र से मिली बढ़त से पाटा जा सकता है। लेकिन, शहरी मतदाताओं ने भी भाजपा का साथ नहीं दिया! सिवाय रतलाम (शहर) के भाजपा को सैलाना और रतलाम (ग्रामीण) से भी बढ़त नहीं मिली! लोकसभा चुनाव में रतलाम से भाजपा को मिली 55 हज़ार की लीड कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी! लेकिन, हिम्मत कोठारी की निष्क्रियता, कांग्रेस को मिले पारस सकलेचा साथ और चेतन काश्यप के प्रति लोगों की नाराजी ने कांग्रेस की राह आसान कर दी! इसके अलावा कांग्रेस ने महेश जोशी को चुनाव संचालन के मोर्चे पर लगाकर जीतने की कोई कसर नहीं छोड़ी! इन सारे प्रयासों से ही भाजपा की 55 हज़ार की लीड करीब 30 हज़ार घट गई! किसानों की मदद के लिए खजाना खोलने का दावा करने वाली सरकार से किसान कितने खुश हैं, ये रतलाम (ग्रामीण) के नतीजों ने बता दिया! डेढ़ साल पहले जिस सीट से भाजपा 30 हज़ार से जीती थी, वहाँ से उसे 5 हज़ार से हार का मुँह देखना पड़ा! भाजपा की सबसे बुरी गत सैलाना में हुई, जहाँ वो करीब 35 हज़ार से पिछड़ गई! भाजपा के मजबूत गढ़ों में कम मतदान होना भी, भाजपा के खिलाफ गया। आलीराजपुर के कम मतदान से ये साबित भी हो गया!  
   ये एक तरह से भाजपा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' की भी हार है! किसी एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह से 'संसाधन' झोंके गए थे, आदिवासी मतदाता उसे पचा नहीं सका! ये भी कहा जा सकता है कि ये चुनाव जीतने के तात्कालिक उपायों की हार नहीं, बल्कि भाजपा की उस विचारधारा की हार है, जिसके झाँसे में पिछली बार देशभर का मतदाता आ गया था! अब वो उससे मुक्त होने की कोशिश कर रहा है! बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ आदिवासी मतदाताओं ने भी गंभीरता से लिया! इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं करते रहे! पूरे संसदीय क्षेत्र में मुख्यमंत्री ने 50 से ज्यादा सभाएं की! उन्होंने दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए किए कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! अरविंद मेनन और शैलेन्द्र बरुआ समेत संगठन के कई बड़े पदाधिकारी महीनेभर तक झाबुआ में डेरा डाले रहे! पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी सारा दम लगा दिया! इसके अलावा दो दर्जन मंत्रियों और चार दर्जन विधायकों को भी लगा दिया गया! नतीजा ये हुआ कि स्थानीय कार्यकर्ता और नेता उनकी चाकरी में लग गए और सारा प्रचार सिर्फ दिखावे तक सीमित हो गया! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें तो उभरी ही थी! जानकारी है कि सरकार को भी जो ख़ुफ़िया रिपोर्ट मिली थी, उसमें भी हार के खतरे की तरफ संकेत किया गया था! 
  इस उपचुनाव में प्रदेश सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया गया! जबकि, ग्रामीणों को हर योजना की असलियत और सरकारी अफसरों के रवैये का अहसास है। लेकिन, ये नहीं कहा गया कि केंद्र सरकार की 'मनरेगा' योजना का क्यों फ्लॉप हुई? आदिवासी इलाके में 'मनरेगा' के जरिए सही तरीके से काम नहीं हुआ! यहाँ तक कि आदिवासियों को उनके काम के पैसे हक का भुगतान तक नहीं हुआ। ये भी एक वजह थी, जिससे लोगों में प्रदेश सरकार के खिलाफ नाराजगी थी। कांग्रेस ने इसी मुद्दे को सही तरीके से अपने प्रचार में शामिल किया। ये भी सच है कि ग्रामीण इलाके के लोग सरकारी दफ्तरों में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार से बहुत ज्यादा परेशान हैं! मजबूरी में वो विरोध नहीं कर पाते, पर जब ऐसा कोई मौका मिलता है, अपनी मंशा जाहिर करना छोड़ते! पटवारियों के दबाव, बिजली के भारी भरकम बिल, राजस्व के कामकाज में अड़चन जैसे कई मामले हैं जो रोज गरीब ग्रामीणों को झेलना पड़ते हैं।   
  इसे आश्चर्य कहा जा सकता है कि पूरे चुनाव में कांग्रेस जीत के प्रति बहुत ज्यादा आश्वस्त लगी! कांग्रेस ने जिस तरह एकजुट होकर चुनाव लड़ा, ये उसकी रणनीतिक सफलता भी कही जाएगी! कांग्रेस के सभी बिखरे गुट झाबुआ-रतलाम में एकसाथ दिखाई दिए! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तो कांग्रेस का आत्मविश्वास भी बल्लियों उछलने लगा था! चुनाव के इस नतीजे से कांग्रेस ने भी सबक सीख लिया होगा, कि ऐसे मौकों पर आपसी मतभेद भुलाकर एक जाजम पर आना फायदेमंद होता है!     
  पेटलावद हादसे ने भी भाजपा की जीत का रास्ता रोक है। मुख्यमंत्री ने हालात संभालने कोशिश तो की, पर वे भी लोगों के दिल के घाव नहीं भर सके! जिस गांव में करीब डेढ़ सौ लोग बारूद के साथ धमाके में उड़ गए हों, वहाँ के लोगों के दिलों में धधकते बारूद को समझ नहीं सके कि वो कहाँ फटेगा! तात्कालिक सहानुभूति और मुआवजे को भाजपा ने ये समझ लिया था कि लोग सब भूल जाएंगे! पर, ना ऐसा हुआ और न होता है! कांग्रेस ने भी इस घाव को आखिरी तक कुरेद कुरेदकर हरा रहने दिया!
   उपचुनाव के नतीजे से ये भी साबित कि आदिवासी मतदाता भंडारे, क्रिकेट-किट, कम्बल और साड़ी से झांसे में नही आते! उनका विश्वास जीतना सबसे ज्यादा जरुरी है और विश्वास की पूंजी एक दिन में जमा नहीं होती! झाबुआ-रतलाम की ये हार भाजपा के अतिआत्मविश्वास के अलावा जनता और कार्यकर्ता की उपेक्षा का भी नतीजा है। जहाँ तक इस हार से सबक लेकर संगठन में बदलाव का सवाल है तो पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार चौहान कमजोर पकड़ सामने आ गई! यदि उनकी 'यस मेन' वाली छवि नहीं बदली तो पार्टी शायद उन्हें ही बदल दे! इस नतीजे से ये भी लगा रहा है कि भाजपा की पूंजी घट रही है! कांग्रेस अब इसे अपनी ताकत में बदल सकती है। अब भाजपा के मठाधीश बने लोगो को फिर कार्यकर्ता बनना पड़ेगा, तभी कुछ बदलेगा! क्योंकि, सत्ता के अहंकार से कभी चुनाव  जाते!
