Saturday, April 30, 2022

परदे पर अब ज्यादा दिखाई देने लगी मध्यप्रदेश की रंगत

- हेमंत पाल 

     प्राकृतिक और पुरावैभव से सजा मध्यप्रदेश लंबे समय तक फिल्मकारों की नजर में उपेक्षित रहा है। लेकिन, अब समय बदला और ये उनका पसंदीदा डेस्टिनेशन बन गया है। फिल्म मेकर्स का रुझान धीरे-धीरे मध्यप्रदेश की और बढ़ता दिखाई देने लगा। यह फिल्म निर्माण के लिए महफूज और पसंदीदा जगहों में शामिल होने लगा। भोपाल से लेकर इंदौर तक, ग्वालियर से लेकर ओरछा तक और इंदौर-उज्जैन से लेकर मांडू और महेश्वर तक हर जगह को फिल्मी पर्दे पर जगह मिली। बीते सालों में कई फ‍िल्‍मों, टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों की शूटिंग यहां हुई। प्रदेश में बड़े फिल्ममेकर्स और सितारों की फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। इसमें भुज : द प्राइड ऑफ इंडिया, द लास्‍ट शो, लूडो, शेरनी, दुर्गामति, मीमांसा, हश और 'सुटेबल बॉय' शामिल है। बड़े बजट और बडे़ फिल्म मेकर्स की सितारों से सजी फिल्म धाकड़, ह्विस्‍ल ब्‍लोअर, गुल्‍लक-2, पंचायत-2, कोटा फैक्‍ट्री, छोर,’तेजस और 'दोनाली' समेत कई फिल्मों की शूटिंग हो गई या उनकी तैयारी चल रही है। प्रदेश में शूटिंग की फेवरेट लोकेशंस भोपाल, इंदौर, रायसेन, ओरछा, चंदेरी, पचमढ़ी, महेश्वर, मांडू, उज्जैन, ओंकारेश्वर, ग्वालियर, जबलपुर, अमरकंटक, पन्ना नेशनल पार्क, दतिया, बालाघाट और बैतूल है। इसके अलावा भी कई ऐसे शहर और कस्बे हैं, जहाँ शूटिंग के लिए रैकी की जाने लगी है।  
      प्रदेश की राजधानी भोपाल और निमाड़ का किनारा महेश्वर फिल्मकारों को सबसे ज्यादा भाया है। भोपाल और महेश्वर के अलावा हिल स्टेशन पचमढ़ी, ग्वालियर, इंदौर, उज्जैन, जबलपुर, खजुराहो, पन्ना, शिवपुरी, दतिया और मांडू का भी सिनेमा के परदे पर जमकर उपयोग हुआ। भोपाल के पास बुधनी में दिलीप कुमार की 'नया दौर' की 90% शूटिंग, जबलपुर के भेड़ाघाट में 'जिस देश में गंगा बहती है' की छिंदवाड़ा के चिखली में ‘तेरे मेरे सपने, मांडू में ‘दिल दिया दर्द लिया से लेकर गुलजार की ‘किनारा तक को फिल्माया गया। देश के दिल मध्यप्रदेश ने फिल्मकारों की पहली आउटडोर पसंद बनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पचमढ़ी में एन इलेक्ट्रिक मून, मेस्सी साहब, तरकीब, थोड़ा सा रूमानी हो जाएं, अशोक, चक्रव्यूह और ' हवाई दादा' जैसी फिल्म और 'दिल ही दिल में' जैसी फिल्में बनाई गईं हैं। 
     गीतकार शैलेन्द्र की मशहूर फिल्म 'तीसरी कसम' का एक गीत ‘लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया’ सागर जिले के बीना के पास खिमलासा में फिल्माया गया था। इस शूटिंग में राज कपूर, वहीदा रहमान सरीखे सितारे शामिल हुए थे। पन्ना के पास राजगढ़ पैलेस में मीरा नायर ने रेखा अभिनीत ‘कामसूत्र की पूरी शूटिंग की। चम्बल इलाके के ग्वालियर, भिंड, मुरैना, दतिया, शिवपुरी में मुझे जीने दो, चम्बल की कसम, चंबल के डाकू, पुतलीबाई, यतीम, डकैत, भयानक से लेकर बैंडिट क्वीन, रिवाल्वर रानी जैसी कई फिल्मों की शूटिंग यहीं हुई। महलों, बीहड़ों, हवेलियों में शूट की गईं है। शहडोल, रीवा और बांधवगढ़ में वहीँ के रहने वाले जोगेन्दर सिंह ने बिंदिया और बन्दूक, रंगा खुश, कसम भवानी की फ़िल्में बनाई। आशुतोष राणा अभिनीत ‘शबनम मौसी’ फिल्म की शूटिंग शहडोल में हुई। ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ रीवा के पास एक गांव में फिल्मांकित की गईं। राज कपूर का अपने ससुराल रीवा से प्रेम उनकी एक मशहूर फिल्म ‘आह‘ में भी देखने-सुनने मिला। आधी रात को सतना स्टेशन पर वे एक तांगे वाले को बार-बार रीवा चलने को कहते हैं, जहाँ नरगिस से वे आखिरी बार मिलना चाहते हैं। तांगे वाला मुकेश के स्वर में गाना गाते हुए उन्हें रीवा ले जाता है। 'छोटी सी ये जिंदगानी रे, चार दिन की कहानी तेरी!'
      चर्चित फिल्म 'पीपली लाइव' रायसेन जिले के एक गांव में बनी थी, तो 'सिंह साहब द ग्रेट' इंदौर में शूट की गईं। अब यहाँ विक्की कौशल और सारा अली खान की 'लुका-छुपी-2' की शूटिंग हुई। ‘वेलकम टू करांची’ में इंदौर एयरपोर्ट के पास सुपर कॉरिडोर पर पाकिस्तान का कराची बना दिया गया। उज्जैन में स्वीकार किया मैंने, मंगलसूत्र और अब ओएमजी-2 फिल्मों की शूटिंग की गई। उज्जैन, रतलाम के समीप के नागदा में सुनील दर्शन की सनी देओल अभिनीत फिल्म 'अजय' की पूरी शूटिंग हुई। रतलाम स्टेशन को 'बर्निंग ट्रेन' और 'जब वी मेट' के अलावा कई फिल्मों में दिखाया जा चुका है।  नकली शराब कांड पर बनी फिल्म 'शायद' को इंदौर के एमवाय अस्पताल में फिल्माया गया था। ममता कुलकर्णी की 'दिलबर' का गाना पातालपानी पर्यटन स्थल पर शूट हुआ। केसी बोकाडिया ने, ओम पुरी, मल्लिका शेरावत को लेकर 'डर्टी पॉलिटिक्स' की अधिकांश शूटिंग, खंडवा रोड, इंदौर के एक फार्म हाउस में की गई थी। महेश्वर में नर्मदा नदी और शिव मंदिर के प्रांगण में 'दबंग-3' के कई दृश्य फिल्माए गए। इससे पहले राजश्री प्रोडक्शन की तुलसी, देओल परिवार की 'यमला पगला दीवाना' शाहरुख खान की 'अशोका' और अक्षय कुमार की 'टॉयलेट :एक प्रेम कथा' के महत्वपूर्ण सीन यहीं शूट हुए। स्मृति ईरानी का एक मेगा टीवी सीरियल 'मेरे अपने' भी महेश्वर में शूट किया गया। होशंगाबाद के आसपास जय गंगाजल, चक्रव्यूह और टॉयलेट.फिल्मों के सीन शूट हुए। 
    अनुराग बसु की फिल्म 'लूडो' की शूटिंग भोपाल के कई हिस्सों में हुई थी। भोपाल में हुमा कुरैशी ने ‘महारानी’ फिल्म की शूटिंग की जो ओटीटी की लोकप्रिय फिल्मों में गिनी जाती है। नुसरत भरूचा ने पिपरिया में अपनी हॉरर फिल्म ‘छोरी’ की शूटिंग की। प्रदेश के अलग-अलग लोकेशन पर लगभग 25 प्रोजेक्ट की तैयारी है। इनमें फिल्‍म, वेब सीरीज और टीवी सीरियल्स की शूटिंग होनी है। ‘एक दूजे के वास्‍ते’ से लेकर अनुपम खेर के ‘द लास्ट शो’ और विद्या बालन की फिल्म ‘शेरनी’ तक यहां शूट हुई।  सतपुड़ा की खूबसूरत वादियों में बसी विद्युत नगरी सारणी एवं कोल नगरी पाथाखेड़ा की खूबसूरती कंगना रनौत व अर्जुन रामपाल की फिल्म 'धाकड़' में दिखाई देगी।
      भोपाल से करीब 250 किलोमीटर दूर कोयला खदानों के बीच ये फिल्म फिल्माई गई है। कंगना रनौत यहाँ कोयला तस्करों से लोहा लेती नजर आती है। फिल्‍म में कोल माइन का अहम प्लॉट है।‘ ‘धाकड़’ हिंदी की पहली फिल्म जो बैतूल में शूट हुई। 'प्‍यार का पंचनामा' की अदाकारा नुसरत भरूचा ने फिल्म 'छोरी' की शूटिंग मध्य प्रदेश में की। विशाल फुरिया के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म को विक्रम मल्‍होत्रा और जैक डेविस ने प्रोड्यूस किया है। कंगना रनौत की फिल्म 'रिवॉल्वर रानी' मध्य प्रदेश में शूट की गई है। इस फिल्म का अहम हिस्सा ग्‍वालियर किले में और ग्वालियर जिले के बाकी हिस्सों में शूट किया गया है। रणबीर कपूर, कटरीना कैफ, अर्जुन रामपाल की फिल्म 'राजनीति' की शूटिंग भी भोपाल में हुई है। इस फ‍िल्‍म में जिस इमारत को दिखाया गया है वह भोपाल का मिंटो हॉल है।
   1998 में आई सलमान खान और काजोल की फिल्म 'प्यार किया तो डरना क्या' की शूटिंग इंदौर में हुई। इस फिल्‍म में इंदौर के फेमस डेली कॉलेज को दिखाया गया है। हाल ही में विक्की कौशल और सारा अली की फिल्म 'लुकाछुपी-2' को भी इंदौर, मांडू, महेश्वर और उज्जैन में फिल्माया गया था। अर्जुन कपूर और सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म 'तेवर' की काफी शूटिंग मध्य प्रदेश में हुई है। महेश्वर घाट पर इस फिल्म का गाना भी शूट किया गया है। वहीं इस फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा का जो कॉलेज दिखाया है वह आगरा का फेमस सेंट जोन्स कॉलेज है। प्रदेश का महेश्‍वर फिल्मकारों की पहली पसंद है। इस जगह पर बाजीराव मस्तानी, नीरजा, यमला पगला दीवाना-2 और पेडमैन जैसी कई फ‍िल्‍मों के दृश्य फिल्माए जा चुके हैं। 
       शाहरुख खान और करीना कपूर की फिल्म 'अशोका' की शूटिंग पचमढ़ी में हुई। करीना और शाहरुख के कई सीन यहां के जंगल में ही फिल्माए गए हैं। ऋतिक रोशन की फिल्म 'मोहनजो दारो' की शूटिंग जबलपुर के भेड़ाघाट में हुई है। यहां की पहाड़ियों के बीच बहती नदियों में ऋतिक रोशन ने खूब दौड़ लगाई है। दिवंगत अभिनेता इरफान खान की फिल्म 'पान सिंह तोमर' की शूटिंग चंबल क्षेत्र में हुई है। इस फिल्‍म को ग्वालियर के आसपास शूट किया गया था। सलमान खान की लोकप्रिय फिल्म 'दबंग-3' का भी काफी हिस्सा महेश्वर और मांडू में शूट किया गया था। यहां शूटिंग के दौरान ही उनकी फिल्‍म पर विवाद भी हुआ था। गुजरे जमाने की बात करें तो नया दौर, मुझे जीने दो, तीसरी कसम, किनारा, सूरमा भोपाली, पीपली लाइव, चक्रव्‍यूह, गंगाजल-2 जैसी अनगिनत फिल्‍में मध्य प्रदेश में शूट हुई हैं।
   प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। हरी घास के मैदान से लेकर झरनों और झाड़ियों तक की लोकेशन यहाँ मिल जाती हैं। यहाँ किले भी हैं घने जंगल भी और बीहड़ भी। ऐसे में मुंबई के फिल्म मेकर्स के दिल को यह इलाका भा रहा है। अभिनेत्री विद्या बालन ने अपनी फिल्म 'शेरनी' की शूटिंग भी यहीं पूरी की। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर प्रकाश झा की राजनीति, गंगाजल, सत्याग्रह, राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर स्टारर फिल्म 'स्त्री' भी प्रदेश की धरती पर शूट की गई। कई डायरेक्टर्स यहाँ वादियों सहित जंगलों में अपनी फिल्मों में शूट कर चुके हैं।
      अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, सलमान खान और धर्मेंद्र सहित लगभग सभी बड़े कलाकार यहाँ शूटिंग कर चुके हैं। मांडू में ठंड और बारिश के मौसम में कई फिल्में और टीवी सीरियल शूट हो चुके हैं। यहां की मनमोहक वादियां कई फिल्मों में नजर आ चुकीं हैं। पुरानी फिल्मों के अभिनेता दिलीप कुमार की फिल्म 'नया दौर' की शूटिंग भी बुदनी के जंगलों में हुई थी। इससे पहले भी कई फिल्मों में यहाँ की वादियों, पहाड़, झरने समेत हरे-भरे जंगल दिखाए जा चुके हैं। वहीं अब फिल्म निर्माताओं को अब प्रदेश का माहौल भा रहा है। यहां लगातार शूटिंग करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। बॉलीवुड के मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक राजकुमार संतोषी ने भोपाल में अपनी तीन फिल्मों की शूटिंग करने की शुरू करने की घोषणा की है। वे यहां फिल्म अकादमी शुरू करने के बारे में भी सोच रहे हैं। 
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Saturday, April 23, 2022

