Tuesday, October 17, 2023

जानदार अभिनय, दमदार आवाज वाले ओम पुरी

- हेमंत पाल

     ये करीब 12 साल पुरानी बात है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा अपनी फिल्म ‘तीन थे भाई’ का प्रमोशन करने इंदौर आए थे। उनके साथ ओम पुरी भी थे। मेरे से ओम पुरी का परिचय पुराना था, तो मैंने उनसे अखबार के दफ्तर आने का अनुरोध किया। करीब एक घंटे बाद दफ्तर के गेट पर हल्ला हुआ, तो पता चला कि ओम पुरी फिल्म के कई कलाकारों के साथ पहुंच गए। मेरे लिए आश्चर्य वाली बात थी, कि ओम पुरी जैसा बड़ा अभिनेता मेरे सामान्य से अनुरोध पर बिना किसी औपचारिकता के सीधे दफ्तर पहुंच गया। मैंने उनका स्वागत करते हुए कहा कि आप सूचना तो देते, मैं आ जाता आपको लेने! … तो उनका जवाब था ‘आपने बुलाया तो कैसी औपचारिकता, दिल किया तो आ गया!’ ये छोटी सी घटना बताती है कि ये अभिनेता रिश्तों को लेकर कितने सहज थे। कोई दंभ नहीं कि मैं बड़ा कलाकार हूं। जब एक साथी ने उनसे सवाल किया कि आपको एक्टिंग करने की जरूरत ही क्या, आप तो आवाज से ही अदाकारी कर लेते हैं! इस पर ओम पुरी का जवाब था ‘मेरा चेहरा ऐसा है कि उससे तो कोई प्रभावित नहीं होगा! इसलिए आवाज के दम से ही अपनी अदाकारी जिंदा है।’ ये प्रसंग बताता है कि ओम पुरी सिर्फ बेहतरीन कलाकार ही नहीं, अच्छे इंसान भी थे। उनकी सहजता और जमीन से जुड़े से होने से लगता है कि वे परदे पर भी एक्टिंग नहीं करते रहे। बल्कि, वे अंदर से ऐसे ही थे। भीड़ में खो जाने वाला आम आदमी का ऐसा चेहरा जो आसपास कहीं भी हमेशा नजर आ जाता है।
       अपनी अनोखी अदाकारी का लोहा मनवाने वाले ओम पुरी का जन्म 18 अक्तूबर, 1950 को अंबाला में हुआ था। उनका असल नाम ओम प्रकाश पुरी था। बेशक उनकी जन्म की तारीख 18 अक्तूबर दर्ज हो, पर उन्हें भी इसका पता बरसों बाद चला। ओम पुरी के परिवार के पास उनके जन्म का कोई प्रमाण पत्र नहीं था और न किसी को उनकी जन्म तिथि याद थी। उनकी मां ने किसी को बताया था कि वे दशहरा से दो दिन पहले पैदा हुए थे। जब वो स्कूल जाने लगे, तो उनके मामा ने जन्म तारीख 9 मार्च, 1950 लिखवा दी। लेकिन, जब वे मुंबई आए, तो उन्होंने पता किया कि साल 1950 में दशहरा कब मना था! उस हिसाब से उन्होंने खुद की जन्म तारीख 18 अक्तूबर तय कर ली, और यही उनके साथ बाकी जीवन में बनी रही।  वे सिर्फ सिनेमा और टीवी के ही अच्छे कलाकार नहीं थे, जिन लोगों ने थियेटर में उनकी अदाकारी देखी है, वे जानते हैं कि एक्टिंग में उनकी जीवंतता का स्तर क्या था। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत 1976 में मराठी फिल्म ‘घासीराम कोतवाल’ से की। इसके बाद गोविंद निहलानी की फिल्म ‘आक्रोश’ (1980) में पहली बार हिंदी फिल्म में काम करने का मौका मिला। लेकिन, 1983 में आई फिल्म ‘अर्ध सत्य’ से वे लोगों की निगाह में चढ़े। गुस्से से भरे पुलिसवाले वेलणकर के किरदार में उन्होंने जान डाल दी थी।