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Wednesday, November 25, 2015

छोटी फ़िल्मों के बड़े असर!


- हेमंत पाल 
   आजकल फिल्मों के 'अच्छे' होने को उनके बड़े बजट से आँका जाता है। जितना बड़ा प्रोडक्शन हाउस, जितना बड़ा निर्माता उतनी ही बड़ी फिल्म! 'मुगले आजम' से शुरू हुआ 'बड़ी' फिल्मों का दौर आज भी जारी है! करन जौहर, यशराज फिल्म्स, संजय लीला भंसाली और शाहरुख़ खान का रेड चिली प्रोडक्शन हॉउस ऐसे ही कुछ नाम हैं, जो बड़े बजट वाली 'बड़ी' फ़िल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं! आशय यह नहीं कि भारी भरकम बजट से बनने वाली फ़िल्में सफल हो ही जाती हैं! बड़े सितारों और महंगे सेटों वाली फिल्मों के बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आती हैं, जो दर्शकों पर खासा असर छोड़ती हैं और कमाई भी करने में पीछे नहीं रहती!
  याद कीजिए लंच बॉक्स, पानसिंह तोमर, शिप ऑफ़ थीसिस, गैंग ऑफ़ वासेपुर कुछ ऐसी ही कुछ फ़िल्में हैं, जिन्होंने थिएटर से बाहर निकलते दर्शकों को कुछ सोचने पर मजबूर किया! करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन बहुत बड़ा बैनर है! इस बैनर ने दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है, अग्निपथ (रीमेक), स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर और ये जवानी है दीवानी जैसी बड़े बजट की फार्मूला फिल्में बनाई है! लेकिन, इसी प्रोडक्शन हॉउस ने 'लंच बॉक्स' जैसी छोटी फिल्म भी बनाई! इसके अलावा विक्की डोनर, फरारी की सवारी, शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी और 'कहानी' ऐसी ही छोटी फ़िल्में हैं जिन्होंने बड़ी-बड़ी फिल्मों को पानी पिला दिया! ये कम बजट की ऐसी फ़िल्में थी, जिनमें न तो बड़े सितारे थे और न हो महंगे सेट! फिर भी ये फ़िल्में चली और बजट से कई गुना ज्यादा कमाई भी की! इन फिल्मों के निर्माण में यू-टीवी, वॉयकॉम, पीवीआर पिक्चर्स और रिलायंस जैसे प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियोज़ ने पैसा लगाया या डिस्ट्रीब्यूट किया!
   इस तरह की फ़िल्में हर दौर में बनती रही है। 80 के दशक में 'जाने भी दो यारो' जैसी कम बजट की कई फ़िल्में बनी और अच्छी चली! पेस्टनजी, मिर्च मसाला, सलाम बॉम्बे और चश्मे बद्दूर जैसी कई फ़िल्में बनी! ये आर्ट नहीं, ठेठ फार्मूला लेकिन अर्थपूर्ण फ़िल्में थी, जिन्होंने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया! पिछले कुछ सालों में मेट्रो शहरों में कई मल्टीप्लेक्स थिएटर बने और इनमे चलने वाली फिल्मों का एक नया दर्शक वर्ग तैयार हुआ। नया दर्शक वर्ग मतलब महँगी कारों से आने वाले लोग, सीमित और गद्देदार सीटें, हमेशा कोल्ड्रिंक पीते और पोप कॉर्न चबाते दर्शक! इन दर्शकों को सस्ती टिकट वाली बिना सितारों वाली फ़िल्में कभी रास नहीं आती!  
  बड़े और छोटे बजट वाली फिल्मों के बीच एक अघोषित जंग हमेशा चलती रहती है! छोटे बजट वाली फिल्मों को तो किसी बड़ी फिल्म से डर नहीं लगता! पर, महँगी फिल्मे बनाने वाले निर्माता हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि जब उनकी फिल्म रिलीज हो रही हो तो, दर्शक बांटने वाली कोई भी फिल्म मुकाबले में न खड़ी हो! क्योँकि, फिल्म का बजट जितना बड़ा होगा, उसका फ़ायदा भी उतनी देर से निकलेगा और नुकसान का अंदेशा भी ज्यादा होगा! 'लंच बॉक्स' जैसी छोटे बजट की फिल्मों में अपनी अदाकारी दिखाने वाले इरफ़ान खान भी मानते हैं कि 90 और 2000 के दशक की शुरुआत में जो दौर था, आज उससे कहीं बेहतर वक़्त है। मसाला फ़िल्मों का सौ करोड़ रुपए कमाना भी छोटी फ़िल्मों के लिए अच्छा है! क्योँकि, ये लो-बजट फ़िल्में बड़े बजट की फिल्मों से कॉम्पटीशन नहीं करती, बल्कि उनकी मदद करती हैं! इनकी वजह से ही छोटी फ़िल्में बॉलीवुड में सरवाइव कर पाएंगी!
