Sunday, July 27, 2014

'नमामि गंगे'


    नरेंद्र मोदी की सरकार ने भले ही अपने चुनावी वादों को पहले बजट में शामिल न किया हो, पर गंगा पर सौगातों की बारिश कर दी! कई ऐसी घोषणाएं हैं, जो सही मायनों में गंगा और उसके तट पर बसे शहरों के विकास के लिए मील का पत्थर साबित होंगी। नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी की भी बहुत सी उम्मीदें साकार हुई है! ' नमामि गंगे परियोजना' को मोदी सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना के रूप में देखा जा रहा है। केंद्रीय बजट में 2037 करोड़ का प्रावधान इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए किया गया है। इससे समन्वित गंगा संरक्षण मिशन की शुरुआत होगी! इस परियोजना से गंगा समेत उसकी सहायक नदियों सहित कई क्षेत्रों का भी विकास होगा। इससे गंगा की साफ-सफाई में मदद मिलेगी और और गंगा में जहाज परिवहन भी विकसित होगा!
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- हेमंत पाल 

  नरेंद्र मोदी सरकार के पहले बजट में 'नमामि गंगे' के ऐलान में 'नमो' की छाप दिखती है। बजट में नदियों की सफाई से लेकर नदियों को जोड़ने वाले प्रोजेक्ट पर भी फोकस किया गया है। 'नमामि गंगे' नाम से इंटीग्रेटेड गंगा कंजर्वेशन मिशन शुरू करने का ऐलान किया गया है। इसमें एनआरआई से भी मदद लेने का उल्लेख है। बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि 'नमामि गंगे' नाम से इंटीग्रेटेड गंगा कंजर्वेशन मिशन शुरू किया जाएगा। शुरुआती साल के लिए 2037 करोड़ रुपए दिए जाएंगे। देश की विकास प्रक्रिया में एनआरआई का अहम योगदान रहा है। गंगा नदी के कंजर्वेशन के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने में भी एनआरआई कम्युनिटी अहम योगदान दे सकती है। इसलिए गंगा के लिए 'एनआरआई गंगा फंड' बनाया जाएगा, जिससे आर्थिक मदद मिल सके। 
  भाजपा के लिए गंगा का मसला चुनाव अभियान में भी एक बड़ा मुद्दा रहा। वाराणसी से नामांकन करने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था 'न मैं यहां आया हूं और न ही किसी ने मुझे यहां भेजा है, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है'। हिंदू नगरी कहे जाने वाले वाराणसी में बीजेपी ने गंगा के सफाई के मसले पर कैंपेन भी किया था। बजट में केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, पटना और दिल्ली में रिवर फ्रंट के सौंदर्य और घाटों के विकास के लिए 100 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया गया। जेटली ने कहा कि रिवरफ्रंट और घाट सिर्फ हिस्टोरिकल हैरिटेज ही नहीं हैं, बल्कि इनमें से कई नदियां और घाट पूज्य हैं। लोग इनकी पूजा करते हैं।
  अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में नदियों को जोड़ने के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर बात शुरू हुई थी, लेकिन यह आगे नहीं बढ़ पाई। अब मोदी सरकार ने इस पर फोकस किया है। जेटली ने बजट में नदियों को जोड़ने वाले प्रोजेक्ट की डिटेल रिपोर्ट की तैयारी के लिए 100 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया।
   इसी साल 24 अप्रैल की दोपहर बाद अपना नामांकन दाखिल करने के लिए बनारस कचहरी के बरामदे में खड़े भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने कहा था कि न मैं यहां आया हूं और न ही किसी ने मुझे यहां भेजा है, यहां तो मुझे गंगा मां ने बुलाया है। यह दृश्य बदला और जनता की इच्छा से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। गंगा को लेकर उनकी वचनबद्धता पर सबको भरोसा था, जिसे अंतत: अमलीजामा भी पहनाया वित्तमंत्री अरुण जेटली के आम बजट में। अब 'नमामि गंगा' नाम से गंगा व उसके तटों के उद्धार को एक नया प्रोजेक्ट शुरू करने का प्रावधान किया गया है। वित्तमंत्री ने इसके लिए बजट में 2037 करोड़ रुपए का प्रस्ताव रखा है। इसके तहत अहमदाबाद में साबरमती रिवर फ्रन्ट की तर्ज पर उत्तर भारत में गंगा रिवर फ्रन्ट का श्री गणेश किया जाना है। इसमें गंगा जल संरक्षण के साथ ही तटों के संरक्षण व संवर्धन का प्रावधान संभावित है। नदी किनारे पॉथ-वे और पौधरोपण कर इसे समृद्ध क्षेत्र बनाने का भी प्लान इसमें निहित है।
  भारत में कृषि के माध्यम से दौलत का सर्वाधिक उत्पादन करने वाली गंगा बेल्ट को अब कारोबारी नजरिए से भी और समृद्ध किया जाएगा। पूर्व में औने-पौने शुरू की गई जल परिवहन की कवायद को अब व्यवस्थित रूप देते हुए इलाहाबाद से हल्दिया तक गंगा जल परिवहन हेतु बजट में प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त गंगा घाटों के लिए भी 10 करोड़ का बजट प्रावधानित किया गया है। यह संपूर्ण कवायद गंगा रिवर फ्रन्ट को अहमदाबाद के उस साबरमती रिवर फ्रन्ट की तर्ज पर पिरोकर पेश करना है जिसे गुजरात मॉडल के नवरत्‍‌नों में से एक बताकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं।  
सबसे बड़ी चुनौती 
   गंगा सफाई अभियान की सबसे बड़ी बाधा होगी गंगा में गिरने वाले शहरी और औद्योगिक कचरे को रोकना। यह समस्या सरकार और वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती है। गंगा में प्रतिदिन 2 लाख 90 हजार लीटर कचरा गिरता है। जिससे एक दर्जन बीमारियां पैदा होती हैं। सबसे अधिक कैंसर जैसा खतरनाक रोग भी पैदा होता है। कैंसर के सबसे अधिक मरीज गंगा के बेल्ट से संबंधित हैं। इसके अलावा दूसरी जलजनित बीमारियां हैं। 
  सर्वेक्षणों के अनुसार गंगा में हर रोज 260 मिलियन लीटर रसायनिक कचरा गिराया जाता है, जिसका सीधा संबंध औद्योगिक इकाईयों और रसायनिक कंपनियों से हैं। गंगा के किनारे परमाणु संयत्र, रसायनिक कारखाने और शुगर मिलों के साथ-साथ छोटे बड़े कुटीर और दूसरे उद्योग शामिल हैं। कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को आंचल करने में सबसे अधिक भूमिका निभाता है। वहीं शुगर मिलों का स्क्रैप इसके लिए और अधिक खतरा बनता जा रहा है। गंगा में गिराए जाने वाले शहरी कचरे का हिस्सा 80 फीसदी होता है। जबकि 15 प्रतिशत औद्योगिक कचरे की भागीदारी होती है। गंगा के किनारे 150 से अधिक बड़े औद्योगिक ईकाइयां स्थापित हैं। 
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इंदौर में अपराध की लहलहाती फसल

हेमंत पाल 

   नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार अपराध में इंदौर का स्थान देश में दूसरा है। इंदौर में अपराध की दर (809.9) है। सबसे ज्यादा अपराध दर (834.3) कोयंबटूर की है। रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि यह दर देश के 53 प्रमुख शहरों में दर्ज हुए अपराधों की तुलना में सामने आई है। प्रदेश की राजधानी भोपाल में अपराध दर (598) है। 2011 और 2012 की रिपोर्ट में कोच्चि की अपराध दर देश में सबसे ज्यादा थी, जबकि इस बार कोच्चि प्रथम पांच की सूची से भी बाहर हो गया है। इंदौर की अपराध दर 2011 में देश में चौथे नंबर पर थी, जबकि पिछले दो साल से लगातार दूसरे नंबर पर है। प्रतिशत की बात करें तो 53 शहरों में दर्ज अपराधों में 3.2 प्रतिशत अपराध अकेले इंदौर में दर्ज हुए हैं। 
हर जुर्म में बाजी मार रहा है इंदौर
  मध्यप्रदेश जहां बलात्कार के मामले में देश में अव्वल है, वहीं प्रदेश में इंदौर अपराध के हर वर्ग में दूसरे प्रमुख शहरों से आगे है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसी आरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में बलात्कार के सर्वाधिक मामले में मध्यप्रदेश में दर्ज हुए हैं। कुल अपराध के मामले में महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर है। भोपाल में जहां 11274 अपराध दर्ज हुए वहीं इंदौैर में यह संख्या 17551 है। ग्वालियर (7886) व जबलपुर (6996) काफी पीछे है। 2012 में इंदौर में 16512 अपराध दर्ज हुए।
महिला-बच्चों के अपराध की स्थिति
  इंदौर में महिला व बच्चों से अपराध की स्थिति में भी इंदौर की भयावह स्थिति है। रिपोर्ट के मुताबिक महिला के खिलाफ अपराध के इंदौर में 940 मामले दर्ज किए गए। इस श्रेणी में भोपाल में 878, ग्वालियर में 848 व जबलपुर में 559 केस दर्ज हुए। बच्चों से संबंधित अपराध की इंदौर में संख्या 583 है। ग्वालियर में 275, भोपाल में 178 व जबलपुर में 237 केस दर्ज हुए है।
हत्या, बलात्कार, अपहरण में आगे
   एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक इंदौर प्रदेश के अन्य प्रमुख शहरों से लगभग हर तरह के अपराध में सबसे आगे है। आंकड़े के मुताबिक, हत्या, बलात्कार व अपहरण जैसे सभी गंभीर मामलों में इंदौर राजधानी भोपाल के साथ ही अन्य प्रमुख शहरों से काफी आगे है। 
खुदकुशी करते युवा 
  इंदौर में आत्महत्या व सड़क दुर्घटना में होने वाली मौतों की स्थिति भयावह है। दोनों वर्गो में मौतों प्रदेश में सबसे ज्यादा इंदौर में ही रही है। आत्महत्या के आंकड़े बताते है कि इंदौर में मौत को गले लगाने वालों में सबसे ज्यादा 15 से 29 वर्ष उम्र आयु वर्ग के युवा है। आंकड़े बताते हैं, 2013 में इंदौर में आत्महत्या के 540 मामले हुए जो प्रदेश के सभी शहरों से अधिक है। 2012 में इंदौर में 434 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए हैं जबकि भोपाल में 384, ग्वालियर में 211 व जबलपुर में 304 आत्महत्याएं हुई है। इंदौर में आत्महत्या करने वाले 540 में से 284 मृतक 15-29 आयु वर्ग से है। इसमें पुरुष 156 व महिलाएं 128 है। 14 साल तक की उम्र वर्ग में 20 है जिसमें से 5 पुरुष व 15 महिलाएं है। 30 से 44 आयु वर्ग में 154 है जिसमें 111 पुरुष और 43 महिलाएं है।

