Thursday, September 29, 2022

'कैबिनेट' में 'महाकाल' विराजे, शिव को मिलेगा शिव का आशीर्वाद!

- हेमंत पाल

       उज्जैन के राजा महाकाल हैं। इस नगरी में कोई भी राजा की हैसियत से नहीं आता। यही कारण है कि 'राजा' कहलाने वाले लोग उज्जैन में कभी रात नहीं बिताते! यही वजह रही होगी कि जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन में कैबिनेट बैठक करने का विचार किया, तो बैठक की अध्यक्षता महाकाल को सौंप दी। बैठक में महाकाल का फोटो उस मुख्य कुर्सी पर विराजित था जिस पर मुख्यमंत्री बैठते हैं। इस बैठक में सभी फैसले भी महाकाल मंदिर से और उज्जैन के विकास से संबंधित लिए गए। अब देखना है, कि महाकाल का आशीर्वाद शिवराज सिंह को कितना मिलता है! यह आशंका इसलिए कि नगर निकाय चुनाव में भाजपा को उम्मीद के अनुरूप सफलता नहीं मिली और न 2018 के विधानसभा चुनाव का नतीजा संतोषजनक था।        
      मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन में कैबिनेट की बैठक करके इतिहास बना दिया। ये पहला मौका है, जब पूरी सरकार महाकाल की नगरी में पहुंची और उज्जैन के हित में कई फैसले लिए। वास्तव में राजनीति में यह बिल्कुल नया और अनोखा प्रयोग है जो शिवराज-सरकार ने किया। इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंकना भी माना जा सकता है। अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उज्जैन आमंत्रित करके इसी चुनावी अभियान को आगे बढ़ाने की कोशिश होगी। 
     शिवराज सिंह का ये कदम कुछ वैसा ही है, जैसा दिसम्बर 2021 में वाराणसी में हुआ था। वहां भी प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चुनाव जिताने का अभियान शुरू किया था। वाराणसी में प्रधानमंत्री ने लगभग 339 करोड़ की लागत से बने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के पहले चरण का उद्घाटन किया था। यही सब उज्जैन में महाकाल मंदिर के जीर्णोद्धार को लेकर किया गया। दो अलग राज्य, अलग हालात, दोनों मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में लंबा अंतर, पर दोनों शहरों में भगवान शंकर ही बैठे हैं। योगी आदित्यनाथ के लिए यह सब दूसरे कार्यकाल के लिए किया गया और शिवराज सिंह के लिए यह प्रयास चौथे कार्यकाल के लिए हो रहा है।
   भाजपा की महाकाल के प्रति आस्था हमेशा रही है और इसे दर्शाया भी जाता रहा! मुख्यमंत्री शिवराजसिंह हर बार चुनाव से पहले जो 'जनआशीर्वाद यात्रा' निकालते हैं और उसकी शुरुआत यहीं से होती है। 2008 से शुरू हुई इन यात्राओं में स्वयं शिवराजसिंह को 2008 और 2013 ले तो सफलता मिली, पर 2018 में सफलता मिलने में थोड़ा विलम्ब हुआ। इस बार उन्होंने महाकाल की स्तुति काफी पहले शुरू कर दी और कैबिनेट की बैठक और प्रधानमंत्री की यात्रा उन्हीं कोशिशों का हिस्सा है। इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भाजपा एक बार फिर धार्मिक आस्थाओं को जगाकर 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है। इस शहर को बहुसंख्यक समाज का वोट बैंक माना जाता है। उज्जैन से शुरुआत करने पर मालवा क्षेत्र की 29 सीटों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आरएसएस भी भाजपा को यहीं सलाह देती है, कि धार्मिक महत्व वाले इस शहर से चुनाव अभियान वोटरों को रिझाने के लिए सही है।
     उज्जैन को चुनाव अभियान की शुरुआत के लिए चुनने के कई कारण गिनाए जा सकते है। इनमें कुछ धार्मिक हैं, कुछ विश्वास से जुड़े हुए। उज्जैन में एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर है। सिंहस्थ की नगरी होने से यहां का ज्योतिष, धार्मिक व काल गणना के रूप में विशिष्ट महत्व है। यहां से हुई शुरुआत में आस्था की झलक भी होती है, जिसका लाभ चुनाव में मिलने का भरोसा बनता है। भाजपा को इस अभियान में लगातार तीन बार (2003, 2008 और 2013) सफलता मिली, पर चौथी बार (2018) सफलता तो मिली पर सवा साल बाद।
      शिवराज मंत्रिमंडल की बैठक में सिर्फ उज्जैन को लेकर बात हुई। इसलिए भी कि बैठक में महाकाल भगवान स्वयं कुर्सी पर मौजूद रहे। जिस प्रमुख कुर्सी पर मुख्यमंत्री बैठते हैं, वहां महाकाल का फोटो रखा गया था। उसके दोनों तरह मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री विराजमान थे। कैबिनेट के फैसलों में प्रमुख था महाकाल कॉरिडोर का नाम 'महाकाल लोक' किया जाना। महाकाल पुलिस बैंड में संख्या बढ़ाया जाना। शिप्रा नदी के किनारे को अहमदाबाद के साबरमती रिवर फ्रंट की तरह विकसित किया जाना और शिप्रा के जल प्रवाह को अनवरत बनाए रखने के लिए नवीन जल संरचनाएं विकसित करना। इसके अलावा उज्जैन में हवाई पट्टी के विस्तार की बात भी बात कही गई। महाकाल कॉरिडोर परियोजना दो चरणों में पूरी होगी। पहला चरण 351.55 करोड़ का और दूसरा 310.22 करोड़ का होगा। सरकार की आस्था का चरमोत्कर्ष इतना था कि मुख्यमंत्री ने कहा कि यह सब महाकाल महाराज करवा रहे हैं, हम सब तो निमित्त मात्र हैं।
महापौर चुनाव से मिले इशारे
   इस सबके बावजूद यदि महापौर चुनाव को विधानसभा चुनाव का पूर्वाभास माना जाए तो भाजपा की जमीनी स्थिति बहुत अच्छी दिखाई नहीं देती। कांग्रेस उम्मीदवार को मिले जन समर्थन ने भाजपा की चिंता बढ़ा जरूर दी है। राजनीतिक समझ वालों का कहना है, कि यदि भाजपा को 2023 के विधानसभा चुनाव को जीतना है, तो कार्यकर्ताओं और जनता का विश्वास जीतने के लिए ज्यादा मेहनत करना होगी। इसका सीधा प्रमाण है कि यहां से भाजपा का महापौर उम्मीदवार मात्र 736 वोट से चुनाव जीता। भाजपा ने मुश्किल से महापौर को जिता तो लिया। लेकिन, उसके पार्षद 54 में से केवल 37 ही जीते! भाजपा उज्जैन की मुस्लिम इलाके की 7 सीटों समेत 17 सीटें हार गई। उसकी सबसे बड़ी हार उज्जैन-उत्तर विधानसभा क्षेत्र के वार्डों में हुई। इसके कारण जो भी हों, पर विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिलने के आसार लगाए गए हैं।
    पिछले (2018) चुनाव के नतीजों को देखा जाए तो वे भी भाजपा के लिए संतोषजनक अच्छे नहीं रहे थे। 2013 में सातों विधानसभा सीटें जीतने वाली भाजपा यहां 4 सीटें हार गई थी। उस विधानसभा चुनाव में उज्जैन-उत्तर विधानसभा से भाजपा के पारस जैन 25313 वोट से चुनाव जीते थे। उन्होंने कांग्रेस के राजेंद्र भारती को हराया था। उज्जैन-दक्षिण विधानसभा से भाजपा के डॉ मोहन यादव 18632 वोट से जीते थे। उनके सामने कांग्रेस से राजेंद्र वशिष्ठ चुनाव लड़े, पर हार गए। उज्जैन-दक्षिण में इतनी अच्छी जीत का अंदाजा भाजपा ने भी नहीं किया था। क्योंकि, कांग्रेस उम्मीदवार राजेंद्र वशिष्ठ से मोहन यादव की कड़ी टक्कर माना जा रहा था। घट्टिया विधानसभा से कांग्रेस के रामलाल मालवीय 4628 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के अजीत बोरासी हराया था। जबकि, बड़नगर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के मुरली मोरवाल 5381 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के संजय शर्मा को हराया था।
    नागदा-खाचरौद विधानसभा से कांग्रेस प्रत्याशी दिलीप गुर्जर 5898 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के दिलीप शेखावत को 3007 वोटों से मात दी थी। कांग्रेस के दिलीप गुर्जर ने भाजपा के दिलीप शेखावत को दूसरी बार चुनावी शिकस्त दी थी। तराना विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार महेश परमार 2206 वोट से जीत गए थे। उन्होंने भाजपा के अनिल फिरोजिया को हराया था। महिदपुर विधानसभा से भाजपा के बहादुर सिंह चौहान ने 15220 वोट से जीत दर्ज की थी। उन्होंने निर्दलीय दिनेश चंद्र जैन बोस को हराया था। इस मुकाबले में कांग्रेस के बागी दिनेश जैन बोस ने कांग्रेस को हाशिए पर डाल दिया और कांग्रेस उम्मीदवार सरदार सिंह चौहान की जमानत तक जब्त हो गई थी। 2013 में यहीं से कांग्रेस की कल्पना परुलेकर की भी जमानत जब्त हुई थी।
    भाजपा के उज्जैन में जोर लगाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वो अगले चुनाव में कोई रिस्क लेने के मूड है। फिलहाल की शिवराज सरकार कैसे बनी, ये सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत नहीं होती, तो फिर से भाजपा सरकार बनना आसान नहीं था। पर, जैसे भी सरकार बनी, बन गई! पर, इस चुनावी सफलता को यदि 2023 के चुनाव में भी जारी रखना है, तो एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। देखा जाए तो जो कोशिशें शुरू हुई उनका इशारा उसी तरफ है। देखना है कि चुनाव में भगवान महाकाल किसका साथ देते हैं।
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Sunday, September 25, 2022

एक ये राजू, कुछ और राजू, सभी रहे बेमिसाल!