  साल दो साल में एक शुक्रवार ऐसा भी आया, जब सिर्फ छोटी और कम बजट की फ़िल्में ही रिलीज हुई! पिछले साल का 26 सितंबर ऐसा ही दिन था, जब कोई बड़ी फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई! इसका फ़ायदा उठाते हुए उस शुक्रवार 8 कम बजट की फ़िल्में रिलीज़ हुई थी! ये फ़िल्मे थीं 3-एएम, बलविंदर सिंह फेमस हो गया, बियांड : द थर्ड काइंड, चारफुटिया छोकरे, डियर वर्सेस बर, देय सी कट्टे, मैनू एक लड़की चाहिए और मुंबई-देहली-मुंबई। इनमें चारफुटिया छोकरे, बलविंदर सिंह फेमस हो गया, देसी कट्टे और मुंबई-देहली-मुंबई ठीकठाक फ़िल्में रहीं। चारफुटिया छोकरे में सोहा अली ख़ान लीड रोल में थीं! जबकि, बलविंदर सिंह फेमस हो गया में मिक्का सिंह और शान थे। वहीं देसी कट्टे में सुनील शेट्टी, जय भानुशाली और अक्षय कपूर लीड रोल्स में दिखाई दिए! 'मुंबई-देहली-मुंबई' में शिव पंडित और पिया बाजपेयी ने लीड रोल किए! 60, 70, 80 और 100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों के दौर के बाद अब लगता है 5, 10 और 15 करोड़ में बनने वाली फ़िल्में आएँगी! इसकी बानगी भी है! 5 करोड़ में बनी 'विक्की डोनर' ने 46 करोड़ कमाए! 10 करोड़ की 'फरारी की सवारी' ने करीब 15 करोड़  कारोबार किया! जबकि, 15 करोड़ में ही बनी 'शंघाई' ने 19 करोड़ कमाए! विद्या बालन जैसी कलाकार को लेकर सिर्फ 8 करोड़ रुपए के बजट से बनी 'कहानी' ने तो 104 करोड़ रुपए कमाकर रिकॉर्ड बनाया! इसी तरह 8 करोड़ की 'पानसिंह तोमर  का आंकड़ा रहा 30.36 करोड़ रुपए। फिर भी सलमान, शाहरुख़ और आमिर खान को तो 100 करोड़ वाले क्लब में शामिल होने का ही शौक है! हो भी क्यों नहीं? जब निर्माता किसी सितारे के साथ फिल्म बनाने के लिए 100 करोड़ का जुआं खेलेगा तो 200 करोड़ की उम्मीद तो करेगा ही!
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… ये है खामोश आदिवासियों का सटीक फैसला!

रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव 

- हेमंत पाल 
  जब से रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव की हलचल शुरू हुई, तभी से माहौल में एक अजीब सा असमंजस और सन्नाटा था! चुनावी शोर के बीच में भी आदिवासी मतदाता अपने दिल की बात नहीं बता रहा था! उसकी इसी खामोशी से भाजपा परेशान थी! अंत तक पार्टी मतदाता के मन की थाह लेने की कोशिश करती रही, पर समझ नहीं सकी! कांग्रेस ने इस ख़ामोशी की आवाज को सुन लिया था! तभी उसे जीत का भरोसा सा हो गया था! भाजपा इस आदिवासी इलाके के चुनाव को जीतकर देश में ये संदेश देना चाहती थी, कि बिहार हारने के बाद भी उसकी जमीनी पकड़ बरक़रार है! लेकिन, ये उसका भ्रम ही निकला! सत्ता और संगठन की सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा अपनी हार नहीं बचा सकी! ख़ास बात ये रही कि भाजपा ने यहाँ अपनी सीट खोई है। जबकि, कांग्रेस ने इस जीत ये साबित कर दिया बिहार जैसा अंडर करंट पूरे देश में है! नरेंद्र मोदी की जिस आँधी ने भाजपा को शिखर पर पहुंचा दिया था, वो जादू अब उतर गया! दिल्ली के बाद बिहार और अब रतलाम-झाबुआ में हार इसी का संकेत ही तो है।
   इस संसदीय क्षेत्र में दो अलग-अलग मूड वाले मतदाता हैं! झाबुआ और आलीराजपुर पूरी तरह आदिवासी मतदाताओं वाला इलाका हैं। यहाँ 85% मतदाता आदिवासी हैं! जबकि, रतलाम जिले की तीनों सीटें अमूमन शहरी है। इनमें रतलाम (शहर) को छोड़कर बाकी कि सभी 7 सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। रतलाम (शहर) में भी जीत का अंतर करीब 20 हज़ार कम हो गया! 2014 के लोकसभा चुनाव में यहाँ भाजपा को करीब 55 हज़ार की लीड मिली थी! नगर निगम चुनाव में ये बढ़त घटकर 24 हज़ार हो गई और अब ये उससे भी नीचे आ गई! झाबुआ और आलीराजपुर की आदिवासी बहुल सभी पाँचों विधानसभा क्षेत्रों से कांतिलाल भूरिया को बढ़त मिली! इसका सीधा सा अर्थ ये निकलता दिखाई दे रहा है कि आदिवासियों ने भाजपा को सिरे नकार दिया! आलीराजपुर ऐसा इलाका है जहाँ कांग्रेस को बढ़त मिलने की उम्मीद नहीं थी, पर वहाँ भी कांग्रेस ने 5 हज़ार से ज्यादा वोटो से भाजपा को पीछे छोड़ा!  
  कांग्रेस के लिए ये जीत आसान नहीं थी! क्योंकि, भाजपा ने सरकार और संगठन को चुनाव में पूरी तरह झौंक दिया था! इसके बावजूद नतीजे उसके पक्ष में नहीं आए! अब इस हार को कुतर्कों के साथ स्वीकारते हुए भाजपा नेता कई तर्क दे सकते हैं! पर वे शायद ये नहीं कहेंगे कि हमने आयातित बड़े नेताओं को चुनाव के मोर्चे पर लगाकर स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को किनारे कर दिया! पेटलावद हादसे के प्रभावितों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की! चुनाव क्षेत्र में कथा और घट-स्थापना जैसे धार्मिक आयोजन किए! पेटलावद हादसे के आरोपी राजेंद्र कांसवा को अब तक पकड़ा नहीं जा सका! हम जीत के अतिआत्मविश्वास में हार की कल्पना भी नहीं कर रहे थे! यदि ये सब नहीं किया जाता तो भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं होती!
  ये एक तरह से भाजपा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' की भी हार है! किसी एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह से 'संसाधन' झोंके गए थे, मतदाता उसे पचा नहीं सका! ये भी कहा जा सकता है कि ये चुनाव जीतने के तात्कालिक उपायों की हार नहीं, बल्कि भाजपा की उस विचारधारा की हार है, जिसके झाँसे में पिछली बार देशभर का मतदाता आ गया था! अब वो उससे मुक्त होने की कोशिश कर रहा है! भाजपा की हार का ये कारण भी माना जा रहा है कि कांतिलाल भूरिया को उसने कमजोर उम्मीदवार मानते हुए, सहानुभूति की खातिर निर्मला भूरिया पर दांव लगाया! लेकिन, सहानुभूति का समीकरण फेल हो गया। क्योंकि, आदिवासी इलाके की राजनीति में सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं होती! फिर यहाँ की कहानी भी अलग है! यहाँ की राजनीतिक जागरूकता को चुनावी प्रपंचों से भरमाया नहीं जा सकता! कांग्रेस ने दशकों तक इस क्षेत्र में अपनी पकड़ कायम रखी है! खुद कांतिलाल भूरिया करीब दो दशक से आदिवासी राजनीति कर रहे हैं! इस चुनाव के नतीजों से साबित भी हो गया कि स्थानीय राजनीति में उनकी धाक अभी कम नहीं हुई! कांग्रेस की जीत का आंकड़ा भले ही 88 हज़ार हो, पर इस जीत  कांग्रेस ने एक लाख से ज्यादा वोटों का गड्ढा भी भरा है! ये सिर्फ एक सीट की हार नहीं, भाजपा के लिए खतरे की घंटी है! यदि किसी मुगालते में न रहते हुए, उसे सुन लिया जाए तो ये पार्टी के लिए अच्छा है!
