Saturday, August 28, 2021

दर्शकों का दिल चुराने वाले ये फिल्मी चोर

- हेमंत पाल

   फिल्म के कथानकों में 'चोर' फार्मूला लम्बे अरसे से हिट रहा। क्योंकि, फिल्मों में हीरो की छवि कुछ इस तरह गढ़ी गई है, कि वो जो भी करे, सही होता है! फिर चाहे वो गुंडागर्दी, आवारागर्दी हो या फिर चोरी-डकैती! उसके गलत कामों को भी कथानकों में घुमा-फिराकर सही साबित किया जाता है! दर्शकों की पसंद और हिंदी फिल्मों का फार्मूला यही है। फिल्म में यदि हीरो चोर है, तो ऐसा कारण बताया जाता है कि दर्शकों को उससे सहानुभूति हो जाती है और उसका चोरी करना जायज लगता है। अशोक कुमार की 'किस्मत' से लगाकर 'धूम' सीरीज तक यही मसाला इस्तेमाल किया जा रहा है! इतिहास को टटोला जाए तो 'चोर' शीर्षक से बनी ज्यादातर फिल्में और गाने पसंद किए गए। इसलिए कि कथानकों में 'चोर' का कैरेक्टर ब्लैक-शेड वाला न होकर ग्रे-शेड वाला होता है, जो नायिका से लेकर दर्शकों का दिल चुराकर बॉक्स ऑफिस लूटने में सफल होता है। 
     हिंदी फिल्मों में हीरे चुराने वाले चोर भी बहुत नज़र आए। लेकिन, उन्होंने हीरोइन का दिल चुराने में भी कसर नहीं छोड़ी! फिल्म यदि दो भाईयों पर आधारित है और उसमें एक भाई पुलिसवाला है, तो यकीन मानिए दूसरा भाई चोर ही होगा और हीरोइन भी पुलिस वाले भाई के बजाय चोर पर ही डोर डालती है। फिल्मों के ये चोर या तो अकेले चोरी करते थे या पूरी गैंग ये काम करती है। फिल्मों में नायक कभी रोटी के लिए चोरी करता है, तो कभी बीमार मां की दवाई के लिए। कभी तो नायक चोरी करता ही नहीं और उस पर चोरी का इल्जाम लगता है। ऐसे चोरों की बेबसी गीतों में सुनाई देती है जैसे 'नया जमाना' के गीत 'चोरों को सारे नजर आते हैं चोर!' कुछ दिल चोर तो हद ही करते हैं। वे अपनी महबूबा पर रौब गांठते हुए कहते हैं 'चांद चुरा के लाया हूं।' सलीम जावेद ने तो अपनी फिल्म 'दीवार' में अमिताभ के हाथ पर 'मेरा बाप चोर है' लिखकर हिन्दी सिनेमा में चोर शब्द को न केवल अमर कर दिया, बल्कि बॉलीवुड को चोर विषय पर हिट फिल्म बनाने का एक फार्मूला भी बता दिया है। 
    चोर फॉर्मूले के हिट होने का बड़ा सबूत यह है कि पहली सुपर हिट फिल्म कहलाने का श्रेय 1943 में बनी ज्ञान मुखर्जी की अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' को जाता है। कोलकाता के एक सिनेमाघर में इस फिल्म ने लगातार साढ़े तीन साल चलने का रिकार्ड भी बनाया। मुंबई के मराठा मंदिर टॉकिज में भी 1975 में प्रदर्शित 'शोले' का लगातार पांच साल से ज्यादा चलने का 32 साल का रिकॉर्ड रहा! 'किस्मत' में अशोक कुमार ने चोर की भूमिका निभाई, तो 'शोले' के दोनों नायक धर्मेंद्र और अमिताभ भी चोर ही थे। साठ के दशक में आई फिल्म 'हाफ टिकट' (1962) में किशोर कुमार एक हीरा स्मगलर का पीछा करते रहे। हीरा चोर हीरो फार्मूले की पहली फिल्म 'ज्वेल थीफ' थी, जिसमें दर्शक देव आनंद को आखिरी तक दर्शक चोर समझते हैं, पर क्लाइमेक्स में अशोक कुमार चोर निकलता है। देव आनंद भी हर दूसरी फिल्मों में चोर ही नहीं, महिला दर्शकों के चितचोर भी बनें। राजकपूर ने 'आवारा' में चोर की भूमिका निभाकर दुनियाभर में वाहवाही लूटी, तो उनके भाई शम्मी कपूर भी ज्यादातर फिल्मों में चोर बने। शम्मी कपूर ने 'हम सब चोर हैं' में काम किया था। सबसे छोटे भाई शशि कपूर तो इससे एक कदम आगे निकले। वे एनसी सिप्पी की एक फिल्म में न केवल चोर बने, बल्कि उन्होंने 'चोर मचाए शोर' का भी खूब शोर मचाया। 'चोर चोर' के हीरो खुद विजय आनंद थे। 
    फिल्मों में कुछ छोटे-मोटे चोर होते हैं, तो कुछ लंबा हाथ मारने वाले शातिर चोर! बीआर चौथा की फिल्म 'वक्त' में राजकुमार ऐसे ही रौबदार चोर बने थे। कभी-कभी तो फिल्म के कॉमेडियन को भी यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है। फिल्मों के कई निर्माता-निर्देशकों को 'चोर' विषयों पर फिल्में बनाने या निर्देशित करने में महारत हासिल थी। गुरुदत्त ने भी पहले 'चोर' विषय पर 'सीआईडी' और '12'ओ क्लॉक' जैसी फ़िल्में बनाई थी। चोर बनने वाले कुछ बड़े अभिनेताओं में धर्मेन्द्र भी हैं, जिनकी करियर की पहली बड़ी हिट फिल्म 'फूल और पत्थर' (1966) थी, जिसमें वे चोर बने थे। बाद में 'शालीमार' और 'दो चोर' में भी वे चोर का किरदार किया। 1979 में आई राकेश कुमार की फिल्म 'मिस्टर नटवरलाल' में अमिताभ बच्चन चोर थे। इसके बाद 'डॉन' और 'कांटे' में भी अमिताभ चोरी करते दिखाई दिए। 'आँखें' में वे दो अंधों की मदद से बैंक में चोरी करवाते हैं। 'बंटी और बबली' में अभिषेक बच्चन और रानी मुख़र्जी चोर जोड़ी बने थे। हिन्दी फिल्मों में शायद ही कोई अभिनेता हो, जिसने कभी चोर का किरदार अदा न किया हो! मनोज कुमार जैसा देशभक्त कलाकार भी 'बेईमान' में चोर का चरित्र निभा चुके हैं। 1970 में रिलीज हुई मनमोहन देसाई की फिल्म 'सच्चा झूठा' में राजेश खन्ना का डबल रोल था, एक में वे चोर ही थे। चोरी पर बनी अनुभव सिन्हा की फिल्म 'केश' में अजय देवगन और सुनील शेट्टी थे। 
   'द बर्निंग ट्रेन' में भी एक हीरे के चोर की थी। 'डेल्ही बेली' की कहानी भी हीरे-जवाहरात की चोरी पर थी। कृष्णा शाह की 'शालीमार' में धर्मेंद्र सहित कुछ दूसरे चोर हीरा चोरी करने की चुनौती स्वीकार करते हैं। 'हीरा पन्ना' की पूरी कहानी हीरे के नेकलेस की चोरी पर घूमती रही। चोर शीर्षक से बनी फिल्मों में ज्वैल थीफ, चोरी मेरा काम, चोर-चोर, दो चोर, तू चोर में सिपाही, हम सब चोर हैं, अलीबाबा चालीस चोर, चोर मचाए शोर, बम्बई का चोर, चोर और चांद, थीफ ऑफ बगदाद, बैंक चोर, नामी चोर, महाचोर, चोर बाजार प्रमुख है। कुछ ऐसी फिल्में भी हैं, जिनमें नायक तो शरीफ होता है, लेकिन नायिकाएं चोर। जीनत अमान, मुमताज, हेमा मालिनी और श्रीदेवी ऐसी भूमिकाओं में खूब जमी। 'शान' में परवीन बाबी और बिंदू हीरा चोर बनी थी। 'डॉली की डोली' में सोनम कपूर भी चोर बनी थी, जो शादी की पहली रात गहने चुराकर फरार हो जाया करती थी। नीतू सिंह की एक फिल्म का शीर्षक ही 'चोरनी' था।
    2014 में आई 'हैप्पी न्यू ईयर' में शाहरुख़ खान अपनी गैंग के साथ हीरे की चोरी करने विदेश पहुँच जाते हैं। फराह खान ने तो 'तीस मारखां' में भी अक्षय कुमार को चोर बनाया था। साजिद नाडियादवाला की फिल्म 'किक' में सलमान खान ने भी चोर का किरदार किया था। विक्रमजीत सिंह की फिल्म 'रॉय' में रणबीर कपूर ने चोरों पर फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर कबीर का किरदार किया था। नीरज पांडेय की 'स्पेशल-26' में अक्षय कुमार हीरा व्यापारी के शो रूम में फर्जी इनकम टैक्स ऑफिसर बनकर गैंग के साथ चोरी करते हैं। निर्देशक दिबाकर बनर्जी की फिल्म 'ओए लक्की लक्की ओए' ने नेशनल अवॉर्ड, फिल्मफेयर अवार्ड, आईफा अवार्ड जीते।यह फिल्म सुपर चोर के नाम से प्रसिद्ध बंटी की रियल लाइफ पर आधारित थी। फिल्म में अभय देओल ने बंटी चोर के किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाया। अब्बास-मस्तान की फिल्म 'प्लेयर्स' में सभी किरदार चोरी करते दिखे। अभिषेक बच्चन, नील मुकेश, बिपाशा बसु, बॉबी देओल, आफताब शिवदासानी, जॉनी लीवर 10 करोड़ के सोने की चोरी के लिए प्लान बनाते हैं। फिल्म 'लुटेरा' में रणवीर सिंह ने भी चोर की भूमिका निभाई थी। 
   चोरों पर फ़िल्में बनाने में यशराज बैनर को महारत है। उनकी 'धूम' सीरीज आधुनिक तकनीक से चोरी करने वाले चोरों पर ही है। 'धूम' की सफलता के बाद 'धूम-2' और 'धूम-3' बनाई गई। तीनों ही 'धूम' फिल्मों को अच्छी सफलता मिली। 'धूम-3' तो हिंदी की सबसे सफल छह फिल्मों में एक है। यशराज बैनर ने चोर और चोरी पर कुछ और फ़िल्में बनाई है। 2014 में आई फिल्म 'गुंडे' में रणवीर सिंह और अर्जुन कपूर कलकत्ता के कोयला चोर थे। इससे पहले रणवीर सिंह ने 'लेडीज वर्सेस रिक्की बहल' में चोर की भूमिका निभाई थी। 'बदमाश कंपनी' में चार दोस्त एक कंपनी बनाकर मनी लॉन्ड्रिंग करते हैं। इस बैनर की फिल्म 'बंटी और बबली' भी बड़ी हिट फिल्मों में शामिल है। लेकिन, अमिताभ और आमिर की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' ऐसी फ्लॉप हुई कि उसने पानी नहीं माँगा।  
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#फिल्मी चोर #Yashraj #Dhoom

