Sunday, June 22, 2025

विमान हादसे, हाईजैक और परदे पर उतरी कहानियां

    जीवन में कुछ हादसे ऐसी यादें छोड़ जाते हैं, जो कभी पीछा नहीं छोड़ती। अहमदाबाद विमान हादसे में करीब ढाई सौ यात्रियों के सैकड़ों सपने ध्वस्त हुए। हर यात्री की मौत के साथ कोई न कोई कहानी जुड़ी है। सच्चाई यह भी है कि ये पहला और आखिरी हादसा नहीं है। ऐसे कई दिल दहलाने वाले हादसे अब तक हुए। फिल्मकारों ने इन्हें परदे पर भी उतारा, पर जिन कहानियों पर फ़िल्में बनी, उनका अंत सुखद रहा। हिंदी फिल्मकारों ने ऐसी फ़िल्में बनाने की हिम्मत कम ही की। जो फ़िल्में बनी उनमें ज्यादातर वास्तविक हाईजैक पर आधारित रही। जबकि, हॉलीवुड में इन कहानियों पर कई प्रयोग किए गए। यही कारण है कि 'नीरजा' और आईसी 814 : कंधार हाईजैक' के अलावा ऐसी कोई हिंदी फिल्म याद भी नहीं रहती। 
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- हेमंत पाल

    हमदाबाद से लंदन जा रही एक फ्लाइट उड़ान भरते ही दुर्घटनाग्रस्त हो गई। ये एक दर्दनाक हादसा था, जिसमें करीब ढाई सौ यात्री मारे गए। विमान हादसा ऐसी त्रासदी है, जो किसी को नहीं बख्शती। अहमदाबाद हादसे में भी यही हुआ। विमान जिस हॉस्टल पर गिरा, उसमें भी कई लोगों की मौत हुई। इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो ऐसी कई फ़िल्में याद आएंगी, जिनमें ऐसी त्रासदियों को कथानक का केंद्रीय विषय बनाकर फिल्माया गया। इनमें प्लेन क्रैश, हाईजैक और इमरजेंसी लैंडिंग जैसी रोमांचक घटनाएं दिखाई गई। विमान हादसे के बाद उन फिल्मों की चर्चा चल पड़ी हैं, जो फ्लाइट क्रैश, हाईजैक और एविएशन से जुड़ी सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। ऐसी कहानियों में रोमांच, डर और इंसानी हौसले की झलक मिलती है। लेकिन, विमान हादसों के ज्यादा प्रयोग हॉलीवुड की फिल्मों में हुए। हिंदी में ऐसी फ़िल्में कम बनी। जो फ़िल्में बनाई गई उनमें सच्ची कहानियां ज्यादा हैं। नीरजा, फ्लाइट, हाईजैक, जमीन, एयर लिफ्ट, बेलबॉटम और 'आईसी 814: कंधार हाईजैक'' ऐसी ही कुछ फ़िल्में हैं जिन्होंने अपने रोमांच से दर्शकों को बांधकर रखा। 
    इनमें सबसे ताजा फिल्म है 'आईसी 814: कंधार हाईजैक' जो 2024 में आई। इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया गया था। इस फिल्म की कहानी 4 दिसंबर 1999 को काठमांडू से दिल्ली आ रही फ्लाइट आईसी-814 के हाईजैक पर केंद्रित है, जिसे पांच आतंकवादियों ने हाईजैक कर लिया था। इस विमान को अमृतसर, लाहौर, दुबई, और अंत में तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान के कंधार एयरपोर्ट पर उतारा गया। यात्रियों के साथ मारपीट भी की गई थी। आतंकवादियों ने यात्रियों के बदले भारतीय जेल में बंद पाकिस्तान के कुछ साथियों को छुड़वाने की शर्त रखी थी। इस फिल्म को लेकर रिलीज के बाद काफी विवाद भी हुआ। मगर लोगों ने ओटीटी पर इस फिल्म को काफी पसंद किया। 2016 में आयी फिल्म 'नीरजा' भी दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी। यह फिल्म 1986 में कराची में हुए पैन-एम एयरलाइंस फ्लाइट-73 के हाईजैक की सच्ची कहानी पर बनी थी। इसमें नीरजा भनोट नाम की एयर होस्टेस ने 359 यात्रियों की जान बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी। नीरजा को मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था। फिल्म में नीरजा भनोट का किरदार सोनम कपूर ने निभाया था। इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले।
     हाईजैक और विमान हादसे के अलावा ऐसी फिल्मों में कुछ अलग से सच्चे कथानक भी होते हैं। जैसे युद्ध भूमि में फंसे भारतीयों को विमान के जरिए विपरीत परिस्थितियों में सुरक्षित निकालना। 2016 में आई अक्षय कुमार की फिल्म 'एयरलिफ्ट' का कथानक इसी विषय पर रचा था। अक्षय ने रंजीत कटियाल का रोल निभाया, जो एक बिजनेसमैन है। यह फिल्म 1990 के खाड़ी युद्ध की सच्ची घटना पर आधारित है, जब 1 लाख 70 हजार भारतीय कुवैत में फंस गए थे। रंजीत ने भारत सरकार के साथ मिलकर इन लोगों को निकालने का बीड़ा उठाया। फिल्म में दिखाया गया कि कैसे विमानों के जरिए इतने बड़े पैमाने पर बचाव अभियान चलाया गया। इसी तरह 'बेल बॉटम' (2021) में अक्षय कुमार ने रॉ एजेंट का किरदार निभाया। यह फिल्म 1980 के दशक में हुए एक रियल हाईजैक मिशन पर बनाई गई। अक्षय एक जासूस है, जो हाईजैक हुए प्लेन को बचाने के लिए मिशन पर जाता है और सफलता से यात्रियों को निकाल लाता है। 
