Sunday, August 28, 2016

नया नहीं है रीमेक और सीक्‍वल का दौर

हेमंत पाल 

  सिनेमा की दुनिया में 'हिट' से बड़ी ख़ुशी और कोई नहीं होती! इस 'हिट' को स्थाई बनाने के लिए कई तरह प्रयास किए जाते हैं। दर्शकों को वही स्टोरी नए कलेवर में दिखाई जाती है या आगे बढ़ाकर परोसी जाती है! ये उसी फॉर्मूले को फिर से कैश करने का तरीका है। ये चलन नया भले दिखाई देता हो, पर है नहीं! जब से सिनेमा की शुरूआत हुई, तभी से फिल्मों के रीमेक और सीक्वल बन रहे हैं। लेकिन, पिछले दो दशकों से इस ट्रेंड ने ज्यादा जोर पकड़ा! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से एक ही स्टोरी को फिर से बनाने या उसके आगे की कहानी रचकर उस पर फिल्म बनाई जाती रही है। 1913 में दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिशचंद्र' बनाई थी। कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि 1917 में इस फिल्म का इसी नाम से रीमेक बना था। 1928 में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘देवदास‘ पर पहली बार नरेश मित्रा ने फिल्म बनाई। फिर इस पर 1935 में प्रथमेश बरूआ ने भी फिल्म बनाई। 1955 में बिमल रॉय ने एक बार फिर ‘देवदास' बनाई। इस फिल्म को नए तरीके से बनाने का सिलसिला थमा नहीं है। इस उपन्यास को अब तक करीब 11 बार बनाया जा चुका है। 2002 में संजय लीला भंसाली ने भी शाहरुख़ खान, माधुरी दीक्षित और ऐश्वर्या रॉय को लेकर बड़े केनवस पर ‘देवदास‘ बनाई! ‘देवदास' का मोह यही खत्म नहीं हुआ। अनुराग कश्यप ने ‘देवदास' को कुछ नए तरीके से 'देव-डी' के नाम से बनाया! 
   रीमेक तो दशकों से बनती रही हैं, पर सीक्वल का चलन ज्यादा पुराना नहीं है। कुछ निर्माताओं ने सीक्वेल बनाने की हिम्मत जुटाई! सन 1986 में रिलीज हुई ‘नगीना‘ का 1989 में ‘निगाहें‘ के नाम से सीक्वल बना। 1999 में आई ‘वास्तव‘ को 2002 में 'हथियार' नाम से बनाया गया! सीक्वल और रीमेक की बॉलीवुड में शुरू से ही दिखाई पड़ रहा है लेकिन पिछले दो दशकों में ये ट्रेंड हॉलीवुड से ज्यादा प्रभावित दिख रहा है। हॉलीवुड के दर्शक सीक्वल फिल्में देखने के आदी है। इसीलिए वहां सीक्वल और रीमेक फिल्में हिट भी होती है। हमारे यहाँ भी हॉलीवुड फिल्मों के सीक्वल दर्शकों ने पसंद किए। आज भी दर्शक सीक्वल और रीमेक के दर्शक दीवाने है! इसी का नजीता है ‘स्पाइडर मैन' के रीमेक और ट्विलाइट, फ़ास्ट एंड फ्यूरियस, हैरी पॉटर, लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स और जेम्स बॉन्ड सीरीज के सीक्वल ने भारत में खूब कमाई की। हॉलीवुड की इसी सफलता को बॉलीवुड भी भुनाना चाहता है। यही कारण है कि यहां सीक्वल और पुरानी फिल्मों के रीमेक लगातार बन रहे हैं!  लेकिन, हर हिट फिल्म का सीक्वल या रीमेक भी दर्शक पसंद करें, ये जरुरी नहीं!
  'जंजीर' जैसी मशहूर फिल्म का रीमेक बना तो पर बुरी तरह फ्लॉप हुआ! 'शोले' का रीमेक 'रामगोपाल वर्मा की आग' का रीमेक भी दर्शकों के गले नहीं उतरा! साउथ की फिल्मों से प्रेरित होकर वहाँ की कई फिल्मों के रीमेक बन रहे है। प्रकाश झा की फिल्म ‘सत्याग्रह‘ को साउथ में बनाया गया। बॉलीवुड में साउथ के सिनेमा के अलावा मराठी, बंगाली और अन्य भाषा की फिल्मों के रीमेक बनाने का ट्रेंड है। दर्शक भी रीमेक और सीक्वल फिल्मों को खूब पसंद करते हैं, इसलिए रीमेक और सीक्वल के ट्रेंड को आगे बढ़ने में मदद मिल रही है। वहीं आलोचक भी इस ट्रेंड को बहुत बुरा नहीं मान रहें। 
   इंद्र कुमार 1990 में आई फिल्म ‘दिल’ का सीक्वल बना रहे हैं। जब पहली बार 'हेरा फेरी' आई तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह इतनी बड़ी हिट होगी! एक दशक बाद फिल्म का सीक्वल आने वाला है। 'अंदाज अंदाज अपना' के सीक्वल के बाद अब 'हीरो नं 1' और 'बड़े मिया छोटे मियां' का भी सिक्वेल बनने की तैयारी है। 
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Friday, August 26, 2016

मध्यप्रदेश सरकार से प्याज का ब्याज भी नहीं निकला


- हेमंत पाल

  सरकार के फैसलों को नौकरशाही किस तरह धरातल पर उतारती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है प्याज उपजाने वाले किसानों से प्याज की खरीदी और अब उसका निपटान! किसानों से 6 रुपए किलो पर 1 लाख 4 हजार क्विंटल प्याज खरीदने वाली सरकार अब उसी प्याज को खुली नीलामी में 2 रुपए किलो में बेचने पर आमादा है। अब कंट्रोल की दुकानों पर प्याज एक रुपए किलो में बेचने की कोशिश हो रही है। जून माह में सरकार ने जो प्याज खरीदी, इसमें से करीब 20 फीसदी से ज्यादा प्याज खराब हो गई! प्याज के परिवहन, गोदामों में रखरखाव करने पर सरकार को यह प्याज साढ़े 9 रुपए किलो में पड़ी! सरकारी एजेंसी 'मध्यप्रदेश राज्य सहकारी विपणन संघ (मार्कफेड) ने प्याज खरीदी के लिए बैंक से कर्ज भी लिया! इसका ब्याज उन्हें देना है। प्याज खरीदी में सरकार को करोड़ों रुपए का घाटा उठाना पड़ा! इसके बावजूद यदि किसान खुश नहीं हुए तो सरकार ने ये सारी कवायद किसके की? प्याज की बंपर पैदावार के बाद मई में थोक मंडियों में इस सब्जी के भाव इस कदर गिर गए थे कि किसानों के लिए खेती की लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा था। इस स्थिति से नाराज किसानों ने प्याज फेंकना शुरू कर दिए थे। इन घटनाओं के बाद प्रदेश सरकार ने पहल करते हुए किसानों से प्याज खरीदा था।
   