       साल 1988 में दूरदर्शन के चर्चित सीरियल ‘भारत एक खोज’ में उन्होंने कई किरदार निभाए। मिर्च मसाला, जाने भी दो यारो, चाची 420, हेरा फेरी, मालामाल वीकली, स्पर्श, कलयुग, गांधी, जाने भी दो यारो, आरोहण, मंडी, पार और ‘सिटी ऑफ जॉय’ जैसी कई फिल्मों में काम किया। हमेशा अलग तरह के किरदारों में दिखाई दिए। लेकिन, श्याम बेनेगल की ‘आरोहण’ और गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ ने उन्हें शोहरत के के आसमान पर पहुंचा दिया था। इन दोनों फिल्मों के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ भी मिला। ओम पुरी ने भारतीय भाषाओं की फिल्मों के अलावा 20 से ज्यादा हॉलीवुड फिल्मों में काम किया। जाने-माने निर्देशक रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में भी उन्होंने भूमिका निभाई। वर्ष 1990 में इस बेहतरीन अभिनेता को भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया था।
        ओम पुरी का बचपन काफी गरीबी में बीता। लंबे संघर्ष के बाद ही उन्होंने सफलता का मुकाम हासिल किया। पंजाबी परिवार में जन्में ओम पुरी के पिता रेलवे में मुलाजिम थे। जब वे 6 साल के थे, विषम पारिवारिक स्थिति में परिवार बेघर हो गया। ओम पुरी के भाई वेद प्रकाश पुरी ने जीवन का संघर्ष शुरू कर दिया। छह साल की उम्र में ओम को भी चाय की दुकान पर काम करना पड़ा। वे रेलवे ट्रैक से कोयला भी बीना करते थे, ताकि घर वालों को दो वक़्त की रोटी मिल सके।
     पिता ने आर्थिक तंगी के कारण ओम पुरी को पढ़ने के लिए उनके मामा के पास (सनौर) पटियाला भेज दिया। लेकिन, वहां भी घरेलू हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें मामा के यहां से अलग होना पड़ा। कोई ठिकाना नहीं था, तो स्कूल के चौकीदार ने ओम को स्कूल में ही रख लिया। कुछ दिनों बाद हेडमास्टर को पता चला तो ओम की मदद करने के लिए उन्हें छोटे बच्चों की ट्यूशन दिला दी। इस तरह उन्होंने 10वीं पास कर ली। बड़े हुए तो एक वकील के यहां नौकरी करने लगे थे और उसी दौरान उनका परिचय प्रसिद्ध नाटककार हरपाल टिवाना से हुआ। लेकिन, जब उनके नाटकों में काम करने से वकील की नौकरी में अड़चन आने लगी तो वो नौकरी छूट गई। फिर खालसा कॉलेज के नाटक प्रेमी प्रिंसीपल की मदद से कॉलेज में नौकरी की। कुछ दिनों बाद उन्हें ‘पंजाब कला मंच’ में नौकरी मिल गई और यहीं से उनको ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ में जाने का रास्ता भी मिला। नसीरुद्दीन शाह, जो उनके दोस्त थे, उन्होंने ओम पुरी को पुणे में इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में काफी मदद की। नसीरुद्दीन के अलावा अमरीश पुरी भी उनके अच्छे दोस्त थे। लेकिन, दोनों में भाई का रिश्ता नहीं था, जो लोग समझते रहे।