Friday, August 20, 2021

चार दशक बाद भी 'सिलसिला' थमा नहीं!

हेमंत पाल 

    कुछ फ़िल्में ऐसी बनी जो अलग-अलग कारणों से हमेशा याद रखी जाएंगी। 'मदर इंडिया' को उसकी कहानी के अलावा सुनील दत्त और नरगिस के अभिनय के लिए याद करते हैं। 'मुगले आजम' फिल्म उसकी मेकिंग के लिए फिल्म इतिहास में दर्ज है। 'शोले' को गब्बर सिंह की कभी न भूलने वाली भूमिका के लिए भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे ही 'सिलसिला' को उसकी विवादास्पद स्टार कास्ट के लिए याद किया जाता रहेगा। अमिताभ बच्चन, रेखा और जया बच्चन की फिल्म ‘सिलसिला’ भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसे अमिताभ बच्चन की जिंदगी से जोड़कर देखा जाता है। इसे रिलीज हुए 40 साल (14 अगस्त 1981) हो गए, लेकिन लगता नहीं कि इतना लम्बा अरसा गुजर गया। यश चोपड़ा ऐसे निर्देशक माने जाते थे, जिन्हें प्रेम को लेकर दर्शकों की नब्ज का पता था। जैसे ही फिल्म के कलाकारों के नाम सामने आए दर्शकों ने कयास लगा लिया था कि फिल्म की कहानी क्या होगी। ये अमिताभ, जया और रेखा के लव ट्राएंगल की निजी जिंदगी की कहानी तो नहीं थी, पर देखा उसी तरह गया।
    'सिलसिला' को कई कारणों से बड़ी फिल्म माना गया था। उस दौर में विवाहेत्तर रिश्तों के कारण इस फिल्म की कहानी को आधुनिक भी समझा गया। ये भी चर्चा चली कि फिल्म की कहानी अमिताभ, जया और रेखा के रियल लाइफ लव स्टोरी पर आधारित थी। फिल्म महंगी भी थी। ये इकलौती फिल्म थी, जिसमें शशि कपूर ने अमिताभ बच्चन के बड़े भाई का किरदार निभाया था। इससे पहले शशि कपूर फिल्मों में उनके छोटे भाई ही बनते रहे, जबकि उम्र में वे अमिताभ से बड़े थे। यश चोपड़ा को उम्मीद थी कि उन्होंने फिल्म के लिए हरसंभव सभी कुछ किया है, इसलिए फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल करेगी। लेकिन, यश चोपड़ा की उम्मीदें धराशाई हो गई। फिल्म के गीत-संगीत को पसंद किया गया, पर फिल्म नहीं चली। 'सिलसिला' फ्लॉप की कई वजहों में से एक यह भी रही कि फिल्म में जया बच्चन को शुरू में अमिताभ बच्चन की होने वाली भाभी दिखाया गया। बाद में उन्हें अमिताभ की पत्नी बना दिया। अमिताभ और रेखा ने इस फिल्म की शुरुआत में प्रेम के जो अहसास भरे दृश्य कैमरे के सामने दिए थे, वे वास्तविक से अलग नहीं थे।
   अमिताभ बच्चन और रेखा के रिश्तों को लेकर कई कहानियां बॉलीवुड के गलियारों में सुनाई देती रही। इतने साल बाद भी इनका रिश्ता साफ नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी डायरेक्टर के लिए अमिताभ के साथ रेखा और जया बच्चन को लेकर फिल्म बनाना आसान नहीं था। लेकिन, ये चुनौती यश चोपड़ा ने ली और उसे पूरा भी किया। वास्तव में तो इस फिल्म की कहानी अमिताभ बच्चन, परवीन बाबी और स्मिता पाटिल को लेकर गढ़ी गई थी। कुछ सीन की शूटिंग भी हो चुकी थी। लेकिन, अमिताभ बच्चन इस कास्टिंग से सहमत नहीं थे। उन्होंने परवीन बाबी और स्मिता की जगह रेखा और जया को लेने की सलाह दी। स्थितियां ऐसी बनी कि अमिताभ के दबाव में यश चोपड़ा को फैसला बदलना पड़ा। परवीन बाबी ने इस बदलाव के लिए अमिताभ को दोषी भी ठहराया था। जबकि, स्मिता पाटिल इसे लेकर लम्बे अरसे तक अमिताभ बच्चन और यश चोपड़ा दोनों से नाराज रहीं। फिल्म की कास्टिंग से स्मिता पाटिल को निकालने का फैसला उन तक पहुंचाने के लिए यश चोपड़ा ने शशि कपूर की मदद ली थी। लेकिन, कास्टिंग में फेरबदल का कारण यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन को बताया था। 
     जब जया और रेखा को लेकर फिल्म शुरू करना तय हुआ तो दोनों से वादा भी लिया गया कि शूटिंग में किसी तरह की दिक्कत नहीं आना चाहिए। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं! यश चोपड़ा के लिए फिल्म शूट करना आसान नहीं रहा। रेखा और जया के बीच जो तनाव था, वो शूटिंग में भी कई बार महसूस किया गया। फिल्म की शूटिंग के दौरान सेट पर माहौल काफी तनाव भरा रहता था। इसकी वजह थी अमिताभ, जया और रेखा। यही वक्त था, जब अमिताभ-रेखा की खबर सुर्खियों में थी। सेट पर यश चोपड़ा मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करते थे, कि किसी तरह शूटिंग पूरी हो जाए। 'सिलसिला' बनने के दौरान यश चोपड़ा पूरे समय बेहद तनाव में रहे। इस फिल्म के लिए जया बच्चन का राजी करना आसान नहीं था। शुरुआत में जया फिल्म के लिए राजी भी नहीं थीं, लेकिन उनकी एक शर्त थी फिल्म की हैप्पी एंडिंग चाहिए थी। फिल्म की कहानी में अमित मल्होत्रा (अमिताभ बच्चन) चांदनी (रेखा) से एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर खत्म करके शोभा मल्होत्रा (जया बच्चन) के पास लौट आता है। इसी हैप्पी एंडिंग के लिए जया बच्चन फिल्म करने के लिए राजी हुई थी। अमिताभ बच्चन के लिए भी ये दौर बहुत मुश्किल भरा रहा। 
