Monday, January 28, 2019

सुमित्रा महाजन की नौवीं दावेदारी पर उठे सवाल!

   इंदौर की लोकसभा सीट से भाजपा का उम्मीदवार कौन होगा, इसकी दावेदारी शुरू हो गई! बीते 30 सालों में हुए 8 लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सबसे सुरक्षित सीटों में एक इंदौर सीट भी रही है। यहाँ की सांसद सुमित्रा महाजन (ताई) ही इस बार चुनाव लड़ेंगी या फिर किसी नए चेहरे को मौका दिया जाएगा, यह सवाल अभी जवाब का इंतजार कर रहा है। 'ताई' 9वीं बार अपनी किस्मत आजमाना चाहती हैं। उन्होंने पिछले दिनों चुनाव लड़ने के संकेत भी दे दिए। वे इस बारे में विधानसभाओं की बैठकें भी कर चुकी हैं। जबकि, इससे 2014 वाले चुनाव में उन्होंने साफ कहा था कि यह उनका आखिरी चुनाव होगा। 'ताई' के अलावा भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी लोकसभा चुनाव के लिए सक्रिय हो गए! उन्होंने भी कार्यकर्ताओं की बैठकें लेना शुरू कर दी। इस सीट की तीसरी दावेदार महापौर मालिनी गौड़ हैं। उनके पक्ष में भी कुछ सशक्त कारण हैं, जो उनकी दावेदारी को मजबूत बनाते हैं।   
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- हेमंत पाल 
      लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन क्या अगला चुनाव लड़ेंगी? ये सवाल सिर्फ इंदौर ही नहीं, मध्यप्रदेश की राजनीति में गरमागरम मुद्दा बना हुआ है। भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर इंदौर से आठ बार लोकसभा चुनाव जीत चुकी सुमित्रा ताई के बारे में कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। भाजपा के कई बड़े नेता उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' अगला लोकसभा चुनाव न लड़ें! इसके पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं! ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि संभवतः पार्टी आलाकमान ही उन्हें उम्र के फॉर्मूले के आधार पर टिकट देने से इंकार कर दे! इसके अलावा भी कई ऐसे कारण हैं, जो अब 'ताई' की राजनीति के सूर्यास्त की तरफ संकेत कर रहे हैं।
   मध्यप्रदेश भाजपा की बड़ी महिला नेता सुषमा स्वराज, उमा भारती ने अगले लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी से इंकार कर दिया! दोनों ने इसके पीछे अपनी सेहत को कारण बताया है! लेकिन, इंदौर की आठ बार की सांसद और फिलहाल लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन (ताई) ने ऐसा कोई एलान नहीं किया! यहाँ तक कि उन्होंने पिछले चुनाव के दौरान कही गई अपनी बात को भी झुठला दिया कि वे अब चुनाव नहीं लड़ेंगी! अब अगला लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए 'ताई' न सिर्फ तैयार हैं, बल्कि इसके लिए तैयारी भी शुरू कर दी!
   सुमित्रा महाजन ने पिछले लोकसभा चुनाव साढ़े चार लाख के अंतर से जीता था! लेकिन, अब राजनीति की वो कहानी बदल गई! 8 विधानसभा सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों में वोट अंतर भी घटकर 95 हज़ार पर आ गया! ये आंकड़ा 'ताई' के लिए अच्छा संकेत नहीं दे रहा! कुछ लोगों का ये भी मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष के पद पर रहने के बाद 'ताई' को चुनावी राजनीति से खुद अलग हो जाना चाहिए। लगातार आठ बार सांसद रहने के बाद भी वे पार्टी की नंबर दो की लाइन आगे बढ़ ही नहीं पाई। इंदौर में भी उनके पास कोई लॉबी नहीं है। इसका खामियाजा पार्टी को अगले चुनावों में भुगतना पड़ सकता हैं। राजनीतिक जानकारों का भी अंदाजा है कि यदि 'ताई' को फिर मैदान में उतारा गया, तो उनकी स्थिति सत्यनारायण जटिया और लक्ष्मीनारायण पांडेय जैसी हार हो सकती है। मध्यप्रदेश में सरकार भी बदल गई, ये भी एक कारण है कि लोकसभा चुनाव पर असर होगा। सारे हालात देखते हुए पार्टी को मैदान में कोई नया चेहरा उतरना चाहिए।
   इंदौर में लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी के दूसरे सबसे सशक्त दावेदार भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय यानी 'भाई' हैं। 'ताई' यानी सांसद सुमित्रा महाजन और 'भाई' यानी कैलाश विजयवर्गीय के बीच तनातनी के किस्से बहुत पुराने हैं। इंदौर की राजनीति में ऐसे कई प्रसंग हैं, जब इन दोनों के बीच राजनीतिक छापामारी की जंग चली। ये जंग अभी बंद नहीं हुई। इस बार 'ताई' की जगह कैलाश विजयवर्गीय को लोकसभा का उम्मीदवार बनाए जाने की बात उठने लगी है। लेकिन, अब इंदौर में भाजपा राजनीति में गुटबाजी और मतभेदों की एक और नई कथा का वाचन होने लगा। इस कथा की प्रमुख पात्र सांसद सुमित्रा महाजन और महापौर मालिनी गौड़! राजनीतिक अनुभव में इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-4 की विधायक और इंदौर नगर निगम की महापौर मालिनी गौड़ और सांसद सुमित्रा महाजन में कोई साम्य नहीं है। लगातार 8 बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष महाजन उस कुर्सी पर हैं, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उन्हें सम्मान देना पड़ता है। लेकिन, स्वच्छता के मामले में इंदौर के दो बार देश में नम्बर होने से महापौर के तौर पर मालिनी गौड़ का रुतबा बढ़ गया। दिल्ली में भी उनका सिक्का चलने लगा। उनके बढ़ते क़दमों की आहट से सबसे ज्यादा प्रभावित यदि कोई हुआ तो वो सांसद महाजन ही हैं। क्योंकि, मालिनी गौड़ को अगले लोकसभा चुनाव में सांसद की कुर्सी का प्रबल दावेदार माना जाने लगा है।
   महापौर मालिनी गौड़ को पूर्व मुख्यमंत्री के खेमे का नेता समझा जाता रहा है। लेकिन, दोनों महिला नेत्रियों के बीच तलवारें तब निकली, जब देश में 'स्वच्छ इंदौर' का तमगा पाने के बाद होने वाले एक कार्यक्रम को लेकर दोनों ने अड़ीबाजी की। इंदौर को जब पहली बार स्वच्छता का खिताब मिला, तब महापौर ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को स्वच्छ इंदौर पर आयोजित एक कार्यक्रम 'प्रणाम इंदौर' के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन, कहते हैं कि ये कार्यक्रम सांसद सुमित्रा महाजन ने निरस्त करवा दिया था। सांसद सुमित्रा महाजन ने तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू से बात करके उन्हें इंदौर आमंत्रित किया। सुमित्रा महाजन की योजना अपने इस कार्यक्रम में महापौर, निगम आयुक्त और उनकी पूरी टीम का सम्मान करना था। लेकिन, महापौर ने उनकी प्लानिंग बिगाड़ दी। स्थिति यहाँ तक आ गई कि शिवराज सिंह को इसमें दखल देना पड़ा था। अंततः नई तारीख तय की गई, लेकिन, जिस दिन कार्यक्रम होना तय हुआ था, उस दिन घनघोर बारिश हुई और कार्यक्रम नहीं हो पाया। यही कारण है कि इन सारे समीकरणों के बीच मालिनी गौड़ और सुमित्रा महाजन के बीच तालमेल गड़बड़ा गया।
  इंदौर लोकसभा सीट से सुमित्रा महाजन 1989 से लगातार चुनाव जीतती आ रही है! पार्टी में उनके वर्चस्व को किसी ने चुनौती भी नहीं दी! क्योंकि, उनके कामकाज का तरीका आक्रामक नहीं रहा कि वे किसी का रास्ता काटें! लेकिन, उन्होंने अपनी 'चौकड़ी' में कभी किसी को घुसने भी नहीं दिया! वे चंद गैर-राजनीतिक लोगों से घिरी रहती हैं! वे ही उनके राजनीतिक सलाहकार की भूमिका निभाते हैं और वे ही उनके लिए बयानबाजी भी करते हैं! 'ताई' ने अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि भी इंदौर के लिए नहीं जुटाई कि लोग उसके नाम से याद उन्हें याद करें! लेकिन, कुछ मामलों में दखल देकर काम बिगाड़ने का काम जरूर किया! उनकी सारी सक्रियता रेलवे को चिट्ठी लिखने तक ही दिखाई देती रही है। सक्रियता से बचकर रहना 'ताई' की आदत रही है! लोग भी उनकी इस राजनीतिक शैली से कभी खुश नहीं रहे, पर मज़बूरी है कि सामने कोई विकल्प भी नहीं रहा! प्रकाशचंद्र सेठी के बाद कांग्रेस के पास इंदौर में कोई ऐसा नेता नहीं रहा, जो शहर की राजनीति कमांड कर सके! महेश जोशी ने कोशिश जरूर की, पर वे भी गुटबाजी से बाहर नहीं निकल सके!
  'ताई' ने तीन दशक के अपने राजनीतिक जीवन में कभी किसी नेता को पनपने नहीं दिया! बल्कि, कुछ आगे बढ़ते नेताओं को रोकने की कोशिश जरूर की! उनके होते हुए सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' ही अकेले ऐसे नेता रहे, जिन्होंने भाजपा में अपनी अलग राह बनाई! पहले महापौर और बाद में लगातार मंत्री बनते रहे! यही कारण रहा कि जिस भाजपा नेता की पटरी 'ताई' से नहीं बैठी उसने 'भाई' का हाथ थाम लिया! इसके बाद इंदौर में भाजपा की राजनीति दो ध्रुवों पर केंद्रित हो गई! कई बार अपने समर्थकों के लिए दोनों के बीच विवाद भी हुए, पर कभी दोनों आमने-सामने आए हों, ऐसा नहीं हुआ! लेकिन, अब लगता है वो समय आ गया है, जब 'ताई' और 'भाई' आमने-सामने होंगे! इंदौर की लोकसभा सीट से भाजपा की उम्मीदवारी का सवाल भी तभी हल होगा! 
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Monday, January 21, 2019

लोकसभा चुनाव पर भी असर डालेगी कांग्रेस की ये जीत!


