Sunday, December 30, 2018

दो राजनीतिक चरित्रों का सिनेमाई चेहरा!


- हेमंत पाल

  सिनेमा की दुनिया हमेशा ही राजनीति से बचकर चलती है। क्योंकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ लोगों का मनोरंजन होता है। लेकिन, इसे संयोग माना जाना चाहिए कि आने वाले दिनों में दो ऐसी फ़िल्में रिलीज हो रही है, जो पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है या इन फिल्मों को इसी नजरिए से देखा जाएगा! ये वो समय होगा, जब राजनीतिक पार्टियाँ लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस रही होंगी, तभी ये फ़िल्में परदे पर आएंगी। जनवरी में ही रिलीज होने वाली राजनीतिक मकसद वाली इन दो फिल्मों का कथानक कहीं न कहीं मौजूदा राजनीतिक हालात को प्रभावित करता है। दो फिल्मों 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और 'ठाकरे' के ट्रेलर भी साथ ही रिलीज हुए हैं। इन दोनों फिल्मों के कथानक भारतीय राजनीति के दो बड़े नेताओं की लाइफ स्टाइल बताते हैं। जनवरी में ही रिलीज वाली दो अन्य फ़िल्में हैं सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फिल्म 'उड़ी' और देशभक्त‍ि की भावना वाली फिल्म 'मणि‍कर्णि‍का' जिसका कथानक झाँसी की रानी पर आधारित है।
    'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' मनमोहन सिंह की अर्थशास्त्री से प्रधानमंत्री बनने की कहानी है और 'ठाकरे' महाराष्ट्र के शिव सेना नेता बाल ठाकरे की जिंदगी पर बनी है। ये दोनों फ़िल्में बायोपिक हैं, पर एक-दूसरे के विपरीत! जहाँ बाल ठाकरे को हिंदूवाद और क्षेत्रीयता का कट्टर समर्थक और अपने विरोधियों पर जोरदार प्रहार के लिए जाना जाता है, वहीं मनमोहन सिंह पूरी तरह अराजनीतिक चेहरा थे। 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' में यही साबित करने की कोशिश की गई है कि उनका प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना महज एक हादसा था।
 जहाँ तक फिल्म की बात है ट्रेलर देखकर लगता है कि 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' में अनुपम खेर ने मनमोहन सिंह की भूमिका पूरी शिद्दत से निभाई है। अनुपम को भाजपा के प्रति निष्ठावान माना जाता है, लेकिन बतौर एक्टर उन्होंने मनमोहन सिंह को पूरी जीवंतता से परदे पर उतारा है। फिल्म का ट्रेलर इस संवाद के साथ शुरू होता है 'महाभारत में दो फैमिली थीं, इंडिया में तो एक ही है।' इस संवाद के भी अपने कई मायने निकाले जा सकते हैं। सफ़ेद दाढ़ी और नीली पगड़ी में अनुपम खेर ने दर्शकों को यह संदेश देने की भी कोशिश की है कि 2004 से 2014 के बीच मनमोहन सिंह पर गाँधी-परिवार ने किस तरह का अत्याचार किया। ये फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू की किताब पर उसी नाम से बनी है। फिल्म का अधिकांश हिंसा सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के आसपास घूमता है।
     दूसरी फिल्म 'ठाकरे' में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बाल ठाकरे का किरदार बहुत जोरदार तरीके से निभाया है। फिल्म में अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के दिए बाल ठाकरे के कुछ बयानों और दक्षिण भारतीयों के लिए दिए गए उनके कुछ बयानों को लेकर सेंसर बोर्ड को आपत्ति थी। इसमें शक नहीं कि इस फिल्म के जरिए शिव सेना को अपने को हिंदूवाद और मराठा मानुष समर्थक पार्टी के रूप में स्थापित करने का मौका मिलेगा।
   राजनीति पर पहले भी कई फ़िल्में बन चुकी हैं। सबसे पहले इस तरह की जिस फिल्म का ध्यान आता है. वह है गुलजार की 'आंधी' जिसके बारे में प्रचारित किया गया था कि ये फिल्म इंदिरा गाँधी के जीवन से प्रभावित थी। ये फिल्म ज़बरदस्त चर्चा में रही, इस पर प्रतिबंध भी लगा! सालभर पहले 'इंदू सरकार' नाम से भी एक फिल्म आई थी, इसके बारे में भी कहा गया था कि ये इंदिरा गाँधी पर बनी थी। 'द  एक्सीडेंटल प्राइमिनिस्टर' के चर्चित होने का एक कारण ये भी है कि इस फिल्म के ट्रेलर को भाजपा ने अपने अधिकृत ट्विटर हेंडल पर डाला है। ये ट्रेलर दिलचस्पी भी जगाता है, क्योंकि, इसमें सोनिया गाँधी को खलपात्र बताने की कोशिश की गई है। लेकिन, इस फिल्म से किसी राजनीतिक पार्टी को फ़ायदा होगा और किसी को नुकसान, अभी इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, फिल्म दर्शकों के लिए होती है उससे राजनीति के शतरंज का खेल नहीं खेला जा सकता! इसलिए थोड़ा इंतजार तो करना होगा!
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Tuesday, December 25, 2018

भाजपा की हार की कहानी मालवा-निमाड़ ने लिखी!

  मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि बहुमत जुटा ले! उसने अपने 4 बागी, जो निर्दलीय चुनाव जीते उनके अलावा बसपा और सपा विधायकों के सहयोग से सरकार बनाई है। 2013 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले कांग्रेस को लगभग दोगुनी सीटें मिली है। पिछली बार कांग्रेस ने जितनी सीटें पाई थी, उतनी ही सीटें इस बार भाजपा ने गंवा दी! पिछले चुनावों में कांग्रेस को 58 और भाजपा को 165 सीटें मिली थीं। इस बार कांग्रेस की सीटों में 56 की बढ़ोतरी हुई और उसकी सीटें 114 हो गई! वहीं, भाजपा की सीटें 165 से घटकर 109 हो गई! मुद्दे की बात ये कि भाजपा अपने सबसे बड़े गढ़ मालवा-निमाड़ में ही कांग्रेस से पिछड़ गई! पिछली बार 66 में से 57 सीटें जीतने वाली भाजपा 27 पर ही सिकुड़ गई!  
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- हेमंत पाल

    ध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीटों की घट-बढ़, प्रदेश में कांग्रेस के उदय और भाजपा के पतन के पीछे क्या कारण रहे, सबसे अहम् सवाल है! मतदान के पहले भाजपा और खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 'अबकी बार 200 पार' का जोरदार नारा लगाया था! पर, वो 100 के पार जाते ही थम गई! कांग्रेस का 'इस बार 150 पार' का नारा भी उसे बहुमत के लायक सीट नहीं दिला सका? इसका सीधा सा आशय यही है कि जनता ने कांग्रेस को सत्ता जरूर दी, पर लगाम लगाकर और भाजपा को सबक सिखाया कि वो हवा में उड़ना छोड़े!
   मध्यप्रदेश में 230 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को 114, भाजपा को 109 और 7 सीटें अन्य को मिली हैं। प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटें है। 2014 के चुनाव में भाजपा ने 27 सीटें और कांग्रेस को 2 सीटें जीती थी। बाद में दिलीपसिंह भूरिया के निधन से खाली हुई, झाबुआ-रतलाम सीट कांतिलाल भूरिया ने भाजपा से छीन ली थी। लेकिन, विधानसभा चुनाव में जिस तरह के नतीजे आए हैं, यदि उसके हिसाब-किताब को समझा जाए तो 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 16 और भाजपा के खाते में 13 सीटें जा सकती हैं। पिछली बार मध्यप्रदेश में आज कांग्रेस के खेवनहार बने कमलनाथ और उनके सामने मुख्यमंत्री पद के तगड़े दावेदार बनकर खड़े हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया ही लोकसभा का मुंह देख पाए थे। बाकी सारे रणबांकुरे खेत रहे थे। फिलहाल के अनुमान के मुताबिक कांग्रेस मालवा-निमाड़ में ही भाजपा से उज्जैन, खरगोन, धार और इंदौर जैसी लोकसभा सीटें छीन सकती है। क्योंकि, उज्जैन की 8 में 5 विधानसभा सीटें कांग्रेस के खाते में गई है। खरगोन की सभी 5 सीटें और धार की 7 में से 6 सीटें कांग्रेस ने जीती हैं। खंडवा समेत निमाड़ के चार आदिवासी जिलों खरगोन, बड़वानी, धार, झाबुआ में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। भाजपा सरकार के दो मंत्रियों को भी हार का मुँह देखना पड़ा। कुल मिलाकर प्रदेश में अब कांग्रेस का पलड़ा पहले के मुकाबले काफी भारी हो चुका है।
   अब जरा भाजपा का गढ़ रहे मालवा-निमाड़ पर नजर दौड़ाई जाए जो इस बार प्रदेश में कांग्रेस की जीत का सबसे बड़ा आधार बना! भाजपा को पिछले चुनावों की अपेक्षा 27 सीटों का नुकसान हुआ और कांग्रेस ने 26 सीटें ज्यादा जीती। निर्दलियों के खाते में भी इस बार 3 सीटें गई। इस बार भाजपा को 27 और कांग्रेस को 35 सीटें मिली। इस क्षेत्र में 66 में से 31 सीटें एससी, एसटी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। 2013 के चुनाव में भाजपा ने 24 जीती थीं, पर कांग्रेस के खाते में मात्र 6 सीट गई थीं, एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार ने जीती थी। अबकी बार भाजपा 14 सीट हार गई। भाजपा को 10 सीटें मिली, तो कांग्रेस ने 20 जीती। 31 में से 9 सीटें एससी के लिए हैं। पिछली बार भाजपा ने इस वर्ग की सभी 9 सीटें जीती थीं। जबकि, इस बार उसे 4 जगह ही जीत मिली, 5 सीटें कांग्रेस ने छीन ली। एसटी आरक्षित यहाँ 22 सीटें हैं! 2013 में 15 सीटों पर भाजपा का झंडा गड़ा था और 6 पर कांग्रेस का, पर इस बार 15 सीट कांग्रेस ने जीती और 6 भाजपा ने। एससी सीटों पर भाजपा को जातीय समीकरणों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया। भाजपा के राज में दलितों पर हमले बढ़े, जिससे दलित खफ़ा रहे! दूसरी तरफ एट्रोसिटी एक्ट में भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के संशोधन ने सवर्णों को उससे खफ़ा कर दिया। इलाके में एससी सीटों पर दोनों ही वर्गों का मतदाता उससे नाराज़ रहा।
   यहां कि 42 ग्रामीण सीटों में से 21 कांग्रेस ने जीती! भाजपा की गलती ये रही कि उसने मालवा-निमाड़ को अपना गढ़ समझकर जीतने का पूरा दम नहीं लगाया! 2013 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा ने मालवा-निमाड़ के शहरी और ग्रामीण की कई सीटें गंवाईं हैं। यही कारण था कि सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी। इस बार कांग्रेस ने ग्रामीण इलाके में 24 सीटों पर जीत का झंडा गाड़ा! पिछले चुनाव में भाजपा ने 66 में से 57 सीटें जीती थीं। भाजपा को सबसे बड़ा झटका खरगोन और बुरहानपुर जिले में लगा, जहाँ से भाजपा पूरी तरह ही साफ़ हो गई। इंदौर जैसे भाजपा में गढ़ में भी भाजपा 9 में से 4 सीटें हार गई! जबकि, 2013 में यहाँ उसने 8 सीट जीती थी।
  ग्वालियर-चंबल की 34 सीटों में से शहरी क्षेत्र की 7 और ग्रामीण क्षेत्रों में 8 सीटों का कांग्रेस को फायदा हुआ। बुंदेलखंड में तो कांग्रेस को शहरी इलाकों में एक और ग्रामीण इलाके की 2 सीटों का फायदा हुआ। विंध्य के परिणाम जरूर भाजपा के पक्ष में गए। यहां भाजपा ने दस साल पुराने प्रदर्शन को दोहराया और 24 सीटें जीती! मध्य क्षेत्र की बात की जाए, तो 36 सीटों में से शहरी इलाकों में कांग्रेस को 7 और ग्रामीण इलाकों में एक सीट का फायदा हुआ। कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान रीवा-सीधी और सतना में हुआ। जबकि, कांग्रेस को ग्रामीण क्षेत्रों में 8 सीटों का नुकसान हुआ। महाकौशल में जरूर कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। यहां शहरी क्षेत्र में कांग्रेस को 11 सीटों का फायदा हुआ। जबकि, भाजपा ने यहाँ शहरी इलाके की 11 सीटें गंवा दी।
   इस चुनाव के बाद अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच मंथन शुरू हो गया है। कांग्रेस ने जिस तरह भाजपा से तीन राज्यों में सत्ता छीनी है, उसने भाजपा के नेतृत्व की चिंता बढ़ा दी, बल्कि पार्टी को भी ये सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि, अगले साल होने वाले चुनाव में उसकी सत्ता में वापसी होगी या नहीं! यदि वापसी करना है तो पार्टी को क्या रणनीति अपनाना होगी! कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर भाजपा हमेशा से ही सवाल उठाती रही है। लेकिन, तीन राज्यों के चुनाव नतीजों ने इस सोच में बड़ा बदलाव किया। अब भाजपा ये कहने की स्थिति में भी नहीं है, कि वो अपनी गलतियों से हारी है और न ये कह सकती है कि कांग्रेस की रणनीति ने उसे हराया! यही कारण है कि भाजपा अपनी हार को पचा नहीं पा रही है! अभी भी भाजपा के नेता सत्ता पाने की जुगत में लगे हैं और इसी पाँच साल में फिर सरकार बनाने का दावा भी करने लगे! 
    गौर करने वाली बात ये भी है कि इस बार दोनों ही पार्टियों के नामी नेताओं के अनुमान फेल हो गए! जहाँ शिवराजसिंह चौहान ने एग्ज़िट पोल के नतीजों के बाद ख़ुद को सबसे बड़ा सर्वेयर बताकर सरकार बनाने का दावा किया था! वहीं वहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने 142 एयर दिग्विजय सिंह को 132 सीटों का अनुमान था। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय जो मालवा-निमाड़ के प्रभारी थे, उन्होंने भी 'अबकी बार 200 पार' का नारा बुलंद किया था, पर अंत में वे भी खिसककर 130 पर आ गए थे। लेकिन, इन सारे अनुमानों का ध्वस्त होना, अगले साल के मध्य में होने वाले लोकसभा चुनाव पर खासा असर डाल सकता है, इसमें शक नहीं! कांग्रेस अपने प्रदर्शन में और ज्यादा सुधार करेगी, जो लग भी रहा है! लेकिन, भाजपा के दिल्ली दरबार को भी अब संभलकर कदम उठाना होंगे! क्योंकि, बात सिर्फ मध्यप्रदेश में सरकार न बना पाने की नहीं, बल्कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी खोने की है।   
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अँधेरे कमरे में रोशनी का भ्रम!


