Monday, August 21, 2017

नक्सल समस्या और फ़िल्मी सलाह

- हेमंत पाल 

  देश में जब भी आतंकवाद का जिक्र होता है, सीमा पार खतरे को ही आधार बनाया जाता है। पड़ोसी देशों को ही देश के लिए बड़ा खतरा समझा जाता है। ऐसा बहुत कम होता है, जब देश के अंदर उभर रहे खतरे को गंभीरता से लिया जाता हो। ये मुद्दा है नक्सलवाद का! लोगों को समझाने के लिए फिल्मकारों ने कुछ फ़िल्में भी बनाई! हमारे यहाँ फिल्मों को बहुत महत्व दिया जाता है। क्योंकि, कई बार दर्शक सिर्फ फ़िल्में देखकर व्यक्ति अथवा विषय-विशेष के प्रति अपनी विचारधारा बनाता है।
   जाने-माने निर्देशक प्रकाश झा के निर्देशन में बनी फिल्म 'चक्रव्यूह' में पुलिस और नक्सलवादियों के बीच होने वाले संघर्षों का ब्यौरा दिखाया गया है। नक्सल प्रभावित कस्बे के जीवन एवं संस्कृति का भी इसमें दर्शन है। दरससल, प्रकाश झा अपनी सामाजिक और राजनीतिक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। इस फिल्म को उन्होंने अपनी शैली के अनुरूप ही बनाया था। लेकिन, ये फिल्म इस समस्या का कोई निराकरण नहीं बताती! मसाला डालने के लिए इसमें एक लव स्टोरी का तड़का भी लगाया गया था। पर, फिल्म का अंत उलझा हुआ ही था। समझ नहीं आता कि कौन सही है और कौन गलत! निर्देशक ने दोनों पक्षों को सही साबित करने की कोशिश की है। फिल्म के अंत में एक विचार रखा जाता है की ‘एक ही धरती के बेटे अपने भाइयों का खून बहा रहे हैं और न जाने इसका अंत क्या है?’ ऐसे विचार दर्शकों के मन में समस्या पैदा करते हैं। जब वे ऐसी फ़िल्म देखने जाते हैं तो ये सोचकर जाते हैं कि समस्या के साथ उसका हल भी सामने आएगा! लेकिन, समस्या वाली अधिकांश फिल्मों में ऐसा नहीं हो पाता!
  ऐसी ही एक फिल्म और बनी थी 'रेड अलर्ट : द वर विदइन' जिसमें निर्देशक आनंद नारायण महादेवन ने सुनील शेट्टी से आंध्र प्रदेश के एक अनपढ़ गांववाले का किरदार अदा करवाया था। जो काम के चक्कर में नक्सालियों में फंस जाता है। वो उनका संघर्ष भी देखता है और उनका हिस्सा बन जाता है। एक दिन पुलिस मुठभेड़ में वो पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। उनके दल के सरगना का रोल विनोद खन्ना ने निभाया था, जो सुनील शेट्टी मारने जाता है। इसके बाद वहाँ कुछ ऐसा घटता है और फिर अगले सीन में सुनील शेट्टी को बड़ा व्यापारी दिखाया जाता है।
  'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' को नक्सल आंदोलन पर अब तक बनी सबसे अच्छी फिल्म माना जा सकता है। इस फिल्म में जंगल में बैठे नक्सलियों को दिखाया गया है कि किस तरह से देश के बड़े संस्थानों में बैठे बुद्धिजीवियों का उन्हें समर्थन है। कैसे वे देश के यूथ के दिल और दिमाग में संपन्न समाज के खिलाफ हिंसक सोच भरने का काम कर रहे हैं। इस फिल्म का सोच कितना प्रेक्टिकल था ये दिल्ली के जेएनयू में 2016 में घटी घटनाओं से स्पष्ट भी हो गया।
   इस फिल्म की कहानी एक ऐसे छात्र और प्रोफेसर के बीच में से गुज़रती है, जो बिल्कुल अलग पृष्ठभूमि के लोग हैं। प्रोफेसर पूंजीवादियों की तरह करते हैं, लेकिन अंदर से कठोर साम्यवादी हैं। वो ऐसे छात्रों को तैयार करने की कोशिश में लगा रहता है जो उसके बाद उसकी लड़ाई को आगे बढ़ा सकें! फिल्म की सबसे ख़ास बात ये है कि फिल्म में इस समस्या का एक समाधान सुझाया गया है। फिल्म के अंत में प्रोफेसर कहता है 'आपके कामरेड को भी समझ में आ गया कि उसकी समस्या का समाधान बंदूकें नहीं बिज़नेस में है। साथ ही वो वनवासियों के बनाए प्रोडक्ट्स बेचने के लिए अपना प्रोजेक्ट भी दिखाता है।
  इस नजरिए से इस समस्या पर अभी तक बनी फिल्मों में 'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' अब तक की सबसे अच्छी फिल्म है। इसमें समस्या का उचित समाधान भी सुझाया गया है। अब ये सरकार का काम है कि वो इस समाधान का कैसे उपयोग किया जाए। मुद्दे की बात ये कि इस फिल्म में किसी विचारधारा का पक्ष नहीं लिया गया! बल्कि, बीच का रास्ता सुझाया गया है।
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Sunday, August 13, 2017