        ओम पुरी बेहद बेबाक थे और अपनी इस आदत का उन्हें खमियाजा भी भुगतना पड़ा। उन्हें अपने जीवन के सीक्रेट्स बताने में भी कभी कोई संकोच नहीं होता था। इस वजह से उनके नाम के साथ कुछ विवाद भी जुड़े। लेकिन, वे अपनी ही पत्नी नंदिता पुरी की कलम का सबसे ज्यादा शिकार हुए। जबकि, नंदिता पुरी ने उन किस्सों को अपनी लेखकीय स्वतंत्रता का हिस्सा मानते हुए उन्हें ओम पुरी की बायोग्राफी ‘अनलाइकली हीरो : ओम पुरी’ में सबके सामने परोस दिया। जब 2009 में उनकी बायोग्राफी छपी, तो ओम पुरी की जिंदगी में भूचाल सा आ गया। इस किताब के बाद ओम पुरी और नंदिता के रिश्ते सामान्य नहीं रहे। बाद में दोनों अलग भी हो गए। वे जितना फिल्मों के कारण चर्चा में रहे, उतना ही अपने निजी जीवन के खुलेपन को लेकर भी ख़बरों और गॉसिप में छाए रहे। उन्होंने 1991 में सीमा कपूर से पहली शादी की थी। लेकिन, ये शादी आठ महीने ही चली।
     उनकी बेबाकी से वे कई बार सार्वजनिक विवादों में भी उलझे। दिल्ली में जब रामलीला मैदान में अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था, मंच से उन्होंने नेताओं के बारे में हजारों लोगों की भीड़ के सामने कहा था कि जब आईएएस और आईपीएस ऑफिसर गंवार नेताओं को सलाम करते हैं, तो मुझे शर्म आती है। इस बयान के बाद जब विवाद बढ़ा तो खेद व्यक्त करने के बाद मामला शांत हुआ। उन्होंने यह भी कहा था कि मैं संसद और संविधान की इज्जत करता हूं। मुझे अपने भारतीय होने पर भी गर्व है। एक और मामला हुआ जब वे बेवजह विवाद में आए थे। एक टीवी बहस में ओम पुरी ने भारतीय जवानों के सरहद पर मारे जाने के बारे में कुछ टिप्पणी कर दी थी! हालांकि इस मामले में भी उन्होंने शहीद सैनिकों के परिवारों से माफी मांग ली थी।
      छह जनवरी 2017 को ओम पुरी का 66 साल की उम्र में हार्ट अटैक से निधन हो गया। कहा जाता है कि उन्हें अपनी मौत के बारे में भी अहसास था। एक बार उन्होंने कहा था कि मेरी मौत अचानक होगी। मौत का किसी को पता नहीं चलेगा। सोए-सोए चल देंगे। सबको पता चलेगा कि ओम पुरी का सुबह 7 बजकर 22 मिनट पर निधन हो गया। हुआ भी कुछ ऐसा ही था। ओम पुरी का शव उनके घर में मिला। डॉक्टरों ने वजह दिल का दौरा पड़ना बताई। मौत से पहले की शाम ओम पुरी ‘राम भजन जिंदाबाद’ फिल्म के निर्माता खालिद किदवई के साथ थे। उन्होंने मौत से पहले बिताई शाम के बारे में बताया था – ‘वे अपने बेटे को लेकर काफी भावुक थे। उस शाम भी वे बेटे से मिलना चाहते थे, पर नहीं मिल सके। जाते समय गले मिले। उसके बाद मैं कार से घर चला आया। जब कार पार्क की, तो देखा कि सीट के नीचे ओम पुरी का पर्स पड़ा था। मैंने सोचा कि अब रात को 12 बजे क्या फोन करना, सुबह उन्हें बता दूंगा। सुबह साढ़े 6 बजे फोन किया तो कोई जवाब नहीं मिलने पर मैंने उनके ड्राइवर को फोन करके कहा कि ओम जी का पर्स ले जाना। आठ बजे के करीब उनके ड्राइवर का फोन आया जिसने मुझे उनके निधन की सूचना दी। उनका पर्स अभी मेरे पास निशानी के तौर पर रखा है। उनकी मौत की जिस तरह सूचना मिली, उससे लगता है कि कहीं सही में उनकी मौत 7.22 पर ही तो नहीं हुई!’