अमित शाह : कद से बड़ा पद


*  हेमंत पाल 
  
  भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को बनाया जाना महत्वपूर्ण घटना है। इसके अलावा संघ के दो प्रमुख नेताओं को भाजपा में भेजे जाने का महत्व भी समझना आवश्यक है। नितिन गडकरी को छोड़ दें तो भाजपा के इतिहास में अभी तक जितने भी अध्यक्ष हुए उनकी देश में या फिर संगठन के अंदर व्यापक राष्ट्रीय छवि थी। लालकृष्ण आडवाणी जनता के बीच काफी लोकप्रिय रहे। मुरली मनोहर जोशी हमेशा पार्टी का एक चेहरा रहे। कुशाभाऊ ठाकरे का संगठन के अंदर बड़ा कद था। वेंकैया नायडू की भी राष्ट्रीय पहचान बन चुकी थी। थोड़े समय के लिए अध्यक्ष बने जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण भी इसी श्रेणी में आते हैं। गडकरी को भी अध्यक्ष तब बनाया गया, जब पार्टी भारी संकट में थी। अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपना इस्तीफा औपचारिक तौर पर पार्टी के सुपुर्द कर दिया था।
  अमित शाह का मामला इन सबसे अलग है। उनकी कोई राष्ट्रीय पहचान नहीं रही है। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के बाद उन्हें केंद्रीय पदाधिकारियों की श्रेणी में लाया गया। उसके कई कारण थे, लेकिन कारक केवल मोदी थे। जाहिर है, अगर वह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के अध्यक्ष बने हैं तो इसके व्यापक आयाम हैं। सामान्य निष्कर्ष यह है कि इस नियुक्ति के जरिए सरकार से संगठन तक मोदीकरण की प्रक्रिया का एक अहम फेज पूरा हो गया।
 संघ को सरकार के साथ ही पार्टी की भी चिंता है और इसी का ध्यान रखने हुए उसने अपने दो नेताओं को भेजा है जिन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिलनी है। यह संतुलन बनाने की कोशिश है। यह बात अलग है कि राम माधव मोदी के विश्वस्त रहे हैं। असली शक्ति भी अध्यक्ष के पास ही होती है। अमित शाह के अध्यक्ष होने का मतलब है मोदी की चाहत के अनुरूप बीजेपी की रीति-नीति निर्धारित होना।
 नरेंद्र मोदी कहते हैं कि अमित शाह की अपनी कार्यक्षमता है और उसकी बदौलत वह यहां तक आए हैं, पर यह सच उन्हें भी मालूम है कि राष्ट्रीय राजनीति में राजनाथ सिंह उनको अपने आप नहीं लाए! यह मोदी की अनुशंसा थी। अमित शाह गुजरात में उनके सर्वाधिक विश्वसनीय सहयोगियों में रहे हैं और उन पर चल रहे मामलों के मद्देनजर उन्हें प्रदेश मंत्रिमंडल में लेने पर विवाद खड़ा होता। साथ ही जब तक मोदी केंद्रीय नेतृत्व मंडली में नहीं आए थे, भविष्य की रणनीति के अनुसार एक विश्वसनीय व्यक्ति यहां चाहिए था।
 भाजपा आज अपने सहयोगियों के साथ भारी बहुमत से सत्ता में हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। संसदीय लोकतंत्र में जहां पार्टी आधारित व्यवस्था है, वहां व्यवहार में पार्टियों का महत्व सरकार के समानांतर है। संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए पार्टी और सरकार के बीच शक्ति संतुलन अपरिहार्य है।
 नीतियां पार्टी की होती हैं, घोषणा पत्र पार्टी जारी करती है, जबकि वोट पार्टी और उसके उम्मीदवार को मिलता है। लेकिन, निर्णय की सारी शक्तियां सरकार के हाथों केंद्रित हो जाने के कारण पार्टी प्रायः परमुखापेक्षी अवस्था में आ जाती है। अगर अध्यक्ष चिंतनशील हो, आत्मविश्वासी और शक्तिसंपन्न हो तो समय-समय पर सरकार का मार्गदर्शन कर सकता है। सरकार कहीं गलत कर रही है या पार्टी की सोच से परे जा रही है तो वह उसके सामने खड़ा हो सकता है। ऐसे अध्यक्ष के रहते सरकार के मुखिया पार्टी को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
  सरकार की सफलता के लिए, पार्टी की साख और विश्वसनीयता के लिए तथा कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि अध्यक्ष के जरिए सरकार पर पार्टी का नैतिक और व्यावहारिक अंकुश बना रहे। प्रश्न है कि क्या अमित शाह ऐसी भूमिका निभाने में सफल हो सकते हैं, यह उनकी असली परीक्षा है। पार्टी में इस समय ऐसा कोई नेता नहीं दिख रहा था, जो पार्टी की किसी नीति से मतभेद होने पर मोदी के सामने डटकर खड़ा हो सके।
  अमित शाह तो उनके पूरक ही माने जाते हैं। संघ से आए नेता किस तरह पार्टी को वैचारिक आधार पर खड़ा रखेंगे यह देखना होगा! अमित शाह को अपना महत्वपूर्ण दायित्व समझना होगा और नरेंद्र मोदी को भी। अमित शाह की वैचारिक, सांगठनिक और प्रबंधन क्षमता की परख अभी होनी है। पार्टी कहती है कि व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश! तो यहां व्यक्ति मोह से ऊपर उठकर अगर वह काम कर पाते हैं और दल तथा देश को प्रमुखता देते हैं तो यकीनन ऐतिहासिक समय में ऐतिहासिक भूमिका निभा पाएंगे। यह पार्टी आधारित हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए भी अच्छा होगा। नहीं कर पाते हैं तो उनका जो होगा सो तो होगा ही, पार्टी भी 2004 की दुर्दशा को प्राप्त हो सकती है। संघ से आए नेताओं के पास भी गहरी दृष्टि है या नहीं, यह आने वाले समय में ही स्पष्ट होगा।

Sunday, June 8, 2014

नरेंद्र मोदी : देश की उम्मीदों का शिखर

नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी सुकून भरी नहीं है। यहाँ उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जो उम्मीदें उनसे लोगों ने लगा रखी है। मोदी पर पार्टी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने का भी बड़ा दबाव होगा! वे अटलबिहारी वाजपेयी या कांग्रेस की तरह गठबंधन सरकारों की तरह मजबूरी का बहाना नहीं बना सकेंगे! इस बार भाजपा के चुनाव प्रचार का ध्येय वाक्य था 'अच्छे दिन आने वाले हैं।' इस एक वाक्य में ढेरों उम्मीदें भरी है। मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इन्हीं उम्मीदों भरे सपनों को साकार करने की है। शायद किसी भी चुनाव के बाद किसी ने देश में बदलाव के इतने सपने नहीं देखे होंगे, जितने इस बार देखे गए! यदि ये सपने टूटते हैं तो भविष्य में भाजपा का कोई नाम लेवा नहीं होगा! नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से दबंग किस्म की राजनीति दिखाई है, उसमें जरा भी गड़बड़ हुई लोग पूछेंगे कि उन अच्छे दिनों का क्या हुआ? मोदी को सबसे ज्यादा आर्थिक मोर्चे पर सफल प्रदर्शन करके दिखाना होगा। इसलिए कि आर्थिक मोर्चे की सफलता से ही सारी सफलताओं तार जुड़े है!
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 - हेमंत पाल 
   देश के 16वें लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत अप्रत्याशित भी है और अभूतपूर्व भी! भाजपा ने अपना पूरा चुनावी कैंपेन विकास के नारे पर केंद्रित रखा और इसका सबूत दिया 'गुजरात का विकास मॉडल।' यही कारण था कि पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में भी विकास की ज़्यादा दावेदारी की। गुजरात में अपने कार्यकाल के दौरान लिए गए सकारात्मक फैसलों और चुनाव प्रचार से उभरे नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के आधार पर कहा जा सकता है कि इस समय मोदी जो तय कर देंगे, उसे कोई नकार नहीं पाएगा। इस समय वे देश की उम्मीदों के उत्तुंग शिखर पर विराजमान हैं। 
   सही मायने में इंदिरा गाँधी के बाद वे अकेले नेता हैं, जो अपने दम पर खुद को स्थापित करके पार्टी को सत्ता में लाने में कामयाब हुए हैं। उनकी सफलता को राजीव गाँधी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि राजीव की माँ की हत्या हुई थी और उसी सद्भावना के बल पर वे सत्ता में आए थे! जबकि, नरेंद्र मोदी ने सिर्फ मेहनत के बल पर और देश के लोगों के सामने उम्मीदें जगाकर सत्ता हांसिल की है। मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से की जा सकती है! वह भी 1980 वाली इंदिरा गाँधी नहीं जो हार के बाद आई थीं! बल्कि, 1971 वाली इंदिरा गाँधी से जो लगातार जीतती रही थीं। जिन्होंने 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 का चुनाव जीता! भारी विरोध के बाद राष्ट्रपति अपनी मर्ज़ी का बनाया। कांग्रेस पार्टी को तोड़ा और अपनी रणनीति से फिर 1971 का चुनाव जीता! लेकिन, उसके बाद इंदिरा गाँधी राजनीतिक रूप से तानाशाह हो गई थीं! उस घटना को आज 4 दशक से ज्यादा वक़्त बीत चुका है। अब उस तरह की तानाशाही वाली राजनीति देश में संभव नहीं है। 
मंदी से उभरने की चुनौती
  दुनिया में आज आर्थिक हालात ऐसे नहीं है कि किसी देश की आर्थिक स्थिति में नाटकीय बदलाव लाया जा सके! मोदी ने भाजपा के घोषणापत्र में और अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि वे देश को 'मैन्यूफैक्चरिंग हब' बनाना चाहते हैं। लेकिन, मैन्यूफैक्चरिंग के लिए तकनीक और निवेश की ज़रूरत होती है! निवेश तब आता है जब निवेशक को यह लगता है कि मैं जो माल बनाऊंगा, वह बिकेगा! मैन्यूफैक्चरिंग भी दो तरह की होती है, प्रिसीज़न मैन्यूफैक्चरिंग और कंज्यूमर गुड्स मैन्यूफैक्चरिंग। प्रिसीज़न मैन्यफैक्चरिंग में यूरोप और अमरीका बहुत आगे हैं और इसके लिए बहुत उच्चस्तर की तकनीक चाहिए होती है, जिसमें भारत पीछे है। कंज्यूमर गुड्स मैन्यूफैक्चरिंग में चीन, वियतनाम, कंबोडिया और थाईलैंड जैसे देश आगे हैं। लेकिन, ऐसी मैन्यूफैक्चरिंग का माल यूरोप के बाज़ारों में खपता है, क्योंकि वो अमीर देश हैं। लेकिन इस समय वहां मंदी है। यूरोप में मंदी के कारण इस समय चीन का माल नहीं ख़रीदा जा रहा है। चीन की कंपनियां भी इस समय कम काम कर पा रही हैं। ऐसे में मोदी भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब कैसे बना पाएंगे?
महंगाई से मुकाबला 
   नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाना है। क्योंकि, 'अच्छे दिनों' का सही मतलब तो देश की जनता ने यही सोचकर लगाया है। किन्तु, सवाल यह है कि महंगाई जिस हाल में है, उसका मोदी कैसे उद्धार करेंगे? महंगाई का सबसे बड़ा कारण डीज़ल-पेट्रोल के दामों पर सरकार का कोई अंकुश न होना है। इनके दाम अन्तराष्ट्रीय बाजार के उतार-चढ़ाव से तय होते हैं। इनसे मोदी कैसे पार पाएंगे? महंगाई और विकास को साध कर रखना कुछ ऐसा है, जैसे कोई कलाबाज रस्सी पर चल रहा होता है! महंगाई अगर बढ़ती है तो ब्याज दरों पर कंट्रोल रखना पड़ता है जिससे विकास की दर धीमी हो जाती है और रोजगार घटते जाते हैं। पिछले पांच साल में देश इस जंजाल से निकल नहीं पाया है! निवृतमान वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने विकास दर 6 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था! लेकिन, मौजूदा हालत ये है कि विकास दर 5 फीसदी से नीचे बनी है। लेकिन, जनता के लिए विकास के मायने दर नहीं, बल्कि बेरोजगारों को नौकरी मिलना और वेतन बढ़ना है। मोदी सरकार को रोजगार बढ़ाने के लिए नए कदम उठाने होंगे, तभी कुछ बात बनेगी। 
आर्थिक विकास 
   बड़ा सवाल देश की आर्थिक विकास की दर का है. इस समय अर्थव्यवस्था की दर करीब 4.5 प्रतिशत है। इसे मोदी कितना बढ़ा पाएंगे, वो इसे 5 प्रतिशत या ६ प्रतिशत, आख़िर कितना कर पाएंगे! देश की सरकार ने पिछले कुछ सालों में कमाई के मुकाबले अपने खर्चे ज्यादा बढ़ाए हैं। इस बार वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.5 फीसदी तक रखने में सरकार ने कामयाबी पाई है। वित्तीय घाटा सरकार की कमाई और खर्चे के बीच का फर्क है। साल 2012-13 में ये 4.9 फीसदी था, जिसे घटाकर 4.5 तक लाया गया! इस बार इसकी वजह रही सरकारी खर्चो को कम करना और स्पैक्ट्रम की बिक्री से पैसे बनाना है। जो रोडमैप तैयार किया गया है, उसके मुताबिक साल 2014-15 में ये घाटा 4.2 फीसदी और 2015-16 में इसे 3.6 फीसदी तक लाया जाना है! यानी नई सरकार का हाथ पहले से ही तंग रहेगा और खर्चे घटाने का दवाब भी उस पर बना रहेगा! 
आयात-निर्यात घाटा
  देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है तो 'करंट एकाउंट डेफिसिट' (यानी आयात-निर्यात घाटा) कम करना होगा। अर्थव्यवस्था के साथ दिक्कत ये है कि आयात हम ज्यादा करते हैं और निर्यात कम! यानी ज्यादा डॉलर बाहर जाते हैं और आते कम हैं। नतीजा होता है रुपए और हमारी अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ता है। इसमें सुधार करके ही देश को तरक्की की तरफ बढ़ाया जा सकता है! भारत कच्चा तेल बाहर से मंगाता है, सोना मंगाता है, खाने का तेल और दाल बाहर से मंगाता है और ऐसे में किसी भी सरकार के लिए इस समस्या को सुलझाना आसान नहीं है!
अर्थव्यवस्था 
   मोदी सरकार ये नहीं कह सकती कि मुझे अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में मिली है। लेकिन, लोग इंतज़ार के मूड में नहीं लगते! जिस तरह की उम्मीदें लोगों ने लगाई है  मुताबिक वे अपनी समस्याओं से फौरन निजात चाहते हैं। मोदी के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होने जा रही है। आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने भी नई सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को अहम चुनौती माना है! मानसून के औसत से कम रहने का अनुमान मौसम विभाग पहले ही दे चुका है. अगर मानसून का मिजाज बिगड़ता है तो नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था के दरकने की होगी! 
भ्रष्टाचार से मुकाबला कैसे?
  लोगो ने चुनाव प्रचार के दौरान मोदी के 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत' नारे को सबसे ज्यादा तरजीह दी थी। देश में राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना भी है। लेकिन, भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार क्या कदम उठाएगी? सिर्फ कदम उठाना नहीं आम जनता के लिए रोजमर्रा के भ्रष्टाचार जैसे पुलिस या राशन कार्ड बनवाने को कैसे रोक पाएगी? इस पर नकेल नहीं कसी गई, तो 'अच्छे दिनों' के नारे का क्या होगा?
कालाधन पर लगाम कैसे 
  भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में काला धन बड़ा मुद्दा था। भाजपा के समर्थन में बाबा रामदेव ने भी गांव-गांव जाकर बताया कि काला धन आ गया तो हर शख्स करोड़ों का मालिक बन जाएगा! तब ये महज एक चुनावी मुद्दा था, पर अब ये काला धन बड़ा मुद्दा बन चुका है! अब विदेशी बैंकों में कितना काला धन जमा है ये कहना मुश्किल है, लेकिन मोदी-सरकार के लिए कदम उठाना बड़ी चुनौती होगी!
सामाजिक विषमता 
    देश के उद्योगपतियों के पास हजारों करोड़ की संपत्ति है। जबकि, गरीबों के पास दो वक्त का पेट भरने के लिए अनाज भी नहीं! जिस देश में गरीबी रेखा 32 और 28 रुपए के खर्च पर तय होती हो, उस देश में नई सरकार के फैसलों पर सबकी नजर होगी! मोदी के सामने चुनौती होगी कि वे कैसे उद्योगपतियों की तिजोरी में जमा होती रकम गरीब जनता तक पहुंचाएंगे! तत्काल तो मोदी ऐसा कोई चमत्कार कर नहीं पाएंगे! बड़े उद्योगपति हमेशा मोदी की तारीफ करते रहे हैं। वे जानते हैं कि मोदी के राज में गुजरात में उनका फायदा हुआ है, इन्हीं नीतियों के साथ मोदी गरीबों का भला कैसे कर पाएंगे! यदि नहीं कर पाए तो लोगों के सरकार को लेकर देखे गए सपने भी टूट जाएंगे! 
विवादित मुद्दे  
  भाजपा ने 1980 के दशक में अपने शुरुआती दिनों में चंद विवादित मुद्दे उठाए थे! ये मुद्दे हिंदुत्व के एजेंडे से सीधे जुड़े हुए थे! उस समय उनके तीन बड़े मुद्दे थे, अयोध्या में राम मंदिर बनाना, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 ख़त्म करना और देश में एक कॉमन सिविल कोड बनाना! देश में 1996 में जब पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी, पर 13 दिनों में ही गिर गई थी! उस समय प्रधानमंत्री बने थे अटलबिहारी वाजपेयी जिन्होंने कहा था कि हम इन तीनों मुद्दों को अभी किनारे पर रख रहे हैं। तब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था कि हमारी गठबंधन सरकार है, इसलिए जब भाजपा कभी अपने दम पर सत्ता में आएगी, तब हम इन मुद्दों को देखेंगे! या फिर जब सभी गठबंधन दलों की एक राय बनेगी, तब हम इसे दोबारा उठाएंगे! वाजपेयी के ही नेतृत्व में भाजपा 1998 में 13 महीनों के लिए और 1999 में लगभग साढ़े 4 साल तक सत्ता में रही, लेकिन दोनों ही बार उसकी गठबंधन सरकार थी। अब पहली बार भाजपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत से केंद्र में आई है। ऐसा बहुमत पिछले 30 साल में किसी पार्टी को नहीं मिला! सवाल है कि अब क्या भाजपा फिर इन मुद्दों को सामने लाएगी? 
कॉमन सिविल कोड
  देश के करीब 18 करोड़ मुसलमानों में कॉमन सिविल कोड को लेकर संशय बरकरार है! वहीं अनुच्छेद 370 का मामला बहुत पैचीदा है। क़रीब 25 साल से कश्मीर में सेना तैनात है। भारतीय उपमहाद्वीप में अमन न होने के पीछे एक बड़ा कारण कश्मीर का मुद्दा है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच फंसा हुआ है!
राम मंदिर का सवाल  
  तीसरा और सांसे अहम मुद्दा है अयोध्या में राम मंदिर बनाने का! यह मुद्दा राजनीतिक रूप से तो क़रीब समाप्त हो चुका है। लेकिन, संशय बरकरार कि क्या पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता में आई भाजपा में पाने मातृ संस्था 'आरएसएस'  मंदिर मुद्दे को किनारे करने का होगा?
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जमीन से उखड़ने लगी, आम आदमियों की पार्टी?