जितने दिखते हैं, उतने रियल नहीं होते रियलिटी शो!

 - हेमंत पाल

   ब सत्तर के दशक में दर्शकों के सामने मनोरंजन का नया विकल्प टीवी सामने रखा गया तो ये किसी अजूबे से कम नहीं था। सीरियल, फ़िल्मी गाने और सप्ताह में एक बार फिल्म दिखया जाना शुरू किया गया। बरसों तक सिनेमा से अपना मनोरंजन करते आए दर्शकों के सामने ये नई खुराक थी। क्योंकि, उन्हें फिल्म का एक सार्थक विकल्प जो मिल गया था। सुकून की बात यह थी, कि दर्शकों के लिए यह सब उनके ड्राइंग रूम में उपलब्ध था। उस समय टीवी सीरियलों की कहानी लोगों की आपसी बातचीत का एक प्रमुख विषय हुआ करती थी! बुनियाद, हम लोग, रामायण और महाभारत जैसे सीरियलों ने दर्शकों पर जैसे जादू कर दिया। सिनेमाघर की भीड़ घरों में सिमटने लगी थी! लेकिन, यह सब मनोरंजन रात 10 बजे तक ही था। फिर भी दर्शक इससे संतुष्ट थे। 
     तब तो कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम भी घरों में चलते थे, इसलिए कि दर्शक उसमें भी मनोरंजन का मसाला ढूंढ लेते! जबकि, आज चौबीसों घंटे टीवी मनोरंजन परोसता है, पर दर्शक संतुष्ट नहीं हैं। चैनलों के साथ तरह-तरह के कार्यक्रमों की भरमार हो गई, पर दर्शक घट गए! कार्यक्रमों का स्तर इतना गिर गया कि पूरा परिवार साथ बैठकर नहीं देख सकता! ऐसे में दर्शकों के सामने रियलिटी शो भी परोसे जाने लगे! दरअसल, ये वास्तविकता को मनोरंजन की तरह दर्शाने वाले कार्यक्रम होते हैं। इस तरह के शो ने दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। दर्शकों को लगता है कि वे परदे पर वही देख रहे हैं, जो घट रहा है। सवाल पैदा होता है कि रियलिटी शो में क्या सब कुछ रियल होता है? इस तरह के शो किस संदर्भ में रियल हैं! क्या टीवी के ये रियलिटी शो वास्तविकता दिखाते हैं! सच तो यह है कि इस तरह के रियलिटी शो में कुछ भी रियल नहीं होता!
   'बिग बॉस' जैसे शो की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है इसकी छद्म सच्चाई! इस शो के अब तक 15 सीजन हो चुके हैं। पर, क्या वास्तव में वो सब रियल है, जो दिखाया जा रहा है! प्रतियोगियों में नजर आती कुंठा, रोज के झगड़े, एक-दूसरे को मात देने की कोशिश और गुटबाजी ये सब क्या अपने आप हो रहा है! शायद नहीं, कहीं न कहीं इसके पीछे स्क्रिप्ट होती है। जो लिखित में भले न हो, पर दर्शकों को मनोरंजन परोसने के लिए उसे तैयार तो किया ही जाता है। ये सिर्फ एक रियलिटी शो का फार्मूला नहीं है। हर मनोरंजन चैनल पर ऐसे रियलिटी शो हमेशा दिखाई देते रहते हैं। ऐसे जितने भी शो हैं, उन्हें एक तय फॉर्मेट के जरिए ही बनाया और दिखाया जाता है! गाने और डांस के रियलिटी शो में तो आंसू बहाने वाले इमोशन से लगाकर एंकरिंग में कही गई बातें तक तय होती है। शो के जजों की टिप्पणियाँ तक उन्हें लिखकर दी जाती है। यदि सब कुछ लिखित में ही होता है, तो कैसे माना जाए कि रियलिटी शो रियल होते हैं!    
     टीवी का इतिहास बताता है कि पहला अंतर्राष्ट्रीय रियलिटी शो 1973 में प्रसारित किया गया था, वह था 'एन अमेरिकन फैमिली!' यह अपनी तरह की पहली रियलिटी टीवी सीरीज थी। जबकि, भारतीय टीवी पर 1996 में सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन ने पहला डांस रियलिटी शो 'बूगी वूगी' प्रसारित किया गया जिसे जावेद जाफरी ने होस्ट किया और नावेद जाफरी ने बनाया था। यह प्रयोग काफी हिट रहा। लेकिन, रियलिटी शो का असल पागलपन एम-टीवी के 'रोडीज' से देखने में आया। देश के युवा इसके प्रशंसक बन गए और यह सबसे लोकप्रिय शो बन गया। क्योंकि, इसके ऑडिशन को भी परदे पर दिखाया जाता था। इस शो के बाद तो टीवी चैनलों पर रियलिटी शो की बाढ़ ही आ गई। 
   इसके बाद रोडीज, स्पिट्स विला और बिग बॉस जैसे शो ने वास्तविक अर्थों को बदल दिया। इन शो में भद्दी भाषा का खुलेआम उपयोग किया जाता था! दर्शक सोचते कि इन शो में जो दिखाया जा रहा, वो रियल है। जबकि, वास्तव में ऐसा नहीं होता। इसे परिवार और बच्चों के साथ नहीं देखा जा सकता। सभी रियलिटी शो स्क्रिप्‍टेड होते हैं! उसका प्रमाण यह है कि प्रतियोगी टास्क के समय ही लड़ते हैं, बाद में कुछ समय बाद वे दोस्त बन जाते हैं! इसी से शंका होती है कि क्या ये सब रियल है!
   रियलिटी शो उन लोगों के लिए एक सार्थक मंच है, जिनके पास प्रतिभा है। जब उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का कोई मंच नहीं मिलता, तो रियलिटी शो उन्हें मंच देते हैं, जहां से वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। आज के युवा दर्शक सीरियल देखना नहीं चाहते, वे कुछ अलग मनोरंजन चाहते हैं और रियलिटी शो उनकी इसी चाह की पूर्ति करते हैं। दरअसल, रियलिटी शो टीवी चैनलों का आधार हैं। यह हमारे युवाओं के दिमाग को प्रभावित करते हैं। 'खतरों के खिलाड़ी' जैसे शो देखने के बाद अधिकांश युवा स्टंट करने लगते हैं। वे ये नहीं सोचते कि इन रियलिटी शो के पीछे की वास्तविकता क्या है! एक और सच्चाई ये है कि आजकल के नाच-गाने और डांस वाले रियलिटी शो में ऐसे प्रतियोगियों को ज्यादा चुना जाता है जिनके पीछे कोई दुख भरी कहानी होती है। इन्हें चुनने का कारण भी टीआरपी बढ़ाना है। दर्शकों को ऐसी कहानियां सुनाकर भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोशिश होती है। सामने बैठे जज भी स्क्रिप्ट के मुताबिक उनकी निजी कहानियों को तूल देते हैं और नकली आंसू बहाते हैं, ताकि दर्शक जुड़े रहें।  
    जो रियलिटी शो दिखाए जाते हैं, उनमें भद्दी गालियां, राजनीति, दूसरे को गिराने के हथकंडे दिखाकर नाटकीय उत्सुकता परोसकर दर्शक बटोरे जाते हैं। इस तरह चैनल की टीआरपी बढ़ाई जाती है। इन शो के पीछे एक पूरा बाजार काम करता रहता है। हुनरमंदों को अपना हुनर दिखाने का मंच मुहैया कराते ये रियलिटी शो तैयारियों के प्रशिक्षण का बाज़ार मेट्रो सिटी से गाँव तक फ़ैला रहे हैं। यहाँ रियलिटी शो के लिए संभावित प्रतियोगी तैयार किए जाते हैं। हमारे यहाँ रियलिटी शो का इतिहास भी करीब दो दशक से ज्यादा पुराना है। 3 दिसंबर 1993 को 'जी-टीवी' पर पहली बार अन्नू कपूर ने 'अंताक्षरी' शो शुरू किया, उसके 600 एपिसोड प्रसारित हुए। इसी चैनल पर 1995 में 'सारेगामा' आया। इस शो ने बॉलीवुड को कई मधुर गायक दिए। लेकिन, 2000 में आए अमिताभ बच्चन के शो 'कौन बनेगा करोड़पति' ने सब कुछ बदल दिया। इसके बाद शो भी बदले, फॉर्मूले भी और कमाई के तरीके भी, पर रियलिटी नदारद हो गई!
      इन रियलिटी शो असलियत का खुलासा संगीत के एक शो के एंकर आदित्य नारायण ने भी किया। उन्होंने बताया था कि शो के दो प्रतियोगी पवनदीप और अरुणिता की जो लव स्टोरी दिखाई गई, वो झूठी थी। उसी तरह जैसे नेहा कक्कड़ से उनका झूठा प्यार दिखाया गया। कई दर्शकों को उनसे लगाव होता है इसलिए वे इसे सच्चाई मानकर देखते रहते हैं। ये पहली बार नहीं हुआ, हर शो में कोई न कोई लव स्टोरी दिखाकर दर्शकों को भरमाया जाता है, जबकि मुख्य शो से ऐसी घटनाओं का कोई वास्ता नहीं होता। टीवी पर 'राखी का स्वयंवर' नाम से टीवी शो प्रसारित हुआ था। इस शो के बारे में कहा गया था कि राखी अपने लिए दूल्हा चुनेंगी! राखी ने इलेश नाम के एक प्रतियोगी को चुना और सगाई भी कर ली। लेकिन, बाद में पता चला कि यह सब नाटक था। शो खत्म होने के साथ दोनों की नजदीकियां भी खत्म हो गईं। कुछ और एक्टर और एक्ट्रेस भी ऐसे शो कर चुके हैं, जो रत्ती भर भी रियल नहीं होते!
    रियलिटी शो कोई भी हो, उसमें दर्शकों को वही दिखाया जाता है, जो वे दिखाना या उससे कमाई करना चाहते हैं। सीधी सी बात है कि शो के मेकर्स रियलिटी के नाम पर बेहद चतुराई से अधूरा सच सामने रखते हैं, जिसे दर्शक रियल मानकर उसी भ्रम में उसमें मनोरंजन तलाशता रहता है। शो के मेकर्स के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है एक घंटे में शो को इतना रोचक बनाना कि वो दर्शकों को बांधकर रख सके। इसमें टीआरपी का खासा ध्यान रखा जाता है! यदि टीआरपी नहीं रही, तो इसका सीधा असर शो की लोकप्रियता पर पड़ता है। रियलिटी शो रियल लगें, इसके लिए स्क्रिप्टिंग तो होती ही है! उसमे इमोशन्स का तड़का भी लगाया जाता है। क्योंकि, दर्शकों को यह भी चाहिए होता है। शॉट को परफेक्ट बनाने के लिए रीटेक भी देने पड़ते हैं, जैसा फिल्मों में होता है। टीवी का बिजनेस ऐसे ही चलता है और ये भी एक तरह से रियलिटी ही तो है।
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भोपाल में अमित शाह ने कुछ दिखाया ,कुछ छुपाया