     एक फिल्म 'हाईजैक' भी आई जिसमें शाइनी आहूजा अपनी बेटी को बचाने के लिए एयरपोर्ट इंजीनियर से हीरो बन जाते हैं। 'जमीन' में अजय देवगन और अभिषेक बच्चन आतंकवादियों से यात्रियों को छुड़ाने के मिशन पर निकलते हैं। दोनों फिल्में रोमांच से भरपूर हैं और दर्शकों को अंत तक बांधे रखती हैं। विमान के पायलट की गलती क्षम्य नहीं होती। क्योंकि, उसके हाथ में कई लोगों की जिंदगी होती है। लेकिन, फिल्म ‘रनवे 34’ (2015) में कॉकपिट में बैठा कैप्टन विक्रांत खन्ना ऐसा अनुभवी पायलट होता है, जिसे अपने अनुभव पर यकीन होता है। इसे निर्देशक और अभिनेता अजय देवगन ने ‘रनवे 34’ में दर्शाया है। 
      नए विषयों पर रोमांचक फ़िल्में बनाने में हॉलीवुड के फिल्मकार हमेशा ही आगे रहे। विमान हादसे पर ही अभी तक करीब 44 फिल्में बन चुकी है। इनमें कुछ फिल्मों का रोमांच इतना जबरदस्त है कि दर्शक स्क्रीन से आंखे नहीं हटाता। ऐसी कुछ फ़िल्में तो ऑल टाइम बेस्ट मानी गई। इन फिल्मों में बताया गया कि जान बचाने के लिए किस तरह के जतन किए गए। प्लेन क्रैश मामले हमेशा ही संजीदा विषय रहे हैं। ये हमेशा ही लोगों को झकझोरते रहे। साल 2000 में आई फिल्म 'फाइनल डेस्टिनेशन' की कहानी बेहद भयावह है। फिल्म में एलेक्स नाम के एक लड़के को सपना आता है, कि जिस विमान में वह सवार है, वह दुर्घटनाग्रस्त होगा। वह घबरा जाता है और विमान से उतर जाता है। उड़ान भरने के बाद विमान वास्तव में दुर्घटनाग्रस्त होता है। फिर उसके दोस्त अजीब हादसों में मरने लगते हैं। फिल्म में प्लेन क्रैश होने के जो दृश्य दिखाए गए, वे दर्शकों की रूह कंपाने वाले है। इसी साल (2000) आई फिल्म 'कास्ट अवे' प्लेन क्रैश की ऐसी कहानी दिखाती है, जिसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े होना तय हैं। इस फिल्म में निजी विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है, और एक व्यक्ति द्वीप पर अकेला रह जाता है, जहां कोई नहीं होता। जीवित रहने और घर लौटने की कोशिश में वह सालों बिताता है। फिल्म की कहानी प्लेन क्रैश के भयावहता और बचे इंसान के जान बचाने की जद्दोजहद को परदे पर दर्शाती है। 
      सुली (2016) में रिलीज हुई फिल्म अमेरिकी पायलट चेसली सली सलेन बर्गर की सच्ची कहानी है। उन्होंने 2009 में खराब हुए इंजन के बावजूद विमान को न्यूयॉर्क के हडसन नदी में सुरक्षित उतारा था। सभी यात्री बच तो गए थे, लेकिन जांच एजेंसियां उनके फैसले पर सवाल उठाती हैं। टॉम हैंक्स का निभाया गया यह किरदार मानवीय समझ और फैसले की मिसाल था। 2014 की फिल्म 'नॉन-स्टॉप' विमान हादसे की बेहतरीन कहानियों में है। फिल्म में एक अमेरिकी एयर मार्शल को फ्लाइट में संदेश मिलता है, कि अगर पैसे नहीं भेजे, तो हर 20 मिनट में विमान में कोई न कोई मरेगा। वह सैकड़ों डरे यात्रियों के साथ उड़ान भरते हुए हत्यारे को पकड़ने की कोशिश करता है। विमान में मौजूद लोगों के लिए ये मौत से जूझने का अनुभव बताती है। 2012 की फिल्म 'फ्लाइट' भी विमान हादसे की कहानी है। इसमें पायलट टूटे हुए विमान को क्रैश-लैंड करता है और यात्रियों को बचाता है। वह हीरो बन जाता है। लेकिन, बाद में पता चलता है कि उड़ान भरते समय वह नशे में था। वह सच छुपाता है, पर उसे अपने करियर और सही काम के बीच चुनाव करना होता है। 1993 में आयी फिल्म 'अलाइव' में भी विमान हादसे के मार्मिक दृश्य हैं। फिल्म में रग्बी टीम का विमान बर्फीले एंडीज पहाड़ों में गिर जाता है। बिना भोजन और ठंड के, वे हफ्तों तक फंसे रहते हैं। यह सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म है। 
     2001 की फिल्म 'जुबैदा' श्याम बेनेगल ने बनाई थी। कहानी का अंत खतरनाक विमान हादसे से हुआ था। इसमें जोधपुर के महाराजा और उनकी दूसरी पत्नी ज़ुबैदा की दर्दनाक मौत हुई। 'जुबैदा' सच्ची घटना वाली फिल्म है। फिल्म में मनोज बाजपेई, रेखा और करिश्मा कपूर ने मुख्य भूमिकाएं थी। 40 के दशक में जुबैदा बेगम ऐसी अभिनेत्री थी, जिसका सौंदर्य बेमिसाल था। उनका निधन ऐसे ही खतरनाक विमान हादसे में हुआ जिसकी चर्चा सालों बाद आज भी की जाती है। श्याम बेनेगल ने इस कहानी पर फिल्म बनाकर घटना को फिर ताजा कर दिया। चुनाव प्रचार में जाने के दौरान 26 जनवरी 1952 की मनहूस सुबह यह हादसा हुआ था। राजा हनुवंत सिंह राठौर और जुबैदा ने जिस विमान से उड़ान भरी, वह राजस्थान के गोडवाड़ में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। इस हादसे में दोनों की मौत हो गई। विमान हादसे पर श्याम बेनेगल की यह फिल्म उल्लेखनीय मानी गई, जिसका उल्लेख कई बार किया गया। यह क्लासिक फिल्म है। विमान हादसों, हाईजैक और हवाई मिशन से जुड़ी फिल्मों की संख्या अनगिनत है।  
