- हेमंत पाल
उज्जैन के राजा महाकाल हैं। इस नगरी में कोई भी राजा की हैसियत से नहीं आता। यही कारण है कि 'राजा' कहलाने वाले लोग उज्जैन में कभी रात नहीं बिताते! यही वजह रही होगी कि जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन में कैबिनेट बैठक करने का विचार किया, तो बैठक की अध्यक्षता महाकाल को सौंप दी। बैठक में महाकाल का फोटो उस मुख्य कुर्सी पर विराजित था जिस पर मुख्यमंत्री बैठते हैं। इस बैठक में सभी फैसले भी महाकाल मंदिर से और उज्जैन के विकास से संबंधित लिए गए। अब देखना है, कि महाकाल का आशीर्वाद शिवराज सिंह को कितना मिलता है! यह आशंका इसलिए कि नगर निकाय चुनाव में भाजपा को उम्मीद के अनुरूप सफलता नहीं मिली और न 2018 के विधानसभा चुनाव का नतीजा संतोषजनक था।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उज्जैन में कैबिनेट की बैठक करके इतिहास बना दिया। ये पहला मौका है, जब पूरी सरकार महाकाल की नगरी में पहुंची और उज्जैन के हित में कई फैसले लिए। वास्तव में राजनीति में यह बिल्कुल नया और अनोखा प्रयोग है जो शिवराज-सरकार ने किया। इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंकना भी माना जा सकता है। अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उज्जैन आमंत्रित करके इसी चुनावी अभियान को आगे बढ़ाने की कोशिश होगी।
शिवराज सिंह का ये कदम कुछ वैसा ही है, जैसा दिसम्बर 2021 में वाराणसी में हुआ था। वहां भी प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चुनाव जिताने का अभियान शुरू किया था। वाराणसी में प्रधानमंत्री ने लगभग 339 करोड़ की लागत से बने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के पहले चरण का उद्घाटन किया था। यही सब उज्जैन में महाकाल मंदिर के जीर्णोद्धार को लेकर किया गया। दो अलग राज्य, अलग हालात, दोनों मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में लंबा अंतर, पर दोनों शहरों में भगवान शंकर ही बैठे हैं। योगी आदित्यनाथ के लिए यह सब दूसरे कार्यकाल के लिए किया गया और शिवराज सिंह के लिए यह प्रयास चौथे कार्यकाल के लिए हो रहा है।
भाजपा की महाकाल के प्रति आस्था हमेशा रही है और इसे दर्शाया भी जाता रहा! मुख्यमंत्री शिवराजसिंह हर बार चुनाव से पहले जो 'जनआशीर्वाद यात्रा' निकालते हैं और उसकी शुरुआत यहीं से होती है। 2008 से शुरू हुई इन यात्राओं में स्वयं शिवराजसिंह को 2008 और 2013 ले तो सफलता मिली, पर 2018 में सफलता मिलने में थोड़ा विलम्ब हुआ। इस बार उन्होंने महाकाल की स्तुति काफी पहले शुरू कर दी और कैबिनेट की बैठक और प्रधानमंत्री की यात्रा उन्हीं कोशिशों का हिस्सा है। इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भाजपा एक बार फिर धार्मिक आस्थाओं को जगाकर 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है। इस शहर को बहुसंख्यक समाज का वोट बैंक माना जाता है। उज्जैन से शुरुआत करने पर मालवा क्षेत्र की 29 सीटों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आरएसएस भी भाजपा को यहीं सलाह देती है, कि धार्मिक महत्व वाले इस शहर से चुनाव अभियान वोटरों को रिझाने के लिए सही है।
उज्जैन को चुनाव अभियान की शुरुआत के लिए चुनने के कई कारण गिनाए जा सकते है। इनमें कुछ धार्मिक हैं, कुछ विश्वास से जुड़े हुए। उज्जैन में एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर है। सिंहस्थ की नगरी होने से यहां का ज्योतिष, धार्मिक व काल गणना के रूप में विशिष्ट महत्व है। यहां से हुई शुरुआत में आस्था की झलक भी होती है, जिसका लाभ चुनाव में मिलने का भरोसा बनता है। भाजपा को इस अभियान में लगातार तीन बार (2003, 2008 और 2013) सफलता मिली, पर चौथी बार (2018) सफलता तो मिली पर सवा साल बाद।
