Thursday, April 24, 2025

हिंदी फिल्मों में यहूदियों के योगदान का दौर

- हेमंत पाल 

    हिंदी सिनेमा से यहूदियों का नाता तब से है, जब हमारे समाज में महिलाओं का फिल्मों में काम करना गुनाह माना जाता था। भारतीय एक्ट्रेस के लिए तो फिल्म में काम करना 1920 के दशक के अंत तक असंभव ही था। क्योंकि, उस समय फिल्मों में काम किसी भी सभ्य घर की महिला के लिए ठीक नहीं माना जाता रहा। ऐसी स्थिति में महिलाओं की तरह कोमल पुरुष महिला पात्रों का किरदार निभाते थे। पुरुष अभिनेता क्रॉस-ड्रेस करते, मूंछें मुंडवाते थे और साड़ी पहनते थे। इसके बाद 1930 के दशक में फिल्मों में महिलाओं ने हिंदी फिल्मों में काम करना शुरू किया। लेकिन, वे न तो हिंदू थीं और न मुस्लिम, वे यहूदी महिलाएं थीं। इनके नाक-नक्श काफी कुछ भारतीय महिलाओं जैसे हुआ करते थे। भारतीय यहूदी महिलाएं अपनी गोरी त्वचा और यूरोपीय स्टाइल के साथ परदे पर लोकप्रिय बनीं। देश की आजादी के बाद जो युवती पहली बार 'मिस इंडिया' बनी, वह भी यहूदी थी।
     हिंदी फ़िल्में कहने को हिंदी भाषा की फ़िल्में होती हैं, पर इसमें समाज के हर वर्ग की भाषा और बोली का योगदान होता है। इन लोगों की मूल भाषा कुछ भी हो, पर फिल्म में वे हिंदी ही बोलते दिखाई देते हैं। देश के करीब सभी समाज के लोगों ने हिंदी फिल्मों के उत्थान में हाथ बंटाया, पर बात इतनी ही नहीं है। देश के बाहर के कई समाजों ने भी हिंदी की फिल्मों में अपनी हिस्सेदारी निभाई है। यहां तक कि यहूदियों ने भी फिल्मों में कई तरीकों से अपना योगदान दिया। इतिहास को पलटा जाए, तो हमारे देश में यहूदी 1930 और 1940 के दशक में हिंदी फिल्मों में सक्रिय थे। ये वो दौर था जब दुनिया के कई देशों में यहूदियों के खिलाफ विरोध चल रहा था। पर, भारत में ऐसा कुछ नहीं था। हमारे देश में भौगोलिक के साथ सांस्कृतिक और भाषाई विविधता की कमी नहीं है। ऐसे में यहां यहूदियों को सामंजस्य बनाने में कोई समस्या नहीं आई। तब भारत में भी ऐसा माहौल नहीं था और लंबे अरसे तक यहूदियों को हिंदी फिल्मों में काम मिलता रहा। 
     सुज़ैन सोलोमन अपने स्टेज नाम फिरोजा बेगम, सुलोचना (नी रूबी मेयर्स), पहली मिस इंडिया, प्रमिला (नी एस्थर अब्राहम) यहां तक कि नादिरा (फ्लोरेंस ईजेकील) के नाम से प्रसिद्ध हुई। लेकिन, हिंदी फिल्मों के उत्थान में यहूदियों का योगदान अभिनेत्रियों तक ही सीमित नहीं था। पहली भारतीय बोलती फिल्म आलम आरा (1931) की पटकथा और गाने एक यहूदी, जोसेफ पेनकर डेविड ने लिखे थे। फिल्मों के महान कोरियोग्राफरों में से एक डेविड हरमन भी यहूदी थे। सिनेमा के पुरुष कलाकारों में डेविड अब्राहम चेउलकर थे, जिन्होंने 100 से अधिक फिल्मों में अभिनेता रहे। मशहूर नाटककार आगा हश्र कश्मीरी ने ही रोमिला का सिनेमा से परिचय कराया। रिमझिम, दो बातें, साइकिल वाली और 'चाबुक वाली' उनकी चर्चित फिल्में रहीं। 
    रोमिला और प्रमिला की चचेरी बहन रोज मुसलीह ने भी मूक सिनेमा के दौर में एक चर्चित नर्तकी के रूप में नाम कमाया। रोज ने 'कसौटी' जैसी चर्चित फिल्म में काम किया। उनकी शोहरत ऐसी अभिनेत्री के रूप में बनी, जिनके नृत्य पर सिनेमा के शौकीन फिदा रहे। 1948 में आई फिल्म 'हम भी इंसान हैं' में देव आनंद के साथ काम करने वाली रमाला देवी भी यहूदी मूल की अभिनेत्री थी। उनका असली नाम था रैशेल कोहेन था। 'खजांची' फिल्म में उन पर फिल्माया साइकिल वाला गाना अपने समय का चर्चित गीत रहा। रमाला देवी ने हिंदी सिनेमा में फैशन को खूब बढ़ावा दिया। लक्स साबुन की शुरुआती ब्रांड अंबेसडर में उनका नाम भी शामिल था। यहूदी मूल की चर्चित अभिनेत्रियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई नादिरा। उनका असल नाम फ्लोरेंस एजेकील था। एक बगदादी यहूदी परिवार में जन्मी नादिरा का हिंदी सिनेमा से परिचय महबूब की पत्नी सरदार बेगम ने कराया था। वे दिलीप कुमार के साथ 'आन' में अपने बोल्ड किरदार से चर्चा में आईं। लेकिन, उन्हें शोहरत मिली फिल्म ‘श्री 420’ के माया के किरदार से। 
    राज कपूर की फिल्मों की शौकीन नादिया उस जमाने में हिंदी सिनेमा की असल वैम्प थीं, जिन्होंने राजकपूर की कई फिल्मों में खलनायिका की भूमिका निभाई। 1952 में आयी फिल्म 'आन' ने उन्हें पहचान दी। उसके बाद श्री 420, दिल अपना और प्रीत पराई, छोटी-छोटी बातें, पाकीजा, अनोखा दान आदि 66 फिल्मों में यादगार रोल निभाए व तीन टीवी सीरियल में भी काम किया। दिल अपना और प्रीत पराई, हंसते जख्म, अमर अकबर एंथनी और 'पाकीजा' जैसी फिल्मों में भी नादिरा का किरदार चर्चा में रहा। 'जूली' में उनके किरदार की खूब चर्चा हुई और उनकी आखिरी फिल्म रही 2000 'जोश।' अपने परिजनों के इस्राइल चले जाने के बाद भी वे आखिरी समय तक मुंबई में ही रहीं और यहीं उनका 2006 में निधन हुआ। वे उन चंद अभिनेत्रियों में थी, जिनके पास रॉल्स रॉयस कार हुआ करती थी।
    नादिरा के अलावा हिंदी फिल्मों के चर्चित कलाकार डेविड भी इस्राइली मूल के यहूदी अभिनेता थे। उनका पूरा नाम डेविड अब्राहम चेउलकर था। वे लंबे समय तक चरित्र अभिनेता के रूप में छाए रहे। 1937 में 'जम्बो' फिल्म से अपना करियर शुरू करने वाले डेविड ने कई यादगार फिल्में दीं। लेकिन, उन्हें पहचान मिली 1941 में आई 'नया संसार' से। डेविड ने करीब 110 फिल्मों में काम किया। फिल्म 'बूट पॉलिश' में अपने किरदार जॉन चाचा से मशहूर हुए डेविड ने सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीता। 
      डेविड पर फिल्माया गया गाना 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है' आज भी बाल दिवस पर सुनाई देता है। उनकी अन्य चर्चित फिल्मों में अनुपमा, उपकार, एक फूल दो माली, अभिमान, चुपके चुपके, बातों बातों में, शिवम सुंदरम, खट्टा मीठा और 'हमारे तुम्हारे' को आज भी याद किया जाता है। वे अवार्ड नाइट्स व म्यूजिक नाइट्स होस्ट किया करते थे। उनका बोलने का अंदाज निराला था। उनकी ऊंचाई कम थी, पर अभिनय में उनका कद बहुत ऊंचा था। और 'गोलमाल' शामिल हैं। 1969 में उन्हें भारत सरकार की तरफ से पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।सुलोचना हिंदी फिल्मों की पहली महिला सुपरस्टार मानी जाती थी। लोकप्रिय एक्ट्रेस में रोज का नाम भी लिया जा सकता है। पहली मिस इंडिया प्रमिला थी, जिन्होंने भी हिंदी फिल्मों में काम किया। फिल्मों की सबसे चर्चित वैम्प नादिरा थीं, जिनकी आंखों से चालबाजी झलकती थी। उन्होंने राज कपूर की कई फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अभिनेत्री सुलोचना और प्रमिला फिल्म प्रोड्यूसर भी थीं। उनकी 'सिल्वर फिल्म्स' प्रोडक्शन कंपनी थी। उस दौर में फिल्म उद्योग को आकार देने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 
      सुलोचना का वास्तविक नाम रूबी मायर्स था, वे सिनेमा के शुरुआती मूक फिल्मों की पहली महिला सुपरस्टार थीं। अपनी अदाकारी और खूबसूरती की बदौलत वे सिल्वर स्क्रीन पर छाई रही। उन्होंने कई कामयाब फिल्मों में अपनी अदाकारी दिखाई। उन्होंने सिनेमा गर्ल (1926), टाइपिस्ट गर्ल (1926), बलिदान (1927), वाइल्ड कैट आफ बाम्बे (1927), माधुरी (1928), अनारकली (1928), इंदिरा बीए (1929), हीर रांझा (1929), सुलोचना (1933), बाज (1953), नीलकमल (1968), आम्रपाली (1969), जूली (1975), खट्टा मीठा (1978) जैसी कई फिल्मों में काम किया। 1973 में सुलोचना को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। सुलोचना फिल्म प्रोड्यूसर भी थीं।
      इसके अलावा अभिनेत्री रोज भी लंबे अरसे तक दर्शकों के दिल की धड़कन बनी रही। प्रमिला भी प्रोड्यूसर रही, जिनका वास्तविक नाम इश्तर विक्टोरिया अब्राहम था। उन्होंने अगस्त 2006 में पहली मिस इंडिया (1947) का ख़िताब जीता था। उनकी शादी मशहूर अभिनेता कुमार (असल नाम सैयद हसन अली जैदी) से हुई। 1963 में कुमार पाकिस्तान चले गए, लेकिन प्रमिला ने भारत में ही रहना उचित समझा। उनकी ही बेटी नकी जहां ने 1967 में मिस इंडिया का खिताब हासिल किया। यह अनोखा संयोग कि मां और बेटी दोनों ने मिस इंडिया का खिताब जीता। उन्होंने 30 से ज्यादा फिल्मों में हंटर वाली टाइप के किरदार निभाए। इनमें उल्टी गंगा, बिजली, बसंत व जंगल किंग काफी हिट रही। उन्होंने अपने बैनर 'सिल्वर प्रोडक्शन' में 16 फिल्मों का निर्माण किया गया। वे काफी टैलेंटेड थीं और उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था। एक और यहूदी अभिनेत्री ने भी आरती देवी के नाम से कुछ फिल्मों में काम किया। उनका असली नाम रासेल सोफायर था। उनके पिता को व्यापार में बड़ा घाटा हुआ, तो उन्होंने मजबूरी के तहत आरती देवी के नाम से फिल्मों में काम करने की इजाजत दी। वे 21 साल की थीं, तो उनकी मां ने 1933 में एक यहूदी युवक से उनकी शादी करा दी। इसके बाद उन्होंने फिल्म में काम करना बंद कर दिया। उनके चचेरे भाई अब्राहम सोफायर बाद में हॉलीवुड में चरित्र अभिनेता बने। 
    अभिनेता और अभिनेत्रियों के अलावा बाम्बे फिल्म लैब के संस्थापक डेविड जरसॉन उमरेडकर, म्यूजिक डायरेक्टर बिन्नी एन सातमकर, कैमरामैन पेनकर इसाक, टेक्नीशियन रुबेन मॉसेस व रेमंड मॉसेस काफी लोकप्रिय रहे! ऑस्ट्रेलिया के फिल्मकार डैनी बेन मोशे हिंदी फिल्मों में यहूदी कलाकारों के 11 साल के योगदान पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई हैं। 'शैलोम बॉलीवुड द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियन सिनेमा।' यह डॉक्यूमेंट्री मूक फिल्मों के दौर से 20वीं सदी के अंत तक भारतीय सिनेमा में यहूदियों के योगदान की कहानियां कहती है। भारत में यहूदी हजारों सालों से भले न रह रहे हों, लेकिन, यहां यहूदी विरोध नहीं रहा। शायद किसी और देश में सुलोचना, नादिरा और डेविड जैसे यहूदी कलाकारों को स्वीकारा नहीं जाता। न कोई देश पहली ब्यूटी क्वीन के तौर पर ही किसी यहूदी को स्वीकारता, जो भारत ने किया। 
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Tuesday, April 15, 2025