- हेमंत पाल

     कुछ दिनों से राजू नाम का ढाई अक्षर खासी चर्चा में है। देखा जाए तो राजू नाम सामान्य भारतीय या आम आदमी का पर्याय या परिचायक है। राजू भैया भी हो सकता है और राजू चाचा भी। राजू हमारे आसपास रहने वाला कोई नटखट बच्चा भी हो सकता है और संजीदा इंसान भी! समाज में हमें राजू मैकेनिक भी मिल जाएंगे, राजू ड्राइवर, राजू हलवाई और राजू चाय वाला भी मिल जाएगा। मतलब सिर्फ इतना है कि 'राजू' आम और साधारण भारतीय का सहज सुलभ प्रतिनिधि नाम है। समाज के इसी प्रतिनिधि नाम को सिनेमा में भी खासी जगह मिली और खूब मिली। फिल्मों में भी 'राजू' बेहद सामान्य नाम है। 
      कई फिल्मों के नायकों के नाम 'राजू' रखे गए। ऐसा ही एक नाम स्टैंडअप कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का भी था, जो 42 दिन की नीम बेहोशी के बाद दुनिया से विदा हो गए। इसलिए कहा जा सकता है कि सिनेमा में एक राजू था जो मंच से लोगों को हंसाने में सिद्धहस्त था! दूसरा राजू था क्लासिक फिल्म 'गाइड' का राजू गाइड यानी देव आनंद, तीसरा राजू था जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर और दो उस्ताद जैसी कई फिल्मों का महान कलाकार राजू राज कपूर! इसके अलावा आज की फिल्मों के दौर में भी एक राजू परदे पर खूब छाया, जो है 'राजू बन गया जेंटलमेन' जैसी फिल्म का राजू यानी शाहरुख़ खान। ये जितने भी राजू हैं, सभी अपनी जगह बेमिसाल रहे। एक लोगों को हंसाने में और बाकी तीनों को अपनी अदाकारी से दर्शकों का मन बहला कर मनोरंजन करने में महारत रही।  
     राज कपूर के राजू रूप धरकर में कई फिल्मों में किरदार निभाए। पहली बार उन्होंने 'आशियाना' में राजू का किरदार निभाया था। उसके बाद पापी, दो उस्ताद, जिस देश में गंगा बहती है। गिना जाए तो छह फिल्मों में राज कपूर के नाम 'राजू' रहे। उन्होंने आत्मकथ्य के रूप में 'मेरा नाम जोकर' बनाई जिसमें राजू एक जोकर, एक शोमैन, एक तमाशबीन बना और उसके बाद मर गया। इसके बाद वे फिर कभी परदे पर राजू बनकर दिखाई नहीं दिए। अपने राजू किरदार की मौत के बाद वे अपनी निर्देशित किसी फिल्म में अदाकारी करते परदे पर नहीं आए!
     'मेरा नाम जोकर' के राजू किरदार के रूप में उन्होंने अपनी अंतिम कहानी दर्शकों को दिखाई थी। 60 के दशक में जब जब राज कपूर का जादू चलता था, उन्होंने 'राजू' नाम से एक खास चरित्र को परदे पर जन्म दिया। ये ऐसा राजू था, जिसका दिल इतना कोमल था कि वो दूसरों का दुःख देखकर रोने लगता था। परदे के इस राजू में नायक का हमेशा नायकत्व का भाव रहा। इसलिए कि राजू उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था और यही प्रेम उसे संबल देता और चेताता रहता। इससे वह बुराई के रास्ते पर एकदम अंधा होकर ही न चलता जाए। प्रेम ने उसके लिए हमेशा चेतना का काम किया।
    दूसरा राजू था हर दिल अजीज कलाकार देव आनंद, जिसने विजय आनंद की क्लासिक फिल्म 'गाइड' में राजू गाइड की भूमिका निभाई। ये फिल्म 1966 में रिलीज हुई थी। 1967 के फिल्म फेयर अवार्ड में 9 नामांकन पाकर 7 पुरस्कार जीतने में सफल रही। इस फिल्म को आज भी अपने समय काल से आगे की फिल्म कहा जाता है। इसलिए कि फिल्म की नायिका विवाहित होते हुए गैर मर्द से प्रेम करती है, बल्कि अपने पति को सच बता भी देती है। इस फिल्म का डायलॉग था 'मैं बेवफाई करूंगी मार्को तो खुले आम, काम का बहाना करके घने जंगल में चुपके से नहीं!' नवकेतन और देव आनंद की यह पहली रंगीन फिल्म थी, जिसका बजट भी तब के हिसाब से बहुत बड़ा था। 
    पहले इस फिल्म का निर्देशन चेतन आनंद करने वाले थे। लेकिन, वे उनकी आदत थी, कि वे किसी की सुनते नहीं थे। फिल्म की हीरोइन वहीदा रहमान को लेकर भी उन्हें आपत्ति थी। चेतन आनंद चाहते थे, कि फिल्म की नायिका लीला नायडू बने। लेकिन, देव आनंद की भी जिद थी, कि रोजी मार्को के किरदार में वहीदा रहमान ही काम करेगी। इस बीच चेतन आनंद को 'हकीकत' के निर्देशन की जिम्मेदारी मिली और फिर 'गाइड' का निर्देशन विजय आनंद के जिम्मे आ गया। 'गाइड' को हिंदी सिनेमा का टर्निंग प्वाइंट भी माना जाता है, जिसने फिल्मों को परंपरागत कथानक से अलग राह दिखाई। 
    इस फिल्म की कहानी की विशेषता थी, कि इसमें कोई नायक और खलनायक नहीं था। फिल्म की कहानी सिर्फ राजू गाइड पर केंद्रित थी, जिसे नर्तकी नलिनी उर्फ रोजी के साथ अमानत में खयानत करने पर सजा मिलती है। जेल से रिहाई के बाद राजू गरीबी, निराशा, भूख और अकेलेपन की वजह से इधर-उधर भटकता है। एक दिन साधुओं की टोली के साथ राजू एक छोटे से गाँव के पुराने मंदिर में सो जाता है। सुबह मंदिर से निकलने से पहले एक साधु सोते हुए राजू पर पीताम्बर वस्त्र ओढ़ा देता है। गांव का एक किसान पीताम्बर ओढ़कर सोते हुए राजू को साधु समझ लेता है। गांव वाले भी उसे साधु मान लेते हैं। उसे अपनी समस्याएं बताते हैं और संयोग से वे हल भी होती है। अब राजू को उस गांव में स्वामीजी के नाम से जाना जाने लगता है। लेकिन, गांव के पंडितों से उसके मतभेद भी हो जाते हैं। गांव वालों को एक कहानी सुनाते हुए राजू उनको एक साधु के बारे में बताता है कि एक बार एक गांव में अकाल पड़ गया था और उस साधु ने 12 दिन तक उपवास रखा और उस गांव में बारिश हो गई।
     फिल्म की कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है। रोजी का पति पुरातत्व शास्त्री है, राजू उसका गाइड बनकर जान लेता है कि उसे अपनी पत्नी से कोई स्नेह नहीं है। उसका प्रेम किसी और के साथ चल रहा है। वह एकाकी जीवन बिता रही रोजी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता है और उसके भीतर छुपे कुशल नर्तकी के हुनर को पंख फैलाकर उड़ने में मदद करता है। इसके बाद कहानी में ऐसे मोड़ आते हैं कि दर्शक बंधा रह जाता है। 'गाइड' को इसकी मैकिंग के लिए हिंदी सिनेमा में क्लासिक का दर्जा मिला है। आरके नारायण की साहित्यिक कहानी को विजय आनंद ने फिल्मी स्क्रिप्ट में जिस तरह बदल दिया था, वो भी अनूठी बात थी।
    ‌    इन सभी राजू की राख से पैदा हुआ है आज का राजू यानी उसका चालाक और धूर्त संस्करण। यह अब राजू जेंटलमैन का लबादा ओढ़कर राज के नाम से परदे पर अवतरित हुआ है। यह कभी राज मल्होत्रा तो कभी राज सिंघानिया बनकर एक-दो नहीं सात बार राजू या राज बना! शाहरुख़ खान ने राजू बन गया जेंटलमैन, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, बादशाह, मोहब्बतें, चलते-चलते, हे बेबी और 'रब ने बना दी जोड़ी' में अवतरित हो चुका हैं। परदे के सभी राजू और राज से नया राजू मेल नहीं खाता! क्योंकि, ये राज कपूर या देव आनंद की तरह दर्शकों के दिल में नहीं उतरता! इसलिए कहा जा सकता है कि एक राजू वह राज कपूर था, जिसके होठों पे सच्चाई और दिल में सफाई रहती थी। यह राजू इस दुनिया से रुखसत होकर पैदल ही खुदा के पास यह कहकर चला गया कि न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है।‌
    दूसरा राजू वह था जिसने 'गाइड' यानि मार्गदर्शक बनकर शादी के अनचाहे बंधन में बंधी नारी के बंधन तोड़कर न केवल एक दिशाहीन नारी के पैरों में पायल बांधी, बल्कि इस देश के उन भोले-भाले लोगों की आस्था को जीवित रखा, जो मानते थे कि अगर कहीं भगवान है तो वह अपने बंदों की जरूर सुनता है। वह राजू गाइड भी चला गया। क्योंकि, अब भगवान के होने या न होने के फैसले आस्था से नहीं अदालतों से किए जाते हैं। तीसरा वह राजू था, जिसने हंसते-हंसाते कई नेताओं, अभिनेताओं और स्वामियों के चेहरों से मुखौटे उतारे। यह राजू अभी-अभी नश्वर संसार को छोड़कर चल बसा! क्योंकि, आज समाज में राजू का निश्चछल रूप बदल जो गया है। असली राजू चले गए, पर हमारी यादों में वे हमेशा जिंदा रहेंगे! क्योंकि, आम आदमी का प्रतिनिधि 'राजू' कभी नहीं मरता।  
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Friday, September 23, 2022