शिवराज मंत्रिमंडल की बैठक में सिर्फ उज्जैन को लेकर बात हुई। इसलिए भी कि बैठक में महाकाल भगवान स्वयं कुर्सी पर मौजूद रहे। जिस प्रमुख कुर्सी पर मुख्यमंत्री बैठते हैं, वहां महाकाल का फोटो रखा गया था। उसके दोनों तरह मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री विराजमान थे। कैबिनेट के फैसलों में प्रमुख था महाकाल कॉरिडोर का नाम 'महाकाल लोक' किया जाना। महाकाल पुलिस बैंड में संख्या बढ़ाया जाना। शिप्रा नदी के किनारे को अहमदाबाद के साबरमती रिवर फ्रंट की तरह विकसित किया जाना और शिप्रा के जल प्रवाह को अनवरत बनाए रखने के लिए नवीन जल संरचनाएं विकसित करना। इसके अलावा उज्जैन में हवाई पट्टी के विस्तार की बात भी बात कही गई। महाकाल कॉरिडोर परियोजना दो चरणों में पूरी होगी। पहला चरण 351.55 करोड़ का और दूसरा 310.22 करोड़ का होगा। सरकार की आस्था का चरमोत्कर्ष इतना था कि मुख्यमंत्री ने कहा कि यह सब महाकाल महाराज करवा रहे हैं, हम सब तो निमित्त मात्र हैं।
महापौर चुनाव से मिले इशारे
इस सबके बावजूद यदि महापौर चुनाव को विधानसभा चुनाव का पूर्वाभास माना जाए तो भाजपा की जमीनी स्थिति बहुत अच्छी दिखाई नहीं देती। कांग्रेस उम्मीदवार को मिले जन समर्थन ने भाजपा की चिंता बढ़ा जरूर दी है। राजनीतिक समझ वालों का कहना है, कि यदि भाजपा को 2023 के विधानसभा चुनाव को जीतना है, तो कार्यकर्ताओं और जनता का विश्वास जीतने के लिए ज्यादा मेहनत करना होगी। इसका सीधा प्रमाण है कि यहां से भाजपा का महापौर उम्मीदवार मात्र 736 वोट से चुनाव जीता। भाजपा ने मुश्किल से महापौर को जिता तो लिया। लेकिन, उसके पार्षद 54 में से केवल 37 ही जीते! भाजपा उज्जैन की मुस्लिम इलाके की 7 सीटों समेत 17 सीटें हार गई। उसकी सबसे बड़ी हार उज्जैन-उत्तर विधानसभा क्षेत्र के वार्डों में हुई। इसके कारण जो भी हों, पर विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिलने के आसार लगाए गए हैं।
पिछले (2018) चुनाव के नतीजों को देखा जाए तो वे भी भाजपा के लिए संतोषजनक अच्छे नहीं रहे थे। 2013 में सातों विधानसभा सीटें जीतने वाली भाजपा यहां 4 सीटें हार गई थी। उस विधानसभा चुनाव में उज्जैन-उत्तर विधानसभा से भाजपा के पारस जैन 25313 वोट से चुनाव जीते थे। उन्होंने कांग्रेस के राजेंद्र भारती को हराया था। उज्जैन-दक्षिण विधानसभा से भाजपा के डॉ मोहन यादव 18632 वोट से जीते थे। उनके सामने कांग्रेस से राजेंद्र वशिष्ठ चुनाव लड़े, पर हार गए। उज्जैन-दक्षिण में इतनी अच्छी जीत का अंदाजा भाजपा ने भी नहीं किया था। क्योंकि, कांग्रेस उम्मीदवार राजेंद्र वशिष्ठ से मोहन यादव की कड़ी टक्कर माना जा रहा था। घट्टिया विधानसभा से कांग्रेस के रामलाल मालवीय 4628 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के अजीत बोरासी हराया था। जबकि, बड़नगर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के मुरली मोरवाल 5381 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के संजय शर्मा को हराया था।
नागदा-खाचरौद विधानसभा से कांग्रेस प्रत्याशी दिलीप गुर्जर 5898 वोट से जीते थे। उन्होंने भाजपा के दिलीप शेखावत को 3007 वोटों से मात दी थी। कांग्रेस के दिलीप गुर्जर ने भाजपा के दिलीप शेखावत को दूसरी बार चुनावी शिकस्त दी थी। तराना विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार महेश परमार 2206 वोट से जीत गए थे। उन्होंने भाजपा के अनिल फिरोजिया को हराया था। महिदपुर विधानसभा से भाजपा के बहादुर सिंह चौहान ने 15220 वोट से जीत दर्ज की थी। उन्होंने निर्दलीय दिनेश चंद्र जैन बोस को हराया था। इस मुकाबले में कांग्रेस के बागी दिनेश जैन बोस ने कांग्रेस को हाशिए पर डाल दिया और कांग्रेस उम्मीदवार सरदार सिंह चौहान की जमानत तक जब्त हो गई थी। 2013 में यहीं से कांग्रेस की कल्पना परुलेकर की भी जमानत जब्त हुई थी।
भाजपा के उज्जैन में जोर लगाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वो अगले चुनाव में कोई रिस्क लेने के मूड है। फिलहाल की शिवराज सरकार कैसे बनी, ये सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत नहीं होती, तो फिर से भाजपा सरकार बनना आसान नहीं था। पर, जैसे भी सरकार बनी, बन गई! पर, इस चुनावी सफलता को यदि 2023 के चुनाव में भी जारी रखना है, तो एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। देखा जाए तो जो कोशिशें शुरू हुई उनका इशारा उसी तरफ है। देखना है कि चुनाव में भगवान महाकाल किसका साथ देते हैं।
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