परदे पर कई रंग भरती है बरसात

- हेमंत पाल 


  सावन और हिंदी सिनेमा का एक खास रिश्ता रहा है। बरसात के प्रति फिल्मकारों का प्रेम इसी से झलकता है कि उन्होंने बरसात को केंद्र में रखकर कई यादगार फ़िल्में बनाई। बरसात ने ही गीतकारों और फिल्मकारों की कल्पनाशीलता को एक नई उड़ान दी। रोमांस, विरह, चुहलबाजी और मनुहार को दर्शाने के लिए फिल्मकारों ने बरसात को जरिया बनाया। ऐसे में संगीतकारों और गीतकारों ने भी अदभुत सौंदर्य परख और काव्यानुभूति का परिचय देते हुए बरसात के गानों को यादगार बना दिया। राजकपूर की फिल्म 'श्री 420' में बरसते पानी में छाते के आदान-प्रदान को लेकर गीत प्यार हुआ इकरार हुआ, फिर प्यार से क्यूं डरता है दिल ... फिल्माया गया। राजकपूर और नरगिस ने एक-दूसरे की आंखों में गहराई से झांकते हुए बरसते पानी के बीच जिस तरह एक-दूसरे को छाता देकर बारिश से बचाने का प्रयास किया, वह लाजवाब था। जब राजकपूर नरगिस के प्रति प्यार दर्शा रहे थे, उस समय रेनकोट में तीन बच्चों के दृश्य ने इस गीत को और भी प्रभावी बना दिया।  
   किशोर कुमार की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' भी पुराने दर्शक कैसे भूल सकते हैं। बारिश में भीगी शर्माती मधुबाला को, जो अपनी खराब कार किशोर कुमार के गैरेज में लेकर आती है। इसी दृश्य ने उन्हें एक लड़की भीगी भागी सी ... गीत गाने को प्रेरित। फिल्म में ये गाना बरसात की उस ताकत का अहसास कराने के लिए फिल्माया गया था, जो दो अनजान लोगों में प्रेम के अंकुरण को पैदा कर देता है। रोमांटिक गीतों का उपयोग फिल्मों में औजार की तरह किया जाता है, जो अपने संगीत से दिलों के भीतर उमड़ रहे प्रेम को प्रदर्शित कर देते हैं। 
  बरसात सिर्फ गानों में ही दिखी ऐसा नहीं है। बरसात ने फिल्मों में पात्र की तरह भी कमाल दिखाया है। कभी कहानी में टि्वस्ट लाना हो या क्लाइमेक्स को रोमांचक बनाना हो, बरसात हिट फार्मूला साबित हुई है। कई फिल्मकारों ने बरसात का उपयोग मौके की नजाकत को उभारने के लिए किया। कुछ फिल्मों में बरसात मधुर मिलन और खुशी की सूत्रधार बनी तो कुछ फिल्मों नायक नायिका को जुदा कराने वाली खलनायिका बन बैठी! 'बरसात की एक रात´ में भारत भूषण को मधुबाला के दीदार कराने का श्रेय बरसात को ही जाता है। कई फिल्मों में हीरो बरसात में बस-स्टाप पर खड़ी हीरोइन को देखते ही प्यार कर बैठता है। कुछ फिल्मों में बरसात में एक ही जगह फंसे नायक नायिका कट्टर दुश्मनी होने के बावजूद प्यार करने लगते हैं। `हिना´ की कहानी की दिशा बारिश ने ही तो बदली थी। तेज बारिश के चलते ही ऋषि कपूर अपनी मंगेतर के पास जाने की बजाय पाकिस्तान की हिना यानी जेबा बख्तियार के पास पहुंच जाता है। `मैंने प्यार किया´ में नायक सलमान खान जीतोड़ मेहनत से जमा किए पैसे जब नायिका के पिता को देने जा रहा है तो विलेन अपने गैंग के साथ उसे बरसात में मारता पीटता है।  
  आस्कर के लिए नामित आमिर खान की फिल्म `लगान´ की कहानी में बदलाव बरसात की वजह से ही आयता है। बरसात गांव को धोखा दे देती है, गरीब लोग खेती नहीं कर पाते हाँ और लगान देने में असमर्थ होते हैं। भुवन (आमिर खान) अंगरेजी साम्राज्य से लोहा लेने के लिए प्रेरित होता है।फिल्म के क्लाइमेक्स में मैच जीतने की खुशी में नाचते गांव वालों पर झमाझम बूंदे गिरने लगती है। जैसे अपना उद्देश्य पूरा होते ही बरसात भी गांव वालों की खुशी में शरीक होने आ गई। फिल्मकारों के लिए बरसात सिर्फ गाने या क्लाइमेक्स की सिचुशन ही है, महत्वपूर्ण टर्निंग पॉइंट भी है।  
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निशाने पर हैं भाजपा के कई विधायक


भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तीन दिन भोपाल में रहेंगे। उनके तीन दिनों का कार्यक्रम तय है। लेकिन, संगठन के साथ बैठक में इस मुद्दे पर भी विचार हो सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव में किसे टिकट दिया जाएगा और किसे नहीं! क्योंकि, पार्टी के सामने सबसे बड़ा सवाल प्रदेश में चौथी बार सरकार बनाना है। सरकार बनाने के लिए भाजपा को जीतने वाले उम्मीदवारों पर दांव लगाना पड़ेगा! लेकिन, ये उम्मीदवार कौन होंगे, ये चुनाव भी आसान नहीं है। वर्तमान विधायकों में से किसे फिर टिकट दिया जाए और किसका काटा जाए ये मुश्किल काम है। क्योंकि, जिसका टिकट कटेगा, उसकी भूमिका का ध्यान रखना भी पार्टी के लिए जरुरी होगा।       

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- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में चुनाव अभी करीब सवा साल बाकी है। लेकिन, भाजपा में जिस तरह की हलचल दिखाई दे रही है ये पार्टी की घबराहट दर्शा रही है। संगठन के सामने सबसे बड़ा सवाल टिकटों के बंटवारे का होगा। अभी ये तय नहीं है कि पार्टी उन सभी विधायकों को फिर टिकट देगी जो पिछली बार जीतकर आए थे। करीब एक दर्जन मंत्री तो संगठन की नजर में हैं, जिनके टिकट कटेंगे! पर, ऐसे विधायकों की गिनती अभी नहीं की गई। सबसे टेढ़ा काम तो ये है कि उनका मूल्यांकन कैसे होगा? पार्टी किस आधार पर किसी विधायक का टिकट काटेगी और यदि काटती है तो उसे समझाया कैसे जाएगा? ये सब आसान नहीं है। जिस भी विधायक का टिकट कटेगा उसके सेबोटेज का खतरा भी सरकार को झेलना है।  
  यही कारण है कि भाजपा ने सभी विधायकों का रिपोर्ट कार्ड अलग-अलग माध्यमों से बनवाना शुरू कर दिया है। उधर, संघ भी इसी काम में लगा है। अंदर की ख़बरें बताती है कि तीन स्तरों पर रिपोर्ट कार्ड बनाया जा रहा है। जिन विधायकों की अनुशंसा तीनों रिपोर्ट में होगी, उनके टिकट कटने से कोई नहीं रोक सकता। रिपोर्ट में विधायक के क्षेत्र में उसकी और पार्टी की इमेज का पता लगाया जाएगा। लोगों के बीच विधायक की छवि, कामकाज के प्रति गंभीरता, व्यवहार, विधायक के आसपास रहने वाले लोगों की छवि के अलावा कार्यकाल में उसकी बढ़ी संपत्ति को भी परखा जा रहा है। उस क्षेत्र में विपक्षी पार्टी की स्थिति का भी पार्टी पता लगा रही है। जो भी विधायक पार्टी के इस मूल्यांकन पर खरे नहीं उतरेंगे, उनके टिकट कटना तय है। ऐसी जगहों पर नए चेहरों को आजमाया जाएगा। 
   पार्टी ने हर क्षेत्र में तीन नए चेहरों का पैनल बनाना भी तय किया है। लेकिन, टिकट किसको मिलता है, ये यक्ष प्रश्न है। इस बार भाजपा उम्र की सीमा को आधार बनाकर भी कुछ विधायकों ले टिकट काट सकती है। भाजपा ने अपने सर्वेक्षण में वर्तमान विधायक, संभावित नए चेहरों और भाजपा में अन्य पार्टियों से आए विधायकों के लिए भी कुछ मापदंड निर्धारित किए हैं। ये मापदंड भी टिकट मिलने या काटने का आधार बनेगा। सीधी सी बात ये है कि भाजपा इस बार सिर्फ उन्हीं चेहरों पर दांव लगाएगी जो पार्टी के खांचे में फिट बैठेंगे! भाजपा इस बार कोई भी रिस्क लेकर चुनाव मैदान में उतरने के मूड में नहीं है। उम्मीदवारों की छवि को प्रभावित करने वाले कारकों को भी परखेगी! संघ के पदाधिकारियों के साथ प्रदेश संगठन भी मिलने वाली सारी रिपोर्टों का अध्ययन करेगा और उसी आधार पर टिकट मिलने या कटने का फैसला होगा। 
   भाजपा विधायकों की शुरूआती रिपोर्ट में आए निगेटिव नतीजों को लेकर सत्ता और संगठन में हड़कंप भी हो चुका है। चंबल, विंध्य बुंदेलखंड के अलावा मालवा क्षेत्र के भी कई भाजपा विधायकों की रिपोर्ट बहुत कमजोर आई है। यही कारण है कि पार्टी ने निश्चय कर लिया है कि सदाशयता के आधार पर किसी को टिकट नहीं दिया जाएगा। यदि संगठन के जिम्मेदार लोगों की बात पर भरोसा किया जाए तो करीब सौ वर्तमान विधायक (जिनमें मंत्री भी शामिल हैं) के टिकट निशाने पर हैं। क्योंकि, सिर्फ जीतने की संभावना और नेता पुत्र या पुत्रियों के आधार पर इस बार शायद भाजपा किसी को टिकट न दे! लेकिन, सबसे बड़ा खतरा ये भी है कि जिसका टिकट काटा जाएगा उसकी भूमिका को भी परखा जाएगा! ,क्योंकि ऐसी स्थिति में वो या तो बगावत करके किसी अन्य दल से चुनाव में खड़ा हो सकता है या पार्टी में रहकर उसका खेल बिगाड़ सकता है जिसे पार्टी ने उसे हटाकर टिकट दिया हैं।
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Sunday, August 6, 2017