आम आदमी पार्टी (आप) के साथ दिक्कत यह है कि उसका छोटा-सा जीवनकाल उसके अराजनीतिक निर्णयों से ज़्यादा ही भर गया! नए राजनीतिक माहौल में इसे जनता कितना पसंद करेगी, ये कहना मुश्किल है। 'आप' को भी इसे लेकर अब उतना निश्चिंत नहीं रहना चाहिए, जितना वह छः महीने पहले थी। मानहानि मामले में अरविंद केजरीवाल के जमानत न लेकर जेल जाने के फैसले पर तिहाड़ के सामने जनता का उतना हुजूम उमड़ नहीं पड़ा, जितना उन्होंने सोचा था! राजनीतिक कार्रवाई का ये मौक़ा उन्हें हीरो नहीं बना सका! टेलीविज़न चैनलों की वैन्स वहाँ नहीं जमी! वे अखबारों के पहले पन्नों पर भी दिखाई नहीं दिए। दिसंबर-जनवरी के मुकाबले दिल्ली और देश का मौसम आज काफ़ी बदल चुका है! लेकिन, अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी यह भाँपने से चूक गई। 
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  - हेमंत पाल 
  राजनीति में सक्रियता भी उतनी ही जरुरी है, जितनी भविष्य की रणनीति! इसलिए कि जो दल राजनीतिक दल हलचल करता दिखाई न दे वो लोगों की नजरों से उतर जाता है। महज छह महीने पहले बनी 'आम आदमी पार्टी' उर्फ़ आप को निष्क्रिय तो जा सकता, पर उसकी सक्रियता और ऊर्जा निरर्थक राजनीतिक कामों में ज्यादा खर्च हो रही है, जिससे जनता का कोई लेना-देना नहीं! 'आप' के नेता बात-बात में आंदोलन करने पर उतर आते हैं! यहाँ तक कि आंदोलन करने की सनक में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक को गंवाने से नहीं चूकते, लेकिन जनता ये नहीं चाहती! पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का हश्र इसका सबसे अच्छा नमूना है। कांग्रेस की निष्क्रियता को भी इसी तरह से उपजी पराजय से जोड़कर देखा जा सकता है, जिसने सत्ता के गुरुर में लोगों को हाशिए पर रख दिया था। 
 देश की शांत पड़ी राजनीति के पानी में 'आप' ने पत्थर मारकर हलचल जरूर पैदा कर दी, लेकिन उस हलचल को सकारात्मक तरीके से भुना नहीं पाई। जनता को अपने फैसलों में शामिल करके उन्होंने राजनीति की एक नई परिपाटी को जन्म भी दिया! उन्होंने राजनीति को पार्टी दफ्तरों के बन्द कमरों से बाहर लाकर गली-मोहल्ले की कार्रवाई बना दिया था। नौजवान चेहरों की बहुतायत ने भी ताज़गी और नएपन का अहसास कराया! जनता के उन तबकों में इसका सबसे ज़्यादा स्वागत हुआ, जिनके लिए पिछली सरकार ने सबसे अधिक कल्याणकारी योजनाएँ बनाई थीं। अरविंद केजरीवाल की पिछली सफलता का एक कारण यह भी था कि उनका सामना करने के लिए कोई राजनीतिक संगठन नहीं था! किन्तु, अब हालात बदल चुके हैं और केंद्र में एक ज्यादा मजबूत सरकार आ गई है। 
अभी दौड़ से बाहर नहीं!
 बनारस में नरेंद्र मोदी के सामने मुस्लिम वोटर्स ने भी अरविंद केजरीवाल को हाथों हाथ लिया! संसद में भी चार सदस्यों के साथ पार्टी का पहला क़दम बुरी शुरुआत नहीं कही सकती! दिल्ली में भी वह हर सीट पर दूसरे स्थान पर रही है। इसका मतलब ये लगाया जाना चाहिए कि अभी वह राजनीतिक प्रतियोगिता से बाहर नहीं हुई है! लेकिन, क्या 'आप' में जन आकांक्षाओं को संभालने की समझ और रणनीति है? यह सवाल उससे सहानुभूति रखने वालों के दिमाग में सबसे ज्यादा कौंध रहा है! क्या वह बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य का अर्थ और गंभीरता समझ पा रही है? उसके सामने कांग्रेस की तरह हिम्मत और साख गवां चुके शासक नहीं है। आम आदमी पार्टी अब भी संभावनाशील राजनीतिक शक्ति है। उसका भविष्य उसकी कल्पनाशीलता और जीवट पर टिका हुआ है। उसके फैसलों की असामान्यता और अप्रत्याशितता ही अब तक उसे अन्य से अलग करती नजर आई है। इन्हें छोड़े बिना गंभीर राजनीतिक विकल्प का भरोसा बनने की चुनौती अब भी उसके सामने है। 
  जब तक कांग्रेस 'आप' का मुख्य निशाना थी, उसका साथ देने में उनकी दिलचस्पी थी। अब ऐसे हालात नहीं है। शायद यही कारण हैं कि जब लोकसभा चुनाव के बाद 'आप' ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से समर्थन माँगा, तो कांग्रेस मुकर गई। भ्रष्टाचार की जगह स्थिरता, अब सबकी जुबान पर है। केंद्र की नई सरकार के किसी नेता को भ्रष्ट ठहराना 'आप' के लिए अभी बहुत मुश्किल होगा। अरविंद केजरीवाल के कई बड़े सहयोगी भी उनका साथ छोड़ चुके है। कांग्रेस की अराजकता और दिशाहीनता के चलते उसे उखाड़ देना मुमकिन था! कांग्रेस सरकार की रक्षा के लिए उसका कोई जनाधार भी मौजूद नहीं था, जैसा कि भाजपा के पास अपनी सरकार की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसा प्रतिबद्ध संगठन है। इस संगठन की दिलचस्पी अपनी सरकार के पाँव जमाने में और  हमलावर मुद्रा में भी है। 
  आम आदमी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य को ठीक से समझने और उसमें अपनी भूमिका तय करने की है। पर, क्या ऐसा करने के लिए उसके पास पर्याप्त बौद्धिक क्षमता और राजनीतिक समझ है? अब ख़तरा इस बात का भी बढ़ गया है कि अरविंद केजरीवाल को हुड़दंगियों का एक गैरजिम्मेदार नेता घोषित कर दिया जाए! केजरीवाल को अब सक्रियता के साथ उसे बौद्धिक स्थिरता और दृढ़ता का सन्देश भी देना ही होगा। जहाँ तक लोकतंत्र के सम्मान की बात है तो 'आप' अभी भी राजनीतिक दलों की पुरानी संस्कृति का ही अनुकरण करती दिखाई दे रही है! उस पर एक छोटे से उद्दंड गुट का कब्ज़ा है। उसके 'बड़े' कहे जाने वाले नेता भी सड़क छाप राजनीतिक सोच से आगे नहीं बढ़ पाए! इस सबसे उसे निजात पाना होगा!
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मध्यप्रदेश कांग्रेस : कमलनाथ और सिंधिया ने बचाई लाज

- हेमंत पाल 
   कांग्रेस को मध्य प्रदेश में किसी चमत्कार की उम्मीद तो नहीं थी, पर इस बात का भरोसा जरूर था कि लोकसभा चुनाव में वे 6 से 8 सीटें जीत जाएंगे! लेकिन, जब नतीजे आए तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस को करारी हार झेलना पड़ी। पार्टी के दो ही दिग्गज कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ऐसे रहे, जो पार्टी की लाज बचाने में सफल रहे। इस बात का अंदाजा कांग्रेस को विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही हो गया था। इसमें बावजूद पार्टी ने चुनाव के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। विधानसभा में करारी हार के बाद भी गुटबाजी और अहं कांग्रेस के नेताओं में चरम पर था।  
  उत्तर भारत के अन्य राज्यों की ही तरह मध्य प्रदेश में भी नरेंद्र मोदी और भाजपा की आँधी लहर के सामने कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत दर्ज करके अच्छा प्रदर्शन किया था। पार्टी के बड़े नेता दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया यह भरोसा जताते रहे कि इस बार के नतीजे भी बेहतर ही होंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ!  
  प्रदेश की 29 में से 27 संसदीय सीटें भाजपा के खाते में गई। सिर्फ 2 संसदीय सीटें छिंदवाड़ा और गुना कांग्रेस के खाते में गए! छिंदवाड़ा से कमलनाथ जीते, तो गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जीत दर्ज की। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, राहुल गांधी टीम की मीनाक्षी नटराजन जैसे अपनी सीट नहीं बचा पाए! छिंदवाड़ा से कमलनाथ और गुना से सिंधिया ने एक-एक लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है। इस जीत से कांग्रेस को काफी हद तक राहत भी मिली! क्योंकि, हर तरफ से आ रही हार की खबरों के बीच इन दो क्षेत्रों से जीत की खबर आई! 
 भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा चुनाव की शुरुआत से ही कह रहे थे कि गुना और छिंदवाड़ा में ही भाजपा व कांग्रेस के बीच मुकाबला है। उनकी यह बात सही निकली। नतीजे आने के बाद वे कुछ कमी रह जाने की बात स्वीकार रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भाजपा को 27 सीटों पर मिली जीत का श्रेय जनता को देते हुए कहा कि ये विश्वास की जीत है। अब राज्य के साथ पक्षपात नहीं होगा। कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार लगातार राज्य के साथ पक्षपात करती रही अब ऐसा नहीं होगा और राज्य तेजी से प्रगति करेगा। कमलनाथ ने कांग्रेस की हार के कारण जनहित में किए गए कार्य और योजनाओं को जनसामान्य तक नहीं पहुंचाना बताया। उन्होंने कहा कि बीते 10 वर्षो में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने जनसामान्य का जीवन स्तर बदलने के लिए कई योजनाएं चलाईं मगर उनका प्रचार ठीक से नहीं हो सका। पहले विधानसभा चुनाव में और अब लोकसभा चुनाव में मिली पराजय ने कांग्रेस के सामने सवाल खड़े कर दिए हैं कि आने वाले समय में वह राज्य में होने वाले नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव में मुकाबला कर भी पाएगी या नहीं, ये कहना मुश्किल है। 
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Saturday, May 10, 2014

