Friday, January 27, 2023

संगीत के बिना सिनेमा जैसे गूंगी गुड़िया!

- हेमंत पाल

    सिनेमा में संगीत की अहमियत क्या है! यदि ये एक सवाल है, तो इसके कई तरह के जवाब दिए जा सकते है। पहला तो यह कि जब से फिल्मों ने बोलना सीखा, तभी से गाना भी सीख लिया। यदि अभिनय सिनेमा का अंग हैं, तो संगीत आत्मा है! संगीत के बिना फिल्मों के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। तर्क में यह भी कहा जा सकता है कि आज भी कई फ़िल्में बिना गीत-संगीत के बनती और सफल होती हैं, उनको क्या माना जाए! इसका एक ही जवाब है, कि ऐसा सिर्फ अपवाद होता है। जो फ़िल्में गीत-संगीत के बनी, उनकी कहानी इतनी दमदार थी, कि दर्शकों को सोचने का मौका नहीं दिया। उनमें गीत-संगीत न होने का कारण भी यह था कि वे फिल्म की कहानी की कड़ियों में अवरोध बनते, इसलिए वे फ़िल्में बिना गीत-संगीत के बनी। दरअसल, संगीत हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी दर्शाता है। हिंदी फिल्मों के गीतों की बात है, तो वे समयकाल के साथ बदलते रहे। कभी गजलों का दौर चला, कभी परदे पर कव्वाली गूंजी, तो कभी शास्त्रीय से लेकर पॉप संगीत तक फिल्म संगीत का सहगामी बना। आशय यह कि फिल्मों में किसी भी तरह के संगीत से परहेज नहीं किया गया। सिनेमा की कहानी शहरी हो, गांव की हो, युद्ध की पृष्ठभूमि से जुडी हो, रोमांटिक फिल्म हो या सस्पेंस! हर मूड के गीत फिल्म का हिस्सा रहे हैं और आज भी हैं।
      इतिहास बताता है कि फिल्मों ने 'आलमआरा' के साथ बोलना सीखा। उसी के साथ गीत और संगीत फिल्मों का हिस्सा बने। 1931 में आई अर्देशर ईरानी की इस फिल्म में सात गाने थे। फिर जमशेदजी ने 'शीरी फरहाद' बनाई, जिसमें आपेरा स्टाइल के 42 गाने थे। 'इंद्रसभा' में तो 69 गीतों का भंडार ही था। लेकिन, इसके बाद फिल्मों में गानों की संख्या घटने लगी। लेकिन, छह से दस गाने तो फिल्मों में सुनाई देते ही रहे। शुरूआती दिनों में फिल्मी गीतों में भजनों का दौर ज्यादा रहा। इसके बाद उर्दू जुबान में लिखे गीतों का जादू छाया! अब तो इसमें सारी भाषाएं और शैलियां घुल मिल गई। फिर भी ब्रज, भोजपुरी, पंजाबी और राजस्थानी लोक गीतों का प्रभाव ज्यादा रहा।
    1934 से गानों को ग्रामोफोंस पर रिकार्ड किया जाना शुरू हुआ, फिर ये रेडियो पर भी सुनाई देने लगे। लोग गुनगुनाने लगे। सिनेमा के शुरूआती सालों में कई तरह की फिल्में बनी। लेकिन, हर शैली की फिल्मों में गीतों कहानी के साथ पिरोया जाता रहा। हमारी जीवन शैली बहुभाषी है, जो हिंदी फिल्मों के गानों में भी दिखाई देती है। फ़िल्मी गीतों ने भाषा के सारे बंधन भी तोड़े। क्योंकि, हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता इतनी है कि देश के चारों कोनों में इन्हें सुना जाता रहा। जो लोग हिंदी नहीं जानते, वे भी फ़िल्मी गीत गुनगुनाते दिखाई दे जाते। यही फिल्म संगीत की सबसे बड़ी सफलता का मापदंड भी है। श्रीलंका की एक सिंहली गायिका हिंदी गीत गाकर बहुत लोकप्रिय हुई, जबकि वे खुद हिंदी नहीं जानती। संगीतकार एआर रहमान की सफलता का कोई सानी नहीं, उनके संगीतबद्ध किए गानों को ऑस्कर तक अवॉर्ड मिला, पर हिंदी उन्हें आती। जबकि, उन्होंने हिंदी गाने भी गाए!
      हिंदी फिल्म संगीत ने हर उस व्यक्ति को प्रभावित किया, जो फिल्मों का मुरीद रहा है। कई बार इन फिल्मों की सफलता का आधार सीएफ उसका गीत-संगीत भी रहा है। सत्यजीत रे के अनुसार 'सार्वभौम हाव-भाव, सार्वभौम संवेदनाएं' किसी खास समाज के साथ पहचान का अभाव, कृत्रिम और वायवीय समाज का रूपायान। यही वजह है कि हिंदी सिनेमा का संगीत इतना लोकप्रिय है। कहा यहां तक जाता है, कि जो गीत गुनगुनाए नहीं जाते, वे कभी अमर नहीं होते।' वास्तव में सिनेमा ही कहानी कहने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। दूसरी कलाओं की तरह सिनेमा भी देश, काल, सामाजिक संरचना और व्यक्ति की समस्याओं से सीधा जुड़ता है। सिनेमा वो कला है, जो साहित्य, अभिनय संगीत, नृत्य और कहानी लेखन आदि का सम्मिलित स्वरूप है। इसलिए ये भी कहा जा सकता है कि सिनेमा कलाओं की समग्रता का दूसरा नाम है और संगीत इनमें से एक है।  माना जाता है कि सिनेमा दर्शकों का सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करता, नए विचारों को भी जन्म देता है। इन्हीं विचारों से कई कल्पना जन्म लेती है, जो पहले कथानक और बाद में फिल्म के रूप में सामने आता है। यही स्थिति फिल्म संगीत की भी है। गीतों की मधुर कड़ियां नए जगत को देखने की नई दृष्टि देता है। दरअसल, सिनेमा मन को उपचार भी देता है और तन को स्फूर्त भी करता है। मस्तिष्क को विचारों की नवीन ऊर्जा प्रदान करता है। यह कभी विदूषक बनकर हँसाता है, तो कभी खलनायक बनकर दर्द देता है। कभी वैध बनकर शारीरिक और मानसिक रोगों का उपचार करता है। 