आलिया के करियर को यहाँ से देखिए

- हेमंत पाल 

    आईफा अवॉर्ड्स को बॉलीवुड का ऑस्कर माना जा सकता है। अन्य अवार्ड्स शो के मुकाबले आईफा को ज्यादा सही और निष्पक्ष मूल्यांकन समझा जाता है। इस नजरिए से देखा जाए तो इस बार हुए 18वें आईफा अवार्ड्स में आलिया भट्ट को 'उड़ता पंजाब' में बेहतरीन एक्टिंग अवॉर्ड्स के लिए चुना जाना इस अभिनेत्री के सुनहरे भविष्य का संकेत है। सिर्फ छह साल के करियर में 24 साल की इस अभिनेत्री ने अपने समकालीन कई बड़ी अभिनेत्रियों को मीलों पीछे छोड़ दिया। 'उड़ता पंजाब' के अलावा 'डियर जिंदगी' और 'हाई वे' में आलिया ने जिस तरह के चुनौतीपूर्ण किरदार निभाए हैं उन्हें आसान नहीं कहा जा सकता।      आलिया भट्ट की 'डियर जिंदगी' उन फिल्मों में से है जिससे इस अभिनय की इस नई पौध को अंकुरित होते हुए देखा जा सकता है। इस फिल्म में बहुत अच्छा बिजनेस तो नहीं किया, लेकिन ये पूरी तरह आलिया भट्ट की फिल्म हहि जा सकती है। इस फिल्म में कोई रोमांटिक कहानी नहीं है और न कोई ऐसे फॉर्मूले हैं, जो फिल्म को आगे बढ़ाएं। लेकिन, फिर भी फिल्म ने दर्शकों को इसलिए बांधकर रखा कि इसमें आलिया ने श्रेष्ठ अभिनय किया है। गौरी शिंदे ने जब आलिया को फिल्म में कायरा के किरदार के लिए चुना होगा, तब क्या सोचा होगा, ये गौरी शिंदे के बारे में सोचने वाली बात है! नए ज़माने की इस अभिनेत्री ने बेहतरीन अभिनय किया है। आलिया को 'उड़ता पंजाब' के लिए आईफा अवार्ड्स जरूर मिला, पर 'उड़ता पंजाब' में बहुत कुछ ऐसा है जो फ़िल्मी फार्मूला है, जबकि आलिया को यदि किसी फिल्म के लिए याद किया जाना चाहिए तो वो है 'डियर जिंदगी।'      
  आलिया ने अपनी एक्टिंग से आलिया ने साबित कर दिया की वो केवल क्यूट नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अभिनेत्री हैं। आलिया ने जब इंडस्ट्री में कदम रखा, तब उनका मुकाबला करीना कपूर, कैटरीना कैफ़ जैसी ऐक्ट्रेस से था। आलिया ने अच्छी फिल्में चुनी और ख़ुद को साबित भी किया। अभिनेत्री के तौर पर आलिया की पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर थी' लेकिन फिल्म 'संघर्ष' में आलिया ने प्रीति ज़िंटा के बचपन का किरदार भी निभाया था। आलिया का आत्मविश्वास इस बात से नजर आता है कि उन्हें अपनी फिल्में हिट कराने के लिए किसी सुपरस्टार की जरूरत नहीं जान है। इसी आत्मविश्वास का नतीजा है कि आलिया को गंभीर फिल्मकार मेघना गुलजार ने अपनी फिल्म 'राजी' के लिए चुना है। 
     बॉलीवुड की नई पीढ़ी और फ्रेश टैलेंट्स में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है वो आलिया ही है। अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' से अपना करियर शुरू करने वाली आलिया ने अपने चंद साल के करियर में और 23 साल के उम्र में वो ऊंचाई पाई, जो पाने में कलाकारों की पूरी जिंदगी निकल जाती है। भले ही 'उड़ता पंजाब' को विवादों के बाद भी सफलता नहीं मिली हो, पर फिल्म में बिना मेकअप वाली आलिया के काम को दर्शकों ने जमकर सराहा! 'हाइवे' में भी इस एक्ट्रेस ने अपह्त का किरदार निभाया था, जो उसी से प्यार करने लगती है, जो उसका अपहरण करता है। ये आलिया की दूसरी ही फिल्म थी। लेकिन, वे तारीफ की हकदार बनी हैं। उन्होंने अपने हिस्से का काम बखूबी से किया था। 
   बॉलीवुड के सबसे आधुनिक और खुलेपन के विचारों वाले महेश भट्ट परिवार की इस बेटी को अभिनय विरासत में मिला है। यही कारण है कि इस परिवार के सभी बच्चे भी अपने आपमें अलग हैं। आलिया का आइडिया है कि उन पर व उनकी दोनों बहनों की जिंदगी पर आधारित फिल्म बनना चाहिए। यदि तीनों भट्ट बहनों पर फिल्म बनाई जाए, तो यह बहुत बढिय़ा कहानी होगी। वे, शाहीन और पूजा बिल्कुल अलग-अलग शख्सियत हैं। ऐसे में जब हमें मिलाया जाएगा, तो यह बहुत मजेदार होगा। फिल्म की शैली ड्रामा व हास्य वाली होगी। खैर, ये तो हाइपोथीटिकल बात है, पर 'डियर जिंदगी' को जब भी याद किया गया, उसका कारण गौरी शिंदे का डायरेक्शन या शाहरुख़ खान भले न हों, आलिया भट्ट का अभिनय जरूर होगा। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि नए ज़माने की एक्ट्रेस में आलिया का जवाब नहीं! अभी तक अालिया भट्ट को ग्लैमरस रोल के अलावा हाइवे, उड़ता पंजाब में अभिनय के लिए जाना जाता है। लेकिन, इस अभिनेत्री ने साबित कर दिया कि अभिनय के मामले में वे किसी से कम नहीं।
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Friday, August 4, 2017

जीवन में ऐसा क्या बदला कि लोग 'आनंद' से झूमे?