- हेमंत पाल 

   बीजेपी के चाणक्य माने जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह की भोपाल यात्रा से पहले जो अनुमान लगाए गए थे, वो काफी हद तक सही निकले! गृह मंत्री की यह यात्रा आदिवासियों पर फोकस और उन्हें पार्टी के पक्ष में करने पर केंद्रित रही। इसके अलावा अमित शाह ने पार्टी संगठन को चुनाव के कुछ ऐसे गुर सिखाए जिन्हें आने वाले चुनाव आजमाया जाएगा। तेंदूपत्ता संग्राहकों का कार्यक्रम तो औपचारिक रहा, पर उसका मंतव्य सभी को समझ आया कि ये पूरी तरह चुनावी रणनीति का हिस्सा था, जिसके जरिए आदिवासी वोट बैंक को रिझाने की कोशिश की गई। लेकिन, इससे भी ध्यान देने वाली बात यह रही कि आज के इस आयोजन में नरोत्तम मिश्रा को दूसरे मंत्रियों से कहीं ज्यादा तवज्जो दी गई। एयरपोर्ट पर आगमन से लगाकर करीब 10 घंटे के सभी कार्यक्रमों में अमित शाह और प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा में कुछ ज्यादा ही नजदीकी देखी गई। यहाँ तक कि होर्डिंग और पोस्टरों में भी नरोत्तम मिश्रा का चेहरा छाया था! जबकि, न तो उनका तेंदूपत्ता संग्राहकों से सीधा वास्ता है और वे वन विभाग के मंत्री हैं। कहा तो यहाँ तक जा रहा कि कहीं नरोत्तम मिश्रा को अगले फेरबदल में आदिवासियों से जुड़ा कोई विभाग तो नहीं सौंपा जा रहा।     
      इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि अमित शाह के कार्यक्रमों में नरोत्तम मिश्रा को इतनी तवज्जो मिली। ये या तो पार्टी की केंद्रीय समिति की तरफ से कोई इशारा है, जिसमें कोई संदेश छुपा है। अमूमन ऐसा होता नहीं है। जिस विभाग का कार्यक्रम होता है, झंडा उसी विभाग के मंत्री के हाथ में होता है, पर आज ऐसा नहीं दिखा! पार्टी के लोगों, माहौल को समझने वालों और मीडिया ने जो समझा वो अनुमानों से अलग था। अमित शाह के साथ कई पोस्टरों और विज्ञापनों में मुख्यमंत्री नदारद दिखे और वहां नरोत्तम मिश्रा का चेहरा था। इसके अलावा भी मंच पर कुर्ता खींचने की एक ऐसी घटना हुई, जो अप्रत्याशित ही कही जाएगी। जिन्होंने उस पर गौर किया वे जरूर समझे होंगे कि उसके पीछे का इशारा क्या है!       
    अमित शाह ने पार्टी पदाधिकारियों और मंत्रियों के साथ भी अलग-अलग बैठक करके उन्हें चुनाव जीतने के नए फॉर्मूले बताए। इसलिए कि पार्टी के चाणक्य अब चुनाव लड़ने के पुराने तरीकों को बदलना चाहते हैं। उन्होंने संगठन और सत्ता दोनों को कुछ ऐसी बातें बताई, जिसका अगले विधानसभा चुनाव पर सीधा असर पड़ेगा। अमित शाह चाहते हैं कि सरकार के जनहित के कामकाज को पार्टी के ग्रामीण कार्यकर्ताओं तक पहुंचाए, ताकि वे जमीनी स्तर तक उसे पहुंचा सके। इसके अलावा बूथ लेबल पर पार्टी की रणनीति क्या हो, बूथ डिजिटलाइजेशन और ऐसी बहुत सी बातों पर फोकस किया गया जिसका सीधा वास्ता अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव से है।  
     जहां तक आदिवासियों पर पार्टी की रणनीति को फोकस करने का मसला है, तो वो अमित शाह के कार्यक्रम में साफ़ नजर आया। भाषणों में गृह मंत्री ने मुख्यमंत्री के कामकाज की तारीफ की और राजस्व ग्राम वाले प्रयोग की सराहना की। उन्होंने कहा कि देश में ऐसा पहली बार किसी राज्य सरकार ने आदिवासियों को जंगल का मालिक बनाया। अमित शाह और शिवराज सिंह ने वन समितियों के सम्मेलन में हितग्राहियों को तेंदूपत्ता लाभांश का वितरित किया। भोपाल में आज जो हुआ और जो वादे किए गए, वो सब एक निर्धारित चुनाव रणनीति के तहत हुआ। इसकी शुरुआत छह महीने पहले इसी जंबूरी मैदान पर नरेंद्र मोदी ने जनजातीय सम्मेलन में शामिल होकर की थी। 
     जैसा कि सोचा गया था आदिवासियों के कुछ घोषणाएं भी की गई। तेंदूपत्ता तुड़ाई के अभी तक सौ गद्दी के 250 रुपए  दिए जाते थे, अब उसमें 50 रुपए की बढ़ोतरी की गई। मुख्यमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि ये जल, जमीन, जंगल सब आपके हैं। सरकार ने जंगल आपको सौंप दिए, वन विभाग सहयोग करेगा। जंगल की लकड़ी जितने में बिकेगी, उसका 20% हिस्सा आदिवासियों को मिलेगा। 
    अमित शाह के करीब दस घंटे के इस भोपाल दौरे का सरकार और संगठन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, अभी इसके स्पष्ट कयास लगाना आसान नहीं है। क्योंकि, इस दौरे से कई ऐसे संकेत मिले हैं, जिनके दूरगामी नतीजे सामने आ सकते हैं। लेकिन, ये दौरा मिशन 2023 और 2024 के लिए कई मामलों में महत्वपूर्ण है। चुनाव रणनीति के साथ ही पार्टी किन मुद्दों को आगे रखकर चुनाव लड़े, ये ज्यादा जरुरी है। परंतु, चुनाव की कमान किसके हाथ में होगी, पार्टी का अगला चेहरा कौन होगा यह सब बातें अभी भविष्य के गर्भ में है।  
चर्चा में रहा पोस्टर  
      कुछ दिनों से विधायक रामेश्वर शर्मा अपने पोस्टरों और बयानों को लेकर चर्चा में बने रहते हैं। अमित शाह के स्वागत में भी उन्होंने एक दिलचस्प पोस्‍टर लगाया, जो सोशल मीडिया पर भी वायरल हुआ। रामेश्वर शर्मा ने इसमें अमित शाह की तुलना शेर से की। जिसमें लिखा था 'भारत माता का लाल ,शेर आ रहा है भोपाल!' लेकिन, आज ये बात भी चर्चा में रही कि विधायक को इस पोस्टर को लेकर पार्टी के किसी बड़े पदाधिकारी से लताड़ भी पड़ी! सच्चाई क्या है ये तो सामने नहीं आया, पर रामेश्वर शर्मा किसी कार्यक्रम में नजर नहीं आए! 
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अमित शाह के बहाने आदिवासी वोटरों को रिझाने की कोशिश