    मध्यप्रदेश में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा से सिर्फ प्रदेश की सत्ता ही नहीं छीनी, बल्कि लोकसभा चुनाव की रणनीति को भी झकझोर दिया है। कांग्रेस को जो सफलता मिली, उससे भाजपा की 12 लोकसभा सीटों पर भी सीधा असर पड़ा! इनमें से 8 पर तो कांग्रेस को काफी ज्यादा वोट मिले हैं! जबकि, 4 सीटों पर लाखों वोटों का अंतर घटकर हज़ारों में सिमट गया! प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटें हैं, इनमें से सिर्फ 3 कांग्रेस के पास हैं और 26 पर भाजपा का कब्ज़ा है। विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने कांग्रेस के कब्जे वाली छिंदवाड़ा, गुना और झाबुआ सीटों को छीनने की तैयारी की थी! लेकिन, लगता है अब भाजपा को अपना लक्ष्य बदलना पड़ेगा! उसे कांग्रेस से सिर्फ तीन सीट ही नहीं छीनना है, अपनी भी 12 सीटें बचाने जुगत भी लगाना पड़ेगी! भाजपा की खतरे वाली सीटों में भाजपा के दिग्गज नेता नरेंद्र तोमर, फग्गनसिंह कुलस्ते, अनूप मिश्रा और नंदकुमार सिंह चौहान की सीटें भी है!   
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- हेमंत पाल 
   चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा आराम की स्थिति में नहीं है! विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जिस तरह भाजपा की बराबरी का मुकाबला किया है, उसका असर लोकसभा चुनाव पर भी पड़ना तय है। 2013 के विधानसभा चुनाव 56 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के पास इस चुनाव में 114 सीटें हैं। निश्चित रूप से वोटों का ये गणित भाजपा के चुनावी समीकरण बिगाड़ेगा! प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का होना भी कहीं न कहीं चुनाव पर प्रभाव तो डालेगा ही! नरेंद्र मोदी की आंधी की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की 29 में से 27 सीटें जीती थीं। लेकिन, सालभर में ही झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट के सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन के कारण यहाँ उपचुनाव हुए! भाजपा को पहला झटका तभी लग गया था, जब इस उपचुनाव में कांग्रेस ने ये सीट फिर जीत ली।     
  विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह बढ़त मिली है, उससे भाजपा की 12 लोकसभा सीटें सीधे-सीधे खतरे में नजर आ रही हैं। ग्वालियर के सांसद और भाजपा के दिग्गज नेता नरेंद्रसिंह तोमर की सीट भी डेंजर झोन में हैं। अनूप मिश्रा, फग्गन सिंह कुलस्ते, भागीरथ प्रसाद, प्रहलाद पटेल, रोडमल नागर, सुमित्रा महाजन और सावित्री ठाकुर को भी सीट बचाने के लिए जोर लगाना पड़ेगा। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी जबलपुर सीट पर चक्रव्यूह में घिरे नजर आ रहे हैं। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की खंडवा सीट भी अब उनके लिए आसान नहीं दिख रही।
   नरेंद्र तोमर ने पिछला लोकसभा चुनाव ग्वालियर सीट से 29,699 वोट से जीता था। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहाँ की 7 विधानसभा सीटें जीत ली। जबकि, संसदीय क्षेत्र में भाजपा 5 विधानसभा सीटों से लुढ़ककर एक पर आ गई! भाजपा ने सिर्फ ग्वालियर ग्रामीण पर पार्टी का परचम लहराया है। जबकि, कांग्रेस ने ग्वालियर, ग्वालियर-पूर्व, ग्वालियर-दक्षिण, भितरवार, डबरा, करेरा और पोहरी सीटें जीती है। वोटों के अंतर से देखा जाए तो यहाँ कांग्रेस 1,33,936 वोट से आगे है। चंबल इलाके की ही भिंड लोकसभा सीट पर भी भाजपा की हालत खस्ता है। यहाँ से सांसद भागीरथ प्रसाद की सीट खतरे में पड़ गई! यहाँ की 8 में से 4 विधानसभा सीटें इस बार भाजपा ने गँवाई है, उसे सिर्फ दतिया और अटेर सीटों पर ही जीत हांसिल हुई! जबकि, कांग्रेस ने लहार, मेहगांव, गोहद, सेवढ़ा और भांडेर सीटें जीती! भिंड की सीट बसपा के खाते में गई! विधानसभा में वोटों के अंतर परखा जाए तो इस लोकसभा सीट पर कांग्रेस 99,280 वोटों से आगे है। भाजपा के ही एक बड़े नेता अनूप मिश्रा की मुरैना सीट से भी खतरे की घंटी सुनाई दे रही है। यहाँ कांग्रेस ने श्योपुर, सबलगढ़, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी और अंबाह को मिलाकर 7 सीटों पर कब्ज़ा जमाया है। भाजपा को सिर्फ विजयपुर की जीत से संतोष करना पड़ा। यहाँ कांग्रेस 1,26,842 वोटों से आगे है।
  विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा के एक और बड़े नेता और सांसद फग्गनसिंह कुलस्ते की चिंता भी बढ़ा दी। क्योंकि, मंडला संसदीय क्षेत्र की 6 सीटों शाहपुर, डिंडोरी, बिछिया, निवास, लखनादौन और गोटेगांव पर कांग्रेस जीती है। भाजपा के हिस्से में मंडला और केवलारी सीटें आई! इस लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस 1,21,688 वोटों से आगे है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की खंडवा भी अब सुरक्षित नहीं रही! यहाँ कांग्रेस 26,294 वोटों से आगे है। 2013 के विधानसभा चुनाव में 7 सीटें जीतने वाली भाजपा 3 सीटों (खंडवा, पंधाना, बागली) पर सिमट गई! जबकि, कांग्रेस ने 4 सीटें नेपानगर, भीकनगांव, बड़वाह और मंधाता पर झंडा गाड़ा! बुरहानपुर सीट कांग्रेस के बागी उम्मीदवार ने जीतकर भाजपा सरकार मंत्री रही अर्चना चिटनिस को हरा दिया!
  धार की लोकसभा सीट 2014 के चुनाव में भाजपा की सावित्री ठाकुर ने जीती थी। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास 6 सीट थीं। अब इतनी ही सीटें कांग्रेस के पास है। कांग्रेस के पास सरदारपुर, कुक्षी, गंधवानी, मनावर, बदनावर और धरमपुरी सीटें हैं! जबकि, भाजपा को सिर्फ धार और महू सीटों पर ही जीत हांसिल हुई! इस लोकसभा सीट पर कांग्रेस 2,20,070 वोटों से आगे है। यही स्थिति राजगढ़ लोकसभा सीट की है, जहाँ से 2014 का चुनाव भाजपा के रोडमल नागर ने जीता था। इस बार यहाँ से कांग्रेस ने 5 सीटें राजगढ़, खिलचीपुर, चांचौड़ा, ब्यावरा और राधौगढ़ जीती है। भाजपा के हिस्से में नरसिंहगढ़ और सारंगपुर ही आए! कांगेस के बागी ने सुसनेर सीट पर कब्ज़ा जमा लिया! यहाँ भी कांग्रेस 1,85,010 वोटों से आगे है। बैतूल लोकसभा की सांसद ज्योति धुर्वे की भी लुटिया सलामत नहीं लग रही! 2013 के विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र में भाजपा के खाते में 6 सीटें थीं, जो अब घटकर अब 4 (अमला, हरदा, हरसूद, टिमरनी) रह गई हैं। कांग्रेस के खाते में भी मुलताई, बैतूल, घोड़ाडोंगरी और भैंसदेही सीट आई है। बैतूल लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस 40676 वोटों से आगे है। 
  ये तो वो लोकसभा सीटें हैं, जहाँ भाजपा की हालत स्पष्ट खस्ता नजर आ रही है। लेकिन, इंदौर, जबलपुर, दमोह और उज्जैन ऐसी सीटें हैं जहाँ विधानसभा चुनाव में भाजपा के वोट बहुत ज्यादा घटे हैं। इंदौर सीट से पिछला लोकसभा चुनाव साढ़े 4 लाख से जीतने वाली सुमित्रा महाजन की इस सीट पर अब वोटों का अंतर घटकर 95,380 वोट रह गया है। यहाँ पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट जीतने वाली कांग्रेस के पास अब 4 सीटें हैं। जबलपुर लोकसभा सीट से 2 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीतने वाले भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की भी हालत पतली नजर आ रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में यहाँ भाजपा के पास 6 सीटे थीं और कांग्रेस के पास 2 थी। लेकिन, इस बार दोनों पार्टियों में सीटें आधी-आधी बंट गई है। वोट का अंतर भी भाजपा के पक्ष में घटकर 37,833 रह गया!
    दमोह लोकसभा सीट के सांसद प्रहलाद पटेल भी मुश्किल में हैं। क्योंकि, 2 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीतने वाले इस दिग्गज भाजपा नेता के पास अब सिर्फ 11 हज़ार वोटों की लीड बची है। इस संसदीय क्षेत्र की 8 में से 4 सीटें (बंडा, देवरी, मलहरा, दमोह) कांग्रेस ने जीत ली! भाजपा के खाते में रेहली, जबेरा और हटा गई! जबकि, पथरिया सीट बसपा ने जीती। उज्जैन लोकसभा सीट 3 लाख से जीतने वाले चिंतामणी मालवीय के सामने भी राह आसान नहीं है। मालवीय 3 लाख वोट से जीते थे। 2013 में आठों सीट भाजपा जीती थी, अब कांग्रेस ने 5 सीटें छीन लीं। यहाँ वोटों का अंतर 14,643 रह गया है। पिछले विधानसभा चुनाव में सभी 8 सीटें जीतने वाली भाजपा को इस बार उज्जैन-उत्तर, उज्जैन-दक्षिण और महिदपुर सीट मिली। कांग्रेस ने 5 (बड़नगर, नागदा-खाचरौद, तराना, घटिया, आलोट) पर जीत दर्ज की है।
  भाजपा ने विधानसभा चुनाव में शाजापुर-देवास से सांसद मनोहर ऊंटवाल को आगर, खजुराहो के सांसद नागेंद्रसिंह को नागौद व मुरैना के सांसद अनूप मिश्रा को भितरवार से टिकट दिया था। ऊंटवाल व नागेंद्रसिंह ने तो विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की। वहीं, अनूप मिश्रा विधानसभा चुनाव हार गए। विधानसभा चुनाव से बदले समीकरणों ने भाजपा के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया। जिन लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा के वोट घटे हैं, क्या वहाँ उम्मीदवारों को बदला जाएगा? ऐसे में नए उम्मीदवारों को खोजना भी आसान नहीं होगा! भाजपा इस मुश्किल से कैसे निकलती है, इसका जवाब कुछ दिन बाद मिलेगा।
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परदे से उतरती 'खान' सल्तनत!