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फिल्मों में बेवफा पत्नियों के किस्से बेहिसाब

    हाल ही में इंदौर में जो घटना घटी वो किसी फ़िल्मी कथानक से कहीं ज्यादा रोमांचक है। एक पत्नी ने शादी के दो सप्ताह बाद ही अपने पति को हनीमून के दौरान भाड़े के हत्यारों से मरवा दिया। साजिश ऐसी रची कि पुलिस भी चौंक गई। एक ऐसी खौफनाक साजिश जिसमें प्यार का दिखावा था, धोखा था और कत्ल भी! ये हत्या कई फिल्मी कथानकों की याद दिलाती है। इसे देखकर कहा जा सकता है कि ये घटना फिल्म इंडस्ट्री से निकली कहानी या रील से बनी रियलिटी से कम रोमांचक नहीं है। फिल्मकारों ने भी पत्नी की बेवफाई के किस्सों पर कई कहानियां गढ़ी, पसंद की गई। ये विषय आज भी रोचक है, क्योंकि इंदौर जैसी साजिशें इसकी सच्चाई पर मुहर लगाती हैं।  
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- हेमंत पाल

    मारे यहां पत्नियों की बेवफाई पर तो दर्जनों फिल्में बनी, लेकिन इंदौर की सोनम रघुवंशी ने जो करतूत की, वो फ़िल्मों के कथानक की सीमा रेखा से भी बाहर की बात है। भारत एक परंपरावादी और सुसंस्कृत समाज वाला देश है, यहां पति को परमेश्वर मानने की परंपरा है। ऐसे में पत्नी का पति की हत्या करवा देने जैसी घटनाओं को दर्शक अमान्य कर सकते हैं। इसी आशंका से निर्माताओं ने इस विषय को छूने में आम तौर पर कोताही बरती। ऐसा भी नहीं कि फिल्मकार के लिए यह विषय वर्जित रहा हो। फिल्मकार बीआर चोपड़ा के लिए न केवल पत्नी की बेवफाई पसंदीदा और बॉक्स ऑफिस की खिड़कियां तोड़ने वाला विषय रहा, बल्कि उन्होंने बेवफा पत्नी द्वारा अच्छे पति की हत्या के षड्यंत्र को भी परदे पर उतारने की हिम्मत दिखाई।
    निर्देशन में अपना झंडा गाड़ने के बाद जब बीआर चोपड़ा को स्वतंत्र रूप से निर्माता बनने के लिए अशोक कुमार ने प्रेरित किया, तो उन्होंने पहली ही फिल्म के लिए बेवफा पत्नी के पति की हत्या जैसा ऑफ बीट विषय सुझाया। यह 1951 का दौर था, तब ऐसे विषय पर फिल्म बनाने का सोचना किसी आत्मघाती कदम से कम नहीं था। लेकिन बीआर चोपड़ा ने हिम्मत दिखाई और अशोक कुमार, कुलदीप कोर, प्राण और जीवन को लेकर आईएस जौहर की कहानी, पटकथा और संवाद पर फिल्म 'अफ़साना' का निर्माण और निर्देशन किया। इस फिल्म ने दर्शकों के दिमाग के साथ साथ बॉक्स ऑफिस पर भी सनसनी फैलाकर सफलता के झंडे गाड़ दिए। इसके बाद उन्होंने गुमराह, हमराज़ और 'धुंध' में भी पत्नी की बेवफाई के अलग-अलग किस्से सैल्यूलाइड पर बुनते हुए बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी थी। उनका इस विषय से प्रेम यहां तक ही सीमित नहीं रहाl  नए ज़माने में दिलीप कुमार, शर्मिला टैगोर, बिंदु और प्रेम चोपड़ा को लेकर उन्होंने 'अफ़साना' का ही रीमेक 'दास्तान' बनाई। पर, ये फिल्म उतनी सफल नहीं रही। इसके बाद उन्होंने बेवफा पत्नी द्वारा पति की सुनियोजित हत्या का ताना-बाना फिर बुना जिसके तार थे राजेश खन्ना और नंदा। 'इत्तेफाक' नाम से बनी इस फिल्म ने एक बार फिर सनसनी मचा कर बॉक्स ऑफिस पर धमाका कर दिया।
     बीआर चोपड़ा की इस परम्परा को उनके छोटे भाई यश चोपड़ा ने भी आगे बढ़ाया। बीआर फिल्म्स से अलग होकर उन्होंने राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर और राखी को लेकर फिल्म 'दाग' बनाई। उसमें भी यही बेवफाई थी, पर कहानी का प्लॉट मज़बूरी से बंधा था। इसके बाद उन्होंने देव आनंद, हेमा मालिनी, राखी, बिंदु और प्राण को लेकर फिल्म 'जोशीला' बनाईं गई। उसमें भी बिंदु अपने पति प्राण से बेवफाई कर उसे मारने का षड्यंत्र रचती है। फिल्म 'एक नारी दो रूप' और जोशीला की कहानी लगभग समान होने और उसके पहले रिलीज होने के कारण 'जोशीला' दर्शकों को बांध नहीं सकी। इसके बावजूद यह विषय नहीं पिटा। कुछ सालों के बाद सुभाष घई ने मिर्च मसाला लगाकर 'कर्ज' नाम से फिल्म बनाई। इसमें ऋषि कपूर के पिछले जन्म की बीबी सिम्मी गरेवाल अपने पति को कार से कुचलकर वैसे ही खाई में फेंक देती है, जैसे सोनम ने अपने पति को शिलांग की पहाड़ी से निपटाया था।
    सोनम रघुवंशी केस में पति राजा की मौत के बाद सोनम पर शक हुआ और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इस केस ने हसीन दिलरूबा, डार्लिंग और 'जाने जान' जैसी फिल्मों की याद दिला दी। इस कड़ी में पहला नाम 'हसीन दिलरूबा' का ही होगा, जिसमें विक्रांत मैसी और तापसी पन्नू नजर आए थे। इस फिल्म में तापसी पर पति की हत्या का आरोप लगता है। फिल्म को विनिल मैथ्यू ने डायरेक्ट किया है। आलिया भट्ट की नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म रिलीज हुई थी 'डार्लिंग' जो घरेलू हिंसा पर बनी शानदार फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में भी नायिका अपने पति को मौत के घाट सुला देती है। साल 2023 में करीना कपूर, विजय वर्मा और जयदीप अहलावत थ्रिलर फिल्म 'जाने जान' लेकर आए थे। इसे सुजॉय घोष ने डायरेक्ट किया और फिल्म में करीना कपूर का किरदार माया अपने पति अजीत का गला घोंटकर हत्या कर देती है।