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Sunday, October 8, 2023

'बॉबी' की अल्हड़ मोहब्बत की आधी सदी!


- हेमंत पाल

     हिंदी फिल्मों में ज्यादातर कहानियां मोहब्बत के इर्द-गिर्द घूमती रही। लेकिन, मोहब्बत की कहानियों में भी समय काल का ध्यान रखा जाता रहा। ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने की ज्यादातर फिल्मों में नायक और नायिका का प्रेम अमूर्त रूप में दिखाई देता था। प्रेम की ज्यादातर बातें आंखों ही आंखों में इशारों हुआ करती थी। न तो कोई अपने प्रेम का इजहार करता था और उसे स्वीकारता था। नायक-नायिका के बीच सामाजिक मर्यादा की दूरी बनाए रखना भी जरुरी होता था, क्योंकि तब समाज इसे खुले रूप में मंजूर भी नहीं करता था। जिस दौर में 'सरस्वती चंद्र' फिल्म आई थी, उस समय के दर्शकों को याद होगा कि तब प्रेम कैसा हुआ करता था। इसके बाद भी प्रेम को सामाजिक बंधनों से मुक्त होने में कई साल लग गए। राज कपूर की फिल्म 'बॉबी' को इसलिए याद किया जाता है कि यह फिल्म प्रेम की जकड़न को तोड़ने का सबसे पहले माध्यम बनी। इस फिल्म की कामयाबी का कारण ही नए ज़माने के प्रेम का आगाज रहा। 'बॉबी' की बात करें, तो इसकी युवा प्रेम कहानी और कहानी कहने का राज कपूर का तरीक़ा दोनों की फ़िल्म की सफलता में भूमिका रही। 
     बंधन तोड़ता प्यार, अमीरी-ग़रीबी की खाई को पाटता प्यार, युवा प्रेम कहानी और फ़ैशन स्टेटमेंट बनी इस फिल्म को आज भी फिल्म इतिहास की बेहतरीन युवा प्रेम कहानी माना जाता है। अल्हड़ प्रेम पर बनी इस फिल्म ने उस दौर के दर्शकों को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। क्योंकि, प्रेम को समाज के उस कठोर कवच से बाहर निकलने का मौका मिला, जो उससे पहले के कई दशकों में फिल्मकार नहीं कर सके थे। अब 'बॉबी' को परदे पर आए 50 साल पूरे हो गए! जमाना बहुत आगे निकल गया, पर 'बॉबी' की यादें आज भी ताजा है।
      'बॉबी' 20वीं सदी में बनी थी। फिल्म का एक संवाद था 'मैं 21वीं सदी की लड़की हूं, कोई मुझे हाथ नहीं लगा सकता। जब ऋषि कपूर उन्हें टोकते हैं, कि अभी तो 20वीं सदी चल रही है, तो नायिका कहती है कि 'बूढ़ी हो गई 20वीं सदी और मैं अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद करना जानती हूं।' इस फिल्म की खासियत यह भी है कि बॉबी ब्रिगेंजा का 50 साल बाद भी क्रेज़ बना है। ये ऐसी टीनएज प्रेम कहानी है, जो अलग-अलग वर्ग से थे। राजा (ऋषि कपूर) अमीर हिंदू अमीर परिवार से था और बॉबी मछुआरा परिवार की ईसाई लड़की। वास्तव में तो ये युवाओं के लिए हवा के झोंके की तरह की फिल्म थी, जिन्हें अपने प्रेम को लेकर एक प्रेरणा की जरुरत थी। 