   इस फिल्म की दिक्कतें यहीं तक सीमित नहीं थीं। यश चोपड़ा फिल्म में रेखा के पति के किरदार में संजीव कुमार को चाहते थे। लेकिन, संजीव ने फिल्म करने से साफ मना कर दिया। वे खुद को अमिताभ से सीनियर मानते थे, इसलिए साइड रोल करना उन्हें ठीक नहीं लगा था। इससे पहले दोनों 'शोले' (1975) और 'त्रिशूल' (1978) में ऐसे ही रोल कर चुके थे। यश ने संजीव को बहुत मनाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उन्होंने इसके बाद यश ने संजीव कुमार से कहा कि आप एक बार स्क्रिप्ट तो सुन लीजिए! बात रखने के लिए संजीव यश से कहानी सुनाने लगे। आधी कहानी निकल चुकी थी, तभी एक सीन आया और संजीव कुमार ने यश चोपड़ा को रोक दिया। इसके बाद उन्होंने अपने ऑफिस फोन लगाया और इस फिल्म के लिए डेट बुक करने के लिए कह दिया। ये फिल्म का वही सीन था, जब अमिताभ, संजीव, रेखा और जया एक रेस्त्रां में बैठे होते हैं, डांस करने की बारी आती है, तो अमिताभ जया के बजाए अपने साथ रेखा को ले जाते हैं। 
   फिल्म को भव्य बनाने की तैयारियां हो चुकी थीं। लेकिन, यश चोपड़ा फिल्म के गीत-संगीत को भी कुछ ख़ास बनाना चाहते थे। उन्होंने गीत के लिए साहिर लुधियानवी से बात की, उन्होंने यशराज की कई फिल्मों में गाने लिखे थे। लेकिन, उन्होंने 'सिलसिला' के गीत लिखने से मना कर दिया। क्योंकि, कुछ ही दिन पहले ही साहिर की माताजी का निधन हुआ था। इसके बाद यश ने जावेद अख्तर से बात की, जिनकी ख्याति सलीम खान के साथ फ़िल्में लिखने के लिए थी। यश चोपड़ा के लिए भी वे दीवार, त्रिशूल और 'काला पत्थर' लिख चुके थे। जावेद गजलें और कविताएं भी लिखते थे, पर ये बात कुछ करीबी लोगों को ही पता थी। यश ने उनसे इस फिल्म के गाने लिखने को कहा। किसी तरह जावेद मान गए, जो बतौर गीतकार उनकी पहली फिल्म थी। जावेद अख्तर ने फिल्म के लिए जो पहला गाना लिखा, वो था 'देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए!' 
     संतूर वादक शिवकुमार शर्मा और बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया की भी बतौर संगीतकार ये पहली फिल्म थी। इस फिल्म के लिए सात गाने रिकॉर्ड किए गए। इनमे 'खुद से जो वादा किया' फिल्म में नहीं था और 'नीला आसमान सो गया' का एक ही वर्जन फिल्म में था। सात में से दो गाने अमिताभ ने जुड़वाए जो 'नीला आसमान' के अलावा होली गीत 'रंग बरसे भीगे' था। ये होली गीत अमिताभ के पिता डॉ हरिवंशराय बच्चन की लिखी कविता थी, जिस पर गाना बनाया गया और इसे गाया भी अमिताभ ने ही। 'नीला आसमां खो गया' से जुड़ा भी एक किस्सा है। जब फिल्म 'जमीर' की शूटिंग हो रही थी तो शम्मी कपूर और अमिताभ बच्चन ने मिलकर ये ट्यून खुद बजाई थी। बाद में इसे फिल्म 'सिलसिला' में शम्मी कपूर की अनुमति लेकर ही अमिताभ बच्चन ने प्रयोग किया।
     फिल्म बन जाने के बाद इसकी डबिंग में भी कई अड़चने आई। अमिताभ बच्चन ने 'याराना' को जल्दी पूरी करने की कोशिश में 'सिलसिला' की डबिंग को लम्बे समय तक टाला। यश चोपड़ा इससे काफी परेशान भी हुए। रेखा ने भी डबिंग के दौरान दिक्कत दी। वे जब भी डबिंग करने पहुंचती तो पहले जया बच्चन के सीन दिखाने की जिद करती। वे किसी भी सीन में जया से पिछड़ना नहीं चाहती थी। फिल्म पूरी होने के बाद यश चोपड़ा ने चैन की सांस ली थी लेकिन अमिताभ से उनकी जमकर खटपट हो गई थी। इसके बाद उन्होंने न तो चोपड़ा से कभी बात की और न ही उनके साथ किसी भी फिल्म में काम किया। करीब 19 साल तक दोनों में अनबन रही।
     यश चोपड़ा ने सिनेमा के अंदर रोमांस की नई परिभाषा को गढ़ा है। उन्होंने हर वक्त के साथ दर्शकों की पसंद को समझा और ऐसी फ़िल्में बनाई जो फिल्म इतिहास में दर्ज हुई। अमिताभ बच्चन, रेखा और जया बच्चन की मुख्य भूमिका वाली फिल्म 'सिलसिला' भी अपनी कास्टिंग की वजह से चर्चा में रही। इन तीनों से किसी ऐसी फिल्म में अभिनय करवाना इसलिए आसान नहीं था, क्योंकि फिल्म की कहानी इनकी निजी जिंदगी को प्रभावित करती थी। परदे पर जिस जोड़ी को सबसे ज्यादा रूमानी माना जाता है, उनमें अमिताभ-रेखा से ज्यादा कोई जोड़ी हिट नहीं रही। दोनों के बीच जो अहसास दिखाई देता था, वो कभी फ़िल्मी नहीं लगा। दोनों के बीच वाकई में प्यार जैसा कुछ था या नहीं ये सवाल आज 40 साल बाद भी अनुत्तरित है। आज भी जब ये दोनों सामने आते हैं, तो देखने वाले उनकी आँखों में वही अहसास खोजते दिखाई देते हैं, जिसके चर्चे आम हैं।  
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Thursday, August 19, 2021

जन आशीर्वाद यात्रा से सिंधिया का कद बढ़ा, दूसरे नेता बौने !

     ज्योतिरादित्य सिंधिया की मालवा-निमाड़ में तीन दिन की 'जन आशीर्वाद यात्रा' ने साबित कर दिया कि अब वे भाजपा के बड़े नेता बन गए। उनका 'बड़ा' होना तो ठीक, पर भाजपा के कई नेताओं का कद उनके सामने बौना हो गया। भाजपा नेताओं के साथ जनता ने भी इस सच्चाई को मान लिया। उनकी यात्रा की शुरुआत के समय इंदौर एयरपोर्ट पर जिस तरह का जमावड़ा हुआ, उससे सिंधिया का राजनीतिक भविष्य भी तय हो गया। उनके स्वागत में पार्टी के विधायक समेत कई वरिष्ठ नेता हाथ बांधकर खड़े थे। यात्रा के अंतिम दिन इंदौर में उनका जिस तरह स्वागत-सत्कार हुआ उससे भी लग गया कि उनके कद को कम नहीं आंका जा सकता। अभी तक माना जाता था कि सिंधिया के समर्थक वही हैं, जो उनके साथ कांग्रेस से भाजपा में आए हैं! लेकिन, इस यात्रा ने इस भ्रम को भी खंडित कर दिया। आश्चर्य नहीं कि भाजपा में एक नए 'सिंधिया गुट' की नींव पड़ जाए। जो भी अनुमान लगाया जाए, पर इस बहाने भाजपा में एक नया सत्ता केंद्र जरूर खड़ा हो गया। ये भले ही भाजपा की विधानसभा चुनाव की तैयारी हो, पर इसने सिंधिया को ऊंचाई तो दे दी।      