फिल्मों में सच को छलने की नई तकनीक है 'एआई'

    फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में समय के साथ बदलाव आता गया। शुरुआत में ये प्रक्रिया बेहद मुश्किल थी। तब फिल्म का हर पहलू एक चुनौती की तरह था। लेकिन, धीरे-धीरे इसमें संसाधनों का उपयोग बढ़ता गया और फिल्म बनाना आसान होने लगा। लेकिन, अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) ने इस प्रक्रिया को बहुत आसान बना दिया। फिल्म की प्लानिंग से लगाकर स्क्रिप्टिंग और शूटिंग की जगह को ढूंढना भी मुश्किल नहीं रहा। यहां तक कि संगीत रचना में भी अब 'एआई' मददगार होने लगा। हॉलीवुड में ऐसी कई फ़िल्में बनी, जिनमें 'एआई' का भरपूर उपयोग किया गया, अब हिंदी फिल्मों में भी एआई तकनीक का असर दिखाई देने लगा जो सच जैसी लगती है।
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- हेमंत पाल
 
      फिल्म निर्माण बेहद पेचीदा और श्रमसाध्य काम है। वास्तव में तो ये कोई काम नहीं, एक तरह का जुनून है। जिसे इसकी धुन लग जाती है, वो सब कुछ छोड़कर इसमें खो सा जाता है। यह जानते हुए कि फिल्म का भविष्य दर्शकों की पसंद और नापसंद पर टिका होता है। हिंदी फिल्मों के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जब फिल्मकारों ने अपनी सारी प्रतिभा किसी एक फिल्म के लिए झोंक दी, फिर भी नतीजा मनमाफिक नहीं रहा। समय बीता और उसके साथ बहुत कुछ बदला। फिल्म निर्माण की तकनीक में भी सुधार आया। पर, ये वो काम है, जो तकनीक समृद्धता से ज्यादा बौद्धिक क्षमता पर निर्भर है। ऐसी बौद्धिकता जो दर्शकों को प्रभावित करे और उन्हें ढाई-तीन घंटे तक सीट पर बांधकर रखे। क्योंकि, जरूरी नहीं कि तकनीकी समृद्धता से दर्शक आकर्षित हों। बात बस इतनी सी है, कि जो फिल्म देखने वाले प्रभावित करे वही सफल फिल्म मानी जाती है। फिल्म इंडस्ट्री में राज कपूर और सुभाष घई जैसे बड़े शोमेन हुए, पर श्याम बेनेगल और महेश भट्ट को पसंद करने वाले भी कम नहीं हैं। क्योंकि, दर्शकों बांधकर रखने की दक्षता उनमें भी रही।      
      इस बात से इंकार नहीं कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंसी यानी एआई ने फिल्म उद्योग को कई तरह से बदल दिया। आश्चर्यजनक है कि इस तकनीक ने फिल्म उद्योग को वहां भी बदला, जहां इससे कुछ नया होने की उम्मीद नहीं की जा रही थी। तात्पर्य यह कि फिल्म निर्माण प्रक्रिया का लगभग हर पहलू इस तकनीक से प्रभावित होने लगा। संपादन और रिकॉर्डिंग सॉफ्टवेयर, फॉर-के और 3-डी मूवी तकनीक, ड्रोन और एआई आधारित पटकथा लेखन टूल से भी फिल्म निर्माण प्रक्रिया पर असर पड़ा। इसके जरिए दृश्य तकनीक और फिल्म देखने के अनुभव, बेहतर ध्वनि प्रभाव, नए स्क्रीनिंग इंटरफ़ेस, आधुनिक संपादन उपकरण पहले कभी न देखे गए अनुभव दर्शाते हैं। साफ़ शब्दों में कहा जाए, तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग के बाद फिल्म उद्योग में नए प्रयोगों का दरवाजा खुल गया। साथ ही यह फिल्म निर्माण की दुनिया के लिए यह क्रांतिकारी कदम रहा। एआई में फिल्म निर्माण प्रक्रिया को हर तरह से व्यवस्थित किया है, जिससे इस कारोबार की संचालन दक्षता बढ़ाने, श्रम लागत कम करने और अधिक कमाई करने में सक्षम बनाया जा सके। 
हिंदी फिल्मों को प्रभावशाली बनाया जाने लगा 
     फिल्म निर्माण की तकनीक में साल दर साल बदलाव आता रहा। तकनीक के साथ फिल्मकारों के साथ दर्शकों की सोच भी बदली। लेकिन, हाल के बरसों में जो क्रांतिकारी बदलाव देखने में आया, वो है कृत्रिम बौद्धिकता यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का फिल्म निर्माण में उपयोग। फिल्म की कहानी के विस्तार से लगाकर हर मामले में 'एआई' का दखल बढ़ा है। फिल्में और 'एआई' का संयोजन इस दिशा में एक नए युग की शुरुआत है। अब तो 'एआई' की मदद से हिंदी फिल्में अधिक प्रभावी ढंग से बनाए जाने की कोशिश होने लगी। सबसे ज्यादा काम पटकथा लेखन जैसे मामले में होने लगा, जो कि फिल्म निर्माण की रीढ़ होता है।
    'एआई' से पटकथा लेखन को अधिक प्रभावी बनाने के साथ नई कहानियों के प्लाट भी गढ़े जाने लगे। इससे यह भी अंदाजा होने लगा कि पटकथा का ये आइडिया दर्शकों की पसंद पर खरा उतरेगा या नहीं! अब तो 'एआई' की मदद से कैरेक्टर डेवलप करना भी आसान होने लगा। वास्तविक और आकर्षक कैरेक्टर को गढ़ने में भी 'एआई' की मदद ली जाने लगी, जो कल्पनाशीलता से परे हैं। बाहुबली, रा-वन और कृष जैसी हिंदी फिल्मों में ऐसे कैरेक्टर्स दिखाई दिए, जिन्हें आसानी से गढ़ना और उनका फिल्मांकन आसान नहीं है। जबकि, हॉलीवुड की फिल्मों में ऐसे कैरेक्टरों की दशकों से भरमार है। 
फिल्म की स्क्रिप्ट का भविष्य जानना भी आसान 
    'एआई' का उपयोग किसी फिल्म की स्क्रिप्ट का विश्लेषण करने के लिए भी किया जा सकता है, ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि फिल्म दर्शकों को पसंद आने के साथ और बॉक्स ऑफिस पर फायदेमंद होगी या नहीं। हालांकि, एल्गोरिदम भविष्यवाणियां पूरी तरह से सटीक साबित नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए, वार्नर ब्रदर्स ने अपनी फिल्मों की सफलता और बॉक्स ऑफिस की भविष्यवाणी करने के लिए सिनेलिटिक एआई-आधारित प्लेटफार्म की की तरफ रुख किया है। 20वीं सेंचुरी फॉक्स ने मर्लिन प्रणाली को एकीकृत किया, जो फिल्मों को विशेष शैलियों और दर्शकों से मिलाने के लिए 'एआई' और मशीन लर्निंग का उपयोग करता है। साथ ही किसी भी फिल्म के लिए सारे आंकड़े उपलब्ध कराता है। स्क्रिप्ट बुक एक अन्य एआई-आधारित प्रणाली है, जो फिल्म को लेकर भविष्यवाणी करती है। इसका उपयोग सोनी पिक्चर्स अपनी 62 फिल्मों का विश्लेषण करने के लिए कर चुका है। 
      प्री-प्रोडक्शन में भी 'एआई' का उपयोग किया जाने लगा है। इसकी मदद से शेड्यूल बनाने, कहानी के लिए उपयुक्त शूटिंग स्थल की खोज भी संभव है। इसके अलावा 'एआई' में निर्माण प्रक्रियाओं में सहायता और प्री-प्रोडक्शन प्रक्रिया को सरल बनाने की काफी क्षमता है। 'एआई' को लागू करने से अभिनेताओं की उपलब्धता के अनुसार शूटिंग शेड्यूल की योजना स्वचालित हो सकेगी। इससे समय की बचत होगी और दक्षता में वृद्धि आएगी। इसके साथ ही एआई सिस्टम पटकथा में उल्लेखित स्थानों का विश्लेषण भी कर सकता है। शूटिंग के लिए वास्तविक साइटों की जानकारी दे सकता है। आशय यह कि फिल्मकार का निर्माण संबंधी अनावश्यक खर्च बचने लगा।  
इन हिंदी फिल्मों ने 'एआई' तकनीक अपनाई 
      अंग्रेजी के बाद हिंदी फिल्मों में 'एआई' का उपयोग बढ़ता जा रहा है। कई फिल्मों में इसका उपयोग किया भी गया। पिछले डेढ़ दशकों में ऐसी कई फ़िल्में आई जिनमे कहीं न कहीं एआई तकनीक का असर दिखाई दिया। 'एआई' का उपयोग फिल्मों में लगातार बढ़ता जा रहा है, और भविष्य में इसका उपयोग और भी अधिक होने की संभावना है।
● रोबोट (2010) फिल्म में एआई का उपयोग रोबोट के चरित्र को बनाने के लिए किया गया।
● रा.वन (2011) में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और रोबोट के चरित्र को बनाने के लिए हुआ।
● कृष-3 (2013) में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और सुपर हीरो के चरित्र को बनाने के लिए किया था।
● बाहुबली (2015) में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और एनिमेशन के लिए हुआ।
● 2.0 (2018) फिल्म में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और रोबोट के चरित्र को बनाने के लिए किया गया था। इस फ़िल्म में एआई का उपयोग सबसे ज्यादा किया गया था।
● मिशन मंगल (2019) में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और स्पेस मिशन के दृश्यों को प्रभावी बनाने के लिए किया गया।
● विक्रम वेधा (2022) में एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स और एनिमेशन के लिए किया गया था।
'एआई' का उपयोग फिल्म '2.0' में सबसे ज्यादा 
     हिंदी फिल्मों में एआई का सबसे ज्यादा उपयोग '2.0' फ़िल्म (2018) में हुआ। यह फिल्म रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर आधारित थी। इसमें एआई का उपयोग विजुअल इफेक्ट्स, रोबोट के चरित्र को बनाने और फिल्म के संगीत और ध्वनि डिजाइन में किया गया था। '2.0' फिल्म में एआई का उपयोग करने के लिए फिल्म के निर्देशक एस शंकर ने कई एआई टूल्स और तकनीकों का उपयोग किया था। फ़िल्म में विजुअल इफेक्ट्स के लिए एआई का उपयोग किया गया था, जिससे रोबोट के चरित्र को अधिक वास्तविक और आकर्षक बनाया जा सके। 
     फिल्म में फेस रिकग्निशन तकनीक का भी उपयोग किया गया था, जिसमें रोबोट के चरित्र को पहचानने और उसके चेहरे के भावों को समझने में काफी हद तक मदद मिली। फिल्म में मोशन कैप्चर तकनीक का उपयोग भी किया गया था, जिससे रोबोट के चरित्र की गतिविधियों को अधिक वास्तविक और आकर्षक बनाया जा सके। फिल्म में संगीत और ध्वनि डिजाइन के लिए एआई का भी उपयोग हुआ था, जिससे फिल्म के संगीत और ध्वनि को अधिक प्रभावी और आकर्षक बनाया जा सके। इन एआई तकनीकों का उपयोग करके '2.0' फिल्म के निर्देशक एस शंकर ने एक ऐसी फिल्म बनाई, जो न केवल दर्शकों को आकर्षित करती है, बल्कि एआई की क्षमताओं को भी प्रदर्शित करती है।
    एआई के उपयोग से हिंदी फिल्मों में कई फायदे के साथ चुनौतियां भी हैं। 'एआई' के उपयोग से हिंदी फिल्मों में अधिक प्रभावी ढंग से काम किया जा सकता है। लेकिन, इसके साथ रचनात्मकता और गुणवत्ता की कमी का ध्यान रखना भी आवश्यक है। अभी ये शुरुआती दौर है। समय के साथ 'एआई' का उपयोग बढ़ेगा और फिल्म निर्माण का काम आसान होता जाएगा। तब पूरी फिल्म एक कमरे में बैठकर बना ली जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए! क्योंकि, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से वो सब कुछ संभव है, जिसे अभी तक नामुमकिन समझा जा रहा था। 
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Sunday, April 13, 2025