'आता हूं आपके दफ्तर, एडिटर बनकर बहुत मजा आएगा!'

 श्रद्धांजलि : राजू श्रीवास्तव 

- हेमंत पाल 

  राजू श्रीवास्तव नहीं रहे, ये बात अब बासी हो गई। लेकिन, उस लोगों का दुःख कम नहीं हुआ जो उन्हें नजदीक से जानते थे या जिन्होंने उनके साथ लम्बा समय बिताया। वे कॉमेडियन थे, यह उनकी पहचान थी। पर, वास्तव में वे बेहद संजीदा इंसान थे। वे कब, कौनसी बात पर कैसी मसखरी वाली बात कर देंगे, कोई अनुमान नहीं लगा सकता था। अक्सर राजू के नाम के साथ लोग कॉमेडियन विशेषण के तौर पर लगा देते हैं। पर, राजू गंभीर कलाकार थे। 
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    हास्य ऐसी विधा है, जिसे कर पाना सबसे मुश्किल अभिनय है। हंसाना उनका पेशा था और वे इसमें सिद्धहस्थ भी थे, पर वे जब गंभीर बात करते थे तो उसमें गहरा उतर जाते थे। उनकी नजर में कॉमेडी मतलब सिर्फ लोगों को हंसाना ही नहीं था। वे मानते थे कि कॉमेडी बहुत गंभीर विधा है। लोग आपकी किस बात पर हंसेंगे, इसका अहसास होना बहुत जरुरी है और सबसे बड़ी बात ये कि जब कोई जोक सुनाया जाता है तो कॉमेडियन की भाव भंगिमाएं बहुत मायने रखती हैं। दोनों का तालमेल ही सुनने और देखने वाले को गुदगुदाता है। 
    मुझे उनसे पहली मुलाकात का दिन याद है, जब वे अपने कॉमेडी वाले टीवी शो के प्रमोशन के सिलसिले में इंदौर आए थे। मुझे भी औपचारिक आमंत्रण मिला, पर मैंने सीधे राजू श्रीवास्तव से फोन पर बातचीत की और उन्हें 'नईदुनिया' आने का निमंत्रण दिया। तब मैं 'नईदुनिया' में फिल्म और टीवी सेक्शन का इंचार्ज था। मैंने उन्हें फोन पर उन्हें अखबार के सिटी सप्लीमेंट का एक दिन का गेस्ट एडिटर बनने का भी अनुरोध किया। आश्चर्य की बात कि उन्होंने बिना सोचे कहा 'मैं आता हूँ हेमंत भाई! बहुत मजा आएगा एडिटर बनकर!' अपने वादे के मुताबिक वे 'नईदुनिया' के दफ्तर पहुंचे और अनुराग तागड़े के साथ गंभीरता से काम किया। जब उन्हें लगा कि अखबार के दफ्तर में तीन-चार घंटे लगेंगे, तो उन्होंने चैनल को फोन करके अपना फ्लाइट टिकट भी दोपहर से शाम का करवा लिया था।
     उन्हें सिटी सप्लीमेंट का गेस्ट एडिटर बनाया था तो कुछ ख़बरें भी उन्हें दिखाई, उन्होंने बीच-बीच मेंचुटीले कमेंट जुड़वाए! उस दिन उन्होंने अखबार में काम के तरीके को समझा। उन्हें अचरज भी हुआ कि अखबार के पीछे कितने लोगों की कितनी मेहनत लगती है। वे करीब चार घंटे साथ रहे! दफ्तर में हर किसी से मिले और बेहद आत्मीय अंदाज में! बीच-बीच में उनके चुटीले जोक भी लोगों ठहाकों के लिए मजबूर करते रहे। शायद उस दिन दफ्तर में दोपहर में सौ-डेढ़ सौ लोगों से वे मिले और सभी से कुछ न कुछ बात जरूर की! आशय यह कि वे मंच पर ही कॉमेडी नहीं करते थे, वे आशु कवि की तरह आशु कॉमेडियन भी थे जो लोगों से बात करते-करते उनकी ही बातों से व्यंग्य खोज लेते थे। 
      राजू श्रीवास्तव के बारे में कहा जाता था कि वे परिस्थितियों से कॉमेडी खोजा करते थे। उन्होंने भी बातचीत में ये बात बताई थी कि हर व्यक्ति कहीं न कहीं कॉमेडी करता है, बस उसे उस नजर से देखने की जरूरत होती है। ट्रेनों में तो चारों तरफ कॉमेडी होती है। दरअसल, राजू श्रीवास्तव वे व्यक्ति थे, जो कोलेड़ी की दुनिया में आम आदमी का दुख दर्द लेकर आए थे। वे लोगों को हंसाने में सिद्धहस्त थे। राजू के मंच पर उतरने से पहले तक लोगों को इस बात का अंदाज नहीं था, कि किसी व्यक्ति के चलने फिरने, बोलने और उसके देखने के ढंग को भी कॉमेडी में बदला जा सकता है। यह सब राजू ने किया, फिर उसे दूसरे स्टैंडअप कॉमेडियन से सीखा। राजू ने तो 'शोले' जैसी फिल्म में गब्बर सिंह के किरदार में भी कॉमेडी का पुट निकाल लिया था। वे टीवी के न्यूज़ एंकर की भी जबरदस्त मिमिक्री करते थे।         
     राजू श्रीवास्तव ने अपने मंच पर कई किरदारों को जन्म दिया। उन्हीं में से एक था 'गजोधर' जो उनकी पहचान के साथ ही जुड़ गया था। उनकी सबसे बड़ी खूबी थी कि वे निर्जीव वस्तुओं को भी जीवंतता देने में माहिर थे। वे उसके आसपास कुदरती माहौल बनाकर उसमें हास्य पैदा कर देते थे। राजू का एक टीवी रिपोर्टर से इंटरव्यू लेना भी काफी चर्चित हुआ, जो बम नहीं फटने से जीवित बच जाता है। उसकी एक लाइन थी 'मैं बम हूं, मैं फटूं!' इस सामान्य सी लाइन को राजू जिस तरह कहते थे, वो कभी भुलाया नहीं जा सकता। शादी में लोगों के खाना खाते समय प्लेट में खाने के आइटमों की आपस में बातचीत करने वाला उनका जोक भी काफी चर्चित हुआ।
     राजू श्रीवास्तव से मेरी आखिरी मुलाक़ात 2019 में मुंबई में तब हुई, जब उन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने 'यूपी फिल्म विकास परिषद्' का अध्यक्ष बनाया था। मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीयों ने इस उपलब्धि पर उनके सम्मान में एक कार्यक्रम रखा था। राजू और मेरे कॉमन फ्रेंड उद्योगपति, समाजसेवी राम जवाहरानी मुझे उस कार्यक्रम में अपने साथ ले गए थे। बांद्रा के एक कॉलेज का हॉल खचाखच भरा था! पर, राजू की ही खासियत थी, कि उन्होंने मंच से उतरकर एक-एक से हाथ मिलाया और पुरबिया में बात की। पलटकर वापस आए तो आगे की लाइन में जब उनकी नजर मुझ पर पड़ी तो उनका जो अंदाज था, वो आज भी नजरों में बसा है! जोर से ताली बजाकर आधे झुककर जोर से बोले 'अरे हेमंत भैया ... जे बात हुई, बहुतई मजा आ गया!' कार्यक्रम के बाद उनसे फिर बहुत देर बात हुई! इंदौर आने की बात पर बोला था 'आता हूँ भैया, आपके साथ 2-3 दिन रहकर मजे करेंगे!' लेकिन, उनका वो वादा पूरा नहीं हुआ! बुधवार सुबह जब उनके निधन की जानकारी मिली, तो वो सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजर गए, जो उनके साथ बिताए थे! तत्काल फोन उठाया और उनका मोबाइल नंबर हमेशा के लिए डिलीट कर दिया! क्योंकि, अब ये नंबर मेरे लिए अनजान है।       
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Thursday, September 22, 2022

बड़े अफसरों पर बड़ी कार्रवाई!