- हेमंत पाल

   बॉलीवुड में हमेशा ही कलाकारों का एक दौर चलता रहा है। जिसका दौर रहता है, उसकी हर फिल्म हिट होती है। सौ सालों से ज्यादा पुरानी फ़िल्मी दुनिया में दर्शकों की पसंद, नापसंद भी बदलती रहती है। लेकिन, ये बात महिला कलाकारों से ज्यादा पुरुष कलाकारों पर ज्यादा लागू होती है। पिछले कई सालों से परदे की दुनिया में तीन खानों का बोलबाला रहा है। लेकिन, अब धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं। शाहरुख़, सलमान और आमिर तीनों ही खान दर्शकों की पसंद की फेहरिस्त से बाहर होते जा रहे हैं। अभी ये नहीं कहा जा सकता कि दर्शकों ने इन्हें पूरी तरह नकार दिया, पर खानों के किले में दरारें तो पड़ने लगी हैं।
   अभी तक सलमान, आमिर और शाहरुख की फिल्मों को सफलता की गारंटी माना जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। पिछले कुछ सालों में तीनों खानों की फ़िल्में बुरी तरह पिटी हैं। आमिर, सलमान और शाहरुख ने वैसी ही सफलता हांसिल की, जैसी कभी राज कपूर, दिलीप कुमार और देवआनंद की त्रिमूर्ति ने की थी। ये तीनों खान पुराने कलाकारों जैसी कालजयी फिल्में तो नहीं दे पाए, लेकिन सफल फिल्मों के जरिए अपने दबदबे को जरूर बनाए रखा। इनकी फ़िल्में तो आई, लेकिन वो बॉक्सऑफिस पर कोई कमाल नहीं कर पाई, जितनी की उम्मीद की गई थी।
    इन तीनों खानों ने तीन दशकों से बॉलीवुड पर कब्ज़ा जमा रखा है। लेकिन, अब लगने लगा है कि ये दर्शकों के दिलों-दिमाग से उतरने लगे हैं। इसका कारण रणवीर सिंह, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव और विक्की कौशल जैसे नए कलाकारों का उभरना है। दूसरा कारण डिजिटल प्लेटफार्म के प्रति दर्शकों की रूचि बढ़ना है। आज के युवा दर्शक मनोरंजन का मतलब ज्यादा ही अच्छी तरह समझते हैं। उन्हें मनोरंजन का मौलिक स्वरुप पसंद आता है, न कि बनावटीपन! इन दर्शकों को कुछ नया और अलग चाहिए जो आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव जैसे कलाकारों से उन्हें मिल रहा है।
  फिल्म इंडस्ट्री के लिए बीता साल (2018) खास रहा है। इस साल कम बजट में नए कॉन्सेप्ट वाली फिल्मों को पसंद किया गया। इससे ये भी साफ़ हो गया कि समय के साथ-साथ दर्शकों की पसंद भी तेजी से बदल रही है। ये साल आयुष्मान खुराना, विक्की कौशल और राजकुमार राव के नाम रहा और ये तीनों बॉलीवुड पर बरसों से ख़म ठोंककर बैठे तीनों खान्स पर भी भारी पड़े। खान्स की तिकड़ी को भी अब अच्छी कहानी, बड़े निर्देशक और भव्य सेटअप की जरूरत पड़ने लगी है। अब ये अपने स्टारडम के बूते पर हल्की फिल्म को हिट कराने का कमाल नहीं कर पाते! 
  सलमान खान की ट्यूबलाइट, रेस-3 का फ्लॉप होना उनके लिए खतरे की घंटी है कि अब उन्हें खुद की ब्रांड वेल्यू को समझना चाहिए! कहानी अच्छी होगी, तभी फ़िल्में चलेंगी! एक दौर ऐसा था, जब सलमान खान का किसी फिल्म में होना ही सफलता की गारंटी था! लेकिन, अब ऐसा नहीं रहा। ईद और सलमान की सफलता वाला मिथक भी टूट गया। सलमान की पिछली पांच में से दो फ़िल्में फ्लॉप रही। शाहरुख़ खान की फैन, हैरी मेट सेजल और हाल ही में 'ज़ीरो' का धराशाई होना उनके स्टारडम के ध्वस्त होने का इशारा है। तीनों खानों में शाहरुख खान का प्रदर्शन सबसे कमजोर हो गया है और वे इस तिकड़ी के सबसे कमजोर सितारे हैं।
  बॉलीवुड में आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहा जाता है। वे सोच-समझकर फिल्में करते हैं! लेकिन, 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान' का जो हश्र हुआ, उसने इस भरोसे को तोड़ दिया। ये निहायत बेतुकी फिल्म रही! लगातार हिट फिल्म दे रहे आमिर के लिए 'ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान' करारा झटका है। आमिर की पिछली पांच में से दो फ़िल्में फ्लॉप रही! लेकिन, तीन फिल्मों की ऐतिहासिक सफलता से उनका पलड़ा शाहरुख और सलमान से आज भी भारी है। इन तीन खानों के बाद दर्शकों की पसंद में आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव और विक्की कौशल के अलावा रणवीर सिंह और वरुण धवन का भी दबदबा बढ़ रहा है। रणबीर कपूर के साथ रणवीर सिंह भी हिट फिल्म दे चुके हैं। 'अक्टोबर' और 'सुई-धागा' जैसी फिल्मों से वरुण धवन तेजी से उभरे हैं।
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कमलनाथ सरकार के फैसले और रिवर्स गियर!