प्याज उत्पादक किसानों की मदद के लिए सरकार ने 6 रुपए किलो प्याज खरीदी की लोकलुभावन घोषणा की थी! किसानों को घाटे से बचाने के लिए सरकार ने 4 जून से 30 जून तक 6 रुपए किलो की दर पर 1,04,000 टन प्याज की खरीद की थी। सरकार का मकसद ठीक था। लेकिन, पर इस योजना का क्रियान्वयन करने में अफसरों ने भारी लापरवाही की! उन्होंने सिर्फ मुख्यमंत्री के एक लाइन के आदेश को सुना कि किसानों से 6 रुपए किलो में प्याज खरीदना है! इस प्याज को कब तक स्टॉक करना है? इसे कैसे रखा जाएगा? इस प्याज का निपटान किस तरह होगा? ये सब खरीदी के फैसले के साथ ही तय हो जाना था! पर, इस दिशा में न तो उस वक़्त सोचा गया और न बाद में कोई योजना बनाई गई! प्याज को कच्ची फसल माना जाता है, जिसका भंडारण आसान नहीं होता! लेकिन, अफसरों के पास कोई इस सोच को लेकर कोई प्लानिंग होगी, ऐसा नहीं लगा! क्योंकि, खरीदा गया करीब 20 फीसदी से ज्यादा प्याज बारिश में ख़राब हो गया! 
   मध्यप्रदेश में प्याज की कीमतें जब एक रुपए में 5 किलो तक आ गई थी, तब भी दिल्ली, चंडीगढ़ और उत्तरभारत के कई शहरों में प्यार 20 रुपए किलो के आसपास था! क्या सरकार के इन सलाहकार अफसरों को ये नहीं लगा कि ये प्याज वहाँ बिना लाभ-हानि के बेचने की कोशिश की जाए? माना कि सरकार मुनाफा कमाने के लिए व्यापारिक सोच नहीं रख सकती, पर इस तरह अपना मूलधन तो वापस पा ही सकती थी! किसानों से प्याज खरीदकर सड़ा देना तो और फिर आने-पौने दाम पर बेचने की जुगत समझदारी नहीं है! 'मार्कफेड' ने भी प्याज को ऐसे खरीदकर गोदामों में भर लिया जैसे गेहूं को किया जाता है। उसी का नतीजा है कि गीला प्याज फिर उग आया और सड़ गया! अब इस सड़े प्याज को ठिकाने लगाने के लिए सरकार को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। 'मार्कफेड' ने कलेक्टरों को इस काम में लगाया कि वे चाहें तो राशन की दुकानों पर यह प्याज दो-तीन रुपए किलो बेच दे। बाद में ये स्थिति एक रुपए किलो तक पहुँच गई! इसके अलावा इस प्याज को अनुसूचित जाति, जनजाति के विद्यार्थियों के होस्टल में और जेल में कैदियों की रसोई के लिए 4 रुपए किलो पर बेच गया! व्यापारियों को ये प्याज खुली नीलामी में थोक भाव में दो रुपए किलो में बेचा गया! 
  इस पूरी कवायद में सबसे बुरी स्थिति उन लोगों की हुई, जो राशन की सरकारी दुकान चलाते हैं। कलेक्टर के इशारे पर खाद्य विभाग के अफसरों ने इन दुकानदारों को परेशान करना शुरू कर दिया और जबरन सड़ी-गली प्याज खरीदने पर मजबूर किया। इन लोगों का तो प्याज ढुलाई का खर्च भी एक रुपए किलो प्याज में नहीं निकल पा रहा है। निष्कर्ष यही है कि सरकार के सामने जमा प्याज को ठिकाने लगाना आज सबसे बड़ा सरदर्द है। हर जिले में इस प्याज को ठिकाने लगाने के लिए अलग-अलग फॉर्मूले इस्तेमाल किए जा रहे हैं। प्याज का पाउडर बनाने वाली गुजरात की एक कंपनी भी सामने आई है। ये कंपनी तैयार खाद्य पदार्थों में डालने के लिए प्याज का पाउडर बनाती है। सरकार ने काफी कुछ प्याज तो इसी कंपनी को खपा दिया! इस कंपनी ने 4500 क्विंटल प्याज ढाई रुपए किलो में खरीदा है। 
  सरकार ने प्याज की खरीद 'मार्कफेड' के जरिए कराई थी। फिर प्याज की बिक्री का जिम्मा भी इसी एजेंसी को दिया गया है। 6 अगस्त तक चली इस बिक्री के लिए राज्यभर में 659 केंद्र बनाए गए थे। किसानों से खरीदे गए प्याज की नीलामी के लिए सरकार ने दो बार निविदा जारी की! दोनों बार नीलामी प्रक्रिया में 60 पैसे से लेकर तीन रुपए 16 पैसे तक की बोलियां लगाई गई! सरकार ने किसानों से खरीदे गए प्याज को बेचना शुरू करते हुए उम्मीद की थी कि इसमें से 90 फीसदी प्याज की खेप तो जल्दी बिक जाएगी! लेकिन, ऐसा हुआ नहीं! सोचा गया था कि अच्छी गुणवत्ता वाली जो प्याज बचेगी, उसका भंडारण कर लेंगे। इस प्याज को सितंबर में बेचा जाएगा! लेकिन, इस पूरी योजना में व्यवहारिकता का अभाव रहा! यदि वास्तव में अफसरों को प्याज को लेकर इतनी ही चिंता थी, तो प्याज को इतने दिन गोदामों में भरकर क्यों रखा गया? 
  गोदामों में सड़ रही प्याज बेचने के लिए कलेक्टरों ने भी अपनी मनमर्जी करने में कसर नहीं छोड़ी! खरगोन कलेक्टर अशोक कुमार वर्मा ने एक अजीब फरमान जारी किया! उन्होंने अफसरों और कर्मचारियों से कहा है कि जिले में हर कर्मचारी और अधिकारी कम से कम 50 किलो प्याज खरीदे! भंडारण केंद्रों में रखी गई प्याज खराब होने की दशा में इसे आश्रम, जेल, अस्पताल, एमडीएम केंद्रों के साथ-साथ उपभोक्ताओं और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को भी प्याज खरीदने के लिए कहा गया! ताकि, प्याज खराब होने से पहले सरकारी पैसा निकल आए! 'मार्कफेड' ने खरगोन जिले में 18 हजार 443 क्विंटल प्याज खरीदे थे! करीब 1600 क्विंटल प्याज खराब होने के बाद उसे नष्ट कर दिया गया। 550 क्विंटल प्याज 4 रुपए किलो में बेच दिया गया! प्रशासन के पास जो 16 हजार क्विंटल प्याज बचा, उसी को बेचने के लिए कलेक्टर ने ये जद्दोजहद की! कर्मचारियों के सामने कलेक्टर के आदेश पर शहर से लगभग 3 किमी दूर वेयर हाउस से प्याज खरीदने की मज़बूरी भी रही! कर्मचारी खुलकर विरोध नहीं कर सकते, लेकिन उन्होंने दबी जुबान में इसे तुगलकी जरूर बताया! हालांकि, कलेक्टर का कहना है कि कर्मचारियों को प्याज खरीदने के लिए कोई बाध्यता नहीं थी! वे इच्छा से अपने उपयोग के लिए प्याज खरीद सकते हैं।
  अतिउत्साह में खरीदा गया ये प्याज अब सरकार के गले पड़ गया है। किसानों को मदद देने के लिए की गई मुख्यमंत्री की घोषणा सरकार के खजाने को बड़ी चोट दे गई। जबकि, होना ये था कि प्याज खरीदी की योजना के साथ ही, इसके निपटान के इंतजाम किए जाना थे! यदि इस प्याज का भंडारण करना था तो उतनी क्षमता के शीतगृह भी होना चाहिए, जो नहीं हैं! फिलहाल प्रदेश में 212 शीत भंडार गृह हैं जिनकी मौजूदा क्षमता करीब 9.5 लाख टन है। सरकार अगले दो सालों में क्षमता बढ़ाकर 14.5 लाख टन पर पहुंचाना चाहती है। लेकिन, आज तो इसके अभाव को सरकार ने भोग ही लिया! किसानों से प्याज खरीदी और फिर इसका निपटान न हो पाना, ऐसी घटना है जिससे सम्बद्ध विभाग और अफसरों को सबक लेना चाहिए!
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Monday, August 22, 2016