- हेमंत पाल

    देश के गृह मंत्री और बीजेपी की चुनावी रणनीति के शिल्पकार अमित शाह 22 अप्रैल शुक्रवार को भोपाल आ रहे हैं। वे मुख्य रूप से यहाँ जंबूरी मैदान में तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन में शामिल होंगे। देखने और कहने में ये एक औपचारिक सरकारी कार्यक्रम है, पर इसके पीछे के राजनीतिक मंतव्य कुछ अलग हैं। इसके पीछे एक तयशुदा चुनावी रणनीति है। तेंदूपत्ता संग्राहक सम्मेलन इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिसमे देश की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता शामिल हों! लेकिन, यदि वे इसमें शामिल हो रहे हैं, तो इसके पीछे सिर्फ अगले विधानसभा में बीजेपी के लिए रास्ते के कांटे हटाना है। तेंदूपत्ता संग्रहण के काम से विंध्य और बुंदेलखंड के कुछ इलाकों के आदिवासी ही जुड़े हैं, जिन पर बीजेपी ने नजर गड़ा रखी है।      
    अमित शाह के इस कार्यक्रम को 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले आदिवासियों को लुभाने की एक बड़ी कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए कि 2018 के चुनाव में बीजेपी को बड़ी चोट आदिवासी सीटों से ही मिली थी, यही कारण था कि वो सत्ता पाने से चूक गई थी! बाद में जो हुआ, वो एक अलग कहानी है। बीजेपी नहीं चाहती कि उसे फिर आदिवासी वोटरों से कोई झटका मिले! इसलिए इस बड़े कार्यक्रम के जरिए वे आदिवासी वोटरों पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है। प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 87 विधानसभा सीटों पर आदिवासी वोट सीधा असर डालता हैं। 47 सीटें तो आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं ही! ये एक बड़ा आंकड़ा है, जो सरकार बनने या समीकरण बिगाड़ने में असर डालता है। 
   आदिवासी मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के नजरिए से गृह मंत्री अमित शाह के इस दौरे को इसीलिए गंभीरता से देखा जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश के मालवा-निमाड़, महाकौशल और विंध्य ऐसे इलाके हैं, जहां आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है। इसके अलावा बुंदेलखंड ऐसा इलाका है जहां तेंदूपत्ता संग्रहण के काम से आदिवासी समुदाय लगा है। भविष्य की राजनीति के हिसाब से देखा जाए, तो 2023 के चुनाव में जिस भी पार्टी को आदिवासी वर्ग का साथ मिलेगा, उसके लिए सत्ता की सीढ़ी आसान हो जाएगी। 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोटरों ने बीजेपी का साथ दिया था। यही कारण है कि तब बीजेपी ने 87 सीटों में से 59 सीटों पर जीत का झंडा लहराया था। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव में यह वर्ग बीजेपी से छिटक गया और उसे 87 में से सिर्फ 34 सीटों पर जीत मिली। इस बार बीजेपी कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। अमित शाह अपने इस दौरे से आदिवासियों को पार्टी से फिर जोड़ने के अभियान को आगे बढ़ाएंगे। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब अमित शाह आदिवासी वर्ग को यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि बीजेपी ही आदिवासी समुदाय की सच्ची हितेषी है। ऐसे में अमित शाह अपनी भोपाल यात्रा  दौरान सरकार की तरफ से कोई बड़ी घोषणा कर दें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसलिए कि यह पूरा आयोजन आदिवासियों पर ही फोकस है। 
    चुनाव रणनीति को हर स्तर से समझने वाले अमित शाह जानते हैं, कि चुनाव से पहले पार्टी कार्यकर्ताओं को भी तैयार करके उन्हें इलेक्शन मोड़ में लाना है। यही वजह है कि सात महीने में प्रदेश में यह उनका दूसरा दौरा है। वे पहले जबलपुर आए थे, अब भोपाल पहुंच रहे हैं। अमित शाह से पहले पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इंदौर आए थे। माना जा रहा है कि प्रदेश में बीजेपी पूरी तरह से खुद को चुनाव के लिए तैयार करना चाहती है। बीजेपी का इतिहास भी है कि वो हमेशा चुनाव के लिए कमर कसकर तैयार रहती है। किसी भी चुनाव में उतरने से पहले वो सारे समीकरण भी परखती है। निश्चित रूप से बीजेपी की नजर में 2018 के चुनाव का वो सच नजर आया होगा, जिसमें आदिवासियों की नाराजगी दिखाई दी थी। बीजेपी उनकी इसी नाराजगी को दूर करने और अंतर को भरने की कोशिश में है। बीजेपी में अमित शाह को संगठन की रणनीति का जानकार माना जाता है। 
जीत बरक़रार रखने की कोशिश 
   पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जो बड़ी जीत मिली, उसे अन्य राज्यों में भी बरक़रार रखना चाहती है। इसीलिए बीजेपी ने विधानसभा चुनावों के लिए अभी से कमर कस ली। 2023 के चुनाव को देखते हुए अमित शाह का ये दौरा काफी अहम है। इस बार मध्यप्रदेश में सत्ता पाने का सीधा मंत्र आदिवासियों को साधना है। पिछले साल नवंबर में नरेंद्र मोदी का इसी जंबूरी मैदान पर 'आदिवासी गौरव दिवस' में शामिल होना इसी चरण का पहला हिस्सा था। इस बीच मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी आदिवासियों को साधने का कोई मौका नहीं छोड़ा! भगोरिया मेलों में मुख्यमंत्री ने जमकर जश्न मनाया और आदिवासियों को खुश किया। अब इसे आगे बढ़ाने का काम अमित शाह करेंगे।    
आदिवासी वोटर क्यों अहम  
    मध्य प्रदेश में 43 वर्गों में बंटे हुए करीब 2 करोड़ आदिवासी वोटर हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 32 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं। लेकिन, 2018 के विधानसभा चुनाव हालात पलट गए और बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई! क्योंकि, बीजेपी के खाते में सिर्फ 16 सीट आई थीं। जबकि, कांग्रेस ने 30 सीटों सीट हासिल की थी। 2018 में कांग्रेस की 15 साल के बाद सत्ता वापसी में आदिवासी वोट बैंक को ही बड़ी वजह माना जा रहा। बीजेपी 2023 के विधानसभा में भी सत्ता में बने रहने के लिए आदिवासी समीकरण पर फोकस कर रही है। 
शिवराज ने भी कसर नहीं छोड़ी 
     आदिवासी राजनीति करने में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी पीछे नहीं रहे। इस बार के राज्य के बजट में भी आदिवासियों के लिए 26 हजार करोड़ का प्रावधान किया है। आदिवासियों के लिए प्रदेश में 'पेसा एक्ट' लागू किया। इंदौर में एक चौराहे का नाम टंट्या भील के नाम पर रखना भी उनके मिशन का ही हिस्सा था। 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का ऐलान भी किया गया। भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम भी गोंड रानी कमलापति के नाम पर रखा गया। होली से पहले भगोरिया के बहाने उन्होंने मालवा इलाके में चुनाव के लिए बिसात बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके बाद बड़वानी में आदिवासियों की रैली निकाली। सीधा सा मतलब है कि शिवराज सरकार आदिवासियों को अपने पक्ष में करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! इससे पहले पिछले साल 18 सितंबर को जबलपुर में आयोजित शहीदी दिवस पर भी अमित शाह शामिल हुए थे। अब अमित शाह का भोपाल दौरा इसी मिशन पर केंद्रित है।
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Monday, April 18, 2022

साहिर के गीतों की अपनी अलग ही दास्तान!