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- हेमंत पाल 

     मालवा-निमाड़ में भाजपा की तीन दिन की 'जन आशीर्वाद यात्रा' ने स्पष्ट कर दिया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भाजपा के बड़े नेता बन गए! उनकी अगवानी में भाजपा के कई बड़े नेता जिस तरह हाथ बांधकर खड़े थे, उससे लग गया कि प्रदेश की राजनीति में उनकी हैसियत अब सिंहासन हिलाने की हो गई। तीन दिन में उनकी अगवानी में भाजपा मानो बिछ सी गई। 4 जिलों, 4 लोकसभा क्षेत्रों, 33 विधानसभा सीटों की 584 किलोमीटर की इस यात्रा के दौरान 78 कार्यक्रमों में सिंधिया ने हिस्सेदारी करके दर्शा दिया कि उनकी भविष्य की रणनीति क्या है। 'जन आशीर्वाद यात्रा' का राजनीतिक मंतव्य अभी पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया, पर इसके पीछे भाजपा के दिल्ली दरबार ने कुछ तो सोच ही रखा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस यात्रा ने उनकी भाजपा के दिग्गज नेता की तरह प्रदेश में अपनी धाक जरूर जमा दी। अब उन्होंने अपनी अलग जमीन बनाना भी शुरू कर दिया। आश्चर्य नहीं कि वे बहुत जल्द सत्ता के सिंहासन पर दिखाई दें! क्योंकि, सिंधिया की सक्रियता के पीछे पार्टी के बड़े नेताओं की रणनीति पहले से तय है।       
    भाजपा के कई नेता अभी तक समझ नहीं पा रहे थे, कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया से कितनी नजदीकी रखें! उनके ज्यादा करीब जाना कहीं उनका राजनीतिक कद न घटा दे। यही कारण था कि लम्बे समय तक सिंधिया के आसपास वही चेहरे नजर आए, जो उनके साथ कांग्रेस से आए थे। लेकिन, धीरे-धीरे भाजपा नेताओं को समझ आने लगा कि सिंधिया भाजपा की राजनीति में लम्बी रेस के घोड़े हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कुछ भाजपा नेता जिनका कोई तारणहार नहीं था, उन्होंने भी सिंधिया को अपना आका मान लिया। जन आशीर्वाद यात्रा में उनके स्वागत में जिस तरह पलक-पांवड़े बिछाए गए उससे प्रदेश की भाजपा राजनीति में नए समीकरण बनते नजर आ रहे हैं। यात्रा की शुरुआत में इंदौर एयरपोर्ट पर उनके स्वागत में कई भाजपा विधायक, पूर्व विधायक और बड़े नेता जिस तरह नतमस्तक थे, वो यह समझने के लिए काफी था कि प्रदेश में नए राजनीतिक सत्ता केंद्र का गठन हो चुका है। सिंधिया जब कांग्रेस में थे, तब उनके कट्टर दुश्मन और भाजपा में आने के बाद उनसे कन्नी काटने वाले नेता भी स्वागत करते दिखाई दिए। ये मालवा की सहज, स्वाभाविक मेजबान परंपरा नहीं, राजनीति की नई दस्तक है।  
   केंद्रीय मंत्री की हैसियत से इंदौर आए सिंधिया का जिस तरह स्वागत किया गया, उसने राजनीतिक स्वागत परंपरा का तो रिकॉर्ड तोड़ा ही, भाजपा के नेताओं का भ्रम भी खंडित कर दिया कि वे सिंधिया के सामने बहुत छोटे हैं! सिंधिया का स्वागत करने वालों में उनके समर्थक ही नहीं, भाजपा कार्यकर्ता भी धक्के खाते दिखाई दिए। इंदौर का हर शक्ति संपन्न नेता अपनी भीड़ लेकर स्वागत में खड़ा था। आम तौर पर भाजपा में किसी दलबदल वाले नेता को इतनी तवज्जो देने का रिवाज नहीं है। इतिहास इसका गवाह भी है। पर, सिंधिया के स्वागत में वो सब हुआ, जो अमूमन भाजपा में नहीं होता। काफी अरसे बाद एयरपोर्ट पर इतनी बड़ी तादाद में नेताओं और कार्यकर्ताओं का जमावड़ा देखा गया। भारी भीड़ और धक्का-मुक्की की स्थिति यह थी, कि व्यवस्था संभालने में पुलिस के छक्के छूट गए। भाजपा के कई ऐसे बड़े नेता भी भीड़ में दिखाई दिए, जो नेताओं की आगवानी भी अपनी ठसक से करने के आदी रहे हैं। 
   भाजपा के दिल्ली वाले नेताओं ने जिस तरह सिंधिया को तवज्जो दी, उसके आगे सारे नेता शरणागत हो गए। पहले उन्हें राज्यसभा की सीट से नवाजा गया, फिर केंद्र में मंत्री बनाया। अब उनके समर्थकों को अच्छी हैसियत देने की तैयारी की जा रही है। लेकिन, मालवा-निमाड़ की जन आशीर्वाद यात्रा ने इस इलाके की भाजपा राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। इन तीन दिनों की हलचल ने उन नेताओं की भी चूलें हिला दी, जो अपने आपको स्वयंभू समझने की भूल करने लगे थे। सिंधिया ने यात्रा के साथ मालवा-निमाड़ के लोगों से अपने सामाजिक संबंधों को भी मजबूत करने की पहल की। यात्रा के दौरान वे जहाँ भी गए, वहां के प्रतिष्ठित लोगों से घर जाकर मुलाकात की। अभी तक भाजपा के दूसरे नेता ये औपचारिकता भुलाकर अपने दंभ से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। लेकिन, सिंधिया ने अपनी 'श्रीमंत' पहचान को किनारे करके रिश्तों की नई गांठ बांधने की पहल की, जिसके राजनीतिक मंतव्यों को समझा जा सकता है।  
     प्रदेश में इंदौर की राजनीति की जगह अहम् है। राजधानी भले भोपाल हो, पर सत्ता के कई सूत्र इंदौर की डोर से ही संचालित होते हैं। मालवा-निमाड़ में भाजपा की जड़ें हमेशा से गहरी रही हैं, पर 2018 के चुनाव में ये बहुत ज्यादा दरक गई थी। सिंधिया की इस यात्रा से पश्चिम मध्यप्रदेश में भाजपा को फ़ायदा होगा, इससे इंकार नहीं है। भाजपा का गढ़ रहे मालवा-निमाड़ पर नजर दौड़ाई जाए, जो पिछली बार प्रदेश में कांग्रेस की जीत का सबसे बड़ा आधार यही इलाका रहा था! 2013 के चुनाव की अपेक्षा 2018 में भाजपा को 27 सीटों का नुकसान हुआ और कांग्रेस ने 26 सीटें ज्यादा जीती। निर्दलियों के खाते में भी इस बार 3 सीट गई। मालवा-निमाड़ की 66 सीटों में से भाजपा को 27 और कांग्रेस को 35 सीटें मिली। इस क्षेत्र में 31 सीटें अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2013 के चुनाव में भाजपा ने 24 जीती थीं, पर कांग्रेस के खाते में मात्र 6 सीट गई थीं, एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार ने जीती। 2018 में भाजपा 14 सीट हार गई। भाजपा को 10 सीटें मिली, तो कांग्रेस के खाते में 20 सीटें गईं। 31 में से 9 सीटें अनुसूचित जाति के लिए हैं। 2013 में भाजपा ने सभी 9 सीटें जीती थीं। जबकि, 2018 के चुनाव में उसे सिर्फ 4 जगह ही जीत मिली, 5 सीटें कांग्रेस ने छीन ली। आदिवासी आरक्षित 22 सीटें हैं! 2013 में 15 सीटों पर भाजपा का झंडा गड़ा था और 6 पर कांग्रेस का, पर 2018 में 15 सीट कांग्रेस ने जीती और 6 भाजपा ने। मालवा-निमाड़ की 42 ग्रामीण सीटों में से 21 कांग्रेस ने जीती!
   भाजपा की गलती ये रही कि उसने मालवा-निमाड़ को अपना गढ़ समझकर जीतने का पूरा जोर नहीं लगाया! 2013 के मुकाबले 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस इलाके की कई शहरी और ग्रामीण सीटें गंवाईं। कांग्रेस ने ग्रामीण इलाके की 24 सीटों पर जीत का झंडा गाड़ा! जबकि, 2013 में भाजपा ने 66 में से 57 सीटों पर झंडा गाड़ा था। भाजपा को सबसे बड़ा झटका खरगोन और बुरहानपुर जिले में लगा, जहाँ से भाजपा पूरी तरह ही साफ़ हो गई थी। इंदौर जैसे भाजपा के गढ़ में भी भाजपा 2018 के चुनाव में में 9 में से 4 सीटें हार गई थी! जबकि, 2013 में यहाँ उसने 8 सीट जीती थी। यही कारण था कि सत्ता भाजपा के हाथ से निकल गई, जिसे फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी रणनीति से भाजपा को वापस दिलाया। अब उनकी जन आशीर्वाद यात्रा क्या कमाल करती है, ये अगले विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे! लेकिन, सिंधिया ने खंडवा में लोकसभा उपचुनाव का बिगुल तो बजा ही दिया।       
    इस इलाके में सिंधिया घराने का वर्चस्व बरसों से रहा और होलकर रियासत से उनकी नजदीकी भी जगजाहिर है। ऐसे में इंदौर के बाद देवास, शाजापुर, खरगोन और खंडवा में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा नेताओं ने हाथों-हाथ लिया। खरगोन के रावेरखेडी गांव से मराठा यौद्धा बाजीराव पेशवा के समाधि स्थल से निकली सिंधिया की यात्रा का खेड़ीगांव, बडगांव, बेड़िया, चितावद, सनावद, मोरटक्का, बड़वाह, काटकुट फाटा पर भारी स्वागत हुआ। करीब 27 गांवों से होते हुए वे बलवाड़ा आए। रात दस बजे तक सिंधिया ने 128 किलोमीटर का रोड़ शो किया। बाजीराव पेशवा की समाधि पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के साथ हुए कार्यक्रम को मराठा वोट बैंक से जोड़ने की बात को भी सिंधिया ने नकारा और कहा कि भाजपा धर्म और समाज की राजनीति नहीं करती। लेकिन, ये तय है कि बाजीराव पेशवा को पूजने के बहाने सिंधिया की इस यात्रा से खंडवा की राजनीति को प्रभावित जरूर किया, जिसका असर लोकसभा उपचुनाव में दिखाई देगा। 
   ये जन आशीर्वाद यात्रा भाजपा के केंद्रीय संगठन की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। भाजपा देशभर के 22 राज्यों में जन आशीर्वाद यात्राएं निकल रही है, जिनमें केंद्रीय मंत्री शामिल होंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा मध्य प्रदेश से जुड़े केंद्रीय मंत्री एसपीएस बघेल और वीरेंद्र खटीक ने भी अपने-अपने इलाकों में ऐसी आशीर्वाद यात्रा निकाली। एसपीएस बघेल ने 16 अगस्त को दतिया से अपनी यात्रा शुरू की! जबकि, वीरेंद्र खटीक ने 19 अगस्त को ग्वालियर से अपनी जन आशीर्वाद यात्रा चालू की है। यात्रा के दौरान तीनों केंद्रीय मंत्री वहाँ के बुद्धिजीवियों, खिलाड़ियों, कलाकारों और संतों के अलावा शहीदों के परिजनों से मिले। लेकिन, सिंधिया की यात्रा का जो असर दिखाई दिया, वो पार्टी में नए गुट का संकेत है।  
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Wednesday, August 18, 2021