फ़िल्में हों तो सिर्फ मनोरंजन लिए!

 
हेमंत पाल 

  समाज के प्रति फिल्मकारों की कोई जिम्मेदारी होगी, ऐसा नहीं लगता! फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई स्वंतत्रता है। इस स्वंतत्रता का मतलब है अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! भले ही दर्शक उन्हें नकार दें! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है उनमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है। जबकि, श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में चली गईं!
  फिल्म में आक्रोश को व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। लेकिन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासू चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है, उसे पाना आसान नहीं था। मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की ओर लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका जैसी कई फिल्में ऐसी हैं, जिन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े! 
  फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। उन्हें समाज शास्त्र का कोई ज्ञान फिल्मों से कतई नहीं चाहिए! यदि चाहिए भी तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म मनोरंजन नहीं कर सकती! जैसे ग्रैंड मस्ती, लीला, वन नाईट स्टैंड और मस्तीजादे! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे! किसी भी फिल्मकार की एक बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वह समाज को बेहतर दिशा दे! नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर मूल्य की समझ देने में भूमिका अदा करे! लेकिन, आज के दौर में तथाकथित कला फिल्में या आक्रोशित करने वाली फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क यह रहा है कि फिल्मकारों का काम संदेश देना नहीं है, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक सेक्स, हिंसा, अश्लीलता या संबंधों की विसंगतियां दिखती हैं तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है, क्योंकि समाज में यह सब होता है और वे समाज से ही अपनी कहानियां उठाते हैं!
  फिल्मकारों को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर स्वतंत्रता का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थशास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये भी सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। आज सार्थक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। लेकिन, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। लेकिन, फ़िल्मी स्वतंत्रता को स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फिल्मकारों को अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए! 
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Sunday, August 14, 2016