- हेमंत पाल 

  सिनेमा का परदा सच्चाई से बहुत दूर होता है। इस परदे पर दिखाई देती छवियां सच नहीं, छलावा होती हैं। जो सच्चाई से दूर भ्रम का आभामंडल खड़ा करके एक कहानी रचती हैं। ख़ास बात ये कि परदे की इन छद्म छवियों को गढ़ने वाले भी हमारे और आपके जीवन से ही आते है। कहानी की मांग के मुताबिक कुछ देर के लिए ये कथानक के उस पात्र में उतरते हैं और किरदार को जीवंतता देते हैं। दर्शक उस वास्तविक कलाकार को नहीं जानता, बल्कि उसके उस काल्पनिक रूप को याद रखता है, जो उसने परदे पर देखा है। वह उसे ही आदर्श मानकर आचरण करने लगता है। इस वजह से वह काल्पनिक किरदार अनजाने में ही दर्शकों के बड़े वर्ग के लिए जीवन मूल्य तय कर बैठते है! किरदार का नायकत्व दर्शक के मन, मस्तिष्क पर इस तरह छा जाता है, कि वह उसे ही अपना आदर्श मानता है, जबकि यथार्थ में ये छद्म किरदार जीवन मूल्यों को ध्वस्त भी करते हैं।
   पिछले कुछ दशकों में लोगों ने इस बात को साबित किया है कि राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा का जूनून सबकी रगों में बहता है। वे कम खाएंगे, हल्का पहनेंगे पर इन तीन जुनून के लिए समय और पैसा जरूर निकालेंगे। समाज में इन तीनों क्षेत्रों के नायकों को उनकी मानवीय कमजोरियों के बावजूद सिर-माथे पर बैठाने की परंपरा का अनुसरण किया जाता रहा है। दक्षिण भारत में तो फिल्म कलाकारों और नेताओं को मंदिर बनाकर उन्हें पूजने तक की परंपरा है। दरअसल, ये अपरिपक्व मानवीय मानसिकता का ही नतीजा है। जबकि, इन मंदिरों में विराजित मूर्तियां किसी समय आर्थिक और चारित्रिक दुर्बलताओं के दाग धब्बों से लांछित होती रही होंगी! इन कथित नायकों के वास्तविक जीवन के कारनामों को नजरअंदाज करने का भाव देश के एक बड़े वर्ग की सामूहिक सोच में बदल चुका है। वे भूल जाते हैं कि इनके छद्म आवरण के पीछे का सच कुछ अलग ही है। 
  इस तरह की सोच का परिणाम ये हुआ कि अपराधिक और बदनाम पृष्ठभूमि के लोग नेतृत्व की भूमिका निभाने लगे। आज कोई क्रिकेट खिलाड़ी मैच फिक्सिंग फँस जाता है, तो वो शर्मिंदा नहीं होता, लांछित भी नहीं किया जाता, बल्कि अपनी लोकप्रियता को भुनाने का नया रास्ता खोज लेता है। वह टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा बन जाता है। असलियत में उसे नकारा जाना चाहिए था, पर वह दर्शकों में लोकप्रिय हो जाता है। कुछ साल पहले एक टीवी चैनल के 'कास्टिंग काउच' पर किए स्टिंग ऑपरेशन से कई फिल्मकारों के चेहरों पर से नकाब उतरा था। लेकिन, उससे क्या हुआ, कुछ भी तो नहीं! उजागर उसे फिल्म जगत के नामचीन चेहरे आज भी वहीं जमे हैं। उनके करियर पर इस घटना ने कोई बड़ा असर ही नहीं डाला! क्योंकि, दर्शकों ने उन्हें नकारने की कोशिश ही नहीं की। उनके वास्तविक कारनामों को भी परदे का किरदार ही समझा गया!
  अभी तक के अनुभवों से एक सच तो साफ़ नजर आता है कि हमारे समाज के एक बड़े समूह की याददाश्त बहुत कमजोर है। वे सच को भी अनदेखा करने की अपनी आदत से मजबूर है। बात सिर्फ परदे, क्रिकेट या राजनीति की दुनिया तक ही सीमित नहीं है। अपनी करनी से सजा के इंतजार में जेलों कैद धर्म गुरुओं के अनुयायी भी कम नहीं हुए! ऐसे नेताओं की साख भी नहीं घटी, जिन पर करोड़ों के घोटालों के आरोप हैं।
   जबकि, इसके विपरीत हॉलीवुड फिल्मों के दर्शक नायकत्व से प्रभावित नहीं होते! वे मनोरंजक कहानी के मुरीद होते हैं न कि उस कहानी के किरदार निभाने वाले कलाकारों से! वहाँ यौन उत्पीड़न के मामलों के बाद नामचीन हार्वे विन्स्टीन, बिल कॉस्बी और केविन स्पेसी को जिस तरह बहिष्कृत करके जेल भेजा गया वो इस बात का संकेत है कि हॉलीवुड में पूजने की कोई परंपरा नहीं है! लेकिन, ऐसे उदाहरण हमारे यहाँ कभी क्यों दिखाई देते! हाल ही में उजागर हुए महिला शोषण के 'मीटू' मामले में उठाए सवालों ने कई महिलाओं को अपनी पीड़ा व्यक्त करने की हिम्मत दी है। इसी का नतीजा है कि परदे पर सकारात्मक भूमिका निभाने वाले आलोक नाथ, कलाकार नाना पाटेकर, नामी पत्रकार एमजे अकबर, निर्माता-निर्देशक सुभाष घई, गायक कैलाश खेर, संगीतकार अन्नू मलिक और निर्माता विकास बहल जैसे कुछ नाम सतह पर आए।
  यह तूफ़ान आकर थम भी गया। तात्कालिक प्रतिक्रिया अच्छी हुई, पर धीरे-धीरे उठे गुबार की धूल थम गई! चौंकाने वाले जो भी खुलासे हुए, उनकी काट ढूंढ ली गई! कुछ ऐसे भी आरोप जरूर सामने आए, जिनके सच होने में संदेह भी हुआ, पर सबकुछ गलत नहीं था और न है! इसके बाद भी फ़िल्मी दुनिया खामोश है। जो लोग हर मामले में प्रतिक्रिया व्यक्त करने से नहीं चूकते और जिनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता है, वे भी इन दागदार लोगों के बारे में बोलने से बचते रहे! दरअसल, यही परदे का सच भी है। जो परदे पर जिस तरह के किरदार अदा करता है, उसकी वही छवि बन जाती है और जीवनभर वो उसी पहचान को भुनाता भी है। ये सब इसलिए कि सिनेमा अँधेरे का मनोरंजन है, तो यहाँ उजालों की क्या जरुरत? 
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Tuesday, December 18, 2018

बदलाव का बड़ा कारण बनी दिग्विजय की नर्मदा यात्रा!


- हेमंत पाल   

   सारे अनुमानों को झुठलाते हुए कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में सरकार बना ली। डेढ़ दशक तक सरकार चलाने के बाद भी भाजपा को गद्दी छोड़ना ही पड़ी। राजनीति को समझने वाले कुछ जानकारों के अनुमान सही निकले, कुछ के गलत! लेकिन, जो नजर आ रहा था, वो यही था कि भाजपा के लिए चौथी बार सरकार बना पाना आसान नहीं है! लेकिन, भाजपा इस जमीनी सच्चाई को ठीक से समझ नहीं सकी! फिर भी भाजपा ने जितनी सीटें हांसिल की, वो अनुमान से ज्यादा ही है! जबकि, कांग्रेस ने चुनाव पूरी तैयारी से चुनाव लड़ा, फिर भी कुछ इलाकों में उम्मीदवारों का चयन करने में पार्टी चूक गई! कांग्रेस की यही चूक भाजपा के लिए फायदे कारण बनी और उसे अनुमान से करीब 10 से 12 सीटें ज्यादा मिली। इस सबके बावजूद इस सच को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की जीत का कोई सही शिल्पकार कोई रहा, तो वे दिग्विजय सिंह ही हैं। उनकी 3300 किलोमीटर की 6 महीने में पूरी हुई नर्मदा परिक्रमा ने नर्मदा पट्टी में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया था, उसी नतीजा है कि आज कांग्रेस सत्ता में है।          
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   विधानसभा चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सक्रियता को लेकर भी काफी भ्रम उपजा था। चुनाव में उनकी भूमिका क्या होगी, उन्हें प्रदेश की राजनीति में दखलंदाजी के योग्य समझा भी जाएगा या नहीं! ऐसे कई सवाल हवा में थे। लेकिन, पंद्रह साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर रहने वाले दिग्विजय सिंह ने 'नर्मदा-परिक्रमा' के बाद न केवल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय वापसी की, बल्कि पार्टी को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रदेशभर का दौरा भी किया। उनका 'संगत में पंगत' वाला फार्मूला काफी हद तक सफल माना गया। प्रदेश में समन्वय समिति के मुखिया के रूप में उन्होंने पार्टी को एक सूत्र में बांधने की जो कोशिश की, जो सही दिशा में उठाया गया कदम रहा। जबकि, चुनाव से पहले से इस बात को जोर-शोर से प्रचारित किया गया था कि कांग्रेस ने टिकट बंटवारे से दिग्विजय सिंह को दूर रखने का फैसला किया है! लेकिन, न तो ऐसा हुआ और न होना था। क्योंकि, पार्टी ने ऐसा कोई फार्मूला ही तय नहीं किया था। प्रदेश की अधिकांश सीटों पर उनके दखल से ही नाम तय हुए और ज्यादातर जीते भी। उनकी समन्वय यात्रा के दौरान हुई 'संगत में पंगत' का ही नतीजा था कि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में बगावत कम हुई और बागियों ने जीतकर भी पार्टी प्रति प्रतिबद्धता नहीं छोड़ी!
    मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह ही अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की विधानसभा सीटों के समीकरण, वहाँ की कमजोरी और वहाँ की ताकत से वाकिफ हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़े नेता जरूर हैं, पर प्रदेश की सभी 230 सीटों पर उनकी पकड़ मजबूत कभी नहीं मानी गई! उनके भी अपने क्षेत्र हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह की तरह व्यापक प्रभाव क्षेत्र नहीं है। कमलनाथ का प्रभाव महाकौशल में और ज्योतिरादित्य सिंधिया का चंबल और मालवा में है, वह भी चंद सीटों पर! वे शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, मुरैना, और ग्वालियर की सीटों की तासीर को ही ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की अधिकांश सीटों की गुत्थियों को बेहतर ढंग से समझते हैं। उन्हें हर जगह की तासीर और वे समीकरण भी पता हैं, जो चुनाव पर असर डालते हैं। दिग्विजय सिंह की इसी राजनीतिक पकड़ और नर्मदा परिक्रमा के दौरान उनका लोगों से सीधा संपर्क चुनाव में मददगार बना। 
  कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले इस नेता के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! उनसे नफरत तो की जा सकती है, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! उन्हें राजनीति का चाणक्य भी इसीलिए कहा जाता है, कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजियों को पलट दिया है। अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवादास्पद भी बने! फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी कई मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! लेकिन, कांग्रेस में उनका वजन हमेशा बरकरार रहा। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इस नजरिए से उन्होंने अपनी पकड़ से पार्टी को मजबूती तो दी है। दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद 2003 में हुई हार से आहत दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! जबकि, राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने पहले कभी ऐसा किया हो! लेकिन, जब से वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया गया!
  दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा से कांग्रेस को सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि पार्टी ने सॉफ्ट हिंदुत्व वाले बदलाव को स्वीकार किया। उनकी नर्मदा परिक्रमा का सीधा सा मतलब था कि वे उस हिंदुत्व की तरफ झुके, जिससे अभी तक कांग्रेस बचती रही है। उन्होंने इस परिक्रमा को पूरी तरह धार्मिक और आध्यात्मिक कहा था। लेकिन, दिग्विजय सिंह कितनी भी सैक्यूलर पॉलिटिक्स करें, व्यक्तिगत तौर पर वे बेहद धार्मिक और आस्थावान हैं। नर्मदा परिक्रमा उनकी इसी आस्था को आगे बढ़ाने वाली कड़ी थी! राजनीति में उन्हें मुस्लिम हितरक्षक नेता माना जाता रहा है। लेकिन, नर्मदा परिक्रमा के दौरान रास्ते के आने वाले हर मंदिर में माथा टेकना और नर्मदा का संध्या पूजन कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का संकेत माना गया। 
  दिग्विजय सिंह ने बेहद रणनीतिक तरीके से मध्यप्रदेश की राजनीति में अपनी वापसी की। उनकी छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले समझा अनुमान नहीं था कि ये आध्यात्मिक यात्रा एक दिन मध्यप्रदेश की सियासत को झकझोर देगी! यात्रा की शुरुआत में तो इसे गंभीरता से नहीं लिया गया, पर जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ी, उसके सियासी मंतव्य निकाले जाने लगे थे। इसके चलते 'संघ' और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होने लगा था। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया। आज जो दिग्विजय सिंह दिखाई दे रहे हैं, वो काफी हद तक नर्मदा यात्रा से मिली ऊर्जा से ही लबरेज है! इस चुनाव के पीछे की रणनीति में यदि कोई नेता परदे के पीछे सबसे सक्रिय रहा है, तो वे दिग्विजय सिंह ही थे। क्योंकि, उनके पास खोने को कुछ नहीं था, पर मध्यप्रदेश में पार्टी को संजीवनी देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
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Sunday, December 16, 2018

सिनेमा के तो अच्छे दिन आ गए!