  शिवराज सरकार ने पिछले साल बड़ी धूमधाम से जनता को ख़ुशी देने के लिए 'आनंद विभाग' के गठन की घोषणा की थी। पहले इस कांसेप्ट को 'आनंद मंत्रालय' कहा गया था। लेकिन, भारी उहापोह के बाद बना 'आनंद संस्थान।' लेकिन, सालभर बाद भी सरकार तय नहीं कर सकी कि ये संस्थान लोगों को ख़ुशी कैसे देगा? भूटान की तर्ज पर जनता का 'हैप्पीनेस इंडेक्स' तैयार करने की भी बात कही गई थी। पर, न तो इस तरह का कोई काम हो पाया न संस्थान ने कोई आधारभूत योजना तैयार की। सरकार ने 'हैप्पीनेस इंडेक्स' के लिए आईआईटी खड़गपुर से करार जरूर कर लिया! अब सर्वें के जरिए ये इंडेक्स बनाया जाएगा। वास्तव में भौतिक समृद्धि महज सुविधा है, ख़ुशी नहीं। इससे आंतरिक खुशी और शांति नहीं मिलती। सरकार को यदि मानसिक ख़ुशी का अहसास कराना है तो उसे जनता के लिए रचनात्मक विकास करना होगा। अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा, जिससे लोगों को वास्तविक आनंद की अनुभूति हो। गुदगुदाने से भी हँसी आती है, ख़ुशी नहीं होती। ऐसे में 'आनंद संस्थान' की सफलता पर अभी तो सवालिया निशान ही है।   