    'अ परफेक्ट मर्डर' फिल्म 1998 में आई थी। फिल्म में दिखाया गया कि कैसे एक महिला की शादी वॉल स्ट्रीट के मशहूर फाइनेंसर से हो जाती है। लेकिन, उसका डेविड शॉ नाम के एक आर्टिस्ट के साथ अफेयर भी चल रहा होता है। इस लव ट्रायंगल के इर्द-गिर्द ही इस फिल्म की रूपरेखा बुनी गई। अंत में महिला ही अपने आशिक की बंदूक से अपने पति पर वार करती है और सेल्फ डिफेंस का हवाला देती है। 2006 में आई फिल्म 'प्रोवोक्ड' में ऐश्वर्या राय बच्चन ने लीड रोल प्ले किया था। इस फिल्म में उन्होंने किरणजीत नाम की एक पंजाबी महिला का किरदार निभाया था। महिला शादी के बाद अपने पति के साथ अमेरिका चली जाती है। वहां कुछ दिन बाद उसे पता चलता है, कि उसका पति वैसा नहीं है जैसा वो समझती है। उसका पति उसे मारता है और उसके साथ हर तरह की बदसलूकी करता है। ये सब कुछ वो 10 साल तक झेलती है और एक दिन तंग आकर अपने पति का कत्ल कर देती है।
    बेवफाई, मोहब्बत, लालच और साजिश की कहानी 2003 में आई फिल्म 'जिस्म' की याद दिलाती है। ये अपने दौर की सुपरहिट फिल्म थी। फिल्म में बिपाशा बसु ने सोनिया का किरदार निभाया था, जो हसीन, चालाक और रहस्यमयी महिला थी। वो अपने अमीर पति से तंग आकर एक वकील (जॉन अब्राहम) को अपने प्यार के जाल में फंसाती है। ये वकील कबीर लाल उसकी मोहब्बत में इतना अंधा हो जाता है कि उसके लिए अपने हाथ खून से रंग देता है। लेकिन अंत में सच्चाई सामने आती है। फिल्म 'लोग क्या कहेंगे' (1982) सामाजिक ड्रामा है, जिसमें एक महिला के मानसिक संघर्ष और सामाजिक दबावों को दिखाया गया। इसमें महिला अपने पति की हत्या तक कर देती है, लेकिन यह हत्या मानसिक असंतुलन और परिवार के तनाव के कारण होती है। शबाना आजमी ने इस फिल्म में दमदार अभिनय किया था, जो समाज की कठोर सोच और महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाती है।
    परदे पर नायिका की बेवफाई के बेहिसाब किस्से हैं। ये फिल्में शादी के बाद प्यार और धोखे के विषयों पर आधारित है, जहाँ पत्नियां बेवफाई में लिप्त होकर पति को धोखा देती हैं या उसे रास्ते से हटा देती हैं। 'द अनफेथफुल वाइफ' (1969) ये फ्रेंच फिल्म एक कामुक थ्रिलर है, जो एक बेवफा पत्नी की कहानी बताती है। सनम बेवफा (1991) एक बेवफा पत्नी के कारण होने वाले दुख और दर्द की कहानी है। बेवफा (2007) ऐसे जोड़े की कहानी है जो शादी से खुश नहीं है और पत्नी बेवफाई में लिप्त हो जाती है। 'गहराइयां' (2022) फिल्म में पत्नी (दीपिका) अपनी शादी से खुश नहीं है और उसकी एक पारिवारिक समस्या के कारण उसे अपनी शादी के साथ एक बेवफाई का सामना करना पड़ता है। 'कभी अलविदा ना कहना' (2006) फिल्म में दो पात्र अपनी-अपनी शादी से तंग आकर एक दूसरे के साथ अफेयर करने लगते हैं। इन फिल्मों में से कुछ में पत्नियों को गलत तरीके से पेश किया गया। जबकि, कुछ में उनके दृष्टिकोण को समझने की कोशिश भी की गई।
     सिर्फ हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी में भी 35 साल पहले ऐसी ही फिल्म 'बरीड अलाइव' आई, जिसके प्लॉट ने दर्शकों के होश उड़ा दिए थे। 'बरीड अलाइव' यानी किसी को जिंदा दफन कर देना। 1990 में आई इस अमेरिकी फिल्म का डायरेक्‍शन फ्रैंक डाराबोंट ने किया था। इसमें टिम मैथेसन, जेनिफर जेसन लेह, विलियम एथरटन और होयट एक्सटन लीड रोल में थे, इस फिल्‍म को जबरदस्‍त सफलता भी मिली। टीवी पर भी इसे खूब देखा गया। कई लोगों ने इसे 'मोस्ट अंडररेटेड फिल्‍म' भी माना। असर यह हुआ कि 1997 में इसका सीक्वल 'बरीड अलाइव-2' भी रिलीज किया गया। ये ऐसी बेवफा पत्नी की कहानी है, जो प्रेमी के साथ मिलकर पति को जहर देकर मारने की कोशिश करती है। पति मर नहीं पाता, फिर भी उसे दफना दिया जाता है। अधमरा पति कब्र से बाहर निकल आता है। वह अपने घर लौटता है, लेकिन वहां उसे अपनी पत्नी और उसके प्रेमी के बारे में सच्चाई का पता चलता है। वह दोनों का सामना करने के बजाए पूरी तरह स्वस्थ होने के लिए तहखाने में छिप जाता है। उसके बाद का थ्रिलर बेहद रोमांचक था।  
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पांच दशक बाद भी 'दीवार' दरकी नहीं!