      इसलिए कि सिनेमा सिर्फ जनमाध्यम नहीं, बल्कि अपने रचना कौशल और भाव-प्रवण प्रस्तुतिकरण से जन-मन तक पहुंच बना चुका है। दूसरी और फिल्म का गीत-संगीत अपनी अनूठी और मार्मिक, संवेदनापरक तथा भावप्रवण शैली में सीधे परिस्थितियों के साथ मन:स्थितियों को बयां कर सिनेमा की जन सरोकारिता साबित करता है। फ़िल्मी गीत-संगीत को जीवन के खालीपन, अकेलेपन, अजनबीपन और बेजार जिंदगी का साथी माना जा सकता है। जब व्यक्ति अपनी व्यथा अथवा मन:स्थिति किसी के साथ बाँट नहीं पाता, तब यहीं सिने गीत उसके खालीपन को संवेदना के साथ छांव देता है।
    संगीत को लोकप्रिय बनाने में हिंदी फिल्मों के योगदान की अलग कहानी है। फिल्म संगीत ने अपनी एक अलग पहचान विकसित की, जो शास्त्रीय संगीत का ही अंग है। लेकिन, शास्त्रीयता की बंदिशों को तोड़कर उसे सुगम बनाने का काम फिल्म संगीत ने ही किया। यही उसकी अपार लोकप्रियता का कारण भी है। शुरू में शास्त्रीयता पर आश्रित रहने वाले फिल्मी संगीत ने एक अलग राह पकड़ी, जो बेहद हल्की मानी गई। लेकिन, इस संगीत ने अपनी ज्यादा पैठ बनाई, क्योंकि उसने आम लोगों में अपनी पहुंच बनाई। फिल्मों से पहले शास्त्रीय संगीत राज दरबारों तक सिमटा रहा। किंतु, जैसे-जैसे फिल्म संगीत विकसित होता गया, शास्त्रीय संगीत सिकुड़ता गया। फिर भी उसकी अहमियत कम नहीं हुई, लेकिन लोकप्रियता जरूर घटी। फिल्म संगीत ने पारंपरिक बंदिशों से निकलकर सहज प्रवाह दिया।
     शुरू के दौर में शास्त्रीय संगीत की फिल्मवालों ने कद्र नहीं की। उधर, शास्त्रीय संगीत के सिद्धहस्थ जानकारों ने भी अपने आपको फिल्म संगीत के अनुरूप ढालने से इंकार किया। क्योंकि, वे अपने संगीत की विशुद्धता को अपनाए रखने को राजी नहीं थे। फिल्मी संगीत को लेकर भी उनके मन में सम्मान का भाव नहीं था। फिल्म संगीत को मनोरंजन का फूहड़ जरिया मानने की धारणा भी बरसों तक जमी रही। इसके बावजूद शास्त्रीय संगीत के कुछ दिग्गजों ने फिल्मों के संगीत में योगदान दिया। जब फिल्मों ने बोलना सीखा तो इसमें तेजी आई। लेकिन, जब फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत जुड़ा तो ऐसा जुड़ाव हुआ कि दोनों एकाकार हो गए। बांसुरी वादक पन्नालाल घोष तो अपने करियर की शुरुआत 1936 में ही फिल्मों से जुड़ गए थे। वे कलकत्ता के ‘न्यू थियेटर्स’ के संगीतकार रायचंद्र बोराल से मिले उनके सहायक बन गए। फिर वे बंबई आकर हिमांशु राय की कंपनी ‘बांबे टाकीज’ से जुड़े और ‘अनजान’ और ‘बसंत’ जैसी कुछ फिल्मों में संगीत दिया। लेकिन, यह जुड़ाव लंबे समय तक नहीं चल सका। क्योंकि, शास्त्रीय संगीत के जानकारों को फिल्मों के लिए राजी करना आसान नहीं था। फिर भी जो राजी हुए, उन्होंने कालजयी संगीत दिया और फिल्म संगीत को समृद्ध किया।   
      फिल्म संगीत में शास्त्रीय की तरह लोक संगीत की भी अपनी अलग पहचान है। ये संगीत लोगों की जुबां पर चढ़ा और इसने अपनी अलग पहचान बनाई। इसलिए कि लोक संगीत हमारे लोक व्यवहार से और संस्कारों से जुड़ा है। पर, जितने भी लोक गीत रचे गए, वह किसी न किसी शास्त्रीय राग पर ही आधारित रहे। क्योंकि, जहां संगीत है, वहां राग तो होगा ही। फिल्मों में वे गीत बहुत लोकप्रिय हुए जो लोकगीतों से प्रेरित होकर गाए गए। 'पाकीजा' का गीत 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा' लोक संगीत से ही लिया था। 'धूल का फूल' का गीत 'तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं' की तर्ज भी 'विद्यापति' के गीत की पृष्ठभूमि पर बनी थी। ऐसे दर्जनों फिल्मी गीत हैं, जिसमें लोकगीतों की ध्वनि उभरकर सामने आती हैं। जुगनी (कॉकटेल), घूमर (पद्मावत), तार बिजली से पतले (गैंग्स ऑफ वासेपुर), ससुराल गेंदा फूल (दिल्ली 6), बुमरो (मिशन कश्मीर), नवराई (इंग्लिश विंग्लिश), केसरिया बालम (डोर), निंबूड़ा (हम दिल दे चुके सनम), अंबरसरिया (फुकरे), दिलबरो (राजी) ऐसे ही गीत हैं, जो सुपर हिट हुए। इसलिए कहा जा सकता है कि संगीत ही फिल्म की जान है, बिना संगीत के तो फ़िल्में ऐसी है जैसे गूंगी गुड़िया!
-------------------------------------------------------------------------------------------------------