- हेमंत पाल
 
   मतौर पर फिल्मों में कहानी को आगे बढ़ाने के लिए कहानी के आधार पर गीत रचे जाते हैं। लेकिन, कुछ फिल्मी गीत ऐसे भी हुए जो खुद अपने आप में कहानी बन गए! फिल्मी दुनिया का दस्तूर है कि यहां गीत संगीत में अक्सर संगीतकारों की ही चलती है। कुछ गीतकारों को यह गवारा नहीं होता और न वे संगीतकार की इस परंपरा का पालन ही करते हैं। वे फिल्म की सिचुएशन और कहानी को ध्यान में रखकर गीत लिखते हैं, जिसे संगीत में ढालना संगीतकारों को कई बार मुश्किल काम लगता है। ऐसे गीतकारों में साहिर लुधियानवी भी थे, जिनकी पहले से लिखी नज्मों को फिल्मों में शामिल करना फिल्मकारों के लिए गर्व का विषय होता था। साहिर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के साथ बागी किस्म के शायर थे। उनकी नज्मों में मौजूदा हालात का ज्यादा जिक्र होता था। रेड लाइट एरिया की दुर्दशा से परेशान होकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को निशाना बनाते हुए एक नज़्म लिखी थी 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं'! इस नज़्म को कई फिल्मकारों ने पसंद तो किया, लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि इसका उपयोग कर सके। आखिर सच्चाई को बेपर्दा करने के लिए आमादा गुरुदत्त ने इसे 'प्यासा' में शामिल किया, जो सिचुएशन पर इतनी फिट बैठी थी, कि जवाहर लाल नेहरू वाला प्रसंग गौण हो गया था।
   शायराना मिजाज वाले साहिर रूमानी भी थे। उनके रोमांस का अंदाज भी निराला था। प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के साथ उनके रोमांस के चर्चे खूब चर्चित हुए। लेकिन, यह रोमांस किसी फिल्मी अंदाज वाला प्रेम नहीं था। इस प्रेम में वाचालता के बजाए खामोशी का अंश ज्यादा था। कई बार तो बादल घुमड़ घुमड़कर बिन बरसे चले जाते थे! लम्बी बहस और झगड़े के बाद दोनों एक-दूसरे से मुंह फेरकर भी बैठ जाते थे। साहिर रोने-धोने में यकीन नहीं रखते थे। वे अमृता प्रीतम से संबंध बिगड़ने पर उसे सुधारने के बजाए संबंध तोड़ देने तक पर आमदा हो जाते थे। ऐसा कई बार हुआ। कई बार उनके बीच अबोला हुआ महीनों तक एक दूसरे से दूर रहे, लेकिन फिर एक हो गए।  कहा जाता है ऐसे ही किसी मौके पर साहिर ने अमृता प्रीतम को सुनाते हुए एक नज़्म लिखी थी 'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।' लेकिन, साथ छोड़ने के बजाए अजनबी बनकर एक-दूसरे के सामने से गुजरने की उनकी भावना को इसके साथ जोड़ते हुए साहिर ने इसकी शुरूआत 'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' जैसी पंक्तियों से की थी। 
    जिन दिनों बीआर चोपड़ा 'गुमराह' पर काम कर रहे थे, उन दिनों प्रेम त्रिकोण पर कई फिल्में बन रही थी। इन सभी फिल्मों में एक ट्रेंड आम था कि एक प्रेमिका और दो प्रेमी जो आमतौर पर एक-दूसरे के दोस्त या परिचित होते थे। किसी पार्टी में एक साथ मिलते थे और इस सिचुएशन पर एक गीत होता था। इसमें वे अपनी अपनी भावनाओं को गीतों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाते थे। ऐसी ही भावनाओं को दर्शकों ने 'संगम' के गीत हर दिल जो प्यार करेगा और 'दिल ने फिर याद किया' के शीर्षक गीत में खूब पसंद किया। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए बीआर चोपड़ा ने भी 'गुमराह' में 'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों' को फिल्म के दो प्रेमियों अशोक कुमार और सुनील दत्त के साथ नायिका माला सिन्हा पर फिल्माने का विचार किया था।
   गीत की सिचुएशन एक पार्टी गीत के रूप में ही कल्पना की गई थी। जिसकी शुरुआत नायिका माला सिन्हा से होती है, जो इशारों-इशारों में अपने प्रेमी सुनील दत्त को आगाह करती कि 'न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज नजरों से न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों से न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नजरों से।' इन भावनाओं को व्यक्त करने के पीछे उसका डर यही है कि उसके पति अशोक कुमार की नजरें बहुत तेज है, जो किसी भी पल किसी भी हरकत से उसके अपने प्रेमी सुनील दत्त के साथ प्रेम संबंधों को पकड़ सकती है। सुनील दत्त जिन्होंने इस फिल्म में दिलफेंक प्रेमी के बजाए अपनी विवाहित प्रेमिका को दर्द देने वाले इंसान की भूमिका की थी। यह भूमिका ग्रे-शेड लिए थी। क्योंकि, वे एक विवाहित महिला के कदमों को बहकाने की कोशिश कर रहे थे। यह जानते हुए कि उनकी प्रेमिका अब पराई हो चुकी है। फिर भी वह उसे गुजरे पलों की मीठी यादों के जाल में फंसाने के लिए कहता है 'तुम्हें भी कोई उलझन रोकती होगी पेशकदमी से मुझे भी लोग कहते हैं कि यह जलवे पराए हैं।' फिल्म के कथानक के ताने-बाने को बीआर चोपड़ा ने कुछ ऐसे अंदाज में बुना था कि दर्शकों को तो नायिका और उसकी पूर्व प्रेमी के संबंधों के साथ उसके पति को उनके प्रेम संबंधों की जानकारी होती है। 
     परदे पर इन संबंधों को प्रस्तुत करने वाले किरदारों को इन संबंधों की जानकारी न होने का भ्रम भी रहता है। अपनी पत्नी और उसके प्रेमी के संबंधों की जानकारी होकर अनजान बनने की भूमिका में जान डालते हुए अशोक कुमार जब कहते हैं कि 'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।' एक तरह से इन पंक्तियों के दो अर्थ निकलते है। एक अर्थ तो खुद अशोक कुमार के लिए है, जो कहते हैं कि ऐसी पत्नी से निबाह मुश्किल है, इसलिए इस संबंध को मजबूरी मे ढोने बजाए छोड़ना बेहतर है। लेकिन, दूसरी तरफ वे अपनी पत्नी और उसके प्रेमी को आगाह भी करते हैं कि उनका प्रेम गुजरे जमाने की बात है। आज की हकीकत यह है कि सुनील दत्त की प्रेमिका माला सिन्हा अब उनकी पत्नी है, इसलिए उनके ताल्लुक नाजायज हैं। इसे आगे बढ़ाने के बजाए उस पर अंकुश लगाना ही बेहतर होगा।
   गीत की सिचुएशन और गायकी को देखते हुए पहले यह तय हुआ था कि माला सिन्हा वाली पंक्तियों को आशा भोंसले, सुनील दत्त वाले अंतरे को महेन्द्र कपूर और अशोक कुमार वाले हिस्से को मोहम्मद रफी आवाज देंगे। महेन्द्र कपूर इस निर्णय से बेहद खुश थे, कि उन्हें अपने गुरु मोहम्मद रफी के साथ गाने का मौका मिल रहा है। लेकिन, इससे उलट मोहम्मद रफी यह सोचकर परेशान थे, कि अपने गुरु के सामने गाते हुए महेन्द्र कपूर पर भारी दबाव होगा जिसका असर उनकी गायकी पर पड़ सकता है। लेकिन, संयोग से इस कश्मकश का रास्ता खुद-ब-खुद निकल आया। फिल्म के सहायक निर्देशक बीआर चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा को जब इस सिचुएशन और गीत की जानकारी मिली, तो वे थोड़ा हैरान हुए। इसका कारण यह था कि बीआर चोपड़ा इस फिल्म के साथ दर्शकों को यह संदेश देना चाहते थे कि विवाहित नारी के लिए उसका पति और उसका घर ही सब कुछ होता है। यदि पूर्व प्रेमी के साथ बिताए पलों और उसके बहकावे में अपनी गृहस्थी को कोई नारी दांव पर लगा देती है, तो उसे समाज में अच्छा नहीं माना जाता।
     विवाह के बाद नारी के जीवन में एक लक्ष्मण रेखा खिंच जाती है, जिसे पार करना उतनी ही बड़ी भूल माना जाता है जितनी बड़ी भूल माता-सीता ने लक्ष्मण रेखा पारकर रावण के हाथों अपहृत होकर की थी। जैसा कि गीत की सिचुएशन में अशोक कुमार पर ताल्लुक बोझ बन जाए, तो उसे छोडना अच्छा वाली पंक्तियां फिल्माई जाने वाली थी, जिससे यश चोपड़ा ने यह आशंका प्रकट की थी कि इसे सुनकर दर्शक यह अंदाज लगा लेंगे कि फिल्म के आखिर में अशोक कुमार बलिदान देते हुए माला सिन्हा का हाथ सुनील दत्त को सौंप देंगे, जो कि फिल्म की मूल भावना से एकदम विपरीत स्थिति थी। इससे भारतीय संस्कृति के विपरीत मानकर दर्शक ठुकरा सकते थे जिससे न तो दर्शकों तक विवाहित नारी के घर की लक्ष्मण रेखा वाला संदेश दर्शकों तक पहुंच पाता और न फिल्म सफल हो पाती।
   इस गीत को लेकर दोनों भाईयों और अख्तर उल इमान के बीच लम्बी चर्चा हुई। अंत में यह तय किया गया कि बजाए इसे माला सिन्हा, अशोक कुमार और सुनील दत्त तीनों पर फिल्माने के बजाए केवल सुनील दत्त पर फिल्माया जाए! इससे दर्शकों को यह अहसास होता रहे कि यह केवल पूर्व प्रेमी और प्रेमिका के बीच इशारों-इशारों में भावनाओं का आदान प्रदान हो रहा है। जैसा कि निर्माता ने दर्शकों के मन मस्तिष्क में छबि रची थी, उसके अनुरूप नायिका का पति उनके संबंधों से अभी भी अनजान है। निर्माता-निर्देशक के बीच यह चर्चा कामयाब रही और यह गीत भी उतना ही कामयाब रहा और दर्शक यह स्वीकारते रहे कि अपने पति और उसके प्रेमी के पूर्व संबंधों को लेकर नायिका का पति गुमराह हो रहा है।
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Friday, April 8, 2022

'ऑस्कर' की आस में आखिर कब तक इंतजार!