    जिन फिल्मों के साथ वक़्त ठहर गया, उनमें 'दीवार' को भी गिना जा सकता है। इस फिल्म का निर्देशन, पटकथा और डायलॉग के साथ ही अमिताभ बच्चन की अदाकारी आज भी हर उस दर्शक को याद है, जिसने ये फिल्म देखी। 'दीवार' की पटकथा एक मिसाल बन गई, जिसे कई साल तक पुणे के 'फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया' में बेहतरीन पटकथा के रूप में पढ़ाया जाता रहा। फिल्म की कहानी झुग्गियों में रहने वाले दो गरीब भाइयों के इर्द-गिर्द घूमती है। बड़ा भाई विजय (अमिताभ) स्मगलर बन जाता है, छोटा भाई रवि (शशि कपूर) ईमानदार पुलिस अधिकारी बनता है। दो भाइयों के बीच का संघर्ष, डायलॉग और अमिताभ बच्चन की अदाकारी ने फिल्म को यादगार बना दिया।
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- हेमंत पाल

     फिल्मों के मुरीद किसी भी दर्शक से उसकी पसंदीदा फिल्मों के नाम पूछे जाएं, तो उसमें एक नाम 'दीवार' का जरूर होगा। इस फिल्म के डायलॉग कुछ ऐसे थे, जो आज भी लोगों को याद है। ये ऐसी फिल्म थी, जिसने न सिर्फ अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के किरदार में पहचान दिलाई, बल्कि इस छवि को ज्यादा दमदारी से आगे बढ़ाया। कई मामलों में ये एक ट्रेंड सेटर फिल्म थी। यह फिल्म गुस्सैल, नास्तिक, जिद्दी और माँ के प्रति समर्पित ऐसे नायक की फिल्म थी, जिसमें हर कलाकार ने अपने करियर की यादगार भूमिका निभाई। 'दीवार' हिंदी सिनेमा की उन चुनिंदा फिल्मों में है, जो 50 साल बाद भी भुलाई नहीं जा सकी। कहा जाता है कि अमिताभ का विजय वर्मा का किरदार उस दौर के मुंबई के माफिया सरगना हाजी मस्तान के जीवन का नाटकीय रूपांतरण था। जबकि, इस फिल्म को 'गंगा जमुना' और 'मदर इंडिया' से प्रभावित भी बताया जाता है।
       यश चोपड़ा निर्देशित इस फिल्म ने 'शोले' के बाद सलीम-जावेद को लोकप्रिय फिल्म लेखक बना दिया था। 'जंजीर' ने जिस अमिताभ को एंग्री यंगमैन की पहचान दी 'दीवार' उसकी अगली कड़ी थी। इसके बाद ये नायक की ऐसी पहचान बन गई, जिसे अमिताभ ने तीन दशक तक भुनाया। अमिताभ बच्चन के विद्रोही नायक की भूमिका को 70 और 80 के दशक में सलीम-जावेद ने ही गढ़ा। इस लेखक जोड़ी की ज्यादातर फिल्मों का नायक समाज के तय कायदों को नहीं मानता और अपने पिता के ख़िलाफ़ विद्रोही तेवर अपनाने वाला नज़र आता है। लेकिन, 'दीवार' के नायक के साथ उन्होंने इसका एक मार्मिक पहलू भी जोड़ा। फिल्म के नायक विजय की बांह पर लिखा होता है 'मेरा बाप चोर है।' अमिताभ 'दीवार' में पिता के प्रति गुस्से से भरे दिखाई देते हैं। लेकिन, यहां सांत्वना के बोल उनके पिता को भी मिलते हैं, यह भूमिका एक मिल में मजदूर यूनियन के नेता की है, जिन्हें मालिकों ने षड्यंत्र से चोर बेईमान साबित कर दिया था। इस लेखक जोड़ी की ज्यादातर फिल्मों में नायक का पिता से विद्रोह नजर आया। काफी कुछ 'त्रिशूल' की तरह, लेकिन 'दीवार' में नायक के साथ उन्होंने माँ से रिश्ते का एक मार्मिक पहलू भी जोड़ा था।
      जिस दौर में 'दीवार' आई थी, तब भारतीय समाज बदलाव की स्थिति में था। रहन-सहन, सोच, सामाजिक परिवेश के साथ युवा महत्वाकांक्षा भी कुंचाल भर रही थी। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी बड़ी हो गई थी और बदलाव के इस समय में युवाओं में एक आक्रोश पनप रहा था। इसका सबसे बड़ा चेहरा बनी अमिताभ की दो फ़िल्में। पहली थी 'जंजीर' जिसमें उसकी आँखों के सामने पिता की हत्या हो जाती है। यही गुस्सा उसके जहन में उबलता रहता है। फिल्म में अमिताभ एक पुलिस अधिकारी थे, जो सिस्टम का शिकार होता था। इसी श्रृंखला की दूसरी फिल्म बनी 'दीवार' जिसने पूरे सिस्टम ठेंगा बताया। महानगरों में गुंडागर्दी और उसकी आड़ में तस्करी का धंधा पनप रहा था। इसी आक्रोश का चेहरा बने अमिताभ बच्चन। फिल्म का बेहद सशक्त सीन था अमिताभ बच्चन की बाँह पर 'मेरा बाप चोर है' लिखना।
      'दीवार' में दो विपरीत सोच वाले बेटों को पालने के साथ नैतिक मूल्यों पर खरी उतरी मां की सशक्त भूमिका निरूपा रॉय ने निभाई। क्लाइमेक्स में उनकी छवि 'मदर इंडिया' की नरगिस वाली भूमिका से मेल खाती लगती है। एक लड़की के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने पर वह बेटे को गोली मार देती है। 'दीवार' में ऐसे कई सीन थे, जिन्होंने 1975 के समय काल के हिसाब से दर्शकों को झकझोर दिया था। बचपन से अमिताभ बच्चन का अपनी मां के साथ मंदिर नहीं जाना। जब मां मंदिर जाती है, तो वे बाहर बैठे होते हैं। वह बच्चा बताता है कि वह भगवान को नहीं मानता और जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। आज के दौर में किसी फिल्म में ऐसे दृश्य रखने का सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन, पांच दशक पहले ऐसे ही दृश्यों ने फिल्म के कथानक को दमदार बनाया।