  
- हेमंत पाल

    विधानसभा चुनाव के एक साल पहले से लगता है सरकार ने मुस्तैदी दिखाना शुरू कर दी। एक सप्ताह में इंदौर संभाग के चार बड़े अफसरों को शिकायतों के आधार पर जिस तरह से हटाया गया, वो गौर करने वाली बात है। झाबुआ के एसपी और कलेक्टर को एक दिन के अंतर से हटाया गया। जबकि, इंदौर के आबकारी डिप्टी कमिश्नर और धार के आबकारी अधिकारी को ग्वालियर भेजा गया। इन सभी को शिकायतों, गड़बड़ियों, लापरवाहियों और पद के दुरूपयोग के चलते पद से हटाया गया। जिस तरह से इन अधिकारियों को हटाया गया वो सरकार की नियमित कार्यवाही नहीं कहीं कहा जा सकता। इन अधिकारियों को बकायदा शिकायत के आधार पर हटाया गया है। 
    झाबुआ एसपी अरविंद तिवारी का सोमवार को पॉलिटेक्निक के छात्रों से बातचीत का एक ऑडियो वायरल हुआ था। इस ऑडियो में एसपी अरविंद तिवारी छात्रों को फोन पर गालियां देते सुनाई दे रहे थे। फोन करने वाले छात्र ने उन्हें कॉलेज की जमीन पर अतिक्रमण की शिकायत की थी। इस पर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की और जब छात्रों ने एसपी से अपनी सुरक्षा की मांग की तो उन्हें सीधे धमकी और गालियां दी गई। मामला सीएम शिवराज सिंह चौहान की जानकारी में आया तो उन्होंने सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए। सीएम ने सोमवार सुबह प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी को तुरंत झाबुआ एसपी को हटाने के निर्देश दिए। सीएम से निर्देश मिलते ही गृह विभाग ने कार्रवाई की। लेकिन, उससे पहले उन्हें सस्पेंड किया गया।  
   मंगलवार सुबह झाबुआ कलेक्टर सोमेश मिश्रा को भी पद से हटा दिया गया। उन पर गंभीर अनियमितताओं और लेन-देन की शिकायत मुख्यमंत्री को मिली थी। कलेक्टर सोमेश मिश्रा उत्तराखंड के बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष मदन मोहन कौशिक के दामाद हैं। लेकिन, तारीफ की बात है कि इस राजनीतिक नजदीकी का मुख्यमंत्री की कार्रवाई पर कोई असर नहीं पड़ा! सोमवार को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान झाबुआ जिले के पेटलावद आए थे। वहां उन्हें कलेक्टर के खिलाफ कई शिकायतें की गई। क्षेत्र के रजिस्टर्ड डॉक्टर्स ने तो ज्ञापन देकर मुख्यमंत्री से कहा कि उनके क्लीनिक पर ताले डालने की धमकी दी गई और उसके बदले में डिमांड की गई। जबकि, बंगाली डॉक्टर जिनका कामकाज पूरी तरह अवैध है, उन्हें संरक्षण दिया गया। बताते हैं कि मुख्यमंत्री ने तभी आश्वासन दिया था कि जल्द ही कार्रवाई होगी। इसके बाद मंगलवार सुबह कलेक्टर पर आदेश का कहर टूटा। इंदौर कमिश्नर कार्यालय में पदस्थ 2013 बैच की अपर कमिश्नर रजनी सिंह को झाबुआ का नया कलेक्टर बनाया गया है।         
     जानकारी मिली कि झाबुआ कलेक्टर सोमेश मिश्रा पर सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में भी गड़बड़ी करने के आरोप हैं। सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाओं में बेवजह देरी करने और रिश्वतखोरी सहित तमाम शिकायतें पहले भी हुई थी। मुख्यमंत्री को पेटलावद दौरे के समय बीजेपी नेताओं समेत कई अन्य लोगों ने भी शिकायत की थी। इसके बाद उन्हें हटाने का फैसला किया गया। इसी साल फ़रवरी में उनकी बहन की शादी जिस आलीशान ढंग से शादी हुई थी, तभी से वे आंख में आ गए थे। इस शादी में लाखों रुपए खर्च किए गए। झाबुआ में चर्चा यह भी है कि जिले के हर विभाग से शादी के लिए जमकर वसूली की गई थी। इसके बाद भी उनके खिलाफ शिकायतें हुई थी! पर, तब इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। अब, जबकि लोगों ने सामने आकर मुख्यमंत्री को बताया तो उन्हें हटाने का फैसला किया। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कलेक्टर के बाद यहां से कलेक्टर के कारनामों में साझेदार कुछ एसडीएम भी हटाए जा सकते हैं! 
आबकारी विभाग में कार्रवाई 
     इंदौर के चर्चित आबकारी घोटाला मामले में भी प्रदेश सरकार ने लगातार बड़ी कार्रवाई की। सरकार ने 5 करोड़ 40 लाख की गड़बड़ी वाले इस मामले में पहले प्रथम दृष्टया दोषी मानते हुए इंदौर के सहायक जिला आबकारी अधिकारी राजीव उपाध्याय और फिर सहायक आबकारी आयुक्त राजनारायण सोनी पर कार्रवाई की। शराब ठेकेदारों ने अधिकारियों से मिलकर करोड़ों की चपत लगाई थी।ई-टेंडर से 2022-23 के लिए शराब ठेके दिए गए थे। एमआईजी समूह का ठेका लेने वाला ठेकेदार मोहन कुमार अपनी बकाया जमा राशि चुकाए बिना ही भाग गया। 
     कलेक्टर इंदौर मनीष सिंह ने इस मामले में कड़ी कार्रवाई करते हुए आबकारी अधिकारियों को नोटिस जारी किए थे। इसके बाद प्रमुख सचिव वाणिज्य कर को भेजे पत्र में शासन ने राजस्व क्षति का जिक्र किया था। इसमें सहायक आयुक्त आबकारी की लापरवाही सामने आई थी। इन्हीं कारणों से सहकारी आबकारी आयुक्त को निलंबित कर दिया गया है। इसके बाद इसी मामले की जांच में आबकारी उपायुक्त संजय तिवारी पर गाज गिरी और उन्हें बीते सप्ताह ग्वालियर रवाना कर दिया गया।   
    धार के जिला आबकारी अधिकारी यशवंत धनौरा को भी बीते सप्ताह धार से हटाकर ग्वालियर पदस्थ कर दिया गया। इसका कारण कुक्षी में शराब माफिया का अवैध ट्रक पकड़ा जाना बताया गया है। क्योंकि, गुजरात जाने वाली अवैध शराब के लिए धार जिले को सबसे सुरक्षित कॉरिडोर माना जाता है। यहां शराब तस्करों ने आबकारी अधिकारियों को साध रखा है। इससे सरकार के राजस्व की बड़ी हानि होती है। यहां आबकारी अधिकारियों का काकस भी मजबूत हुआ है। शराब तस्करों का ट्रक पकड़ा जाना, एसडीएम (आईएएस) के साथ मारपीट, नायब तहसीलदार के अपहरण को आबकारी अधिकारियों और शराब तस्करों के इसी गठजोड़ का नतीजा माना जा रहा है। कुक्षी के इस घटनाक्रम की कोई न कोई कड़ी आबकारी अधिकारियों के काकस और शराब तस्करों से जरूर जुडी होना समझा गया है। शराब तस्करों के पकड़े गए ट्रक में जो शराब मिली है, उसके ब्रांड से इस काकस की पोल खुली है। आबकारी अधिकारियों को ग्वालियर पदस्थ किया जाना वैसा ही होता है जैसे किसी टीआई को थाने से हटाकर लाइन अटैच कर देना।  
    सरकार की इस तरह की कार्रवाई से लोगों में यह विश्वास प्रबल हुआ है कि प्रदेश में सरकार की नजरें चारों तरफ है। उनकी आंखें भी खुली है और कान भी सब सुन रहे हैं! यही कारण है कि झाबुआ एसपी को हटाने में वायरल हुआ ऑडियो कारगर रहा। झाबुआ कलेक्टर को शिकायतों के बाद तत्काल पद से हटा दिया गया और आबकारी विभाग में बरसों से ख़म ठोंककर बैठे अधिकारियों को एक झटके में मुख्यालय में कुर्सी से बांध दिया गया। अभी ये सिलसिला शुरू हुआ है और उम्मीद की जाना चाहिए कि ये लम्बा चलेगा, ताकि अधिकारियों का गुरुर जो सिर के ऊपर निकल रहा था, वो मुकाम पर आ जाए! उन्हें पता हो कि हम नौकरशाह हैं, सिर्फ 'शाह' नहीं!
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Saturday, September 17, 2022

छीनकर सिनेमा का ताज, ओटीटी बना सरताज!