- हेमंत पाल
   कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को मध्यप्रदेश में सरकार चलाते महीनाभर हो गया! इतने दिनों में सरकार ने कई फैसले किए और उन्हें लागू भी किया! लेकिन, देखा गया कि फैसले कम किए, वापस कुछ ज्यादा ही लिए! सरकार का ये महीनेभर का कार्यकाल कई मामलों में यादगार रहा। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उम्मीद की गई थी, कि मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद कमलनाथ भाजपा की 15 साल चली सरकार के फैसलों को कसौटी पर कसेंगे! अच्छे फैसले लागू होंगे और मनमाने फैसलों को बंद किया जाएगा या बदला जाएगा। लेकिन, देखा गया कि सरकार ने फैसले कम लिए, अपने ही फैसलों पर यू-टर्न ज्यादा लिया। इस कारण प्रदेश सरकार को कई बार नीचा भी देखना पड़ा!     
    कांग्रेस की राजनीति में कमलनाथ को मंजा हुआ खिलाड़ी माना जाता हैं। वे 8 बार सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी! उनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव है। इन सबके चलते अंदाजा लगाया गया था कि वे प्रदेश को बहुत अच्छे से चलाएंगे! उनके बारे में चली ऐसी चर्चाओं ने प्रदेश के लोगों में उम्मीदों के चिराग जला दिए थे। सभी को लगने लगा था कि सत्ता में आई कांग्रेस लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरेंगी। लेकिन, नई सरकार बनने के बाद जनता ने जो उम्मीदें संजोई थी, उन्हें काफूर होने में देर नहीं लगी! सरकार ने तुरत-फुरत फैसलों का अहसास तो कराया पर उतनी ही जल्दी पलटने  नजारा भी दिखाया। 
  कमलनाथ ने शपथ लेते ही, सबसे पहले किसानों की कर्ज माफ़ी पर दस्तखत करके अपने चुनावी वादे को पूरा किया। बड़े धमाकेदार ढंग से लोगों को सुनाया और दिखाया गया कि हमने किसानों का दो लाख तक का कर्ज माफ़ कर दिया। लेकिन, इसमें भी एक पेंच फंस गया। कर्ज माफ़ी उन्हीं किसानों की हुई जिनका मार्च 2018 तक का कर्ज बाकी था। बात सामने आते ही हंगामा हो गया! फिर इस अवधि को नवंबर 2018 तक बढ़ाया गया! बात फिर भी नहीं बनी तो उसे 12 दिसंबर तक बढ़ाया गया। यानी जिस दिन कमलनाथ सरकार ने शपथ ली थी, उसके एक दिन बाद तक के कर्ज की माफ़ी का एलान किया गया। इस मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों की गई, ये किसी की समझ में नहीं आया! राहुल गाँधी ने वचन-पत्र के मुताबिक दस दिन में किसानों का कर्ज माफ़ करने को कहा था, न कि शपथ लेकर मंत्रालय आने के दस मिनिट के अंदर! इसी जल्दबाजी का नतीजा था कि बार-बार तारीखें बदली गई और इसी कारण भाजपा को बोलने का मौका मिला।  
  सिर्फ इसी मामले में नहीं! बाद में लिए गए कई फैसलों में भी सरकार की हड़बड़ी नजर आई! दरअसल, जो काम नई सरकार की प्राथमिकताओं में शरीक नहीं थे, उनमें सरकार ने ज्यादा एनर्जी खर्च की! नई सरकार ने हर महीने की पहली तारीख़ को मंत्रालय में कर्मचारियों द्वारा गाये जाने वाले वंदे मातरम गान पर रोक लगा दी! जब विरोध होता दिखाई दिया, तो कहा गया कि हम इसे अलग स्वरुप में शुरू करेंगे। अंततः भाजपा के खुले विरोध के बाद सरकार को इसे बैंड-बाजे के साथ फिर शुरू करना पड़ा। यहाँ भी लगा कि मुख्यमंत्री ने फैसला लेने में जल्दबाजी की। यदि वे चाहते तो भाजपा को विरोध का मौका दिए बगैर ही वंदेमातरम विवाद से बच सकते थे। 
  वास्तव में कमलनाथ सरकार की शुरुआत ही यू-टर्न से हुई है। अपने मंत्रियों को विभाग बांटने में भी उनको अंत तक कई बदलाव करना पड़े! चार दिन तक विभागों काट-छांट होती रही! कुछ मंत्रियों से जो वादे किए थे, उनसे भी पीछे हटना पड़ा। फिर जब गोविंद सिंह जैसे मंत्रियों को लगा कि उनका वजन कम है, तो वे रूठ गए! उनको मनाने के लिए नए विभाग देकर उनका वजन बढ़ाया गया। ये बातें पार्टी का अंदरूनी मामला था, पर इसमें इतने लीकेज थे, कि बात को बाजार तक आने में देर नहीं लगी। ऐसे में कई दबी-छुपी बातें भी बाहर आ गई और सरकार को मुँह छुपाना पड़ा। लोगों को भी पता चल गया कि ये सरकार सिर्फ कमलनाथ की नहीं, बल्कि इस पर और भी नेताओं ने अपनी कोहनी टिका रखी है।
  कॉर्पोरेट को मैनेज करने और निवेश में भी कमलनाथ को विशेषज्ञ माना जाता है। बड़े कारपोरेट घरानों को कैसे प्रदेश में निवेश के लिए घेरना, ये उन्हें आता है। लेकिन, पिछली शिवराज सरकार द्वारा फ़रवरी में प्रस्तावित 'इन्वेस्टर्स समिट' के बारे में सरकार का नजरिया सकारात्मक नहीं दिखा! समझा गया कि सरकार ऐसे किसी कारपोरेट पाखंड के पक्ष में शायद नहीं होगी! चुनाव के दौरान कांग्रेस ने कहा भी था कि वह 'इन्वेस्टर्स समिट' नहीं करेगी। लेकिन, कमलनाथ ने फ़रवरी की इस समिट को आगे बढाकर साल के अंत में करने का एलान किया, पर कुछ फेरबदल के साथ! आशय यह कि सरकार ने यहाँ भी अपनी बात से पलटा मारा है।      
  इसी सरकार का एक और फैसला सरकारी विज्ञापनों को लेकर भी था। कमलनाथ ने मीडिया को सरकार की तरफ से दिए जाने वाले विज्ञापनों को बंद करने की घोषणा कर दी। इसका असर ये हुआ कि मीडिया का रुख सामने आने लगा। फिर सरकार को भी लगा कि अभी लोकसभा चुनाव होना बाकी है। यदि मीडिया को नाराज किया तो चुनाव में वो हिसाब बराबर करने कसर नहीं छोड़ेंगे। बात सही भी थी। जब कमलनाथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनकर आए थे, तो इसी मीडिया ने उन्हें हाथों-हाथ लेकर सर पर बैठाया था। अब, जब वे सरकार के मुखिया बने, तो सबसे पहले उन्होंने मीडिया को ही आँख दिखाई! एक तरफ जब भाजपा ने चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट के जरिये पैसा बहाया, तब भी वो कांग्रेस से पिछड़ गई! अब यदि कांग्रेस मीडिया को नाराज करेगी तो भला कोई उनका साथ क्यों देगा? विज्ञापन बंद करने की घोषणा के बाद जिस तरह का विरोध उभरा, उसके बाद सरकार को अपने फैसले पर भी यू-टर्न लेकर फिर से विज्ञापन शुरू करने की घोषणा करना पड़ी। 
  इस बात से इंकार नहीं कि शिवराज-सरकार ने विज्ञापनों की आड़ में पार्टी से जुड़े फर्जी पत्रकारों को खूब पाला-पोसा। शिवराज के राज में भाजपा के कई नेता पत्रकारों का चोला पहने नजर आते थे। कई ऐसे सत्ता पोषित अखबार, टीवी चैनल और वेब पोर्टल भी शुरू हुए जिन्हें सिर्फ सरकार का गुणगान करने का ही फल मिलता रहा! बेहतर होता कि कमलनाथ सरकार ऐसे फर्जी मीडिया प्रतिष्ठानों की छंटाई करती, न कि कोई ऐसा फैसला करती कि उसे आगे जाकर वापस लौटना पड़ता! अभी तो ये शुरुआत है, इसलिए इसे गंभीरता से नहीं लिया गया! पर, यदि सरकार इसी तरह अपने फैसलों की गाड़ी को आगे ले जाकर उसमें वापस रिवर्स गियर लगाती रही, तो सरकार की साख पर बट्टा लगने में देर नहीं लगेगी!            
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Monday, January 14, 2019

भाजपा की आँख में खटकने लगे शिवराज?



   शिवराजसिंह चौहान इन दिनों परेशान हैं। क्योंकि, वे जो भी कदम उठाते हैं, वो उल्टा पड़ जाता है। विधानसभा चुनाव में हार के बाद जो हालात बने हैं, वो शिवराजसिंह के लिए रास नहीं आ रहे! भाजपा की हार और मध्यप्रदेश में चौथी बार सरकार न बना पाने के मलाल के बाद सबसे बड़ा सवाल भी यही था कि अब मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किस भूमिका में नजर आएंगे? पार्टी ने उनकी भूमिका तय कर दी, उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। सुनने में उपाध्यक्ष पद बड़ा और प्रतिष्ठित लगता है और है भी! लेकिन, शिवराज सिंह के कद के अनुरूप नहीं! 13 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद पिछले एक महीने में उनके साथ पार्टी ने जो कुछ किया वो ये समझने के लिए काफी है कि वे पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की आँख की किरकिरी बन गए हैं। अब ये सुना जा रहा है कि उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़वाने की तैयारी है! लेकिन, उन्हें विदिशा से खड़ा नहीं किया जाने वाले है! उन्हें छिंदवाड़ा जैसी चुनौती वाली सीट से उतारा जा सकता है। सारे घटनाक्रम को देखकर क्या ये समझा जाए कि उन्हें प्रदेश की राजनीति से बाहर किया जा रहा है!   
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- हेमंत पाल 