'नरोत्तम मिश्रा भावी मुख्यमंत्री हैं' सांसद ने ऐसा क्यों कहा!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश में अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, ये सवाल अब गौण नहीं रहा। पार्टी और सरकार के हर कोने से संभावित मुख्यमंत्री के नाम को लेकर अलग-अलग नाम सुनाई देने लगे हैं। लेकिन, ये दावा कोई नहीं कर रहा कि शिवराज सिंह चुनाव तक बने रहेंगे और अगला विधानसभा चुनाव पार्टी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ेगी। राजनीति को समझने और राजनीतिक हलचल पर नजर रखने वालों का भी मानना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया से बगावत करवा के भाजपा ने शिवराज सिंह को चौथी बार सत्ता भले सौंप दी हो, पर पार्टी को अभी भी भरोसा नहीं है, कि वे आने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को जीत दिला सकते हैं। दमोह उपचुनाव में भाजपा की हार ने कई समीकरण बदल दिए। लेकिन, सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है कि शिवराज के बाद कौन? विकल्प के रूप में कई नाम सामने आ रहे हैं, पर किसी एक नाम पर जोर नहीं दिया जा रहा!
    धार में पत्रकारों के एक कार्यक्रम में 15 अगस्त में जो हुआ, वो भी इस मामले में गौर करने वाली बात है। धार के सांसद छतरसिंह दरबार ने इस कार्यक्रम के मंच से गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को 'प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री' कहकर संबोधित किया। सांसद ने सहजता से या नरोत्तम मिश्रा को खुश करने के लिए इस संभावना को व्यक्त किया, ये नहीं कहा जा सकता। लेकिन, उन्होंने प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री बताकर इस चर्चा को एक बार हवा जरूर दे दी। बाद में नरोत्तम मिश्रा ने बात को संभालते हुए शिवराज सिंह को ही मुख्यमंत्री बताया और इस बात की सफाई दी। लेकिन, ऐसा पहली बार नहीं हुआ। करीब महीनेभर पहले भी नरोत्तम मिश्रा ने अपनी तरफ से ऐसी ही सफाई देकर बात को ठंडा किया था। क्योंकि, तब भी उनकी सक्रियता को देखते हुए ये समझा जा रहा था कि जो नेता शिवराज सिंह के बाद मुख्यमंत्री की दौड़ में हैं, उनमें नरोत्तम मिश्रा का नाम सबसे आगे है। 
   इस बात से इंकार नहीं कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी शिवराज सिंह को लेकर निश्चिंत नहीं है। जिस तरह की राजनीतिक हलचल सतह के नीचे चल रही है, ये समझा जा रहा है कि अगले विधानसभा चुनाव से पहले मध्यप्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन अवश्यंभावी है। पिछले तीन कार्यकाल की तरह शिवराज सिंह भी आराम की स्थिति में नहीं हैं। ये भी कहा जा रहा है कि कई मामलों में उन्हें केंद्रीय नेतृत्व निर्देशित करता है और उन्हें वही फैसले लेना भी पड़ते हैं। ऐसे में तय है कि पार्टी कभी भी कोई बड़ा फैसला ले सकती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद दिल्ली में बैठे भाजपा नेता जिस तरह उन्हें तवज्जो दे रहे हैं, वो भी शिवराज सिंह के कमजोर होने का संकेत है। बतौर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को कई ऐसे फैसले भी लेना पड़ रहे हैं, जो वे लेना नहीं चाहते। लेकिन, अभी इस बात की कोई संभावना नहीं लग रही कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश की सत्ता सौंपी जा सकती है।  
  शिवराज सिंह के बाद प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन हो सकता है, इस संभावना को लेकर कई नाम हवा में हैं। राजनीतिक अनुभव और मध्यप्रदेश में उनके संपर्कों को लेकर केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर का नाम कई बार सामने आया। देखा जाए तो चुनाव के नजरिए से वे सबसे सही चेहरा भी हैं। दो बार उनके प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए भाजपा ने प्रदेश में सरकार भी बनाई! इसके बाद प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के नाम की भी चर्चा चलती रहती है। लेकिन, वे पार्टी को चुनाव जितवा सकते हैं, इस बात में संदेह है। इसके अलावा जो नाम सबसे ज्यादा सामने आता है, वो गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा का ही है। उनके साथ सबसे बड़ी खामी यह है कि ग्वालियर इलाके से बाहर उनका नेटवर्क कमजोर है। शायद यही कारण है कि वे इन दिनों पश्चिमी मध्यप्रदेश में ज्यादा सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। इंदौर का प्रभारी मंत्री बनने के बाद वे अपने संपर्कों का दायरा बढा रहे हैं। इंदौर में भी वे लगातार पुराने भाजपा नेताओं से मिल रहे हैं। ऐसे में धार के सांसद का नरोत्तम मिश्रा को भावी मुख्यमंत्री कहकर संबोधित करना कुछ तो संकेत देता ही है। 
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आपदा के दौर में संवेदनशील पत्रकारिता का चेहरा

 84 की सूखा त्रासदी

    समय बदलने के साथ सब कुछ बदला है साथ में और पत्रकारिता का चेहरा भी! उसी के साथ सामाजिक दायित्व भी तिरोहित हुए हैं। अब वो समय नहीं रहा, जब पत्रकार घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं के मुताबिक अपनी जिम्मेदारी तय करता था! जिस तरह कोरोना संक्रमण, बाढ़ और भूकंप प्राकृतिक आपदाएं हैं, वैसी ही सूखा भी एक ऐसी घटनाएं हैं। इसमें पत्रकार समाजसेवी की भूमिका में होता था! लेकिन, अब सब बदल गया। आज के नए पत्रकारों ने तो सूखे की विभीषिका को महसूस ही नहीं किया होगा। तब रिपोर्टिंग करने जाने पर पानी तक नहीं मिलता था! जबकि, आज कहीं भी मिनरल वाटर की बॉटल उपलब्ध हो जाती है। आपदा को जब तक खुद महसूस न किया जाए, ख़बरों में वो दर्द भी नहीं उबरता जो पढ़ने वाले को द्रवित करता है। पत्रकार जब तक खुद सूखे को नहीं भोगेगा, एक गिलास पानी की तड़फ को नहीं जानेगा, उसे दर्द का अहसास भी नहीं होगा!             