परदे पर पति-पत्नी के नाजुक रिश्ते के कई रंग

- हेमंत पाल

     यदि यह सवाल किया जाए कि सिनेमा के दर्शकों ने सबसे ज्यादा किन विषयों पर बनी फिल्मों को पसंद किया, तो दो ही विषय ऐसे हैं जिनसे कोई असहमत नहीं होगा। प्यार-मोहब्बत और पति-पत्नी के रिश्तों पर बनी फ़िल्में जीवन से जुड़े ऐसे विषय माने जा सकते हैं, जिसके कथानकों में विविधता की कमी नहीं है। सबसे ज्यादा जीवंतता पति-पत्नी के संबंधों वाली कहानियों में है। क्योंकि, इसमें कई रंग हैं। रिश्तों के इन कथानकों को कई फिल्मों में अलग-अलग तरीके से फिल्माया गया। कभी पति-पत्नी के रिश्ते गलतफहमी के शिकार हुए, कभी इन दोनों के बीच किसी तीसरे की मौजूदगी के कथानक गढ़े गए तो इस नाजुक रिश्ते में परिवार के दखल ने विवाद करवाया। तलाक की घटनाओं ने भी इस रिश्ते को हमेशा प्रभावित किया है। परदे पर यह विषय कभी पुराना नहीं हुआ। इस विषय पर सबसे सशक्त फिल्म 1982 में आई महेश भट्ट की 'अर्थ' मानी जाती है। इसमें शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल और राज किरण मुख्य भूमिकाओं में थे। 
       गुलजार की फिल्म 'आंधी' की कहानी भी पति-पत्नी के रिश्तों की ही कहानी कहती थी। इसके कथानक पर विवाद भी हुआ और फिल्म को सेंसर में लंबे समय तक जूझना पड़ा। इसे राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ और पति-पत्नी के रिश्तों पर ज्ञात फिल्मों में से एक के रूप में याद किया जाता है। इसके बाद 80 से 2000 तक के दो दशकों में पहेली, चलते-चलते और 'साथिया' जैसी कई फिल्में बनी, जो स्त्री और पुरुष के संबंधों के सदियों पुराने विषय पर आधारित आधुनिक फिल्में थीं। पति और पत्नी के संबंधों पर कई तरह की प्रयोगात्मक फिल्में बनी। इनमें कुछ चर्चित फिल्में हैं तनु वेड्स मनु, रब ने बना दी जोड़ी, नमस्ते लंदन, साथिया, शादी के साइड इफेक्ट्स, चलते चलते, दम लगा के हईशा कभी अलविदा ना कहना, गहराइयां, मेरे हसबैंड की बीवी और 'सिलसिला।' इसमें 'तनु वेड्स मनु' एक रोमांटिक कॉमेडी है जिसमें जोड़े की प्रेम कहानी को दिखाया गया है। शाहरुख़ खान और अनुष्का शर्मा की फिल्म 'रब ने बना दी जोड़ी' पति-पत्नी के रिश्तों की ऐसी कहानी है, जिसमें दिखाया गया कि दोनों कैसे एक-दूसरे के लिए बने होते हैं। एक भारतीय लड़के और लंदन की लड़की की प्रेम कहानी पर बनी 'नमस्ते लंदन' भी ऐसी ही फिल्म है, जिसकी कहानी अनोखी है। 'साथिया' एक ऐसे जोड़े की कहानी है, जो घर से भागकर शादी करते हैं।
      ऐसी फिल्मों के बीच एक नया प्रयोग 'शादी के साइड इफेक्ट्स' में हुआ। यह फिल्म एक ऐसे पति-पत्नी का कथानक है, जो अपनी शादी की उलझनों में ही उलझे होते हैं। ऐसे विषयों में 'दम लगा के हईशा' का कथानक बिल्कुल नया है, जो मोटी पत्नी और दुबले पति की कहानी है। ये काफी लड़ाई करते हैं, लेकिन अंत में नाटकीय घटना की वजह से एक हो जाते हैं। इस विषय पर यश चोपड़ा ने 'सिलसिला' बनाई जिसे अमिताभ बच्चन, रेखा और जया भादुड़ी की कुछ हद तक सच्ची कहानी बताई जाती है। इसमें रिश्तों में शक का तड़का भी लगाया था। शाहरुख खान, प्रीति जिंटा, रानी मुखर्जी और अभिषेक बच्चन की फिल्म 'कभी अलविदा ना कहना' में माया (रानी मुखर्जी) और देव (शाहरुख खान) अपनी-अपनी शादी से तंग आ चुके थे। इस बीच हालात बदलते हैं और दोनों एक-दूसरे के करीब आ जाते हैं। प्यार, धोखा और एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर पर बनी फिल्म 'गहराइयां' भी बहुत कुछ कहती है। ऐसी ही एक फिल्म 'मेरे हसबैंड की बीवी' है जो पति-पत्नी के रिश्ते पर आधारित है। 

