- हेमंत पाल
जाति आरक्षण ने देश को जो दर्द दिया है राजस्थान का गुर्जर आंदोलन उसीकी कोख से जन्मा है। गुर्जर आरक्षण का जिन्न एक बार फिर 5 फीसदी आरक्षण की मांग लेकर पटरियों पर उतर आया हैं। देखा गया है कि जब भी गुर्जर समाज को अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करना होता है तो वे रेल कि पटरियों पर उतर आते हैं। वे सिर्फ पटरियों पर धरना देकर रेले ही नहीं रोकते, उन्हें उखाड़ने जैसा देश विरोधी कृत्य से बाज नहीं आते!
2007 के मई महीने में पाटौली के चक्का जाम से देशभर में गुर्जर आरक्षण आन्दोलन को एक शक्ल और पहचान मिली थी। अब इसकी शक्ल वो तो नहीं रही, जो शुरू में थी। लेकिन, पहचान के लिए ये आंदोलन घटनाओं का मोहताज नहीं रहा है। जब भी इस आंदोलन का जिक्र होगा, वसुंधरा राजे का नाम जरूर आएगा! प्रदेश की इसी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में ये आन्दोलन शुरू हुआ था। पाटौली आंदोलन से उपजे गुर्जर-मीणा विवाद के चलते भाजपा नेता डॉ किरोडी मीणा उससे दूर हो गए। लेकिन, वसुंधरा राजे के आस-पास आज भी आरक्षण आंदोलन और उसकी घटनाऐं बनी रहती हैं।
राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन समिति के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला ने इस आंदोलन को पहली बार हवा दी थी! दबी-बुझी चिंगारी की बैसला ने ही फूंका और उसे सुलगाकर दावानल बना दिया! पहली बार 2007 में जब राजस्थान में गुर्जर आरक्षण को लेकर आंदोलन शुरू हुआ था तब 26 गुर्जरों ने इस आंदोलन में अपनी जान गंवाई थी! इसके बाद 2008 में फिर आंदोलन शुरु हुआ। तब मरने वालों मौतों की संख्या 37 हो गई थी। 9 अन्य लोग भी इस आंदोलन की भेंट चढ़ गए थे!
2007 और 2008 में जब गुर्जर आरक्षण को लेकर आंदोलन हुए थे तब प्रदेश में वसुन्धरा राजे की भाजपा की सरकार थी। आंदोलन के दौरान हुई फायरिंग में कई आंदोलनकारियों समेत पुलिस वाले भी मारे गए थे। इसे लेकर तत्कालीन प्रदेश सरकार की देशभर में काफी किरकिरी हुई थी। संयोग ही कहा जाएगा की गुर्जर आरक्षण को लेकर दो बार आंदोलन हुए वे भाजपा के कार्यकाल में ही हुए! अब जबकि तीसरा आंदोलन शुरू हुआ तो वह भी भाजपा के कार्यकाल में!
इस मुद्दें को लेकर राजस्थान में सियायत काफी गरम रही हैं। दोनों आंदोलनों के दौरान जहां सरकार के लिए यह आंदोलन गले का फांस साबित हुआ, तो विपक्षी दलों के लिए यह राजनीतिक रोटियां सेकने का बेहतरीन जरिया साबित हुआ! आंदोलन के दौरान जहां सरकार और आंदोलनकारी आमने-सामने खड़े दिखाई दिए तो वहीं कई विपक्षी पार्टियों ने गुर्जरों को उकसाने का भी काम किया। कानूनी तौर पर भले ही गुर्जर समाज को 5 प्रतिशत आरक्षण देना संभव न हो, पर विपक्षी पार्टियां ये दावा करती रही कि यदि वे सत्ता में आएंगे तो गुर्जरों को 5 प्रतिशत आरक्षण देंगे।
पिछली वाली अशोक गहलोत सरकार ने अपना राजनीतिक हित साधने के लिए गुर्जरों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा करके गुर्जरों को खुश करने का प्रयास किया था. लेकिन गुर्जरों की यह खुशी कुछ समय में ही काफूर हो गई थी! अदालत ने 5 प्रतिशत गुर्जर आरक्षण पर रोक लगाते हुए कहा था की राज्य में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता! एक बार फिर वैसी ही स्थिति बन रही हैं! गुर्जर समाज आरक्षण की अपनी मांग को लेकर आंदोलन का बिगुल बजा चुके हैं, तो वहीं विपक्ष भी उनका साथ देने को तैयार हैं।
राजस्थान में सरकार ने गुर्जर और कुछ अन्य जातियों को विशेष पिछड़ा वर्ग में मानते हुए 5 फीसदी आरक्षण के प्रावधान किए हैं। इस कारण राज्य में आरक्षण 50 से बढ़कर 54 फीसदी हो गया! इसमें 21 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग, 16 फ़ीसदी अनुसूचित जाति, 12 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। सरकार अनुसूचित वर्ग के आरक्षण में कोई का- छांट नहीं कर सकती! लेकिन, अगर अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण के 21 फीसदी कोटे में कोई उलटफेर किया तो इसमें शामिल प्रभावशाली जातियां सहन नहीं करेगी! गुर्जर आरक्षण पर अदालत ने स्थगन जारी कर रखा है। सरकार ने जैसे ही गुर्जर समुदाय के लिए 5 फीसदी आरक्षण व्यवस्था की, राज्य में आरक्षण बढ़कर 54 फीसदी हो गया! इसे तुरंत अदालत में चुनौती मिल गई और यह कानूनी लड़ाई में फंस गया! सरकार को यह समझ नहीं आ रहा कि कैसे इसका स्वीकार्य हल निकाला जाए!