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 - हेमंत पाल

   पत्रकार का दायित्व सिर्फ घटनाओं को अख़बारों में खबर की शक्ल में छाप देने तक सीमित नहीं होता। वास्तव में पत्रकारिता वो है, जो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से समझे और संवेदनाओं के साथ ख़बरों को आकार दे। इस पेशे के साथ सामाजिक जुड़ाव होना बहुत जरूरी है। इसका असल मकसद भी यही है। प्राकृतिक आपदाओं, बड़े हादसों और घटनाओं के दौर में की जाने वाली पत्रकारिता ही वास्तव में मानवीय संवेदनाओं  वाली पत्रकारिता है। इसलिए कि पत्रकार को सामाजिक पैरोकार की नजर से देखा जाता है। पत्रकार को सरकार से जुड़ने वाली वो कड़ी माना जाता है, जो आम लोगों की मुसीबतों को सरकार के सामने संवेदनशील नज़रिए से रखता है। उसके बाद ही सरकारी मशीनरी उसका निराकरण ढूंढने में जुटती है। 
     मुझे एक कड़वा दौर याद आता है। 1984-85 के उस साल में देश के अधिकांश हिस्सों में सूखा पड़ा था। इस आपदा का असर प्रदेशभर में था, पर धार जिले के ग्रामीण इलाकों में सूखे की विभीषिका का असर कुछ ज्यादा दिखाई दिया! पुराने लोगों के मुताबिक 1960 के बाद धार और झाबुआ में सबसे ज्यादा सूखा इसी समय पड़ा था! बाग़, टांडा, कुक्षी और मनावर में जहाँ तक नजर जाती थी, सूखा ही सूखा नजर आता। ऐसे में सिवाए सूखे की विभीषिका के किस्से लिखने के किसी पत्रकार के लिए कुछ सोच पाना संभव नहीं था। लोग खाने के दाने-दाने और पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे थे। आदिवासी इलाकों में मजदूरी के काम बंद थे। लोग बेकार भी थे और भूखे भी। सारा दारोमदार सरकारी राहत कार्यों के भरोसे था। सरकार आदिवासियों से थोड़े-बहुत काम करवाकर उनका पेट भरने में लगी थी। लोगों की जान पर बन आई थी! रास्ते में दूर-दूर तक मरे हुए मवेशियों के कंकाल नजर आते थे। क्योंकि, अपनी जान बचाने की कोशिश में आदिवासियों का मवेशियों की तरफ ध्यान ही नहीं था। उस दौर में जिसने ये सूखा देखा, वो कभी न भूलने वाली यादें बनकर रह गया। ऐसे माहौल में पत्रकारिता का दायित्व यही था, कि प्रशासन के कामकाज में अनावश्यक अड़ंगेबाजी करने के बजाए सकारात्मक ख़बरें लिखी जाए! जहाँ प्रशासन की नजर न पड़े वहाँ पत्रकार नजर डाले। 
   उस दौर में धार के अधिकांश पत्रकारों ने बेहद संवेदनशीलता से काम किया। पीटीआई को ख़बरें भेजने अरविंद काशिव, यूएनआई के सुरेंद्र व्यास, 'स्वदेश' के सुभाष जैन और 'नवभारत' के रामगोपाल राठौड़ सबसे ज्यादा सक्रिय पत्रकारों में थे। किसी ने भी प्रशासन को परेशान करने या नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश नहीं की। तब मैं किसी स्थानीय अखबार से नियमित तौर पर नहीं जुड़ा था! पर, मुंबई के साप्ताहिक अखबार 'करंट' के साथ दिल्ली के अख़बारों और पत्रिकाओं में ख़बरें भेजता रहता था। 'जनसत्ता' तब दिल्ली से निकलता था और उसकी कॉपियां दूसरे या तीसरे दिन धार आती थी। धार और झाबुआ में सूखे के हालात पर मेरी एक रिपोर्ट 'जनसत्ता' में छपी थी, जिसने दिल्ली के पत्रकारों का ध्यान खींचा था। उसी के बाद दिल्ली के कई बड़े अख़बारों और पत्रिकाओं के संवादाताओं ने धार और झाबुआ का रूख किया।   
    'इंडिया टुडे' (इंग्लिश) के पत्रकार ने सूखे को लेकर बड़ी रिपोर्ट की। लेकिन, 'जनसत्ता' से चीफ एडीटर प्रभाष जोशी ने सूखे की रिपोर्टिंग के लिए खुद धार आने का फैसला किया। उनका सूखे की रिपोर्टिंग करने धार आना बड़ी बात थी। मेरी रिपोर्ट छपने के बाद प्रभाषजी मुझे बतौर पत्रकार जानने भी लगे थे। इसलिए मुझे उनके साथ टांडा, बाग़ और कुक्षी तक जाने का मौका मिला। तब वास्तव में महसूस हुआ कि संकटकाल में पत्रकारिता का मानवीय दृष्टिकोण क्या होता है! उनका मानना था कि खबर वो नहीं जो सबको पता हो! असल पत्रकारिता वो है, जिस पर सबसे पहले आपकी नजर पड़े! सूखे की विभीषिका पर धार के पत्रकारों ने बहुत कुछ लिखा, पर वो सब जल संकट, काम की कमी और राशन की दुकानों पर अनाज की कमी तक सीमित था! इससे ज्यादा न तो कोई सोच पाया और न ये संभव था! लेकिन, प्रभाषजी के साथ रिपोर्टिंग के दौरान पता चला कि वास्तव में सूखे के संकट को महसूस करना हो, तो उन लोगों के अनुभव सुने जाएं उनके साथ कुछ घंटे गुजारे जाएं जो सूखे को झेल रहे हैं और सूखे ने जिनकी जिंदगी को प्रभावित किया है।   
   प्रभाषजी का रिपोर्टिंग के मकसद से धार आना प्रशासन के लिए बड़ी घटना थी! लेकिन, उन्होंने प्रशासन को ज्यादा तवज्जो नहीं दी! जब मैं प्रभाषजी के साथ बाग़ पहुंचा, तो वहाँ के सर्किट हॉउस में प्रशासन का चुस्त लवाजमा जमा था। अच्छे खासे लंच का इंतजाम था। तहसीलदार समेत कई अधिकारी हाजिरी में खड़े थे। लेकिन, प्रभाषजी के मन में कुछ और ही था। थोड़ी देर सर्किट हॉउस में रूकने और चाय, पानी के बाद प्रभाषजी ने मुझे इशारा किया और हम बाहर निकल पड़े! दोपहर 12 बजे की चिलचिलाती धूप में सड़क पर आ गए। बातचीत करते हुए हम गाँव के दूसरे किनारे से बाहर तक निकल आए! गाँव में धोती और कोसा के कुर्ते में 6 फ़ीट लम्बे किसी व्यक्ति का सड़क पर चहल-कदमी करना, हर किसी को भी रुककर देखने के लिए मजबूर कर रहा था। रास्ते में मिले कुछ आदिवासियों को प्रभाषजी ने रोककर हाल-चाल जाने। वे मालवी तो अच्छी बोलते ही थे, गाँव वालों की जिस बोली में वे बात कर रहे थे, वो सुनकर मुझे भी आश्चर्य हुआ, बातचीत करने वाले भी चौंके। फिर हम एक झोपड़ी के सामने रुके। प्रभाषजी बहुत लम्बे थे, उस हिसाब से झोपड़ी की ऊंचाई बहुत कम थी। आवाज देने पर एक आदिवासी युवक बाहर आया। प्रभाषजी ने उससे इलाके के बारे में, उसके कामधाम के बारे में और परेशानियों के बारे में बातचीत की! थोड़ी देर बाद जब वो युवक सामान्य हुआ, तो प्रभाषजी ने पूछा कि क्या वो हमको खाना खिला सकता है! मेरे लिए अचरज की बात थी, पर उसके पीछे भी उनका क्या मंतव्य था, वो बाद में समझ आया। वो युवक भी सकपका गया! पर, बोला 'हाँ साब आओ!' करीब आधा झुककर प्रभाषजी उस झोपड़ी में घुसे और उनके पीछे मैं भी।