       पति-पत्नी का रिश्ता पवित्र और प्रेम से भरा होता है। पर, कई बार यह रिश्ता गलतफहमी और विश्वास की कमी से कमजोर हो जाता है। झगड़े बढ़ते हैं और बात तलाक तक पहुंच जाती है। निर्देशकों ने इसे अपने-अपने तरीके से भुनाया। 'तलाक' (1958) पति-पत्नी के बीच हुई गलतफहमी पर बनी पहली फिल्म थी। ये महेश कौल द्वारा निर्देशित राजेंद्र कुमार की बतौर हीरो पहली फिल्म थी। इसमें कामिनी कदम की मुख्य भूमिका थी। इसी शीर्षक पर आधारित कई फिल्में बनी, जैसे 'तलाक तलाक तलाक!' बीआर चोपड़ा जैसे फिल्मकार ने 'निकाह और 'पति पत्नी और वो' जैसी फिल्में बनाई। लेकिन, उन्होंने कुछ फिल्मों के कथानक में कॉमेडी का टच भी रखा। ऐसे रिश्तों में खटास वाली फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जी की 'अभिमान' भी है। पत्नी की सफलता से ईर्ष्या करने वाले पति पर अमिताभ और जया की फिल्म 'अभिमान’ को आज भी पसंद किया जाता है। जब गायन में पत्नी उमा अपने पति सुबीर से अधिक सफल हो जाती है। जल्दी ही पत्नी स्टार सिंगर बन जाती है, जिससे पति के अहंकार को ठेस लगती है। रिश्तों के उतार-चढ़ाव पर आधारित फिल्म ‘अभिमान’ में अमिताभ बच्चन की भूमिका उनके करियर की सबसे बेहतरीन भूमिका रही। 
        अजीज मिर्जा द्वारा निर्देशित 'चलते-चलते' (2003) में शाहरुख खान और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिकाओं में हैं। यह फिल्म प्रेमी-प्रेमिका के पति-पत्नी बनने से लेकर उनके बीच गलतफहमी से उपजे विवाद की कहानी पर आधारित है। दोनों में विवाद इस हद तक बढ़ जाता है, कि वे अलग हो जाते हैं, लेकिन अंत में प्यार की जीत होती है। 2005 में आई 'मैं, मेरी पत्नी और वो' फिल्म शादी से पहले रंग-रूप और कद-काठी को लेकर समाज में फैले भ्रम पर है। फिल्म में मिडिल क्लास इंडियंस की मानसिकता को खूबसूरती से दिखाया है। आनंद एल राय निर्देशित 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' (2015) रोमांटिक कॉमेडी फिल्म में आर माधवन और कंगना रनौत थे। यह फिल्म शादी के चार साल बाद के तनु और मनु के रिश्तों पर है। दोनों के बीच बनती नहीं है और हर बात पर झगड़ा होता है, इसलिए दोनों तलाक ले लेते हैं। इसके बाद मनु, तनु की हमशक्ल कुसुम के प्यार में पड़ जाता है और कहानी नई दिशा में मुड़ जाती है। दक्षिण में बनी कुछ हिंदी फिल्में जैसे 'जुदाई' और 'एक ही भूल' भी इसी तरह के विषय पर आधारित थीं। 70 के दशक में आप की कसम, थोड़ी-सी बेवफाई और अगर तुम ना होते‘ जैसी फिल्में बनी जो इस संवेदनशील विषय के साथ न्याय करने में सफल रहीं। 
       इस रिश्ते का सबसे कमजोर पक्ष है धोखा, जिसके पीछे कई कारण छुपे होते हैं। एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन को लेकर फ़िल्में बनी है। सलमान खान, करिश्मा कपूर और सुष्मिता सेन की फिल्म 'बीवी नंबर 1' में भी एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर का तड़का है। कहानी में ड्रामा के साथ कॉमेडी भी है। अक्षय कुमार, इलियाना डिक्रूज की फिल्म 'रुस्तम' प्यार में धोखे की सच्ची कहानी पर बनी है। इसकी कहानी एक नेवी ऑफिसर के इर्द-गिर्द घूमती है। उसे अपनी पत्नी के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के बारे में पता चलता है। इसके बाद, नेवी ऑफिसर उस शख्स का कत्ल कर देता है। यह फिल्म सिर्फ पति-पत्नी का रिश्ता ही नहीं, देश भक्ति भी दिखाती है। दीपिका पादुकोण, अनन्या पांडे, सिद्धांत चतुर्वेदी और धैर्या कारवा की फिल्म 'गहराइयां' (2022) में भी प्यार नहीं, बल्कि धोखा और एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर पर बनी है। विद्या बालन, इलियाना डीक्रूज और प्रतीक गांधी की फिल्म 'दो और दो प्यार' में भी रिश्तों की उलझन दिखाई गई। फिल्म की कहानी में एक कपल के बीच खूब उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है, जिसकी वजह से दोनों का एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर शुरू हो जाता है।
     अनन्या पांडे, भूमि पेडनेकर और कार्तिक आर्यन की फिल्म 'पति, पत्नी और वो' की कहानी भी प्यार में धोखे और फरेब पर है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब युवक की पत्नी और गर्लफ्रेंड को उसके धोखे के बारे में पता लगता है। ऐसे ही विषय पर बनी तापसी पन्नू और विक्रांत मैसी की फिल्म 'हसीन दिलरुबा' को पसंद किया गया। यह फिल्म प्यार लव और धोखे को नए कलेवर के साथ दिखाती है। पति-पत्नी के रिश्तों में दर्द और धोखे पर भी कम फ़िल्में नहीं बनी। रानी मुखर्जी की डेब्‍यू फिल्‍म 'राजा की आएगी बारात' (1997) की कहानी ऐसे आदमी की कहानी है, जो एक लड़की का रेप सिर्फ इसलिए करता है। क्योंकि, उसने उसे थप्पड़ मार दिया था। बाद में कोर्ट में फैसला करती है कि रेपिस्‍ट को लड़की से शादी करनी चाहिए और उसे स्वीकार करना चाहिए। फिल्म 'मेहंदी' (1998) की कहानी पूजा (रानी मुखर्जी) की है, जो पति से बेहद प्यार करती है। जब लड़के के परिवार को दहेज नहीं मिलता, तो वे पूजा को इतना टॉर्चर करते हैं कि उसे मारने की प्लानिंग कर लेते हैं। 
     2001 में आई फिल्म 'दामन' की कहानी शादी के सबसे भयानक पहलू के इर्द-गिर्द है जिसमें मैरिटल रेप भी शामिल है। इसमें रवीना टंडन की जिंदगी उसका पति सयाजी शिंदे नर्क बना देता है। डोमेस्टिक वॉयलेंस पर बनी फिल्मों में से 'प्रोवोक्ड' (2006) को काफी बेहतरीन माना जाता है। ऐश्वर्या राय, नवीन एंड्रयूज मिरांडा रिचर्डस, नंदिता दास की यह फिल्म करनजीत अहलूवालिया की रियल लाइफ स्टोरी पर बेस्ड है जिन्होंने अपने पति से 10 साल यातनाएं सहीं। फिर परेशान होकर उसे मार दिया। ऐसी फिल्मों में अनुभव सिन्हा की 'थप्पड़' (2020) भी है, इसमें तापसी पन्नू के काम की सराहना हुई। ये पति के थप्पड़ से आहत पत्नी की कहानी है, जो पति से लड़ने का फैसला लेती है। फिल्‍म सवाल उठाती है कि क्‍या पुरुष और स्त्री के बीच बराबरी का रिश्ता है!
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फिल्म के कथानक में गीतों की अहमियत