- हेमंत पाल 

    भारतीय राजनीति में ये जुमला खूब चला कि 'अच्छे दिन आएंगे।' अच्छे दिन कौन से थे और वो आए या नहीं, ये बहस का एक अलग मुद्दा है! लेकिन, यदि सिनेमा के अच्छे दिन की बात की जाए तो वो आ चुके हैं। बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दर्शकों का फिल्मों से मोहभंग हो गया था। अब वो हालात नहीं रहे! अब न तो फिल्मकारों को फिल्म बनाने के लिए बड़ा कर्ज लेना पड़ता है और न अपनी संपत्ति बेचना पड़ती है। अब फ़िल्में भी आसानी से दो से तीन सौ करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं। याद किया जाए तो सिनेमा के शुरुआती दशक में 91 फिल्में बनी थी। आज सौ साल बाद सिनेमा उद्योग का चेहरा बदल चुका है। अब यहाँ हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। 
   एक वो वक़्त था, जब सिनेमा घरों में महीनों तक फ़िल्में चलती थीं! 6 महीने चलती तो चली तो 'सिल्वर जुबली' और सालभर चले तो 'गोल्डन जुबली' मनती थी। लोग भी एक ही फिल्म को कई-कई बार देखा करते थे! फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने का एक अलग ही जुनून होता था। सिनेमा घरों की टिकट खिड़कियों पर मारा-मारी तक होती थी! लोग देर रात से ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। अब ये सब गुजरे दिन की बात हो गई! सिंगल परदे वाले थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली! लेकिन, फिल्म देखने वाले आज भी वही हैं।   
    हमारे यहाँ फिल्म बनाना हमेशा से ही जुनून रहा है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में भारत में पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, तो उन्हें पत्नी के गहने तक बेचने पड़े थे। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी, तब उनका सबकुछ कर्ज में डूब गया था। लेकिन, अब ऐसे किस्से सुनाई नहीं देते, क्योंकि फ़िल्में ऐसा बिजनेस नहीं रह गया कि फिल्मकार की सारी पूंजी डूब जाए! भारतीय फिल्म उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2020 तक इस उद्योग के 23,800 करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है। पिछले दो साल में इसकी कंपाउंड एनुएल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 10% से ज्यादा रही है।  
    अब वो स्थिति नहीं कि फ्लॉप फिल्म के निर्माता को कर्ज अदा करने के लिए अपना बंगला और गाड़ी तक गंवाना पड़ती हो! सच ये है कि अब कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। कमाई से कमाई के कई तरीके खोज लिए गए हैं। फ्लॉप फिल्में भी आसानी से अपनी लागत निकालने में कामयाब हो जाती हैं। फ़िल्मी सितारों के नाम पर टिकी सिनेमा की दुनिया के अर्थशास्त्र को कॉरपोरेट कंपनियों ने अपनी पूंजी के सहारे मुनाफा कमाने के फॉर्मूले से जोड़ लिया है। बड़ी फ़िल्म के ढाई-तीन हजार प्रिंट रिलीज किए जाते हैं, जो प्रचार के दम पर तीन दिन में ही लागत के साथ मुनाफा निकाल लेती हैं। यशराज फिल्म की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' इसका सबसे ताजा उदाहरण है! बुरी तरह फ्लॉप हुई इस फिल्म ने प्रचार से ऐसा आभामंडल बनाया कि शुरू के तीन दिन में ही कमाई कर ली। 
   फिल्म का अर्थशास्त्र पूरी तरह मुनाफे के सिद्धांत पर चलने लगा है। अब तो एनआरआई ने इस उद्योग में पैसा लगाना शुरू कर दिया। 2001 में जब सरकार ने फिल्मों को उद्योग का दर्जा दिया, इसके बाद से फिल्म उद्योग का पूरी तरह कॉरपोरेटीकरण हो गया! फिल्मों के निर्माण से इसके डिस्ट्रीब्यूशन तक के तरीके में इतना बदलाव आया कि हिट और फ्लॉप फिल्म की परिभाषा ही बदल गई। फिल्म के रिलीज से पहले ही सेटेलाइट राइट्स, अब्रॉड, म्यूजिक, वीडियो के लिए अलग-अलग राइट्स बेचे जाते हैं। इससे प्रोडक्शन हाऊस को जबरदस्त आय होती है और एक तरह से रिलीज से पहले ही फिल्म की लागत निकल आती है। देखा जाए तो यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरॉस, रिलायंस इंटरनेटमेंट, एडलैब्स, वायकॉम-18, बालाजी टेलीफिल्म्स और यशराज फिल्म्स जैसे प्रोडक्शन हाउसों ने सिनेमा कारोबार का पूरा खेल बदल दिया है। इनका फिल्मों में पैसा लगाने का तरीका भी अलग है। अब ये फिल्म नहीं ‘पोर्टफोलियो मैनजमेंट’ करते हैं। 
   मल्टीप्लेक्स ने भी फिल्म देखने के तरीके बदल दिए। यही कारण है कि कम बजट की फ़िल्में भी दर्शकों तक पहुंच रही है और अच्छा खासा बिजनेस कर रही है। सिर्फ कुछ अलग सी कहानी के दम पर ही निर्माता लागत से तीन से चार गुना कमाई करने लगे हैं। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ 30 करोड़ में बनी, इसने 108.95 करोड़ का कारोबार किया। आलिया भट्ट तथा विक्की कौशल की फिल्म 'राजी' भी 30 करोड़ के बजट में बनी थी। इसने भी 123.84 करोड़  की। राजकुमार राव तथा श्रद्धा कपूर की हॉरर कॉमेडी 'स्त्री' की तो समीक्षकों ने भी तारीफ़ की। 24 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 129 .90 करोड़ रुपए कमाए। ये तो चंद आंकड़े हैं, जो फिल्मों के बदले अर्थशास्त्र का उदाहरण हैं। ये पूरा परिवेश ही धीरे-धीरे बदल रहा है। इसीलिए समझा आने लगा है कि किसी के अच्छे दिन आए हों या नहीं, पर सिनेमा के तो अच्छे दिन आ ही गए!
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Monday, December 10, 2018

न तुम हारे, न हम हारे!


- हेमंत पाल

   देश के पाॅंच राज्यों में विधानसभा चुनाव पूरे होते ही पक्ष और विपक्ष की तरफ से परस्पर जीत और हार के दावे किए जाने लगे हैं। इस बार बाजी कौन मारेगा, यह तो नतीजों से ही पता चलेगा। लेकिन, हार-जीत के इन कयासों ने बॉलीवुड की फिल्म 'हार-जीत' की बरबस याद ताजा कर दी। नेताओं की हार-जीत का फैसला भले ही पांच साल में एक बार होता हो, लेकिन बालीवुड में हर शुक्रवार फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही तनाव बढ़ता है! इसे बॉलीवुड में फ्राइडे-फीयर भी कहा जाता है, जो निर्माता, निर्देशक से लेकर कलाकारों और प्रदर्शकों सभी के चेहरे पर दिखाई देने लगता है। वैसे भी हार-जीत सिनेमा जगत का सबसे प्रिय विषय है, जो कमोबेश सभी फिल्मों में किसी न किसी रूप में दिखाई दे ही जाता है।
   आम फिल्में यही संदेश देती है कि बुराई पर हमेशा अच्छाई की जीत होती है। फिल्मों में अच्छाई का प्रतिनिधित्व हीरो-हीरोइन करते हैं, तो बुराई के प्रतीक का ठेका अकसर खलनायक और खलनायिकाओं को दिया जाता रहा है। शायद ही ऐसी कोई फिल्म होगी, जो नायक और खलनायक या 'हार' और 'जीत' के फॉर्मूले के बिना बनी और चली हो! बहरहाल, हिन्दी फिल्मों में हार-जीत का यह सिलसिला फिल्म के शीर्षक से लेकर गानों और विषयवस्तु तक में फैला है। वैसे देखा जाए तो हार और जीत का चोली दामन का साथ है। ऐसी शायद ही कोई फिल्म होगी, जिसका शीर्षक केवल 'हार' पर आधारित होगा! 
    जब भी फिल्मों में हार की बात हुई है, जीत ने हमेशा उसका दामन थाम रखा है। अलबत्ता 'जीत' पर भी कई फिल्में बन चुकी है। 1949 में मोहन सिन्हा ने 'जीत' शीर्षक से फिल्म बनाई थी, जिसमें देव आनंद, सुरैया, कन्हैयालाल, भगवान और मदनपुरी की मुख्य भूमिकाएं थी। 1972 में निर्माता, निर्देशक ए सुब्बाराव ने फिर 'जीत' शीर्षक से फिल्म का निर्माण किया। इसमें रणधीर कपूर और बबीता ने पहली बार साथ मे काम किया था। बबीता ही नहीं उनकी बेटी करिश्मा ने भी 'जीत' नाम की फिल्म में काम किया था। 1996 में राज कंवर के निर्देशन में बनी साजिद नडियादवाला की फिल्म 'जीत' में करिश्मा कपूर के साथ सनी देओल थे।   
  'जीत' की तरह ही 'हार-जीत' शीर्षक से भी एक से ज्यादा फिल्में बनी! 1972 में रेहाना सुल्तान और राधा सलूजा अभिनीत फिल्म 'हार-जीत' में दोनों अपने हीरो अनिल धवन को पाने के लिए एक दूसरे के आमने-सामने आती हैं। इसके बाद 1990 में फराह और कबीर बेदी की फिल्म 'हार-जीत' आई थी, जो प्रेम कहानी कम और थ्रिलर फिल्म ज्यादा थी। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि 'जीत' फिल्म जितनी बार भी बनी, सफल रही! जबकि 'हार-जीत' जब भी बनी हमेशा असफल ही रही। शीर्षक में हार का होना तो इसका कारण नहीं है? इसके अलावा प्यार की जीत, जो जीता वो सिकंदर जैसी फिल्मों में 'जीत' को शामिल किया गया था। 
   फिल्म के शीर्षक ही नही हिन्दी फिल्मों के गानों में भी 'हार-जीत' का कई बार उल्लेख होता है। महबूब की फिल्म 'अंदाज' में राज कपूर के सामने गाते हुए दिलीप कुमार जब कहते हैं 'आज किसी की हार हुई है आज किसी की जीत गाओ खुशी के गीत' तो पता चलता है कि वह जीत के घोड़े पर सवार होकर राजकपूर को उनकी हार के लिए चिढ़ा रहे हैं। जबकि, आखिर में नर्गिस को जीतने में राजकपूर ही कामयाब होते हैं। राजेश खन्ना और मुमताज की फिल्म 'अपना देश' में राजनीतिक हार जीत पर आधारित गीत 'सुन चम्पा सुन तारा कोई जीता कोई हारा' खूब चला था। जीतने की आस को सजीव करता गीत 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम' आज भी लोकप्रियता की दौड़ में किसी से पीछे नहीं है। जबकि, आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में प्रमुख राजनीतिक दलों की हार-जीत की बराबरी का दावा करने वाला मीडिया वास्तव में राजकपूर की फिल्म 'दीवाना' के गीत 'तुम्हारी भी जय जय हमारी भी जय जय न तुम हारे न हम हारे' को  गुनगुनाता ज्यादा दिखाई दे रहा है। 
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Tuesday, December 4, 2018

इंदौर के मतदाताओं के इस मौन को नजरअंदाज मत कीजिए!