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Friday, November 20, 2015

झाबुआ-रतलाम संसदीय उपचुनाव : मुकाबला जमीनी पकड़ और कमजोर सहानुभूति में!


- हेमंत पाल 

लोकसभा उपचुनाव के लिए झाबुआ-रतलाम रणक्षेत्र में सेनाएं सजने लगी है! एक पार्टी का सेनापति लगभग तय है! दूसरी सेना ने अस्त्र-शस्त्र जमा कर लिए हैं, पर जंग किसकी अगुवाई में लड़ी जाएगी, अभी तय नहीं! दोनों ही एक-दूसरे की ताकत भाँपने की कशिश कर रहे हैं! अंदर ही अंदर रणनीति बन रही है। दोनों तरफ से जंग फतह करने के दावे किए जा रहे हैं! देखना है कि किसका दावा ज्यादा मजबूत है! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के लिए ये चुनाव नाक का सवाल ज्यादा है। क्योंकि, जिस नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिनों' के नारे की आँधी ने भाजपा के कई उम्मीदवारों की नैया पार लगा दी थी, अब वो आँधी ठंडी पड़ चुकी है। दिसंबर से पहले होने वाला ये उपचुनाव भाजपा के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होगा। ये भी देखना दिलचस्प होगा कि दिलीपसिंह भूरिया कि सहानुभूति की लहर अभी जीवित है या वो भी ठंडी हो गई! 
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  आदिवासी इलाके की राजनीति कि अपनी अलग ही कहानी है! बरसों तक यहाँ कांग्रेस ने अपना ख़म ठोंककर रखा! जब पूरे देश में कांग्रेस के तम्बू उखड़ रहे थे, तब भी झाबुआ में 'पंजा' मजबूत था! पर, अब वो माहौल नहीं है! लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पहली बार जीत का झंडा फहराया! सांसद दिलीपसिंह भूरिया की अचानक मौत ने फिर उपचुनाव के हालात निर्मित कर दिए! अभी तय नहीं है कि राजनीति कि ये रस्साकशी कब होगी, पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ने हर मोर्चे की ताकत का जायजा लेना शुरू कर दिया! 
   झाबुआ-रतलाम लोकसभा क्षेत्र उन नौ सीटों में शामिल है जहां कांग्रेस पिछला चुनाव डेढ़ लाख से कम वोटों से हारी थी। मोदी लहर के कारण कांतिलाल भूरिया दिवंगत भाजपा उम्मीदवार दिलीप सिंह भूरिया से 1 लाख 8 हजार 447 मतों से पराजित हुए थे। लेकिन, और कोई दमदार उम्मीदवार न होने से कांग्रेस की और से कांतिलाल भूरिया का नाम उम्मीदवारी के लिए लगभग फायनल है! पर भाजपा ने अब तक घोषित नहीं किया है कि उसका उम्मीदवार कौन होगा! फिर भी समझा जा रहा है कि स्व. दिलीपसिंह भूरिया की बेटी निर्मल भूरिया उम्मीदवारी की लिस्ट में सबसे ऊपर है! कांग्रेस का संभावित उम्मीदवार भील आदिवासी समाज का होगा! इसलिए भाजपा कोई भी भील जनजाति का ही उम्मीदवार मैदान में उतारना होगा! सोशल इंजीनियरिंग के इस फॉर्मूले में भी निर्मला भूरिया फिट बैठती है।
   जहाँ तक दोनों पार्टियों और उनके उम्मीदवारों का मामला है, उनकी अपनी पहचान है, पार्टी की छवि का भी चुनाव में अपना महत्व है। कांतिलाल भूरिया करीब दो दशक तक प्रदेश में आदिवासी राजनीति कि धुरी रहे हैं! लम्बे समय तक उनकी तूती बोलती रही! स्थानीय राजनीति में आज भी उनकी धाक कम नहीं हुई! जबकि, दिलीप सिंह भूरिया ने 5 बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता! इस बार वे भाजपा के झंडे तले चुनाव लड़े और जीते थे! झाबुआ-रतलाम संसदीय सीट पर दिलीपसिंह भूरिया10वीं बार और कांतिलाल भूरिया 5वीं बार मैदान में थे। दिलीपसिंह ने 1977 से 1996 तक लगातार छह बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और 1980 से 1996 तक पांच बार सांसद चुने गए। यदि दोनों भूरिया की तुलना कि जाए तो जमीनी पकड़ के मामले में कांतिलाल हमेशा ज्यादा मजबूत रहे! राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता के कारण दिलीपसिंह का पलड़ा जमीनी पकड़ को लेकर कमजोर ही रहा! अब, जबकि वे नहीं हैं, भाजपा के सामने फिर वही सवाल खड़ा हो गया है कि भाजपा के टिकट पर किसे चुनाव लड़ाया जाए? 
  जहाँ तक झाबुआ की राजनीति का इशारा है, दिलीपसिंह भूरिया की बेटी निर्मला भूरिया को टिकट दिए जाने की संभावना ज्यादा है! वे पेटलावद से विधायक भी हैं! शुरू में लगा था कि शायद पार्टी उन्हें मौका न दे, पर सहानुभूति वोटों की बात है, तो निर्मला सबसे सशक्त उम्मीदवार हैं! लेकिन, कहा ये भी जा रहा है कि निर्मला को टिकट देने से पेटलावद विधानसभा सीट पर फिर उपचुनाव की नौबत आ सकती है! पहले इशारा ये भी था कि भाजपा ने राजनीतिक जोड़-बाकी लगाकर झाबुआ-रतलाम के लिए भिंड और होशंगाबाद वाले फार्मूले का सुझाव दिया। तर्क यह दिया गया कि आदिवासी इलाके में कांग्रेस के पास जो सबसे दमदार नेता हो, उसे ही भाजपा में ले आओ! ये बात उड़कर सामने भी आई, पर शायद बात बनी नहीं!  