- हेमंत पाल

      फिल्मों में सिर्फ कथानक और अभिनय ही नहीं होता। इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा होता है, जो कहानी में इस तरह घुल मिल जाता है कि न तो नजर आता है और न समझ आता है। इसलिए कि फिल्मों की दुनिया वास्तव में बड़ी अजीब है। जैसे नमक के बिना खाने के स्वाद की कल्पना करना मुश्किल है, उसी तरह गानों के बगैर फिल्मों के बारे में सोचना भी उतना ही मुश्किल है। कोई फिल्म अपने गानों की वजह से लोकप्रिय हो जाती है, तो कुछ फ़िल्में हिट तो हो जाती है, पर उनके गाने दर्शकों जुबान पर नहीं चढ़ पाते। जहां तक राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना जैसे सितारों की बात की जाए, तो इन्होने परदे पर गाने गाते हुए झूमकर ही अपनी पहचान बनाई। कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो केवल एक गाने के कारण बाॅक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ इकट्ठा करने में कामयाब रही। कभी ये कव्वाली रही, कभी ग़ज़ल तो कभी शादियों में गाए जाने वाले गीत! लेकिन, कुछ ऐसी भी फ़िल्में बनी, जिनमें कोई गाना नहीं था, पर उन्होंने भी सफलता के झंडे गाड़े। 
      एक गीत की बदौलत बाॅक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कराने में संगीतकार रवि बेजोड़ रहे। उनकी एक नहीं, कई ऐसी फिल्में हैं, जो केवल एक गाने के कारण दर्शकों ने बार-बार देखी! ऐसी ही फिल्मों में एक है शम्मी कपूर की 'चाइना टाउन' जिसका गीत 'बार बार देखो, हजार बार देखो' तब जितना मशहूर हुआ था, आज भी उतना ही मशहूर है। शादी ब्याह से लेकर पार्टियों में जहां कई नौजवानों को संगीत के साथ थिरकना होता है, इसी गीत की डिमांड होती है। रवि की दूसरी फिल्म है 'आदमी सड़क का' जिसका गीत 'आज मेरे यार की शादी है' बारात का नेशनल एंथम बनकर रह गया है। इसके बिना दूल्हे के दोस्त आगे ही नहीं बढ़ते! इसी तरह दुल्हन की विदाई पर 'नीलकमल' का रचा गीत 'बाबुल की दुआएं लेती जा' ने दर्शकों की आंखें नम तो की, फिल्म की सफलता में भी बहुत योगदान दिया। देखा जाए तो हिंदी फिल्मों का मिजाज बड़ा अजीब है, कभी फिल्में दर्जनों गानों के बावजूद हिट नहीं होती तो कभी बिना गाने और महज एक गाने के दम पर बाॅक्स ऑफिस पर सारे कीर्तिमान तोड़ देती है।
      रवि ने आरएटी रेट (दिल्ली का ठग), तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा (दस लाख ), मेरी छम छम बाजे पायलिया (घूंघट), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना), हम तो मोहब्बत करेगा (बाम्बे का चोर), ए मेरे दिले नादां तू गम से न घबराना (टावर हाउस ), सौ बार जनम लेंगे सौ बार फना होंगे (उस्तादों के उस्ताद), आज की मुलाकात बस इतनी (भरोसा), छू लेने दो नाजुक होंठों को (काजल ), मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी (आंखें), तुझे सूरज कहूँ या चंदा (एक फूल दो माली), दिल के अरमां आंसुओं में बह गए (निकाह) जैसे एक गीत की बदौलत पूरी फिल्म को दर्शनीय बना दिया!
      फिल्मों को बाॅक्स आफिस पर कामयाबी दिलवाने वाले अकेले गीतों में दिल के टुकडे टुकडे करके मुस्कुरा के चल दिए (दादा), आई एम ए डिस्को डांसर (डिस्को डांसर), बहारों फूल बरसाओ (सूरज), परदेसियों से न अखियां मिलाना (जब जब फूल खिले), चांद आहें भरेगा (फूल बने अंगारे), चांदी की दीवार न तोड़ी (विश्वास), शीशा हो या दिल हो (आशा), यादगार हैं। सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी 'धरती कहे पुकार के' जिसका एक गीत 'हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से' इतना हिट हुआ था कि इसी गाने की बदौलत यह औसत फिल्म सिल्वर जुबली मना गई। इंदौर के अलका थिएटर में तो उस दिनों प्रबंधकों को फिल्म चलाना इसलिए मुश्किल हो गया था कि कॉलेज के छात्र रोज आकर सिनेमाघर में जबरदस्ती घुस आते और इस गाने को देखकर ही जाते थे। कई बार तो ऐसे मौके भी आए जब रील को रिवाइंड करके छात्रों की फरमाइश पूरी करना पड़ी।
      हिंदी सिनेमा में एक दौर ऐसा भी आया जब किसी सी-ग्रेड फिल्म की एक कव्वाली ने दर्शकों में गजब का क्रेज बनाया था। इस तरह की फिल्मों में स्टंट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार और आज के सफल समीक्षक तरूण आदर्श के पिता बीके आदर्श निर्मित फिल्म 'पुतलीबाई' भी शामिल है। फिल्म की नायिका आदर्श की पत्नी जयमाला थी। इस फिल्म की एक कव्वाली 'ऐसे ऐसे बेशर्म आशिक हैं ये' ने इतनी धूम मचाई थी, कि सी-ग्रेड फिल्म 'पुतलीबाई' ने उस दौरान प्रदर्शित सभी फिल्मों को पछाड़ते हुए सिल्वर जुबली मनाई थी। इसके बाद तो हर दूसरी फिल्म में कव्वाली रखी जाने लगी। 'पुतलीबाई' के बाद एक और फिल्म आई थी नवीन निश्चल, रेखा और प्राण अभिनीत 'धर्मा' जिसमें प्राण और बिंदू पर फिल्माई कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो' ने सिनेमा हाॅल में जितनी तालियां बटोरी बॉक्स ऑफिस पर उससे ज्यादा सिक्के लूटने में सफलता पाई। इसके बाद कव्वाली का दौर थमा, तो फिल्मकारों ने इससे पीछा छुड़ाकर फिर गजलों पर ध्यान केंद्रित किया। एक गजल से सफल होने वाली फिल्मों में राज बब्बर, डिम्पल और सुरेश ओबेराय की फिल्म 'एतबार' (किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है) और 'नाम' (चिट्ठी आयी है) प्रमुख हैं। 
     बॉलीवुड के इतिहास में बिना गीतों वाली पहली फिल्म 'कानून' को माना जाता है, जो 1960 आई थी। इसे बीआर चोपड़ा ने निर्देशित किया था। ये फिल्म कानूनी पैचीदगियों के बीच से एक वकील के दांव-पेंच की कहानी थी, जो हत्यारे को बचा लेता है। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या एक ही अपराध में किसी व्यक्ति को दो बार सजा दी जा सकती है? ये फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस फिल्म में अशोक कुमार ने एक वकील का किरदार निभाया था। बगैर गीतों वाली दूसरी फिल्म थी 'इत्तेफ़ाक़' जिसे 1969 में यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना और नंदा ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। यह फिल्म एक रात की कहानी है, जिसमें दर्शक बंधा रहता है। गीतों के बिना भी ये फिल्म पसंद की गई थी। यह फिल्म हत्या से जुड़े एक रहस्य पर आधारित थी, यही कारण था कि दर्शको को फिल्म में गीत न होना खला नहीं।
      बरसों बाद श्याम बेनेगल ने 1981 में 'कलयुग' बनाकर इस परम्परा की याद दिलाई थी। इसमें शशि कपूर, राज बब्बर और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे। महाभारत से प्रेरित इस फिल्म में दो व्यावसायिक घरानों की दुश्मनी को नए संदर्भों में फिल्माया गया था। बदले की कहानी पर बनी इस फिल्म में कोई गाना न होने के बावजूद इसे पसंद किया गया था। इसे 'फिल्म फेयर' का सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1982) का पुरस्कार भी मिला। इसके अगले साल 1983 में आई कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म 'जाने भी दो यारो' आई जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओमपुरी और सतीश थे। ये एक मर्डर मिस्ट्री थी, जिसने व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य किया था।  
      बिना गीतों की फिल्म की सबसे बड़ी खासियत होती है पटकथा का कसा होना। यदि फिल्म की कहानी इतनी रोचक है कि वो दर्शकों को बांधकर रख सकती है, तो फिर गीतों का न होना कोई मायने नहीं रखता! इस तरह की अगली फिल्म 1999 में रामगोपाल वर्मा की आई। ये रोमांचक कहानी वाली फिल्म थी 'कौन है!' इसमें मनोज बाजपेयी, सुशांत सिंह और उर्मिला मातोंडकर ने काम किया था। इस फिल्म की पटकथा इतनी रोचक थी, कि दर्शकों को हिलने तक का मौका नहीं मिला था। 2005 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'ब्लैक' जिसने भी देखी, उसे पता भी नहीं चला होगा कि फिल्म में कोई गीत नहीं था। अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की ये फिल्म एक अंधी और बहरी लड़की और उसके टीचर की कहानी थी। इस फिल्म को कई अवॉर्ड्स भी मिले थे।
       इसके अलावा बिना गीतों वाली कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 2003 में रिलीज हुई 'भूत' थी, जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था। इस फिल्म में अजय देवगन, फरदीन खान, उर्मिला मातोंडकर और रेखा थे। ये डरावनी फ़िल्म थी और इसमें एक भी गीत नहीं था। इसी साल आई फिल्म 'डरना मना है' में सैफ अली खान, शिल्पा शेट्टी, नाना पाटेकर और सोहेल खान थे। इस फिल्म में भी कोई गीत नहीं था, फिर भी यह हिट हुई। 2008 में आई 'ए वेडनेसडे' अपनी कहानी के नयेपन की वजह से सुर्खियों रही थी। फिल्म में एक आम आदमी की कहानी थी, जो व्यवस्था से परेशान होकर खुद उससे टक्कर लेता है। 2013 की फिल्म 'द लंचबॉक्स' दो अंजान अधेड़ प्रेमियों की कहानी थी, जो लंच बॉक्स जरिए प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। इस फ़िल्म में इरफान खान ने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। ऐसी ही कॉमेडी फिल्म 'भेजा फ्राई' 2007 में आई थी। लेकिन, कमजोर कहानी वाली इस फिल्म को पसंद नहीं किया गया। इसमें विनय पाठक, रजत कपूर और मिलिंद सोमन थे।
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रोशन परिवार : रहें ना रहें हम महका करेंगे, बन के कली बन के सबा

      फिल्म इंडस्ट्री में वैसे तो सिर्फ कलाकारों का अभिनय ही चलता है। लेकिन, इंडस्ट्री में फ़िल्मी खानदानों की भी अलग ही चमक-धमक है।  इनकी जड़ें फ़िल्मी दुनिया में गहराई तक है। राज कपूर परिवार की कई पीढियां फिल्म की कई विधाओं से जुड़ी रही, आज भी रणवीर उस परिवार के प्रतिनिधि हैं। कपूर परिवार का इतिहास तो पृथ्वीराज कपूर के समय से शुरू होता है। ऐसा ही 'सागर परिवार' है, जिसका पौधा रामानंद सागर ने रोपा था और आज भी ये पल्लवित है। इनके अलावा सलमान खान का परिवार भी है, जिसे उनके पिता सलीम खान की स्क्रिप्ट राइटिंग ने आकार दिया। इसके अलावा धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन के परिवारों का भी जलवा है। लेकिन, इनके बीच जिस परिवार का कभी जिक्र नहीं होता, वो है 'रोशन परिवार।' संगीतकार रोशन लाल नागरथ के दो बेटों एक्टर-निर्देशक राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन के अलावा एक्शन के सरताज ऋतिक रोशन को कौन नहीं जानता। 
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- हेमंत पाल