    फिल्म में ऐसे कई ऐसे दृश्य थे, जो अपने समय काल से काफी आगे थे। यही कारण है कि 50 साल बाद भी वे प्रासंगिकता लिए हैं। 24 जनवरी 1975 में जब ये फिल्म रिलीज हुई, तब ऐसा सोच भी नहीं गया था। अमिताभ बच्चन का घोर नास्तिक होना। माँ के साथ बचपन से मंदिर के अंदर नहीं जाना और बाहर खड़े रहना। छोटेपन में ही यह कहना कि वो भगवान को नहीं मानता, वो जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। यह लड़का पॉलिश करके पैसा कमाता है, लेकिन पॉलिश कराने वाले एक सेठ के पैसे फेंक कर देने पर उससे कहता है 'मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।' पांच दशक पहले किसी फिल्म में ऐसे दृश्यों और नायक के इतने विद्रोही रुख के बारे में सोचा भी नहीं जाता था। क्योंकि, तब फिल्म का नायक एक सद्चरित्र और सामाजिक होता था। भगवान को मानता था और परिवार के प्रति अपने दायित्व समझता था। पर, 'दीवार' फिल्म का नायक उस दौर के सारे नायकीय गुणों से परे था। जबकि, फिल्म में नायक के नास्तिक होने के बावजूद उसका कुली के बिल्ला नंबर 786 के प्रति उसकी आस्था बनी रहती है। फिल्म के अंत में जब छोटा भाई उसे गोली मारता है, तो यही बिल्ला उसके हाथ से छिटक जाता है।   
 
     फिल्म में अमिताभ डॉकयार्ड के कुली की भूमिका में हैं, जहां के मजदूरों से वहाँ के गुंडे हफ्ता वसूली करते थे। एक दिन ये गुस्सैल कुली उन बदमाशों से भिड़ जाता है। लेकिन, उससे पहले अमिताभ का एक डायलॉग उस भिड़ंत का संकेत देता है। वो साथ काम करने वाले रहीम चाचा से कहता भी हैं 'जो पच्चीस बरस में नहीं हुआ, वो अब होगा। अगले हफ्ते एक और कुली इन मवालियों को पैसे देने से इंकार करने वाला है।' जब ये हफ्ता वसूली करने वाले उसे ढूंढ़ रहे होते हैं, तब ये कुली उनके गोदाम में ही उनका इंतजार कर रहा होता है! ये वो दृश्य था, जिसे फिल्म में सबसे ज्यादा तालियां मिली थी। उस दृश्य में एक डायलॉग था 'पीटर तेरे आदमी मुझे बाहर ढूंढ रहे हैं और मैं तुम्हारा यहां इंतजार कर रहा हूं।' वे गोदाम का दरवाज़ा अंदर से बंद करके चाभी पीटर की तरफ फेंकते हुए कहते हैं 'ये चाभी अपनी जेब में रख ले, अब ये ताला मैं तेरी जेब से चाभी निकालकर ही खोलूंगा!' फिल्म के इन दृश्यों ने ही अमिताभ के नायकत्व को चिरस्थाई बनाया था। यही वजह थी कि वे उस दौर की नई पीढ़ी के आक्रोश का प्रतीक बन गए थे। फिल्म में भाइयों के बीच का एक दृश्य भी यादगार है। इसमें स्मगलर बना बड़ा भाई आक्रोश में छोटे भाई से कहता है 'आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है? सामने खड़ा शशि कपूर धीमी आवाज़ में कहते हैं 'मेरे पास मां है।' छोटे भाई के इस जवाब से अमिताभ का सारा दंभ धराशाई हो जाता है। 
    1975 के साल को हिंदी फिल्मों के कभी न भूलने वाले समयकाल के रूप में इसलिए भी गिना जाता है, कि इस साल में चार ऐसी फ़िल्में आई, जो कई मामलों में मील का पत्थर बनी! शोले, धर्मात्मा, जय संतोषी माँ और 'दीवार' ने कमाई के मामले में भी रिकॉर्ड बनाया। उस साल तीन फिल्मों ने 'दीवार' से ज्यादा कमाई की। लेकिन, उससे भी 'दीवार' का जादू कम नहीं हुआ। सबसे कम लागत में बनी 'जय संतोषी माँ' ने ज्यादा ज्यादा कमाई की थी। जबकि, एक करोड़ रुपए 'दीवार' ने तब कमाए, जब टिकट दर डेढ़ से तीन रुपए हुआ करती थी। 'दीवार' ने 1976 में साल की 'बेस्ट मूवी' के ख़िताब के साथ छह फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते। सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता व सहअभिनेत्री को छोड़कर सभी अवॉर्ड 'दीवार' के खाते में गए थे। आज 50 साल बाद इस फिल्म के 12 में से 10 बड़े किरदार दुनिया में नहीं हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा नीतू सिंह ही हैं, जिन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। लेकिन, फिल्म को उस दौर के दर्शक नहीं भूले और न इस दौर के दर्शक!  
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Friday, June 20, 2025

नेता जी को सैल्यूट मारना जरूरी होगा

   मध्य प्रदेश में अब 'माननीय' सांसदों और विधायकों को सैल्यूट मारना अनिवार्य कर दिया गया है। किसी भी आयोजन या थाने में पहुंचने के पहले पुलिस अधिकारियों को इन्हें सैल्यूट मारना होगा। इसके लिए पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) कैलाश मकवाना ने आदेश जारी किए। निर्देशों में कहा गया कि किसी भी जनप्रतिनिधि के साथ शिष्ट व्यवहार में कमी नहीं आनी चाहिए। सांसद और विधायक मिलने आएं, तो पुलिस अफसरों को प्राथमिकता के आधार पर उनसे मुलाकात कर बात सुननी होगी। पहले भी इनके प्रोटोकॉल और शिष्टाचार को लेकर निर्देश दिए गए थे। 
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- हेमंत पाल

   र्दी वाले जब किसी को सैल्यूट करते हैं, तो उसका आशय होता है सम्मान, आदर और शिष्टाचार। खासकर सैन्य और पुलिस जैसी संगठित संरचनाओं में सैल्यूट किसी के प्रति सम्मान व्यक्त करने या औपचारिकता का एक शिष्ट तरीका माना जाता है। वास्तव में यह औपचारिक अभिनंदन है, जो शिष्टाचार का पालन करने का संकेत देता है। सैल्यूट अनुशासन और आदेशों के पालन का भी प्रतीक है। यह प्रसंग इसलिए सामने आया कि मध्य प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ने अपने मातहत पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया कि प्रदेश के सभी विधायकों और सांसदों का सैल्यूट से अभिवादन किया जाए। जबकि, अभी तक ऐसा विशिष्ट सम्मान मुख्यमंत्री और मंत्रियों को ही दिया जाता था। लेकिन, अब सांसद और विधायक भी इस सम्मान के काबिल माने जाएंगे।
