- हेमंत पाल
विनोद मेहता की पत्रकारिता जगत में सफलता को इस एक बात से याद किया जाएगा कि उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत ऐसी पत्रिका (डेबोनियर) से की थी, जिसे लोग छुपाकर पढ़ते थे। क्योंकि, वो पत्रिका खुलेआम पढ़ना सामाजिक रूप से वर्जित था। लेकिन, जब वे इस दुनिया से गए तो उस पत्रिका (आउटलुक) से जुड़े थे, जिसे पढ़ना पाठक के बौद्धिक होने की निशानी है!
इन दिनों पत्रकारिता की जो हालत है, उसमें समझौतावादियों की भरमार है। लेकिन, विनोद मेहता उस शख्स का नाम था, जिसने अपने काम में कभी समझौता नहीं किया! उनके बारे में कहा जाता रहा है कि वे जब किसी मीडिया संस्थान से जुड़ते थे, तो ये बात साफ़ कर लेते थे कि संस्थान के मालिक का उनके काम में कोई दखल नहीं होगा! यही कारण है कि उन्होंने जो भी अखबार या पत्रिका की नीवं डाली, उसमें लम्बे समय तक काम नहीं किया! 'आउटलुक' शायद अकेली पत्रिका है, जिसमें विनोद मेहता इतने लम्बे समय तक रहे।
विनोद मेहता का जन्म आजादी से पहले 1942 में रावलपिंडी में हुआ था! बचपन लखनऊ में बीता। तीसरी श्रेणी में बीए करने के बाद वे नौकरी की तलाश में इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने ऐसी फैक्ट्री में काम किया जहां मशीन के सहारे लोहे की छड़ों को काटा जाता था। इंग्लैंड में वे आठ साल रहे और कई तरह के काम भी किए। फिर वे आठ साल इंग्लैंड में रहने के बाद वे बिना किसी मकसद के वापस लखनऊ लौट आए! फिर मुंबई पहुंचे, लेकिन तय नहीं था कि क्या करना है! पत्रकारिता में उनकी कोई रूचि नहीं थी, पर लिखने का लगाव जरूर था। इसी दौरान उन्होंने अभिनेत्री मीना कुमारी की जीवनी लिख डाली!
उन दिनों बंबई (अब मुंबई) से एक अंग्रेजी पत्रिका डेबोनियर निकलती थी! जिसकी शुरुआत एक प्रिंटिंग प्रेस संचालक सुशील सोमानी ने की थी! ये वयस्क पत्रिका थी, जिसमें मॉडल्स के अर्धनग्न चित्र छपते थे। सामान्यतः इसे बेडरूम पत्रिका समझा जाता था और लोग इसे छुपाकर पढ़ते थे। पर, 1973 में निकली ये पत्रिका चली नहीं! पत्रिका बंद होने की स्थिति में थी, तभी विनोद मेहता को जानकारी मिली। उन्होंने सुशील सोमानी से संपर्क किया कि मुझे ये पत्रिका सौंप दें, मैं इसे बंद नहीं होने दूंगा। सोमानी ने भी सोचा कि पत्रिका बंद तो करना ही है, ये प्रयोग भी कर लिया जाए! उन्होंने विनोद मेहता को 'डेबोनियर' का एडीटर बना दिया! ये विनोद मेहता का पत्रकारिता में पहला कदम था। उन्होंने 'डेबोनियर' की मूल सामग्री को बरक़रार रखते हुए, उसमें बौद्धिक सामग्री और एक बड़ा इंटरव्यू भी छापना शुरू किया! उन्होंने पत्रिका को जमाने में मेहनत की!
उन्होंने साप्ताहिक अखबार 'द संडे आब्जर्वर' को शुरू किया। इसके बाद 'इंडियन पोस्ट' और 'इंडिपेंडेंट' जैसे अखबारों को संभाला। 'पायनियर' के दिल्ली संस्करण की शुरुआत की और इन सबके बाद डेढ़ दशक से ज्यादा समय तक 'आउटलुक' समेत समूह की दस पत्रिकाओं के संपादन का दायित्व संभाला! 'आउटलुक' का उनका सफर बेहद चमकदार और कामयाब रहा। विनोद मेहता ने इस पत्रिका को हमेशा भीड़ से अलग रखने की कोशिश की और इसमें सफल भी रहे! खबरों की दुनिया में उनके प्रयोग की जद्दोजहद ने कई लोगों को प्रेरित किया। आईपीएल क्रिकेट मैच के फिक्सिंग की खबर हो, अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच टकराव की खबर हो या फिर टूजी-घोटाले से जुड़े राडिया टेप के दस्तावेज को प्रकाशित करने का मामला! इन खबरों को उन्होंने बिना किसी दबाव के छापा! सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार को बेनकाब करने वाली ख़बरों को छापना किसी भी संस्थान के लिए कितना मुश्किल होता होगा?
धमाकेदार ख़बरों को छापने के बावजूद विनोद मेहता ने कभी भंडाफोड टाइप की पत्रकारिता नहीं की! 'आउटलुक' में जो भी छपता था, बतौर खबर ही उसका ट्रीटमेंट होता रहा! उन्होंने कभी अपने खबरखोजियों को अकेला नहीं छोड़ा! जैसा कि अमूमन अखबार की दुनिया में होता है! वे हमेशा अपने रिपोर्टर्स के साथ खड़े होते थे। उन्होंने अपने सिद्धांतों के साथ भी कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने जो भी अखबार और पत्रिकाएं शुरू की, वे उनके छोड़ने के बाद नहीं चले! जो इस बात की निशानी है कि उनके अलावा कोई भी उन्हें सफलता से नहीं चला सका!
बतौर पत्रकार और संपादक विनोद मेहता का करियर कामयाब रहा! उनके द्वारा संपादित अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने अलग कंटेंट से पहचान भी बनाई। लेकिन, इस सफलता के पीछे सिर्फ और सिर्फ उनका संघर्ष और चुनौतियों से जूझने की क्षमता ही थी! विनोद मेहता ने इसका दिलचस्प विवरण अपनी आत्मकथा 'लखनऊ ब्वॉय ए मेमोयार' में किया है। जिसका विस्तार उनकी दूसरी पुस्तर 'एडीटर अनप्लगड' में भी नजर आया है। आज विनोद मेहता नहीं है, पर लखनऊ का ये जिद्दी पत्रकार बहुत याद आएगा!
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