     संगीतकार रोशन ने अपने समय काल में कई कालजयी गीतों की रचना की। उनके कई गीत आज भी गुनगुनाए जाते हैं। उनकी संगीत विधा को उनके एक बेटे राजेश रोशन ने आगे बढ़ाया और आज भी उसे जिंदा रखे हैं। 'रोशन परिवार' का एक बेटा राकेश रोशन एक्टिंग तरफ मुड़ गया। लेकिन, वे बहुत ज्यादा सफल नहीं हुए। इसके बाद वे निर्देशन में आए और अपना अलग मुकाम बनाया। अपने बेटे ऋतिक रोशन की फिल्मों की सफलता में राकेश रोशन का बहुत बड़ा हाथ है। इस 'रोशन परिवार' को आज संगीत के अलावा निर्देशन और एक्शन हीरो के लिए पहचान मिली है। इस परिवार की दूसरी और तीसरी पीढ़ी ने अपने अच्छे काम और समय की धारा के साथ भी अपनी राह बनाई। 'रोशन परिवार' की कहानी बस इतनी सी है। इस परिवार की तीन पीढियों ने मनोरंजन की दुनिया को रोशन किया, लेकिन उन्हें अंधकार से भी रूबरू होना पड़ा। इस परिवार की सबसे बड़ी ताकत इनके पारस्परिक संबंध है। आज भी परिवार अलग रहते हुए भी एकजुट है। कहते हैं कि ऋतिक रोशन हीरो बनने तक अपने चाचा राजेश रोशन के साथ सोते थे। आज भी उनकी अपने पिता से ज्यादा अपने चाचा से पटती है। एक दूसरे का साथ निभाना और एक दूसरे के लिए खड़े रहने की यह प्रवृत्ति ही रोशन को अलग रखती है। 
      दस्तूर है कि रोशनी को कभी छिपाकर नहीं रखा जा सकता है, यही वजह है कि आज 'रोशन परिवार' का नाम सिनेमा की दुनिया में शिद्दत के साथ चमचमा रहा है। सिने जगत में पिछले 6 दशक से छाया ये परिवार अपनी बहुमुखी प्रतिभा से बहुत कुछ कहता है। माना जाता रहा है, कि इस परिवार का सरनेम 'रोशन' होगा जिसके उत्तराधिकारी राकेश रोशन, राजेश रोशन और ऋतिक रोशन हैं। लेकिन, सच्चाई यह है कि इस परिवार का सरनेम नागरथ है, जो उनके पिता रोशनलाल नागरथ की वजह से 'रोशन' पर आकर रुक गया। रोशन परिवार कश्मीरी ब्राह्मण परिवार की पौध है, जो अपने गीत-संगीत में कश्मीरी बयार की तरह ताजगी ही नहीं बल्कि केसर सी महक भी लाते हैं। यही महक इस पीढ़ी के पुरोधा रोशन की संगीत रचना 'रहें ना रहें हम महका करेंगे बन के कली बन के सबा बाग़ वफ़ा में' की याद ताजा कर देती है।
     रोशन परिवार के बारे में आज के दर्शक इतना ही जानते हैं कि 25 साल पहले अभिनेता ऋतिक रोशन ने फिल्म 'कहो ना प्यार से' अभिनय में कदम रखा था। फिल्म की सफलता ने उन्हें रातों रात स्टार बना दिया। फिल्म के निर्देशक ऋतिक के पापा राकेश रोशन थे। राकेश ने भी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पारी अभिनय से आरंभ की। लेकिन, उनकी प्रतिभा को वह सम्मान नहीं मिला। उन्होंने निर्देशन में हाथ आजमाया और शोहरत हासिल की। उनके भाई राजेश रोशन ने संगीत की राह पकड़ी। दोनों भाइयों के इंडस्ट्री में आने का आधार बने उनके पिता संगीतकार रोशन। वही रोशन जिन्होंने हिंदी सिनेमा को बड़े अरमानों से रखा है, सारी सारी रात तेरी याद सताए, रहते थे कभी जिनके दिल में, रहें न रहें हम न महका करेंगे, मन रे तू काहे, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं और 'जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' जैसे कई यादगार गानों को संगीतबद्ध किया।
     यह बात कम लोग जानते हैं, कि रोशन परिवार के सभी सदस्यों को संगीत में महारथ है। राजेश रोशन तो घोषित रूप से संगीतकार हैं, लेकिन गीत संगीत पर राकेश रोशन और ऋतिक रोशन का हाथ भी कहीं से तंग नहीं है। यह गुण उन्हें न केवल संगीतकार रोशन से विरासत में मिला, बल्कि उनकी मां इरा रोशन भी संगीत की जानकार थी। उन्होंने रोशन के अधूरे काम को पूरा किया और 'अनोखी रात' के मशहूर गीत 'महलों का राजा मिला रानी बेटी राज करेगी' जैसा कर्णप्रिय गीत भी कम्पोज किया। बाद में रोशन बंधुओं ने अपनी मां के भजनों का एक एलबम भी जारी किया था। पिछले करीब 6 दशक में रोशन परिवार 'रहे न रहे हम महका करें' गाने की तरह संगीत की दुनिया में महक रहे हैं। उनके नाम को बाद में परिवार ने सरनेम की तरह अपना लिया। यह नई बात है, क्योंकि अभी तक यही प्रचारित किया जाता रहा कि 'बच्चन परिवार' पहला परिवार है, जिसने अपने सरनेम श्रीवास्तव को जातिसूचक मानकर 'बच्चन' तख्खलुस को अपना सरनेम बना लिया।
     कहते हैं कि वंश परिवार की बेल ज्यादा ऊपर तक नहीं फैलती। कुछ बनने के लिए बहुत कुछ खोना और खपना भी पड़ता है। रोशन परिवार ने खुद को खपाकर अपने आप को बनाया। रोशन के जीवित रहने तक तो उनके बेटों को कोई जानता नहीं था। लेकिन, उनकी असमय मौत ने बड़े बेटे को लड़कपन से सीधे जिम्मेदार इंसान बना दिया था। छोटे बेटे को उन संगीतकारों का सहायक बनकर अपना करियर शुरू करना पड़ा, जो कभी रोशन के आगे सिर झुकाया करते थे। इस पर कोई यदि सोचे कि ऋतिक रोशन को तो सब कुछ प्लेट में रखकर मिला होगा, तो यह भी गलत है। उन्होंने सबसे ज्यादा संघर्ष कर अपनी शारीरिक कमजोरियों पर नियंत्रण पाने के बाद ही फिल्मी अखाड़े में कूदने का काम किया।
      फिल्म इंडस्ट्री में संगीतकार रोशन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनके संगीत में उनके स्वभाव की मधुरता भी झलकती है। उनका करियर बहुत बड़ा नहीं हो पाया। 70 के दशक की शुरुआत में ही उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन, इसके बाद भी जितना काम उन्होंने किया उसमें ही संगीत श्रोताओं के लिए बेशुमार नगमों की सौगात दी। रफी की आवाज में चित्रलेखा का गीत 'मन रे तू काहे न धीर धरे' जिसे उससे रोशन के पूरे संगीत का आकलन किया जा सकता है। इसी तरह मुकेश के साथ 'ओहो रे ताल मिले नदी के जल में' गाने की सादगी और स्वाभाविकता तथा लता के साथ 'रहें न रहें हम' की शाश्वत सत्यता उनके संगीत के वह बैरोमीटर है, जो उनके कार्य का आकलन करते हैं। कव्वालियों के तो वे शहंशाह थे। 'बरसात की रात' में उनका कमाल अविस्मरणीय है। 'दिल जो न कह सका' और 'ताज महल' के 'जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा' के साथ तो उनका संगीत चरम पर पहुंचा था। लेकिन, उनके सिद्धांतों ने उनके पैरों में जंजीर बांध रखी, जो आज की दुनिया में सबसे बड़ी बाधा बनी। 
      अपने पिता की विरासत को फिल्म इंडस्ट्री में अगर किसी ने सही मायने में आगे बढ़ाया और संजोया तो उसमें सबसे पहले राजेश रोशन का ही नाम आता है। पिता की तरह ही राजेश रोशन ने भी संगीत की सेवा की और फिल्म इंडस्ट्री को नई दिशा दी। 'जूली' फिल्म के गानों को भला कौन भूल सकता है। यहां तक कि ऋतिक के लिए 'कहो ना प्यार है' के गानों का संगीत भी राजेश रोशन ने दिया। उस फिल्म के गानों को आए हुए 25 साल हो गए, लेकिन वो गाने आज भी ताजा लगते हैं। महमूद के सहयोग से आगे बढे राजेश रोशन ने बाद में सभी बड़े निर्माताओं के साथ काम किया। लेकिन, अपनी शर्तों पर काम करने और किसी के पास काम मांगने नहीं जाने के उनके सिद्धांत ने उन्हें सही अर्थों में अपने पिता का उत्तराधिकारी बनाया।
      राकेश रोशन का करियर और उसकी सफलता की अलग ही कहानी है। एक्टर के तौर पर उनकी विफलता और एक डायरेक्टर के तौर पर उनकी सफलता को कौन नहीं जानता। काफी संघर्ष के बाद एक महान परिवार से आने वाले सदस्य को इंडस्ट्री में पांव जमाने का मौका मिला। लेकिन, जब मिला तो उन्होंने उसी नएपन के साथ अपने काम को अंजाम दिया, जिसके लिए रोशन परिवार जाना जाता रहा है। परिवार के तीसरे सदस्य ऋतिक रोशन 51 साल की उम्र में अभी भी लीड एक्टर के तौर पर सक्रिय हैं। उन्होंने अपने डांस, पर्सनालिटी और डेप्थ से मॉडर्न युग के हीरो की नई परिभाषा गढ़ी और यूथ की पहली पसंद बने। शुरुआत में ऋतिक का हकलाना, हाथों में एक अंगूठा ज्यादा होना उनकी कमजोरी था। जिस पर उन्होंने जीत हासिल कर युवा दिलों की धड़कन बनने का जो काम किया वह बेमिसाल है। 
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एक थे मनोज कुमार, जो अब नहीं!

      मनोज कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे, ये सुनना अजीब सा लगता है। क्योंकि, जब हम किसी को अपने नजदीक महसूस करते हैं, तो उसके चले जाने की बात दिल भी स्वीकार नहीं करता। मनोज कुमार उन्हीं कलाकार में थे, जिन्हें 60 के बाद से 90 के दशक से पहले के दर्शक पसंद करते थे। वे सिर्फ एक्टर या डायरेक्टर ही नहीं थे, उससे कुछ अलग थे और उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ। देशभक्ति और सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित फ़िल्में बनाने में वे बेजोड़ थे। उन्हें 7 फिल्म फेयर अवार्ड मिले थे। 1968 में पहली बार फिल्म 'उपकार' के लिए मिला। इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट स्टोरी और बेस्ट डायलॉग के लिए चार फिल्मफेयर जीते। 1992 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2016 में उन्हें दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया।
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- हेमंत पाल