     राज कपूर को फिल्मकारों की जमात में हमेशा ही क्रांतिकारी माना जाता रहा, जिन्होंने कहानियों में नए प्रयोग किए और सामाजिक मान्यताओं के चक्रव्यहू में सेंध लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1973 में आई 'बॉबी' भी ऐसी ही थी, जिसने प्रेम के बंधन की गांठों को खोल दिया था। इस फिल्म में इतनी सारी खूबियां थी, कि जिसकी गिनती नहीं की जा सकती। राज कपूर ने अपना सारा फ़िल्मी अनुभव इसमें झोंक दिया था। सबसे ख़ास बात रही बिलकुल नई जोड़ी। ऋषि कपूर पहले 'मेरा नाम जोकर' में राज कपूर के बचपन की भूमिका निभा चुके थे, पर बतौर नायक ये उनकी पहली फिल्म रही। जबकि, डिंपल कपाड़िया तो बिल्कुल नया चेहरा था। जिसका कोई फ़िल्मी बैक ग्राउंड भी नहीं था। लेकिन, नई जोड़ी ने जो कमाल किया, उसे आज भी भुलाया नहीं गया। 'मेरा नाम जोकर' से चोट खाए राज कपूर को इस फिल्म पर इतना भरोसा था कि उन्होंने किसी प्रयोग को नहीं छोड़ा। 'बॉबी' का नॉस्टेलजिया आज भी जिंदा है और ये कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में दिखाई देता रहता है। 'अंदर से कोई बाहर न आ सके' गाने की शूटिंग कश्मीर की जिस होटल के रूम में हुई थी, वो आज भी 'बॉबी हट' कहा जाता है और होटल में ठहरने वालों को उसे होटल की प्रतिष्ठा के रूप में दिखाया जाता है। 
     फिल्म के पहले शो से जिस तरह की हाइप बनी, उससे फिर राज कपूर का सिक्का चल पड़ा। जो लोग 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने के बाद उन्हें साइड लाइन करने लगे थे, वे फिर उनके आस-पास सिमट आए। फिल्म की अल्हड़ प्रेम कथा ने ऐसा जादू चलाया कि राज कपूर के सारे कर्जे उतर गए, जो पिछली फ्लॉप फिल्म के कारण उन पर चढ़े थे। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला' में भी फिल्म की सफलता का जिक्र करते हुए लिखा है कि 'सिनेमा को लेकर राज कपूर का जुनून ऐसा था, कि फ़िल्मों से की हुई सारी कमाई वो फ़िल्मों में ही लगा देते थे। 'मेरा नाम जोकर' के बाद आरके स्टूडियो गिरवी रखा जा चुका था। 'बॉबी' की सफलता के बाद उन्होंने अपना गिरवी घर मुक्त कराया। लगता था यह फिल्म आरके बैनर को उभारने के लिए बनाई गई थी, मुझे लॉन्च करने के लिए नहीं। ये फ़िल्म हीरोइन पर केंद्रित थी, जब डिंपल की तलाश पूरी हुई, तब मैं बाय डिफ़ॉल्ट हीरो चुन लिया गया। ये बात और है कि सारा क्रेडिट मुझे मिला, क्योंकि डिंपल की शादी हो गई और फिल्म हिट होने पर मुझे वाहवाही मिल गई!' 