    पुलिस महानिदेशक के निर्देशों के मुताबिक, किसी भी जनप्रतिनिधि के साथ शिष्ट व्यवहार में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। अगर कोई सांसद या विधायक उनसे मिलने आए, तो पुलिस अफसरों को प्राथमिकता के आधार पर मुलाकात कर उसका निराकरण करें। साथ ही जब किसी समस्या को लेकर सांसद या विधायक फोन करें, तो उनकी बात प्राथमिकता से सुना जाए और उचित समाधान भी करना होगा। सांसदों और विधायकों के सम्मान को लेकर जारी निर्देश में आठ अलग-अलग परिपत्रों का भी जिक्र किया गया। ये सभी परिपत्र पिछले कई सालों में पुलिस के लिए समय-समय पर सरकार द्वारा जारी किए गए। 
   जारी किए गए निर्देशों में लिखा गया कि सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रमों या किसी भी सामान्य समारोह में पुलिस अधिकारी और कर्मचारी वर्दी में सांसदों और विधायकों को सलामी देंगे। साथ ही अधिकारी सांसदों और विधायकों के पत्रों का समय पर जवाब भी दें। जवाब वाले पत्रों पर अधिकारियों के हस्ताक्षर होने चाहिए। जब भी कोई सांसद या विधायक किसी कार्यालय में आए, तो अधिकारी को सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर सांसदों और विधायकों से मिलना चाहिए। पुलिस महानिदेशक का यह आदेश ऐसी कई अप्रासंगिक बातें दर्शाता है, जो लोकतंत्र की मान्यताओं से मेल नहीं खाती। क्योंकि, इस निर्देश के सामने सरकार और जनप्रतिनिधि के बीच का फर्क ख़त्म हो जाता है। वास्तव में जन प्रतिनिधि को जनता ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर चुना है, वो सरकार नहीं है। जबकि, पुलिस प्रशासन का हिस्सा है, जिसे जबरन झुकने के लिए मजबूर किया जा रहा।  
    कहा गया कि यह आदेश मुख्यमंत्री से मिले निर्देश के बाद जारी किया गया। दरअसल, पुलिस अधिकारियों और विधायकों के बीच कुछ समय से तनातनी की खबरें सामने आ रही थीं। कटनी विधायक संदीप जायसवाल और एसपी अभिजीत राजन के बीच कहासुनी हुई। पिछोर से विधायक प्रीतम लोधी और मऊगंज से विधायक प्रदीप पटेल ने लगातार पुलिस के अधिकारियों की घेराबंदी की। विधायक प्रीतम लोधी ने पिछोर के एसपी पर गंभीर आरोप लगाते हुए थाने का घेराव किया और एसपी से उनकी तीखी बहस भी हुई। मऊगंज विधायक प्रदीप पटेल अपनी सुनवाई नहीं होने के चलते खुद ही थाने में गिरफ्तारी देने पहुंच गए थे। उन्होंने कहा कि अगला नंबर मेरा ही था, तो मैं गिरफ्तारी देने आ गया। नर्मदापुरम के विधायक सीताशरण शर्मा ने भी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। इसी तरह पिछोर विधायक प्रीतम लोधी का शिवपुरी एसपी अमन सिंह राठौर से विवाद चल रहा है। पुलिसकर्मियों को लगातार हो रही ऐसी घटनाओं से खासी परेशानी का सामना करना पड़ा था। इसके बाद से ही शिष्टाचार संबंधी मुद्दा जोर पकड़ने लगा था। पुलिस मुख्यालय तक ये मामले पहुंचे, जिसके बाद पुलिस महानिदेशक ने निर्देश जारी किया। 
      देखा जाए तो यह राजनीतिक दबाव का वैधानिकरण है। अब कई माफिया सरगना नेताओं के जरिए पुलिस पर ज्यादा दबाव बनाकर अपना मतलब साध सकते हैं। इससे जनता का भरोसा डगमगाएगा और पुलिस की निष्पक्षता पर भी लोगों को शक होगा। ये माना जाए या नहीं, पर सुरक्षा पंक्ति का आंतरिक अनुशासन भी खंडित और पुलिस विभाग में ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों को भी झुकना सिखाया जाएगा। निश्चित रूप से इस फैसले से अफसरशाही का मनोबल टूटेगा। दरअसल, वरिष्ठ अधिकारियों की गरिमा पद से नहीं, सच्चे कर्तव्य से बनती है, जो इस आदेश से निश्चित रूप से धूमिल होगी। यदि यह आदेश नेताओं के दबाव में लिया गया, तो स्पष्ट है कि नेताओं की मंशा पुलिस को आजाद नहीं, बल्कि सत्ता का सेवक बनाना है।
   खास बात तो यह कि पूछा तक नहीं गया कि क्या सांसद और विधायक चाहते हैं कि उन्हें विशेषाधिकार के तहत पुलिस अधिकारी सलामी दे! तो क्या यह माना जाए कि ये आदेश नेताओं के अहं की तुष्टि के लिए जारी किया गया है। इस निर्णय को अलोकतांत्रिक, अहंकार पूर्ण और अपमानजनक कहने वालों की भी कमी नहीं है। लोगों का कहना है कि पुलिस को सलामी में नहीं, देश और समाज की सुरक्षा और सेवा में व्यस्त रहने दीजिए। यदि वाकई जनप्रतिनिधियों का कद बढ़ाना है तो सेवा, ईमानदारी और जवाबदेही से बढ़ाइए, वर्दी के सम्मान को झुकने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। पुलिस जब सलामी देती है, तो यह संदेश जाता है, कि वे पद के दबाव में हैं। जबकि, लोकतंत्र में पुलिस जनता और संविधान के प्रति जवाबदेह होती है, किसी विधायक या सांसद के प्रति तो शायद नहीं। लेकिन, जब निर्देश दिए गए हैं, तो पुलिस को उसका पालन तो करना ही होगा। 
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अब घरेलू मनोरंजन जैसा अच्छा बन गया ओटीटी

- हेमंत पाल

      सिनेमा की दुनिया में कोरोना काल और उसके बाद बड़ा बदलाव आया। क्योंकि, ये वो समय काल था, जिसने जीवन के हर क्षेत्र पर असर डाला। यहां तक कि मनोरंजन की दुनिया भी इससे प्रभावित हुई। सिनेमाघर बंद हो गए, टेलीविजन के सीरियलों की शूटिंग बंद होने से टीवी पर भी पुराने कार्यक्रम दिखाए गए। ऐसे में मोबाइल पर 'ओटीटी' नाम से मनोरंजन की एक दुनिया का जन्म हुआ। कोरोना के दौरान जब दिल बहलाने के सारे रास्ते बंद हो गए, तो इसी ओटीटी ने लोगों का मन बहलाया। इस पर लोगों ने पुरानी फिल्मों और उबाऊ कार्यक्रम को देखकर अपना वक़्त गुजारा। कोरोना काल के ख़त्म होने के बाद समझा जाने लगा था, कि अब ओटीटी के दर्शकों की संख्या पर असर आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। मोबाइल तक सीमित मनोरंजन का यह नया माध्यम स्मार्ट टीवी का प्रमुख हिस्सा बन गया और इसका दायरा भी विस्तारित हुआ। शुरुआत में ओटीटी पर आने वाली अधिकांश वेब सीरीज अपराध केंद्रित होती थी। कोरोना में जब कोई विकल्प नहीं था, तो दर्शकों के लिए यही मनोरंजन बना। क्रिमिनल जस्टिस, महाराजा, पाताल लोक, दिल्ली क्राइम, फोरेंसिक, और 'आर्या' जैसी कई वेब सीरीज ने दर्शकों को आकर्षित भी किया। लेकिन, धीरे-धीरे दर्शक इन एक जैसी अपराध कथाओं से ऊबने लगे। पुलिस थाने में मारपीट के सीन, धांय-धांय चलती गोलियां, हिंसक दृश्य, अश्लील दृश्य और गालियों की भरमार वाली ये वेब सीरीज ऐसी नहीं होती थीं, जिन्हें पूरा परिवार एक साथ देख सके।       