दिग्विजय ने अमृता से रिश्‍ते कबूले


   कांग्रेस में दिग्विजय सिंह की एक अलग पहचान है। मुँहफट और तार्किक तरीके से विपक्ष को निशब्द कर देने वाले 'दिग्गी राजा' कभी कोई ऐसा काम करेंगे, ऐसा किसी ने सोचा नहीं था! टीवी एंकर अमृता राय से अपने रिश्तोँ को स्वीकारने के बाद उसे सही करार देकर दिग्विजय सिंह ने चुनाव की गर्मी वाले मौसम में नई बहस को जन्म दे दिया! इस रिश्ते को लेकर राजनीति में ज्यादा विवाद नहीं हुआ! भाजपा के बड़े नेताओं ने इसे निजी मामला बताकर कन्नी काट ली, पर सोशल मीडिया पर ये प्रसंग चर्चित रहा! 
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  कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने टीवी एंकर अमृता राय से रिश्‍ते की बात कबूल की है। उन्होंने ये भी कहा कि दोनों जल्द ही शादी करने की तैयारी में हैं! ये मामला सामने आने के बाद दिग्विजय सिंह ने ट्वीट करके कहा कि 'मुझे यह स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि अमृता राय से मेरे रिश्‍ते हैं। अमृता ने अपने पति से तलाक के लिए केस फाइल कर दिया है। तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाए तो हम इस रिश्‍ते को औपचारिक रूप दे देंगे। लेकिन, अपनी निजी जिंदगी में किसी तरह की दखल की मैं निंदा करता हूं।' राज्‍यसभा टीवी में एंकर अमृता ने भी अपने पति से अलग होने की बात कबूल ली। उन्‍होंने ट्वीट किया कि 'मैं अपने पति से अलग हो गई हूं और हमने तलाक के लिए कागजात दाखिल कर दिए हैं। उसके बाद मैंने दिग्विजय सिंह से शादी करने का फैसला किया है।' इससे पहले दिग्विजय सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी द्वारा अपने वैवाहिक जीवन का शपथ पत्र में खुलासा होने के समय दस अप्रैल को ट्वीट किया था ‘मैं विधुर हूं और जब भी दोबारा शादी करुंगा तो आपके प्रिय फेंकू की तरह यह बात मैं छिपाऊंगा नहीं।’
  कांग्रेस के इस बड़े नेता का ट्वीट ऐसे समय आया, जब ट्विटर पर दिग्विजय सिंह और अमृता राय के रिश्‍ते को लेकर कई ट्वीट पोस्‍ट हो रहे हैं। ट्वीट के साथ दिग्विजय की अमृता के साथ कुछ निजी तस्‍वीरें भी शेयर की जा रही हैं। सोशल वेबसाइट फेसबुक पर भी इन दोनों की तस्‍वीरें मौजूद हैं। 
  अमृता ने आरोप लगाया है कि उनका ईमेल हैक कर लिया गया, जिसमेँ हमारी फोटों थी, जिन्हें सोशल मीड़िया पर पोस्ट कर दिया गय! उन्‍होंने ट्वीट किया कि 'मेरा ई-मेल हैक हो गया है और कंटेंट से छेड़छाड़ की गई! ऐसा करना गंभीर अपराध और यह मेरी प्राइवेसी में दखल देना है. मैं इसकी कड़े शब्‍दों में निंदा करती हूं।' 43 साल की अमृता राय के पति आनंद प्रधान आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। जबकि,  67 साल के दिग्विजय सिंह की पत्‍नी आशा सिंह का पिछले साल कैंसर से निधन हो गया था। 
कांग्रेस ने झाड़ा पल्ला
  कांग्रेस महासचिव और एक टीवी पत्रकार अमृता राय के संबंध पर कांग्रेस ने कहा है कि ये उन दोनो का निजी मामला हो सकता है। कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने एक प्रेस कांफ्रेस में कहा है कि ये हो सकता है कि उनकी वेबसाइट हैक की गई हो! गौरतलब है कि सोशल साइट ट्विटर पर दिग्विजय के साथ अमृता की कुछ फोटो अपलोड की गई थी जिसके बाद मीडिया और राजनीतिक दलों में दिग्विजय के रिश्ते को लेकर चर्चाएं तेज हो गई थी। 
किसने अपलोड की तस्वीरें
  दिग्विजय सिंह और टीवी पत्रकार अमृता राय की निजी तस्वीरें सोशल मीडिया के जरिए कैसे सार्वजनिक हो गईं? इसका जवाब तलाशने के लिए दिल्ली पुलिस ने जांच शुरू कर दी है। पहले बताया गया था कि तस्वीरें भाजपा नेता नितिन गडकरी ने जारी कीं, लेकिन गडकरी ने दिग्विजय सिंह की टीवी एंकर के साथ तस्वीरें अपने ट्विटर अकाऊंट से जारी होने का खंडन किया है। गडकरी ने कहा कि वे तस्वीरें फर्जी अकाऊंट से जारी की गई थीं। गडकरी ने साइबर अपराध शाखा से शिकायत की है कि उनके नाम से 3 फर्जी अकाऊंट चल रहे हैं। दिग्विजय सिंह और अमृता राय के संबंधों को उजागर करने वाले फोटोग्राफ्स को डिलीट करने के लिए पुलिस ने ट्विटर व फेसबुक को कहने के साथ ही इस मामले की तह तक जाने की कोशिश शुरू कर दी है। वे फर्जी अकाऊंट डिलीट कर दिए गए, जिसे अमृता राय के नाम से बनाकर आपत्तिजनक ट्वीट किए जा रहे थे।
क्या बोले आनंद प्रधान 
  सोशल साइट्स पर इस रिश्ते के सामने आने के बाद कई तरह की टिप्पणियां आई। अमृता के पति आनंद प्रधान ने फेसबुक पर पोस्ट लिखकर अपनी बात रखीं। उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है -
 एक बड़ी मुश्किल और तकलीफ से गुजर रहा हूँ। यह मेरे लिए परीक्षा की घडी है। मैं और अमृता लम्बे समय से अलग रह रहे हैं और परस्पर सहमति से तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है। एक कानूनी प्रक्रिया है, जो समय लेती है। लेकिन, हमारे बीच सम्बन्ध बहुत पहले से ही खत्म हो चुके हैं। अलग होने के बाद से अमृता अपने भविष्य के जीवन के बारे में कोई भी फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं उनका सम्मान करता हूँ, उन्हें भविष्य के जीवन के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं। 
  मैं जानता हूँ कि मेरे बहुतेरे मित्र, शुभचिंतक, विद्यार्थी और सहकर्मी मेरे लिए उदास और दुखी हैं। लेकिन, मुझे यह भी मालूम है कि वे मेरे साथ खड़े हैं। मुझे विश्वास है कि मैं इस मुश्किल से निकल आऊंगा। मुझे उम्मीद है कि आप सभी मेरी निजता का सम्मान करेंगे। शायद ऐसे ही मौकों पर दोस्त की पहचान होती है, उन्हें आभार कहना ज्यादती होगी!
  लेकिन, जो लोग स्त्री-पुरुष के संबंधों की बारीकियों और स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को सामंती और पित्रसत्तात्मक सोच से बाहर देखने के लिए तैयार नहीं हैं, उसे संपत्ति और बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा नहीं मानते हैं और उसकी गरिमा का सम्मान नहीं करते, उनके लिए यह चटखारे लेने, मजाक उड़ाने, कीचड़ उछालने और निजी हमले करने का मौका है। लेकिन, वे यही जानते हैं! उनकी सोच और राजनीति की यही सीमा है. उनसे इससे ज्यादा की अपेक्षा भी नहीं!

दिग्विजय अकेले दिलफेंक नहीं! 
  दिग्विजय सिंह अकेले कांग्रेस नेता नहीं हैं, जिनके किसी महिला के साथ संबंध जगजाहिर हुए हैं। एनडी तिवारी से लेकर महिपाल सिंह मदेरणा तक के सेक्‍स स्‍कैंडल लोगों के सामने आ चुके हैं। हालांकि, पॉलिटिक्‍स और सेक्‍स का कॉकटेल हमेशा बेहद खतरनाक रहा है। कांग्रेस के कई नेता इससे मदहोश हो चुके हैं। 
  हाल ही में कांग्रेस के दिग्‍गज नेता एनडी तिवारी ने माना कि रोहित शेखर उनके बेटे हैं। रोहित ने कोर्ट में मुकदमा दायर किया कि एनडी तिवारी उनके पिता हैं। तिवारी जी पहले तो नहीं माने, लेकिन डीएनए जांच के बाद उन्‍हें मानना पड़ा कि रोहित उनके ही बेटे हैं। इससे पहले एनडी तिवारी का एक सेक्‍स स्‍कैंडल भी सामने आ चुका है। इस सेक्‍स स्‍कैंडल में तिवारी एक बेड पर तीन जवान लड़कियों के साथ पकड़े गए थे। कांग्रेस के दबंग नेता गोपाल कांडा इन दिनों जमानत पर जेल से बाहर आए हुए हैं।
  हरियाणा के नेता गोपाल कांडा पर अपनी एयरलाइंस कंपनी में काम करने वाली एयरहोस्‍टेस गीतिका के साथ सेक्‍स संबंध बनाने का आरोप लगा है। डिस्ट्रिक्ट जज एस.के. सरवरिया की अदालत ने कांडा पर रेप, अप्राकृतिक यौनाचार और खुदकुशी के लिए मजबूर करने सहित अन्य धाराओं के तहत आरोप तय किए। 
  राजस्‍थान की सियासत में तब हड़कंप मच गया जब कांग्रेस के मंत्री महिपाल सिंह मदेरणा के साथ नर्स भंवरी देवी की सेक्‍स सीडी सामने आई। इस सेक्‍स सीडी में मदेरणा को भंवरी देवी के साथ बेहद आपत्तिजनक स्थिति में पाए गए थे। हालांकि, भंवरी देवी के कत्‍ल के बाद मदेरणा का मामला थोड़ा ठंडा जरूर पड़ गया है, लेकिन सीबीआई इसकी जांच में जुटी हुई है।
आरटीआई एक्टिविस्ट शेहला मसूद हत्‍याकांड में मध्यप्रदेश के भाजपा के एक नेता ध्रुवनारायण सिंह का नाम आने से पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। जांच में सामने आया कि धु्वनारायण सिंह से शेहला मसूद की नजदीकी, हत्‍या की साज़िश रचने वाली ज़ाहिदा परवेज़ को नागवार गुजरी और इंतकाम के लिए उसने शेहला की सुपारी भाड़े के हत्‍यारों को दे दी। ज़ाहिदा की डायरी के पन्‍नों के राज सामने आने के बाद ध्रुवनारायण सिंह को पॉलीग्राफिक टेस्‍ट तक से गुजरना पड़ा था। 
  कांग्रेस के दिग्‍गज नेता मनु सिंघवी की सेक्‍स क्लिप भी सामने आ चुका है। सिंघवी पर आरोप लगे थे कि उन्‍होंने एक महिला वकील को प्रमोशन दिलाने के एवज में सेक्‍स संबंध बनाए। सिंघवी के महिला के साथ बिताए अंतरंग पलों को किसी ने कैमरे में कैद कर उसे इंटरनेट पर अपलोड कर दिया।

तीसरा मोर्चा भी 'उम्मीद' से!

इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के फ़िर सत्ता में आने की संभावनाएं बेहद क्षीण हैं। क्योंकि, अपने दस साल के कार्यकाल मे कांग्रेस की यूपीए सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो वोटर उन्हें एक और मौक़ा दे! ऐसे में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के देश की सत्ता मे आने के आसार प्रकट किए जा रहे हैं। लेकिन, यदि एनडीए 272 का जादुई आंकड़ा जुटा पाने मे सफल नहीं हुई, तो दूसरा विकल्प तीसरे मोर्चे को माना जा सकता है! लेकिन, अभी इस मोर्चे का क़ोई आकार सामने नहीं आया है। यदि एनडीए पिछड़ा और तीसरे मोर्चे के भाग्य से छींका टूटा तो देश को अगले 5 साल से पहले एक और चुनाव का सामना पड़ सकता है। ये भी तय है कि कांग्रेस के बगैर तीसरे मोर्चे की सरकार बन पाना संभव नहीं है! लेकिन, राहुल गाँधी ने तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की संभावना और जोड़-तोड़ से सरकार बनाने से इंकार किया है।  
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 समाजवादी पार्टी मुखिया और तीसरे मोर्चे के पैरोकार मुलायम सिंह यादव ने हमेशा ही लोकसभा चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना को खारिज किया है। उनका तर्क था कि यदि अभी ऐसा हुआ होता तो विभिन्न दलों के बीच टिकट बंटवारे को लेकर मतभेद उत्पन्न हो जाते। यादव ने हर बार दोहराया कि तीसरे मार्चे का गठन चुनाव के बाद होगा। उन्होंने साथ ही यह भी दावा किया कि देश का अगला प्रधानमंत्री गठबंधन के सहयोगी दलों से होगा। यादव ने कहा कि तीसरे मोर्चे का गठन चुनाव से पहले संभव नहीं था, क्योंकि टिकट बंटवारे और सीट साझा करने को लेकर पार्टियों के बीच मतभेद हो सकते थे। 
  उन्होंने कहा कि यही कारण है कि प्रस्तावित मोर्चे की सभी राजनीतिक पार्टियां अपने बल पर चुनाव लड़ा, और चुनाव के बाद एकसाथ आ जाएंगी। यादव ने कहा कि उनकी पार्टी सपा माकपा नेता प्रकाश करात और भाकपा नेता एबी बर्धन के सम्पर्क में है और इसको लेकर एक समझ है। उन्होंने कहा कि हमारा मानना है कि तीसरे मार्चे को केंद्र की सत्ता में आना चाहिए। देश का अगला प्रधानमंत्री तीसरे मोर्चे का उम्मीदवार होगा। उन्होंने दावा किया कि तीसरे मोर्चे का उम्मीदवार ही देश का अगला प्रधानमंत्री होगा।
समर्थन से इंकार 
  लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस द्वारा तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की सम्भावनाओं को लेकर अटकलें लगाए जाने के बीच पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि उनकी पार्टी किसी भी मोर्चे को समर्थन नहीं देगी। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने हाल में कांग्रेस द्वारा तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की सम्भावना व्यक्त की थी। उसके बाद इसकी अटकलें तेज हो गयी थीं। हालांकि बाद में खुर्शीद अपने बयान से पलट गए थे। चुनाव के अंतिम दौर में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देने की बात को नकार दिया। अलबत्ता कुछ दिन पूर्व कांग्रेस के कुछ नेताओं की ओर से तीसरे मोर्चे को समर्थन देने संबंधी जो बयान आ रहे थे, उससे मुलायम सिंह यादव और जे. जयललिता को जरूर खुशी मिली होगी, क्योंकि ये दोनों अब भी खुलकर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की उम्मीद जाहिर कर रहे हैं।
  अब तक इन दोनों नेताओं ने ही प्रधानमंत्री बनने की मंशाजाहिर की है। कुछ ऐसी ही उम्मीद ममता बनर्जी और मायावती ने भी लगा रखी है, लेकिन उन्होंने अपनी आकांक्षाओं को जाहिर नहीं किया है। जाहिर है, कांग्रेस की ओर से तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की बात निकलते ही इन नेताओं को अपनी उम्मीद परवान चढ़ती नजर आने लगी होगी। यह बात और है कि नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल का गुब्बारा फोड़ने का दावा करते रहे राहुल ने जल्द ही तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन का गुब्बारा भी फोड़ दिया।
 कांग्रेस ने सबसे पहले 1979 में जनता पार्टी को तोड़कर चौधरी चरणसिंह की सरकार बनवाई थी। तब कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गांधी सत्ता में वापसी से ज्यादा राजनीति में खुद की प्रासंगिकता को लेकर फिक्रमंद थीं। उन्हें उसी जनता पार्टी की आपसी कलह से मौका मिल गया, जिसने प्रचंड बहुमत से उन्हें हराकर पहली बार देश में गैरकांग्रेसी सरकार बनाई थी। इंदिरा के सहयोग से चरण सिंह प्रधानमंत्री तोबने, लेकिन वह सरकार उस संसद का भी मुंह नहीं देख पाई, जिसके प्रति वह जवाबदेह होती है। यह सरकार कुछ दिन ही चल पाई थी। तब चौधरी चरण सिंह की अगुआई वाले धड़े को तीसरा मोर्चा नहीं कहा गया था, लेकिन अपनी सियासी तासीर में वह तीसरे मोर्चे से ही जुड़ा था। उसका फायदा भी कांग्रेस को मिला और 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी हो गई।
 दूसरा मौका कांग्रेस को 11 साल बाद दिसंबर 1990 में मिला। तब जनता दल में वीपी सिंह और चंद्रशेखर में मनमुटाव चल रहा था। इसका फायदा कांग्रेस ने उठाया। वीपी सिंह की सरकार राममंदिर आंदोलन के रथी आडवाणी की गिरफ्तारी और समर्थन वापसी के बाद अल्पमत में आ गई थी। तब कांग्रेस ने उकसाकर जनता दल को तुड़वाया था।
 कांग्रेस को एक बार फिर तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का मौका मिला 1996 में। तब लोकसभा में 162 सदस्यों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में सिर्फ 13 दिन सरकार चल पाई। तब कांग्रेस ने एचडी देवेगौड़ा की अगुआई वाली संयुक्त मोर्चे की सरकार को समर्थन दिया और 11 महीने में वापस भी ले लिया। आईके गुजराल की भी सरकार बनी। लेकिन कांग्रेस ने यह सरकार भी चंद माह ही चलने दी। यह बात और है कि जिस मकसद से उसने सरकार गिराई, वह पूरा नहीं हो पाया। उसे 1998 के चुनावों मेंबहुमत नहीं मिल पाया। अलबत्ता इसके पहले हर बार फायदा उसे ही हुआ था। कांग्रेस इस बार भी अपना फायदा देख रही है। लेकिन, वह भूल रही है कि आज का मतदाता 1980 या 1991 जैसा नहीं है। 
लेफ्ट की कोशिश 
  सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश करात क कहना है कि चुनाव के बाद यदि गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार बनाने की संभावना बनती है तो 'आम आदमी पार्टी' को भी इसका हिस्सा बनाने की पेशकश की जाएगी। प्रकाश करात ने कहा कि इस बारे में फैसला 'आप' पर निर्भर रहेगा, लेकिन हम उन्हें गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी दल के रूप में मानते हैं। करात ने कहा कि हम 11 पार्टियां मैदान में हैं जिन्होंने कांग्रेस या भाजपा के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है। लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आने के बाद हम इन दलों को एकजुट करने में सक्षम होंगे। 
  उन्होंने यह भी कहा कि तीसरे मोर्चे की सरकार के सत्ता में आने की पूरी संभावना दिखती है जिस पर हम चुनाव के बाद काम करेंगे। 25 फरवरी को सीपीआई (एम) ने 11 क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों की दिल्ली में बैठक की थी। इस बैठक में समाजवादी पार्टी, जनता दल (युनाइटेड) भी शामिल हुई थी। इस बात को स्वीकार करते हुए कि देश में कांग्रेस विरोधी भावना काम कर रही है, करात ने कहा कि इसे नरेंद्र मोदी के पक्ष में लहर कहकर गलत व्याख्या की जा रही है। उन्होंने कहा कि इस कथित लहर का केवल उन्हीं जगहों पर भाजपा को लाभ मिलेगा जहां मुकाबला दोनों राष्ट्रीय दलों के ही बीच में हो रहा है। लेकिन इसका लाभ उन राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलों की स्थिति मजबूत है, नहीं मिल पाएगा।

दंभ, दावे और चुनौतियाँ


  इस बार देश का आम चुनाव कई बातोँ को लेकर अनोखा है। संभवतः ये पहला चुनाव है, जिसमें पार्टियां नही व्यक्ति चुनाव लड रहे हैं। कांग्रेस की तरफ से राहुल गाँधी को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़ा जा रहा है, तो भाजपा ने अपने चुनाव का दारोमदार पूरी तरह नरेन्द्र मोदी को सौंप रखा है! चुनाव के व्यक्ति केन्द्रित होने के कारण दंभी बातें की जा रही है और मनमर्जी के दावे किए जा रहे हैं। ऐसे में किसी को इस बात का अहसास नहीं है कि उनके सामने भविष्य मे किस तरह की चुनौतियाँ खडी होँगी और उनका सामना किस तरह हो सकेगा!
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 * हेमंत पाल 
 भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का कहना है कि देश को संकट से उबारने के लिए जनता उनको केवल साठ महीने दें, तो वे चौकीदार बनकर देश की सेवा करेंगे! लेकिन, राहुल गांधी कहते हैं कि देश को एक चौकीदार नहीं चाहिए, वे तो सारे 125 करोड़ लोगों को ही चौकीदार की नौकरी देंगे! पर, इन 125 करोड़ लोगों को कोई वेतन भी मिलेगा या नहीँ इसका वे कोई जिक्र नहीं करते! फिर राहुल गांधी किस अधिकार से 125 करोड़ नियुक्ति पत्र जारी करेंगे और इन 125 करोड़ों में राहुल गांधी खुद शामिल क्यों न हों? इन नेताओं ने राजनीति को एक व्यापार बनाकर रख दिया है। कहीं बाप-बेटे तो कहीं माँ-बेटे तो कहीं पति-पत्नी एक साथ मिलकर सत्ता सुख भोगते हैं और हिन्दुओं को चौकीदार की भूमिका और मुसलमानों को अधिकारी की भूमिका में रखना चाहते हैं! ऐसे में पूछा जा सकता है कि आने वाले दिन किसके अच्छे और किसके बुरे साबित होंगे?
  लोकसभा चुनाव के धुँवाधार प्रचार अभियान मे उभरे दंभ और दावोँ को देखकर सवाल उठता 
है कि भाजपा ने जद(यू) की नाराज़गी की चिन्ता न करते हुए भी आख़िर नरेंद्र मोदी पर दाँव क्यों खेला? इस सवाल को इस तरह भी रेखांकित किया जा सकता है कि एनडीए के अस्तित्व को दाँव पर लगाकर भाजपा ने नरेंद्र मोदी को कमान क्यों सौंपी? इस सवाल का जवाब तलाशते समय एक बात सामने आती है कि एनडीए का असली अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि भाजपा लोकसभा चुनावों में अपने बलबूते पर 200 से ज्यादा सीटें जीतकर दिखाए! पूरे चुनाव अभियान को देखते हुए भाजपा इतना तो समझ ही चुकी है कि यदि ऐसा नहीं हो सका तो एनडीए भाजपा के लिए  बोझ बन जाएगा। आज भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती 200 सीटों का आंकड़ा पार  एनडीए के लिये 272 जुटाना है! 
  देश में कांग्रेस के खिलाफ आम जनता के मन में ग़ुस्सा है, इस बात  इंकार नहीं! इसमें लगातार बढ़ रही महँगाई सबसे बड़ा कारण है। सरकार ईमानदारी और महंगाई, दोनों मोर्चों पर बुरी तरह असफल हुई है। इसके बाद भी कांग्रेस ने प्रचार मे दावे करने में कोइ कसर नहि छोड़ीं! ऐसे समय में भाजपा के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस के प्रति जनता के ग़ुस्से को कैसे अपने पक्ष में भुनाया जाए? क्योंकि, एक बात निश्चित है यदि इस बार भी भाजपा पिछड़ जाती है और सत्ता पूरी तरह सोनिया गाँधी के हाथों में सिमट जाएगी, जिसके नतीजे भाजपा के लिए ख़तरनाक होंगे। 
  भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को इसलिए भी दांव पर लगाया है कि वे देश की आम युवा पीढ़ी में आशा का संचार करते हैं! जबकि, देश का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व युवा पीढ़ी को निराशा की ओर ही नहीं धकेलता बल्कि उसे पूरी व्यवस्था के प्रति ही अनास्थावान बनाता है। गुजरात में मोदी ने अपने राजनैतिक और प्रशासकीय कौशल दिखाया है और विकास के प्रतिमान स्थापित किए! उससे मोदी के नेतृत्व के प्रति देश के आम मतदाता के मन में उनकी विश्वसनीयता बढ़ी है। मोदी की सबसे बड़ी पूँजी उनकी बेदाग़ छवि है। उन पर कोई भी आजतक भ्रष्टाचार का आरोप लगाने का साहस नहीं कर पाया! जबकि, वर्तमान राजनीति में किसी नेता को ईमानदार कहने के लिए काफ़ी हिम्मत जुटाना पड़ती है! लेकिन, सौ टके का एक ही सवाल है कि क्या मोदी भाजपा के लिए 200 से ज्यादा सीट और एनडीए के लिये 272 का जादुई आँकड़ा जुटा पाएंगे?
सीटों के समीकरण 