हर दौर में लगा देशभक्ति का तड़का


हेमंत पाल 

  सामाजिक स्थिति, नए संदर्भ और जीवन से जुड़े हर पहलू को हिन्दी फिल्मों ने अपने अपने तरीके से छुआ है। जिन फ़िल्मी विषयों ने दर्शकों में भावनाओं के रंग भरे, उनमें से एक है देशभक्ति! ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर आज मल्टीप्लेक्स फिल्मों के ज़माने तक देशभक्ति सबसे जीवंत विषय की तरह उपयोग किया जाता रहा है। आजादी के बाद बनी फिल्मों में आजादी का संघर्ष और स्वतंत्रता सैनानियों पर केंद्रित फ़िल्में ज्यादा बनती रही! इन फिल्मों ने ही नई पीढ़ी को आजादी के नायकों की कुर्बानी का अहसास कराया! साथ ही यह संदेश भी दिया कि जीवन में मातृभूमि सर्वोपरि है। लेकिन, अब देशभक्ति को कई नए संदर्भों में परोसा जा रहा है। फिर वो बॉर्डर हो, लक्ष्य हो, एलओसी कारगिल, रंग दे बसंती हो या कुछ साल पहले आई रिचर्ड एटिनबरो की 'गाँधी!' इन सभी फिल्मों की कहानी का केंद्रीय तत्व देशभक्ति ही रहा!
 देशभक्ति जैसे विषय पर आधारित सबसे ज्यादा फ़िल्में 1940 से 1960 के बीच बनी! भारत छोड़ो आंदोलन पर 1940 में ‘शहीद’ आई। इस फिल्म के गीत ‘वतन की राह पे वतन के नौजवां शहीद हों’ को मोहम्मद रफी और खान मस्ताना की आवाज ने अमर कर दिया! आज भी जब कोई इस गीत को सुनता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं! 1950 में बनी ‘समाधि’ में सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर अशोक कुमार को उनकी सेना में शामिल होते दर्शाया गया! अशोक कुमार सिंगापुर पहुंचते हैं, जहां सामने ब्रिटिश सेना की तरफ से उनका बड़ा भाई उनसे युद्ध करता है। 1951 में बनी ‘आंदोलन’ में बापू का सत्याग्रह, साइमन कमीशन, वल्लभभाई पटेल का बारदोली आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन दिखाया गया था। 1952 में ‘आनंदमठ’ आई, जिसमें लता मंगेशकर का गाया ‘वन्दे मातरम’ लोकप्रिय हुआ।1953 में सोहराब मोदी ने ‘झांसी की रानी’ बनाकर स्वतंत्रता संग्राम को जीवंत कर दिया था। 
  बॉलीवुड में देश भक्ति की फिल्मों का दूसरा दौर आया 1990 और 2000 के दशक में! इस दौरान देश भक्ति को लेकर कई फिल्में बनी! हिंदी फिल्म उद्योग ने इस दौरान बॉर्डर, एलओसी कारगिल, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह और द राइजिंग : बेस्ड ऑफ मंगल पांडेय जैसी कई फिल्में बनाईं! इन सभी की कहानी आजादी के सैनानियों और युद्धों पर आधारित थीं। इन फिल्मों की सफलता से समाज में आ रहे उस बदलाव का पता चलता है कि दर्शक अपने आसपास के सामाजिक विषयों को नए संदर्भों में देखना चाहता हैं। जिस तरह से नई पीढ़ी का सोच बदल रहा है, देशभक्ति दर्शाने के तरीकों में बदलाव आना लाजिमी है। जेपी दत्ता ने 'बॉर्डर' में जो देश भक्ति दिखाई वो तत्कालीन परिस्थितियों में इसलिए जरुरी थी कि उस दौर में पाकिस्तान सबसे कट्टर दुश्मन था। फिर एक देशभक्ति 'रंग दे बसंती' वाली थी, जिसमें युवाओं में भरे देश प्रेम की भावना थी। फिल्म में युवा एक भ्रष्ट नेता को मार देते हैं। आशय ये कि समय के साथ-साथ फिल्मों में देशभक्ति का एक नया रूप सामने आने लगा है, जरुरत है इसे दर्शाने की! 
 आमिर खान ने 2005 में देश के 1857 के पहले स्वतंत्रता विद्रोह और इसके नायक मंगल पांडे पर फिल्म बनाई। इंटरनेट की दुनिया में जी रही नई पीढ़ी ने फिल्म देखकर ही जाना कि मंगल पांडे ने कैसे ब्रिटिश फौज से मुकाबला किया और खुद को खत्म करने की कोशिश की? इस पीढ़ी में से ज्यादातर लोग शायद फिल्म से पहले मंगल पांडे को इस रूप में जानते भी नहीं होंगे। आमिर की ‘मंगल पांडे’ ने ही युवाओं को अहसास कराया कि जिस आजादी में वे उन्मुक्तता से सांस ले रहे हैं, वह उन्हें मंगल पांडे जैसे लोगों से ही मिली है। आजादी के संघर्ष में शहीद होने वाले रिश्तों में तो हमारे अपने नहीं होंगे! लेकिन, इनकी अहमियत को महसूस कराने में फिल्मों की भूमिका अहम थी!  
 देशभक्ति पर बनी फ़िल्में अपने प्रासंगिक विषय के कारण ही पसंद नहीं की जाती! इसके किरदार भी फिल्मों की तरह दर्शकों के दिल में बस जाते हैं। चाहे वह 'शहीद' और 'पूरब पश्चिम' में मनोज कुमार हों, 'हिन्दुस्तान की कसम' में राजकुमार हों, 'सरफरोश' में आमिर खान हों, लक्ष्य' में रितिक रोशन हो या 'लीजेंड ऑफ भगत सिंह' में अजय देवगन! इस तरह की फिल्मों ने युवाओं में सेना में शामिल होने का जज्बा भी सिखाया! 1970 मनोज कुमार ने 'पूरब और पश्चिम' बनाकर जो देशभक्ति दिखाई, उसके बाद मनोज कुमार को दर्शक इसी रूप में पहचानने लगे! अपनी इसी पहचान के बाद मनोज कुमार ने उपकार, क्रांति, रोटी कपडा और मकान जैसी कई हिट फिल्में दीं। इसके बाद ही उन्हें `मिस्टर भारत` कहकर पुकारा जाने लगा! अभी भी देशभक्ति का छोंक लगाकर फ़िल्में बनाने का दौर खत्म नहीं हुआ! चक दे इंडिया, रंग दे बसंती, लक्ष्य इसी श्रेणी फ़िल्में हैं।  
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Thursday, August 11, 2016

अफसरों के अतिरेक ने मोदी की यात्रा में कड़वाहट घोली



- हेमंत पाल 


  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाबरा यात्रा में व्यवस्था के जिम्मेदार अधिकारियों ने अति उत्साह और अतिरेक में जो कुछ किया वो लोगों के लिए कड़वा अनुभव बनकर रह गया! अराजनीतिक लोगों की भीड़ को सभा में भेजने के लिए स्कूलों और बस संचालकों से जबरन बसें ली गई! सभा स्थल पर बरसात के कारण कीचड और गंदगी पसरी रही! स्थानीय आदिवासी पुलिस और प्रशासन की ज्यादतियों से त्रस्त रहे! यात्री बसों के अधिग्रहण के कारण यात्री भटकते रहे! सिंगल रोड वाले इस आदिवासी इलाके में करीब तीन हज़ार बसें झोंक दी गई, जिससे कई किलोमीटर तक जाम लगा रहा! करोड़ों रुपए की बर्बादी के अलावा 'आजाद' की जन्मस्थली रही कुटिया को नया रूप दिया जाना भी इतिहास पर रंग-रोगन करने जैसा है। कोई भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं चाहता कि उसके किसी कार्यक्रम से लोग परेशान हों, पर अफसर अपने नंबर बढ़वाने के लिए सारी सीमाएं लांघ जाते हैं! जबकि, ऐसी स्थिति में लोगों के गुस्से का शिकार नेताओं को होना पड़ता है। अफसर तो व्यवस्था नामपर खुद को हमेशा ही बचा ले जाते हैं।      