- हेमंत पाल 

  विधानसभा चुनाव का मतदान होने के बाद अब इस बात लगाए जा रहे हैं कि किस सीट पर किसका पलड़ा भारी है और क्यों? लोगों की बातचीत का विषय इस बात पर केंद्रित हो गया है कि इंदौर की 9 विधानसभा सीटों की स्थिति क्या होगी! ख़ास बात ये कि वास्तविक मतदाता मौन रहा! उसने खुलकर न तो किसी पार्टी का विरोध किया न समर्थन! मतदाताओं की ख़ामोशी ने कयास लगाने वालों के सामने सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन, निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि इस बार के नतीजे पिछले चुनाव जैसे एक तरफ़ा नहीं होंगे। पिछली बार भाजपा ने 8 सीटें जीती थी और कांग्रेस को सिर्फ राऊ की सीट जीतकर संतोष करना पड़ा था। इस बार लग रहा है, कि 9 में से 5 सीटें भाजपा को मिल सकती हैं, जबकि 4 पर कांग्रेस जीतेगी। हो सकता है, नतीजे इसके उलट भी हों! फिलहाल तो ये सिर्फ संभावना ही है। 
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  इंदौर का चुनावी माहौल, लोगों की बातचीत, मतदान के बढ़े प्रतिशत और उम्मीदवारों को कोशिशों को देखकर लग रहा है कि इस बार इंदौर की 9 में से 7 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर है। भाजपा के नेता और कार्यकर्ता लाख दावे करें, पर जमीनी हकीकत बता रही है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस उतनी कमजोर नहीं है, जितना उसे आँका जा रहा है। कई सीटों पर कांग्रेस टक्कर की स्थिति में है और कई पर वो जीत भी रही है। भाजपा की झोली में जो दो सीटें साफ़-साफ जाती दिखाई दे रही हैं, वे हैं क्षेत्र क्रमांक-2 जहां से रमेश मेंदोला उम्मीदवार हैं और क्षेत्र क्रमांक-4 जहाँ से महापौर मालिनी गौड़ तीसरी बार मैदान में हैं। अब पड़ताल की जाए इंदौर की सभी 9 सीटों की, जहाँ कांग्रेस और भाजपा दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी। है   
   इंदौर की क्षेत्र क्रमांक-1 सीट से भाजपा उम्मीदवार सुदर्शन गुप्ता पिछले दो बार चुनाव जीते हैं। एक बार ऐसा भी अवसर आया जब वे मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने वाले थे, पर एक वक़्त पर पांसा पलट गया और वे शपथ नहीं ले सके। लेकिन, इस बार के चुनाव में उनकी स्थिति कुछ कमजोर नजर आ रही है। कांग्रेस में बगावत थमने और विष्णु शुक्ला के खिलाफ सुदर्शन गुप्ता की बयानबाजी से माहौल पर असर पड़ा! माना जा रहा है कि ये सीट कांग्रेस उम्मीदवार संजय शुक्ला खाते में दर्ज हो सकती है। क्षेत्र क्रमांक-2 बरसों तक शहर का मिल मजदूरों का इलाका रहा है। यहाँ से पिछले कई विधानसभा चुनाव भाजपा के बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय जीतते रहे हैं। लेकिन, दो चुनाव रमेश मेंदोला ने जीते और पार्टी ने मेंदोला को तीसरी बार फिर उम्मीदवार बनाया है। इस बार उनका मुकाबला कांग्रेस के मोहन सेंगर हुआ! करीब महीनेभर लम्बे चुनाव प्रचार और माहौल देखकर संकेत मिलता है कि जीत तो रमेश मेंदोला की होगी, लेकिन पिछले चुनाव की तरह हार-जीत में 90 हज़ार वाला अंतर शायद न हो! क्योंकि, मोहन सेंगर ने भी पूरे जोश से चुनाव लड़ा है। इस क्षेत्र में मतदान कम होने से जीत का अंतर भी ज्यादा नहीं होगा। लेकिन, इस बार इस इलाके में कांग्रेस ने पूरी दमदारी से मैदान संभाला, इसमें कोई शक नहीं!  
  अब आते हैं,  इंदौर की क्षेत्र क्रमांक-3 सीट पर जो इस बार सबसे ज्यादा टक्कर और प्रतिष्ठा वाली मानी जा रही है। इसलिए कि यहां से भाजपा के उम्मीदवार आकाश विजयवर्गीय हैं, जो बड़े भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय के बेटे हैं। उनके सामने हैं कांग्रेस के अश्विन जोशी, जो तीन बार इसी क्षेत्र से विधायक रह चुके हैं। मुकाबला जितना कड़ा भी है, उतना ही प्रतिष्ठापूर्ण भी! यही कारण है सभी की नजरें इसी सीट के नतीजों पर टिकी है। अभी यहाँ किसी की हार-जीत के स्पष्तः कयास नहीं लगाए जा सकते। लेकिन, मुस्लिम इलाकों में ज्यादा मतदान को कांग्रेस अपने पक्ष में बता रही है, पर नतीजे ही बताएँगे कि पलड़ा किसके पक्ष में झुका। शहर का क्षेत्र क्रमांक-4 भी भाजपा के लिए प्रतिष्ठा वाली सीट है। यहां से भाजपा उम्मीदवार मालिनी गौड़ हैं, जो इंदौर की महापौर भी हैं। शहर को दो बार साफ़-सफाई में देश में नम्बर-वन बनाने की उपलब्धि उनके खाते में दर्ज है। लेकिन, स्मार्ट सिटी के नाम पर उनके क्षेत्र में हुई तोड़फोड़ भी उनके ही खाते में है। तोड़फोड़ वाला मामला उनके विपरीत जा सकता है। यहाँ उनके सामने कांग्रेस उम्मीदवार सुरजीतसिंह चड्ढ़ा हैं, पर उनसे किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद कम ही की जा रही है। चुनाव में जीत के दावे तो उन्होंने भी किए पर उनके दावों में भरोसा कुछ कम। उनके पिता उजागरसिंह चड्ढा भी शहर कांग्रेस के नेता रहे थे।  
  शहर का क्षेत्र क्रमांक- 5 आधुनिक इंदौर का चेहरा है। यहाँ से पिछले तीन बार से भाजपा के महेंद्र हार्डिया विधायक चुने जाते रहे हैं। अबकी बार उनके सामने कांग्रेस ने सत्यनारायण पटेल को मैदान में उतारा है। पटेल की इस क्षेत्र में बस यही उपलब्धि है, कि उनका क्षेत्र में पुराना और बड़ा स्कूल है और इस नजरिए से उनके कई परिवारों से जीवंत संपर्क हैं। राजनीतिक परिवार से जुड़े सत्यनारायण पटेल को यदि कोई लाभ मिला तो भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी का ही मिल सकता है। इस इलाके में भी बड़ी मुस्लिम बस्तियाँ हैं, जहाँ काफी अच्छा मतदान हुआ है। यदि इसे संकेत माना जाए तो हार-जीत का अंतर काफी काम हो सकता है।  
   इंदौर की 9 में से 4 विधानसभा सीटें ग्रामीण हैं। राऊ को भी ग्रामीण कहा जाता है, जबकि इस विधानसभा क्षेत्र का बड़ा इलाका शहर में आता है। मोदी लहर में भी यहाँ से पिछला चुनाव जीतने वाले कांग्रेस उम्मीदवार जीतू पटवारी फिर मैदान में हैं। उनके सामने भाजपा ने मधुकर वर्मा को उम्मीदवार बनाया है। लेकिन, जीतू पटवारी की स्थिति बहुत ज्यादा दमदार नजर नहीं आ रही। भाजपा उम्मीदवार का संघ परिवार से जुड़ा होने के कारण प्रचार के दौरान यहाँ संघ की काफी सक्रियता देखी गई, जो नतीजों को प्रभावित कर सकती है। इंदौर की यही एक सीट है जहाँ संघ के कार्यकर्ताओं ने काम किया है। जीतू पटवारी की वाचालता और अनर्गल बयानबाजी से कुछ लोग नाराज भी हुए! जबकि, भाजपा उम्मीदवार मधुकर वर्मा अपेक्षाकृत सौम्य हैं।  
  ग्रामीण इलाके की दूसरी सीट महू है। यहाँ से लगातार दो बार कैलाश विजयवर्गीय विधायक रहे हैं। उनके राजनीतिक कद के कारण बाहरी होते हुए भी उनका विरोध नहीं हुआ। लेकिन, इस बार यहाँ से पिछला चुनाव इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-3 से जीतने वाली उषा ठाकुर को उम्मीदवार बनाया गया है, जिससे महू के स्थानीय नेता नाराज हैं। इस वजह से महू में भाजपा का पलड़ा काफी हल्का नजर आ रहा है। क्योंकि, स्थानीय नेता को उम्मीदवार न बनाए जाने का विरोध बाहर से तो नजर नहीं आ रहा, पर सेबोटेज की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। यहां से उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार के अंतरसिंह दरबार से कड़ी चुनौती मिली है। मतदान के दो दिन बाद सोशल मीडिया पर वायरल हुए उषा ठाकुर के एक वीडियो ने इस आशंका की पुष्टि कर दी कि नतीजे उनके पक्ष में नहीं होने वाले! उन्होंने भाजपा में वंशवाद और खुद को इंदौर से महू धकेले जाने पर अपना रोष व्यक्त किया है। 
   ग्रामीण इलाके की एक सीट देपालपुर भी है, जिस पर कलौता समाज का वर्चस्व रहा है। यहाँ से भाजपा ने दो बार के विधायक रहे मनोज पटेल को तीसरी बार मैदान में उतारा है। उनके सामने कांग्रेस ने विशाल पटेल पर दांव लगाया और ये सही भी लग रहा है। मनोज पटेल को लेकर क्षेत्र में चुनाव से पहले ही काफी विरोध देखा गया, ऐसे में उनकी जीत के आसार कम ही दिखाई दे रहे हैं। जबकि, पहली बार चुनावी राजनीति में उतरे विशाल पटेल का पलड़ा भारी है। जिले की सांवेर भी ग्रामीण इलाके में आती है। जहाँ से कांग्रेस ने पिछले कई चुनाव में तुलसी सिलावट को ही अपना उम्मीदवार बनाया है। इस बार भी वही मैदान में हैं। उनके सामने हैं, पिछले विधायक और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजेश सोनकर। प्रचार के दौरान यहाँ जो माहौल नजर आया उसके मुताबिक इस सीट पर कांग्रेस भारी है। यहाँ के किसानों में भाजपा के प्रति नाराजी होने के साथ उम्मीदवार के व्यवहार से भी शिकायत है। इस कारण डॉ सोनकर को प्रचार के दौरान कई जगह विरोध का सामना भी करना पड़ा। जबकि, तुलसी सिलावट को वहां के लोग उनके व्यवहार के कारण ज्यादा पसंद करते हैं।  महीनेभर के चुनाव प्रचार के हंगामे और जिले की जमीनी हालात को देखकर लगता है कि मतदाता की ख़ामोशी अपना असर जरूर दिखाएगी। मतदाता का मौन को सुना जाए तो आने वाले नतीजों का अंदाजा हो जाता है।    
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Sunday, December 2, 2018

आमिर को इस फ्लॉप फिल्म पर अफ़सोस क्यों?


- हेमंत पाल

  फिल्म एक अनिश्चय वाला व्यवसाय है, जिसके बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता! कब कौनसी फिल्म दर्शकों के दिल को लुभा जाए और कौनसी दिल से उतर जाए, कहा नहीं जा सकता! सौ साल से ज्यादा पुरानी इस फ़िल्मी दुनिया में ऐसे कई उदाहरण है, जो इस व्यवसाय की अनिश्चितता को साबित करते हैं! इस साल ऐसी ही एक फिल्म आई यशराज बैनर की 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान।' इस फिल्म को लेकर काफी संभावनाएं जगाई गई थी। 'यशराज' जैसा बड़ा बैनर, आमिर खान और बच्चन जैसे जाने-माने कलाकारों के होते उम्मीद की जा रही थी, कि ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धमाल करेगी! लेकिन, पहले दिन रिकॉर्ड कमाई करने के बाद ये फिल्म जिस तरह दर्शकों के दिल से उतरी, वो मिसाल है।   
      आमिर खान को फ़िल्मी दुनिया में 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' कहा जाता है, जो बहुत सोच समझकर फिल्म में काम करने का फैसला करते हैं और जब काम शुरू करते हैं, तो कोई खामी की गुंजाइश नहीं रखते! इसके बाद भी 'ठग्स ऑफ हिंदुस्तान' का बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह नाकामयाब होना एक अचरज वाली बात है। खुद आमिर खान ने भी इस बात को स्वीकारा कि इस बार वे दर्शकों की उम्मीद पर खरे नहीं उतर पाए, जबकि उन्होंने कोशिश पूरी की! उन्होंने फिल्म के फ्लॉप होने की पूरी जिम्मेदारी भी ली। लेकिन, ये पहली बार हुआ कि आमिर ने किसी फिल्म की असफलता के लिए खुद को दोषी माना है। जबकि, इससे पहले भी उनकी फ़िल्में फ्लॉप हुई हैं।       
  आमिर खान ने अपने करियर इससे पहले भी बड़ी फ्लॉप फ़िल्में दी है। लेकिन, ये पहला मौका  है, जब उन्होंने 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' के लिए अफ़सोस जाहिर किया। पहले भी उनकी कई फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पानी नहीं माँगा! थोड़ा पीछे जाकर उनकी फिल्मों को याद किया जाए तो 2000 में आई आमिर की फिल्म 'मेला' ऐसी फिल्म थी, जो ऐसे ही बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। अब 18 साल बाद 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' की नाकामयाबी भी वैसी ही है। जबकि, बीते 18 सालों में आमिर खान ने सुपर स्टार का दर्जा हांसिल किया है। ये आमिर ही हैं जिनकी फिल्म 'गजनी' ने 100 करोड़ क्लब की, 'थ्री इडियट्स' ने 200 करोड़ क्लब की और 'पीके' ने 300 करोड़ क्लब की शुरुआत्त की थी। 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' के बारे में अनुमान था कि ये फिल्म बॉलीवुड में 400 करोड़ क्लब की शुरूआत करेगी। लेकिन, सबकुछ होते हुए भी अपनी लचर कहानी के चलते फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई! 
  ऐसे हादसे आमिर खान के साथ पहले भी हुए हैं, जब उनकी एक फिल्म ने बड़ी शुरुआत की और बाद में वह धड़ाम से ऐसी गिरी कि उठ ही नहीं सकी। 'मंगल पांडे' ऐसी ही फिल्म थी। वो भी अंग्रेजी शासन से जुड़ी ऐतिहासिक फिल्म थी, 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' की कहानी भी अंग्रेजी राज की है। 2000 में आई 'मेला' इस मिलेनियम यानी 2000 की पहली रिलीज़ फिल्म थी, लेकिन, चली नहीं! आमिर की फ्लॉप फिल्मों में 'धोबी घाट' भी है। इसे आमिर की पत्नी किरण राव ने बनाया था। इस फिल्म के ब्लॉक बस्टर होने की तो किसी को उम्मीद नहीं थी। लेकिन, दुर्भाग्यवश ये बेहद बोरिंग फिल्म निकली। 
  डायरेक्टर मंसूर खान ने 'क़यामत से क़यामत तक' और 'जो जीता वही सिकंदर' जैसी फ़िल्में बनाई हैं। लेकिन, आमिर को लेकर जब उन्होंने ;अकेले हम-अकेले तुम' बनाई तो बात बनी नहीं! आमिर और मनीषा कोइराला ने अच्छी एक्टिंग भी की। इसके बावजूद दर्शक फिल्म से ऊब गए थे। आशुतोष गोवारीकर की एक्शन फिल्म 'बाजी' एक ठीक-ठाक फिल्म थी। लेकिन, दर्शकों ने इसमें खास दिलचस्पी नहीं ली। 'अंदाज़ अपना अपना' भी इसी फेहरिस्त की फिल्म है, जो एक क्लासिक फिल्म थी, पर दर्शकों के दिल में नहीं उतर सकी थी। '1947 : पृथ्वी' फिल्म उस समय आई थी, जब आमिर खान ने लगातार तीन हिट फ़िल्में राजा हिन्दुस्तानी, इश्क और 'ग़ुलाम' दी थीं। लेकिन, इस फिल्म को लेकर दर्शकों में कोई उत्सुकता नहीं थी। बाद में आसानी से इस फिल्म को भुला भी दिया गया। ऐसी ही एक और फिल्म थी 'आतंक ही आतंक' जो काफी हद तक 'गॉडफादर' से प्रेरित थी। इस फिल्म की ओपनिंग काफी खराब थी। क्योंकि, फिल्म का निर्देशन भी ठीक नहीं था। जल्दबाजी में बनी इस फिल्म की रिलीज़ भी ठीक से अच्छी नहीं हुई थी। 
  इस फेहरिस्त की आमिर की आखिरी फ्लॉप फ़िल्म भी 'यशराज' की ही बनाई हुई है। फिल्म 'परम्परा' को आदित्य चोपड़ा ने लिखा था और यश चोपड़ा ने डायरेक्ट किया था। आमिर खान, सैफ अली खान और सुनील दत्त जैसी स्टार्स के साथ बनी ये फिल्म बुरी तह फ्लॉप हुई थी। इसलिए 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' के लिए जिम्मेदारी लेने का आशय ये नहीं कि अभी तक आमिर खान ने हमेशा हिट फ़िल्में ही दी है! 'ठग्स और हिंदुस्तान' उनकी पहली फ्लॉप फिल्म नहीं है और न आखिरी! हो सकता है आगे आमिर इससे भी बड़ी फ्लॉप फ़िल्में दर्शकों को परोसें!      
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Monday, November 19, 2018

भाजपा में क्या नाराज नेताओं को मनाने वाले नहीं बचे?