  ध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान ने सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। वे लगातार 13 साल तक इस पद पर रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने काफी रंग जमाया! यही देखकर पार्टी ने चुनाव में उनके चेहरे पर दांव लगाया। पार्टी का मानना था कि उनकी जनलोकप्रियता इतनी है कि आसानी से प्रदेश में चौथी बार सरकार बन जाएगी! लेकिन, ये भ्रम दूर होते देर नहीं लगी! पिछले चुनाव में 165 सीटें जीतने वाली भाजपा की गाड़ी 109 पर अटक गई! पार्टी को हुए इस नुकसान में शिवराजसिंह की कितनी हिस्सेदारी थी, ये अलग बात है! पर, पार्टी ने चुनाव नतीजों के बाद उनके साथ जिस तरह का व्यवहार किया, वो साफ़ नजर आ रहा है। लगता है कि वे पार्टी की आँख की किरकिरी बन गए! उनकी किसी बात को तवज्जो नहीं दी जा रही!
   विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जब भाजपा बहुमत के मैजिक फिगर से सात कदम दूर रही, तो सबसे पहले शिवराजसिंह चौहान ने मतदाताओं के प्रति 'आभार यात्रा' निकालने का सिक्का उछाला! यहाँ तक कि यात्रा निकालने का रोड-मैप भी बना लिया गया था। ये शिवराजसिंह का तयशुदा राजनीतिक फार्मूला है! किसी भी मुद्दे पर वे बिना सोचे-समझे और नतीजे की पहवाह किए बिना यात्रा पर निकल पड़ते हैं। 'आभार यात्रा' भी उसी फॉर्मूले का हिस्सा था! लेकिन, अभी उनकी बात भी पूरी नहीं हुई थी कि पार्टी के दिल्ली दरबार ने उन्हें ऐसा कुछ भी करने से मना कर दिया। तर्क यह दिया गया कि जब मतदाताओं ने बहुमत ही नहीं दिया, तो आभार किस बात का? बात सही भी थी! इसके बाद भी शिवराजसिंह अपनी यात्रा की आदत से बाज नहीं आए और अकेले ही मेलजोल की यात्रा पर निकल पड़े! अब भला पार्टी उन्हें ऐसा कुछ करने से तो रोकने से रही!   
   इसके बाद संभावना जताई गई, कि पार्टी उनके राजनीतिक अनुभव और प्रशासनिक समझ को देखते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी देगी! लेकिन, अफ़सोस ये भी नहीं हुआ! पार्टी ने उनके नाम पर विचार तक नहीं किया! स्थिति ये हो गई कि शिवराजसिंह को खुद ही आगे बढ़कर कहना पड़ा कि वे खुद ही नेता प्रतिपक्ष बनना नहीं चाहते! कुछ अख़बारों में तो बकायदा इस आशय की ख़बरें भी छपी कि शिवराजसिंह ने ही नेता प्रतिपक्ष का पद लेने से इंकार किया है। जबकि, सच्चाई ये बताई जा रही है कि उनसे इस बारे सलाह-मशविरा तक नहीं किया गया। जिस नेता का प्रदेश में 13 साल तक एकछत्र राज रहा हो, उसे पार्टी ने एक झटके में किनारे कर दिया। 
  कहते हैं कि जब वक़्त ख़राब हो तो ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है। कुछ ही शिवराजसिंह के साथ भी हो रहा है। वे तो राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ मेलजोल बनाकर चल रहे हैं, पर कई बार दूसरों के बयान उनके लिए नुकसान का कारण बन जाते हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक संघप्रिय गौतम ने 2019 में केंद्र की सत्ता में भाजपा की वापसी के लिए सरकार और संगठन में बदलाव की हिमायत की। उन्होंने उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री के पद से योगी आदित्यनाथ को हटाकर वहाँ राजनाथ सिंह को बैठाने और शिवराज सिंह चौहान को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की सलाह दे डाली! नितिन गडकरी को उप-प्रधानमंत्री बनाने का बिन माँगा सुझाव भी इसकी अगली कड़ी था। यानी बैठे-ठाले शिवराजसिंह को अमित शाह के मुकाबले में खड़ा कर दिया गया। एक ये भी वजह है कि वे अमित शाह की आँख कि किरकिरी बन गए।   
  इन दिनों उनके जुमले भी मजाक बन गए! चुनाव में पार्टी की हार के बाद शिवराजसिंह चौहान ने अपने विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं को निश्चिंत रहने का आश्वासन भी बेहद अनूठे स्टाइल से दिया। उन्होंने बुधनी की जनता को संबोधित करते हुए कहा 'आगे क्या होगा, इस बात की चिंता न करें। क्योंकि टाइगर अभी जिंदा है।' उनके इस बयान की भी खूब खिल्ली उड़ी! दिग्विजय सिंह से लगाकर अरुण यादव तक ने इस बयान के जमकर मजे लिए। दिग्विजय सिंह ने तो कहा कि इस टाइगर को अब संरक्षण की जरुरत है। कहने का मतलब ये हुआ कि शिवराजसिंह ने पिछले महीनेभर में जो किया या बोला उसे गंभीरता में नहीं, बल्कि मजाक में ज्यादा लिया गया।   
  सदन में विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी जो कुछ घटा, उस कारण भी शिवराजसिंह को नीचा देखना पड़ा! परंपरा के अनुसार तय हुआ था कि अध्यक्ष पद कांग्रेस लेगी और उपाध्यक्ष पद भाजपा को दिया जाएगा। इसके लिए चुनाव नहीं होगा! लेकिन, शिवराजसिंह को न जाने क्या सूझा और उन्होंने विधायक कुंवर विजय शाह का परचा अध्यक्ष पद के लिए भरवा दिया। ये जानते हुए भी कि कांग्रेस की बुलाई बैठक में 120 विधायक मौजूद थे। कांग्रेस ने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और एनपी प्रजापति को अध्यक्ष निर्वाचित करवा लिया। इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव पेश न करने को लेकर भाजपा ने सदन से वॉकआउट कर दिया। सारे विधायकों को पैदल मार्च कराते हुए शिवराजसिंह चौहान राजभवन तक भी गए! उनकी मांग थी कि अध्यक्ष का निर्वाचन फिर से हो! शिवराज ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया। इस फिजूल के प्रोपोगंडे का असर ये हुआ कि कांग्रेस ने भाजपा को उपाध्यक्ष पद भी नहीं दिया और अपनी विधायक हिना कांवरे को सदन का उपाध्यक्ष बना दिया।
  अब एक नई चर्चा ये भी शुरू हो गई है कि पार्टी शिवराजसिंह चौहान को लोकसभा चुनाव में उतारना चाहती है। इस चर्चा के साथ ही ये संभावना जताई जाने लगी कि हो सकता है भाजपा उन्हें विदिशा से मैदान में उतारे! क्योंकि, यहाँ की सांसद सुषमा स्वराज ने अगला चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। विदिशा ऐसी सीट है जिस पर भाजपा का कोई भी नेता आसानी से चुनाव जीत सकता है। जबकि, छिंदवाड़ा और गुना दो लोकसभा सीटें की ऐसी सीटें हैं, जिसे भाजपा किसी भी कीमत पर जीतने का पार्टी एलान कर चुकी है। पार्टी को इन सीटों के लिए दमदार उम्मीदवार चाहिए और शिवराज से दमदार तो कोई हो नही सकता। 2003 के विधानसभा चुनाव में भी वे राधौगढ़ से दिग्विजय सिंह के खिलाफ लड़ चुके हैं। लेकिन, अभी पार्टी ने पूरे पत्ते नहीं खोले हैं कि उन्हें कहाँ से और किसके खिलाफ चुनाव लड़ाया जाएगा! लेकिन, उड़ती-उड़ती ख़बरें बताती है कि उन्हें छिंदवाड़ा भेजा जा सकता है, जहाँ से इस बार कमलनाथ अपने बेटे नकुल को चुनाव लड़वाना चाहते हैं। पार्टी के रवैये से यही निष्कर्ष निकलता है कि शिवराजसिंह के लिए आगे की राह आसान नहीं है! पार्टी उन्हें मध्यप्रदेश की राजनीति में उतना फ्री-हैंड देना नहीं चाहती, जितना वे पाने की कोशिश में हैं! यानी मुश्किलों की राह अभी आसान नहीं हुई।
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इन फिल्मों ने दिखाई औरत की ताकत!