    हम करीब आधा घंटा पसीना-पसीना होकर जमीन पर बैठे। उसकी बूढ़ी माँ ने सामने ही जुवार की रोटी, आलू की सब्जी और मिर्च की चटनी बनाई! रोटी तो हम दोनों ने एक-एक ही खाई, पर उस युवक और बाद में आए एक व्यक्ति से प्रभाषजी और मैंने बहुत सी जानकारी ली! प्रशासन की भूमिका, राशन की दुकानों पर मिलने वाले सामान और राहत कार्यों के भुगतान की प्रक्रिया से लगाकर काम के लिए होने वाले आदिवासियों के पलायन को लेकर पूछताछ की! तब मुझे समझ आया कि प्रभाष जोशी की रिपोर्टिंग से सरकार थर्राती क्यों है! जो जानकारी हमें खाने के बहाने मिली, वो शायद कभी कोई नहीं देता! झोपड़ी से बाहर निकलते हुए प्रभाषजी ने उस युवक के हाथ में कुछ नोट पकड़ाए, जिसे उसने सकुचाते हुए रख लिए। लेकिन, हमारे अचानक सर्किट हॉउस से गायब होने से वे अधिकारी घबरा गए थे, जिन्हें हमारे आतिथ्य के लिए खासतौर पर भेजा गया था। वापसी में हमें रास्ते में दो अधिकारी मिले, उन्हें देखकर लगा कि वे बहुत परेशान थे। दोनों के चेहरे से हवाइयां उड़ रही थी। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि हम सच्चाई जानने के लिए बिना उनकी मदद के इस तरह निकल पड़ेंगे। लेकिन, इन दो घंटों में मैंने जो सीखा वो संवेदनशील पत्रकारिता का वो मानवीय पहलू था, जिसने सूखे से प्रभावित होने वाले आदिवासियों की असलियत सामने ला दी थी।     
    मैंने महसूस किया कि ऐसे कठिन समय में सबसे बड़ी परीक्षा कलेक्टर की होती है। धार के तत्कालीन कलेक्टर के सामने भी एक साथ कई जिम्मेदारियां थी। सुनील कुमार धार में कलेक्टर थे। मानवीय संवेदनाओं की समझ के मामले में कोई कलेक्टर कितना योग्य हो सकता है, वो सारी खूबियां सुनील कुमार में देखने को मिली। उन्होंने अपने यहाँ के कार्यकाल में सूखे के दौर को बहुत नज़दीक से देखा और उसका मुकाबला भी किया। मुझे याद है, कलेक्टर सुनील कुमार ने बारिश होने तक दाढ़ी नहीं बनाने का प्रण लिया था। कई महीनों तक उन्होंने दाढ़ी नहीं बनाई! इसी से समझा जा सकता है कि वे अपने कार्यकाल में सिर्फ सरकारी मशीनरी का पुर्जा बनकर नहीं रहे, बल्कि लोगों की परेशानियों से जूझने की हरसंभव कोशिश करते रहे। सुनील कुमार ने सूखे को व्यक्तिगत चुनौती की तरह लिया। उन्होंने दाढ़ी भी तभी कटवाई जब जिले में पहली अच्छी बारिश हुई! वास्तव में ये मानवीय संवेदनाओं वाली पत्रकारिता के अलावा एक कलेक्टर का भी मानवीय पक्ष था, जिसे भुलाया नहीं जा सकेगा।  
   सन 1984-85 के दौर में आज की तरह न तो सुविधाएं थी और न इतने इंतजाम कि मुसीबतों से मुकाबला हो सके। सरकारी अमले की कमी के कारण राहत कार्यों की सही देखरेख भी नहीं हो पाती थी। सरकारी अनाज की दुकानों तक समय पर सामग्री भेजने के लिए वाहन तक नहीं मिलते थे। अनाज का इंतजाम जैसे-तैसे हो भी जाता, पर पानी का संकट बहुत बड़ा था। कई गाँव में टैंकरों से पीने का पानी भिजवाया जाता था। हालात कितने विकट थे, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि धार से कुक्षी और आगे मनावर तक के रास्ते में किसी मुसाफिर को एक गिलास पानी तक मिलना मुश्किल था। आज तो इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती! 42 से 44 डिग्री वाली भीषण गर्मी में लोगों का जीना बेहद मुश्किल था। सुबह 9 बजे के बाद गाँव की सड़कों पर सन्नाटा हो जाता था। लेकिन, फिर भी ख़बरों का सफर नहीं रूका!  
     मुझे कोई अनुमान नहीं था कि सूखे की असलियत आँखों से देखने के बाद प्रभाषजी की रिपोर्टिंग का नजरिया क्या होगा! क्योंकि, 'जनसत्ता' की पहचान सरकार की खिंचाई करने वाले अखबार की थी। यही कारण था कि प्रभाषजी के जाने के बाद प्रशासन का कोई न कोई अधिकारी मेरे से रमूज जरूर ले जाता कि प्रभाषजी का लिखा कब छपेगा! ये जानकारी मुझे भी नहीं थी! धार में अखबार भी एक दिन बाद आता था! लेकिन, मैं और अरविंद काशिव रोज बस स्टैंड पर चुन्नीलालजी की दुकान पर चक्कर जरूर लगा आते थे, ताकि 'जनसत्ता' में खबर छपने की जानकारी मिल सके! पाँच दिन बाद प्रभाषजी ने करीब पूरे पन्ने की रिपोर्ट लिखी! लेकिन, अनुमान के विपरीत कलेक्टर के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की! पूरी रिपोर्ट सूखे से उपजी मानवीय त्रासदी पर केंद्रित थी। रिपोर्ट पढ़कर अहसास हुआ कि सूखा सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं होता, ये एक ऐसी त्रासदी को भी जन्म देता है, जो कई जिंदगियों को लम्बे समय तक गहराई से प्रभावित करती है। प्रभाषजी के साथ कुछ घंटों की यात्रा और फिर उनकी रिपोर्ट पढ़ने से मेरा सोच बदल गया! प्रभाष जोशी ने मेरी मनःस्थिति पर इतना असर डाला कि मैं धार से निकलकर पत्रकारिता करने 'जनसत्ता' पहुँच गया। मुंबई जनसत्ता में मैंने काम किया और बहुत कुछ सीखा। मैं 'नईदुनिया' छोड़कर 'जनसत्ता' सिर्फ इसलिए गया था, कि इस अखबार की भाषा और तेवर ने मुझे हमेशा प्रभावित किया था। आज न तो कोई अखबार 'जनसत्ता' जैसा है और न प्रभाष जोशी जैसा कोई संपादक या लेखक!
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Thursday, August 5, 2021