- हेमंत पाल
  
     सिनेमा में अमिताभ बच्चन, आमिर, सलमान और शाहरुख़ खान का सिक्का चलता रहा है। दर्शक इनके नाम से खिंचे चले आते थे। कई बार तो वे यह भी पता नहीं करते कि फिल्म अच्छी है या नहीं! उन्हें इनकी फ़िल्में देखना है, इसलिए देखते रहे! इसे कहा जाता है हीरो का जलवा, जिसमें दर्शकों को हीरो के प्रति उनका पागलपन सिनेमाघर तक ले आता था। कई सालों तक ये सब चलता रहा! पर, आज हीरो को लेकर ये पागलपन नहीं बचा! अब तो इन चहेते हीरो की फ़िल्में भी फ्लॉप होने लगी! ये दौर इसलिए आया कि अब दर्शक समझने लगे हैं कि परदे के हीरो से मनोरंजन नहीं होता, असल मनोरंजन तो उसका कंटेंट है, जो दर्शकों को अपने से जोड़कर रखता है। 
    देखा जाए तो ये वो अहसास है, जो दर्शकों में ओटीटी का विकल्प सामने आने के बाद आया। उन्हें लगा कि वास्तविक हीरो तो कंटेंट है, जो कलाकार को अपने मुताबिक कठपुतली की तरह नचाता है। यही कारण है कि ओटीटी पर आने वाली वेब सीरीज बिना किसी नामचीन हीरो के पसंद की जाती है। क्योंकि, ओटीटी पर असल हीरो ही वेब सीरीज का कथानक है। ओटीटी पर आने वाली 'वेब सीरीज!' बहुत कम समय में दो पीढ़ियों को अपने दायरे में समेत लिया। आज ये सिर्फ युवाओं की ही पसंद नहीं, बल्कि पूरा परिवार इसका दीवाना हो गया। अभी इस बात को सात साल नहीं हुए, जब वेब सीरीज जैसा प्रयोग किया गया था। ये प्रयोग इतना सफल रहा, कि आज फिल्म और टीवी के बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने लगे और बड़े एक्टर भी इनमें काम करने के लिए ललचाने लगे। 
      कोरोना काल में जब सिनेमाघर बंद थे और सीरियल की शूटिंग भी नहीं हो पा रही थी, उस दौरान दर्शक 'वेब सीरीज' की तरफ मुड़े! इसके बाद तो वे फिर पलटे ही नहीं! बीते तीन सालों पर गौर किया जाए, तो डिजिटल प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर वेब सीरीज ने कमाल कर दिया। वजह थी कि कहानियों के साथ कई नए प्रयोग हुए। मनोरंजन के इस नए कंटेंट ने दर्शकों को ऐसा विकल्प दिया, जिसने तहलका मचा दिया। क्योंकि, सिनेमा की घिसी-पिटी कहानियों से दर्शक ऊबने लगे थे और टीवी सीरियल से अलग ओटीटी पर सास-बहू का घिसा-पिटा ड्रामा नहीं दिखाई देता।  
     'वेब सीरीज' की लोकप्रियता का सबसे बड़ा नुकसान सिनेमा को हुआ। दर्शक इससे बिदकने से लगे। 'एनी टाइम एनी वेयर' ही 'वेब सीरीज' की सबसे बड़ी ताकत है। साथ ही जिस तरह से ओटीटी का दायरा बढ़ रहा, सबसे बड़ा खतरा सिनेमा को होने लगा। फिल्मों के मुरीद दर्शक अब 'फर्स्ट डे-फर्स्ट शो' देखने के बजाए फिल्म के ओटीटी पर आने का इंतजार करने लगे। ऐसे में सवाल उठने लगा कि क्या वेब सीरीज, फिल्मों और सीरियल को खत्म कर देगी। क्योंकि, सिनेमा देखने जाना दर्शक के लिए हर दृष्टि से पैचीदा होने लगा! इसके अलावा भी कई कारण है, जो दर्शकों को सिनेमा से दूर कर रहे हैं। ओटीटी का शौक लॉकडाउन में काफी पनपा और इस वजह से ओटीटी और वेब सीरीज ने दर्शकों को अपने आगोश में ले लिया। दर्शक ओटीटी पर फिल्मों से भी इसलिए जुड़े कि उन्हें लगा टुकड़ों में फिल्म देखना सिनेमाघर में जाकर देखने से ज्यादा बेहतर है।  
     बात वेब सीरीज, मूवी और टीवी सीरियल में अंतर की भी है, सामान्य लोग दर्शक इसमें अंतर नहीं करते, जबकि ऐसा नहीं है। तीनों माध्यमों में बहुत फर्क है। फिल्म में एक पूर्व निर्धारित समय पर देखी जाती है, टीवी सीरियल तय समय पर प्रसारित होते हैं। लेकिन, ओटीटी पर वेब सीरीज को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। सिनेमा औपचारिक उपक्रम है, जबकि सीरियल देखना अनौपचारिक। इसे खाना खाते, बात करते हुए भी देखा जा सकता है। जबकि, वेब सीरीज इस सबसे अलग है। ओटीटी (ओवर द टॉप) हाथ में थमा मनोरंजन है। यहां सिर्फ वेब सीरीज ही नहीं, फिल्में भी हैं। इसके लिए न तो समय की बंदिश है न जगह की। फिल्म का कथानक तो 'द एंड' के साथ कंप्लीट हो जाता है। जबकि, टीवी सीरियल बहुत लंबे चलते हैं, जब तक टीआरपी मिलती रहती है। जबकि, वेब सीरीज 8 से 10 एपिसोड की होती है। जिस तरह फिल्म एक बार में पूरी देखी जा सकती है, उसी तरह वेब सीरीज भी! दर्शक चाहें तो इसके पूरे एपीसोड एक साथ देख सकते हैं। लेकिन, सीरियल के साथ ऐसा नहीं होता। इसलिए इसे डेली शो का नाम दिया गया। 
      बेव सीरीज के कंटेंट ने बता दिया कि इसमें नायक दस-दस गुंडों को पीटने वाला सर्वशक्तिमान कैरेक्टर नहीं होता। कई वेब सीरीज में तो कोई नायक-नायिका होते ही नहीं। अधिकांश वेब सीरीज पर नए चेहरे दिखाई देते हैं। ये वेब सीरीज हिट भी होती है, क्योंकि दर्शकों को कंटेंट लुभाता है। फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि लोग इसे मनोरंजन के अलावा टेंशन दूर करने के लिए देखते हैं। लेकिन, ओटीटी के थ्रिलर और डार्क कंटेंट को ज्यादा पसंद किया जाता है। यहां दर्शक ऐसा कंटेंट देखना चाहते हैं, जिसके साथ वे अपने आपको जोड़कर समय बिता सकें। इसीलिए डार्क कंटेंट के एपिसोड का अंत किसी जिज्ञासा के साथ किया जाता है, जो दर्शक में आगे देखने की ललक जगाता है। डार्क कंटेंट पसंद किए जाने का कारण यह है, कि इससे दर्शक बंध जाता है। जब तक दर्शक कथानक से खुद को नहीं जोड़ता, वो उसकी पसंद में शामिल नहीं होता! ओटीटी का मसाला रियलिस्टिक कंटेंट के साथ चलता है। ऐसे में खतरा यह भी कि अगर कुछ भी अनरियलिस्टिक दिखाया, तो दर्शक रास्ता बदल लेगा। यदि कहानी में बांधने का दम नहीं होगा, तो मनोरंजन का कोई भी प्लेटफॉर्म क्यों न हो, दर्शक नहीं जुटेंगे। 
     ऐसा भी नहीं कि ओटीटी का हर कंटेंट दूध का धुला होता है। कई 'वेब सीरीज' पर उंगलिया भी उठी। 'मिर्जापुर' पर आरोप लगा कि इससे पूर्वी उत्तर प्रदेश के शहर मिर्जापुर की छवि को बदनाम किया गया। इस वेब सीरीज का विरोध करने वालों का कहना है कि मिर्जापुर शहर की पहचान को गलत ढंग से पेश किया गया। इससे धार्मिक, क्षेत्रीय और सामाजिक भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची। इस 'वेब सीरीज' के दोनों सीजन को लेकर विरोध हुआ, पर इससे इसकी लोकप्रियता में भी इजाफा हुआ। इससे पहले 'तांडव' को लेकर भी बवाल हुआ था। स्थिति यहां तक आ गई थी कि सीरीज के निर्माताओं को माफी तक मांगना पड़ी। 'मैडम चीफ मिनिस्टर' को लेकर भी आरोप लगा था कि इससे जनभावनाओं से खिलवाड़ हुआ। आपत्ति जताने वालों का कहना है कि इस ओटीटी फिल्म में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की कहानी दिखाई गई, जिसमें कई आपत्तिजनक और गलत बातें हैं। निर्माताओं का कहा भी कि ये किसी एक नेता के जीवन पर आधारित कहानी नहीं है, कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है, पर बात नहीं बनी!
      अब जरा 'वेब सीरीज' के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं। 2014 में आई ‘परमानेंट रूममेट’ को पहली सफल हिंदी 'वेब सीरीज' माना जाता है। इसकी लोकप्रियता इतनी है कि ये सीरीज आज भी देखी जा रही है। इसे देखने वालों की संख्या 50 मिलियन पार कर गई। ये सीरीज इतनी हिट हुई कि 2016 में इसका दूसरा सीजन बनाया गया। इसके बाद तो लाइन लग गई। बेक्ड, ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट सीजन-2, पिचर, बैंग बाजा बारात, ट्विस्टेड, ट्विस्टेड-2, गर्ल इन द सिटी, अलीशा और महारानी एक और दो जैसी तमाम वेब सीरीज मोबाइल के परदे पर उतर आई।
       नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो, हॉटस्टार और सोनी लाइव जैसे प्रोडक्शन हाउस ने तो भूचाल ला दिया। इन प्रोडक्शन हाउस की सेक्रेड गेम्स, 21-सरफ़रोश सारागढ़ी, दिल्ली क्राइम को पसंद करने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। अब तो इनके दूसरे और तीसरे सीजन बन गए। टीवी की महारानी एकता कपूर ने तो वेब सीरीज बनाने के लिए पूरी कंपनी ही खोल ली! अब एकता कपूर सीरियल से ज्यादा वेब सीरीज पर अपना ध्यान लगा रही है। इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के युग में अब बॉलीवुड के बड़े एक्टर्स भी फिल्मी परदों पर सीमित न रह कर डिजिटल मीडिया का हिस्सा बनने में अपनी रूचि दिखा रहे हैं। यही तो है कंटेंट का जादू जो सिर चढ़कर बोल रहा है! 
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Monday, September 12, 2022

शहनाई, सारंगी, ढपली और सितार सिने संगीत में लाए बहार!