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 आदिवासी इलाका हमेशा ही राजनेताओं के लिए पसंदीदा रहा है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी से लगाकर कई प्रधानमंत्री प्रदेश के इस सघन आदिवासी जिले झाबुआ और आलीराजपुर का दौरा कर चुके हैं। इस लिस्ट में अब नरेंद्र मोदी का भी नाम जुड़ गया! 'विश्व आदिवासी दिवस' पर आलीराजपुर जिले में चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाबरा आने के साथ नरेंद्र मोदी ने यहाँ के झोतराड़ा गाँव में एक सभा को भी संबोधित किया! डेढ़ घंटे के इस कार्यक्रम से पूरे इलाके में अव्यवस्था का जो आलम रहा, उसे लोग लंबे अरसे तक नहीं भूल पाएंगे! प्रशासनिक ज्यादतियों और अव्यवस्थाओं ने पूरे मालवा-निमाड़ इलाके की व्यवस्थाओं को गड़बड़ा दिया! प्रधानमंत्री की रैली को सफल बनाने के एक सूत्रीय लक्ष्य को पूरा करने के लिए नौकरशाहों ने अपने अधिकारों की हदें पार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! स्कूलों की बसें छीनकर उन्हें रैली के लिए भीड़ जुटाने के काम में झोंक दिया! नियमित मार्गों पर चलने वाली यात्री बसें अफसरों का आदेश मानने के लिए मजबूर कर दी गई! इससे यात्री परेशान हुए! स्कूल बंद रहे! आलीराजपुर, झाबुआ और धार जिले के कई सड़क मार्ग बंद कर दिए गए या उनके ट्रैफिक को लंबे रास्ते पर धकेल दिया गया। वीआईपी सुरक्षा के नाम पर चाय, पान की दुकानें बंद करा दी गईं! प्रधानमंत्री की यात्रा के कारण पूरा सरकारी तंत्र कई दिनों तक भीड़ जुटाने की कोशिशों में जुटा रहा। सारे कामकाज ठप्प रहे! प्रशासनिक अधिकारी मैदानी स्तर पर यही जुगत लगाते रहे कि भीड़ को किस तरह भाबरा पहुंचाया जाए!
   नरेंद्र मोदी की सभा का पहला विवाद था खंडवा के एक छात्र का लिखा पत्र! यात्रा से चार दिन पहले 8वीं के एक छात्र नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा और रैली की भीड़ के लिए स्कूल बसों के इस्तेमाल पर सवाल उठाए! उस छात्र ने पत्र लिखकर पूछा था कि क्या आपकी सभा हमारे स्कूल से ज्यादा जरुरी है? आपकी सभा को सुनने आने वाले लोगों को लाने के लिए प्रशासन द्वारा स्कूल बसों को अधिग्रहित करना क्या सही है? पत्र में लिखा कि मैंने यह भी सुना है कि स्कूल ने यदि बसें देने का आदेश नहीं माना, तो शिवराज मामा हमारा स्कूल बंद करवा देंगे। क्या आपको हमारी पढ़ाई और भविष्य की कोई चिंता है? इस पत्र के सोशल मीडिया पर वायरल होते ही प्रशासन जागा और संयुक्त कलेक्टर ने तुरंत भाबरा रैली में बसों के इस्तेमाल पर तुरंत रोक लगा दी! जबकि, पहले उन्होंने ही बस नंबरों के साथ स्कूलों को आदेश जारी करके उन्हें संबंधित अधिकारियों को सौंपने को कहा था! एक छात्र द्वारा मोदी को लिखे पत्र ने अंततः प्रशासन को अपना फैसला वापस लेने को मजबूर कर दिया! खंडवा प्रशासन ने स्कूल बसें लेने का आदेश निरस्त करने के साथ ही खंडवा में 'विश्व आदिवासी दिवस' पर स्कूलों में घोषित अवकाश भी रद्द कर दिया!
  इस यात्रा से जुड़ा एक और पहलू यह भी है कि इंदौर कलेक्टर पी नरहरी ने स्कूलों की बसें अधिग्रहित करने के लिए एक अजीब आदेश दे डाला! कलेक्टर ने आदेश दिया कि ‘मौसम विभाग द्वारा कल (9 अगस्त 2016) के लिए इंदौर जिले में वर्षा की चेतावनी और कार्यक्रम के लिए स्कूल बसों की आवश्यकता को देखते हुए, सभी आंगनवाड़ियों, शासकीय एवं अशासकीय स्कूलों में (प्री-प्राइमरी, प्राथमिक से लेकर बारवी तक) कक्षाएं कल नहीं लगेंगी! कलेक्टर के इस आदेश से स्कूली बच्चे तो खुश हुए, पर सोशल मीडिया पर इस अजीब आदेश को लेकर कई तरह के कमेंट सामने आए! इस आदेश का काफी मजाक उड़ाया गया। लोगों ने अपने कमेंट में यहाँ तक लिखा कि ‘भारी बारिश के कारण स्कूल तो बंद कर दिए, लेकिन क्या मोदी की रैली होगी?' जबकि, वास्तव में 9 अगस्त को इंदौर में भारी वर्षा की आशंका को लेकर मौसम विभाग ने कोई अलर्ट ही जारी नहीं किया! उस दिन पूरे इंदौर जिले में जोरदार बारिश भी नहीं हुई! कई स्कूलों को तो दूसरे दिन भी छुट्टी घोषित करना पड़ी क्योंकि, देर रात तक भाबरा गई बसें लौट नहीं सकीं!