 देश के दक्षिणी राज्यों में पुदुच्चेरी समेत पांचों राज्यों में लोकसभा की 130 सीटें हैं! सीटों के हिसाब से भाजपा यहां कर्नाटक को छोडकर लगभग शून्य है। असम सहित उत्तर-पूर्व के सिक्किम समेत सभी आठों राज्यों में लोकसभा की 25 सीट हैं। लेकिन, भाजपा की उपस्थिति यहां सांकेतिक ही है। पश्चिम बंगाल और ओडीशा में फिर लोकसभा क़ी दृष्टि से भाजपा लगभग नदारद है। इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 63 सीटें हैं। इन सारे इलाकों में भाजपा कभी सशक्त नहीं रही। भाजपा को असली लड़ाई उत्तरी भारत के मैदानों में लड़नी है, जिसमें पंजाब, हरियाणा,  हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत भाजपा की शक्ति के हिसाब से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड भी शामिल किया जा सकता है। भाजपा के लिए इस पूरे इलाके में लोकसभा की कुल 326 सीटें हैं। इन सभी में भाजपा का अपना मज़बूत संगठनात्मक ढाँचा है और भाजपा ने सबसे ज्यादा मेहनत भी यहीं की है। मोदी की असली परीक्षा इसी कुरुक्षेत्र में होने वाली है। 
उत्तर भारत की चुनौती 
  कल्याण सिंह के भाजपा से निकलने के बाद उत्तर प्रदेश मे भाजपा का जनाधार सिमट गया था! यहाँ की राजनीति धीरे-धीरे जातीय आधार पर सपा और बसपा के बीच सिमटकर रह गई! इस प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं। भाजपा को इसी क्षेत्र से सबसे ज्यादा सीट जीतने की उम्मीद है। मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि गंगा यमुना के इन मैदानों में जब तक वे दलदल में फँसी भाजपा का रथ खींचकर यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर खड़ा नहीं कर देते, तब तक वे अपनी जीत क आधार तय नहीं कर पाएंगे। बनारस से चुनाव लड़ना मोदी की इसी रणनीति क हिस्सा है। रणनीति बनाकर मोदी ने अमित शाह को उत्तर प्रदेश भी इसीलिए भेजा है। 
  नए परिप्रेक्ष्य में भाजपा के लिए चुनौती जदयू का साथ न रहना भी है। क्योंकि, बिहार में जितनी ज़रुरत भाजपा को जदयू की है, उससे कहीं ज़्यादा ज़रुरत जदयू को भाजपा की! व्यावहारिक रुप से अब जदयू बिहार का क्षेत्रीय दल है, जिसे राज्य में सत्ता में आने के लिए भाजपा की ज़रुरत रहेगी! इसी बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी का जादू सबसे ज़्यादा चल सकता है। कहा जाता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति ही सबसे ज़्यादा जाति के आधार पर संचालित होती है। मोदी के पास इन दोनों प्रदेशों के लिए कारगार कार्ड है और यहाँ पार्टी ने सब्से ज्यादा मेहनत भी की है। 
  भाजपा के पास हिन्दुत्व का कार्ड तो है ही, उसने उत्तर भारत के प्रदेशों में ओबीसी होने का तुरुप का पत्ता भी चला है। भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी के बहाने विकास का सबसे ज्यादा सशक्त सूत्र भी है। इन तीनों कार्डों के मिश्रण का जादू इन प्रदेशों में चल गया, जिसकी संभावना बहुत ज़्यादा है तो मोदी वहाँ अपने सभी विरोधियों पर क़हर ढा सकते हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में मोदी के दूत अमित शाह के पहुंचने से सबसे ज्यादा घबराहट सपा और बसपा में ही देखी गई! भाजपा के लिए चुनौती किसी भी हालत में एनडीए को बचाए रखना नहीं, बल्कि अपनी सीटों की संख्या 200 से ऊपर निकालने की है। यदि भाजपा ने यह शर्त पूरी कर ली तो एनडीए भी करीब 100 सीटों का जोड़ लगा सकता है, जो भाजपा की चाहत भी है। लेकिन, यदि भाजपा 200 सीटों से ऊपर नहीं निकल सकी तो नरेन्द्र मोदी की सात महीने की मेहनत पर पानी फ़िर जायेगा! मोदी और भाजपा के लिए असली चुनौती इसी शर्त को पूरी करने की है। क्योंकि, सारे दावे और दंभ इसी चुनौती के इर्द-गिर्द हैं। 
कांग्रेस के दावे 
  एक चुनावी सभा में कांग्रेस की सबसे ताक़तवर नेता सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी पर जमकर निशाना साधा। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि मोदी देश की जनता को स्वर्ग बनाने का झूठा सपना दिखा रहे हैं, जबकि भाजपा का खुद का रास्ता ही तबाही वाला है। सोनिया गांधी ने मोदी पर हमला करते हुए कहा कि भाजपा के मुख्य प्रचारक नरेंद्र मोदी की बातों से लगता है कि चुनाव का नतीजा आ चुका है और वे सिंहासन पर बैठ गए! सोनिया ने कहा कि मोदी एक अहम बात भूल गए हैं कि चुनाव का नतीजा वे नहीं, बल्कि जनता तय करेगी। मुझे विश्वास है कि जनता कांग्रेस का रास्ता चुनेगी।
  सोनिया गांधी ने सैनिकों की शहादत का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा कुर्सी के लिए शहीदों के नाम का इस्तेमाल करती है। हमारे जवान अपनी जिंदगी की परवाह न करके हमारी और देश की सुरक्षा करते हैं। उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए ही 'वन रैंक वन पेँशन' लागू की गई। सोनिया ने अपने चुनावी भाषणों में अपने यूपीए शासन की उपलब्धियां भी गिनवाईं। कहा कि भाजपा सरकार गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी। यूपीए ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गांव-शहरों के बुनियादी ढांचों को मजबूत करने के लिए योजनाएं लागू कीं। बच्चों को शिक्षा, स्कूल में भोजन, आरटीआई जैसा मजबूत अधिकार दिया। किसानों के कर्ज माफ किए। कांग्रेस के राज में गरीब, दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं को ध्यान में रखकर तमाम योजनाएं बनाई गईं। 
'आप' बिगाड़ेगी समीकरण 
 आम आदमी पार्टी के संयोजक और उत्तर प्रदेश के बनारस से उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल ने अपने प्रचार का आधार नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी को बनाया। उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों बड़े उद्योगपतियों के हाथों बिके हुए हैं। केजरीवाल ने बनारस के रोहनिया विधानसभा क्षेत्र के टिकरी गांव मे कहा कि मोदी और राहुल अंबानी के हाथों बिके हुए हैं और जीतने के बाद ये उनका ही काम करेंगे। आम आदमी की समस्याओं से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। केजरीवाल कुछ मोदी समर्थकों से भी मिले और उनसे सवाल किया कि क्या आप मोदी से कभी मिले हैं? वे तो सिर्फ हेलीकॉप्टर में उड़ने वाले नेता हैं। जनता की समस्याओं को समझने लिए जनता के बीच रहना पड़ता है। जनता से रूबरू हुए बिना वह जनता की समस्याओं को क्या समझेंगे?
तीसरे मोर्चे के तर्क 
  संभावित तीसरे मोर्चे के प्रमुख नेता और समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने नरेंद्र मोदी को झूठा व्यक्ति बताया। उन्होंने कहा कि मोदी ने गुजरात को चौपट कर दिया है। गुजरात के विकास के बारे में उनके सारे दावे झूठे हैं। उनकी पोल खुल रही है। मुलायम सिंह ने कहा कि गुजरात में लाखों नौजवान बेरोजगार हैं। सरकार 10 लाख युवाओं का पंजीकरण ही नहीं होने दे रही है। 85 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं। वहां के 21 जिलो में पेयजल संकट है। वहां 8 घंटे भी बिजली नहीं आती है। गुजरात के विकास की बातें झूठी हैं। 
  यादव ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर भी आरोप लगाया कि कांग्रेस सरकार ने किसानों की समस्याओं की अनदेखी की, जिससे किसानों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि सपा किसानों की समस्याओं को अच्छी तरह से समझती है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार ने किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए कई बड़े कदम उठाए हैं। उन्होंने दावा किया कि चुनाव के बाद अगली सरकार तीसरे मोर्चे की बनेगी और सपा तीसरे मोर्चे का सबसे बड़ा दल होगी।
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Friday, January 31, 2014

राजनीतिक शुद्धिकरण का सिलसिला है, बगावत नहीं!

- हेमंत पाल
 इन दिनों राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कुछ अनदेखा और अप्रत्याशित सा दृश्य दिखाई देने लगा है। इस परिदृश्य को अलग-अलग चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है, जो सही नहीं है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तथा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सचिव सज्जनसिंह वर्मा ने राज्यसभा में ऐसे सांसदों को भेजने का विरोध नहीं, बल्कि उनके चयन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि समय की मांग है जब संसद में युवाओं को प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। बात सीधी थी, लेकिन उसे कुछ इस अंदाज में पेश किया गया जैसे सज्जनसिंह वर्मा बुजुर्ग नेताओं के खिलाफ हैं! यह भी किसी विडम्बना से कम नहीं है कि कुछ लोगों की बात का हमेशा उलटा ही अर्थ निकाला जाता रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब सज्जन वर्मा को उनकी साफगोई के कारण विवादों का सामना करना पड़ा! इससे पहले जब एक बार उन्होंने अपना काम न हो पाने की व्यथा लेकर आए कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को बोलचाल में प्रयुक्त जनभाषा में पार्टी हाईकमान पर दबाव बनाने की बात कही थी, तब भी उसे इस तरह से प्रचारित किया गया था कि वे हाईकमान की अवमानना कर रहे हैं। आज जब उन्होंने समय की आवश्यकता और राजनीतिक माहौल में बदलाव की स्थिति को देखते हुए युवाओं का प्रतिनिधित्व बढाने के लिए थके-हारे राजनीतिकों को पिछले दरवाजे से संसद का सुख भोगने के लिए की जा रही कवायद पर अपने विचार प्रस्तुत किए तो उसे बगावत के सुर मानकर उनकी आलोचना की जाने लगी। सतही तौर पर सज्जन का विरोध करने वालों में अधिकांश लोग उनकी बातों से सहमत हैं, लेकिन हाईकमान के हंटर के डर से वह सच्चाई का साथ देने से बच रहे हैं। यदि स्मृति पर थोड़ा जोर डाला जाए तो याद आता है कि पिछले साल जब गोआ में भाजपा का सम्मेलन हुआ था, तब वहां के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी भाजपा संगठन में बुजुर्गों को आराम करने की सलाह देते हुए युवा खून को मौका देने की बात की थी। इस पर वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं ने किसी तरह का विरोध करने के बजाए तालियों की गडग़ड़ाहट से उनका स्वागत किया था। कहा तो यह जाता है कि अनुशासन के मामले में भाजपा संगठन कांग्रेस से ज्यादा सख्त है। तब यदि मनोहर पर्रिकर के नजरिए पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ, तो हार की मार झेल चुकी कांग्रेस में सज्जन वर्मा की इस प्रतिक्रिया को तिरछी नजरों से क्यों देखा जा रहा है! आज जिस तरह का राजनीतिक माहौल हमारे आसपास दिखाई दे रहा है, उसमें एक बदलाव साफ दिखाई दे रहा है, वो यह कि अगली लोकसभा में युवाओं के वोट निर्णायक होंगे। ऐसे में यदि समय की धारा के साथ चलते हुए राजनीतिक दलों ने युवाओं की अपेक्षानुरूप बदलाव नहीं किए, तो इसका खामियाजा उन्हें चुनावी परिणाम में भुगतना पड़ सकता है। आज की राजनीति में युवाओं की भूमिका और महत्व को इस बात से आकलित किया जा सकता है कि दिल्ली मे केजरीवाल-सरकार बनते ही फटाफट निर्णय लेने का एक दौर आरंभ हुआ है। यह अलग विषय है कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय कितने सही और कितने गलत हैं? आज का युवा जो फटाफट क्रिकेट और फास्टफ़ूड संस्कृति का समर्थक है, उसे राजनीति में भी फटाफट फैसले लेने वाले प्रत्याशियों और पार्टी की दरकार है। ऐसे में पिटे-पिटाए मोहरों पर दाँव लगाकर कांग्रेस ने भले ही उनकी राजनीतिक उम्र बढा दी हो, लेकिन इससे देश या पार्टी का शायद ही कोई भला हो पाए! गत दिनों जिन कोंग्रेसियों ने राज्यसभा के पर्चे दाखिल किए, उनमें केवल दिग्विजय सिंह ही ऐसे हैं जिनका चेहरा अक्सर टीवी पर दिखाई दे जाता है। वर्ना पता नहीं मोतीलाल वोरा सहित अन्य दावेदार किस कंदरा से उठकर नामांकन भरने चले आए! वैसे तो सज्जनसिंह वर्मा ने सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह पर निशाना नहीं लगाया, लेकिन जब बात आगे बढ़ी तो उन्होने दिग्विजय सिंह के बारे में जो बातें बताई, वह गलत भी नहीं हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उनके कांग्रेस में रहने से मध्यप्रदेश या देश में पार्टी का कोई फायदा हुआ हो? न तो वे कोई आर्थिक योजनाकार हैं, न राजनीति के चाणक्य हैं जिन पर भरोसा कर पार्टी अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ा सकती है! दो माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में उनके दोहरे मापदंड से खुद कांग्रेसी कार्यकर्ता नाखुश हैं। राहुल गांधी के इरादों को धता दिखाते हुए जिस तरह से उन्होंने प्रत्याशियों की सूची जारी होने से पहले अपने पुत्र से पर्चा दाखिल करवाया और दूसरे कांग्रेसी नेताओं के परिवार के लोगों को प्रत्याशियों की सूची से बाहर रखा, तब से ही दिग्विजय सिंह कांग्रेसियों की आँख की किरकिरी बन गए हैं। कल्पना परूलेकर ने भी उन्हे सरे आम कोसा था। यदि दिग्विजय सिंह का ट्रैक रिकार्ड टटोला जाए, तो पता चलता है कि इस चुनाव से पहले जहां-जहां उन्हें कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया पार्टी हारी है। खुद उनके गृहनगर में कांग्रेस की हालत पतली है। जिन दिनों वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, प्रदेश के किसानों और शहरवासियों ने सड़क और सरकारी कर्मचारियां ने उनकी मांगों को अनदेखा किए जाने को लेकर दिग्विजय सिंह को प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया था। ऐसे में बिना किसी राजनीतिक योगदान के उन्हें राज्यसभा की सीट सौंपना सेफ-पैसेज देने जैसा ही लगता है। बेहतर होता यदि उन युवाओं को राज्यसभा में भेजा जाता जिनके नाम बार बार टीवी पर दिखाए जा रहे थे। उन्हें हाशिए पर रखकर दिग्विजय सिंह को राज्यसभा भेजे जाने से निश्चित ही उस वर्ग को कोई अच्छा संदेश नहीं गया होगा! लेकिन, उनकी चुप्पी कब लावा बनकर बह निकले, कहा नहीं जा सकता। यह अच्छी बात है कि उनकी खामोशी को जुबान देते हुए सज्जन वर्मा ने पार्टी को आईना दिखाने का काम किया है। यदि इसका अनुसरण कर सभी दलों के साहसी नेता अपने-अपने दलों को आईना दिखाने साहस जुटाएं तो राजनीतिक शुद्धिकरण का एक नया सिलसिला आरंभ हो सकता है! ----------------------------------------------------------

Monday, January 13, 2014

इन विधानसभा चुनाव नतीजों का हश्र?