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- हेमंत पाल
  सरकार ने उत्साह में 'आनंद संस्थान' का गठन जरूर कर लिया गया, पर अब तक ये तय नहीं किया जा सका कि आखिर अभावग्रस्त, दुखी, परेशान और भविष्य की चिंता से ग्रस्त जनता को आनंदित कैसे किया जाए? कैसे 'हैप्पीनेस इंडेक्स' का निर्धारण होगा और उसे मापा कैसे जाए! जब कुछ नहीं सुझा तो अफसरों को अमेरिका, भूटान और संयुक्त राष्ट्र के 'हैप्पीनेस इंडेक्स' मापने के तरीकों का अध्ययन करने भेज दिया। पर, ये नहीं सोचा गया कि इन देशों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क है। इनके फॉर्मूले से मध्यप्रदेश के हैप्पीनेस इंडेक्स का निर्धारण कैसे होगा? इन देशों का जीवन स्तर और मध्यप्रदेश के लोगों की जीवन शैली, संस्कृति और जीवन स्तर में जमीन-आसमान का फर्क है। आश्चर्य की बात तो ये कि जब मख्यमंत्री ने जीवन को आनंदित बनाने वाले इस सरकारी प्रपंच की घोषणा की थी, तब सरकार के पास चार पन्ने का कोई आइडिया तक नहीं था। सामने सिर्फ भूटान का फार्मूला था, जो प्रदेश जीवन शैली से साम्य नहीं रखता! 
  दुनिया में कई जगह लोगों के जीवन में खुशहाली लाने का काम हो रहा है। लेकिन, खुशहाली लाने के लिए सबसे पहले सरकार को अपनी जिम्मेदारियां निभाना होती है। वो सारे प्रयास करना होते हैं, जिससे लोगों की व्यक्तिगत मुसीबतें ख़त्म हों और वे खुश हों! जबकि, आज मध्यप्रदेश में हर आदमी महंगाई, भ्रष्टाचार, महंगी बिजली, पानी, सिर पर छत, व्यवसाय, नौकरी, अफसरों की अकड़ और अब जीएसटी से पीड़ित है। ऐसे में कैसे संभव है कि सरकारी गुदगुदी से कोई खुलकर हँस सकेगा? सरकार का 'आनंद संस्थान' बनाने का ये प्रयोग वास्तव में शहरों में चलने वाले 'लाफिंग क्लब' जैसा है! सुबह साथ घूमने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए एक साथ गोला बनाकर खड़े होते हैं और बेवजह हंस लेते हैं! सरकार को लगा होगा कि वो भी लोगों को ऐसे ही हंसने के लिए मजबूर कर सकती है! जिनके जीवन में तनाव, अभाव और हर वक़्त भविष्य की चिंता हो, उन्हें अंतर्मन की ख़ुशी देने में बरसों लग जाएंगे! अपने प्रयोग की कथित सफलता का जश्न मनाने और वाहवाही के लिए सरकार कुछ समय बाद आंकड़ें दिखा दे, पर वो सच नहीं होगा!    
     मध्यप्रदेश वह राज्य है जहां औसतन हर रोज छह किसान ख़ुदकुशी करते हैं। 60 युवतियों के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज होती हैं। 13 महिलाएं दुष्कर्म का शिकार होती हैं। पांच साल की उम्र तक के जीवित प्रति हजार में से 379 बच्चे रोज काल के गाल में समा जाते हैं। 