- हेमंत पाल 

    फिल्मों का ट्रेंड धीरे-धीरे बदल रहा है। सिनेमा देखने वाली दर्शकों की नई पीढ़ी की रूचि रोमांटिक या बदला लेने जैसी फिल्मों में नहीं है। उसे चाहिए नए ज़माने की नई सोच वाली ऐसी कहानियां जो वास्तविकता के नजदीक हो और सबसे ख़ास बात ये कि जीवन से जुडी हुई लगें! फिल्म का हीरो तिलस्मी पात्र न लगे जिसके लिए दुनिया का हर काम आसान हो! यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड में महिला केंद्रित फिल्मों की लहर आ गई! इन फिल्मों को देखकर महिलाएं गर्व महसूस करती हैं। साथ ही फिल्मों से प्रेरणा लेकर खुद के लिए लड़ने को भी तैयार रहती हैं। हाल के वर्षों में ऐसी कई फिल्में आईं जो महिला केंद्रित होने के बावजूद सुपरहिट रहीं। यही कारण है कि बीते 5 सालों में फिल्मों का नायकत्व वाला ट्रेंड बदल गया है। विषय वस्तु के स्तर पर, कलाकारों के स्तर पर और फिल्म निर्माण के स्तर पर होने वाला ये बदलाव साफ नजर आ रहा है। देखा जाए तो ये नया प्रयोग तो नहीं है, पहले भी ऐसा होता रहा है,पर महज बदलाव के लिए! अब लगातार ऐसी ही फिल्मों का आना ये दर्शाता है कि दर्शकों के मूड को फिल्मकारों ने भी भांप लिया है।   
    यदि बदलाव के दौर की शुरूआत की बात की जाए तो 2013 में आई फिल्म 'लंच बॉक्स' पहली ऐसी फिल्म थी जिसने दर्शकों को 'कुछ नया' दिया था। इसके बाद 'क्वीन' और 'तनु वेड्स मनु' ने दर्शकों का टेस्ट बदला। लेकिन, पिछले दो सालों में सिनेमा के चरित्र में जबर्दस्त बदलाव दिखाई दिया। छठे दशक सिनेमा में कुछ सामाजिक यथार्थ दिखाने की कोशिश राज कपूर और विमल रॉय ने भी की थी। वो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का दौर था, लेकिन यहीं से फिल्मकारों ने परदे पर सच दिखाने का साहस किया था। आज छः दशक बाद भी तकनीक बदली, कथानक में नए प्रयोग होने लगे और सिनेमा का कैनवास बड़ा हो गया! लेकिन, इन फिल्मों ने हाशिये पर पड़े जीवन के तत्वों को बड़ी सूक्ष्मता एवं गहराई के साथ पकड़ा है। इन फिल्मों को दर्शकों ने भी सराहा और समीक्षकों ने भी! एक ध्यान देने वाली बात ये भी कि इन सभी फिल्मों में नारी शक्ति को लेकर अलग से कुछ कहने की कोशिश की गई है। पहले भी नारी केंद्रित मदर इंडिया, बैंडिट क्वीन, लज्जा, डोर, अस्तित्व, अर्थ, कहानी, नीरजा, इंग्लिश-विंग्लिश में अभिनेत्रियां अपने अभिनय का जौहर दिखा चुकी हैं।
   जरा ध्यान दीजिए कुछ ऐसी फिल्मों पर जिसमें महिला पात्रों को अलग रंग दिया गया है। हाल ही में आई 'बधाई हो' जिसने भी देखी, उसने इसके नयेपन और महिला चरित्र को सराहा है। इससे पहले किसने ऐसे कथानक पर फिल्म बनाने की हिम्मत की थी? स्त्री, सुई-धागा और 'मंटो' के नयेपन को लेकर भी विचार किया जाना चाहिए। इससे पहले आई फिल्म 'अलीगढ़' के अलावा 'टॉयलेट : एक प्रेमकथा,पैडमैन तथा 'न्यूटन' भी ऐसी ही फिल्में थीं। 'टॉयलेट' मुख्यतः 'स्वच्छ भारत अभियान' से प्रभावित थी और 'पैडमेन' महिलाओं से जुड़ी एक परंपरागत समस्या से! इन सभी फिल्मों में जो बात कॉमन थी, वह है नारी शक्ति और उसके अधिकारों की स्वीकृति। 'सुई-धागा' में नारी की उद्यमिता क्षमता और उसका जुझारूपन झलकता है। यह फिल्म मल्टीनेशनल के सामने स्वदेशी को प्रोत्साहित करती नजर आती है। ख़ास बात ये कि इस आंदोलन की पताका नारी के हाथ में है। 
  'पद्मावत' में रानी पद्मावती की भूमिका में दीपिका पादुकोण ने न केवल सौंदर्य, बल्कि हिम्मत और वीरता का भी प्रदर्शन किया। आलिया भट्ट ने 'राजी' में अपनी अदाकारी से दर्शकों को चौंका दिया था। यह फिल्म साल की बेहतरीन फिल्मों में शामिल की गई। दमदार कहानी और आलिया के अभिनय के लिए इसे हमेशा याद किया जाएगा। 'वीरे दी वेडिंग' एक ऐसी फिल्म रही, जिसमें चार एक्ट्रेस मुख्य भूमिका में थीं। इस फिल्म ने उन लोगों का मुंह बंद कर दिया,  जो मानते थे कि महिलाएं अपने दम पर फिल्में नहीं चला सकती हैं। रानी मुखर्जी की 'हिचकी' भी पसंद की गई। ये एक ऐसी टीचर की कहानी थी, जिसे बिगड़े हुए बच्चों को पढ़ाना था। सबसे जरुरी है इस तरह की फिल्मों की प्रासंगिकता को समझा जाना। 'मंटो' में भी मुख्यतः 'नारी की निरीहता' व्यक्त हुई है. हालांकि, इसका मुख्य स्वर एक रचनाकार के असहमत होने के अधिकार का स्वर है, जिसकी राजनीतिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में जमकर चर्चा हो रही है। मुख्य बात यह कि फिल्मों के कथानक में आए इस बदलाव को दर्शकों ने भी सराहा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि इसे आगे और बढ़ने का मौका मिलेगा। 
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Tuesday, January 8, 2019

हार के कारण ढूंढने के बजाए भाजपा आत्मचिंतन करे!


- हेमंत पाल
 
   विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी में नीम सन्नाटा है। शिवराजसिंह चौहान के अलावा कोई नेता ज्यादा बोल नहीं रहा! लेकिन, ये सन्नाटा सतही है। क्योंकि, जो शांति दिखाई दे रही है, वो ऊपरी है! पार्टी के अंदर डेढ़ दशक की सत्ता खोने का गुस्सा खदबदा रहा है। चौथी बार सरकार बनाने के मंसूबे पूरे न होना पार्टी के नेताओं के गले नहीं उतर रहा! उन्हें लग रहा है कि सारी स्थितियां अनुकूल होते हुए भी कांग्रेस उनसे आगे कैसे निकल गई? यही कारण है कि भाजपा के बड़े नेता हार के उन कारणों को तलाशने में लगे हैं, जो उनके सीटों की गिनती में पिछड़ने का कारण बना! क्योंकि, यदि मतदाताओं की मानसिकता ऐसी ही बनी रही तो 5 महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन, यदि भाजपा अपनी हार के कारणों को ईमानदारी से तलाशे तो उन्हें सच्चाई का पता लग जाएगा। भाजपा ने चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया और अपनी जीत के अतिआत्मविश्वास में मनमानी करती रही! भाजपा ने मतदाताओं की मनःस्थिति को भी नहीं समझा, जो नेताओं से अहम् से नाराज थी। 
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   चुनाव में जीत का आत्मविश्वास होना जरुरी है, लेकिन अतिआत्मविश्वास नहीं रखा जाना चाहिए जो कि भारतीय जनता पार्टी ने रखा! यही कारण है कि पार्टी के नेताओं को हार हजम नहीं हो रही! वे हार के कारणों को खोजना में लगे हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में न तो कोई आँधी थी और न लहर! 2003 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी नाम का जो हव्वा खड़ा हुआ था, वो भी ठंडा पड़ गया था! यही कारण था कि अबकी बार मतदाता को सोचने, समझने और सही फैसला करने का मौका मिला। भाजपा की स्थिति बेहतर थी, पर एकतरफा बिल्कुल नहीं! यही कारण था कि भाजपा किनारे पर आकर डूबी! भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं से लगाकर प्रदेश तक के नेताओं को समझ नहीं आ रहा कि फोटो-फिनिश में कांग्रेस उनसे आगे कैसे निकल गई? जबकि, कोई नेता इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं कर रहा कि भाजपा सरकार के दर्जनभर मंत्री चुनाव क्यों हारे? जो 5 साल सरकार चलाते रहे, वे ही अपना जनाधार खो चुके थे। 
   मध्यप्रदेश में भाजपा की हार के बड़े कारणों में प्रमुख कारण भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की मध्यप्रदेश को समझ न पाना भी रहा! उत्तरप्रदेश की तरह मध्यप्रदेश में कभी कोई चुनाव हिंदू-मुस्लिम या सवर्ण-दलित के आधार पर नहीं लड़े गए। जबकि, यहाँ इस बार उत्तरप्रदेश का फॉर्मूला अपनाया गया। हिन्दू-मुस्लिम की बातों से तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ा, पर सवर्ण और दलितों में दरार डालकर चुनाव जीतने का पार्टी का फार्मूला यहाँ भाजपा को धोखा दे गया! 'कोई माई का लाल आरक्षण ख़त्म नहीं कर सकता' जैसे जुमले भारी पड़ गए। सुप्रीम कोर्ट में दलित एक्ट का फैसला पलटकर उसे और ज्यादा कठोरता से लागू करने की कोशिश की गई। भाजपा को इसकी बड़ी कीमत चुकाना पड़ी। इस कारण भाजपा के पारंपरिक सवर्ण वोटर उससे खिसक गए और उन्होंने कांग्रेस को भी वोट न देकर 'नोटा' का पेट भरा! यदि भाजपा ने ऐसा नहीं किया होता, तो शायद नोटा वाले वोट उसे मिलते। मध्यप्रदेश के मतदाता ने हर उस पार्टी को नकारा है, जिसने शब्दों के तीखे बाण चलाए हो, और इस बार भाजपा को जो नुकसान हुआ उसमें एक बड़ा कारण ये भी है। 
   संगठन की कमजोरी भी भाजपा की विफलता का कारण बनी। कप्तान सिंह सोलंकी, अनिल माधव दवे, माखन सिंह और अरविंद मेनन जैसे कुशल  रणनीतिकारों के मुकाबले सुहास भगत का ठंडा रवैया भी पार्टी की हार में योगदान बना। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की नेतृत्व क्षमता पर शुरू से ही सवाल उठाते जाते रहे थे। ये आशंका सही साबित हुई! वे प्रदेश के जिस महाकौशल क्षेत्र का नेतृत्व करते हैं, वहीं से भाजपा पिछड़ गई। जबकि, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान पर भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ सेबोटेज के आरोप लगे।
  पार्टी इस बात को साफ़-साफ़ नहीं स्वीकारेगी, पर भाजपा में इस बात पर भी गहरी आपत्ति है कि शिवराजसिंह चौहान ने चुनाव के सारे सूत्र अपने हाथ रखे। टिकट बंटवारे से चुनाव प्रचार तक के काम में उन्होंने किसी नेता को नहीं जोड़ा! शिवराजसिंह का पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के प्रति उपेक्षा भाव भी भाजपाइयों को खला! इसका नतीजा ये हुआ कि कार्यकर्ता पार्टी के प्रति वफादार न होकर शिवराज की भक्ति में लगा रहा। भाजपा को अपने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर उनको साथ रखना भारी पड़ा। देखा जाता है कि भाजपा चुनाव जीतते ही अपने जमीनी कार्यकर्ताओं को भूल जाती है। जो उसके लिए नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, उन्हें किनारे कर दिया गया। अमूमन ये रवैया कांग्रेसियों में अपने आका के प्रति होता है, जो इस बार भाजपा में नजर आया। भाजपा ने इस बार का विधानसभा चुनाव पुरी तरह कांग्रेसी अंदाज में लड़ा!
   मध्यप्रदेश में 7 सीटों पर गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई उम्मीदवार जीते। इनमे दो सीटें बहुजन समाज पार्टी, एक सीट समाजवादी पार्टी और 4 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं। इन 7 में से 6 सीटों पर भाजपा दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस का दूर तक पता नहीं था। इन सात सीटों में से चार सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस के बागी नेताओं ने जीत दर्ज की। मध्यप्रदेश में 14 सीटों पर कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही और पांच सीटों पर तो इससे भी बुरा प्रदर्शन रहा। वहीं भाजपा सिर्फ 7 सीटों में तीसरे स्थान पर रही और सिर्फ एक सीट पर वो चौथे नंबर पर थी। मध्यप्रदेश में कई सीटों पर कांटे की टक्कर थी! 10 सीटों पर मार्जिन एक हज़ार वोट से भी कम था। कांग्रेस ने इनमें से 7 सीट जीतीं और भाजपा ने तीन। दो सीटों पर तो विजेता और उपविजेता में 500 से भी कम वोट का अंतर था और कांग्रेस ने ये दोनों सीटें जीतीं।
  मध्यप्रदेश में भाजपा को मिली सीटें देखकर नहीं लगता कि यहाँ सत्ता विरोधी लहर प्रबल थी। लेकिन, किसान आंदोलन कुछ हद तक चुनाव नतीजों पर प्रभाव डालने में सफल रहा! किसान आंदोलन के दौरान लाठियां चलवाना भी शिवराज सिंह को महंगा पड़ गया। कांग्रेस ने चुनावी वादों में फसल का दाम दुगुना करना और कर्ज माफी की बात की, इसमें वो सफल भी रही। कांग्रेस के वादे का असर ये हुआ कि घोषणा के बाद से ही किसानों ने अपना अनाज बेचना रोक दिया और सरकार बदलने तक का इंतजार करने लगे। कई मतदाता इससे नाराज़ होकर 'नोटा' की तरफ मुड़ गए। नोटा की वजह से 11 सीटों पर भाजपा का खेल बिगड़ा। ग्रामीण इलाकों और खासकर आरक्षित सीटों पर भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। इस बार लोगों में नाराजी के कारण कई जगह 'नोटा' में हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट नोटा में पड़े! ख़ास बात ये कि नोटा को ज्यादा वोट मिलने का असर भाजपा पर पड़ा।
   गुजरात और कर्नाटक में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए खतरे की घंटी थे। लेकिन, पार्टी ने इसे हल्के में लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस का इतिहास देश को सुनाते रहे। जबकि, गुजरात और कर्णाटक से मिले चुनाव नतीजों पर आत्ममंथन करके भाजपा आगे बढ़ती, तो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हालात कुछ और होते! तीन राज्यों में पार्टी की हार लोकसभा चुनाव से पहले खतरे की बड़ी घंटी है। कांग्रेस क्यों जीती का प्रलाप करने के बजाए, भाजपा को इस बात पर आत्ममंथन करना चाहिए कि हम क्यों हारे? क्योंकि, यदि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा मतदाताओं की नजर से उतरी तो फिर संभालना मुश्किल होगा! 
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समाज पर सवालों के पुरोधा मृणाल!