- हेमंत पाल 

    भारत की फिल्मों की दुनियाभर में धाक है! लेकिन, बरसों से दर्शकों का मनोरंजन करने वाली भारतीय फ़िल्में ऑस्कर पाने से आखिर क्यों चूक जाती है। क्या इसका कारण सही फिल्मों का चयन न होना, ठीक से लॉबिंग न होना है या भारत में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फ़िल्में न बनना! कारण जो भी हो, इससे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की साख पर उंगली उठ रही है। इस बार भी कैलिफोर्निया के लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थिएटर में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फीचर की कैटेगरी में 'द समर ऑफ सोल' को ऑस्कर मिला। भारतीय फिल्म 'राइटिंग विद फायर' अवार्ड जीतने में नाकामयाब रही। ये पहली बार नहीं हुआ, बरसों से हो रहा है। 1956 में जब से ‘बेस्ट फॉरेन लेंग्वेज कैटेगरी' वाली फिल्मों को अवार्ड देने की शुरुआत की गई, तभी से भारत का रिकॉर्ड ख़राब रहा। भारत से भेजी जाने वाली फ़िल्में हमेशा विवादों से घिरी रही। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हम अभी तक समझ ही नहीं सके कि ऑस्कर पाने वाली फ़िल्में कैसी होती है! 
    हमारे यहां कभी राजनीतिक कारणों से तो कभी किसी को खुश करने के लिए फिल्मों का चयन किया जाता रहा है। इसका सबसे सटीक नमूना है 1996 में इंडियन, 1998 में 'जींस' और 2019 फिल्म 'गली बॉय' को अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म कैटेगरी में भारत से भेजा जाना। क्या इन फिल्मों का स्तर इस लायक था कि इन्हें ऑस्कर में भेजा जाता! ये आज भी रहस्य है, कि इन फिल्मों को किसने और क्यों चुना! 2007 में भी 'एकलव्य : द रॉयल गार्ड' फिल्म को लेकर भारी बवाल मचा था। जब 'बर्फी' फिल्म का चुनाव ऑस्कर के लिए किया गया, तब भी बहुत हल्ला मचा था। 'बर्फी' के बारे में कहा गया था कि इस फिल्म के कई सीन विदेशी फिल्मों की साफ-साफ़ नक़ल है। 'न्यूटन' फिल्म पर आरोप लगे थे कि कि ये एक ईरानी फिल्म 'सीक्रेट बैलट' की नक़ल है। 
   1957 से अभी तक भारतीय फिल्में ‘बेस्ट फॉरेन लेंग्वेज फिल्म’ श्रेणी के लिए भेजी जा रही हैं। लेकिन, केवल तीन बार हमारी फिल्में ऑस्कर के अंतिम पांच दावेदारों में जगह बना सकी! मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे (1988) और लगान (2001) ही वे भाग्यशाली फ़िल्में रही, जो अंतिम पांच तक पहुंची, पर जीत नहीं सकी। आजतक किसी भारतीय फिल्म ने ऑस्कर नहीं जीता! केवल 'गांधी' (1982) और ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ (2008) जैसी दो विदेशी फिल्मों के लिए भानु अथैया, गुलजार, एआर रहमान और रसूल पुकुट्टी जैसे लोगों को अलग-अलग विधाओं में ऑस्कर से नवाजा जरूर गया। इसके अलावा सत्यजीत रे को 1992 में ऑस्कर का 'लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' दिया गया। लेकिन, जो सम्मान किसी भारतीय फिल्म को मिलना चाहिए, उससे अभी भारतीय फिल्मकार अछूते हैं। 'फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया' को सही फिल्म का चयन न करने, पक्षपात करने और राजनीति से प्रभावित होने के लिए उंगली उठाई जाती रही है। कहा जाता है कि हमेशा ही भेजी जाने वाली फिल्म के चयन में देर की जाती है। इस कारण इन फिल्मों को ऑस्कर के अनुरूप तैयारी का मौका नहीं मिलता। 
     जहां तक पक्षपात की बात है तो कई बार ये कारण सही भी नजर आए। 2013 में जब रितेश बत्रा की 'द लंच बॉक्स' के ऑस्कर में भेजने पर अंतिम पांच फिल्मों में आसानी से जगह बनाने की उम्मीद की जा रही थी, तब गुजराती फिल्म 'द गुड रोड' जैसी दोयम दर्जे की फिल्म को भेजा गया। 2012 में 'गैंग्स ऑफ वासेपुर और 'पान सिंह तोमर' जैसी फ़िल्में छोड़कर ‘बर्फी’ को चुना गया। 2007 में 'तारे जमीं पर' और 'चक दे इंडिया' जैसी बेहतरीन फिल्मों को नजरअंदाज करके विधु विनोद चोपड़ा की 'एकलव्य : द रॉयल गार्ड' भेजकर अपनी नासमझी का परिचय दिया। हद तो तब हुई, जब 1998 में तो ऐश्वर्या राय की 'जींस' को ऑस्कर में भेज दिया। इसके अलावा ऑस्कर अवार्ड के लिए कमजोर लॉबिंग भी एक कारण है जिस कारण अभी हमारी फ़िल्में ऑस्कर की ट्राफी को छू भी सकी। जब भी हमने अच्छी फिल्में भेजीं, ऑस्कर ने उन्हें भी ठुकरा दिया। न्यूटन, विसरनई, कोर्ट, विलेज रॉकस्टार्स के अलावा ‘रंग दे बसंती’ (2006), ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) से लेकर 'गाइड' (1965) और अपू ट्रायोलॉजी की तीसरी फिल्म द वर्ल्ड ऑफ अपू' (1959) तक ऐसा कई-कई बार होता रहा! फिर आखिर चूक कहां होती है, ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब खोजा जाना है! 
    ऑस्कर में भारत की सबसे सशक्त दावेदारी आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' की रही। उस साल ये फिल्म ऑस्कर जीतते-जीतते रह गई। कोई भारतीय फिल्म इस कैटेगरी में अवार्ड नहीं जीत पाया! इसके पीछे क्या हमारी चयन प्रक्रिया में खोट है! क्या किसी खास मूड की फिल्म का ही चयन किया जाता रहा है! यदि ऐसा नहीं है, तो क्या फिर फिल्म के चयन में कोई पक्षपात किया जाता है! इन सवालों का जवाब शायद किसी के पास नहीं मिलेगा! 'लगान' से पहले 'मदर इंडिया' और 'सलाम बॉम्बे' का चयन भी इसी कैटेगरी के लिए हुआ था। लेकिन, एनवक्त पर ये फ़िल्में बाहर हो गई! भारत की तरफ से भेजी गई पहली फिल्म 'मदर इंडिया' को नामांकन मिला। यह फिल्म विधवा औरत की मुसीबत, गरीबी में अपने दो बच्चों का पालन करने वाली पीड़ित भारतीय नारी की परिभाषा तय करती हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी से नरगिस ने राधा की इस भूमिका में जान डाल दी थी। अपनी अदाकारी के लिए नरगिस को तब 'कार्लोवी वेरी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल' में भी 'बेस्ट एक्ट्रेस' का अवॉर्ड मिला था। लेकिन, यह फ़िल्म 'ऑस्कर' से वंचित रही।  
     भारत से जाने-माने फ़िल्मकारों की भी फ़िल्में भेजी गई! पर, किसी को अवार्ड के लायक नहीं समझा गया। इनमें 1959 में सत्यजीत राय की 'अपूर्व संसार' और 1962 में गुरुदत्त की 'साहिब बीवी और गुलाम' को भी भेजा गया था! लेकिन, इन्हें भी नकार दिया गया। देश के बंटवारे पर 1974 में बनी एमएस सथ्यू की फिल्म 'गर्म हवा' और इसके बाद समानांतर सिनेमा के प्रतिनिधि श्याम बेनेगल की 'मंथन' (1977) को भी नामांकन से वंचित रहना पड़ा था! 1965 में देव आनंद की 'गाइड' को भी 'ऑस्कर' ने नकार दिया! जबकि, इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सर्वकालीन लोकप्रिय फिल्म माना गया। इसके बाद कला और संगीत-नृत्य से ताल्लुक रखने वाली लोकप्रिय भारतीय फ़िल्मे 'ऑस्कर' के लिए भेजने का विचार आया! इसके तहत वैजयंती माला अभिनीत 'आम्रपाली' (1966) से डिंपल कपाड़िया की 'सागर' (1985) और बाद में संजय लीला भंसाली की 'देवदास' (2000) भेजी गई, पर कोई नतीजा नहीं निकला। 
   ऑस्कर में अवार्ड पाने की प्रक्रिया बेहद मुश्किल है, इस बात से इंकार नहीं! वास्तव में यह प्रक्रिया भारतीय फिल्मों के लिए आसान भी नहीं। फिल्म के अमेरिका पहुंचने के बाद उसे एकेडमी अवॉर्ड्स के ज्यूरी सदस्यों को अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ दिखाना होता है। बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज श्रेणी में दुनियाभर से आईं कई फिल्मों में से पहले चरण में 9 फिल्में शॉर्टलिस्ट होती हैं, दूसरे चरण में इनमें अंतिम पांच चुनी जाती है! अंतिम चयन इन्हीं पांच में से होता है। ऑस्कर पुरस्कार देने के लिए 6 हज़ार ज्यूरी सदस्य 24 श्रेणियों में बंटी फिल्मों को देखकर वोटिंग करते हैं। यह पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल होती है, कि इसके लिए एकेडमी पिछले 80 से ज्यादा सालों से प्राइस वाटरहाउस कूपर्स (पीडब्लूसी) नामक अकाउंटिंग फर्म और उनके अकाउंटेंट्स की सेवाएं ले रही है!
     यह सुझाव भी सामने आया कि हमारी आंचलिक फिल्मों के विषय, कथानक और निर्देशन स्वाभाविकता की दृष्टि से ज्यादा बेहतर होता हैं। इस दृष्टिकोण से अच्छे आंचलिक सिनेमा का चयन किया जाना शुरू हुआ। हालांकि, सत्यजीत रॉय की समकालीन बंगाली फिल्म 'महानगर' (1963) का झुकाव भी इसी पर केंद्रित था। इसके बाद शिवाजी गणेशन की तमिल पारिवारिक 'देवा मगन' (1969), विधवा और ऑटिस्टिक व्यक्ति की तेलुगु संवेदनशील 'स्वाती मुथ्यम' (1985) को भेजा गया, पर कोई अंतर नहीं आया! मानसिक रूप से विकलांग बच्ची पर मणिरत्नम की तमिल फिल्म 'अंजलि' (1990), कैंसर ग्रस्त पोते की दृष्टि जाने से पहले उसे जीवन की रंगीनियत दिखाने वाले बुजुर्ग की सत्यकथा पर बनी मराठी फिल्म 'श्वास' (2004) और मलयालम सामाजिक फिल्म 'एडमिंटे माकन अबू' (2011) भी 'ऑस्कर' में भेजी, पर निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में 'द गुड रोड' जैसी दोयम दर्जे की गुजराती फ़िल्म का 'ऑस्कर' के लिए भेजा जाना, इसी का एक नतीजा था। कई बार आंचलिक विषयों के प्रति फिल्मकारों का झुकाव भी नजर आया। मलयालम फिल्म 'जल्लिकट्टू' (2019) का भेजा जाना इसी का संकेत था। जहां चुनाव होने वाले हों, उस इलाके की भाषाई फिल्म को भेजने का फैसला सीधा-सीधा राजनीति ही तो है। तमिल फिल्म ‘कुझांगल’ के बारे में भी यही नजरिया था! इन सारी सच्चाइयों का नतीजा ये है कि हमारे यहाँ अभी भी अच्छी फिल्मों की कमी है, जो ऑस्कर जीतकर ला सके!  
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Tuesday, April 5, 2022

70 पार बीजेपी नेताओं और नेता पुत्रों को टिकट नहीं!