Saturday, January 21, 2023

कभी चली ज्यादा, कभी चली थोड़ी, सिनेमा की यह बेमेल जोड़ी!

- हेमंत पाल

      रोमांटिक, कॉमेडी, एक्शन और ड्रामा जैसे कथानकों पर ही फिल्में बनती हैं। लेकिन, चंद ऐसी कहानियों पर भी फ़िल्में बनी, जिन्हें देखकर दर्शक कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सके! इसलिए कि कुछ विषय ही ऐसे होते है। जबकि, माना जाता है कि फिल्में ऐसी ही होनी चाहिए, जिससे दर्शक खुद को कनेक्ट कर लें। लेकिन, बेमेल जोड़ियों जैसे कथानक पर बनी फिल्मों को देखकर दर्शक सोचता है कि क्या ऐसा हो सकता है! कई बार फिल्मों में दिखाई जाने वाली कहानियों को दर्शक पचा नहीं पाते। लेकिन, उन्हीं में से कुछ कहानियां हिट भी होती है। फिल्मों में दिखाया जाने वाला बेमेल जोड़ियों का रोमांस, वास्तव में समाज का एक रूढ़िवादी विचार है, जिसे तोड़ने की हिम्मत कम ही लोगों ने की। यही वजह है कि बेमेल प्रेम या प्रेम विवाह पर गिनती की फ़िल्में बनी। कुछ फिल्मों ने कम उम्र के पुरुष और अधिक उम्र की महिला के बीच प्रेम संबंधों को बेहद खूबसूरती से दिखाकर खूब तालियां बटोरीं। ऐसी फिल्मों में रेखा से लेकर शाहरुख खान और डिंपल कपाड़िया जैसे कलाकारों ने भी काम किया है। 
      अब बात करते हैं सिनेमा के परदे पर दिखी ऐसी ही बेमेल जोड़ियों की। ऐसी फिल्मों का इतिहास काफी पुराना है। श्वेत श्याम युग में 1937 के दौरान सबसे पहले वी शांताराम ने इस विषय पर हिंदी और मराठी में 'दुनिया ना माने' और 'कुंकू' नाम से फिल्म बनाई थी। इसमें केशव दाते एक बुजुर्ग है, जो एक कच्ची उम्र की बच्ची को ब्याह कर ले आता है। इस बेमेल जोड़ी को बच्ची स्वीकार नहीं करती है और खेलकूद में ही व्यस्त रहती है। आखिर में जब बुजुर्ग को अपनी गलती का अहसास होता है, तो वो 'कंकू' की एक डिब्बी रखकर यह लिखकर आत्म हत्या कर लेता है कि वह बच्ची कहीं भी शादी करने के लिए स्वतंत्र है। फिल्म में वृद्ध रोज अपनी दीवार घड़ी में चाबी भरकर उसे चालू करता है। वी शांताराम ने घड़ी का प्रतीकात्मक प्रयोग कर अंतिम दृश्य में वृद्ध द्वारा उसके कांटों को रोककर आत्महत्या की कलात्मकता भर दी थी। 
     इसके 20 साल बाद 1957 में एलवी प्रसाद ने राजकपूर, मीना कुमारी और राज मेहरा को लेकर फिल्म 'शारदा' फ़िल्म बनाई थी। राज कपूर और मीना कुमारी आपस में प्रेम करते हैं। उनके पिता विधुर है जिनकी एक अपाहिज बेटी भी है। राजकपूर को किसी काम से चीन जाना पड़ता है। उसका प्लेन क्रेश हो जाता है और उनके मरने की खबर आती है। पिता घर से अपने बेटे की सारी तस्वीर और निशानी हटा लेते हैं। इस बीच मीना कुमारी उनकी अपाहिज बेटी की नर्सिंग के लिए आती है और पसीजकर राज मेहरा से शादी कर लेती है। उधर, दुर्घटना से बचकर जब राजकपूर वापस लौटता है, तो पता चलता है उनकी प्रियतमा अब उनकी मां बन गई। वो इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करते और शराब पीकर मरणासन्न हो जाते हैं। तब मीनाकुमारी उनकी सेवा करके जान बचाती है। तब फिल्म के क्लाइमेक्स में राजकपूर उन्हें मां कहकर पुकारते है। 
   1973 में फिल्म 'प्रेम पर्बत' का निर्देशन वेद राही ने किया है। फिल्म में सतीश कौल, हेमा मालिनी, रेहाना सुल्तान, नाना पलसीकर और आगा थे। इसमें भी नाना पलसीकर कम उम्र की अनाथ लड़की रेहाना सुल्तान से शादी करते हैं। लेकिन, उसकी वफादारी वृद्ध पति और युवा वन अधिकारी सतीश कॉल के बीच बंटी होती है, जिससे उसे प्यार हो जाता है। इस फिल्म का लता मंगेशकर का गाया गीत 'ये दिल और उनकी निगाहों के साये' आज भी पसंद किया जाता है। लेकिन, दुखद बात ये कि फिल्म का प्रिंट समय के साथ नष्ट हो गया, जिससे यह एक खोई हुई फिल्म बन गई!  
       इसके बाद 1977 में आई रमेश तलवार की फिल्म 'दूसरा आदमी' में भी बेमेल जोड़ी का कथानक बुना गया था। यह फिल्म हॉलीवुड की फिल्म 'फोर्टी कैरेट' पर आधारित थी। इसमें राखी और ऋषि कपूर के बीच एक रिश्ता बताया गया था, वास्तव में यह एकतरफा लगाव था। ये एक युवा जोड़े और बड़ी उम्र की महिला की विवाहेत्तर कहानी थी। लीड रोल में ऋषि कपूर और नीतू सिंह साथ में अधेड़ महिला की भूमिका राखी ने निभाई थी। राखी को ऋषि कपूर में मृत पति शशि कपूर की छवि दिखाई देती है। जबकि, ऋषि कपूर इस सच से अनभिज्ञ होता है। 