     मनोज कुमार के न रहने को आज के दौर से ज्यादा 90 के दशक से पहले के दर्शकों ने गंभीरता से महसूस किया। उस दौर के सिनेमा में जिन अभिनेताओं को पसंद किया जाता रहा, उनमें मनोज कुमार भी एक थे। वे सिर्फ अभिनय ही नहीं करते रहे, उन्होंने फ़िल्में बनाने का जोखिम भी मोल लिया, जो आज के मुकाबले उस समय ज्यादा मुश्किल था। उन्होंने ऐसे विषयों का चुनाव किया, जो लीक से हटकर कहे जा सकते हैं। इन्हीं में एक देशभक्ति और सामाजिक समस्याएं था। उनकी फिल्मों के देशभक्ति वाले कथानक की वजह से मनोज कुमार के नाम के साथ 'भारत कुमार' ऐसे चस्पा हो गया कि उन्हें इसी नाम से पुकारा जाने लगा। 'उपकार' से उन्होंने फिल्म निर्माण में कदम रखा और सामाजिक विषयों को ऐसी पहचान बना लिया कि दर्शक उनसे ऐसी ही फिल्मों की अपेक्षा करने लगे। अपने आधे चेहरे को हाथ की उंगलियों से ढकने की उनकी स्टाइल उनकी पहचान जैसी बन गई थी। उनकी यादगार फिल्मों में 'शहीद' (1965) शामिल है, जो भगत सिंह के जीवन पर बनी थी। 
    पूरब और पश्चिम (1970) की कहानी सांस्कृतिक पहचान पर बनाई गई, रोटी कपड़ा और मकान (1974) जीवन की जरूरतों और सामाजिक मुद्दों को कुरेदती थी और 'क्रांति'(1981) देश के स्वतंत्रता संग्राम पर बनी एपिक फिल्म रही। जबकि, 'शोर' पारिवारिक फिल्म थी, जिसमें भी एक संदेश दिखाई दिया। साल 1961 में मनोज कुमार को बतौर हीरो 'कांच की गुड़िया' से ब्रेक मिला। इसके अगले साल विजय भट्ट की फिल्म 'हरियाली और रास्ता' ने उनकी ज़िंदगी का रास्ता बदल दिया। 40 साल के फिल्म करियर में मनोज कुमार ने कई फिल्मों में काम किया और खुद भी फिल्में बनाई। इन सभी फिल्मों में उन्होंने फिल्म के कॉन्टेंट और फ़ॉर्म पर लगातार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। कहानी लिखने में उनकी महारत थी। वो जानते थे, कि भारतीय दर्शक भावुक होते हैं, इसलिए वो ऐसी कहानियां रचते थे, जिनसे दर्शक आसानी से जुड़ाव महसूस कर सकें। उनकी हर फिल्म में हर दर्शक के लिए कुछ न कुछ होता था। 'शोर' एक परिवार की खूबसूरत कहानी थी, जिसने मनोज कुमार को निर्देशक के तौर पर स्थापित किया। 
    मनोज कुमार के करियर की शुरुआत 1975 में आई फिल्म फैशन (1957) में एक छोटे से किरदार से हुई। पर, उन्हें असली पहचान 1962 में आई फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ से मिली। अभिनय के बाद उन्होंने निर्देशन में भी हाथ आजमाया और इसकी शुरुआत 1965 में आई फिल्म ‘शहीद’ से की। इसकी कहानी भगत सिंह के जीवन पर आधारित थी। 1967 में मनोज कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर उनके 'जय जवान जय किसान' नारे पर ‘उपकार’ बनाई।
      'उपकार' भले ही लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर बनी, लेकिन वे इसे देख नहीं सके। 1966 में शास्त्री जी ताशकंद के दौरे पर गए थे। लौटने के बाद वे फिल्म देखते, लेकिन ताशकंद में ही इंडो-पाकिस्तान वॉर में शांति समझौता साइन करने के अगले दिन 11 जनवरी 1966 को उनकी मौत हो गई। इसके एक साल बाद 11 अगस्त 1967 को फिल्म रिलीज हुई। शास्त्री जी को फिल्म न दिखा पाने का अफसोस ताउम्र मनोज कुमार को रहा। फिल्म हिट रही और इसके गाने ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम, सरफरोशी की तमन्ना और 'मेरा रंग दे बसंती चोला' काफी पसंद किए गए।
    फिल्मों में नए-नए प्रयोग करते हुए मनोज कुमार इतने विश्वसनीय हो गए थे कि उनकी फिल्म में वे जो भी प्रयोग करते, सहयोगी कलाकार आंख मूंदकर सब करते जाते। इस विश्वसनीयता का फायदा उठाते हुए मनोज कुमार ने देशभक्ति का मुलम्मा चढ़ाते हुए अपनी फिल्मों में वह सब शामिल कर लिया, जो आमतौर पर मुश्किल होता है। मनोज कुमार ही थे जिन्होंने 'रोटी कपडा और मकान' में हाय हाय रे यह मजबूरी में जीनत अमान को जी भरकर भिगोया। आटे की बोरियों और तराजू के पलड़ों पर मौसमी के रेप सीन को लसलसे तरीके से फिल्माकर दर्शकों की सांसों को गर्म किया। उन्होंने इसी फार्मूले को अपनाते हुए 'पूरब पश्चिम' में सायरा को ग्लैमर में ढालकर दिखाया, 'यादगार' में नूतन जैसी पारिवारिक अभिनेत्री को स्विमिंग सूट पहनाया और 'क्रांति' में हेमा मालिनी जैसी सात्विक समझी जाने वाली नायिका को न केवल पानी में तरबतर किया, बल्कि चतुराई से उनके मादक शरीर को परोसकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्के बरसवा लिए। बावजूद उनकी फिल्मों में देशभक्ति का जज्बा जरा भी कम नहीं हुआ।
      मनोज कुमार ने देश भक्ति की आड़ में केवल अंग प्रदर्शन का फार्मूला आजमाकर ही सफलता नहीं बटोरी। फिल्मों के तकनीकी पक्ष, कैमरा और फाइटिंग सीन में भी उनकी जबरदस्त पकड़ थी। 'उपकार' और 'शोर' की फाइटिंग सिक्वेंस एकदम वास्तविक जैसी लगती है। 'शोर' में झूले का प्रयोग और बिजली की लुकाछिपी के दृश्य अद्भुत थे। 'पूरब पश्चिम' की पहली कुछ रील ब्लैक एंड व्हाइट थी। लेकिन, ब्रिटिश सरकार यूनियन जैक के उतरते ही तिरंगे के चढने के साथ फिल्म का कलर में बदलना ऐसा प्रयोग था, जिसे उस समय करना तो दूर सोचना भी मुश्किल था। भाई की असफलता, पिता की मौत और पारिवारिक विवाद से तंग आकर मनोज कुमार ने शराब में डूबकर अपना तो बड़ा नुकसान किया लेकिन उन दर्शकों का भी भारी नुकसान किया जो आज के परिप्रेक्ष्य में देश की समस्याओं का कुछ सार्थक समाधान ढूंढने के लिए सिनेमाघर का अंधेरा कौना तलाशते नजर आते हैं।
   बचपन से ही वे दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। दिलीप साहब की फिल्म शबनम (1949) मनोज कुमार को इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसे कई बार देखा। फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था। जब मनोज कुमार फिल्मों में आए तो उन्होंने दिलीप कुमार के नाम पर ही अपना नाम भी मनोज कुमार कर लिया। बाद में मनोज कुमार ने अपने निर्देशन में बनी फिल्म क्रांति (1981) में दिलीप कुमार को डायरेक्ट भी किया। उन्हें फिल्म मिलने की घटना भी किसी फ़िल्मी घटना से कम नहीं थी। एक दिन जब लाइट टेस्टिंग के लिए मनोज कुमार हीरो की जगह खड़े थे। लाइट पड़ने पर उनका चेहरा कैमरे में आकर्षक लग रहा था। एक डायरेक्टर ने उन्हें 1957 में आई फिल्म 'फैशन' में एक छोटा सा रोल दिया। रोल छोटा जरूर था, लेकिन मनोज कुछ मिनट की एक्टिंग में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे। उसी रोल की बदौलत मनोज कुमार को फिल्म कांच की गुड़िया (1960) में लीड रोल दिया गया। पहली कामयाब फिल्म देने के बाद मनोज ने रेशमी रुमाल, चांद, बनारसी ठग, गृहस्थी, अपने हुए पराए, वो कौन थी जैसी कई फिल्में दीं।
    मनोज कुमार को विलेन का किरदार निभाने वाले प्राण की इमेज बदलने का भी श्रेय दिया जाता है। 1966 में आई फिल्म 'दो बदन' में मनोज कुमार ने पहली बार प्राण के साथ काम किया और दोनों दोस्त बन गए। प्राण को तब फिल्मों में निगेटिव रोल मिलते थे। ऐसे में उनकी छवि बदलने के लिए मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म 'आह' में पॉजिटिव रोल दिया। पर, ये फिल्म फ्लॉप रही, दर्शकों ने प्राण को नापसंद किया। इसके बाद मनोज कुमार ने अपनी फिल्म 'उपकार' में उन्हें मलंग बाबा का रोल देने का फैसला किया। फिल्म में अपना किरदार पढ़ने के बाद प्राण ने कहा भी था कि स्क्रिप्ट और मलंग का किरदार दोनों बहुत खूबसूरत हैं। लेकिन, एक बार सोच लो। मेरी छवि खूंखार, शराबी, जुआरी और बलात्कारी की है। क्या दर्शक मुझे किसी साधु के रोल में अपना सकेंगे। इसके बाद फिल्म में मलंग बाबा का किरदार जिस तरह लोकप्रिय हुआ वो आज भी याद किया जाता है। 
   'पूरब और पश्चिम' में उन्होंने मदन पुरी के साथ यह फार्मूला अपनाया। घाघ और स्वार्थी इंसान की भूमिका के लिए बदनाम मदनपुरी को मनोज कुमार ने विदेशी में बसे एक असहाय बाप के रूप में इतनी सहजता से पेश किया कि उनका रंग ही बदल गया। प्राण और मदन पुरी के अलावा प्रेमनाथ से भी उन्होंने 'शोर' में दबंग और दयावान पठान की भूमिका करवाकर उनका कायाकल्प कर दिया। इसी तरह प्रेम चोपड़ा, जोगिंदर और मनमोहन की इमेज को बदलने में भी मनोज कुमार कामयाब रहे। वे पहले फिल्मकार थे, जिन्होंने पाकिस्तानी कलाकारों को हिंदी फिल्मों में मौका दिया। लेकिन, अब ये सब बीती बातें हो गई। अब सिर्फ उनकी फ़िल्में ही बची हैं, जो उनकी याद को ताजा करती रहेंगी कि एक थे मनोज कुमार!
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डरना और डराना भी मनोरंजन का अहम हिस्सा

     फिल्मों के लिए हर वो विषय बिकाऊ होता है, जो दर्शकों को आकर्षित करे। कॉमेडी, प्रेम कहानी, बदले की कहानियों जैसे चर्चित विषयों के अलावा डर भी ऐसा ही विषय है, जो हर दौर में पसंद किया गया। ब्लैक एंड व्हाइट से आज तक की फिल्मों में भूत, प्रेत और आत्मा को केंद्रीय पात्र बनाकर फ़िल्में बनाई जाती रही है। नए दौर की ऐसी फिल्मों में इतना फर्क आया कि हॉरर के साथ कॉमेडी का मसाला जोड़ा गया। 'स्त्री' और 'भूल भुलैया' की सफलता में यही सब है। 'मुंजिया' भी ऐसी ही फिल्म थी। 2024 में यही तीन फ़िल्में ही सबसे ज्यादा सफल रही। अब सिर्फ दर्शकों को डराना ही फ़िल्मकार का मकसद नहीं रह गया, उसे गुदगुदाना भी उतना जरूरी है। 
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- हेमंत पाल