- हेमंत पाल

     मध्य प्रदेश में अगले साल (2023) होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा का चेहरा बहुत कुछ बदला हुआ दिखाई दे, तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। एक तो 70 पार के नेताओं को पार्टी टिकट नहीं देगी, इसलिए वे चुनाव मैदान में दिखाई नहीं देंगे! दूसरा, नेताओं को बेटों को चुनाव मैदान में नहीं उतारा जाएगा। क्योंकि, नरेंद्र मोदी ने इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिए कि पार्टी अब वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देना नहीं चाहती। इन दो फार्मूलों के बाद कई सीटें खाली हो जाएगी और चुनाव में नए चेहरे दिखाई देंगे। यह भी संभव है कि पार्टी कुछ नेताओं के विधायक बेटों की भी छुट्टी कर दे।  
     भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि पार्टी ने अगले विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कुछ फार्मूले तय करना शुरू कर दिए। पार्टी को ये निर्देश दिल्ली दरबार से मिले हैं और इन पर सख्ती से अमल लाया जाएगा। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से भी ये स्पष्ट हो गया कि अब देश की राजनीति में 70 से ज्यादा उम्र के नेता तेजी से घट रहे हैं। 5 राज्यों की 690 विधानसभा सीटों के परिणामों में 70 से ज्यादा उम्र वाले सिर्फ 19 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। पार्टी के कई ऐसे नेता हैं जो 70 प्लस वाले फॉर्मूले में फिट नहीं बैठ रहे। उन्हें अगले चुनाव का टिकट मिलने में परेशानी आ सकती है और इन्हें चुनाव मैदान में उतारने से पार्टी परहेज कर सकती है। 2023 के विधानसभा चुनाव में विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम, दो कैबिनेट मंत्री गोपाल भार्गव और बिसाहूलाल सिंह और पार्टी के 13-14 विधायक 70 वर्ष की उम्र पूरी कर लेंगे। इसलिए इन्हें टिकट नहीं दिया जाना तय है। ये दोनों शिवराज सरकार की कैबिनेट में उम्रदराज मंत्री हैं। ये आगामी चुनाव में उतरने के लिए टिकट की मांग कर सकते हैं।
   भाजपा में कई ऐसे नेता हैं, जो पिछला विधानसभा चुनाव हार गए थे या उन्हें टिकट नहीं मिला। लेकिन, फिर भी अगले चुनाव में दावेदारी के लिए अपने इलाकों में सक्रिय हैं। इनमें उमाशंकर गुप्ता, रामकृष्ण कुसमारिया, हिम्मत कोठारी और रुस्तम सिंह भी अपने दावे ठोंक सकते हैं। जबकि, विधानसभा चुनाव तक इन सभी की उम्र 70 पार हो जाएगी। पिछले दिनों हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने यही फार्मूला लागू किया था और इसके अच्छे नतीजे भी सामने आए। यही कारण है कि अब मप्र के नेताओं को चुनावी मैदान से बाहर किए जाने का डर सताने लगा। पार्टी इन्हें चुनाव लड़ने से अयोग्य बता सकती है। इसलिए भी कि 2018 के चुनाव में बूढ़े नेताओं में 9 में से 4 ही चुनाव जीते थे।
वंशवाद रोकने की भी पहल
    भाजपा 70 प्लस के नेताओं के अलावा नेता पुत्रों को भी चुनाव मैदान से किनारे करना चाहती है। उत्तर प्रदेश में भी पार्टी ने यही किया। नरेंद्र मोदी ने भी इस बात के संकेत दिए थे कि नेताओं के टिकट मैंने काटे थे। मोदी के पार्टी में परिवारवाद को लेकर अपना रुख स्पष्ट करने के बाद राजनीति के गलियारों में खलबली है। कारण कि भाजपा में वंशवाद की बेल काफी लंबी है। मध्यप्रदेश में तो ऐसे कई नाम हैं। लेकिन, यदि मोदी फॉर्मूला सही ढंग से लागू किया गया, तो भाजपा के कई बड़े नेताओं और कई नेताओं के बेटों का राजनीतिक भविष्य दांव पर लग सकता है। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बेटे कार्तिकेय को भी उत्तराधिकारी माना रहा, वो भी इस दायरे में आ जाएं।  
    मोदी के इस फार्मूले को लेकर पार्टी में विरोध भी है, पर कोई जुबान खोलने की हिम्मत नहीं कर रहा। कोई हिम्मत कर भी नहीं सकता। वास्तव में ये फार्मूला लागू करने का मकसद पार्टी के उन नए चेहरों को मौका देना और आगे लाना है जो  बड़े नेताओं के आभामंडल और उनके परिवार के कारण उभर नहीं पाते! जब 70 पार नेता हटेंगे और पार्टी को नेता पुत्रों से मुक्ति मिलेगी, तो नए चेहरों की नेतृत्व क्षमता सामने आएगी।
    भाजपा इस मसले पर कितनी सख्त है, इसका पता इस बात से लगता है कि केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को पार्टी ने उत्तर प्रदेश में टिकट तो दिया, वे सर्वाधिक वोटों से जीते भी पर उसे मंत्री नहीं बनाया गया! अब यही सख्ती मध्यप्रदेश के 2023 विधानसभा चुनाव में भी की जाएगी, क्योंकि, यहाँ नेता पुत्रों की बाढ़ आई हुई है और दो दर्जन से ज्यादा बड़े नेताओं के बेटे टिकट के लिए लाइन लगाकर खड़े हैं। लेकिन, यदि मोदी फॉर्मूले को सही ढंग से लागू क्या गया तो इन सभी की दावेदारी को पार्टी किनारे कर सकती है। अभी ऐसे और भी कई टिकट फॉर्मूले सामने आने वाले हैं, इंतजार कीजिए।  
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Friday, April 1, 2022