    सत्तर के दशक वाले दर्शक जानते हैं, कि 'बॉबी' से पहले फिल्मों में जो प्रेम कहानियां बनती रही, वे मैच्योर प्रेम पर केंद्रित थीं। लेकिन, ये संभवतः पहली ऐसी प्रेम कथा थी, जो कम उम्र की जवानी का जोश, विद्रोह, मासूमियत और बेपरवाह मोहब्बत का मिश्रण था। 'बॉबी' की कहानी ने कहां और कैसे जन्म लिया, इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प और अविश्वसनीय है। दरअसल, एक कॉमिक्स में राज कपूर ने एक बाप-बेटे की कहानी पढ़ी, जिसमें बाप अपने बेटे से कहता है 'क्या यह उम्र है तुम्हारी प्यार करने की!' ये संवाद राज कपूर के दिमाग में इस तरह बैठ गया कि उन्होंने फिल्म का प्लॉट गढ़ लिया। उनका आइडिया था कि ऐसी फ़िल्म बनाई जाए, जिसके बारे में दर्शक कहें कि यह भी कोई उम्र है प्यार करने की! फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी रही, इसका कथानक। इसे ख़्वाजा अहमद अब्बास के साथ पी साठे ने लिखा था। राज कपूर के लिए अब्बास ने सात फिल्म लिखी। 
     कई चुनौतियों के बीच राज कपूर ने युवा प्रेम पर फिल्म बनाने का फैसला किया। 'बॉबी' की इस जोड़ी ने रातों-रात बॉक्स ऑफिस पर तूफ़ान मचा दिया। फिल्म की सफलता तो अपनी जगह, इस फिल्म के नाम से फैशन चल पड़ी। डिंपल की मिनी स्कर्ट, पोलका डॉट शर्ट, हॉट पैंट्स, बड़े-बड़े गॉगल और यंग ऐज की पार्टियां चल पड़ी। लोकप्रियता का आलम यह था कि हर छोटी चीज का नाम 'बॉबी' चल पड़ा। छोटी बसों का नाम 'बॉबी बस' हो गया। डिंपल की ड्रेस 'बॉबी ड्रेस' बन गई और एक बाइक निर्माता ने फिल्म के हीरो को हीरोइन को लेकर भागने के लिए बाइक का नाम ही 'बॉबी' मोटर साइकिल’ रख दिया था। लेकिन, ये बाइक फिल्म की तरह सफल नहीं हुई। फिल्म में प्रेम चोपड़ा का एक संवाद आज तक याद किया जाता है। वे घर से भागी 'बॉबी' का हाथ पकड़कर बोलते हैं 'प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा!'
         ये फिल्म सिर्फ एक सफल प्रेम कहानी ही नहीं थी, जिसके नए नायक-नायिका ने मील का पत्थर गाड़ दिया था। इसके अलावा भी कई ऐसे कारण रहे, जो इसकी सफलता का आधार बने। फिल्म ने देश और विदेश में रिकॉर्ड तोड़ कमाई इसलिए भी की थी कि ये एक कम्प्लीट फिल्म थी, जिसमें सारे फॉर्मूलों के अलावा और भी बहुत कुछ था। सबसे सशक्त पक्ष था कथानक और इसका संगीत। 'मेरा नाम जोकर' के बाद जब शंकर-जयकिशन ने 'बॉबी' का संगीत देने से इंकार कर दिया तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को टीम में शामिल किया गया। इस फिल्म के कई गाने बरसों तक लोगों की जुबान पर चढ़े रहे। ए रंगराज ने सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। बेस्ट साउंड डिजाइन का फिल्मफेयर पुरस्कार भी एके कुरैशी को मिला।
    ‘बॉबी’ की कहानी का मूल आधार सिर्फ अल्हड़ प्रेम ही नहीं, प्रेम के रास्ते में आने वाली अमीरी-गरीबी भी रही। राज कपूर ने इसमें प्रेम की ताकत को भी दिखाया था, जो समाज और कानून का सामना करते हैं। शुरू में जो कहानी लिखी गई थी, उसके क्लाइमेक्स में हीरो-हीरोइन दोनों डूबकर अपनी जान दे देते हैं। जब ये कहानी डिस्ट्रीब्यूटर्स को सुनाई गई, तो वे बिफर गए। उन्होंने कहा कि इस तरह का क्लाइमेक्स रचा गया, तो फिल्म नहीं चलेगी। इसके बाद राज कपूर ने भी समझा कि दर्शक वास्तव में अल्हड़ प्रेम का इस तरह अंत शायद स्वीकार न करें। 'मेरा नाम जोकर' का असफल प्रयोग वे देख चुके थे, इसलिए तय हुआ कि फिल्म का क्लाइमेक्स बदला जाए। इसके बाद फिल्म के अंत को सुखद किया गया और फिर जो हुआ वो सबके सामने है। 
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