  जब कलेक्टर का ये आदेश सामने आया था, तब इसे गंभीरता से इसलिए नहीं लिया गया कि शायद सही में भारी बरसात हो जाए! पर, जब कुछ नहीं हुआ तो एडवोकेट आनंद मोहन माथुर ने मंगलवार को युगल पीठ के सामने तर्क रखा कि किसी भी कलेक्टर को इस तरह के आदेश देने का अधिकार नहीं है! उनके द्वारा स्कूलों की छुट्टी करने का फैसला असवैंधानिक है! उन्होंने कलेक्टर के इस फैसले को संविधान की धारा 14, 21(अ), 45 और 46 का उल्लंघन बताया। सभा के लिए बसों का अधिग्रहण भी असंवैधानिक बताते हुए माथुर ने कहा कि इस फैसले से शहर के लाखों बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हुआ है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? मौसम विभाग की रिपोर्ट के विपरित उन्होंने शहर में भारी वर्षा की झूठी चेतावनी देकर भ्रम फैलाया है! इसके लिए भी उन पर कार्यवाही होना चाहिए। माथुर ने इस छुट्टी के एवज में स्कूली बच्चों के परजनों को मुआवजा देने की भी मांग की! माथुर के मुताबिक ये तर्क सुनने के बाद इंदौर हाई कोर्ट के प्रशासनिक न्यायमूर्ति पीके जायसवाल ने इस मामले को चीफ जस्टिस ऑफ मप्र के ध्यानार्थ जबलपुर भेज दिया है। संभवत: हाई कोर्ट खुद इस पर जनहित याचिका दायर कर सकता है। इसके अलावा कांग्रेस नेता पिंटू जोशी ने भी इस मुद्दे पर जनहित याचिका दायर की! स्कूलों में अवकाश घोषित करने के फैसले को कलेक्टर द्वारा पद का दुरुपयोग बताते हुए प्रदेश में इस मुद्दे पर गाइड लाइन जारी करने की मांग की गई है। पिंटू जोशी के एडवोकेट ने बताया कलेक्टर ने 9 अगस्त को स्कूलों का अवकाश घोषित कर दिया! जबकि, 14 अप्रैल 2016 को डॉ.भीमराव आम्बेडकर की जयंती के कार्यक्रम में शामिल होने आए प्रधानमंत्री की यात्रा के लिए अवकाश के दिन भी बच्चों को जबरिया कार्यक्रम स्थल बुलाया गया था।
  मैंने कई साल पहले चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली को उसके मूल स्वरुप में देखा था! मिट्टी की उस कुटिया देखकर दिल में श्रद्धा का जो भाव उभरा था, वो इस बार नहीं आया! 'आजाद' की असल कुटिया नदारद थी, उसकी जगह खूबसूरत बिल्डिंग खड़ी थी! चकाचक और चमचमाती हुई! खूबसूरत फूलों से सजी हुई! अंदर 'आजाद' की मूँछ उमेठते हुए प्रतिमा लगा दी गई! बेहतर होता कि इस कुटिया को उसके मूल स्वरुप में ही संवारकर संरक्षित किया जाता! महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम की तरह! आजाद की जन्मस्थली को चमचमाना इतिहास के साथ खिलवाड़ करने जैसी घृष्टता है! आज वहाँ ऐसा कुछ नहीं बचा, जो देखने वाले को उस समयकाल में ले जाए!
 ये तो हुई सरकारी जबरदस्ती वाले किस्से! सभा स्थल भाबरा तक जाने के रास्ते की भी हालत ये थी कि इंदौर तथा अन्य स्थानों से गए कई भाजपा नेता और कार्यकर्ता जाम लगने से कार्यक्रम स्थल तक भी नहीं पहुंच पाए! क्योंकि, इस पूरे ग्रामीण इलाके की सड़कें सिंगल हैं, जहाँ से एक बार में एक ही वाहन गुजर सकता है! वहां 3 हज़ार वाहन एक साथ पहुँच जाएंगे, तो जाम लगना स्वाभाविक था! उधर, सभा स्थल पर भी अव्यवस्थाओं का आलम अलग ही था! पूरा सभा स्थल कीचड़ और गंदे पानी से अटा होने से लोग काफी परेशान हुए। कीचड़ की स्थिति ऐसी थी कि लोगों का बैठना तो दूर खड़ा होना भी मुश्किल था।
   वे लोग भी दो दिन बेहद त्रस्त रहे, जिन्हें इन दिनों में बसों से यात्रा करना थी! इंदौर, धार, झाबुआ, रतलाम, उज्जैन और खरगोन समेत कई जिलों से चलने वाली यात्री बसों को प्रशासन द्वारा अधिग्रहित किए जाने से लोग बेबस थे! अकेले रतलाम जिले की 180 बसें दो दिन बंद रहीं! बसें कम होने से सड़क यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। धार से आने-जाने वाले यात्रियों के लिए भी मोदी की सभा त्रासद रही! धार मार्ग की 80 बसें अधिग्रहित किए जाने की वजह से नहीं चलीं। इस कारण यात्रियों का इंतजार लंबा हो गया। इंदौर के गंगवाल बस स्टैंड से दूसरे स्थानों पर जाने के लिए यात्री सुबह से शाम तक परेशान हुए। इस मार्ग पर बहुत कम बसें दौड़ती नजर आईं, जो यात्रियों के लिए नाकाफी थी! झाबुआ जाने वाले यात्रियों की भारी बड़ी फजीहत हुई। एक बस के इंतजार में यात्री दो-दो घंटे तक इंतजार करते रहे। कई महिला यात्री इस बात की शिकायत करती रहीं कि प्रधानमंत्री के दौरे के लिए हमें क्यों तकलीफ दी जा रही है? कुक्षी, आलीराजपुर, धामनोद और बड़वानी जाने वाले यात्री भी बस के इंतजार में घंटों खड़े रहे। अफसरों ने बसों को अधिग्रहित करने से पहले लोगों को होने वाली तकलीफों के बारे में नहीं सोचा! ये सब देखकर भाबरा के उस बुजुर्ग की बात याद आती है कि 'इतना ही परेशान करना हो, तो अब मत आना मोदीजी!'
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Sunday, August 7, 2016