अमिताभ ने मान लिया, अभिषेक ही उनके असली उत्तराधिकारी

- हेमंत पाल

    मिताभ बच्चन को सदी का अभिनेता कहा और माना जाता है। वे तीन पीढ़ियों के दर्शकों के पसंदीदा अभिनेता रहे। लेकिन, उनका बेटा अभिषेक बच्चन उनकी तरह अपनी पहचान नहीं बना सका। पिता की ही तरह कद-काठी के बावजूद उसके अभिनय में वो कशिश नहीं, जो दर्शकों के दिलों में उतर जाए। यदि अभिषेक के साथ अमिताभ का नाम नहीं जुड़ा होता तो संभव है कि वे ज्यादा सफल होते। लेकिन, अमिताभ का बेटा होने से दर्शक उनमें अमिताभ को ढूंढते हैं, जो उन्हें नहीं मिलता। अभिषेक की जिन फिल्मों को सफलता मिली, उसमें कोई एक्स-फैक्टर था, जो सफलता का कारण बना! यह भी देखा गया कि अमिताभ ने कभी अभिषेक के लिए सीढ़ी बनने की कोशिश नहीं की! शायद पहली बार अभिषेक बच्चन की फिल्म 'दसवीं' का ट्रेलर रिलीज होने के बाद उनके अमिताभ बच्चन ने एक ट्वीट किया, जो काफी चर्चा में आया! इस ट्वीट में उन्होंने अभिषेक की तारीफ की।
     अमिताभ ने ट्वीट में अपने पिता हरिवंश राय बच्चन की लिखी लाइनें लिखते हुए कहा 'मेरे बेटे, बेटे होने से मेरे उत्तराधिकारी नहीं होंगे जो मेरे उत्तराधिकारी होंगे वो मेरे बेटे होंगे ... हरिवंश राय बच्चन। अभिषेक तुम मेरे उत्तराधिकारी हो, बस कह दिया तो कह दिया।' उन्होंने 'दसवीं' का ट्रेलर भी साथ में पोस्ट किया। अमिताभ के इस ट्वीट पर अभिषेक का जवाब था 'लव यू पा। हमेशा और हमेशा।' अमिताभ ने अपने ब्लॉग में मन की बातें लिखी हैं। क्योंकि, किसी भी पिता के लिए अपने बच्चों की तरक्की और अपने नाम को रोशन करते देखना खुशी का पल होता है। अभिषेक का पिता कहलाना खुशी देता है। मैं बहुत गर्व से कहता हूं कि अभिषेक मेरे उत्तराधिकारी हैं। अलग रोल करने के लिए उनकी लगातार कोशिशें और इन्हें निभाना सिर्फ चैलेंज ही नहीं, बल्कि सिनेमा की दुनिया को आइना दिखाने जैसा है।
      विरासत सिर्फ धन, दौलत और कारोबार की ही नहीं होती! विरासत में बहुत कुछ शामिल होता है। बड़े कारोबारी घरानों में तो पिता पहले ही अपनी विरासत के उत्तराधिकारी का एलान कर देते हैं। लेकिन, धन, दौलत और कारोबार के अलावा भी एक विरासत होती है, जिसे बाद में संभाला और संवारा जाता है! ये होती है पद, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की विरासत। फ़िल्मी दुनिया में ये अभिनय की विरासत होती है जिसे बेटा या बेटी संभालते हैं। उस स्थिति में जब पिता अपने ज़माने का बड़ा अभिनेता हो। परदे की दुनिया में ऐसे कई उदाहरण है, जब बड़े सितारों के बेटे अपने पिता की अभिनय विरासत को नहीं संभाल सके और भीड़ में खो गए। ये फिल्म इतिहास का अहम् हिस्सा है। क्योंकि, ऐसे कलाकारों की कमी नहीं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में अभिनय की ऊंचाई को छुआ, पर बाद में उनका बेटा पिता की पहचान तक को बरक़रार नहीं रख सका! ऐसे उदाहरण कम है, जब कोई अभिनेता बेटा अपने पिता से भी आगे निकला हो! याद किया जाए तो संजय दत्त, ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ ही संभवतः ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपने पिता की पहचान को आगे बढ़ाया!  
    फिल्मों में जो अभिनेता अपने करियर में बहुत ज्यादा ऊंचाई नहीं पा सके, पर उनकी अभिनय क्षमता की हमेशा तारीफ हुई, उनमें एक जैकी श्रॉफ भी है। उनकी पहली फिल्म 'हीरो' ने सफलता के नए आयाम गढ़े थे। उनकी पहचान रोमांटिक या दूसरे दर्जे के नायक की रही! वे उन नायकों में नहीं रहे जिनके अकेले के दम पर फिल्म सफल हो! लेकिन, उनका बेटा टाइगर श्रॉफ आज उनसे कहीं ज्यादा ऊंचाई पर है। अपनी पहली फिल्म 'हीरोपंती' से उसने सफलता की जो सीढ़ियां चढ़ना शुरू की, वो आज भी जारी है। आज के एक्शन हीरो में उसकी अलग ही पहचान है। अपने 8 साल के फिल्म करियर में 'टाइगर' ने वो ऊंचाई पा ली, जो हर किसी के लिए आसान नहीं होती। मार्शल आर्ट्स और डांस में तो दर्शक उसके मुरीद हैं। टाइगर को उन चंद नायकों में गिना जा सकता है, जिन्होंने अपने पिता की अभिनय विरासत को संभाला और उसे इतना आगे बढ़ाया कि उनके पिता को भी गर्व है। जैकी ने एक बार कहा भी था कि मैंने जैसा उसका नाम रखा, वो अब उसी के अनुरूप तेजी से काम करते हुए अपना नाम भी कमा रहा है।  
     पिता की अभिनय विरासत को जिन अभिनेताओं ने आगे बढ़ाया, उनमें एक ऋतिक रोशन भी है। फ़िल्मी दुनिया में उनके पिता राकेश रोशन को कभी बड़ा कलाकार नहीं माना गया। उनका करियर भी लम्बा नहीं चला। वे अभिनेता से ज्यादा फिल्मकार के रूप में सफल हुए। परन्तु, बेटे ऋतिक रोशन ने एक्शन और डांस में जो कमाल किया उससे उनको पसंद करने वाला अलग ही दर्शक वर्ग बना! अपनी पहली फिल्म 'कहो ना प्यार है' की सफलता से वे हवा में नहीं उड़े और चुनिंदा फ़िल्में करते हुए आगे बढ़ते रहे। वे अपनी तरह के अलग अभिनेता है। बेटे के करियर को लेकर राकेश रोशन ने कभी प्रतिक्रिया नहीं दी, पर 'वार' फिल्म की सफलता से वे अभिभूत हो गए थे। उन्होंने कहा कि इस फिल्म ने अपना गोल हासिल कर लिया। राकेश रोशन ने फिल्म में ऋतिक रोशन के काम को देखने के बाद कहा था मुझे ऋतिक पर गर्व है। उसने अपनी सभी फिल्मों में अलग-अलग तरह के रोल अदा किए और उन्हें शिद्दत से निभाया। वो अपने किसी भी किरदार में कभी ऐसा नहीं लगा कि वो उसके लिए नहीं बना। बल्कि वो हर फिल्म के साथ सभी को हैरान करता हैं। इतने छोटे करियर में किसी और अभिनेता ने ऐसे रोल नहीं निभाए हैं।
    सुनील दत्त बॉलीवुड सिनेमा के चहेते कलाकारों में एक रहे हैं। उनके बेटे संजय दत्त ने 'रॉकी' फिल्म से बॉलीवुड में डेब्यू किया था। इस फिल्म में उनकी अदाकारी को दर्शकों ने खूब पसंद किया। सुनील दत्त उन कलाकारों में रहे जो अपने बेटे संजय को एक सफल अभिनेता बनाने में कामयाब हुए। सुनील दत्त अपने समय काल के बड़े कलाकार थे। उसी तरह संजय दत्त को भी सिनेमा में अपने बेहतरीन अभिनय की वजह से जाना जाता है। वे अभिनेता के साथ फिल्म निर्माता भी हैं। 1993 में हुए मुंबई बम ब्लास्ट की वजह से वे खासे चर्चा में रहे। उन पर गैर कानूनी तरीके से अपने पास हथियार रखने का आरोप भी लगा, वे जेल भी गए पर उनके करियर पर असर नहीं आया। 
      संजय दत्त ने लगभग हर शैली की फिल्मों में काम किया। चाहे एक्शन फिल्म हो, काॅमेडी फिल्म हो या रोमांस। संजय दत्त का करियर बहुत उतार-चढ़ाव से भरा रहा। बाल कलाकार के रूप में संजय दत्त को पहली बार 'रेशमा और शेरा' में देखा गया था। लेकिन, अभिनेता के रूप में उनकी पहली फिल्म ‘राॅकी’ थी, जो उस समय की सुपरहिट फिल्म रही। इसके बाद उन्होंने कई सुपरहिट फिल्में दी। लेकिन, ‘खलनायक’ में निभाया गया उनका ‘बल्लू’ का किरदार आज भी ताजा है। ‘वास्तव’ में उनके अभिनय को काफी सराहा गया था।
    धर्मेंद्र ने भी लम्बे समय तक दर्शकों के दिलों पर राज किया, पर उनके दोनों बेटे कुछ ख़ास नहीं कर सके। सनी देओल की कुछ फ़िल्में जरूर अच्छी चली, पर वे टाइप्ड होकर रह गए। जबकि, धर्मेंद्र के छोटे बेटे बॉबी देओल को असफल अभिनेता ही कहा जाएगा। ओटीटी पर 'आश्रम' में जरूर उनकी अभिनय प्रतिभा को पहचाना गया, पर अब बहुत देर हो चुकी है। यही कहानी सफल अभिनेता अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर की भी है। हर्षवर्धन अभिनय में हाथ आजमा चुके हैं। लेकिन, वे अपने पिता और बहन की तरह फिल्मी दुनिया में नाम नहीं कमा सके। उनकी पहली फिल्म 'मिर्जया' में उनके अभिनय की तारीफ तो हुई, लेकिन फिल्म नहीं चली। इसके बाद उन्हें 'भावेश जोशी सुपरहीरो' में देखा गया, पर इसका भी बुरा हाल हुआ। मनोज कुमार के बेटे विशाल और कुणाल दोनों ही एक्टिंग की दुनिया में फ्लॉप रहे। मिथुन चक्रवर्ती भी अपने बेटों का करियर बॉलीवुड में बनाना चाहते थे। लेकिन, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई। मिथुन के बेटे महाक्षय (मिमोह) ने 2008 में फिल्म 'जिम्मी' से दस्तक दी थी। लेकिन, फिल्म बड़ी फ्लॉप साबित हुई। इसके बाद हांटेड, रॉकी और इश्कदारियां और कॉमेडी फिल्म 'तुक्का फिट' में भी उन्हें देखा गया था। इनमें से एक भी फिल्म नहीं चल सकी। अपने ज़माने के सफल हीरो फिरोज खान के बेटे फरदीन खान भी उन्हीं फ्लॉप हीरो में हैं, जिन्होंने अपने पिता की अभिनय विरासत को बर्बाद कर दिया। विनोद खन्ना को नायक और खलनायक दोनों रोल में लोगों ने देखा, पर उनके दोनों बेटे अक्षय और राहुल परदे पर नहीं चल सके। अक्षय ने तो कुछ फिल्मों में अच्छा काम किया, किन्तु राहुल को लोग आज भी नहीं जानते।
     राज कपूर ने भी अपने तीनों बेटों ऋषि कपूर, रणधीर कपूर और राजीव कपूर का करियर बनाने के लिए मेहनत की। पर, इन तीनों बेटों में ऋषि कपूर के हिस्से में सबसे ज्यादा हिट फिल्में रही। राजीव कपूर का एक्टिंग करियर तो असफल ही था। जबकि, रणधीर कपूर ने जरूर कुछ हिट फ़िल्में दी, पर उनका करियर ज्यादा लम्बा नहीं चला। जबकि, ऋषि कपूर का बेटा रणवीर कपूर ने अपनी पहचान तो बनाई, पर ऋषि की तरह ऊंचाई  वक़्त लगेगा। राजेंद्र कुमार 60 के दशक के हिट कलाकार रहे हैं। उनके फिल्म करियर में कई सुपरहिट फिल्में दर्ज है। लेकिन, उनका बेटा सिर्फ एक हिट देकर गुमनामी में खो गया। कुमार गौरव का करियर फ्लॉप रहा। 1981 में आई पहली फिल्म 'लव स्टोरी' ने कमाल किया था, पर उसके बाद लगातार फ्लॉप होती फिल्मों ने उन्हें भुला दिया। हिंदी फ़िल्मी दुनिया के स्टार रहे देव आनंद का बेटा भी पिता कि विरासत को नहीं संभाल सका। सुनील आनंद ने कई फिल्मों में काम किया, लेकिन दर्शकों ने उन्हें नहीं स्वीकारा! 
   जितेंद्र भी अपने समय के सफल कलाकार थे। 80 के दशक में उन्होंने एक से बढ़कर एक हिट फिल्में दी। बाद में जितेंद्र के बेटे तुषार कपूर ने भी फिल्मों में काम किया, पर उनका एक्टिंग करियर सफल नहीं रहा। तुषार ने कई फिल्मों में काम किया है, लेकिन कभी अकेले के दम पर कोई हिट फिल्म नहीं दी। सनी देओल ने भी बेटे करण देओल के लिए मेहनत कर रहे हैं। उन्होंने बेटे के लिए फिल्म 'पल पल दिल के पास' को डायरेक्ट भी किया। इसके बावजूद करण में ऐसा कोई जादू नहीं है, जो दर्शकों को बांध सके। यह फेहरिस्त अभी पूरी नहीं हुई! यही स्थिति खलनायकों और नायिकाओं की भी है। किसी भी नामचीन खलनायक और नायिका के बेटे और बेटी अपनी जगह नहीं बना सके।
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