  कांतिलाल भूरिया ने कहा कि इस तरह कि अफवाह उड़ाकर भाजपा चुनाव से पहले उन्हें डैमेज करना चाहती है। भूरिया ने खुद के भाजपा में शामिल होने की बात को सिरे से खारिज कर दिया। कहा कि मेरे डीएनए में सिर्फ कांग्रेस है। उन्होंने इससे भी एक कदम आगे बढ़कर भाजपा को ही कटघरे में खड़ा कर दिया और कहा कि दिलीपसिंह भूरिया की मौत स्वाभाविक नहीं थी। उनकी हत्या हुई है, इसकी सीबीआई से जांच कराई जाना चाहिए। 
   इस संसदीय क्षेत्र में झाबुआ के 5 और रतलाम के 3 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इसमें ताजा रुझान के मुताबिक थांदला, झाबुआ और सैलाना ही वो सीटें हैं, जहाँ कांग्रेस पकड़ के मामले में थोड़ा आगे है। आलीराजपुर, पेटलावद, जोबट, रतलाम लोकल और रतलाम ग्रामीण में फिलहाल भाजपा मजबूत है। पिछले विधासभा चुनाव में पेटलावद पर तो निर्मला भूरिया का कब्जा बरक़रार ही रहा! वे सबसे अधिक 18,668 वोटों से जीतीं। झाबुआ सीट से पवेसिंह पारगी ने 18,375 वोटों से अपने प्रतिद्वंद्वी को हराया! आलीराजपुर में नागरसिंह चौहान की जीत 11,335 वोटों की रही! जबकि, जोबट से माधोसिंह डाबर 9,548 तथा थांदला से कलसिंह भावर ने जीत दर्ज की थी। 
  आलीराजपुर में भाजपा विधायक नागर सिंह के मुकाबले का कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं है। इस कारण यहाँ लोकसभा उपचुनाव में भाजपा को बढ़त मिलना तय है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जरूर नागर सिंह थोड़ा कमजोर लग रहे थे! लेकिन, नगर पालिका चुनाव में कांग्रेस की जीत ने उन्हें सबक दिया और इसके बाद आलीराजपुर में भाजपा की जड़ें और मजबूत हो गई! लोकसभा उपचुनाव में यहाँ कांग्रेस को ज्यादा मेहनत करना पड सकती है। 
  आलीराजपुर जिले की दूसरी विधानसभा सीट जोबट में भी भाजपा को चुनौती देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा! यहाँ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बागी उम्मीदवार को मात देकर माधोसिंह डावर ने कमल खिलाया था। 2008 के विधानसभा चुनाव में जोबट में कांग्रेस प्रत्याशी सुलोचना रावत से हारने वाले माधोसिंह डावर को जनता ने फिर से मौका दिया, आज डावर के सामने कांग्रेस बहुत कमजोर है। 
  यदि निर्मला भूरिया को भाजपा लोकसभा उपचुनाव का उम्मीदवार बनाती है, तो पेटलावद क्षेत्र में भाजपा ताकतवर होगी! क्योंकि, निर्मला भूरिया यहीं से विधायक है। झाबुआ में भाजपा ने सबसे पहले 2003 में पेटलावद सीट जीतकर ही अपना झंडा गाड़ा था। झाबुआ जिले में भाजपा का खाता जैसे भी खुला हो, पर माना यही जाता है कि इसके पीछे दिलीपसिंह भूरिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही! वे यदि कांग्रेस में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी रहे कांतिलाल भूरिया के कारण पार्टी नहीं छोड़ते और निर्मला को पेटलावद से भाजपा का उम्मीदवार नहीं बनाते, तो शायद भाजपा का खाता नहीं खुलता! 
   थांदला में कांग्रेस पहले भी बेहतर थी और आज भी उसकी स्थिति ठीक कही जा सकती है। यहाँ से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते कलसिंह भाबर विधायक हैं। उन्होंने भाजपा के बागी की तरह विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते! वे भले ही निर्दलीय माने जाते हों, पर भाजपा उन्हें अपना हो मानती आई है। यदि यहाँ कांग्रेस को बढ़त मिलती है तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! 
  झाबुआ विधानसभा सीट भी कांग्रेस के लिए उम्मीदों से भरी है। यदि कांग्रेस मतदाताओं का मानस बदलने में कामयाब हुई, तो इस सीट से कांग्रेस को बढ़त मिलने के आसार है। विधानसभा चुनाव में कांतिलाल भूरिया की भतीजी कलावती भूरिया ने जेवियर मेड़ा को निपटाने के लिए निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था। कलावती अपनी कोशिशों में सफल भी हुई! लेकिन, इस सीट पर पूर्व विधायक जेवियर मेड़ा को निपटाने के बजाए यदि कलावती चुनाव लडऩे से रोक लिया जाता, तो झाबुआ के नतीजे भाजपा के लिए चिंताजनक हो सकते थे। 
   रतलाम जिले की तीन विधानसभा सीटें इस संसदीय क्षेत्र में आती हैं रतलाम शहर, रतलाम ग्रामीण और सैलाना! इसमें सैलाना ही वो इलाका है जहाँ कांग्रेस भाजपा से आगे रही थी! रतलाम संसदीय सीट में सैलाना विधानसभा से भाजपा को तगड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। यहां भाजपा के वोट बैंक में अप्रत्याशित गिरावट आई। प्रभुदयाल गेहलोत के दबदबे के कारण यहाँ भाजपा हमेशा ही कमजोर रही है।   
   रतलाम शहर कभी कांग्रेस के वोटों की फसल का गोदाम रहा है, पर अब इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का दबदबा है। कांतिलाल भूरिया के लिए नुकसान का एक बड़ा कारण ये भी है कि कभी उनके ख़ास सिपहसालार रहे राजेश शर्मा अब भाजपा के पाले में चले गए! इसके अलावा रतलाम में कभी प्रभावशाली रहे कांग्रेस के नेता खुर्शीद अनवर और मोतीलाल दवे परिवार भी कांतिलाल भूरिया के लिए मददगार होंगे, इसमें शक है। नगर निगम में भी 69 पार्षदों में कांग्रेस के 13 ही पार्षद हैं, उनमे भी 7 या 8 ही कांतिलाल भूरिया का साथ देंगे! कांग्रेस को यहां तभी फ़ायदा हो सकता है जब वो भाजपा की फूट में सेंध लगा ले! रतलाम ग्रामीण में भी भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला बराबरी का नहीं कहा जा सकता! यहाँ भी भाजपा थोड़ा भारी है।   
  राजनीति के जमीनी आकलन और कागजों पर भाजपा भले ही ताकतवर नजर आ रही हो, पर आदिवासी मतदाता के मानस को भांप पाना आसान नहीं है। दशकों तक कांग्रेस की परंपरागत सीट रही झाबुआ आज कांग्रेस की झोली में नहीं हो, पर पांसा पलटते में देर नहीं लगती! संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस और भाजपा में हार-जीत का अंतर भी इतना बड़ा भी नहीं था, कि उसे पाटा नहीं जा सकता! कांग्रेस यदि वोटर्स की मानसिकता बदलने में कामयाब रही तो इस लोकसभा उपचुनाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं। 


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Sunday, November 15, 2015

दर्शक को जानदार कहानी चाहिए, शानदार सेट नहीं!