- हेमंत पाल ------------------------------------------------------------- पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में से चार राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस के नेतृत्व की जड़ों को हिलाकर रख दिया। नरेंद्र मोदी के राजनीतिक मंत्र और भाजपा के सभी राज्यों के क्षत्रपों के सामने पूरी कांग्रेस पार्टी धराशाई नजर आई। बाकी बची कसर दिल्ली में 'आप' ने पूरी कर दी! उत्तर भारत के चार राज्यों में मतदान के बाद जो संकेत मिले थे, उसके बाद ही कांग्रेस नेतृत्व ने हार की पेशबंदी शुरू कर दी थी। लेकिन, उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि चुनाव परिणाम उनके लिए इतने नकारात्मक और निराशाजनक होंगे। कांग्रेस का पूरा मैनेजमेंट ये पता लगाने में असफल है कि मध्यप्रदेश में पार्टी की बुरी हार का कारण क्या है? सकारात्मक संकेतों की गर्त में इतने ख़राब नतीजे छुपे थे, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पाया! सिर्फ राजस्थान ही ऐसा राज्य है, जहाँ कांग्रेस को अपनी हार का अंदेशा पहले से था। 000 मध्य प्रदेश सहित चार राज्यों के चुनावी परिणाम तमाम राजनीतिक दलों को सोचने-विचारने का ढेर सारा मसाला दे गए हैं। कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि उसकी इतनी करारी हार क्यों हो गई! भाजपा भी असमंजस में है कि उसे इतना बहुमत कैसे मिल गया? दिल्ली और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो खुद भाजपा ने भी नहीं सोचा था कि उसे इस कदर सफलता मिलेगी! ले देकर दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' ही यह कयास लगा रही थी कि वह कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही झाडू लगा देगी! लेकिन, यहां भी उसके सपने पूरे नहीं हुए! उसने कांग्रेस पर तो झाडू मार दी, लेकिन भाजपा को वह अपनी झाडू में समेट नहीं पाई। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि इन चुनावी नतीजों के परिणाम क्या होंगे? पहली बात तो यह है कि इन परिणामों का सही कारण क्या है, कोई सही तरह से आकलित नहीं कर पा रहा है। क्या इसका कारण राहुल गाँधी का पूरी तरह विफल हो जाना है या फिर यह नरेंद्र मोदी को मिलने वाली अभूतपूर्व सफलता का पहला चरण है? क्या यह आम आदमी पार्टी की जीत से विकल्प की राजनीति का उभार है या फिर क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर चले जाने के संकेत हैं? अगर इस मुद्दे का सरलीकरण कर दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि यह सभी बातें सही हैं। लेकिन, राजनीति इतनी सरल नहीं है, इसलिए इसके अर्थ भी इतने सरल नहीं हो सकते! तमाम राजनीतिक दल और राजनीतिक विश्लेषक विभिन्न चुनावी परिस्थितियों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। सभी इसे अपनी अपनी ढपली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली राज्यों में भाजपा ने लभगग 66 फीसदी सीटें जीती हैं। लोकसभा में इन राज्यों से 72 सांसद आते हैं। विधानसभा का ट्रेंड भी बरकार रहा, तो इसमें से भाजपा 50 के ऊपर सीटें जीत सकती है। फिलहाल यहां से कांग्रेस के 40 सांसद हैं। अभियान में अपनी आक्रामक शैली की वजह से कई बार नरेंद्र मोदी भी विवाद का विषय भले बने हो। लेकिन, राहुल गांधी की ओढ़ी हुई आक्रामक शैली कुछ ज्यादा ही चर्चा का विषय रही। राहुल गांधी पूरे प्रचार अभियान में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और आतंकवाद पर जो तर्क देकर संप्रग सरकार की नाकामियों पर पर्दा डाला, वो जनता भी नहीं पचा पाई। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में उन्हें विकास के काम और जनप्रिय चेहरे उन्हें नजर नहीं आ रहे थे। इन नतीजों के बाद कांग्रेस को यह समझ लेना चाहिए कि प्रमुख मुद्दों पर उसका शतुरमुर्गी रवैया देश का युवा मतदाता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। इससे पहले जब भी मतदान का प्रतिशत बढ़ता रहा है, ये विश्लेषण किया जाता रहा है कि यह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नाराजगी के संकेत हैं। लेकिन, इस बार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अधिक मतदान के बाद भी सरकारों की वापसी ने इस सिद्धांत को गलत साबित कर दिया! यह कहा जा सकता है कि इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने अपनी छवियों और अपने कामकाज के दम पर वापसी की है। साथ ही श्रेय भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को दिया जाना चाहिए, जिसने राज्य को गुटबाजी का अड्डा नहीं बनने दिया। वहीं दूसरी तरफ राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक हर प्रदेश में कांग्रेस की हार इस बात का गवाह है कि राहुल गाँधी की सीधी निगरानी भी इन प्रदेशों में गुटबाजी को नहीं रोक सकी! तो क्या यह माना जाए कि विधानसभा चुनावों का परिणाम अपने पक्ष में करने में राहुल पूरी तरह नाकामयाब रहे? एक हद तक सही भी है कि कहीं न कहीं राहुल गाँधी की रणनीति ही विफल हुई है! क्योंकि, इस बार टिकट वितरण से लेकर प्रभारी चुने जाने तक सारा फैसला उन्होंने ही लिया था। यहां तक कि संबंधित राज्यों के वरिष्ठ और अनुभवी राजनेताओं को उन्होंने हाशिये पर डालकर जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया, वे जीत नहीं पाए! ऐसे में उनकी असफलता का अंजाम यह हो सकता है कि यदि भूले भटके लोकसभा चुनाव में भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया, तो पता नहीं क्या होगा ? राहुल गांधी की सबसे पहली जिम्मेदारी स्थानीय स्तर से लेकर राज्य स्तर पर पार्टी की गुटबाजी को रोकना था। कहने को मध्य प्रदेश में केन्द्रीय नेता मंच पर तो साथ-साथ नजर आए, लेकिन मंच से उतरते ही वे प्याज के छिलकों की तरह एक दूसरे की परत उतारते रहे! अफसोस इस बात का रहा कि राहुल अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकामयाब रहे, और नतीजा सामने है। वैसे भी सिर्फ प्रभारी बनाने और टिकट बांटने से चुनाव नहीं जीते जा सकते! यह बात इस चुनाव में बकायदा साबित भी हो गई। मध्य प्रदेश में दिग्विजिय सिंह का बड़बोलापन भारी रहा। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो बोलचाल में संयत रहे, लेकिन उनका दूसरे बड़े नेताओं पूरे मन से साथ नहीं दिया! यह खामी मंच पर भी नजर आई, जब हर मंच पर दिग्विजय सिंह पीछे की कुर्सी पर बैठते थे, फिर उनसे सिंधिया इसरार करते तो वे उठते, और राहुल के कहने पर कक्षा के छात्र की तरह उनकी आज्ञा मानकर कुर्सी छोड़कर आगे आ जाते थे। ये भी कहना एक हद तक सही हो सकता है कि राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जा सकते हैं। लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूपीए-2 सरकार की छवि और उसके खिलाफ पिछले कुछ महीनों से बन रहा माहौल भी कांग्रेस के खिलाफ गया। आने वाले दिनों में राहुल गाँधी को प्रदेशों में नेतृत्व तैयार करने में मेहनत करनी होगी। अगर लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की दशा ठीक रखनी है तो केंद्र सरकार को भी अपनी छवि को सुधारना होगा! क्योंकि, इसके बिना नरेंद्र मोदी से मुकाबला करना आसान नहीं होगा। चुनावी परिणाम की शाम सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने बकायदा माना कि जनता हमसे नाराज थी। राहुल ने तो कांग्रेस के रूपांतरण तक की बात तक कही! हो सकता है कि राहुल पार्टी का चेहरा बदलने के लिए बेकरार हों, लेकिन पुराने और घाघ कांग्रेसी उन्हें असफल करने में कसर नहीं छोड़ेंगे! भाजपा भले ही माने की चारों राज्यों में उसके लिए मोदी फेक्टर काम कर गया! लेकिन, पूरी तरह से यह मान लेना गलत होगा कि इन राज्यों में हुई जीत नरेंद्र मोदी की जीत है। यह याद रखना होगा कि इन चारों राज्यों में जीत का आकलन तब से लगाया जा रहा था, जब नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनाव जीतकर केंद्र में नहीं आए थे। तब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी नहीं बनाए गए थे! राजस्थान में गेहलोत की निष्क्रियता चरम पर थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा ने जो विकास के काम किए वे सड़कों पर दिखाई दे रहे थे। यदि यह सही होता कि भाजपा के इस प्रदर्शन का एकमात्र कारण मोदी ही है, तो यह भी गलत साबित हो जाता है। क्योंकि, दिल्ली में मोदी ने एक के बाद एक रैलियों की झडी लगा दी थी। आखिर क्यों भाजपा स्पष्ट बहुमत के नजदीक आकर रूक गई। क्यों एकदम नई 'आम आदमी पार्टी' ने उनके अश्वमेघ को रोक लिया! बस्तर में भाजपा की करारी हार भी ऐसा ही कुछ कहती है। छत्तीसगढ़ में चुनावी परिणाम के अंत तक यही खुटका लगा रहा कि कहीं, कांग्रेस उसे पीछे न छोड़ दे। इस बात को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता कि मोदी का कोई असर ही नहीं पडा। यह सही है कि नरेंद्र मोदी को लेकर एक सकारात्मक माहौल बना हुआ है, लेकिन ये भ्रम भी नहीं पाला जाना चाहिए कि यह जीत उनका ही करिश्मा है। उन्हें अभी अपना करिश्मा दिखाना बचा है। जिसमें उन्हें देश के उस आधे हिस्से में सहयोगी तलाश करना है, जहां भाजपा का कोई नामलेवा नहीं है। उन्हें एनडीए तो पुनर्जीवित करने के लिए क्षेत्रीय दलों की जरूरत होगी। इस बात से तसल्ली की जा सकती है कि चारों राज्यों में क्षेत्रीय दल ज्यादा प्रभावी प्रदर्शन नहीं कर पाए! इन राज्यों के चुनावों में भले ही दिखता हो कि अकाली दल, बसपा और सपा जैसी पार्टियां अपने छोटा-मोटा जनाधार खो चुकी हैं, लेकिन यह राष्ट्रीय दलों के लिए घातक आकलन होगा कि वे उन्हें हाशिए पर पड़ा मान लें! क्योंकि, जिस तरह से तीसरे विकल्प के रूप में आम आदमी की पार्टी ने भाजपा की राह में रोड़े अटकाए हैं, वही काम यह क्षेत्रीय दल भी कर सकते हैं। इसलिए यदि इन्हें अनदेखा किया गया तो भाजपा 2014 में सत्ता पाने का सपना पूरा नहीं कर पाएगी। जिस तरह से दिल्ली में 'आप' का प्रभाव पड़ा है, वह इसे लोकसभा का लिटमस टेस्ट मानकर 2014 में पूरे देश में अपने प्रत्याशियों को खड़ा करने की योजना बना रहे हैं । यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही पसीने आ जाएंगे। ऐसे में तीसरे विकल्प को हाशिये पर मानना, न मोदी के हित में होगा न राहुल के! 'आप' ने एक संदेश साफ दे दिया है कि या तो सुधर जाओ या फिर घर जाओ। भाजपा को जो जनाधार मिला है, उस पर उसे आत्ममुग्ध होने के बजाए अपनी खामियों को दूरकर अपने आपको सुधारना होगा। उसे यह भी याद रखना होगा कि चाहे मध्य प्रदेश हो या राजस्थान या फिर छत्तीसगढ़, कहीं भी मंदिर की राजनीति की बात नहीं उठी। अधिकांश परिणाम विकास की स्थिति और भ्रष्टाचार से तंग मतदाताओं के गुस्से का नतीजा है। यदि अब इन चारों राज्यों में भाजपा ने अपनी छबि को मांजने का प्रयास नहीं किया, तो उसके लिए तो दिल्ली दूर ही होगी! यदि कांग्रेस ने भी अपनी चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला तो उसे दिल्ली के बडे जंग में मैदान में शिकस्त खाना पड़ सकती है।

Wednesday, January 1, 2014

… इसलिए भी याद रहेगा बीता बरस (2013)