     2009 में आई अयान मुखर्जी की फिल्म 'वेक अप सिड' में रणबीर कपूर का किरदार उम्र में काफी बड़ी आयशा से प्यार करने लगता है। ये प्यार उसे काफी मैच्योर और सफल भी बनाता है। आयशा का किरदार निभाया था कोंकणा सेन शर्मा ने। फरहान अख्तर की फिल्म 'दिल चाहता है' में अक्षय खन्ना और डिंपल कपाड़िया के बीच भी ऐसा ही प्रेम संबंध दिखाया गया। फिल्म में डिंपल का तारा का किरदार अक्षय खन्ना के किरदार सिड से काफी बड़ा है। मीरा नायर की ' ए सुटेबल बॉय' में मान कपूर के किरदार में ईशान खट्टर खुद से काफी बड़ी सईदा बाई से प्यार कर बैठते हैं। फिल्म में सईदा बाई का किरदार तब्बू ने निभाया।
   शाहरुख खान की फिल्म 'माया मेमसाब' में भी बड़ी उम्र की महिला और छोटे उम्र के लड़के के बीच प्रेम दिखाया गया था। 2002 में आई 'लीला' भी ऐसी लड़की की कहानी थी, जिसकी शादी बहुत कम उम्र में हो जाती है। बाद में उसे अपने से काफी कम उम्र के लड़के से प्यार हो जाता है। लीला का दमदार किरदार डिंपल कपाड़िया ने निभाया था। अमेजन प्राइम की फिल्म 'बीए पास' भी बड़ी उम्र की शादीशुदा महिला और एक किशोर के बीच संबंधों पर आधारित है। इस रिश्ते में पड़कर लड़के के हालात ऐसे हो जाते हैं कि वह जिगोलो बन जाता है। इस लिस्ट में एक नाम 'खिलाड़ियों का खिलाड़ी' फिल्म का भी है। फिल्म में रेखा और अक्षय कुमार के किरदारों के बीच न सिर्फ प्रेम संबंध दिखाए गए, बल्कि दोनों के बीच इंटीमेट सीन भी हैं। बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म सुपरहिट रही थी।
      अजय देवगन की फिल्म 'दे दे प्यार दे' में 50 साल के आदमी (अजय देवगन) का दिल 24 साल की लड़की (रकुल प्रीत) पर आ जाता है। मगर उसकी पहले से एक पत्नी (तब्बू) होती है, जो बाद में उससे मिलती है। पर्दे पर अलग-अलग किरदार निभाने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन ऐसा किरदार निभाने में पीछे नहीं रहे। 'चीनी कम' में उनकी अनोखी रोमांटिक जोड़ी दिखाई गई। अमिताभ बच्चन की उम्र 64 साल होती है और तब्बू 34 साल की। 1991 की फिल्म 'लम्हे' में अनिल कपूर और श्रीदेवी के बीच प्रेम प्रसंग गढ़ा गया था। मगर, श्रीदेवी की शादी कहीं और हो जाती है और फिर उन्हें एक बेटी होती है। श्रीदेवी का निधन हो जाता है। उसकी बेटी बड़ी होकर श्रीदेवी ही बनती है और फिर उसे अपनी उम्र से दोगुने अनिल कपूर से प्यार हो जाता है। इस फिल्म को उस समय के दर्शकों का पचा पाना मुश्किल था, इसलिए फिल्म फ्लॉप हो गई। 
    2007 में आई फिल्म 'निशब्द' को लेकर उस समय में विवाद भी हुआ। क्योंकि, इसमें 20 साल की एक लड़की (जिया खान) और 62 साल के आदमी (अमिताभ बच्चन) के प्रेम संबंध को दिखाया गया था। इसमें अमिताभ की बेटी का किरदार निभाने वाली की दोस्त होती हैं, जिया खान और वो अपनी सहेली के घर में रहने लगती है। इस फिल्म की लोगों ने जमकर आलोचना की और फिल्म फ्लॉप हो गई थी। 2001 में आई फिल्म 'दिल चाहता है' से फरहान अख्तर ने डायरेक्शन की शुरुआत की थी. इस फिल्म में डिंपल कपाड़िया और अक्षय खन्ना के रिलेशनशिप को दिखाया था। फिल्म के क्लाइमेक्स में डिंपल के किरदार की मौत हो जाती है और अक्षय अकेले रह जाते हैं। 'दे दे प्यार दे' से पहले भी अजय देवगन इस कॉन्सेप्ट से जुड़ी एक फिल्म में काम कर चुके हैं। मधुर भंडारकर की फिल्म 'दिल तो बच्चा है जी' में अजय ने एक अधेड़ उम्र के बैंकर की भूमिका निभाई थी, जिसे अपनी इंटर्न से प्यार हो जाता है। ऐसी फ़िल्में बनाना आसान नहीं है । ये फ़िल्में तब ही दर्शकों को प्रभावित करती हैं, जब उनकी कहानी दमदार हो! सिर्फ बेमेल जोड़ियों की मोहब्बत तो दर्शक देखने से रहे!
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Sunday, January 15, 2023