- हेमंत पाल 

 
    इस बार का विधानसभा चुनाव कई मामलों में कुछ अलग है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में टिकट के लालायित नेताओं की संख्या इतनी ज्यादा रही कि स्थिति बगावत तक पहुँच गई! भाजपा ने 53 बागी उम्मीदवारों को पार्टी से बाहर कर दिया। क्योंकि, इन सभी ने पार्टी के नियम-कायदों का पालन नहीं किया और अधिकृत उम्मीदवार सामने ख़म ठोंककर खड़े हो गए! भाजपा ने इन बागियों को मनाने की कोशिश भी की, पर इसका कोई असर नहीं हुआ। बगावत के आरोप में पूर्व मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया, सरताज सिंह, केएल अग्रवाल, तीन पूर्व विधायक और एक पूर्व महापौर को बाहर कर दिया गया। मसला ये है कि क्या भाजपा में अब ऐसे कद्दावर नेता नहीं बचे, जो बागियों को मना सकें या फिर इस असंतोष को दूर करने की कोशिश ही नहीं की गई? भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा असंतोष का सामना नहीं करना पड़ा! कांग्रेस ने सिर्फ 12 सीटों पर बगावत झेली।
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   असंतोष हर पार्टी में होता है! ये स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन, सवाल ये कि असंतुष्ट नेताओं को भाजपा ने मनाया क्यों नहीं? भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाले मध्यप्रदेश में क्या अब ऐसे नेता नहीं बचे, जो रूठों को मनाने का दम रखते हों? इस चुनाव में ऐसे नेता की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है! भाजपा का हर कार्यकर्ता इस कमी को समझ भी रहा है। टिकट वितरण के बाद पार्टी में बड़े पैमाने पर हुई बगावत ने पार्टी की रीति-नीतियों में आए बदलाव को भी उजागर किया। प्रदेश के हर जिले में टिकट बंटवारे के बाद नाराजी नजर आई! क्योंकि, पंद्रह साल सरकार में रहने का बाद भाजपा का चेहरा अब पूरी तरह बदल गया है। 2003 के चुनाव के समय पार्टी में ऐसे नेता थे, जो नाराज कार्यकर्ताओं और नेताओं को आसानी से समझाइश देकर शांत करके काम पर लगा देते थे। 
  पिछले तीन चुनावों में पार्टी के संकट मोचक रहे अनिल माधव दवे की इस चुनाव में काफी महसूस की गई! दवे ने तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पार्टी के वॉर रूम में निर्णायक भूमिका निभाई थी। उनके बाद पार्टी में इस जगह को कोई और नहीं ले पाया। उनसे पहले यही काम कुशाभाऊ ठाकरे किया करते थे। पर, अब न तो अनिल माधव दवे हैं और न कुशाभाऊ ठाकरे! आज पार्टी कार्यकर्ता इस बात को जानते हैं कि दवे की रणनीति के कारण ही 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में बगावत को उभरने से पहले ही ठंडा कर दिया गया था। यहाँ तक कि नाराजी कमरे से बाहर भी नहीं आ सकी! वास्तव में इस बार की बगावत का मुख्य कारण ये रहा कि पार्टी का टिकट चाहने वाले कार्यकर्ताओं को बड़े नेताओं की बात पर भरोसा नहीं रहा! बागियों को जिस तरह के प्रलोभन देकर चुनाव से अलग किया जाता है, वो फार्मूला इस बार फेल हो गया। इन बागियों का कहना है कि पिछले चुनावों में जिस तरह के वादे किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए!  
   विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी होते ही भाजपा में बग़ावतियों ने मोर्चा संभाल लिया। बुंदेलखंड, विंध्य, महाकौशल और भोपाल इलाके में ये बागी काफी असरदार भी हैं। पार्टी के लिए दमोह सीट सबसे बड़ी चिंता बन गई। यहाँ से वित्त मंत्री जयंत मलैया भाजपा उम्मीदवार हैं। जबकि, भाजपा से बागी रामकृष्ण कुसमरिया ने दमोह और पास की पथरिया सीट से निर्दलीय नामांकन भरा है। कुसमरिया पांच बार सांसद और दो बार विधायक रहे हैं। कुसमरिया ने जयंत मलैया पर टिकट कटवाने का आरोप लगाया! मलैया ने कहा कि इस इलाके में अपना अकेले का दबदबा चाहते हैं, जिसके चलते मुझे टिकट नहीं दिया गया। हमने यहां पार्टी को खड़ा करने के लिए डाकुओं से लड़ाई लड़ी, अब हम जैसे लोगों को ही हाशिए पर डाल दिया! सरकार में कृषि मंत्री रहे कुसमरिया ने कहा कि दमोह से जयंत मलैया के खिलाफ खड़े होकर वे पार्टी की ही मदद कर रहे हैं! क्योंकि, दमोह और पथरिया दोनों सीटें भाजपा हार रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव जीतकर वे भाजपा का ही समर्थन करेंगे। 
  मध्यप्रदेश में भाजपा को लगातार दो चुनाव जिताने वाले शिवराजसिंह चौहान के सामने पार्टी की बगावत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का अंदाजा टिकट का फैसला होने से पहले ही होने लगा था। विरोध और बगावत की आवाजें भाजपा मुख्यालय में सुनाई देने लगी थीं। वहाँ होने वाली खुलेआम नारेबाजी को रोकने का साहस किसी में नहीं था। इसलिए कि पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता या तो खुद टिकट की जुगाड़ में थे या अपने बेटे, पत्नी या परिवार के किसी सदस्य के लिए कोशिश में लगे थे। जबकि, प्रदेश में भाजपा की पहचान अनुशासित कार्यकर्ताओं से है। यहाँ फैसले सामूहिक रूप से लिए जाने की परंपरा रही है। लेकिन, इस बार का नजारा बदला हुआ लगा! कार्यकर्ताओं में असंतोष पहले भी कई बार दिखाई दिया, पर वो कभी विद्रोह की सीमा तक नहीं पहुंचा! 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष नरेंद्र तोमर ने असंतोष को किनारे करने में अहम भूमिका अदा की थी। इस बार नरेंद्र तोमर की भूमिका उस रूप में नहीं थी और अध्यक्ष राकेश सिंह को इस तरह की स्थितियों से निपटने का अनुभव नहीं है। पिछले एक दशक में प्रदेश में भाजपा के कई ऐसे नेता हाशिए पर चले गए, जो ऐसे हालात निपटने माहिर थे। 
       चुनाव में कार्यकर्ताओं नाराजी को बाबूलाल गौर और सरताज सिंह ने ज्यादा हवा दी। इन दोनों को शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल से दो साल पहले ही उम्रदराज होने का हवाला देकर मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था। कहा गया था कि पार्टी ने 70 पार कर चुके नेताओं को घर भेजने का निर्णय लिया है। लेकिन, जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भोपाल आए तो उन्होंने 70 साल वाले इस फार्मूले को नकार दिया। उसके बाद से ही शिवराजसिंह चौहान इन दोनों नेताओं के निशाने पर थे। चुनाव के समय इन दोनों नेताओं को विश्वास था कि पार्टी उनके साथ न्याय करेगी! टिकट को लेकर बाबूलाल गौर का भरोसा इसलिए बढ़ा था कि कुछ दिन पहले नरेंद्र मोदी ने भोपाल में मंच पर ही उनसे हाथ मिलाकर कहा था 'गौर साहब एक बार और!' इसके बाद ये कयास लगाए जाने लगे थे कि अब गोविंदपुरा सीट से बाबूलाल गौर को टिकट मिलना तय है! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ तो वे कोप भवन में चले गए। पार्टी की पहली सूची आने के बाद तो गौर और सरताज सिंह का गुस्सा फट पड़ा! लेकिन, अंततः गौर की बहू को टिकट देकर मामले  ठंडा किया गया! लेकिन, सरताज सिंह की नाराजी पर जब भाजपा ने कान नहीं धरे, तो कांग्रेस ने उन्हें साधकर होशंगाबाद से अपना उम्मीदवार बना दिया।   
  बरसों बाद इन चुनावों से ये सच पुख्ता हो गया कि राजनीति में संभावनाएं अनंत हैं। यहां कब, कहाँ और कौन कैसे पलटी मार दे, कहा नहीं जा सकता। यहाँ किसी भी क्षण बाजी पलट सकती है। कौन सोच सकता था कि शिवराजसिंह के साले संजय मसानी जीजा जी की पार्टी से बगावत करके कांग्रेस की गोद में बैठ जाएंगे? लेकिन, ये अनपेक्षित घटना भी हुई! कांग्रेस के लिए संजय मसानी अभी तक विवादास्पद हुआ करते थे। उनपर कर आरोप भी लगाए गए थे! लेकिन, कांग्रेस में आते ही वे दूध से धुलकर पवित्र हो गए। उनकी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी कांग्रेस के निशाने पर थी। अजय सिंह ने तो यहाँ तक आरोप लगाया था कि संजय मसानी ने फर्जी दस्तावेजों से मध्यप्रदेश में अपनी कंपनी का रजिस्ट्रशन करवाया था। उन पर अवैध खनन, फिल्मों में बेनामी धन लगाने जैसे कई आरोप लगाए गए। लेकिन, अब सब कुछ कबूल करते हुए कांग्रेस ने उन्हें वारासिवनी से टिकट दे दिया। अब सबकी नजरें चुनाव के नतीजों पर टिकी है कि भाजपा में हुआ उभरा यह असंतोष कहाँ, कैसा असर दिखाता है!   
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Sunday, November 18, 2018

इतिहास बचेगा या कुछ रचेगा?


- हेमंत पाल

    भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि वाली दो अहम फिल्में इस साल आईं! 'पद्मावत' और 'ठग्स ऑफ हिंदुस्तान।' तीसरी फिल्म 'मणिकर्णिका' भी इसी साल आने वाली थी, जो अगले साल तक बढ़ गई। वास्तव में 'पद्मावत' को 2017 में रिलीज होना था, परंतु इससे जुड़े विवादों के कारण ये फिल्म खिंचकर इस साल रिलीज हुई। 'पद्मावत' के साथ जो कुछ हुआ उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या फिल्मकारों को वास्तव में इतिहास के अँधेरे में झांकने का जोखिम उठाना चाहिए? क्योंकि, सेंसर सिर्फ बोर्ड नहीं रह गया है? अब तो गली, मोहल्लों तक के लोग और जेबी संगठन भी कैंची लेकर फिल्मों को कतरना चाहते हैं। 'पद्मावत' बॉलीवुड में 200 करोड़ रुपए के बजट से बनी पहली फिल्म थी। लेकिन, उसका भविष्य लम्बे समय तक अधर रहा! 
   'रंगून' और 'सिमरन' के फ्लॉप होने के बाद कंगना रनौत को अब अपने होम प्रोडक्शन की फिल्म 'मणिकर्णिका' से बहुत उम्मीदें हैं। क्योंकि, यह फिल्म देश की आजादी से जुड़ी एक महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बायोपिक है। 'पद्मावत' के विरोध देखते हुए इसके लेखक, निर्देशक की टीम ने लक्ष्मीबाई से जुड़े इतिहास को काफी खंगाला! ये जरुरी भी था, क्योंकि अब लोग किसी भी ऐतिहासिक फिल्म को महज फिल्म की तरह नहीं देखते! बल्कि, उससे जुड़े सामाजिक दृष्टिकोण को भी परखते हैं। इसके बाद भी 'मणिकर्णिका' पर से खतरा टला नहीं है। फिल्म के ट्रेलर को लेकर भी उंगली उठ चुकी है।
  एक और ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनना शुरू हुई है, जो 1897 में तत्कालीन भारत-अफगान सीमा पर सरागढ़ी में हुई लड़ाई पर आधारित है। ये फिल्म राजकुमार संतोषी और रणदीप हुड्डा को लेकर बना रहे हैं। यह फिल्म दस हजार अफगानों के खिलाफ 21 भारतीय जवानों के भीषण युद्ध की दास्तान है। हाल ही में रिलीज हुई आमिर खान और अमिताभ बच्चन की फिल्म 'ठग्स ऑफ हिंदुस्तान' को लेकर दर्शकों में काफी उत्सुकता थी, पर फिल्म ने बहुत निराश किया। इस फिल्म में भारत में 18वीं सदी के ठगों के कारनामे हैं। फिल्म के प्रति दर्शकों की उत्सुकता का प्रमाण ये है कि फिल्म ने पहले ही दिन सर्वाधिक 50 करोड़ की कमाई की! लेकिन, बाद में फिल्म ने पानी नहीं माँगा! 
   फिल्मकारों के नजरिए की बात की जाए, तो कहा जा सकता है कि सिनेमा कलापूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, अतः फिल्मकार को थोड़ी छूट लेने का अधिकार होना चाहिए। यह तर्क सही भी है। समझा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक फिल्में उस समय के इतिहास को नहीं, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में एक कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती हैं। इसलिए प्रस्तुति का स्तर सिनेमा को देखने का मुख्य आधार होना चाहिए। लेकिन, ऐसा कहने से इस सवाल का जवाब नहीं मिल जाता कि ऐतिहासिक, इतिहास की बड़ी घटनाओं या किरदारों पर फिल्म बनाने के मामले में हिंदी सिनेमा इतना स्तरहीन और पिछड़ा क्यों है? एक भी ऐसी फिल्म का नाम याद नहीं किया जा सकता, जो पूरी तरह इतिहास या किसी महान चरित्र पर आधारित हो। चेतन आनंद की 'हकीकत' (1964) और एस राम शर्मा की 'शहीद' (1965) ही ऐसी फ़िल्में थीं, जो इस मापदंड के काफी करीब मानी जाती हैं। इसके बाद जेपी दत्ता की 'बॉर्डर' (1997) एक बेहतरीन फिल्म थी, जिसमें पाकिस्तान से जंग लड़ रही एक बटालियन की कहानी को बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया गया था। 
 आशुतोष गोवारिकर की 'मोहन जो दाड़ो' और टीनू सुरेश देसाई की 'रुस्तम' भी ऐतिहासिक विषयों पर बनी फिल्में थीं। जहां गोवारिकर ने हजारों साल पहले की हड़प्पा सभ्यता में अपनी कहानी को बुना था। वहीं देसाई ने 1950 के दशक की एक बहुचर्चित अपराध कथा को परदे पर चित्रित किया। कथानक, अभिनय और प्रस्तुति को लेकर इन दोनों फिल्मों को जो भी प्रशंसा या आलोचना मिली है, वह तो अलग विषय है, परंतु कथा के कालखंड और इतिहास के साथ समुचित न्याय नहीं करने के लिए दोनों की बड़ी निंदा हुई! 
 पौराणिक कथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं और लोक में प्रचलित कहानियां हमेशा ही सिनेमा के पसंदीदा विषय रहे हैं। पहली हिंदुस्तानी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) को दादा साहेब फाल्के ने बनाया था। अर्देशर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' (1931) में बनाई। सबसे लोकप्रिय फिल्में 'मुगले आजम' (1960) में के आसिफ ने बनाई। एस राम ने 1965 में 'शहीद' और आशुतोष गोवारीकर ने 2001 में 'लगान' बनाई! एसएस राजामौली ने 2015 में 'बाहुबली' का खाका भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की तरह बना। ऐसे में हातिम ताई (1990) और 'बाहुबली' जैसी फिल्में 'मोहन जो दाड़ो' या 'मुगले आजम' से कहीं ज्यादा ईमानदार फिल्में रहीं, जो एक अनजाने मिथकीय वातावरण में ले जाकर दर्शकों का मनोरंजन तो करती हैं! ऐसी फ़िल्में इतिहास का प्रतिनिधि होने का ढोंग भी नहीं रचती! अब, जबकि तकनीक है, दर्शक हैं, धन है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे फिल्मकार इतिहास को लेकर अधिक संवेदनशील होंगे और विगत को ईमानदारी से पेश करने का जोखिम उठाएंगे। 
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Monday, October 29, 2018