- हेमंत पाल 

    किसी भी फिल्म की सफलता का फार्मूला क्या है, ये किसी को नहीं पता! दर्शकों को फिल्म की कहानी पसंद आएगी, कलाकारों की एक्टिंग को सराहा जाएगा, गी
त और संगीत फिल्म को हिट कराएँगे या फिर भव्य सेट और फिल्म का बड़ा बजट हिट कराने का फार्मूला बनेगा? ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब अभी तक कोई खोज नहीं पाया है। लेकिन, ये तय है कि कहानी, एक्टिंग या गीत-संगीत से तो फिल्म की सफलता की उम्मीद की जा सकती है, पर सेट की भव्यता और फिल्म का बड़ा बजट कभी किसी फिल्म के हिट होने का कारण नहीं बन सकता! इस बात को सलमान खान की नई फिल्म 'प्रेम रतन धन पायो' के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म की संभावित सफलता में इसके भव्य सेट और करोड़ों के बजट को आकलित किया गया और हाइप क्रिएट किया गया! पर, फिल्म देखकर निकलने वाले दर्शकों के चेहरे पर फिल्म से संतुष्ट होने जैसे भाव नहीं दिखे! ये फिल्म पैसे कमाने के नजरिए से भले ही सफल कही जाए! लेकिन, राजश्री की फिल्मों से दर्शक जो उम्मीद करते हैं, वो कुछ भी दर्शकों को इस फिल्म में शायद नजर नहीं आया!
  थोड़ा पलटकर देखा जाए, तो बड़े बजट और भव्य सेट वाली फिल्मों की सफलता हमेशा ही संदिग्ध रहती है। संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' का बजट तब करीब पचास करोड़ आँका गया था। इसमें भव्‍य सेट, माधुरी दीक्षित का लाखों का लहंगा और गहने थे, जिसने फिल्‍म को भव्‍यता प्रदान की! इस फिल्‍म की कामयाबी का कारण शानदार अभिनय था, न कि भव्‍य सेट, महंगे गहने और कपडे! क्योंकि, फिल्‍म का बडा बजट और भव्‍यता ही किसी फिल्‍म की सफलता का कारण बने ये संभव नहीं है! 
   'देवदास' के कमर्शियली हिट होने के बाद तो बड़े बजट की फिल्‍मों का चलन शुरू हो गया। लेकिन, भ्रम जल्दी दूर हो गया! अनिल शर्मा की सौ करोड़ कि फिल्‍म 'द हीरो' औंधे मुंह गिरी! व्‍यवसाय के नाम पर फिल्‍म फ्लॉप रही। संजय लीला भंसाली की 'देवदास' ने रिकॉर्ड तोड़े, पर भंसाली की ही अगली बड़े बजट की फिल्‍म 'सांवरियां' ने बुरी तरह फ्लॉप हो गई! इसके बाद बड़े बजट की फिल्‍मों के इस हश्र से फिल्मकारों को समझ में आ गया कि किसी भी फिल्‍म के हिट होने का कारण सेट की भव्‍यता और बड़ा बजट नहीं होता! इसके लिए जरुरी है जानदार कहानी, शानदार एक्टिंग और सुमधुर गीत-संगीत! ये फैक्टर मिलकर ही फिल्‍म की सफलता की कहानी रचते हैं।
   इसलिए कि आज के दर्शकों के लिए फिल्मों की भव्यता ज्यादा मायने नहीं रखती! कम और औसत बजट की फिल्मों को दर्शक मिलने का कारण भी यही है।अब ये फिल्में अपनी लागत से कई गुना ज्यादा बिजनेस करने में भी समर्थ हैं। स्पष्ट है कि आज के दर्शक फिल्मों में भव्य सेट  लकदक नहीं, दमदार कहानी देखना चाहते हैं। आमिर खान की पत्नी किरण राव की 5 करोड़ में बनी फिल्म 'धोबी घाट' ने लागत का 3 गुना बिजनेस किया! यही स्थिति 'तनु वेड्स मनु' और इसकी सीक्वल 'तनु वेड़्स मनु रिटर्न्स' की रही! राजकुमार गुप्ता की 9 करोड़ में बनी 'नो वन किल्ड जेसिका' ने 28 करोड़ रुपये की कमाई की। उड़ान, पीपली लाइव और लंच बॉक्स' ने भी अपनी लागत से कहीं ज्यादा कमाई करके निर्माता को मालामाल कर दिया!
  कम बजट की इन फिल्मों की सफलता बताती है कि आज के दर्शक मनोरंजन के साथ गुणवत्ता भी देखते हैं। यही कारण है कि अनजान चेहरों वाली पर सशक्त कहानी और कसी हुई पटकथा वाली कई कम बजट की फिल्मों को सराहना मिलती है, पर बेंग-बेंग, जोधा अकबर, वीर जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हो पाती! क्योंकि, दर्शक आज बड़े बजट की बेकार फिल्मों को देखने की बजाए कम बजट की अच्छी फिल्में देखकर ज्यादा खुश होते हैं। सूरज बड़जात्या ने 'प्रेम रतन धन पाया' की सफलता के लिए जबरदस्त हाइप बनाया था! हफ्तेभर पहले एडवांस बुकिंग शुरू कर दी, प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी, आज के सबसे चमकते सितारे सलमान खान को डबल रोल में फिल्म में उतारा फिर भी क्या वे उम्मीद के मुताबिक फिल्म बनाकर दर्शकों को ख़ुशी दे पाए? शायद नहीं! फिल्म देखकर थिएटर से बाहर आता दर्शक सबसे अच्छा समीक्षक होता है। उसके कमेंट ही फिल्म का सही आकलन होते हैं! ' प्रेम रतन धन पायो' देखकर निकले दर्शकों ने भी फिल्म के प्रति अच्छी भावना व्यक्त नहीं की! भव्य सेट और ढेर सारे कलाकारों भीड़  बावजूद वो कहानी गुम थी, जिसकी तलाश में दर्शक थिएटर तक गया था!   