परदे पर भी खूब उड़ी और कटी प्रेम की पतंग

- हेमंत पाल

     मकर संक्रांति के त्योहार पर उत्तर भारत में तिल-गुड़ खाने के अलावा कई तरह के रिवाज निभाए जाते हैं। इस दिन दान और स्नान का भी विशेष महत्व है। लेकिन, उत्तर भारत में सबसे अनोखा रिवाज है पतंग उड़ाने का! पतंग का संक्रांति के साथ पतंग का अलग ही महत्व है। यही कारण है कि मकर संक्रांति को पतंग पर्व के नाम से भी जाना जाता है। देश के कई राज्यों में इस दिन पतंग उड़ाने की परंपरा है, खासकर गुजरात में तो बहुत ज्यादा। इस दिन पतंग उड़ाने के पीछे एक पौराणिक कथा है कि मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने की परंपरा भगवान श्री राम के समय में शुरू हुई थी। इसके साथ कुछ वैज्ञानिक महत्व भी हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि पतंग उड़ाने की क्रिया सेहत के लिए काफी फायदेमंद है। सुबह की धूप में पतंग उड़ाने से शरीर को ऊर्जा मिलती है। साथ ही विटामिन-डी भी भरपूर मिलता है। धूप में वक्त बिताने से सर्दियों में होने वाली त्वचा संबंधी समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है।
        पतंग ने न केवल संस्कृति और समाज में लोकप्रियता बटोरी, बल्कि सिनेमा के परदे पर भी पतंग खूब उड़ी! लाल, हरी, नीली, पीली और रंग-बिरंगी पतंगें जब आसमान में लहराती है, तो ऐसा लगता है मानो इन पतंगों के साथ हमारे सपने भी हकीक़त की ऊंचाइयों को छू रहे हैं। सभी गिले-शिकवे भूलकर एक-दूसरे की पतंगों के पेंच लड़ाते हैं। लेकिन, इन पतंगों के बहाने प्रेम की पींगे भी खूब भरी गई। ये पतंगे हीरो-हीरोइन के कई प्रेम प्रसंग साक्षी बनी हैं। यह सारे रंग फिल्मों में भी कई बार दिखाई दिए। 
       1960 में 'पतंग' नाम से एक फिल्म भी आई थी। इसमें  राजेंद्र कुमार, माला सिंहा, रणधीर, राजमेहरा, मनोरमा और अचला सचदेव ने काम किया था। फिल्म का नाम 'पतंग' क्यों रखा, यह तो निर्माता ही जाने, पर इस फिल्म में 'पतंग' पर आधारित दो गीत 'यह दुनिया पतंग नित बदले हैं रंग' था जो एक बार सुखद और दूसरी बार सुखद था। इसके बाद कई बार फिल्मों में पतंग पर आधारित गीत और प्रसंग तो आते रहे लेकिन फिल्म के शीर्षक से पतंग नदारद हो गई। 11 साल बाद 'कटी पतंग' ने इस सूनेपन को दूर किया। फिल्म की नायिका की स्थिति को चित्रित करने वाले शीर्षक वाली यह फिल्म राजेश खन्ना और आशा पारेख के अभिनय और आरडी बर्मन के संगीत के कारण खूब चली। यह बात और है कि केवल एक गीत 'ना कोई उमंग है' के दौरान ही पतंग इस फिल्म में पर्दे पर दिखाई दी।
   फिल्म इंडस्ट्री का चेहरा जैसे-जैसे बदलता गया, परदे पर पतंग भी रंगीन होती गई। साथ ही पतंग से जुड़े गाने और उनके सीन भी ज्यादा दिलचस्प और मजेदार होते गए। फिल्मों के कुछ ऐसे गीत भी बने जो इस दिन की मस्ती, उड़ती पतंग के उतार-चढ़ाव को हमारी जिंदगी से जोड़कर बेहद ही खूबसूरती से बयां करते हैं। 
      जिन फिल्मों में पतंग शीर्षक या पतंग पर आधारित गीत नहीं होते, ऐसी कुछ फिल्मो में भी पतंगबाजी के दृश्यों ने दर्शकों को खूब लुभाया। ऋतिक रोशन की फिल्म 'काईट' का नाम जरूर पतंग का अंग्रेजी शब्द था, पर फिल्म में पतंग का कोई जिक्र नहीं था। फिल्मों में रियल लाइफ दोनों में पतंग उड़ाने में सलमान खान का कोई जवाब नहीं। उन्होंने अहमदाबाद में प्रधानमंत्री के साथ संक्रांति पर पतंग उड़ाई। इसके अलावा सुल्तान, बजरंगी भाई जान और 'दिल दे चुके सनम' में भी पतंग के दृश्य दिखाई दिए थे। ऐश्वर्या रॉय के साथ उन्होंने 'हम दिल दे चुके सनम' में छत पर प्यार की पतंग के साथ वास्तविक पंतग भी उडाई थी। 'दिल्ली 6' में भी पतंगबाजी के जानदार दृश्य देखने को मिले। 
     कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में दिलीप कुमार ऐसे अभिनेता थे, जिनको वास्तव में पतंग उडाने में महारथ हासिल थी। जब वह अपनी छत से पतंग उडाते थे, तो इंडस्ट्री के कई दिग्गज निर्माता उनके पतंग के साथ डोर की चरखियां थामने को बेकरार रहते थे। गायक मोहम्मद रफ़ी का भी सबसे प्रिय शौक था पतंग उड़ाना! उनकी पतंग काले रंग की हुआ करती थीं। इसलिए कि हवा में उड़ती काली पतंग इस बात का संकेत होती थी, कि रफ़ी अपने घर की छत पर पतंग उड़ा रहे हैं। वे पतंग के लिए मांजा पंजाब से मंगवाते थे। हमेशा मृदु भाषी रहने वाले रफ़ी पतंग के मामले में प्रतिस्पर्धी हो जाते थे। उनको किसी से भी पतंग कटवाना पसंद नहीं था। 
     जहां तक फिल्मों में गीतों की बात है। फिल्मों में भी पतंग के ऊपर कई गाने बने। पतंग पर आधारित गीतों का सिलसिला 1949 में प्रदर्शित फिल्म 'दिल्लगी' से शुरू हुआ। फिल्म का गीत 'मेरी प्यारी पतंग चली बादलों के संग' तब बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुआ था। इसके बोल इतने सीधे और दिल में उतरने वाले थे कि हर आदमी पतंग उडाते समय यही गीत गुनगुनाते दिखाई देता था। ऐसा ही एक गीत 1957 की फिल्म 'भाभी' में जगदीप और नंदा पर फिल्माया गया 'चली चली रे पतंग मेरी चली रे' था। फिल्म में पतंग को उत्सव की तरह दिखाता यह गीत आज भी मकर संक्रांति पर हर टीवी चैनल और रेडियों पर सुनाई देता है।
      फिल्म ‘रईस’ का सुखविंदर और भूमि त्रिवेदी का गाया गीत 'उडी उडी जाए' पतंग उड़ाने का मजा देते हुए झूमने पर मजबूर कर देता है। फिल्म 'काई पो छे' के 'मांझा' गीत में जिंदगी के एक नए नज़रिए को दिखाने की कोशिश की गई। ये गीत पतंग, आसमान, उड़ान और मांझे के इर्द-गिर्द घूमता है जिसके जरिए जिंदगी, रिश्ते और जज़्बे की दास्तां बयां की गई। फिल्म तीन दोस्तों और उनके सपनों को पूरा करने के जज़्बे की कहानी थी। फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' का 'ढील दे दे रे भैया गीत पतंग उड़ाने के दौरान अक्सर लोगों के मुंह से निकल ही आता है। यह गाना काफी लोकप्रिय भी हुआ था। फिल्म ‘अर्थ’ के गीत 'रुत आ गई रे' में आमिर खान फिल्म की नायिका को पतंग उड़ाना सिखा रहे होते हैं। यह एक रोमांटिक गीत है जिसे एआर रहमान ने अपनी आवाज़ दी है। फिल्म ‘फुकरे’ के गीत 'अम्बर सरिया' में भले ही पतंग शब्द का जिक्र न हुआ हो, लेकिन इसमें पतंगबाजी के दौरान होने वाली अठखेलियों को बड़े ही मजेदार ढंग से दर्शाया गया है। पतंग पर अपनी प्रेमिका को प्यार भरा मैसेज लिखकर भेजना दर्शकों को उस दौर में ले जाता है, जब छतों पर पतंगों के जरिए प्यार हुआ करता था। 
   ‘गबरू गैंग’ देश में पतंगबाजी पर बनी दुनिया ही पहली फिल्‍म है! खास बात यह कि सनी देओल की फिल्‍म ‘घायल: वन्‍स अगेन’ से सिनेमाई पर्दे पर अपनी छाप छोड़ने वाले अभ‍िलाष कुमार इस फिल्‍म में भी एंटी हीरो के अवतार में नजर आए। मेकर्स का कहना है कि यह दुनिया में काइट फ्लाइंग कॉम्‍पीटिशन के ऊपर बनी यह पहली फिल्‍म है। फिल्‍म की प्रोड्यूसर आरती पुरी के मुताबिक पतंगबाजी के साथ ही फिल्‍म में दोस्‍ती, रोमांस और इमोशंस का मिक्‍स भी रखा गया है। इसे पतंगबाजी की लोकप्रियता का प्रमाण माना जाना चाहिए कि अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म 'शमिताभ' के प्रमोशन के लिए पतंग उड़ाने अहमदाबाद पहुंच गए। पिछले लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सलमान खान और नरेंद्र मोदी ने साथ-साथ डोर पकड़ी थी। जाहिर है, पतंगबाजी की लोकप्रियता भुनाने में सियासी तबका भी पीछे नहीं रहता।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Wednesday, January 11, 2023

सिनेमा में धार्मिक गीतों से मिली है भक्ति को शक्ति!