टिकट के दावेदारों ने समीकरण गड़बड़ाए



  इन दिनों मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियाँ अपने-अपने उम्मीदवारों के कटघरे में खड़े हैं! दोनों पार्टियों को समझ नहीं आ रहा कि उनके लिए चुनाव जीतने वाला चेहरा कौनसा है! चुनाव से पहले लगा था कि दोनों के लिए उम्मीदवारों का चयन ज्यादा बड़ी मुश्किल नहीं बनेगा। भाजपा ने दर्जनभर सर्वे जरिए पता कर ही लिया था, कि उसका कौनसा विधायक फिर चुनाव लड़ने लायक है और कौनसा नाकारा! इसलिए जो नाकारा है, वो किनारे कर दिया जाएगा और उसकी जगह कोई नया आ जाएगा! उधर, कांग्रेस को तो 180 करीब नए चेहरे ढूँढना है, इसलिए उसके लिए भी ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी! पर, जमीन पर ये सारे अनुमान गलत साबित हुए! दोनों पार्टियों में टिकट को लेकर जमकर घमासान मचा है। 100 से ज्यादा विधायकों के टिकट काटने का दावा करने वाली भाजपा को एक-एक टिकट काटने में पसीना आ गया। ऐसे में चुनाव समिति को समझ नहीं आ रहा, कि किसका टिकट काटे? उधर, कांग्रेस इस मुसीबत में है कि दावेदारों की भीड़ में किसे टिकट दें! जीत के दावों के बीच कौनसा चेहरा वास्तव में दांव लगाने लायक है! दोनों के सामने मुश्किल एक ही है कि किसे टिकट दें और किसे नहीं! टिकट चाहने वालों की भीड़ ने कांग्रेस, भाजपा की सारी चुनावी रणनीति पर पानी फेर दिया। दिल्ली से लगाकर भोपाल तक चले मंथनों के कई दौर भी धरे रह गए। 
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- हेमंत पाल

    मलनाथ जब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, तब दावा किया गया था कि अब कांग्रेस एक है। पार्टी में गुटबाजी और 'अपना आदमीवाद' की राजनीति बिल्कुल ख़त्म हो गई। इस बार टिकट उसी मिलेगा, जो वास्तव में जीतने की कूबत रखता होगा! ये बात कहने और सुनने में बहुत अच्छी लगती है। कांग्रेस का ये दावा भी अच्छा लगा, पर ऐसा हुआ नहीं! एक-एक सीट के लिए खींचतान चल रही है। विधायकों की 45-50 सीटें छोड़ जाएं, तो बची हुई अधिकांश सीटों पर घमासान मचा है। न तो कोई टिकट के दावेदार पार्टी की बात समझने को तैयार हैं, न पार्टी के नेता आपसी गुटबाजी से उभरे! टीवी सर्वे पर कांग्रेस की संभावित जीत ने पार्टी को इतना उत्साहित कर दिया कि पार्टी के सारे आका अपने मोहरों पर दांव लगाने पर तुले हैं। हर बड़ा नेता इस कोशिश में है कि जीत वाली सीटों पर उसके ही समर्थक को टिकट मिले ताकि उसका पलड़ा भारी रहे। लेकिन, इस पूरी कवायद में दिग्विजय सिंह की 'संगत में पंगत' वाली रणनीति कामयाब होती दिखाई दे रही है। वही एक नेता हैं, जिन्हें पूरे प्रदेश की जमीनी हकीकत पता है।    
     कांग्रेस ने भले ही दिग्विजय सिंह को किनारे करने का नाटक किया हो, पर टिकटों की इस मारामारी से ये बात सामने आ गई कि अभी उनकी ताकत चुकी नहीं है। यदि वे नेपथ्य में हैं, तो ये भी उनकी ही कोई रणनीति का कोई हिस्सा है। उन्होंने इस बार स्वयं ही चुप रहने और मंच पर दिखाई न देने की भूमिका चुनी है। दिग्विजय सिंह के पीछे रहने का ही नतीजा है, कि कई सीटों पर बिना किसी विवाद के सहमति बनने की बातें कही गई! कांग्रेस का दावा है कि शुरुआती 70 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम अंतिम रूप से तय हो गए हैं। लेकिन, ऐसा सभी सीटों के लिए हो सकेगा, ऐसा नहीं लगता। पिछले चुनावों की ही तरह इस बार भी अंतिम समय तक नाम उलझे रहेंगे। पहले माना जा रहा था कि टिकटों का फैसला कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पसंद-नापसंद पर निर्भर करेगा, पर ऐसा नहीं हुआ और न ऐसा होना संभव था। दिग्विजय सिंह पार्टी में एक बड़ा फैक्टर है, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
   ये बात सभी जानते हैं कि प्रदेश की कांग्रेसी सियासत तीन-चार नेताओं के प्रभाव क्षेत्र में बंटी है। ग्वालियर-चंबल इलाके में ज्योतिरादित्य सिंधिया, महाकौशल में कमलनाथ और मालवा, निमाड़ और बुंदेलखंड में दिग्विजय सिंह का दबदबा है। जबकि, बघेलखंड में नेता विपक्ष अजय सिंह का असर है। पहले इन नेताओं के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों को ही टिकट मिलते थे! लेकिन, इस बार कहा जा रहा था कि अब यह फॉर्मूला अब नहीं चलेगा! एजेंसियों से कराए जा रहे कई सर्वे पर भी पार्टी काफी हद तक भरोसा कर रही है। यही प्रयोग गुजरात और कर्नाटक में भी किया गया था, जिसके अच्छे नतीजे रहे। पार्टी ने इस बार के सर्वे का सैंपल साइज भी हर विधानसभा में 5 हज़ार वोटर्स से बढ़ाकर 15 हज़ार कर दिया था। इसलिए कि जो आकलन निकले वो ज्यादा सटीक हो। क्योंकि, इस बार सर्वे के नतीजों को ही टिकट का आधार बनाया गया है। उम्मीदवारी का अंतिम फैसला किसी नेता के प्रति निष्ठा से नहीं होगा! कांग्रेस की योजना भाजपा से पहले ही टिकट फाइनल करने की थी। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका। पहले यहाँ तक कहा गया था कि जिन 50 सीटों पर कांग्रेस पिछले पाँच विधानसभा से चुनाव नहीं जीत सकी थी, वहाँ उम्मीदवारों की घोषणा सितंबर में कर दी जाएगी! लेकिन, ये काम अक्टूबर अंत तक भी नहीं हुआ! 
  भाजपा में भी हालात काबू में नहीं हैं। वहाँ भी एक-एक नाम पर जमकर छिड़ी हुई है। पार्टी ने भले ही पहले 100 से ज्यादा टिकट काटने की बात कह दी हो, लेकिन अब ये संभव नहीं लग रहा। अब घटते-घटते बात 60-65 टिकटों पर आ गई! जिस भी विधायक को अपने टिकट पर संकट नजर आ रहा है, वो विद्रोह की भूमिका में नजर आने लगता है। पार्टी ने 2008 और 2013 में टिकट का फार्मूला बनाया था 'मिनिमम रिक्स-मैक्सिमम रिजल्ट।' इसके अच्छे नतीजे निकले थे। दोनों बार 50 से ज्यादा टिकट बदले गए थे। इस बार ये गाज किस पर गिरेगी, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कुछ विधायकों की सीटें बदलने की भी कोशिश की जा रही है। इनमें विधायकों के अलावा कुछ मंत्री भी शामिल है। 
   ये भी सही है कि मौजूदा विधायकों के टिकट कटने की खबरों ने भी पार्टी के अंदर भूचाल सा ला दिया है। पार्टी का तर्क है कि सर्वे में जिनके जीतने के आसार नहीं हैं, उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा! लेकिन, कोई भी ये मानने को तैयार नहीं है! संघ का तर्क है कि नेतृत्व को लेकर लोगों में गुस्सा नहीं है, लेकिन विधायकों के प्रति लोगों में जबरदस्त नाराजी है। यदि इस गुस्से ठंडा करना है, तो चेहरे बदलना ही होंगे! लेकिन, ये कोई मानने को तैयार नहीं कि उसके नीचे से जमीन खिसक रही है। भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि टिकट काटते हैं, तो विद्रोह का खतरा है! यदि टिकट देते हैं, तो लोगों की नाराजी झेलना पड़ेगी! एक तरफ कुंआ है और दूसरी तरफ खाई! पर इसी संकट से निकलना ही तो चुनाव प्रबंधन में परीक्षा की असली घड़ी है!
    भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भले ही प्रदेश संगठन पर इस बार 200 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा हो, पर हालात ऐसे नहीं है कि पार्टी इस लक्ष्य तक पहुँच पाएगी! किसानों की नाराजी, एंटी इनकम्बैंसी, एट्रोसिटी एक्ट, सवर्णों का गुस्सा भाजपा को शायद ही टारगेट तक पहुंचने दे! परिस्थितियों को देखते हुए पार्टी भी संभल संभलकर फैसले कर रही है। जबकि, भाजपा की कमजोरी को ही कांग्रेस ने अपनी ताकत बनाया है। प्रदेश सरकार की 15 साल की खामियों, किसानों की नाराजी, बेरोजगारी, अफसरशाही और सरकार के अधूरे वादों को कांग्रेस ने अपना चुनावी मुद्दा बनाया है। लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर है कि पार्टी का चेहरा बनने वाले उम्मीदवार कौनसे हैं। क्योंकि, दोनों पार्टियां जिसे चुनाव में उतारेगी, वही उसकी जीत का आधार बनेंगे!  
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फिल्मों में हिट रहा 'चोर' फार्मूला!