     मारे देश की विचित्रता में कई तरह के किस्से और कहानियां हैं। जिस तरह ईश्वर के प्रति आस्था है, उसी तरह समाज में जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म, आत्मा और भूत को लेकर भी लोगों में भरोसा काफी गहरा है। इसे लेकर कई तरह के किस्से-कहानियां प्रचलित हैं। जो लोग इन पर भरोसा नहीं करते, वे भी इन्हें एकदम नहीं नकारते। क्योंकि, हर परिवार में भूत, प्रेत, चुड़ैल और आत्माओं की मौजूदगी बताने वाला कोई न कोई सदस्य जरूर होता है। आज भी यह विषय विवाद में है कि क्या भूत-प्रेत होते हैं या फिर सिर्फ भ्रम है। इन्हीं भूतों और प्रेत आत्माओं का प्रभाव फिल्मों में भी आया। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने से भूत, प्रेत और चुड़ैल के नए-नए किस्से दिखाए जाते रहे हैं। आज जब फिल्म निर्माण की तकनीकी आधुनिक हो गई, पर हमारी फ़िल्में उससे मुक्त नहीं हुई। फर्क इतना आया कि इसमें मनोरंजन का तड़का नए अंदाज में लगने लगा। भूतों की कहानी को कभी कॉमेडी की तरह फिल्माया जाता, कभी बदले की भावना से जोड़ा जाता! कुछ कहानियों में इसमें एक जन्म से दूसरे जन्म तक प्रेम कहानी को गूंथा गया। ऐसी कहानियां कभी पुरानी नहीं पड़ी।  
      फिल्मों में सबसे पहले इस तरह का कथानक 1949 में कमाल अमरोही 'महल' से लाए थे। अशोक कुमार और मधुबाला की इस फिल्म में नायिका भटकती आत्मा थी। लेकिन, क्लाइमेक्स में पता चलता है कि वो कोई आत्मा नहीं, वास्तव में महिला ही थी। इसके बाद 1962 में आई 'बीस साल बाद' 1964 में आई 'वो कौन थी' और 1965 की 'भूत बंगला' में भी ऐसी ही डरावनी कहानियां थीं। खास बात यह कि ऐसी अधिकांश फिल्मों में भूत या भटकती आत्मा को असफल प्यार या बदले की भावना से जोड़ा जाता रहा। फिल्मों में भूतों की भूमिका दो तरह से दिखाई जाती रही है। एक बदला लेने वाला और दूसरा मदद करने वाले भूत! 80 और 90 के दशक में 'रामसे ब्रदर्स' ने जो फ़िल्में बनाई, वो डरावनी शक्ल और खून में सने चेहरों वाले खूनी भूतों पर केंद्रित रही। बाद में इन भूतों का अंत त्रिशूल या क्रॉस से दिखाया गया। इस बीच मल्टीस्टारर फिल्म 'जॉनी दुश्मन' आई, जिसमें संजीव कुमार ऐसे भूत बने थे, जो दुल्हन का लाल जोड़ा देखकर खतरनाक भूत में बदल जाते हैं। 2007 में प्रियदर्शन ने भी 'भूल भुलैया' में आत्मा को दिखाया। यह विषय इतना पसंद किया गया कि इसके दो सीक्वल बन गए। 
      फिल्मों के भूत सबका नुकसान ही करें, यह जरूरी नहीं। फ़िल्मी कथानकों में ऐसे भी भूत आए, जो सबकी मदद करते हैं। भूतनाथ, भूतनाथ रिटर्न और 'अरमान' में अमिताभ बच्चन ने ऐसे ही अच्छे भूत का किरदार निभाया, जो मददगार होते हैं। 'हैल्लो ब्रदर' में भूत बने सलमान खान अरबाज़ खान के शरीर में आकर मदद करते थे। 'चमत्कार' में नसीरुद्दीन शाह बदला लेने के लिए शाहरुख़ खान की मदद करता है। 'भूत अंकल' में जैकी श्रॉफ और 'वाह लाइफ हो तो ऐसी' में शाहिद कपूर को यमराज बने संजय दत्त की मदद से भला करते दिखाया गया। 'टार्ज़न द वंडर कार' में भी कुछ ऐसी ही कहानी थी। इंग्लिश फिल्म 'घोस्ट' से प्रेरित होकर 'प्यार का साया' और 'माँ' बनाई गई थी। दोनों फ़िल्में ऐसे भूतों की थी, जो बुरे नहीं थे।
       विक्रम भट्ट जैसे बड़े फिल्मकार भी ऐसी फिल्म बनाने के मोह से बच नहीं सके! उन्होंने 'राज़' की सफलता के बाद तो इसके कई सीक्वल बना डाले। भट्ट ने 1920, 1920-ईविल रिटर्न, शापित और हॉन्टेड में आत्माओं के दीदार करवाए! 2003 में अनुराग बासु जैसे निर्देशक ने भी 'साया' जैसी फिल्म बनाई। रामगोपाल वर्मा जैसे प्रयोगधर्मी निर्देशक ने तो 'भूत' टाइटल से ही फिल्म बना दी। इसके बाद फूँक, फूँक-2, डरना मना है, डरना ज़रूरी है, वास्तुशास्त्र, भूत रिटर्न में भी हाथ आजमाए! अनुष्का शर्मा जैसी नए जमाने की एक्ट्रेस ने 'फिल्लौरी' में न सिर्फ काम किया। बल्कि, फिल्म की निर्माता भी वे खुद थी। अनुष्का ने खुद ही भूत का किरदार निभाया! फिल्म की कहानी एक मांगलिक लड़के की थी, जिसकी शादी होने वाली रहती है। उसकी होने वाली पत्नी को मंगल दोष से बचाने के लिए पहले उसकी शादी उस पेड़ से कर दी जाती है, जिस पर अनुष्का भूत बनकर रहती है। पेड़ पर रहने वाली भूतनी लड़के के पीछे लग जाती है और हास्यास्पद रोमांटिक हालात पैदा हो जाते हैं। भूतनी बनी अनुष्का 'फिल्लौरी' में दर्शकों को लुभाती भी है और डराती भी! क्योंकि, अनुष्का का भूत किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता।
 
       1991 में आई माधुरी दीक्षित और जैकी श्रॉफ की फिल्म '100 डेज़'.आई थी। फिल्म का सस्पेंस लोगों को पसंद आया। पूरी फिल्म में सस्पेंस बने होने से फिल्म ने क्लाइमैक्स तक दर्शकों को बांधकर रखा। यही वजह थी कि फिल्म हिट रही थी। 2008 में आई फ़िल्म 'फूंक' डरावनी थी। इस फिल्म के बारे में निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने कहा था कि अगर कोई बिना डरे अकेले इस फ़िल्म को थियेटर में देख लेगा, तो वे उसे 5 लाख का इनाम देंगे। रामगोपाल वर्मा ने फिल्म इंडस्ट्री को कई चर्चित हॉरर फिल्म दी। इनमें एक फिल्म 'रात' भी है। इस फिल्म में मुख्य किरदार रेवती थी। 1992 में आई इस फिल्म में डर ही डर अंत तक था। इसकी गिनती रामगोपाल वर्मा की बेस्ट फिल्मों में होती है। 'डरना मना है' भी रामगोपाल वर्मा की ही फिल्म थी। इसमें 6 कहानियों को एक फिल्म में पिरोया गया था। सभी कहानियों ने दर्शकों को डराया। 
      सुष्मिता सेन और जेडी चक्रवर्ती अभिनीत फिल्म वास्तु शास्त्र (2004) आई। रामगोपाल वर्मा की इस फिल्म में एक पेड़ पर रहने वाली बुरी आत्माएं जो पास के घर के लोगों को परेशान करती हैं। किरदार उनसे कैसे सामना करते हैं, ये दिखाया गया। विक्रम भट्ट और अरुण रंगाचारी ने 2011 में एक फिल्म 'हॉन्टेड 3डी' बनाई। ये बहुत ही भयानक और डरावनी फिल्म थी। इसमें 3डी टेक्निक का भी उपयोग किया था। यही वजह थी कि दर्शकों ने इसे बहुत पसंद किया। भूत-प्रेत का भयानक रूप और वे इंसान को कैसे टॉर्चर करते है जिसमें वे प्रवेश करते हैं। फिल्म '1920' में यह बखूबी दिखाया। 2008 में आई विक्रम भट्ट की ये फिल्म बहुत डरावनी थी, जिसे दर्शकों ने पसंद किया। इसकी सीक्वल '1920 रिटर्न' भी आई थी। 
       देखा गया है कि ऐसी ज्यादातर फिल्मों के कथानक में किसी पौराणिक कहानी का जिक्र करके भूत या प्रेत को जोड़ा जाता है। राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की फिल्म ‘स्त्री’ और उसके बाद आई 'स्त्री-2' भी पौराणिक कथाओं पर आधारित है। एक गांव में चुडैल रातों में घूमती हैं और किसी भी मर्द को अकेला पाकर उठा ले जाती है। लोग अपने घर के बाहर ‘नाले बा’ लिख देते थे, जिसका मतलब होता है ‘कल आना।’ इस फिल्म का सीक्वल स्त्री-2 नाम से बना और 2024 में आई इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई का रिकॉर्ड ही बना दिया। इसी तरह अनुष्का शर्मा की फिल्म 'परी' भी काफी डरावनी फिल्म है। इसमें उन्होंने खुद एक ‘इरफ़ित’ का किरदार निभाया, जिसका नाम रुख़साना होता है। ये फिल्म भी पौराणिक कथाओं के आधार पर बनाई थी। इरफित एक काफी ताकतवर शैतान होता है, जो खंडहरों और मंदिरों के आसपास घूमता दिखाई देता है, वो इंसानों के आसपास रहते हैं और उनसे शादी भी कर लेते हैं, लेकिन इनकी फितरत घातक और निर्दयी किस्म की होती है। 
       बिपाशा बसु और डीनो मोरिया की फिल्म 'राज' भी अपने दौर की डरावनी फिल्मों में से एक है। आज के समय भी इसकी गिनती बेस्ट हॉरर फिल्मों में की जाती है। फ़िल्म में एक लड़की की भूतिया कहानी है, जो मरने के बाद प्रेत-आत्मा बन जाती है। 'प्रेत-आत्मा' का मतलब एक मृत आदमी की आत्मा होती है, जो तब एक भूत या शैतान का रूप लेती है। जब उसकी कोई इच्छा अधूरी रह जाती है या उसको किसी से बदला लेना होता है। ये प्रेत आत्मा इसलिए बनती है, क्योंकि उनकी डेड बॉडी का अंतिम संस्कार नहीं किया गया हो। 
      अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस में बनी ये फ़िल्म 'बुलबुल' को दर्शकों ने खूब पसंद किया। ये बंगाल के एक गांव की कहानी है, जो 19वीं सदी में बंगाल प्रेज़िडेंसी के बैकग्राउंड पर बनी है। ये फिल्म चुड़ैलों पर एक नई कहानी कहती है। इस फिल्म को भी पौराणिक कथाओं के आधार पर बनाया गया। चुड़ैल एक एक पौराणिक अलौकिक औरत होती है। इसे जीवित वस्तु का भूत भी कहा जाता है। फ़िल्म में तृप्ति डिमरी, अविनाश तिवारी और राहुल बोस हैं। इमरान हाशमी की फिल्म ‘एक थी डायन’ ने भी दर्शकों को खूब डराया। इस फिल्म की कहानी एक जादूगर पर आधारित है, जो एक डायन से प्रेत बाधित होता है। इस फिल्म की कहानी भी पौराणिक कथाओं के आधार पर थी। डायन को चुड़ैल के तौर पर भी जाना जाता है, जिसको संस्कृत में ‘दाकिनी’ कहा जाता है। मध्यकालीन हिंदू ग्रंथों जैसे ‘भगवत गीता’ में भी दाकिनी का उल्लेख मिलता है, जो एक दुष्ट महिला होती है। 
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