सिनेमा में संवाद की भाषा और समाज

हेमंत पाल 

     हिंदी सिनेमा ने सौ सालों से ज्यादा लम्बे इतिहास में कई बार अपना स्वरूप बदला। ये बदलाव समय के साथ आया और साथ में सिनेमा की तस्वीर भी बदलती गई। सिर्फ कथानक या फिल्म निर्माण ही नहीं भाषा के प्रयोग में भी बहुत कुछ बदला है। सिनेमा की शुरुआत 1913 में आई फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से हुई। लेकिन, तब की फिल्मों में आवाज नहीं थी। 1931 में अर्देशिर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाई। फिल्मों में संवादों की शुरुआत भी यहीं से हुई। तब सिनेमा की भाषा लयात्मक, सहज और सरल थी। इसमें रचनात्मकता के साथ लोकभाषा का मिश्रण होता था। साथ ही यह देशकाल की दृष्टि से ये सारगर्भित भी होती थी। उस भाषा में शालीनता और चारित्रिकता का भी ध्यान रखा जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे सिनेमा संवाद की भाषा में बदलती गई। अब तो हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी और उर्दू के साथ क्षेत्रीय भाषा और स्थानीय बोली का भी प्रयोग होने लगा। लम्बे समय तक फिल्मों में उर्दू मिश्रित हिंदी या खड़ी भाषा ही ज्यादा प्रचलित रही। बीच-बीच में फिल्मों के कथानक और पात्रों के अनुरूप मिश्रित भाषा भी परदे पर सुनाई देती रही। जबकि, आज फिल्मों की भाषा विकृत हो गई! ये विकृति 80 के दशक के बाद ज्यादा बढ़ी! कमीने, कुत्ते, नालायक और लफंगे तो जैसे शब्द तो जैसे आम फ़िल्मी भाषा में शामिल हो गए! जबकि, एक समय ऐसा भी था, जब फ़िल्मी संवादों में इस बात का ज्यादा ध्यान रखा जाता था। कोई ऐसा शब्द प्रयोग नहीं होता था, जो सामाजिक रूप से अस्वीकार्य हो! लेकिन, आज न तो दृश्य की सेंसरशिप बची और न श्रव्य की।
      संवादों का भी अपना अलग ही दौर था। पहले संवाद एकदम अपरिष्कृत और कच्चे होते थे, जिन्हें लम्बे आलाप के साथ बोला जाता था। चौथे से पांचवें दशक तक फिल्मों के संवादों में पारसी थिएटर का असर रहा, जिसमें नाटकीय अंदाज़ में जोर-जोर से संवाद बोले जाते थे। लेकिन, उर्दू लेखकों के आने से संवादों में चुस्ती के साथ शिष्टता बढ़ी। इसी दौर में बम्बईया भाषा का प्रयोग शुरू हुआ, जिसमें गोवा की भाषा का पुट था। हमकू, तुमकू, अपुन जैसे शब्द सितारों की जुबान पर चढ़े, जिसके बाद टपोरी भाषा फिल्मों में आई। लेकिन, अधिकांश यह कुछ खास फिल्मों और खास किरदारों तक सीमित रही। कुछ फिल्मों के संवाद समयकाल और विषय के अनुरूप होते थे। ऐतिहासिक फिल्मों में जहांपनाह, जिल्ले इलाही, महाराज, सम्राट, पिताश्री तो अदालत के दृश्यों में मी लार्ड, मख्तूल, मुलजिम, जैसे शब्द गाहे-बगाहे आते रहे। कभी-कभी 'मोगेम्बो खुश हुआ' और 'गांधीगिरी' जैसे संवाद भी सुनाई दिए। फिल्मों में संवाद से ज्यादा पात्रों की आवाज और उनकी अदायगी का भी असर होता है। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, मुराद, राजकुमार, अमरीश पुरी, ओम पुरी और रजा मुराद जैसे कलाकार तो अपने पूरे करियर में अपनी दमदार आवाज से ही दर्शकों को प्रभावित करते रहे। 
   इस बात को कोई इंकार नहीं करता कि समाज को सिनेमा बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। यह तथ्य अच्छे और बुरे दोनों संदर्भों में है और भाषा के संबंध में भी! सिनेमा में प्रयुक्त हर शब्द और संवाद का अपना अलग असर होता है। यदि समाज में किसी शब्द को चलन में लाना है, तो उसका फिल्म में प्रयोग करके उसको लोकप्रिय बनाया जा सकता है! ऐसे कई शब्द हैं, जो सिर्फ सिनेमा की वजह से चलन में आए। आशय यह कि सिनेमा के संवादों की भाषा के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! जीवन में हम सिनेमा की भाषा से पात्रों के व्यवहार को समझते हैं और दृश्यों से कथानक को! फिल्म देखने के बाद तो संवाद हमारी बोलचाल का हिस्सा बन जाते हैं। जब 'मुगले आजम' आई, तो उस समय के प्रेमियों को जैसे अभिव्यक्ति की भाषा मिल गई थी! फिल्म के गीत 'प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप आहें भरना क्या' ने प्रेमियों को नई हिम्मत दी। बादशाह अकबर और सलीम के संवादों ने भी पिता-पुत्र के बीच रिश्तों को एक नया संदर्भ दिया। लेकिन, 'शोले' ने तो मानो सारा सोच ही बदल दिया। इस फिल्म के संवाद हिंदी फिल्म इतिहास में सबसे ज्यादा चर्चित हुए! फिल्म का हर संवाद लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़ गया, जैसे उन्हीं के लिए लिखा गया हो।     
      कहा जाता है कि 80 के दशक से सिनेमा की भाषा में बहुत ज्यादा मिलावट हुई। संवादों में टपोरी छाप भाषा का उपयोग होने लगा। ऐसी भाषा को अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ, गोविंदा और चंकी पांडे ने आगे बढ़ाया। फिल्मों के गीत भी इससे नहीं बचे। आती क्या खंडाला, खम्भे जैसी खड़ी है लड़की है व छड़ी है और 'तुमने मारी एंट्री यार दिल में बजी घंटी यार' जैसे गीत भी बनने लगे। 90 के दशक में सिनेमा की भाषा इतनी बिगड़ी कि उसमें द्विअर्थी संवाद और गीत भी शामिल हो गए। मराठी फ़िल्मकार दादा कोंडके को मराठी फिल्मों में द्विअर्थी संवादों की वजह से कई बार नकारा गया, वे सब हिंदी सिनेमा में दिखाई और सुनाई देने लगे। 90 के दशक के अंत तक पंजाबी ने भी हिंदी सिनेमा के साथ फ़िल्मी गीतों में अपनी जगह बना ली! बाद में फिल्मों में हरियाणवी भी सिनेमा में सुनाई देने लगी। 'तनु वेड्स मनु' में कुसुम (कंगना रनौत) अपना परिचय देते हुए बोलती है 'म्हारा नाम कुसुम सांगवानी से, जिला झझड 124507, फोन नं. दूँ कोणा!' इस संवाद से फिल्मों में हरियाणवी को पहचान मिली। 'बाजीराव मस्तानी' में बाजीराव पेशवा (रणवीर सिंह) के ज़रिए मराठी भाषा, गैंग्स ऑफ वासेपुर में भोजपुरी, उड़ता पंजाब से पंजाबी, पानसिंह तोमर के जरिए ब्रज और 'चेन्नई एक्सप्रेस' से तमिल भाषा हिंदी से मिलकर दर्शकों तक पहुंची।
    काफी साल पहले महबूब ख़ान ने गाँव की एक महिला के जीवन संघर्ष पर 'मदर इंडिया' बनाई थी। इस फिल्म की भाषा हिंदी और भोजपुरी का मिश्रण थी। गाँव की पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में हिंदी के साथ भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता रहा! क्योंकि, उस समय बम्बई (आज की मुंबई) तथा दूसरे बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए लोग भोजपुरी ही बोलते थे। बिमल रॉय ने भी खेती छोड़कर मजदूरी करने शहर आए एक मजदूर की कहानी पर 'दो बीघा ज़मीन' जैसी फिल्म बनाई, जिसमें बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी। इसमें भाषा तो हिन्दी थी, पर गीतों में भोजपुरी के शब्द थे। लेकिन, आजादी के बाद फिल्मों में उर्दू का पुट ज्यादा दिखा। इस समय पाकिस्तान से आए कई मुस्लिम लेखक और गीतकार भी फिल्मों से जुड़े। शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी तो बंटवारे के बाद ही भारत आए। पृथ्वीराज कपूर का परिवार, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त भी पाकिस्तान से आकर परदे पर अपना रंग जमा चुके थे। इस सभी की भाषा में उर्दू ज्यादा होती थी। यही कारण था कि हिंदी सिनेमा में उर्दू विकसित हुई! 
     फिल्मों में डबिंग की भी एक भाषा होती है। इससे दो भाषाओं की संस्कृति विकसित होती है। मूल भाषा में बनी फिल्म को जब डब किया जाता है, तो उसमें दूसरी भाषा में अनुवाद करने से उसमें मूल फिल्म की भाषा के भी कुछ शब्द आ जाते हैं। इससे एक भाषा के शब्द दूसरी भाषा में प्रचलित होने से भाषा का विस्तार भी होता है। लेकिन, समय के साथ हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदल रही है। फिल्मों को लेकर नए-नए प्रयोग ज्यादा हो रहे हैं। विषय चयन से लेकर संवाद लेखन और पटकथा तक पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव दिखने लगा है। ये प्रयोग पहले भी होता आया है, पर अब ये प्रयोग बढ़ गया। क्षेत्रीय भाषा और बोली का हिंदी के साथ जुड़ने से उनमें बिखराव नहीं दिखता, पर अंग्रेजी शब्दों के साथ जुड़ने से ये साफ़ नजर आता है। क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से फिल्मों की हिंदी का स्तर गिरा नहीं, बल्कि क्षेत्रीय भाषा को बड़ा मंच जरूर मिल गया। क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी समृद्ध हो रही है। इससे फिल्मों को नुकसान के बजाय फ़ायदा ज्यादा होता है। 'मोहनजो दारो' और 'जोधा अकबर' जैसी खड़ी हिंदी की फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया। 
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