- हेमंत पाल 

    इन दिनों तमाम टीवी चैनलों और राजनीतिक रैलियों में 'चोर' शब्द की धूम है। हर राजनीतिक पार्टी प्रतिद्वंदी को ज्यादा बड़ा चोर साबित करने पर तुली है। राजनीति में तो ये फार्मूला ज्यादा सफल नहीं रहा! लेकिन, फिल्मों के लिए 'चोर' फार्मूला हमेशा से हिट रहा है। फिल्मों का इतिहास टटोलकर देखा जाए, तो 'चोर' शीर्षक से बनी अधिकांश फिल्में या गाने हिट हुए हैं। बाॅलीवुड की पहली हिट फिल्म कहलाने का श्रेय 1943 में प्रदर्शित अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' को जाता है, जिसने कोलकाता के एक सिनेमा हाॅल में लगातार साढ़े तीन साल चलने का रिकार्ड बनाया था। 1975 में मुंबई के मराठा मंदिर में प्रदर्शित 'शोले' का भी लगातार पांच साल से ज्यादा चलने का रिकॉर्ड 32 साल तक कायम रहा। 'किस्मत' में अशोक कुमार ने चोर का चरित्र निभाया था, वहीं शोले के दोनों नायक धर्मेन्द्र और अमिताभ चोर बने थे।  
   हिन्दी फिल्मों में 'चोर' का चरित्र ब्लेक-शेड वाला न होकर ग्रे-शेड वाला होता है, जो नायिका से लेकर दर्शकों का दिल जीतकर बाॅक्स ऑफिस को लूटने में कामयाब होता है। कई फिल्में ऐसी भी बनी, जिनमें क्लाइमेक्स से पहले तक तो नायक को चोर दिखाया जाता है, लेकिन अंतिम रील आते-आते वो पुलिस वाला बन जाता है। 'ज्वैल थीफ' इस तरह की सबसे ज्यादा मनोरंजक फिल्म थी, जिसमें दर्शक आखिरी तक देव आनंद को चोर ही समझते हैं, लेकिन क्लाइमेक्स में अशोक कुमार को चोर के रूप में देखकर सब चौंक जाते है। 
  अशोक कुमार ने आरंभिक दिनों कई अपराधिक फिल्मों में चोर की भूमिका निभाई। उसके बाद देव आनंद लगभग हर दूसरी फिल्मों में चोर ही नहीं महिला दर्शकों के चितचोर भी बनें। राजकपूर ने 'आवारा' में चोर की भूमिका निभाकर दुनियाभर में वाहवाही लूटी, तो उनके भाई शम्मी कपूर भी ज्यादातर फिल्मों में चोर बने। सबसे छोटे भाई शशि कपूर तो इससे एक कदम आगे निकले। वह एनसी सिप्पी की एक फिल्म में न केवल चोर बने, बल्कि चोर बनकर उन्होंने 'चोर मचाए शोर' में खूब शोर मचाया और बाॅक्स आफिस पर पैसा भी बटोरा!
   हिन्दी फिल्मों के कई निर्माता-निर्देशकों को 'चोर' विषयों पर फिल्में बनाने या निर्देशित करने में महारथ हांसिल थी। गुरूदत्त गंभीर फिल्मकार बनने से पहले 'चोर' विषय पर सीआईडी, 12'ओ क्लाॅक जैसी सफल फिल्म बना चुके थे। विजय आनंद, शक्ति सामंत, राज खोसला जैसे फिल्मकारों ने हिन्दी फिल्मों में चोरों का जमकर महिमा मंडन किया। ऐसे ही निर्देशकों की बदौलत हिन्दी फिल्मों के चोरों पर दर्शकों का खूब प्यार उमड़ा है। हिन्दी फिल्मों में शायद ही कोई अभिनेता हो, जो कभी चोर न बना हो। मनोज कुमार जैसा कलाकार भी 'बेईमान' में चोर का चरित्र निभा चुके हैं। अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, देव आनंद, शत्रुघ्न सिंहा, राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र जैसे पुराने नायकों ने कई फिल्मों में चोर बनकर दर्शकों को लुभाया। अब शाहरूख, सलमान और आमिर भी इस दौड में पीछे नहीं हैं। 'धूम' सीरिज की सारी फिल्मों का कथानक चोरों के इर्द गिर्द ही घूमता रहा। 
   'चोर' शीर्षक से बनी फिल्मों में ज्वैल थीफ, चोरी मेरा काम, चोर-चोर, दो चोर, तू चोर में सिपाही, हम सब चोर हैं, अलीबाबा चालीस चोर, चोर मचाए शोर, बम्बई का चोर, चोर और चांद, थीफ आफ बगदाद, बैंक चोर, नामी चोर, महाचोर, चोर बाजार प्रमुख है। कुछ ऐसी फिल्में भी हैं, जिनमें नायक तो शरीफ होता है लेकिन नायिकाएं चोर होती हैं। जीनत अमान, मुमताज, हेमा मालिनी और श्री देवी ऐसी भूमिकाओें में खूब फबती रही है। नीतू सिंह की एक फिल्म का शीर्षक ही 'चोरनी' था। 
   हिन्दी फिल्मों के 'चोर' केवल शीर्षक तक ही सीमित नहीं रहे। ऐसे कई हिन्दी गीत हैं जिन्हें 'चोर' शब्द के प्रयोग ने हिट बनाया है। ऐसे गीतों में चुरा के दिल मेरा, चुरा लिया है तुमने जो दिल तो, मैं एक चोर मेरी रानी, शोर मच गया शोर, आया बिरज का बांका चोर, मेरी गली में आया चोर, इस दुनिया में सब चोर चोर, जब अंधेरा होता है आधी रात को एक चोर निकलता है। मैं एक चोर मेरी रानी गीत को भी लोगों ने खूब सुना और गुनगुनाया है। सलीम जावेद ने तो अपनी फिल्म 'दीवार' में अमिताभ के हाथ पर 'मेरा बाप चोर है' लिखकर हिन्दी सिनेमा में चोर को न केवल अमर कर दिया, बल्कि बाॅलीवुड को चोर विषय पर हिट फिल्म बनाने का एक फार्मूला भी बता दिया है। 
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भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को सत्ता का मौका देगी!


   विधानसभा चुनाव की दुंदुभि बज चुकी है। मध्यप्रदेश के दो परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंदी फिर आमने-सामने हैं। एक के पास डेढ़ दशक की सत्ता की ताकत है, तो दूसरे के पास प्रतिद्वंदी की खामियों की फेहरिस्त! इस चुनाव में एक पार्टी अपनी उपलब्धियां गिनाएगी, दूसरी उसकी खामियां ढूंढेंगी! लेकिन, इस बार के चुनाव की खासियत है कि मतदाता किसी आँधी, तूफान से प्रभावित नहीं है। उसे पार्टी और उम्मीदवार को समझने का पूरा मौका मिल रहा है। मतदाता की ख़ामोशी इस बात का अहसास नहीं कराती कि उसके मन में क्या है! लेकिन, ये सच है कि सत्ताधारी पार्टी की गलतियां ही इस बार निर्णायक होगी। मतदाता उसे इन गलतियों की सजा देगा या माफ़ करेगा, यही अगली सरकार का फैसला करेगा।  
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 - हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटने का सपना देख रही कांग्रेस इन दिनों अच्छे उम्मीदवारों को लेकर संकट में है। पार्टी को ऐसे उम्मीदवार नहीं मिल रहे, जो  भाजपा के मुकाबले डंके की चोट पर चुनाव जीतने का दावा कर सकें। पार्टी को अभी ऐसे चेहरों की जरुरत है जिनकी छवि साफ़ हो और जो भाजपा उम्मीदवारों पर हावी हो सकें। पश्चिम मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका भी कांग्रेस की इस परेशानी अछूता नहीं है। इंदौर, उज्जैन संभाग की 25 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहाँ पार्टी के पास सौ टंच चुनाव जीतने वाले चेहरे नदारद हैं। क्योंकि, लगातार तीन विधानसभा चुनाव की हार ने कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास खोखला कर दिया। जब कोई पार्टी लगातार चुनाव हारती है, तो उसके पास नए चेहरों का अकाल पड़ जाता है। नए लोग पार्टी से कन्नी काटने लगते हैं और पुराने नेता मायूस होकर बैठ जाते हैं। 
  चुनाव के उत्साह में भले ही नए, पुराने नेता चुनाव जीतने का दावा कर रहे हों, पर लगता नहीं कि वे कोई चमत्कार कर सकेंगे! इंदौर में ही कांग्रेस को 5 ऐसे चेहरे नहीं मिल रहे, जिन पर दांव लगाया जाए। इंदौर जिले में विधानसभा की 9 सीटें हैं, जिनमें 6 सीटें शहरी हैं। सांवेर, महू और देपालपुर ग्रामीण सीटें हैं। पिछले दो चुनाव छोड़ दिए जाएं तो तीनों ग्रामीण सीटों की तासीर हमेशा बदलती रही है। महू से पिछले दो विधानसभा चुनाव भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय जीते। इससे पहले वे इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-2 से चुनाव लड़ते रहे हैं। महू से फिर कैलाश विजयवर्गीय चुनाव लड़ते हैं, तो यहाँ कांग्रेस उम्मीदवार के लिए जीत आसान नहीं होगी। देपालपुर से भी मनोज पटेल ने दो चुनाव जीते हैं, जबकि यहाँ लम्बे समय तक कांग्रेस का झंडा लहराया। यहाँ इस बार मनोज पटेल से लोगों की नाराजी के कारण भाजपा कमजोर दिख रही है, पर सारा दारोमदार कांग्रेस के चेहरे पर टिका है। यदि कांग्रेस ने किसी नए चेहरे पर दांव लगाया तो यहाँ पंजा मजबूत हो सकता है। उधर, सांवेर की सीट पर कांग्रेस के तुलसी सिलावट ने हमेशा अपना दम दिखाया है, पर पिछले चुनाव में मोदी की आँधी में वे भी अपनी सीट बचा नहीं सके थे। लेकिन, जीतने वाले राजेश सोनकर पिछले 5 साल में अपना प्रभाव नहीं छोड़ सके। इस बार फिर इन्हीं दोनों के बीच मुकाबले की उम्मीद की जा रही है। 
    शहर की दो विधानसभा सीटें ऐसी हैं जो लम्बे समय से भाजपा के कब्जे में हैं। ये हैं क्षेत्र क्रमांक-2 और 4 क्षेत्र। क्षेत्र क्रमांक-2 मिल मजदूरों का एरिया कहा जाता है, जहाँ से कैलाश विजयवर्गीय ने कई बार चुनाव जीता और दो चुनाव पहले अपनी सियासी सल्तनत अपने दोस्त रमेश मेंदोला को सौंपकर किला फतह करने महू चले गए। ऐसे में रमेश मेंदोला ने पिछला चुनाव 92 हज़ार से जीतकर अपने दावे को एकबार फिर मजबूत किया है। इस बार भी यहाँ कांग्रेस सिर्फ खानापूरी के लिए चुनाव मैदान उतरेगी, यह जानते हुए कि रमेश मेंदोला को हराना आसान नहीं है। पिछले चुनाव की लीड कम हो सकती है, पर इतनी कम भी नहीं कि कांग्रेस का झंडा लहराने लगे।   
    डेढ़ दशक तक सत्ता से बाहर रहने वाली कांग्रेस के सामने अच्छे उम्मीदवारों के अभाव का संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। लेकिन, कांग्रेस का राजनीतिक वनवास इस बार ख़त्म हो जाएगा, इस बात का दावा भी नहीं किया जा सकता। भाजपा जिस आक्रामक ढंग से चुनाव लड़ने की तैयारी में है, कांग्रेस उसके मुकाबले कई मोर्चों पर बेहद कमजोर है। चुनाव को लेकर कांग्रेस के नेताओं ने भी रणनीति बनाई होगी, पर वो रणनीति अभी तक किसी भी नजरिए से कारगर होती दिखाई नहीं दे रही। मेहनत के बावजूद कांग्रेस में एक बिखराव सा लग रहा है। उम्मीद की जा रही थी, कि कमलनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में एकजुटता आएगी और लोगों को पार्टी की ताकत दिखेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी के तीन दिग्गजों की तीन धाराएं स्पष्टतः अलग-अलग दिशाओं में बहती नजर आ रही है। कहीं-कहीं तो ये धाराएं आपस में उलझ भी रही है। अब देखना है कि उम्मीदवारों की घोषणा के बाद चुनावी माहौल कैसा बनेगा। वैसे भी कांग्रेस के पास खोने के लिए बहुत बड़ी सियासी जायदाद नहीं है। पार्टी पिछले चुनाव में जीती 57 सीटों से वो नीचे उतरेगी, ऐसा भी नहीं लगता! लेकिन, ये तय है कि कांग्रेस इस चुनाव में जो भी पाएगी, वो उसे भाजपा की गलतियों से ही मिलेगा।   
  फिलहाल कांग्रेस को सारी उम्मीदें पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी के धुंआधार प्रचार और भाजपा की कमजोरी से है। राहुल गाँधी भोपाल, विंध्य, महाकौशल और ग्वालियर-चंबल इलाके में चुनाव प्रचार का अपना पहला दौर पूरा कर चुके हैं। अब उनका फोकस मालवा-निमाड़ पर है, जहाँ कांग्रेस को अपनी उस खोई पहचान को पाना है, जो कभी उसकी ताकत हुआ करती थी। 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिमी मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में कांग्रेस ने अपनी जमीन ही खो दी। कांग्रेस की सबसे बुरी स्थिति 2003 और 2013 में हुई, जब मालवा से कांग्रेस के कई गढ़ उखड़ गए थे। इस बार क्या पार्टी उन पुराने किलों को से फतह कर पाएगी, ये सवाल मौंजूं है। 
  मालवा-निमाड़ की 66 में से मालवा की 48 विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जिसे कई चुनाव में कांग्रेस ने ख़म ठोंककर जीती हैं। लेकिन, पिछले चुनाव में इनमें से 44 पर भाजपा का झंडा लहराया। इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि खोई हुई साख को फिर पा लिया जाए। पार्टी को ये इसलिए भी संभव लग रहा है, कि इस बार किसान आंदोलन, एससी-एसटी एक्ट जैसे मुद्दे भाजपा के खिलाफ जाते दिख रहे हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि इन मुद्दों को भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करके अपने वोट बैंक को मजबूत किया जाए। मंदसौर में हुए किसान आंदोलन के बाद कांग्रेस ने इस मामले को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राहुल गाँधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया यहाँ दो-दो बार आम सभाएं कर लोगों की संवेदनाओं को झकझोर चुके हैं। जबकि, एससी-एसटी मामले पर सवर्ण-ओबीसी सरकारी कर्मचारी उद्वलित हैं। अब दारोमदार इस पर है, कि कांग्रेस लोगों की नाराजी को किस तरह वोटबैंक में तब्दील कर पाती है। 
   मालवा-निमाड़ इलाके में भी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व पांसा फैंकने की कोशिश में है। यही कारण है कि राहुल गाँधी को महांकाल और ओंकारेश्वर ले जाने की योजना है। ब्राह्मणों को रिझाने के लिए उन्हें भगवान परशुराम की जन्मस्थली जानापाव भी ले जाने का विचार है। इन सारी तैयारियों का लक्ष्य है कि पार्टी के प्रदर्शन को सुधारा जाए। कांग्रेस की कोशिश है कि इंदौर जिले की 9 विधानसभा सीटों में से जिन 8 पर भाजपा का कब्जा है, उसमें सेंध लगाई जाए। जबकि, धार जिले की 7 में से 5 सीटें भाजपा के पास हैं। झाबुआ की भी 3 में से 2 सीटें भाजपा ने जीती थीं। यहाँ की एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था। जबकि, नीमच की सभी 3 सीटें, मंदसौर की 4 में से 3 सीटें, उज्जैन जिले की सभी सातों सीटें, रतलाम जिले की सभी 5 सीटें, देवास की सभी 5 सीटें, शाजापुर की सभी 3 सीटें और आगर जिले की दोनों सीटों पर भाजपा काबिज है। पिछले चुनाव में जिन 7 जिलों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था, पार्टी की कोशिश होगी कि वहां कोई चमत्कार किया जाए! लेकिन, वो चमत्कार कैसे होगा ये कोई नहीं जानता! शायद भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को मौका देंगी। जबकि, भाजपा पुरानी गलतियों को सुधारने के बजाए नए चुनावी पांसे फैंककर मतदाताओं को भरमाने में लगी है।     
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Sunday, October 21, 2018

देखिए, अच्छी भी है फ़िल्मी दुनिया!