- हेमंत पाल

    भारतीय शास्त्रीय संगीत को फिल्म संगीत की जान माना जाता है। राग और ताल मिलकर फिल्म संगीत को पूर्णता देते हैं। लेकिन, फ़िल्मी गीतों को समृद्धता देने में सबसे अहम भूमिका रही देसी वाद्य यंत्रों की। सिनेमा के क्लासिकल गीतों में देसी वाद्य यंत्रों तबला, सारंगी, ढोल, ढोलकी और ढपली का जमकर उपयोग किया गया। बड़े गुलाम अली खां साहब की ठुमरी हो या मन्ना डे के गीत सभी में तबला और देसी वाद्य यंत्रों का बखूबी इस्तेमाल हुआ। म्यूजिक डायरेक्टर नौशाद के संगीत करियर का बड़ा हिस्सा शास्त्रीय संगीत से सजे फिल्मी गीतों का ही रहा। इन गीतों में देसी वाद्यों का प्रयोग हुआ। नौशाद ने अपने संगीत में न सिर्फ देसी वाद्य ढोलक, तबला, बांसुरी, शहनाई, जलतरंग, सितार का बखूबी इस्तेमाल किया, बल्कि पश्चिम वाद्य यंत्रों पियानो, एकार्डियन, स्पेनिश गिटार, कांगो और लोंगा आदि को भी अपनाया। उनकी फिल्म 'जादू' और 'आन' में इन वाद्यों के जादू का एहसास किया जा सकता है। 
     संगीतकार मदन मोहन ने भी अपने कालजई गीतों में सितार बजाया। ख़ास बात यह कि इनमें जो सितार बजी, उसका संबंध इंदौर से रहा। उनके अधिकांश गीतों में उस्ताद रईस खान ने सितार बजाया, जो इंदौर से ताल्लुक रखते थे। 1967 में आई फिल्म 'दुल्हन एक रात की' के गीत 'मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तोरे रंग में' सितार का बेहद खूबसूरत किया गया था। राज कपूर की 'आवारा' के गीत 'घर आया मेरा परदेसी' में बजी लाला गुणावने की ढोलकी आज भी सुनने वाले को अंदर तक हिला देती है। कई फ़िल्मी गीतों को सजाने का काम इसी ढोलकी ने किया। जिन पुराने फ़िल्मी गीतों में ढोलकी बजाई गई, उन कुछ गीतों में मेरे मन का बावरा पंछी, घर आया मेरा परदेसी, अपलम चपलम घिर आई रे और राधा ना बोले ना बोले रे यादगार गीत हैं।
     देव आनंद की फिल्म 'ज्वेल थीफ' के गीत 'होंठों पे ऐसी बात में दबा के चली आई' में ढोल का बेहतरीन इस्तेमाल था। फिल्म में भी देव आनंद खुद ढोल बजाते नजर आए थे। सबसे पहले ढोलक का प्रयोग 1941 में बनी फिल्म 'पड़ोसन' में मास्टर कृष्णराव ने किया था। इस वाद्य का उपयोग 'ये रात ये चांदनी फिर कहाँ सुन जा दिल की दास्तां' गाने में किया गया। जबकि, तबले का पहला प्रयोग 'आलम आरा' में हुआ। घुंघरुओं की छम-छम देवानंद की फिल्म 'सीआईडी' में सुनाई दी। गीत में उसे हाथ से बजाया गया था। 'ले के पहला पहला प्यार' गाने में घुंघरुओं की आवाज ने गाने में खास अंदाज दिखाया था। इसके बाद 'पाकीजा' और 'कोहिनूर' फिल्म के गानों में भी घुंघरू का इस्तेमाल हुआ। 
    राज कपूर की फिल्म 'श्री 420' के गाने 'मेरा जूता है जापानी' में खंजरी बजती सुनाई दी थी। चीनी वाद्य खोपड़ी का प्रयोग 'आइए मेहरबां, बैठिए जानेजां' में किया गया था। आगे चलकर ओपी नैयर, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन और आरडी बर्मन ने खोपड़ी का प्रयोग अपने गानों में भी किया। 1965 में कैमरामैन और डायरेक्टर बाबूभाई मिस्त्री ने फिल्म 'संग्राम' में संगीतकार तिकड़ी 'लाला-असर-सत्तार' को पेश किया। यह एक कम बजट की स्टंट फ़िल्म थी, जिसमें दारा सिंह और गीतांजलि ने काम किया था। इस फिल्म के गीतों की ख़ूबी यह थी कि इनमें शब्दों में भी संगीत छुपा था। डमरू, ढोल, थाप, थैयां-थैयां, छम-छम सब कुछ था। इसकी ख़ास वजह थी, कि यह संगीतकार तिकड़ी रिदम की उस्ताद थी। सत्तार भाई भी ढोलक और तबले के उस्ताद थे। इसलिए उनके गीतों में इन साज़ों की संगत ने जादू जगा दिया। पुरानी फिल्म के गीत लंबी परख और कड़े परिश्रम के बाद तैयार होते थे। भारतीय वाद्यों के इंद्रधनुष में पिरोए गए गाने सुनने में जितना आनंद देते हैं, उतना ही मन को भी सुकून देते हैं। जबकि, आज का फिल्म संगीत सिंथेसाइजर में सिमटकर रह गया।
       90 के दशक की शुरुआत तक गानों के मामले में सिनेमा का संगीत अंतर्द्वंद में फंसा रहा! प्रयोग तो किए गए, लेकिन प्रयोगों के चक्कर में साज मर गया। एक समय तो कानफोडू डिस्को संगीत ने मधुर गीतों को पीछे छोड़ दिया। लेकिन, समय अपने आपको बदलता जरूर है। लंबे इंतजार के बाद सिनेमा को मणिरत्नम की फिल्म 'रोजा' के साथ एक हुनरमंद संगीतकार जो मिला एआर रहमान! रहमान ने जैज जैसी यूरोपीय संगीत शैलियों को भारतीय फिल्म संगीत में सहजता से पिरो दिया। गीतों के बीच में वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करने वाले रहमान ने जो समां बांधा वो आज भी पसंद किया जा रहा है।  
    आजादी के बाद के काल में पंजाबी संगीतकारों का जोर बढ़ा। गुलाम हैदर, जीएम चिश्ती और पंडित अमरनाथ के साथ गीतों में ढोलक का इस्तेमाल सुनाई देने लगा। 40 से 50 का दशक हिन्दी सिनेमा के संगीत का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस समय रिकॉर्डिंग और तकनीक के मामले में संगीत ने जोर पकड़ा। ढोलक की थाप और गिटार की संगत हुई। कई तरह के प्रयोग किए गए। इस समय जिन संगीतकारों ने संगीत को आधुनिक शक्ल दी, वो थे नौशाद, एसडी बर्मन और शंकर जयकिशन। खासकर देव आनंद की फिल्मों के उनके मशहूर गाने हों या फिर गुरुदत्त की 'प्यासा' के गीत जिनमें गिटार और बेस की ध्वनि पर शब्द पिरोए गए। चालीस से पचास का दशक फिल्म संगीत के हिसाब से मधुर काल था। इस दौर में गीतों की रिकॉर्डिंग और तकनीक के मामले में संगीत संवरा! ढोलक की थाप को गिटार के साथ मिलाकर भी संगीत रचा गया। ऐसे और भी नए प्रयोग किए गए। इस समय जिन संगीतकारों ने संगीत को आधुनिक रूप दिया, उनमें नौशाद, एसडी बर्मन और शंकर जयकिशन। इसी तरह 'मुगले आजम' में नौशाद ने जिस तरह आर्केस्ट्रा की भव्यता का अहसास कराया उसमें कई देसी वाद्य थे।      फिल्म संगीत में सारंगी का भी बहुत उपयोग हुआ। विरह और विदाई गीतों में सारंगी अजब सा समां बांधती है। संगीत के जानकार 1963 में आई 'ताजमहल' के गीतों में सारंगी के प्रयोग को सबसे बेहतरीन मानते हैं। फिल्म के संगीतकार रोशन के संगीतबद्ध किए गीत 'पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी' के अलावा इसी फिल्म के दूसरे गीत 'जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं’ को सुना जाए तो लगता है कि सारंगी कितना विशिष्ट साज है। प्रेम से पगी इस फ़िल्म में सारंगी का अच्छा इस्तेमाल हुआ है। इसी फ़िल्म का एक और गीत है 'जुर्मे उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं' इसमें सारंगी मोहब्बत के एक ऐलान में लता मंगेशकर की आवाज के साथ इस तरह संगत करती है। रोशन साहब के संगीत में सारंगी के ख़ूबसूरत इस्तेमाल की कुछ और मिसालें। 'सलामे हसरत क़बूल कर लो, मेरी मोहब्बत क़बूल कर लो’ (बाबर, 1960), 'मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है (बरसात की रात, 1960), 'रहते थे कभी जिनके दिल में' (ममता, 1966) और 1967 की फिल्म 'नूरमहल' में बहुत ही सधा हुआ इस्तेमाल किया गया है।
      नौशाद साहब ने सारंगी का अपनी कई फिल्मों में सुंदर प्रयोग किया। ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' का लता मंगेशकर का दर्द भरा गीत 'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, ग़जब भयो रामा, जुलम भयो रे' में सुनने वाले को दर्द की आहट साफ़ सुनाई देती है। इसी फ़िल्म में दिलीप कुमार मस्ती में 'नैन लड़ जइहैं, तो मनवा मा कसक होईबे करी' गाते हैं तो बीच में सारंगी का मस्ती भरा अंदाज सुनाई देता है। सारंगी में दूसरा बड़ा नाम था उस्ताद सुल्तान ख़ान का। उन्होंने ख़य्याम के साथ फ़िल्म 'उमराव जान' (1981) का गीत सुना जा सकता सकता है। दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए, इन आंखों की मस्ती के अफ़साने हजारों हैं, जिंदगी जब भी तेरी बाँहों में लाती है हमें और अगर उनकी ख़ूबसूरत और बुलंद आवाज गायकी सुननी हो तो फ़िल्म ‘हम दिल दे चुके सनम' का 'अलबेला सजन आयो रे' सुन देखिए। संगीतकार ओ पी नैयर ने जिन साज़ों को अपने संगीत में सबसे ज्यादा प्रमुखता दी सारंगी उनमें से एक है। फ़िल्म 'दिल और मुहब्बत (1968) का एक बहुत ही हसीन गीत है 'हाथ आया है जब से तेरा हाथ में, आ गया है नया रंग जज्बात में।' ओपी नैयर के गीतों में सारंगी इस्तेमाल फिल्म 'काश्मीर की कली' के गीत 'इशारों-इशारों में दिल लेने वाले' और 'दीवाना हुआ बादल के अलावा 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' में 'हमको तुम्हारे इश्क़ ने क्या-क्या बना दिया, 'सावन की घटा (1966) में 'जुल्फ़ों को हटा ले चेहरे से, थोड़ा-सा उजाला होने दे' में सुनाई देता है।  
    मदन मोहन को ग़जल का बादशाह कहा जा सकता है! पर, उन्होंने भी सारंगी का कई बार अच्छा इस्तेमाल किया। 1958 में आई फ़िल्म 'अदालत' में 'यूं हसरतों के दाग़, मोहब्बत में धो लिए' और 'उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते' में उस्ताद रईस ख़ान के सितार के अलावा सारंगी भी खूब बजी। सी रामचंद्र ने भी सारंगी का अपने गीतों में शामिल किया। 'शिन सिनाकी बूबला बू' के गीत 'तुम क्या जानो, तुम्हारी याद में हम कितना रोए' को जिसने भी सुना सारंगी को भूला नहीं होगा। दत्ताराम ने भी 'परवरिश' के लिए भी ऐसा ही नग़मा सारंगी के साथ रचा था। मुकेश की आवाज़ में इस फ़िल्म में ''सू भरी हैं ये जीवन की राहें कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाएं' कोई कैसे भूल सकता है। 30 दशक पुरानी फिल्म 'हीरो' (1983) में बांसुरी की धुन बहुत पसंद की गई थी। लेकिन, उसके बाद कई फ़िल्मी गीत रचे गए, पर देसी वाद्य संगीत की उतनी प्रभावशाली धुन सुनाई नहीं दी। जैकी श्रॉफ ने फिल्म में जो धुन बजाई थी, वो बांसुरी वादकों का प्रतीक बन गई। वैसे तो 'लावारिस' (1981) के गीत 'अपनी तो जैसे तैसे' गीत में डफली सुनाई दी थी। फिल्म 'सरगम' (1979) के कई गीतों में डफली और घुंघरू सुनाई दिए, पर बाद में ऐसे गीतों नहीं बने! इसे फिल्मों के कथानक की कमजोरी कहा जाए या संगीतकारों की प्रयोगधर्मिता जो भी हो, लेकिन फ़िल्मी गीतों से देसी वाद्य यंत्र एक तरह से विदा हो गए!
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Thursday, September 1, 2022