राजस्थान का गुर्जर समाज आरक्षण आंदोलन समिति के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला के हाथ की कठपुतली बन गया हैं। इस आंदोलन में अब तक 72 लोगों की मौत कर्नल की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान है! 2007-2008 के आंदोलन के समय कर्नल कहते रहे की वह कभी किसी राजनीतिक दल का दामन नहीं थामेंगे और निष्पक्ष रहते हुए गुर्जरों को उनका ह़क दिलवाएंगे! जबकि, असलियत में खुद को समाज का मसीहा कहने वाले बैसला निजी स्वार्थ के कारण गुर्जर आंदोलन को हवा देते हैं! पहलें भाजपा सरकार के कार्यकाल में आंदोलन करना, फिर उसी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ना दर्शाता है कि कर्नल अपनी बात पर कभी अडिग नहीं रहे! वैसे दिखावे के लिए बैसला ने आंदोलन को लोकतांत्रिक तरीके से चलाने की अपील इस बार भी की थी, पर ऐसा हो नहीं सका!
बैसला ने आंदोलनकारियों से कहा था कि वे रेल पटरियों को नुकसान न होने दें! पहुंचे क्षतिग्रस्त न करे और यात्रियों को परेशान न करें! छीना-छपटी भी नहीं करें! किन्तु, पिछले दो आंदोलनों में कर्नल की मौजूदगी में यह सबकुछ हुआ और कर्नल सब कुछ देखते रहे! इस बार भी ये सब शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
राजस्थान की भाजपा सरकार यह जानती है कि यह बेहद ज्वलंत मुद्दा है! इसे काफी संजीदगी से संभालना होगा. पिछली बार आंदोलन के दौरान हुए गोलीकांड के बाद सरकार को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। गुर्जर समाज के लोग आरक्षण की मांग को लेकर जब भी उतरते है उससे न केवल सरकारी सम्पत्ति का अच्छा खासा नुकसान होता है, बल्कि आम जनता को भी इस आंदोलन की अच्छी-खासी कीमत चुकानी पड़ती हैं। गुर्जर आंदोलनकारी इतनें उद्दंड हो जाते हैं कि न केवल रेल की पटरियों को उखाड़ फेंकते हैं, बल्कि लोगों और राहगीरों से बदसलूकी भी करते हैं!
मई 2008 के पीलूपुरा पार्ट-1 के समय वसुंधरा राजे बयाना तक आई, मगर रेल्वे ट्रेक पर नहीं गई! तब ये आंदोलन 28 दिन चला था। कर्नल बैंसला ने अपने हर आंदोलन में ‘पटरी पर आए सरकार’ का नारा लगाया! इसके विपरीत अशोक गहलोत ने पीलूपुरा पार्ट-2 में अपनी सरकार के प्रतिनिधि को रेल्वे ट्रेक पर भेजकर एक अलग प्रकार का संदेश देने की कोशिश की थी। इस आंदोलन को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों का नजरिया अलग-अलग नजर आता है। गहलोत के समय कोई जनहानि नहीं हुई! वही वसुंधरा राजे के समय कई जानें चली गई! गहलोत सरकार की ओर से कहीं भी आंदोलनकारियों ने जोर जबरदस्ती जैसा कुछ नहीं किया! आंदोलन स्थल के आस-पास पुलिस भी नहीं थी। रेल्वे ट्रेक की ओर बढते गुर्जर समाज को पुलिस प्रशासन का बिल्कुल भी विरोध नहीं झेलना पडा। अब देखना है कि वसुंधरा राजे अपने राज में होने वाले इस पुराने आंदोलन से कैसे निपटती है?