बदलते फॉर्मूलों के बीच दोस्ती बरक़रार


हेमंत पाल 

  'दोस्ती' की कहानियों पर बनने वाली फ़िल्में एक तरह से फिल्मकारों के लिए बिकाऊ फार्मूला रहा है। बॉलीवुड में सबसे ज्यादा डिमांड भी ऐसे फॉर्मूले की रही! एक फिल्म हिट होते ही, उसके आसपास नई कहानियाँ गूँथी जाने लगती है! प्यार में धोखा, खून का बदला खून, प्रेम त्रिकोण, भाइयों का बिछुड़ना और फिर मिलना, दोस्ती में ग़लतफ़हमी और फिर त्याग! ये ऐसे हिट फॉर्मूले हैं जो फिल्मकारों को हमेशा रास आते रहे हैं। इनमें 'दोस्ती' का फार्मूला हर समयकाल में दर्शकों को रास आता रहा। 1964 में बनी राजश्री की फिल्म 'दोस्ती' को अपने समय की सबसे हिट फिल्म माना जाता है। उसके बाद तो दोस्ती की मिसाल वाले इस विषय को कई बार घुमा फिराकर परोसा जाता रहा! हर दौर में दोस्ती की भावना को नए-नए तरीकों से पेश किया गया! जिनमें दोस्त, शोले, चुपके-चुपके, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर, राम-बलराम, दोस्ताना, सौदागर, खुदगर्ज, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, काई पो चे और चश्मे बद्दूर शामिल हैं।
   अमिताभ बच्चन के स्वर्णकाल की ज्यादातर फिल्मों का केंद्रीय विषय भी दोस्ती ही रहा! अमिताभ ने कई फिल्मों में दोस्ती की भावना पेश की! फिर वो चाहे जंजीर, शोले, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, दोस्ताना हो या मुकद्दर का सिकंदर! याद कीजिए अमिताभ के साथ हर फिल्म में कोई दोस्त जरूर रहा है। निजी जीवन में अमिताभ और विनोद खन्ना के बीच अच्छी दोस्ती के बारे में कभी पढ़ा नहीं गया, लेकिन परदे पर इन दोनों ने कई बार दोस्ती को जीवंत किया! इनमें हेराफेरी, मुकद्दर का सिकंदर जैसी फिल्में शामिल हैं। 'दोस्ताना' में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ अमिताभ की दोस्ती मिसाल के रूप में याद की जाती है। 1975 की बनी 'शोले' में जय और वीरू की दोस्ती के जज्बे को बेहद खूबसूरती से दर्शाया गया! इस जोड़ी ने बाद में ‘चुपके-चुपके’ और ‘राम बलराम’ जैसी फिल्मों में भी दोस्ती दिखाई! 
  राजेश खन्ना के साथ अमिताभ ने ‘नमक हराम’ में दोस्ती को जीवंतता दी! शशि कपूर के साथ ईमान धरम, शान और सुहाग में अमिताभ ने यही दोस्ती निभाई! धर्मेंद्र भी उन कलाकारों में हैं, जिन्होंने कई एक्टर्स के साथ दोस्ती का किरदार अदा किया। धर्मेंद्र की दोस्ती शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना के साथ कई बार बनी! इसके बाद अनिल कपूर-जैकी श्रॉफ, अक्षय कुमार-सुनील शेट्टी और संजय दत्त-गोविंदा की दोस्ती पर कई फ़िल्मी कहानियाँ बनी! 1991 में सुभाष घई ने फ़िल्मी दुनिया के दो दिग्गजों दिलीप कुमार और राजकुमार को दोस्ती की डोर में बांधा और ‘सौदागर’ बनाई! इस फिल्म को भी दोस्ती के लिहाज से श्रेष्ठ फिल्म कहा जा सकता है। 
   बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दोस्ती में प्यार का तड़का लगने लगा! दो दोस्तों की दोस्ती के बीच एक लड़की आ जाती है! फिर या तो गलतफहमी पनपती है या प्रेम त्रिकोण बन जाता है! क्लाइमैक्स में या तो ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है या फिर एक दोस्त का त्याग सामने आता है! लड़की के कारण दोस्तों में टकराव का ये चलन शायद राज कपूर, राजेंद्र कुमार की फिल्म 'संगम' फिल्म से शुरू हुआ था। जो भी हो, फिल्म का अंत सुखांत ही होता रहा। याद किया जाए तो ऐसी फिल्मों की कमी भी नहीं! लेकिन, प्रयोग के तौर पर हाल ही में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनाई गई जिनमें दोस्ती तो थी, पर फिल्म का केंद्रीय विषय कुछ और ही था! थ्री इडियट्स, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दुबारा, रंग दे बसंती, कुछ कुछ होता है, दिल तो पागल है और चश्मे बद्दूर! इन फिल्मों ने दर्शकों को दोस्ती के कई नए रंग दिखाए!  
  आज की कुछ फिल्मों का कैनवास दोस्तों के सपनों के साथ उनके आंतरिक टकरावों पर भी फोकस रहा! कहीं विचारों में मतभेद होने के बावजूद दोस्त एक-दूसरे का नजरिया समझने की कोशिश करते हैं। कहीं अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक हालात वाले दोस्त एक सपने के साथ आगे बढ़ते हैं और टीम बनाकर उसे पूरा करते हैं। यही कारण है कि अब दोस्ती और विचारधारा के बदलाव की कहानियों पर भी फ़िल्में बनने लगी है। दोस्ती के बहाने कुछ अलग ढंग की कहानियाँ भी कही जा रही है। ये फ़िल्में बताती है कि जीवन में खुद से बात करना, अपने सपनों से बात करना और दोस्तों से सपनों को शेयर करना कितना जरूरी है। दोस्ती में सपनों के साथ उनके टकरावों की कहानी भी कुछ फिल्मों की कथावस्तु रही है। लेकिन, दोस्तों के बीच टकराव कही भी इतने बड़े नहीं होते कि वो पूरी दोस्ती को प्रभावित कर दें। 
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Friday, August 5, 2016

न निवेश बढ़ा न नौकरियां, फिर झूठ का किला क्यों?