- हेमंत पाल

   सिनेमा की दुनिया पर अकसर तोहमत लगाई जाती है, कि यहाँ के स्वार्थी होते हैं। कोई किसी का साथ नहीं देता और चढ़ते सूरज का तिलक किया जाता है। कुछ मामलों में ये बात सही भी है! पर, कुछ लोग इससे अलग भी हैं, जो दूसरों का दर्द समझते हैं और मदद का हाथ बढ़ाने से पीछे नहीं रहते! जिंदादिल फिल्मकारों से जुड़े ऐसे कुछ किस्से, जो बताते हैं कि सिनेमा की दुनिया उतनी बुरी भी नहीं, जितनी समझी जाती है। 
     मोहम्मद रफी एक बार गाने की रिकार्डिंग के लिए स्टूडियों की लिफ्ट से ऊपर जा रहे थे। उस रिकॉर्डिंग स्टूडियो का पुराना लिफ्ट मैन रफ़ी साहब को जानता था। उसने मोहम्मद रफी की तरफ शादी का कार्ड बढ़ाते हुए कहा 'मेरी बेटी की शादी है, आप आइएगा।' रफी साहब ने अनमने से कार्ड ले लिया, उसकी तरफ देखा भी नहीं। लिफ्ट मैन ने भी इसे कमजोर लोगों की नियति मान लिया और चुप हो गया। करीब घंटेभर बाद मोहम्मद रफी रिकार्डिंग करके लौटे! वापसी में उसी लिफ्ट मैन से पूछा 'शादी किस दिन है, ये कहते हुए एक लिफाफा उसके हाथ में दिया।' रफी के इस बदले व्यवहार को वो समझ नहीं पाया! थोड़ी देर बाद फिल्म के निर्देशक ने कहा कि रफी साहब से गुस्सा मत होना! उस समय वे रिकार्डिंग के लिए जा रहे थे, इसलिए उनका ध्यान केवल गाने पर था। लेकिन, जब गाने की रिकार्डिंग हो गई तो मुझसे कहा कि मेरी फीस में अपना पैसा भी मिलाइए नीचे लिफ्ट मैन की बेटी की शादी है। 
   जाने-माने गायक मुकेश के घर के पास एक प्रेस की दुकान थी। वह प्रेस वाला अकसर अपने साथियों से कहता था कि मुकेशजी उससे आते-जाते बात करते हैं, मेरी उनसे दोस्ती है। जब उस प्रेस वाले की लड़की की शादी तय हुई, तो लोगों ने कहा कि मुकेशजी को क्यों नहीं बुलाते, वो तो तुम्हारे दोस्त हैं! उसने झिझकते हुए शादी का निमंत्रण मुकेशजी को दे दिया। उसने सोचा नहीं था कि वास्तव में मुकेशजी उसकी बेटी की शादी में आएंगे। शादी के दिन मुकेशजी जब वे सांजिदों के साथ मंडप में पहुंचे, तो वह घबरा गया। उसे लगा कि उसने मुकेशजी को गाने के लिए थोडी बुलाया था। वह मुकेशजी के पास गया और कहने लगा 'आपको तो बस आने के लिए कहा था, बेटी की शादी है आपके गाने का ख़र्चा कैसे दे पाऊंगा। ऊपर से तबला, बाँसुरी और सारंगी अलग।' मुकेशजी ने कहा कि तुम्हारी बेटी क्या मेरी बेटी नहीं। तुमसे पैसा कौन मांग रहा है। मैं तो बारातियों को गाना सुनाने आया हूँ। मुकेशजी ने उस शादी में देर रात तक गीत गाए। देर रात जब वे घर लौटे तो बेटे नितिन से कहा कि वहाँ गाने में इतना सुकून मिला, जितना अाजतक रिकॉर्डिंग में भी नहीं मिला! मुकेशजी ने वहाँ सिर्फ गाने ही नहीं गाए, उस बेटी को तोहफे में अच्छे-खासे पैसे भी देकर आए थे। 
  मुकेशजी अकसर सर्दियों की रात दिल्ली में कार से सड़क पर निकलते और फुटपाथ पर सोते भिखारियों को कंबल ओढ़ा देते थे। एक बार एक भिखारी ने उन्हें ऐसा करते पहचान लिया, लेकिन कहा कुछ नहीं। बस, उनका एक गीत 'दुनिया मैं तेरे तीर का या तक़दीर का मारा हूँ' गाने लगा। मुकेशजी ने कहा ये गीत तुमने कहाँ सुना? भिखारी ने कहा हमारी किस्मत में ये कहाँ कि मुकेशजी हमें ये गीत सुनाएं या हम उनके प्रोग्राम में जाएं। इस पर मुकेशजी ने कहा कि यहीं रहना मैं लौटकर आता हूँ। मुकेश वापस आए तो उस भिखारी के लिए अपने शो के चार टिकट लाएं, साथ में तीन सौ रुपए दिए और कहा 'परसों मुकेशजी का कार्यक्रम है वहाँ आ जाना।' भिखारी ने पांव छू लिए और कहा 'मैं आपको पहचान गया था, पर हिम्मत नहीं थी, इसलिए आपका गीत गा दिया।' 
 मीना कुमारी बहुत अच्छी शायरा थी, लेकिन कभी मंचों पर नहीं गाती थी। एक बार किसी ने कहा कि सैनिको के लिए कवि सम्मेलन है, आप कभी मंच पर नहीं आतीं, पर हो सके तो सैनिकों के लिए आइए! मामला सैनिकों का था तो मीनाजी वहाँ गईं भी और कविताएं भी पढ़ी! उन्होंने कविता के लिए पैसा लेना तो दूर, अपनी तरफ से सैनिक कल्याण कोष में अच्छी खासी रकम दे आईं।
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Tuesday, October 16, 2018

कांग्रेसी सियासत के गलियारों में दिग्विजयी धमक!


   मध्यप्रदेश में सियासी माहौल गरमा रहा है। पार्टियों में सही उम्मीदवार के लिए बार-बार पत्ते फैंटे जा रहे हैं। चुनाव की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सपाक्स, जयस और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी समेत और भी कई छोटी-छोटी पार्टियां भी दांव खेलने को तैयार हैं। डेढ़ दशक से प्रदेश की सत्ता में काबिज भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती 165 विधायकों में से जीतने वाले चेहरों को चुनना है। जबकि, कांग्रेस को अपने सिर्फ 57 विधायकों में से उन्हें चुनना है, जो उसके लिए सत्ता की सीढ़ी बन सकें। सारा दारोमदार उम्मीदवारों के चयन का है। जिस भी पार्टी ने मतदाताओं की नब्ज पहचानकर सही चेहरे को उम्मीदवार चुना, उसके लिए ये जंग आसान हो जाएगी। भाजपा का तो पूरा संगठन इस काम में लगा है! उधर, कांग्रेस में भी पार्टी आलाकमान के साथ प्रदेश के तीनों प्रमुख नेता अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की कोशिश में हैं। लेकिन, हवा बताती है कि कांग्रेस के टिकटों के फैसले में दिग्विजय सिंह का पलड़ा कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से कहीं ज्यादा भारी है।   
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- हेमंत पाल   
   र पार्टी के लिए चुनाव के मौसम में सबसे मुश्किल काम होता है, ऐसे उम्मीदवार को खोजना जो उसकी रीति-नीति पर खरा उतरने के साथ जीतने वाला मोहरा बन सके। मध्यप्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनाव का दारोमदार इसी पर टिका है। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने उम्मीदवारों को कई कसौटियों पर परख रही है। भाजपा ने तो काफी पहले से इसके लिए सर्वेक्षण करवाए और कई रिपोर्ट पर काम किया। ये काम कांग्रेस ने भी किया, पर अंतिम स्थिति में टिकट वितरण में किस नेता का पलड़ा भारी रहेगा, इसे लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में 57 सीटें मिली थी, इसलिए उसे अधिकांश नए चेहरों पर दांव लगाना होगा। पिछला चुनाव जीतने वाले विधायकों में से भी कुछ के टिकट कटना तय है, पर ज्यादातर विधायक फिर मैदान में दिखाई देंगे! अभी ये सवाल ही है कि किन विधायकों के टिकट कटेंगे और चुनाव में नए चेहरों को उतारने में किसका पलड़ा भारी रहेगा? कांग्रेस के चाणक्य कहे जाने वाले नेता दिग्विजय सिंह का, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का या फिर नए जोश वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का?
    विधानसभा चुनाव से पहले कहा जा रहा था, कि पार्टी ने टिकट बंटवारे से दिग्विजय सिंह को दूर रखने का फैसला किया है! लेकिन, हालात देखकर कहा नहीं जा सकता कि पार्टी ने ऐसा कोई फार्मूला तय किया होगा! ये किसी भी स्थिति में संभव भी नहीं है। सियासी अनुमान हैं कि प्रदेश की अधिकांश सीटों पर उनके दखल से ही नाम तय हो रहे हैं। चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सक्रियता को लेकर भी काफी भ्रम था। उनकी भूमिका क्या होगी, उन्हें प्रदेश की राजनीति में दखलंदाजी के योग्य समझा भी जाएगा या नहीं! ऐसे कई सवाल हवा में थे। लेकिन, पंद्रह साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर रहने वाले दिग्विजय सिंह ने 'नर्मदा-परिक्रमा' के बाद न केवल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय वापसी की, बल्कि पार्टी को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रदेशभर का दौरा भी किया। उनका 'संगत में पंगत' वाला फार्मूला काफी हद तक सफल माना गया। प्रदेश में समन्वय समिति के मुखिया के रूप में उन्होंने पार्टी को एक सूत्र में बांधने की जो कोशिश की, जो सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है। 
    प्रदेश कांग्रेस में फिलहाल दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की विधानसभा सीटों के समीकरण से वाकिफ हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़े नेता जरूर हैं, पर प्रदेश की सभी 230 सीटों पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं मानी जा सकती! कमलनाथ का प्रभाव महाकौशल के कुछ जिलों तक सीमित हैं। जबकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया का मालवा में जोर है, पर सभी सीटों पर नहीं! वे शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, मुरैना, और ग्वालियर की सीटों की तासीर को ही ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की अधिकांश सीटों को समझते हैं। उन्हें हर जगह की तासीर और वो समीकरण भी पता हैं, जो चुनाव पर असर डाल सकते हैं। दिग्विजय सिंह की यही राजनीतिक पकड़ उन्हें टिकट वितरण में मददगार बनाती है। 
  कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! उनसे नफरत तो की जा सकती है, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! उन्हें राजनीति का चाणक्य भी इसीलिए कहा जाता है, कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजियों को पलट दिया है। अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवादास्पद भी बने! फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! लेकिन, कांग्रेस में उनका वजन बरकरार रहा। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी पकड़ से पार्टी को मजबूती तो दी है। दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद हुई हार से आहत दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! जबकि, राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने पहले कभी ऐसा किया हो! लेकिन, जब से वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया जाने लगा है!
     दिग्विजय सिंह ने बेहद रणनीतिक तरीके से राजनीति में वापसी की है। उनकी छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले समझा नहीं गया था कि ये खामोश और अराजनीतिक यात्रा एक दिन सियासत को झकझोर देगी! यात्रा की शुरुआत में तो इसे गंभीरता सी नहीं लिया गया, पर जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ती गई, उसके सियासी मंतव्य खोजे जाने लगे। इसके चलते संघ और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होने लगा था। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया। आज जो दिग्विजय सिंह दिखाई दे रहे हैं, वो काफी हद तक नर्मदा यात्रा से मिली ऊर्जा से ही लबरेज है! इस चुनाव के बाद यदि किसी नेता के सबसे ज्यादा उभरने की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दिग्विजय सिंह ही होंगे! क्योंकि, उनके पास खोने को कुछ नहीं है।
   पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा और निमाड़ भाजपा का सबसे ताकतवर गढ़ रहा था। रतलाम, झाबुआ, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, आलीराजपुर, देवास और सीहोर की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है। इंदौर की 9 सीटों में से 8, धार की 7 में से 5 सीटें और मंदसौर की 4 में से 3 सीटों पर भाजपा ने झंडा गाड़ा था। सीहोर जिले की मालवा क्षेत्र की 2 सीटें हैं, इन पर भी भाजपा जीती थी। लेकिन, इस बार मालवा और निमाड़ का माहौल भाजपा के पक्ष में झुका दिखाई नहीं दे रहा। 2013 के मुकाबले भाजपा कमजोर नजर आ रही है। इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं। करीब सवा साल पहले मंदसौर जिले से शुरू हुए उग्र किसान आंदोलन ने पूरे मालवा को अपने प्रभाव में लिया था। यहाँ पुलिस फायरिंग में मारे गए 7 किसानों के कारण पूरे प्रदेश में भारी हंगामा भी हुआ। मृतक किसानों में 5 पाटीदार समुदाय से आते थे, जो मालवा का प्रभावशाली किसान वर्ग है। बुंदेलखंड और मालवा में दलित आबादी बहुत बड़ी है। उज्जैन जिले में प्रदेश के सबसे ज्यादा दलित रहते हैं। इनके कर्मचारी संगठन सपाक्स की सबसे ज्यादा सक्रियता भी मालवा में है। सपाक्स खुलकर शिवराज सरकार के विरोध में है। इन सब चीजों के चलते भाजपा की राह बहुत आसान समझ नहीं आ रही। ऐसे में यदि कांग्रेस ने सही उम्मीदवारों को चुन लिया तो भाजपा के लिए ये चुनाव मुश्किल बन सकते हैं। 
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