Saturday, November 14, 2015

शाब्दिक हिंसा से लहूलुहान होती राजनीति!


इन दिनों पूरे देश में शाब्दिक हिंसा का दौर है! जिसे, जब मौका मिलता है शब्दों के तीर चलाने में देरी नहीं करता! इस काम में सबसे आगे हैं देश के निरंकुश नेता! प्रतिद्वंदी नेताओं पर बयानबाजी करते-करते ये नेता भूल जाते हैं कि उन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है! अभिनेता शाहरुख़ खान के असहिष्णुता वाले बयान पर इतना उबाल आया कि कई नेता उसके पीछे पड़ गए! इधर, मध्यप्रदेश में भी कई नेता जुबानी बवासीर से पीड़ित होते जा रहे हैं! कभी ये बयान राजनीतिक होते हैं, कभी कुछ और! बाद में खंडन-मंडन या बयान वापसी की बात  जाती है! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जुबान खोलने से पहले नेता दो पल सोच लें कि वे क्या बोलें और क्या नहीं?
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  - हेमंत पाल 
   शब्दों से किसी पर वार करने की मंशा भी हिंसा कहलाती है और ऐसी किसी इच्छा का न होना अहिंसा! अहिंसा का सीधा सा तात्पर्य शारीरिक हिंसा न करना! क्योंकि, यह स्पष्ट रूप में दिखाई देती है। लेकिन, ये भी सच है कि शरीर पर लगी चोट के निशान तो वक़्त के साथ धूमिल हो जाते हैं, पर वाचिक हिंसा सबसे ज्यादा आघात करती है! इस तरह की हिंसा सीधे दिल पर वार करती है। कहा जाता है कि वाणी किसी भी व्यक्ति के अंतर्मन को समझने का सबसे अच्छा माध्यम है। यानी जिसकी जैसी सोच होती है, वैसे ही उसके बोल होते हैं! ये बात जीवन के हर मोर्चे पर लागू होती है! निजी जीवन में भी, व्यवहार में भी और कर्म में भी! कुछ इसी तरह की शाब्दिक हिंसा आजकल मध्यप्रदेश के कुछ मंत्री और संगठन जुड़े लोग कर रहे हैं। प्रदेश की पशुपालन मंत्री कुसुम महदेले एक बच्चे को लात मारने के बाद 'राजनीतिक किरकिरी' का सामना कर रही हैं। शिवराज-सरकार में ऐसे कई मंत्री हैं, जो गाहे-बगाहे अपनी हरकतों या अटपटे बयानों के कारण विवादों में घिर जाते हैं।
  लोग जनप्रतिनिधियों से ये उम्मीद नहीं करते कि उनके मुँह से अनर्गल शब्द निकले! इसलिए कि जनप्रतिनिधियों को जनता खुद चुनती है, इसलिए लोग नहीं चाहते कि उनका कोई प्रतिनिधि उनसे ऐसा व्यवहार करे! कुसुम महदेले ने पन्ना में जो किया वो इसीलिए अक्षम्य हैं कि वे जनता द्वारा चुनी हुई प्रतिनिधि हैं, पर मंत्री होने के गुरुर में चूर होकर लात मारने जैसा कृत्य कर बैठी! आश्चर्य इस बात पर कि एक रूपए के लिए गिड़गिड़ाते बच्चे पर इस महिला मंत्री को दया नहीं आई! अपने अक्खड़ व्यवहार के लिए पहले भी कुसुम महदेले विवादों में रही हैं! कुछ दिनों से मंत्रियों की बयानबाजी पर अंकुश न होने से जब भी किसी मंत्री को मौका मिलता है, कुछ भी बोल देता है!  प्रदेश में सूखे और कर्ज की स्थिति से परेशान होकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं! लेकिन, इस मामले संवेदना दिखाने बजाए कई मंत्रियों के बेतुके बयान सामने आ रहे हैं! किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर महदेले ने कहा था 'बेटे की मौत पर नहीं करते सुसाइड, फसल बर्बादी पर कैसे मर गए?' इस महिला मंत्री ने कुछ दिनों पहले किसानों से मुलाकात के दौरान कई बार अपने तीखे तेवर दिखाए थे। सोयाबीन की फसल बर्बाद होने पर उन्होंने किसानों को डांटते हुए कहा था कि 'उन्हें क्या किसी डॉक्टर ने कहा कि वो हर साल सोयाबीन की फसल बोएं और अपनी जमीन का कबाड़ा कर लें।
  ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने प्रदेश सरकार की शराब नीति का बचाव करते हुए दावा किया कि गुजरात में शराब पर पाबंदी के बावजूद वहाँ शराब के कस्टमर कई गुना बढ़ गए! गुजरात में बड़े-बड़े शराब किंग तैयार हो गए, जिनकी करोड़ों-अरबों की जायदाद है। गोपाल भार्गव सरकार के उस फैसले का बचाव कर रहे थे, जिसमें राज्य सरकार ने देसी शराब ठेकों पर अंग्रेजी शराब बेचने की मंजूरी दी है। इसी कोशिश में भार्गव अपनी ही पार्टी की दूसरी राज्य सरकार की विफलता पर भी इशारों-इशारों में उंगली उठा बैठे! देखा जाए तो ये सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी पर ही ऊँगली उठाई गई है। इससे पहले इसी मंत्री ने कहा था 'महात्मा गांधी मेरे सपने में आए थे! एफडीआई पर कांग्रेस के रवैये को लेकर वे रो रहे थे! जिन अंग्रेजों से गांधीजी ने लड़ाई लड़ी, पिछले दरवाजे से फिर वे देश में एफडीआई के जरिए प्रवेश कर रहे हैं। आज यदि गांधीजी जिंदा होते तो गोडसे उनकी हत्या नहीं करते, बल्कि वे ही अपनी कनपटी में गोली मारकर आत्महत्या कर लेते।' ये प्रतिद्वंदी पार्टी पर कैसी शाब्दिक हिंसा है? चीन की यात्रा से लौटकर भी भार्गव ने वहाँ के अनुभव भी ख़ास अंदाज में सुनाए और कहा कि चीन तो भारत से चीन 100 साल आगे निकल गया। भारत न लड़ सकता है और न सियाचिन वापस ले सकता है। किसी मंत्री से क्या इस तरह के बयान की उम्मीद की जाना चाहिए?