आधी-अधूरी फिल्मों की लम्बी दास्तान!

- हेमंत पाल

    जितनी फ़िल्में हर साल परदे पर दिखाई देती हैं, उससे करीब दोगुनी फ़िल्में परदे तक पहुंच ही नहीं पाती! कुछ फ़िल्में सिर्फ घोषणा और मुहूर्त तक सीमित हो जाती हैं तो कुछ फ़िल्में पूरी बन भी नहीं पाती। ऐसा भी हुआ कि कुछ फ़िल्में बनकर तैयार हो गई, पर उनकी रिलीज में अड़ंगा आ गया। सवाल उठता है कि जब फिल्म की प्लानिंग के बाद उसकी घोषणा की जाती है, तब सारे हालात का अंदाजा क्यों नहीं लगाया जाता! दरअसल, ये सब किया भी जाता है, पर कई बार ऐसी स्थितियां निर्मित हो जाती है जिसका सीधा असर फिल्म निर्माण पर पड़ता है और मज़बूरी में निर्माता-निर्देशक को पीछे हटना पड़ता है! जरूरी नहीं कि जो हालात उभरे वो सार्वजनिक किए जाएं! क्योंकि, कुछ हालात सभी को बताने के लिए नहीं, बल्कि समझने के लिए होते हैं। सभी डायरेक्टर, प्रोड्यूसर जब कोई फिल्म बनाते हैं, तो उनकी कोशिश होती है कि उनकी फिल्म जल्द से जल्द सिनेमा के परदे तक पहुंचे, इसलिए कि फिल्म के साथ उनकी बहुत सारी उम्मीदें जुड़ी होती है। जरा उन फिल्मों के बारे में सोचिए जिन्हें इतनी मेहनत से बनाया जाता है, पर वे फिल्म कई कारणों से सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाती। बहुत सी ऐसी फिल्में हैं, जो बनी तो, पर लेकिन कभी दर्शकों तक पहुंच नहीं पाई। 
     फिल्म इंडस्ट्री हमेशा अपने दर्शकों के मनोरंजन का ख़्याल रखता आया है। निर्माता-निर्देशक हमेशा कोशिश करते हैं कि वे ऐसी फ़िल्में बनाएं जिन्हें लोग याद रखें और जो उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बनें! हर फिल्म के पीछे राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, टेक्नीशियन, एक्टर्स जैसे तमाम लोगों की मेहनत और काबिलियत लगती है! लेकिन, इन तमाम चीज़ों के बाद भी कभी कुछ फ़िल्में आधी, तो कुछ पूरी बनकर भी परदे पर जगह नहीं बना पाती! इतिहास में कई ऐसी फिल्मों के नाम दर्ज हैं, जो आधी-अधूरी होने या फिर किसी बड़े विवाद की वजह से रिलीज नहीं हो सकीं। इनमें कुछ फिल्में ऐसी थीं, जो कुछ हफ्ते शूटिंग के बाद बंद हो गई! कुछ का प्रोड्यूसर्स ने साथ छोड़ दिया तो किसी फिल्म के फाइनेंस ने इंकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि ये फिल्में कभी रिलीज नहीं हो पाईं और उनकी सिर्फ याद बनकर रह गईं। 
    फिल्मों के हमेशा के लिए रुकने के ढेर सारे कारणों के साथ एक यह भी है कि जब किसी कलाकार की फ़िल्में लगातार फ्लॉप होने लगती है, तो फिल्मकार उस पर दांव लगाने से बचते हैं! ऐसी स्थिति में पहले से घोषित फिल्मों को किसी न किसी बहाने टाल दिया जाता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण तब सामने आया, जब आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' फ्लॉप हुई तो टी-सीरीज के फाउंडर गुलशन कुमार की बायोपिक फिल्म 'मुग़ल' टल गई! यही स्थिति अक्षय कुमार के साथ 'सम्राट पृथ्वीराज' और 'रक्षाबंधन' के फ्लॉप होने के बाद दिखाई दी, जब 'गोरखा' और 'कठपुतली' समेत कई फिल्मों को रोक दिया गया। ये ताजा घटना जरूर है, पर इसका एक लम्बा इतिहास है। जब अमिताभ बच्चन का ख़राब समय आया था तब उनकी कई फिल्मों को किसी न किसी रोक दिया या आगे बढ़ा दिया था। इनमें कुछ बनी, तो कुछ हमेशा के लिए भुला दी गई। अमिताभ को लेकर सुभाष घई 'देवा' बना रहे थे। फिल्म की एक हफ्ते की शूटिंग भी हो गई थी। लेकिन, सुभाष घई और अमिताभ बच्चन के बीच किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई और फिल्म बंद हो गई। अमिताभ के साथ रेखा की पहली फिल्म 'अपने-पराए' भी शुरू हुई थी, पर पूरी नहीं हो पाई। फिल्म बनाने वालों ने पैसों की कमी का हवाला देते हुए बंद कर दिया। अमिताभ को लेकर शूजित सरकार 'शूबाइट' बनाई थी। लेकिन, यू-टीवी और डिज़्नी में विवाद की वजह से ये फिल्म रिलीज नहीं हो सकी।  
      इन सारे स्वाभाविक और अस्वाभाविक कारणों के अलावा एक और बड़ा कारण होता है कलाकारों, निर्देशक या फिल्म की कहानी का कोई विवाद! देखा गया कि सबसे ज्यादा इसे लेकर ही फ़िल्में बनने से रुकी या रुकवा दी गई! संजय लीला भंसाली की फिल्म 'इंशा अल्लाह' का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। यह फिल्म शुरू होने से पहले ही बंद हो गई। इस फिल्म में संजय लीला का मूड सलमान खान और आलिया भट्ट को कास्ट करने का था। लेकिन, सलमान के साथ क्रिएटिव डिफरेंस के कारण फिल्म की शूटिंग भी शुरू नहीं हो सकी। बाद में संजय लीला ने रितिक रोशन को कास्ट करना चाहा, पर उन्होंने भी इंकार कर दिया। आलिया को पहले ही वे पहले ही कास्ट कर चुके थे, इसलिए आलिया को लेकर 'गंगूबाई काठियावाड़ी' बनाई गई। 1992 में बनना शुरू हुई शेखर कपूर की फिल्म 'टाइम मशीन' में आमिर खान, रवीना टंडन, रेखा और नसीरुद्दीन शाह को लिया गया था। फिल्म लगभग पूरी बन गई थी। लेकिन, अचानक शेखर कपूर के सामने पैसों का संकट आ गया और फिल्म का बनना थम गया। 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' और 'लगे रहो मुन्नाभाई' जैसी सफल फिल्मों के बाद विधु विनोद चोपड़ा ने मुन्नाभाई सीरीज की तीसरी फिल्म 'मुन्नाभाई चले अमेरिका' बनाने की घोषणा की थी। फिल्म की थोड़ी शूटिंग भी हुई, पर संजय दत्त के जेल जाने के बाद फिल्म कहां चली गई पता ही नहीं चला! 