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। ऐसे हालातों में सरकार जनता के आनंद का इंतजाम करने में लगी है। सवाल है कि क्या यह ये प्रयोग वाकई दुखी लोगों के जीवन को आनंदित कर पाएगा या सिर्फ सरकार के प्रचार का माध्यम बनकर रह जाएगा। इससे पहले भूटान के अलावा वेनेजुएला, यूएई में भी ये प्रयोग हो चुके हैं। वर्ष 2016 की 'वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट' के मुताबिक डेनमार्क सबसे खुशहाल देश है। भूटान भी अपने हैप्पीनेस मंत्रालय के कारण चर्चा में रहा। अपने 'आनंद संस्थान' को लेकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का कहना है कि प्रदेश की जनता के चेहरे मुस्कुराते रहें। जिंदगी बोझ नहीं, वरदान लगे। इसके लिए आनंद संस्थान गठित किया गया है।        
  'आनंद संस्थान' ने हज़ारों आनंदकों का पंजीयन कर लिया है। 'आनंदक' यानी वे लोग जो सेवाभाव से लोगों खुश रखने का काम करेंगे! कहा गया है कि ये सभी स्व-प्रेरणा से बने हैं। लेकिन, सालभर में इस संस्थान ने क्या किया, इस सवाल का ठोस जवाब अभी तक सामने नहीं आया! दावा जरूर किया गया कि एक सालभर में आनंद देने वाली कई गतिविधियां संचालित की गई! सात हजार स्थानों में 'आनंद उत्सव' मनाया गया। सरकार का मानना है कि लोक संगीत, नृत्य, गायन, भजन-कीर्तन, नाटक तथा खेलकूद जीवन की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। इसी आधार पर सरकार ने 'आनंद उत्सव' की कल्पना की है। इसके तहत पंचायत स्तर पर सभी आयु ग्रामीणों के लिए खेल तथा सांस्कृतिक आयोजन किए गए। जबकि, असलियत ये है कि ये सिर्फ सरकारी पाखंड था। पंचायतों और स्कूलों में हल्के-फुल्के कार्यक्रम किए गए, जिन्हें 'आनंद उत्सव' नाम दिया गया। 
  'आनंद संस्थान' के गठन के सालभर बाद पिछले दिनों पहली बार संस्थान के बोर्ड की बैठक हुई तो उपलब्धियों के लिए एक-दूसरे की पीठ थपथपाई गई। कहा गया कि सालभर के दौरान आनंदोत्सव, सरकारी कर्मचारियों के बीच सामंजस्य और आनंद क्लब का गठन इस प्रयोग की उपलब्धियां हैं। मुद्दा ये है कि 'आनंद संस्थान' क्या खुद की उपलब्धियों पर ख़ुशी मनाने लिए गठित हुआ था या जनता ख़ुशी देने के लिए? बैठक में कहा गया कि 'हैप्पीनेस इंडेक्स' तैयार होने पर प्रदेश में बदलाव नजर आएगा। यानी लोग ख़ुशी से झूमने लगेंगे। लेकिन, अभी तो वो फार्मूला ही नहीं बना जो लोगों की ख़ुशी मापने का मीटर होगा! ख़ुशी का पैमाना तय होने के बाद सर्वे होगा! इस पूरे काम में करीब सालभर का वक़्त लगेगा। तय है कि तब तक लोगों के दुःख और ज्यादा बढ़ जाएंगे। जबकि, सरकार तो आज भी नए-नए शिगूफे करके जनता के जीवन में खुशहाली का दावा कर रही है! लेकिन, ऐसा कुछ कहीं दिखाई नहीं दे रहा। उधर, विपक्ष का आरोप है कि ये सारा प्रपंच सिर्फ मुख्यमंत्री की ब्रांडिग के लिए बनाया गया है। इसकी उपलब्धि भी सरकार ही समझेगी और जश्न भी मना लेगी। 
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