  विवादास्पद बयान देने में शिवराज-मंत्रिमंडल के मंत्रियों में सबसे आगे हैं गृह मंत्री बाबूलाल गौर! वो किसी विरोधी नेता या पार्टी पर तो ऊँगली नहीं उठाते पर जो बोलते हैं, वो मजाक जरूर बन जाता है! उन्होंने एक बार शराब पीना शान की बात बताया और कहा कि शराब पीना स्टेटस सिंबल है, इससे अपराध नहीं बढते! कहा कि जब कोई पीकर डगमगाता है, तब अपराध बढते हैं जब कोई समझकर पीता है तो उससे अपराध नहीं बढता! उन्होंने तो शराब पीने को लोगों का संवैधानिक अधिकार तक बताया! इसके पहले गौर ने कहा था कि बलात्कार एक सामाजिक अपराध है, जो पुरुष और महिला पर निर्भर करता है।' 
   बात यहीं तक नहीं! बाबूलाल गौर की एक कार्यक्रम के दौरान जुबान फिसली तो फिसलती चली गई। रूसी महिलाओं के साथ हुए मुलाकात का जिक्र उन्‍होंने कुछ इस अंदाज में किया कि कोई भी खुद को हंसने से रोक नहीं पाया! उन्होंने कहा कि एक बार कुछ रूसी महिलाओं ने उनसे पूछा कि वे बिना चेन और बेल्‍ट की मदद से धोती कैसे पहनते हैं? मैंने कहा कि मैं खोलकर कैसे दिखाऊं? इस तकनीक को सीखने के लिए आपको अकेले मुझसे मिलना होगा! रूसी यात्रा के अनुभव का जिक्र करते हुए गौर ने बताया कि रूस की औरतें काफी मोटी होती हैं। उन्‍होंने मुझे गले लगा लिया। वो मुझे चूमने लगीं। मैंने उनसे कहा कि अगर ये फोटो बीजेपी वाले देख लेंगे तो मुझे टिकट ही नहीं देंगे। उन्‍होंने बताया कि रूस में सम्मान देने का तरीका है, भारत में ऐसा होता तो हंगामा खड़ा हो जाता। अपने यहां अगर कोई ऐसे सम्‍मान करे तो जूते खा ले! यह उनकी परंपरा है। मुझे इस पर बहुत हैरानी हुई। एक बार उन्‍होंने कहा था कि महिलाओं को ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जिससे कोई आकर्षित हो! वहीं, गौर साहब ने व्यापमं मामले में आरोपियों की लगातार हो रही मौतों के बारे में विवादित बयान दिया था कि आरोपियों की मौत सामान्य है, जो दुनिया में आता है उसे जाना ही है! 
  मौसम की मार और सराकर की बेरूखी से एक ओर किसान परेशान है, तो दूसरी ओर इस मसले पर राजनीति रूकने का नाम नहीं ले रही। अधिकांश मंत्री आत्महत्या पर नई थ्योरी दे रहे हैं! मंत्रियों के मुताबिक किसान खेती खराब होने की वजह से नहीं, बल्कि परिवारिक कारणों से मौत को गले लगा रहे हैं। वन मंत्री डॉ. गौरीशंकर शेजवार भी ऊल-जुलूल बयानबाजी में किसी से पीछे नहीं हैं। उन्होंने टाइगर की गिनती से जुड़े मीडिया के एक सवाल पर टका-सा जवाब देते हुए कहा था कि क्या टाइगरों को लाइन से खड़ा करके गिने! जैसे गणना होती है करते हैं। कोई प्रतिस्पर्धा तो है नहीं है! यह बयान उन्होंने अपने विभाग की रिपोर्ट पेश करते हुए दिया था। 
  मंत्रियों की बयानबाजी तो अपनी जगह है, पर प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान भी अपने विवादास्पद बयानों के कारण हमेशा ही सुर्खियों में बने रहते है। उनके अनमोल वचनों का भी लम्बा लेखा-जोखा है! नरसिंहपुर के करेली में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि भाजपा के उम्मीदवार को जिताइए! अगर नहीं जीता तो विकास के लिए धन कहाँ से आएगा? अगर आप सत्‍तारुढ़ पार्टी के प्रत्‍याशी को जिताएंगे, तो ही विकास के लिए धन भी अधिक मिलेगा! अध्यापकों आंदोलन के बारे में अध्यक्षजी ने कहा था कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने इतना दिया है उसके बाद भी अध्यापकों का पेट नहीं भरता है। इतना तो किसी ने नहीं दिया था! व्यापमं मामले की जांच सीबीआई से कराने की बात पर नंदकुमार सिंह चौहान ने कहा कि 'सीबीआई हाई कोर्ट से बड़ी संस्था नहीं है। अभी जांच कोर्ट की देख-रेख में हो रही है। कोर्ट यदि एसटीएस, एसआईटी के अलावा सीबीआई या किसी दूसरी एजेंसी से जांच कराए तो संगठन और सरकार को इसमें कोई आपत्ति नहीं है।' 
   नंदकुमार चौहान सिर्फ बयान ही विवादस्पद नहीं देते, कुछ सामान्य बोलते हैं तो वो भी सुरखी बन जाता है। सागर जिले की खुरई विधानसभा में कार्यकर्ताओं के अभ्यास वर्ग में भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में नंदकुमार चौहान ने इतने कसीदे गढ़े कि सारी सीमाएं लांघ गए! उन्होंने मोदी को असाधारण व्यक्ति बताते हुए कहा कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हमारी इमेज विश्व स्तर पर कहाँ से कहाँ पहुंच गई! मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले देश भिखमंगा था, उनके आने के बाद देश तरक्की का रहा है। इसी मंच पर उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की भी जमकर तारीफ की! कहा कि शिवराज का मुख्यमंत्री बनना ईश्वर का चमत्कार है। उन्होंने प्रदेश की सात करोड़ जनता की जिंदगियों में खुशियों का रंग भरा है। सरकार और संगठन दोनों ही तरफ से जब ऐसे 'बोल वचनों' की बौछार होती रहती हो, तो माना जा सकता है कि किसी की भी जुबान पर लगाम लगाने का कोई इंतजाम नहीं किया गया! इसी वाचिक हिंसा ने प्रदेश में माहौल बिगाड़ रखा है! 
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