- हेमंत पाल

    जीवन हो या फ़िल्में जब भी कोई परेशानी में होता है, वो सबसे पहले भगवान को याद करता है। ऐसे में या तो वो व्यक्ति मंदिर जाता है, वहां भगवान से मुसीबत से मुक्ति की गुहार लगाता है। लेकिन, यदि यही स्थिति फिल्मों में आती है, तो जो चरित्र मुश्किल में होता है, वो धार्मिक गीत या भजन गाता है। ऐसी कई फ़िल्में आई जिनमें भक्ति गीत या भजन गाते ही भगवान ने उसकी बात सुन ली! लेकिन, वास्तविक जीवन में यह सब होता भी है, तो उसमें समय लगता है। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने यही होता आ रहा है और आज भी इसमें कुछ नहीं बदला। 
    कुछ फिल्मों के भक्ति गीत और भजन आज भी इतने लोकप्रिय हैं कि तीज-त्यौहार पर ये बजते सुनाई देते हैं। लेकिन, ये गीत परेशान लोगों को भी मानसिक शांति देते हैं। फिल्मों ने ऐसे कई भजन और भक्ति गीत दिए हैं, जिन्हें सुनकर और गाकर कुछ पलों के लिए हम अपने दुःख भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में मन में विश्वास की एक ज्योति जल उठती है। भक्ति को शक्ति देने वाले कई भक्ति गीत और भजन है। लेकिन, मंदिरों में भक्ति गीत सुनाने वाली इन फिल्मों में मंदिर का एक दृश्य ऐसा भी था, जो आज भी दर्शक भूले नहीं होंगे! फिल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन का मां की बीमारी पर बोला गया संवाद भक्ति से इतर था।       
     हिंदू धर्म मानने वालों की देवी-देवताओं पर सबसे ज्यादा श्रद्धा होती हैं। उन्हें विश्वास होता है कि भगवान हर उस व्यक्ति की सुनते हैं, जो उन्हें दिल से याद करता है। मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के अलावा भक्ति का सबसे आसान उपाय है भगवान की भक्ति में गीत या भजन गाना। फिल्मों में भी हमेशा यही दिखाया जाता है कि किस तरह एक भजन सारे हालात बदल देता है। ख़ास बात यह भी कि धार्मिक फिल्मों में ही भक्ति हों, ये जरुरी नहीं!
 
     मल्टीस्टार फिल्मों में भी ऐसे कई भक्ति गीत फिल्माए गए, जो लोकप्रिय हुए और आज भी इन्हें सुना जाता है। 1979 में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की फिल्म 'सुहाग' आई थी जिसमें मां दुर्गा की भक्ति पर गया गया भजन 'नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम रे, ओ शेरोवाली' काफी लोकप्रिय है। आज भी नवरा‌त्रि के दिनों में यह आज सुनाई देता है। अमिताभ और रेखा पर मंदिर में फिल्माए इस भजन पर दोनों ने गरबा भी किया था। आशा भोंसले और मोहम्मद रफी की आवाज का यह गीत यादगार बन गया। 
    यदि सफल धार्मिक फिल्मों के लोकप्रिय गीतों की बात की जाए तो 1975 में आई फिल्म 'जय संतोषी माँ' कम बजट की फिल्म थी, पर कमाई के मामले ये आज तक की शीर्ष ब्लॉकबस्टर फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म के सभी गीत खूब चले। उषा मंगेशकर, महेंद्र कपूर और मन्ना डे ने कवि प्रदीप के लिखे भक्ति गीत गाए थे। करती हूँ तुम्हारा व्रत मैं स्वीकार करो माँ, यहां वहां मत पूछो कहां कहां, मैं तो आरती उतारूं रे, मदद करो संतोषी माता, जय संतोषी माँ, मत रो मत रो आज राधिके और यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां कहां ऐसे भक्ति गीत हैं जिन्हें देवी आराधना वाले मंदिरों में अकसर सुना जाता है। फिल्म इतिहास में ऐसे कई गायक हैं जिन्होंने कालजयी धार्मिक गाने, भजन और आरतियां गाई। नई और पुरानी फिल्मों में भगवान की भक्ति को लेकर कई अच्छे गीत और भजन लिखे गए। ये गीत इसलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि इन्हें गायकों ने पूरी तन्मयता के साथ गाकर दर्शकों को भाव विभोर किया। इनमें सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली अनुराधा पौडवाल, नरेंद्र चंचल और अनूप जलोटा को जो धार्मिक गीतों के गायक हैं। 
    धार्मिक गीत और भजन गाने वालों की अलग ही पहचान होती है। इसे आगे बढ़ाने में चंचल और अनूप जलोटा का काफी योगदान रहा। इसके अलावा ऐसी फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों का भी सकारात्मक पक्ष यह रहा कि दर्शकों में इनके प्रति भक्ति भाव कुछ ज्यादा ही होता है। 'जय संतोषी मां' में माता संतोषी का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा को लोग पूजने लगे थे। 'रामायण' सीरियल में राम और सीता बने अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को इतने दशकों बाद आज भी भक्ति भाव से देखा जाता है। 
    हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा भगवान के रोल करने वाले कलाकार महिपाल को तो लोग भगवान ही मानने लगे थे। उन्होंने 35 से ज्यादा फिल्मों में भगवान या ऐसे किरदार निभाए। वे तुलसीदास भी बने और अभिमन्यु भी। महिपाल ने अपने जीवन काल में संपूर्ण रामायण, वीर भीमसेन, वीर हनुमान, हनुमान पाताल विजय, जय संतोषी मां जैसी सफल धार्मिक फिल्मों में काम किया। उन्होंने अपने करियर में भगवान राम, कृष्ण, गणेश और विष्णु का किरदार इतने बार निभाया कि असल जिंदगी में भी लोग इन्हें पूजने लगे थे। वे जहां जाते लोग इनके पैर छूते और आशीर्वाद की कामना करते थे। 
    याद किया जाए तो ऐसे कालजयी भक्ति गीतों में 1965 में आई फिल्म 'खानदान' के गीत 'बड़ी देर भई नंदलाला तेरी राह तके बृजबाला' को रखा जा सकता है। इस भजन को सुनील दत्त पर फिल्माया गया था। राजेंद्र कृष्‍ण के लिखे इस भजन को मोहम्मद रफी ने गाया था। जन्माष्टमी के अवसर पर अभी भी ये गीत गूंजता है। यह गीत फिल्म की कहानी को देखते हुए भी सटीक था। उससे पहले 1952 में आई फिल्म 'बैजू बावरा' का गीत मोहम्मद रफी की हिंदू भजनों के प्रति लगाव का सबसे बेहतर प्रमाण कहा जा सकता है।
     'ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले' के बोल आज भी किसी दुखी व्यक्ति का चेहरा सामने ले आते हैं। शकील बदायूंनी के लिखे इस गीत में नौशाद ने संगीत दिया था। ख़ास बात ये कि इस भक्ति गीत के गायक, गीतकार और संगीतकार तीनों ही मुस्लिम थे। 1954 में आई फिल्म 'तुलसीदास' के गीत 'मुझे अपनी शरण में ले लो राम' को भी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है और बीते जमाने के विख्यात संगीतकार चित्रगुप्त ने इसे संगीत से सजाया था। गीत में राम को आराराध्य मानकर अपना सब कुछ अर्पण करने की बात कही गई है।
     1958 की फिल्म 'दो आंखे बारह हाथ' का गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम' बुराई पर अच्छाई की जीत का सबसे बेहतरीन प्रमाण कहा जा सकता है। इस गीत में नुकसान पहुंचाने वाले डाकुओं को इंसानियत के नाम पर मदद पहुंचाई जाती है। भरत व्यास ने इस गीत को लिखा और वसंत देसाई ने इसे संगीत दिया था। लता मंगेशकर ने अपनी मधुर आवाज ने मानो इस गीत को अमर कर दिया। 1965 की फिल्म 'सीमा' में बलराज साहनी पर फिल्माया भजन ' तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम' में आतुर मन की व्यथा सुनाई देती है। शैलेंद्र के लिए इस गीत को मन्ना डे ने अपनी आवाज दी और संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। 
    दिलीप कुमार की 1970 में आई फिल्म 'गोपी' का महेंद्र कपूर की आवाज में गाया गीत 'रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा' ऐसा भजन है जिसमें भविष्य का संकेत था। आशय यह कि सच्चा आदमी भटकेगा और झूठे के पास सबकुछ होगा। राजेंद्र कृष्‍ण के गीत को कल्याणजी-आनंदजी ने संगीत दिया था। भक्ति गीतों में सांई बाबा पर रचे गए गीत भी बड़ी संख्या में हैं। 1977 की फिल्‍म 'अमर अकबर एंथोनी' का गीत 'तारीफ तेरी निकली है दिल से, आई है लब पे बन के कव्वाली' सांई के भक्तों के लिए एक तरह से संजीवनी है। मोहम्मद रफी की आवाज का इस गीत में रफी की लंबी तान सुनने वाले को झंकृत कर देती है। 
      'सरगम' (1979) संगीत पर केंद्रित फिल्म थी। पर, इसका एक गीत 'रामजी की निकली सवारी, रामजी की लीला है न्यारी' में भगवान राम की महिमा का बखूबी वर्णन है। दशहरे में जब रामजी की सवारी निकलती है, तो इस गीत के बिना माहौल नहीं बनता। इस गीत को सुनकर मनोभावों में राम का नाम समा जाता है। आनंद बक्षी के लिखे इस गीत को मोहम्मद रफी ने गाया था और इसका संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया था। 'अंकुश' (1986) एक अलग तरह की फिल्म थी, लेकिन, इसका एक भक्ति गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना' टूटे मन को दिलासा देता हुआ सा लगता है। गीतकार अभिलाष ने इसे लिखा और पुष्पा पागधरे और सुषमा श्रेष्ठ ने इसे गाया है। कुलदीप सिंह ने इसमें संगीत दिया।
    'भर दो झोली मेरी या मुहम्मद, लौटकर मैं ना जाऊंगा खाली' वास्तव में तो एक गैर फ़िल्मी गीत था, पर इसे 2015 में आई फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में शामिल किया गया था। फिल्म का हीरो सलमान खान एक भटकी हुई बच्ची को उसके देश पाकिस्तान छोड़ने जाता है। इस दौरान उसे होने वाली परेशानियों को दूर करने के लिए इस अदनान सामी के गाए इस गीत को प्रार्थना के रूप में फ़िल्माया गया। कौसर मुनीर के लिखे इस गीत की धुन संगीतकार प्रीतम ने बनाई थी। लेकिन, लगता है फ़िल्मी कथानक में किरदारों को अब भगवान की कृपा की जरुरत नहीं है। शायद इसीलिए अब भगवान को फिल्मों से किनारे किया जा रहा है। 
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Thursday, January 5, 2023