हेमंत पाल 


   मध्यप्रदेश में उद्योगों का माहौल बना है। दुनियाभर के उद्योगपति मध्यप्रदेश की तरफ खिंचे चले आ रहे हैं। औद्योगिक उत्पादन बढ़ रहा है। बेकार हाथों को काम मिल रहा है! बहुत जल्द प्रदेश में कोई भी बेरोजगार नहीं होगा! ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट ने प्रदेश में निवेश की संभावनाएं बढ़ा दी है। कई विदेशी उद्योगपतियों ने मध्यप्रदेश में अपनी इकाइयाँ लगाने में रूचि दिखाई! ये वो दावे हैं, जो प्रदेश सरकार हमेशा करती रही है। लेकिन, सच्चाई ये नहीं है। न तो उद्योग बढे, न नौकरियाँ, न औद्योगिक उत्पादन और न निवेश बढ़ा! जब उद्योग नहीं बढे तो नई नौकरियां बढ़ने का तो सवाल ही नहीं! बल्कि नौकरियां घटीं हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने भाषणों में यह कहना नहीं भूलते कि उन्होनें प्रदेश को बीमारु से तेजी से दौडते प्रदेश के रुप में खडा कर दिया! लेकिन, हकीकत इससे अलग है। भाषणों में मध्यप्रदेश जरुर तेजी से दौड रहा है, धरातल पर आज भी ये प्रदेश बीमारु राज्य की श्रेणी में खडा है। नौकरियों की कमी से सामाजिक व्यवस्थाएं भी गड़बड़ा रही हैं! बेरोजगार युवा आत्महत्या कर रहे हैं! मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में है, जहाँ सर्वाधिक युवा आत्महत्या करते हैं!
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     अग्रणी उद्यमियों के संगठन एसोसिएटेड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्टीज ऑफ इंडिया (एसोचैम) की अध्ययन रिपोर्ट वित्त वर्ष 2015-16 के लिए 'एनालिसिस ऑफ मध्य प्रदेश' इकॉनोमी, इंफ्रास्ट्रक्च एण्ड इंवेस्टमेंट' (मध्य प्रदेश का विश्लेषण : अर्थव्यवस्था, मूलभूत ढांचा एवं निवेश) विषय पर अध्ययन किया। इस रिपोर्ट ने सरकार के भारी निवेश के दावों की असलियत सामने ला दी! 'एसोचैम' ने स्पष्ट किया कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की विदेश यात्राओं के बावजूद प्रदेश में निवेश नहीं बढ़ा! बल्कि 14 प्रतिशत घट गया! देश में मध्यप्रदेश का औद्योगिक योगदान का हिस्सा भी घट गया। आशय यह कि जो उद्योग चल रहे थे, वे भी धीरे-धीरे बंद होने लगे! 87 प्रतिशत निवेश भी अफसरशाही के जाल में फंसा है। जबकि, 44 हजार करोड़ रुपए की निवेश घोषणाएं ऐसी हैं जो सिर्फ घोषणा ही थीं। 'एसोचैम' के महासचिव डीएस रावत  मुताबिक यह रिपोर्ट राज्य सरकार के लिए आंखे खोलने का काम करेगी। सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करके नए प्रोजेक्ट को आकृष्ट कर सकती है।  
  सरकार कितने भी दावे करे, पर रिपोर्ट का सच यही है कि प्रदेश में पिछले एक दशक के दौरान नया निवेश घटा है! इसका असर ये हुआ कि उद्योगों में नौकरियां 25 फीसदी कम हो गई। जबकि, अभी तक सरकार कहती रही है कि प्रदेश में उद्योग बढ़ने के साथ ही नई नौकरियाँ भी बढ़ी है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि वास्तव में सच क्या है? सरकार अभी तक जो कहती आई है, वो सच है या 'एसोचैम' की नई रिपोर्ट? इस बात से इंकार नहीं कि सरकार ने औद्योगिक निवेश बढ़ाने के लिए कई कोशिशें की है। सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके चार 'ग्लोबल इंवेस्टर समिट' आयोजित की! इस समिट से करीब 8.5 लाख करोड़ रुपए के निवेश के करार भी हुए! लेकिन, ये करार धरातल पर उतरे कि नहीं, ये बताने सामने कोई नहीं आया! इस बात का खुलासा 'एसोचैम' की रिपोर्ट ने किया है कि प्रदेश में पिछले वित्त वर्ष में नए निवेश केवल 53,076 करोड़ रुपए के ही हैं। इस निवेश में सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी 74 फीसदी तक है। जबकि, रिपोर्ट से सामने आई असलियत के विपरीत हाल ही में प्रदेश में उद्योगों के विकास और विस्तार के लिए निर्मित वातावरण को बेहतर बनाने के लिए 9 नए औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने का निर्णय लिया। नए औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के लिए भूमि का निर्धारण  दिया गया! इस मकसद से खर्च की अनुमति भी दे दी गई। आशय यह कि सरकार रिपोर्ट पर कान धरने बजाए, वही सब करने में लगी है जिसके लिए उसे कटघरे में खड़ा किए जाने की कोशिशें की गईं! 
   'एसोचैम' के अध्ययन के मुताबिक भौतिक तथा सामाजिक ढांचे के अव्यवस्थित विकास की वजह से भागीदारी के मामले में निजी क्षेत्र की मध्यप्रदेश में दिलचस्पी घटी है। ये भी एक बड़ा कारण है कि मध्यप्रदेश में निवेश परिदृष्य की चमक फीकी पड़ी है। 'एसोचैम' का अनुमान कुछ हद तक सही भी है। प्रदेश के कई बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में आज तक मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बिजली, पानी की समस्या तो बरसों से यथावत है। पीथमपुर जैसे बड़े औद्योगिक क्षेत्र में गर्मी के दिनों में इसी साल कई औद्योगिक इकाइयों को पानी खरीदकर अपना काम चलना पड़ा! लेकिन, उद्योगपतियों सबसे बड़ी शिकायत पर्यावरण और प्रदूषण के नाम पर होने वाली ज्यादती से है। पीथमपुर के कई उद्योग हमेशा प्रदूषण निवारण की आपत्तियों से ही जूझते रहते हैं! एक तरफ जब सरकार नए उद्योगों को आकर्षित करने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है, उन्हें प्रदूषण के नाम पर पर उलझाया जाता है। आश्चर्य है कि उद्योगों पर निरर्थक आपत्तियां लगाने वाले प्रदूषण बोर्ड अंकुश क्यों नहीं लगा पा रही?    
   औद्योगिक विकास और नई नौकरियों सरकार का यह झूठ प्रदेश को कई मोर्चों पर परेशान कर रहा है। औद्योगिक इकाइयों में घटती नौकरियों का सीधा असर लोगों के जीवन पर पड़ रहा है। महंगाई दौर में बढ़ती बेरोजगारी से लोग मानसिक रूप परेशान हो रहे हैं और मौत को गले लगा रहे हैं। यही कारण कि मध्य प्रदेश में बेरोजगारी, पारिवारिक परेशानियों, दिमागी बीमारियों के कारण आत्महत्या करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हाल ही में स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) की ओर से जारी आत्महत्या के आंकड़ें किसी को भी हैरान कर सकते हैं। प्रदेश में हर साल 10,000 से ज्यादा लोग खुदकुशी कर रहे हैं। 2014 में बेरोजगारी के कारण 124 लोगों ने आत्महत्या की थी! 2015 में ये आँकड़ा बढ़कर 455 तक पहुँच गया। मध्यप्रदेश देश के 5 राज्यों में पांचवे स्थान पर है, जहाँ बेरोजगारी के कारण युवा सबसे ज्यादा आत्महत्या कर रहे हैं। रिकॉर्ड के मुताबिक 2015 में 10293 लोगों ने विभिन्न कारणों से इहलीला समाप्त कर ली! इनमें सबसे ज्यादा इंदौर और उसके बाद रीवा का नंबर था। यदि वास्तव में प्रदेश में नौकरियों की इफरात होती तो बेरोजगारी के कारण युवा आत्महत्या नहीं करते!
  'एसोचैम' की इस बार की रिपोर्ट ही चौंकाने वाली है, ऐसा नहीं। पिछले साल (2014-2015) की 'बीमारू राज्यों' पर रिपोर्ट भी सरकार के दावों के अनुकूल नहीं रही थी! ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में मिले लाखों करोड़ रुपए के निवेश प्रस्ताव के दम पर औद्योगिक विकास का दावा करती प्रदेश सरकार की वास्तविक स्थिति 'एसौचेम' की बीमारु राज्यों पर जारी रिपोर्ट से स्पष्ट हो गई थी। औद्योगिक विकास, सर्विस सेक्टर, घरेलू उत्पादन आदि श्रेणियों में मध्यप्रदेश बिहार से भी पिछड़ा है। 'एसोचैम' ने देश के बीमारु राज्यों की श्रेणी में शामिल मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के विकास पर यह रिपोर्ट तैयार की थी। साल 2004-05 से 2012-1013 के समयकाल में तैयार इस रिपोर्ट में प्रदेश की औद्योगिक विकास दर 9 फीसदी रही! वहीं इस दौरान बिहार में उद्योगों का विकास 14 फीसदी की दर से हुआ। इस दौरान मध्यप्रदेश की अर्थव्यवस्था में उद्योगों का योगदान मात्र एक फीसदी बढ़कर 28 फीसदी हुआ! 'एसोचैम' द्वारा 2014 में किए गए अध्ययन में भी पता चला था कि प्रदेश में साल 2012-2013 में हुए निवेश की तुलना में 83 प्रतिशत की गिरावट आई। 'एसोचैम' के इकोनॉमिक रिसर्च ब्यूरो (आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो) द्वारा कराए गए इस अध्ययन में बीते वर्ष निवेश में गिरावट का भी खुलासा हुआ था। लगातार तीन साल के इस खुलासे के बाद भी सरकार दावा करे कि मध्यप्रदेश में औद्योगिक क्रांति आ रही है और नई नौकरियों की बाढ़ आ गई, तो ये भरोसे लायक बात नहीं है। 
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