- हेमंत पाल ---------------------------------------------------------------------- हर साल कि तरह इस साल भी बॉलीवुड ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। कुछ पुराने सितारे दुनिया से बिदा हुए तो किसी के रिश्ते बने और टूटे! कुछ कम बजट की फिल्मों ने सफलता का शिखर लांघा तो कुछ ऐसी भी फ़िल्में रहे, जो करोड़ों के बजट से बने जरुर पर दर्शकों को पसंद नहीं आई! चंद ऐसी घटनाएं भी घटी, जिसने परदे की दुनिया का बड़ा झटका दिया। फ़िल्मी दुनिया की कुछ ऐसी ही घटनाओं पर सरसरी नजर : सरपट दौड़ी 'चैन्नई एक्सप्रेस' इस साल रिलीज हुई शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म 'चैन्नई एक्सप्रेस' ने कमाई के अब तक के सभी रेकॉर्ड्स तोड़ते हुए 395 करोड़ की कमाई की! वहीं 20 दिसंबर को रिलीज हुई आमिर खान, कैटरीना कैफ की फिल्म 'धूम 3' भी इसी तरह दौड़ती नजर आई। 'धूम 3' ने अपने पहले हफ्ते में कुल 107.61 करोड़ की कमाई की। फिल्म के पहले दिन की कमाई ने भी बॉलिवुड में अब तक की सभी फिल्मों के रेकॉर्ड तोड़े। 'धूम 3' ने अपनी रिलीज के पहले दिन 36.22 करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। अब तक रिलीज हुई कोई भी हिंदी फिल्म एक दिन में इतनी कमाई नहीं कर सकी। शाहरुख का तीसरा बच्चा इस साल शाहरुख और गौरी खान के तीसरे बच्चे का जन्म सरोगेसी से हुआ! मुंबई महानगर पालिका ने इस बच्चे के जन्म की पुष्टि की। गौरी और शाहरुख के इस तीसरे बच्चे का जन्म 27 मई, 2013 को अंधेरी के मसरानी हॉस्पिटल में हुआ! इस अभिनेता के तीसरे बच्चे के सेरोगेसी के जरिए जन्म लेने की खबरों ने इस साल खासी चर्चा बटोरी! गौरी और शाहरुख पर इसके लिंग परीक्षण कराने के आरोप भी लगे! कुल मिलकर ये मामला खासा चर्चित रहा। संजय दत्त को जेल मुंबई में हुए सीरियल बम विस्फोटों के दौरान गैरकानूनी हथियार रखने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाई संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई। संजय पहले ही 18 महीने जेल में गुजार चुके हैं, इसलिए अब वह अपनी 42 महीनों की बची सजा पुणे के येरवडा जेल में गुजार रहे हैं। उन्हें दो बार मिली पैरोल को लेकर भी मीडिया में खासा बवाल हुआ। जिया खान की मौत अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म 'नि:शब्द' से बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री जिया खान की 3 जून को रहस्यमय तरीके से मौत हुई। उनकी मौत से अमिताभ बच्चन समेत पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को झटका लगा! जिया की मौत आज भी रहस्य से बाहर नहीं आ सकी है। पहले जहां इसे ख़ुदकुशी माना जा रहा था, वहीं उनकी माँ द्वारा संदेह व्यक्त किये जाने पर इस मामले की फिर से जांच हो रही है। पुलिस ने जिया के 6 पेज के सुसाइड लेटर को आधार बनाकर आदित्य पंचोली के बेटे और जिया के बॉयफ्रेंड रहे सूरज पंचोली को गिरफ्तार किया था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने उस लेटर को सुसाइड नोट मानने से इनकार कर दिया, और सूरज को जमानत पर छोड़ने का आदेश दे दिया था। इस मामले में सूरज 21 दिन तक जेल में बंद रहे। अभी भी ये मामला अदालत में है। रितिक-सुजैन की जोड़ी टूटी रितिक रोशन और सुजैन की जोड़ी शादी के 13 साल बाद टूट गई। हालांकि, अपने अलगाव का कारण दोनों ने ही साफ नहीं किया है। 4 सालों के अफेयर के बाद 13 साल की शादीशुदा जिंदगी का साथ भी इस जोड़ी को टूटने से रोक नहीं सका। मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक दोनों का ही एक-दूसरे पर से भरोसा उठ गया था। सबसे चर्चित रोमांस रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ का रोमांस इस साल फ़िल्म इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा चर्चित रहा! इन दोनों की पैरंट्स के साथ लंदन में निकाली एक तस्वीर लीक हुई। इसके बाद स्पेन के एक बीच की निजी पलों की तस्वीर के लीक होने से इनके चाहने वालों के साथ पूरे बॉलीवुड में ही हंगामा हो गया! कैट ने इससे नाराज होकर मीडिया को लेटर तक लिख डाला। बाद में कैटरीना अपने बर्थडे पर रणबीर के साथ जश्न मनाती पाई गईं! रणबीर-कैट अपने संबंधों को छुपाते रहे, लेकिन करण जौहर के टीवी शो 'कॉफी विद करण' में रणबीर की कजिन करीना कपूर ने सबके सामने इनके रिश्तों की पोल खोल दी! करीना ने न सिर्फ रणबीर की शादी में कैटरीना के गानों पर नाचने की बात कही, बल्कि कैटरीना को 'भाभी' कहकर भी संबोधित किया। दो चर्चित पैच-अप बीता साल दो पैच-अप के लिए भी याद किया जाएगा! ईद के खास मौके पर कांग्रेस विधायक बाबा सिद्दीकी द्वारा दी गई इफ्तार पार्टी में सलमान खान और शाहरुख खान गले मिले! बॉलीवुड के अब तक के इस अहम् पैच-अप के साथ सालों से चली आ रही इन दोनों सुपरस्टार्स की आपसी रंजिश कुछ हद तक ख़त्म हुई! इन दोनों ने राकेश रोशन की फ़िल्म 'करण-अर्जुन' में काम किया था, उसके बाद दोनों कभी साथ नजर नहीं आए! सलमान-शाहरुख़ के अलावा दूसरा पैच-अप रहा सलीम खान और जावेद अख्तर का! बॉलीवुड को शोले, दीवार, डॉन और त्रिशूल जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाली इस राइटर जोड़ी के बीच 26 साल लम्बा अबोला इस साल टूटा! ये दोनों अपनी सुपरहिट फ़िल्म 'जंजीर' के रीमेक बनने से खफा थे। इसी मुद्दे पर इनके आपसी मतभेद सुलझे और ये साथ आकर खड़े हुए। इन दोनों के बीच 'मिस्टर इंडिया' बनने के दौरान मतभेद हुए थे। जावेद चाहते थे कि अमिताभ बच्चन इस फिल्म में लीड रोल करें, लेकिन उन्होंने काम करने से मना कर दिया था। ऐसे में खफा जावेद ने सलीम से कहा कि वह अमिताभ के साथ दोबारा काम नहीं करेंगे! लेकिन, दूसरों से उन्होंने कहा कि सलीम अमिताभ के साथ काम नहीं करना चाहते। इन्हीं बातों को लेकर दोनों के बीच मतभेद हो गए थे। अब ये बर्फ पिघल गई है। अलविदा हो गए दो सितारे मशहूर गायक रहे मन्ना डे का 94 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने 24 अक्टूबर, 2013 तड़के करीब 3 बजकर 50 मिनट पर अंतिम सांस ली। अपने गानों से बरसों तक फ़िल्म संगीत प्रेमियों के दिलों में बसने वाले मन्ना डे का निधन एक युग के अंत हो जाने जैसा था। बीते साल ने हरदिल अजीज खलनायक प्राण को भी हमसे चीन लिया। 93 साल की उम्र में बॉलीवुड के पहले 'सुपरस्टार विलन' प्राण ने 12 जुलाई, 2013 की रात 8.30 बजे मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली। प्राण लंबे समय से बीमार चल रह थे। कुछ समय पहले प्राण को 'दादासाहेब फाल्के पुरस्कार' से उनके घर में ही सम्मानित किया गया था। --------------------------------------------------------------

सिलसिला सिनेमाई सिक्वेल का (2013)

- हेमंत पाल साल के बीतने पर उसका हर मोर्चे पर मूल्यांकन किया जाता रहा है। ये परंपरा कहें, या हमारी पीछे मुड़कर देखने कि आदत, कोई फर्क नहीं है। गुजरे साल 2013 को यदि फिल्मों के मोर्चे पर परखा जाए तो ये साल कुछ ख़ास कारणों के लिए याद किया जाएगा! ऐसा ही एक कारण है, फिल्मों के सीक्वल का! इस साल कई फिल्मों के सीक्वल बने और रिलीस हुए! ऐसा नहीं है कि सिक्वल हमेशा सफलता का सौदा ही साबित हुए हैं। इस साल जहां 'कृष' के सिक्वल ने धूम मचाई, वहीं 'यमला पगला दीवाना-2, वंस अपान ए टाइम मुंबई दोबारा, और जंजीर के सिक्वल बॉक्स ऑफिस पर औंधे मूंह गिरे! पूरे साल सिक्वेंस के बाद साल का अंत भी 'धूम' के सिक्वल 'धूम-3' से हुआ, जिसने कमाई के नए रिकॉर्ड बनाए! जिसका एक गाना ही पांच करोड रूपए में फिल्माया गया है। 'कृष-3' और 'धूम-3' की बॉक्स ऑफिस सफलता ने सिनेमाई सिक्वल के सिलसिले को सरपट दौड़ने का बहाना भी दे दिया है। बॉलीवुड में भेडचाल की परम्परा हमेशा से रही है। 'दबंग' के बाद 'दबंग-2' 'अग्निपथ' के बाद 'अग्निपथ-2' और 'कृष-3' की जबरदस्त सफलता के बाद अब बॉलीवुड पर सिक्वल फिल्मों को भूत चढा हुआ है। इस साल शुरुआत से लेकर अब तक बॉक्स ऑफिस पर कमाई में अधिकतर यही फिल्में आगे रही हैं और यह दौर आगे भी कम होने वाला नहीं। कमाल 'कृष' और 'धूम' का बिजनेस के मामले में इस साल 'कृष-3' और 'धूम-3' ने इस साल प्रदर्शित सभी हिंदी फिल्मों के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया! यह हॉलीवुड की कुछ समय पहले ही रिलीज हुई 'सुपरमैन' फिल्म से भी ज्यादा कमाई करने वाली साबित हुई है। साल 2013 सीक्वल फिल्मों के नाम ही रहा है। पूरे साल सिक्वल 2013 में इनकी शुरुआत जनवरी से हुई। 2008 में रेस’ फिल्म का सीक्वल रेस-2’ आया। सैफअली खान, दीपिका पादुकोण और जैकलीन फर्नांडीस अभिनीत यह फिल्म एक्शन थ्रिलर फिल्म थी। अपनी लागत से दुगनी कमाई करने वाली साल की यह पहली फिल्म बनी। रेस-2’ को दर्शकों ने सराहा और कमाई के मामले में भी यह हिट रही। जनवरी के बाद फरवरी में मर्डर-3’ ने दस्तक दी। अपने बोल्ड सीन की वजह से बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने दमदार एंट्री दर्ज कराई। 7 करोड़ की लागत से बनी मर्डर-3’ ने 18.31 करोड़ का बिजनेस किया। मार्च में 'साहिब बीबी और गैंगस्टर रिटर्न’ ने बॉक्स ऑफिस पर दस्तक दी। 7 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने फिल्मी पंडितों के गणित को गड़बड़ा दिया। यह साल की तीसरी हिट फिल्म बनी और 21.95 करोड़ की कमाई की। अप्रैल में आशिकी-2’ ने दर्शकों को खूब लुभाया। फिल्म के गीतों से लेकर स्टोरी तक को खूब वाहवाही और अप्रत्याशित सफलता मिली। बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट फिल्म का तमगा पाकर 'आशिकी-2' ने लागत के मुकाबले 78.42 करोड़ की कमाई की। जून में 'यमला पगला दीवाना-2’ आई, लेकिन दर्शकों ने इस फिल्म को ज्यादा नहीं सराहा। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर गई। अगस्त 2013 में आई वंस ऑपन टाइम इन मुंबई दोबारा’ भी ज्यादा सफल नहीं रही। सितंबर में अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फ़िल्म 'जंजीर’ का रीमेक आया, लेकिन फिल्म सुपरफ्लाप रही। नवंबर में 'कृष-3’ ने इस सूखे को खत्म किया और उसकी सफलता का ग्राफ बढ़ता गया। इसी माह यानी नवंबर में ही 'सत्या’ की सीक्वल 'सत्या-2’ भी रिलीज हुई। हालांकि, दर्शकों को खींचने में वह असफल ही रही है। दिसंबर में 'धूम' सीरीज की फ़िल्म 'धूम-3’ आई, जिसने कमाई का नया रिकॉर्ड बना डाला। एक सप्ताह में 200 करोड़ का बिज़नेस करने वाली इस फ़िल्म ने सीक्वल बनाने की चाह रखने वाले फिल्मकारों को ऑक्सीजन दे दी! सीक्वल फिल्मों का सिलसिला इस साल के अंत में ही ख़त्म नहीं हुआ है। नए साल की शुरुआत यानी 2014 में भी ऐसी फिल्मों की लिस्ट तैयार है। 'इश्किया’ का सीक्वल 'डेढ़ इश्किया, रागीनी-एमएमएस 2’, सिंघम-2, हेट स्टोरी-2’ जैसे सीक्वल्स दर्शकों के सामने होंगे। ----------------------