- हेमंत पाल

   भारतीय सिनेमा को वैश्विक फलक पर शुरुआती पहचान दिलाने वाली तिकड़ी सत्यजीत रे, ऋत्विक घटिक और मृणाल सेन में से मृणाल सेन को प्रयोगात्मक फिल्म बनाने वाले फिल्मकार के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन, कम ही लोग जानते हैं कि भारतीय सिनेमा में समानांतर सिनेमा के इस पुरोधा को सिनेमा से ज्यादा साहित्य सुहाता था। भौतिक शास्त्र की पढाई और मेडिकल रिप्रेजेंटिव के करियर के बावजूद मृणाल दा ने साहित्य को अपना साथी बनाया। साहित्य की तरफ उनका झुकाव कुछ ऐसा था, जिसे खालिस साहित्य प्रेम नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, उन्होंने काल्पनिक साहित्य के बजाए यर्थाथवादी और सौंदर्यवादी साहित्य से प्रेम किया।
  इसी दौरान उनके हाथ रूडोल्फ अर्नहाइम की पुस्तक 'फिल्म एज आर्ट' लगी! इसे पढ़ते-पढ़ते वे सिनेमा के सौंदर्य से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने एक के बाद एक सिनेमा पर उपलब्ध दुनियाभर की पुस्तकें पढ़ डाली। यह अपने आपमें अजीब सा विरोधाभास है कि बांग्ला सिनेमा की इस त्रिमूर्ति का फिल्मों में प्रवेश अलग-अलग माध्यमों से हुआ। तीनों की विचारधाराओं में कभी मेल नहीं रहा। फिर भी तीनों एक-दूसरे के लिए सम्मान का भाव रखते थे। ऋत्विक घटक थिएटर से आए थे, लिहाजा उनके सिनेमा में थिएटर की लाउडनेस ज्यादा दिखाई देती है। सत्यजीत रे एक जमींदार परिवार से आए थे, इस कारण उनके सिनेमा मे सामंतवादी ठसक नजर आती है। लेकिन, इन दोनों से इतर मृणाल सेन के सिनेमा में सौंदर्यबोध के दर्शन होते हैं। यह बात अलग है कि      साम्यवादी प्रभाव के चलते सामाजिक आक्रोश भी उनकी फिल्मों में एक अनिवार्य घटक की तरह मौजूद रहा है।
    ऐसी बात भी नहीं है कि मृणाल सेन आरंभ से ही अपने आपको सिनेमा में स्थापित करने की कोशिश में लगे रहे! उनकी सिनेयात्रा संघर्ष से भरपूर रही है। उनकी पहली फिल्म रात 'भोरे घोर' असफल रही। लेकिन, इस फिल्म की असफलता ने उन्हें इस विधा का गंभीर छात्र जरूर बना दिया। इसके बाद मृणाल सेन ने फिल्म विधा को बहुत गंभीरता से लेते हुए इसे पूरे मनोयोग से सीखना शुरू किया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1959 में प्रदर्शित 'आकाशेर नीचे' ने उन्हें न केवल सफलता के शिखर पर स्थापित कर दिया, बल्कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी दिलाई! 
  1969 में आई फिल्म 'भुवन सोम' के साथ दुनियाभर में मृणाल सेन के सिनेमा की धूम मच गई। दर्शकों के साथ ही दुनियाभर के आलोचकों ने इस फिल्म की तारीफ की। यदि किसी ने तारीफ नहीं की, तो सत्यजित रे ने! उन्होंने इस फिल्म को औसत बताया और कहा कि यह बस एक ब्यूरोक्रेट के गाँव की लड़की का साथ पाकर हृदय परिवर्तन हो जाने की साधारण कहानीभर हैं। जबकि, 'भुवन सोम'  में दो बातें खास थीं। पहली ये कि मृणाल सेन ने यह फिल्म हिंदी में बनाई थी और दूसरी, उन्होंने कहानी को सौराष्ट्र (गुजरात) में फिल्माया था।
   मृणाल सेन के लिए भाषा बाधा नहीं, बल्कि प्रसार का जरिया थी। उन्होंने बांग्ला के साथ ही हिंदी, ओड़िया और तमिल में भी फिल्में बनाईं। इतना ही नहीं तीनों की फिल्मों के बैकड्रॉप में बंगाल ही ज्यादातर मौजूद रहा। लेकिन, अपनी फिल्मों में सबसे ज्यादा बंगाल से बाहर फिल्माने वाले भी मृणाल सेन ही थे। वे किसी भी चीज से खुद को बोझिल नहीं रखते थे। अपनी फिल्म मेकिंग के साथ भी उन्होंने बहुत से प्रयोग किए। 'भुवन सोम' में मोंटाज, जम्पकट और कार्टून का जबरदस्त प्रयोग करके दर्शकों को चौंका दिया था। बाद में उनके आलोचक सत्यजीत ने 'शतरंज के खिलाड़ी' में यही प्रयोग दोहराया था।
   मृणाल सेन ने कुछ बेहतरीन एक्टर्स की खोज भी की। जिसमें मिथुन चक्रवर्ती, अंजन दत्त, ममता शंकर, श्रीला मजूमदार और माधबी मुखर्जी आदि हैं। इसके अलावा उन्होंने स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के साथ भी कई फ़िल्में बनाई! तीन बार 'बेस्ट एक्टर' का नेशनल अवॉर्ड जीतने वाले मिथुन चक्रवर्ती को मृणाल सेन ने अपनी 1977 की फिल्म 'मृगया' में लांच किया था। मिथुन को पहला राष्ट्रीय पुरस्कार भी इसी फिल्म के लिए मिला था। 
  जहां आज तक तमाम फिल्मकार मनोरंजन और मसाले को फिल्मों का अहम हिस्सा मानकर इसे दोहराते रहे हैं, मृणालसेन की फिल्में समाज के सामने सामाजिक स्थितियों से जुडे कुछ सवालों को विचारणीय अंदाज में रखते थे। उदाहरण के लिए 'मृगया' के नायक को नरभक्षी शेर के शिकार के लिए ईनाम मिलता है! जबकि, नर पिशाच को मारने पर उसे सजा मिलती है? इन्हीं सवालों को उन्होंने हर बार अलग-अलग फिल्मों में रखने का बेहद ईमानदारी प्रयास किया। लेकिन, अब ऐसे सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे।
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Tuesday, January 1, 2019

बैंक कर्ज माफ़ करने से कुछ नहीं होगा, किसान को मारते हैं सूदखोर!


- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश की नई कमलनाथ सरकार ने अपना चुनावी वादा पूरा करते हुए किसानों के 2 लाख तक का कर्ज माफ़ कर दिया। ये अलग बात है कि इस घोषणा से कितने किसानों का कर्ज माफ़ हुआ और किसे इसका लाभ नहीं मिला! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या वास्तव में किसान बैंक कर्ज से ही परेशान होते है? प्रदेश में किसानों की ख़ुदकुशी के कारण क्या सिर्फ बैंक कर्ज है? इन सवालों का जवाब खोजा जाए तो निष्कर्ष निकलता है कि किसान बैंक कर्ज के कारण ही ख़ुदकुशी के लिए मजबूर नहीं होते! किसानों को सबसे ज्यादा त्रस्त सूदखोरों से होते हैं। वे ज्यादा ब्याज पर तो कर्ज देते ही हैं, खेत और उनके घर के कागजात तक रहन में रख लेते हैं। प्रदेश में किसानों की ख़ुदकुशी का एक बड़ा कारण ये भी है। क्या कांग्रेस की कमलनाथ सरकार प्रदेश के साहूकारी कानून को सख्त बनाकर किसानों को राहत देगी, जो शिवराज-सरकार घोषणाके बावजूद नहीं कर सकी!  
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     बैं से कर्ज लेने के अलावा सूदखोरों से भी कर्ज लेना किसानों की मज़बूरी है। साल में कम से कम दो बार ऐसे मौके आते हैं, जब किसानों को इन सूदखोरों के चंगुल में फंसना पड़ता है। इसी वक़्त का फ़ायदा उठाकर सूदखोर किसानों 4 से 6 और कभी-कभी 8 फीसदी ब्याज पर कर्ज देते हैं। कर्ज देने के साथ ही वे अपना ब्याज भी काट लेते हैं। ब्याज पर रुपए देने के बदले किसान की जमीन, मकान की रजिस्ट्री, वाहन, सोने-चांदी के जेवर तक अपने पास रख लेते हैं। इसके बाद तय समय पर रुपए नहीं लौटाने पर पेनल्टी लगाई जाती है। पेनल्टी 10 से 25 फीसदी तक वसूली जाती है। जो रुपए नहीं देता उसकी उसकी जमीन, मकान, वाहन तक ये सूदखोर हड़प लेते हैं। उसे बेइज्जत भी किया जाता है। ऐसे में ब्याज लेने वाला व्यक्ति प्रताड़ित होने लगता है। उसके घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है और वह आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। ब्याज पर रुपए देने के साथ ही हुंडी-चिट्ठी का कारोबार भी किसानों से किया जाता है। इसमें ब्याज पर रुपए देने के बाद चिट्ठियों से हिसाब-किताब रखा जाता है।
   प्रदेश में किसान सूदखोरों से ज्यादा परेशान हैं। इसी से परेशान होकर किसान मजबूर होकर ख़ुदकुशी कर लेते हैं। शिवराज सरकार ने दूसरे कार्यकाल में 'साहूकारी कानून' में बदलाव करने की घोषणा की थी, लेकिन नहीं कर पाई! साल 2010-11 में भी प्रदेश में ऐसे ही हालात बने थे, जब सूदखोरी के चलते 89 किसानों की आत्महत्या की थी। तब, शिवराज-सरकार ने स्वीकारा था, कि किसानों की ख़ुदकुशी का कारण सूदखोरी है। किसानों की ख़ुदकुशी पर जब हंगामा हुआ तो शिवराजसिंह चौहान ने 15 जनवरी 2011 को 'साहूकारी कानून' में बदलाव की घोषणा की। उन्होंने राजस्व विभाग को संशोधन का ड्राफ्ट जल्द तैयार करने के निर्देश भी दिए थे। विभाग को कानून में संशोधन का ड्राफ्ट तैयार करने में 4 साल लगे। दो बार ये ड्राफ्ट मुख्यमंत्री के सामने रखा गया, लेकिन अंतिम फैसला नहीं हुआ। इसके बाद 8 सितंबर 2015 को मुख्यमंत्री सचिवालय से प्रक्रिया को यथास्थिति रखने के निर्देश आ गए। तब से इस कानून में बदलाव की फाइल अलमारी में ही बंद है। 
   'साहूकारी कानून' में बदलाव के तहत ब्याज पर लेन-देन करने वाले सूदखोरों को लाइसेंस देने और गैर-लाइसेंसी सूदखोरों द्वारा दिए गए कर्ज को शून्य घोषित करने का प्रावधान रखा जाना था। सूदखोरों द्वारा दिए जाने वाले खेतीहर कर्ज की ब्याज दर का निर्धारण भी किया जाना था, ताकि सूदखोर मनमाने तरीके से ब्याज न वसूल सकें। प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने किसानों की ख़ुदकुशी से संबंधित आंकड़े विधानसभा के सामने रखे थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक 6 नवंबर 2010 से 20 फरवरी 2011 के बीच 89 किसान और 47 कृषि श्रमिक ने सूदखोरों के कारण ही ख़ुदकुशी की। वहीं 58 मामले ख़ुदकुशी की कोशिश के भी दर्ज हुए। 2010 में सरकार ने किसानों द्वारा की गई ख़ुदकुशी के मामलों की जांच कराई गई थी। जांच में पता चला था कि फसल खराब होने के कारण किसान कर्ज नहीं लौटा पा रहे हैं। किसानों ने बैंकों के अलावा सूदखोरों से भी 2 से 6 फीसदी ब्याज पर कर्ज ले रखा था, जिसकी वसूली के लिए सूदखोर लगातार तकादा लगा रहे थे।
  मानवाधिकार आयोग ने भी मध्यप्रदेश में किसानों की ख़ुदकुशी के बढ़ने मामलों पर टीम का गठन किया था। इस टीम ने जाँच के बाद आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें खुलासा हुआ कि प्रदेश में किसानों की मौत का का बड़ा कारण सूदखोर ही हैं। इनके दबाव में ही किसान ख़ुदकुशी करते हैं। आयोग ने शिवराज सरकार के राजस्व विभाग को भी ये जाँच सौंपी थी। इस रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि प्रदेश सरकार साहूकारी कानून का पालन कराने में नाकाम साबित हुई है।
   क़रीब आठ साल पहले 'कृषि लागत एवं मूल्य आयोग' (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ घटनाओं के आधार पर किसानों की ख़ुदकुशी की वजह जानने की कोशिश की थी। इसमें भी सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती जोत बताई गई। साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं। लेकिन, यह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह गई! असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है।
     किसानों के बढ़ते संकट का एक कारण किसानों को ज़्यादा कर्ज़ की वकालत करने की बजाए किसान कर्ज़ माफ़ी की बात उठना भी है। अधिकांश राजनीतिक दल इसकी वकालत करते हैं। लेकिन, यह कोई स्थायी उपाय नहीं है। अगर ऐसा होता तो 2008 की 60 हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा की कर्ज़ माफ़ी के बाद किसानों की ख़ुदकुशी बंद हो जातीं। अतः इस समस्या का हल किसानों की आय बढ़ाने में है, न कि कर्ज़ माफ़ी में! लेकिन, सरकार शायद अभी इस दिशा में कुछ सोच नहीं रही है। माना जा रहा है कि मध्यप्रदेश में किसान कर्जमाफी योजना से लगभग 34 लाख किसानों को फायदा होगा। लेकिन, इससे पहले 1,87000 करोड़ के कर्ज में डूबी राज्य सरकार को योजना के लिए लगभग 50 हज़ार करोड़ जुटाने होंगे। मध्यप्रदेश में 2013 से 2016 के बीच किसानों की खुदकुशी दर 21% की दर से बढ़ी! हालांकि, केन्द्र सरकार ने लोकसभा में दिए जवाब में हाल ही में कहा कि इसके बाद के आंकड़े उसके पास उपलब्ध नहीं हैं। 5 बार कृषि कर्मण अवॉर्ड जीतकर रिकॉर्ड बनाने वाले राज्य के नए हुक्मरानों को भी अब सिर्फ उत्पादन नहीं उत्पादक पर भी ध्यान देना होगा ताकि इन आंकड़ों में कमी आए। राज्य सरकार का दावा है, कि राज्य ने पिछले कुछ सालों में कृषि में अभूतपूर्व प्रगति की है, तो फिर राज्य के किसान क़र्ज़ में क्यों हैं और वे ख़ुदकुशी क्यों कर रहे हैं? अब ये कमलनाथ सरकार की जिम्मेदारी है कि वो किसानों के बैंक कर्ज माफ़ करने की वाह-वाही लूटने के बाद अब साहूकारों की गर्दन पर हाथ रखे! क्योंकि, जब तक किसानों को साहूकारों से मुक्ति नहीं मिलेगी, उनकी चिंताएं दूर नहीं होने वाली। 
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