आखिर उमा भारती से इतना डर क्यों रही भाजपा!

- हेमंत पाल

    भारतीय जनता पार्टी को इस बार के विधानसभा चुनाव में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यह पार्टी लंबे समय से सरकार में है इसलिए एंटी कंबेंसी तो स्वाभाविक है। इतने लंबे समय तक चलने वाली सरकार से लोग उम्मीद भी करते हैं और नाउम्मीद भी जल्दी होते हैं। इसके अलावा और जो चुनौतियां है, उनमें सिंधिया गुट के लोगों और मूल भाजपा के लोगों में आंतरिक खींचतान भी एक है। निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव में ये चुनौती के रूप में सामने आएगा। जहां से सिंधिया गुट के लोग चुनाव लड़ेंगे, वहां सेबोटेज से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, इससे भी बड़ी चुनौती वो है, जिसका अंदाजा नहीं लगा जा रहा और न भाजपा उसे गंभीरता से ले रही है। वह चुनौती है उमा भारती का बदलता नजरिया! अब वे खुलकर मैदान में आने की तैयारी में हैं और शराबबंदी की मांग को लेकर उन्होंने 17 जनवरी से आर-पार की लड़ाई की चेतावनी भी दे दी। 
    पार्टी के अंदर सुलग रही उमा भारती लंबे समय से अलग-अलग तरीकों से भाजपा को परेशान करने में लगी है। न सिर्फ संगठन को, बल्कि सरकार को भी वे अपने शराबबंदी अभियान से परेशान कर रही हैं। कई बार उन्हें शराब की दुकानों पर पत्थर चलाते देखा जाता हैं। इसके अलावा भी वे जो कर सकती हैं, उसमें पीछे नहीं हट रही। बात यहीं तक सीमित नहीं है। वे रायसेन के किले में पहुंचकर वहां पुरातत्व विभाग को पुरातन शंकर मंदिर खोलने के लिए मजबूर करती है। उन्होंने पिछले दिनों ओंकारेश्वर के ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में आकर वहां लगी रेलिंग उखाड़ दी। यहां भी पुरातत्व विभाग को बहुत सारा ज्ञान दिया, कहा कि शिवलिंग और नंदी के बीच यह रैलिंग क्यों लगाई गई! पुरातन मंदिरों के संरक्षण का आशय यह नहीं कि पुरातत्व विभाग पुजारियों की बात की अनदेखी करे।  
     उनका विरोध सिर्फ यही तक सीमित नहीं है। अब उन्होंने आगे कदम बढ़ाते हुए सामाजिक रुप से भी भारतीय जनता पार्टी को कमजोर करने की कोशिशें शुरू कर दी। स्वाभाविक है कि यह उनकी सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। पिछले दिनों उमा भारती ने अपने समाज के एक कार्यक्रम में संदर्भ से अलग हटकर वहां मौजूद लोगों से कहा कि वे उनके कहने से भाजपा को वोट न दें! उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे पार्टी से बंधी हैं, इसलिए वे तो भाजपा को वोट देने के लिए कहेंगी, लेकिन उन्हें जिस भी पार्टी को देना है, उनको वोट दें। इसका सीधा सा मतलब समझा जा सकता है कि वे मध्यप्रदेश के 9% लोधी वोटरों को भाजपा से काटना चाहती हैं, जो अभी तक भाजपा के साथ रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता इसके पीछे उमा भारती रही हैं। 2003 से जो लोधी वोटर भाजपा से जुड़े हैं, वे अब टूटेंगे! चुनावी साल में उनका ये मुद्दा अंडर करंट बन सकता है। कारण कि उमा भारती के इस अभियान को महिलाओं का समर्थन मिल रहा है। भाजपा का मजबूत माना जाने वाला महिला वोट बैंक यदि उससे छिटका तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। 
     उमा भारती साध्वी हैं, पर उससे ज्यादा राजनीतिक हैं। वे जिस लोधी समाज से आती हैं, उसका मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के अलावा उत्तरप्रदेश के बड़े इलाके में दबदबा है। इस समाज के वोटर विधानसभा की कई सीटों पर खेल बिगाड़ सकते हैं। लोधी वोटरों की 9% ताकत का भाजपा से टूटना पार्टी के लिए बड़ा खतरा है। 230 सीटों वाली विधानसभा में 50 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहां लोधी वोटर सारे समीकरण प्रभावित कर सकते हैं। उमा भारती के तेवर जिस तरह बदल रहे हैं, उसके पीछे कोई बड़ी रणनीति का संकेत मिलने लगा है। वे अपनी राजनीतिक ताकत से पार्टी नेतृत्व को ये संदेश भी दे रही हैं कि लोधी समाज को हाशिए पर रखकर भाजपा प्रदेश में फिर से सरकार नहीं बना सकती। .
    उमा भारती की राजनीति का अपना एक अलग तरीका है। वे भाजपा का सामने खड़े होकर विरोध न करके भी भाजपा के लिए गड्ढे खोद रही हैं। उन्हें जहां भी मौका मिलता है, वे कमजोर जगह पर चोट करने से नहीं चूकती! वे भाजपा के उस 'राम अभियान' को भी चोट पहुंचा रही है, जो पार्टी की सबसे बड़ी ताकत है। उन्होंने यहां तक कहा कि राम और हनुमान भाजपा के कॉपीराइट नहीं है। यह दोनों भगवान पुरातन काल से हिंदुओं की आस्था के प्रतीक रहे हैं और इन्हें भाजपा ने नहीं बनाया। इनके नाम पर भाजपा की राजनीति से यह नहीं कहा जाना चाहिए कि कोई और पार्टी में राम के हनुमान के भक्त नहीं हो सकते। उन्होंने अपनी बात साबित करने के लिए कई तर्क दिए।    जहां तक तर्कों की बात है, उमा भारती के सामने कोई खड़ा नहीं हो सकता। क्योंकि, वे बचपन से धार्मिक प्रवचनकार रही हैं। इसलिए उन्हें वे सारे धार्मिक ग्रंथ कंठस्थ हैं, जिनके आधार पर वे कभी भी किसी से भी बहस कर सकती हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि उन्होंने भाजपा की राम ताकत को कमजोर करने की कोशिश भी की। उन्होंने यह भी कहा कि जब कांग्रेस के लोगों ने राम मंदिर के लिए चंदा दिया और भाजपा के लोगों ने उसका विरोध किया था, तब सबसे पहले मैंने ही कहा था कि राम सबके हैं राम के भक्त कहीं भी हो सकते हैं। 
      जिस तरह से उमा भारती अपना विरोध जमीन से ऊपर लाती जा रही हैं, भाजपा ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की। पार्टी या सरकार किसी ने भी अभी तक उनके शराबबंदी अभियान को लेकर कुछ नहीं कहा। किसी अन्य मामले में भी पार्टी और सरकार दोनों चुप हैं। जबकि, उमा भारती ने कई बार कानून भी हाथ में लिया, पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। यदि यही गुनाह कोई आम आदमी करता, तो अभी तक उसे जेल में डाल दिया जाता। जो शराब की दुकानें सरकार को राजस्व देती है और सरकार उन्हें खोलने की इजाजत देती है, उस पर पत्थर बरसाना कानूनन गलत है। जिस पुरातत्व विभाग को पुरातन मंदिरों की देखरेख करने की जिम्मेदारी मिली है, उनके काम में हस्तक्षेप भी इसी तरह का एक मामला है। लेकिन, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई तो दूर कोई टिप्पणी तक नहीं की गई। 
     कहा जा रहा है भाजपा के नेता रहे प्रीतम लोधी जो कि उमा भारती के रिश्तेदार हैं, भाजपा ने जब उनके खिलाफ कार्रवाई की, तो वे खफा हो गई। उनके भतीजे राहुल लोधी के चुनाव को जब कोर्ट ने खारिज कर दिया, तो भी उमा की पार्टी से नाराजी उग्र हो उठी। लेकिन, पार्टी ने उनको मनाने या समझाने की कभी कोशिश शायद नहीं की। उनके सड़क पर आकर खुला विरोध करने को लेकर भी प्रतिक्रिया नहीं की। इस बात का खुलासा अभी तक नहीं हुआ कि ऐसा क्यों? लेकिन, यदि उनकी गतिविधियों पर नकेल नहीं डाली गई, तो उमा भारती भाजपा का बड़ा नुकसान कर सकती हैं। 
      इसका संकेत उन्होंने अपने समाज के कार्यक्रम में दिया भी है कि मेरे कहने से वोट मत देना। इसी बात से समझा जा सकता है कि वे अब खुलकर विरोध की स्थिति में आ गई! लेकिन, वे ऐसा क्यों कर हैं, इस बात का खुलासा होना अभी बाकी है। देखना है कि भाजपा की दूसरी चुनौतियों के अलावा अंदर से उभर रही इस चुनौती का मुकाबला कैसे करती है! क्योंकि, शिवराज सिंह चौहान के अलावा भाजपा का कोई और नेता तो सामने आकर तो उमा भारती से बात करने का साहस नहीं रखता! लेकिन, जो भी बात करेगा, वो कब करेगा! ऐसा नहीं हो कि जब पार्टी संगठन उनसे बात करने का सोचे, तब तक हालात ज्यादा बिगड़ जाएं!
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------