    करण जौहर की दो फिल्म 'तख्त' और 'शुद्धि' भी अनिश्चितकाल के लिए बंद हुई है। 'तख्त' पीरियड फिल्म थी, जिसमें रणवीर सिंह, करीना कपूर, विक्की कौशल, आलिया भट्ट, जाह्नवी कपूर, भूमि पेडनेकर और अनिल कपूर को कास्ट किया गया था। इसकी शूटिंग 2020 में शुरू की गई, पर कोविड के कारण इसे टाल दिया गया। वहीं 'शुद्धि' को करण जौहर की योजना करीना कपूर और रितिक रोशन को लेकर बनना चाहते थे, पर कुछ वजहों से उन्होंने इस फिल्म को वरुण धवन और आलिया भट्ट के साथ बनाने का फैसला किया, पर ये फिल्म भी नहीं बनी। करण जौहर की ही 'दोस्ताना 2' का भी यही हश्र हुआ। फिल्म में कार्तिक आर्यन को लिया गया था। लेकिन, किन्हीं कारणों से करण जौहर ने कार्तिक को फिल्म से बाहर कर दिया। इसके बाद सोशल मीडिया पर उनकी जबरदस्त खिंचाई हुई। इस वजह से करण ने चुपचाप फिल्म को बंद ही कर दिया। एक पुराना उदाहरण दिलीप कुमार का भी है। 1991 में दिलीप कुमार को लेकर सुधाकर बोकाडे ने 'कलिंगा' की घोषणा की थी! इसका निर्देशन भी दिलीप कुमार ही करने वाली थे। फिल्म में दिलीप कुमार के साथ सनी देओल, मीनाक्षी शेषाद्री, राज किरण, शिल्पा शिरोडकर भी कलाकार थे। फिल्म तीन साल में 90% तो बन गई, पर उसके बाद डिब्बा बंद हो गई!
    विद्या बालन के साथ अक्षय कुमार को लेकर 'चांद भाई' बनाए जाने की घोषणा की गई थी। ये फिल्म ऐसे बेसहारा गरीब लड़के की कहानी थी, जो गैंगस्टर बनना चाहता है। बिना गाने की ये फिल्म रॉबिनहुड जैसे किरदार को ध्यान में रखकर लिखी गई थी। इसका निर्देशन निखिल आडवाणी करने वाले थे। लेकिन, अचानक कुछ ऐसा हुआ कि निखिल आडवाणी ने फिल्म न बनाने का ऐलान कर दिया। आजतक इसका कारण सामने नहीं आया, क्योंकि अक्षय और विद्या ने इस मुद्दे पर खामोशी ही बरती। अक्षय और विद्या की ही फिल्म 'राहगीर' भी मुहूर्त के बाद नहीं बन सकी। इसे प्रीतिश नंदी बनाने वाले थे और निर्देशन था रितुपर्णो घोष का। इसे देवानंद की 1965 की सुपरहिट फिल्म 'गाइड' का रीमेक कहा जा रहा था। जब देवानंद को यह बात पता चली, तो वे नाराज हो गए। वे किसी भी क्लासिक फिल्म का रीमेक बनाने के पक्ष में नहीं थे। देव आनंद की आपत्ति के बाद विवाद बढ़ता गया और फिल्म बंद हो गई।
    इसी तरह 1983 में बनी 'चोर मंडली' राज कपूर के आख़िर दिनों की फिल्म मानी जाती है। इसमें उन्होंने ख़ुद बतौर एक्टर काम किया था। फिल्म में अशोक कुमार भी थे। फिल्म में इन दोनों ने ऐसे चोरों की भूमिका निभाई थी, जो डायमंड चुराने के पीछे पड़े रहते थे। यह फिल्म भी बनकर पूरी हो गई थी, पर कभी सिनेमाघर तक नहीं पहुंची! संजय दत्त और सलमान खान को लेकर मुकुल आनंद ने 1996 में 'दस' बनाने की घोषणा की। मुहूर्त के बाद फिल्म की शूटिंग भी शुरू कर दी गई थी, लेकिन अचानक मुकुल आनंद की मौत ने फिल्म को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते भेज दिया। यही स्थिति दिव्या भारती की मौत के कारण भी हुई।
   अक्षय कुमार के साथ पार्थो घोष दिव्या को लेकर 'परिणाम' बनाने वाले थे। इसमें डैनी और प्राण को भी साइन किया गया था। लेकिन, 1993 में दिव्या भारती की अचानक हुई मौत ने सब कुछ रोक दिया। 2009 में रिलीज हुई फिल्म 'ब्लू' में अक्षय कुमार के साथ संजय दत्त, जायद खान, लारा दत्ता थे। फिल्म की रिलीज से पहले इसके सीक्वल की तैयारी थी, जिसका 'आसमान' तय किया गया था। लेकिन, 'ब्लू' कमाई नहीं कर पाई और मामला अटकता चला गया और फिल्म बंद हो गई।
     अक्षय कुमार की 'सामना' उसकी कहानी की उलझन के कारण नहीं बनी। इसे राजकुमार संतोषी बनाने वाले थे। ये धर्म और राजनीति के किसी विषय पर आधारित थी। इसमें अक्षय कुमार के साथ नाना पाटेकर, अजय देवगन, रितेश देशमुख, उर्मिला मातोंडकर और महिमा चौधरी को साइन किया गया था। इसी तरह राजा कृष्णा मेनन दिवंगत बॉक्सर डिंको सिंह की बायोपिक बनाने वाले थे। इसमें वे शाहिद कपूर को लीड में लेना चाहते थे। लेकिन, इस फिल्म को भी टाल दिया गया। अनुराग कश्यप 'गुलाब जामुन' अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय को लेकर बनाना चाहते थे। पर, फिल्म की शूटिंग तक शुरू नहीं हो सकी। 
    1997 में प्रोड्यूसर आशीष बलराम नागपाल ने 'जिगरबाज' को डायरेक्ट करने के लिए रॉबिन बनर्जी को चुना था। अक्षय कुमार के साथ जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, ममता कुलकर्णी, अमरीश पुरी और बिंदु थे। पर, पूरी बनकर भी फिल्म रिलीज नहीं पाई। अक्षय की ही 1997 में 'पूरब की लैला, पश्चिम का छैला' घोषित हुई थी। उनके साथ सुनील शेट्टी और नम्रता शिरोडकर थे। अचानक हीरोइन नम्रता ने साउथ के हीरो महेश बाबू से शादी कर ली और फिल्म अटक गई। 12 साल बाद अक्षय ने नए नाम 'हैलू इंडिया' के साथ फिल्म पूरी की, पर इसने सिनेमाघर का मुंह नहीं देखा।  इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'पानी' का काफी हल्ला था। शेखर कपूर के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म के लिए सुशांत सिंह ने काफी तैयारी की थी। लेकिन, शेखर कपूर का प्रोड्यूसर आदित्य चोपड़ा से किसी बात को लेकर विवाद हुआ और फिल्म बनने से पहले ही ठंडे बस्ते में चली गई। दरअसल, ये सिर्फ उन चंद फिल्मों के नाम और घटनाक्रम हैं, जो सामने आए! ऐसी फिल्मों की संख्या रिलीज हुई फिल्मों से बहुत ज्यादा है। ये सब आगे भी चलता रहेगा, क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री का नाम ही अनिश्चितताओं से जुड़ा है। 
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