     समाज में भी ओटीटी पर इस तरह के मसाले को लेकर विरोध की आवाज उठने लगी। एक समय तो लगा कि इस विरोध के चलते ओटीटी हाशिये पर न चला जाएगा। ऐसे माहौल में ओटीटी पर अपराध कथाओं को पोषित करने वालों को भी लगा कि यदि दर्शकों को ओटीटी पर बांधकर रखना है, तो उनकी पसंद का मनोरंजन परोसना होगा। क्योंकि, किसी भी मनोरंजन की एकरूपता ज्यादा दिन दर्शकों की पसंद पर खरी नहीं उतर सकती। लगता है अब इसका असर होने लगा और ओटीटी पर सामाजिक वेब सीरीज और फिल्मों को जगह मिलने लगी। करीब एक-डेढ़ साल में ओटीटी पर तेजी से ये बदलाव आता दिखाई देने लगा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि राजश्री जैसे प्रोडक्शन हाउस ने भी अपनी पहली वेब सीरीज 'बड़ा नाम करेगा' ओटीटी के लिए बनाई। कई बड़े फिल्मकार और कलाकार दर्शकों के लिए ओटीटी पर ऐसे कथानक लेकर आए, जो कभी बड़े परदे के लिए ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और सई परांजपे बनाया करते थे। पारिवारिक रिश्तों की उलझन वाले किस्सों को प्रधानता दी जाने लगी, इसका नतीजा ये हुआ कि जिस ओटीटी पर कभी अपराध की बाढ़ आ गई थी, वहां अब रिश्तों का सामंजस्य दिखाई देने लगा। 
     अब आइए उन वेब सीरीज और ओटीटी के लिए बनी फिल्मों पर नजर डालते हैं, जो ओटीटी का चेहरा बदलने का जरिया बने। आरती कदव डायरेक्टेड फिल्म 'मिसेज' एक ऐसी कहानी को कहती है, जो हर महिला से जुड़ी लगती है। इसमें सान्या मल्होत्रा की मुख्य भूमिका है। इसमें एक महिला के संघर्ष को दिखाया गया। वो कैसे पितृसत्ता की मानसिकता से लड़कर अपने सपनों को पूरा करती है। फिल्म की कहानी ऋचा (सान्या मल्होत्रा) की है। वह शादी के बाद घरेलू कामों में पूरी तरह से उलझ जाती है, जबकि उसे डांसर बनना था। घर की जिम्मेदारियों के बीच उसके सपने पीछे छूट जाते हैं। फिर वह अपने सपनों को पूरा करने की सोचती है। लेकिन, ऐसे में घर के बड़ों की पुरानी सोच उसके रास्ते में बाधा बनती है। यह मलयाली फिल्म 'द ग्रेट इंडियन किचन' का हिंदी रीमेक है।
     सान्या मल्होत्रा की ही फिल्म 'मीनाक्षी सुंदरेश्वर' भी ऐसी महिला की कहानी है, जिसके पति की शादी के कुछ दिन बाद ही दूसरे शहर में नौकरी लग जाती है। लांग डिस्टेंस मैरिज के साइड इफेक्ट दिखाती 'मीनाक्षी सुंदरेश्वर' में सान्या मल्होत्रा ने बेहतरीन एक्टिंग  की है। फिल्म की शुरुआत बेहद रोचक है। मैरिज ब्यूरो की गलती से सुंदरेश्वर का परिवार मीनाक्षी के घर पहुंच जाता है। हालांकि, इस कंफ्यूजन के बावजूद मीनाक्षी और सुंदरेश्वर एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं। सुंदरेश्वर जॉब की तलाश में है और बेंगलुरु की ऐप डेवलप कंपनी में उसे जॉब मिल जाती है। लेकिन, उसकी कंपनी शादीशुदा लोगों को जॉब नहीं देती है। ऐसे में अपनी शादी की बात सुंदरेश्वर को छुपानी पड़ती है। सुंदरेश्वर मीनाक्षी को अपनी दिक्कत बताता है। वह समझ जाती है। अलग-अलग शहर में रहने के बावजूद उनका रिश्ता टूटता नहीं है। 
     रवीना टंडन की फिल्म 'पटना शुक्ला' सामाजिक मुद्दे पर बनी फिल्म है। ये एक हाउसवाइफ की कहानी जो वकील है, पर कोई उसे गंभीरता से नहीं लेता। वो अपनी पहचान पाने के लिए संघर्ष करती है। एक समय ऐसा आता है, जब उन महिला वकील के हाथ एक ऐसा केस लगता है, जो पूरे शिक्षा जगत में हलचल पैदा कर देता है, लेकिन इसमें बड़े लोगों का हाथ और खौफ दोनों शामिल होता है, तो वो पीछे नहीं हटतीं. वो इस शैक्षिक घोटाले को दुनिया के सामने लाती हैं और खुद अपने आपको भी इसी का शिकार पाती हैं। 
     फिल्मों में राजश्री प्रोडक्शन नाम अपनी अलग पहचान रखता है। ऐसे में ओटीटी में उनका आना मनोरंजन के इस माध्यम को सहयोग करेगा। 'बड़ा नाम करेंगे' राजश्री की वेब सीरीज है, जिसमें बड़ी सहजता से रिश्तों का तानाबाना बुना गया है। कोरोना काल में मुंबई से शुरू होने के बाद ये कहानी उज्जैन, इंदौर और रतलाम पहुंच जाती है। कथानक की नायिका और नायक संयोग से पांच दिन एक ही घर में नीचे रहने को मजबूर होते हैं। बाद में ऐसे हालात बनते हैं कि उनकी शादी की बात चल पड़ती है। दोनों एक-दूसरे को पहले से जानते हैं, ये बात बताने का समय नहीं मिलता और परिवार के ‘फूफाजी’ दोनों की शादी में अड़चन बनने पर आमादा हो जाते हैं। वो क्यों होते हैं, ये भी बेहद रोचक किस्सा है। वेब सीरीज का कथानक बच्चों की पसंद-नापसंद के लिए बड़ों के बदलने की कोशिशों पर आधारित है। निष्कर्ष यह कि अगर साथी पसंद का हो, तो उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहीं भी निकला जा सकता है। 
      9 एपिसोड की इस सीरीज के एपिसोड भी बड़े होने के बावजूद दर्शकों को हिलने नहीं देते। ऐसी ही एक वेब सीरीज है 'पैठणी!' वास्तव में तो महाराष्ट्र के पैठण इलाके में हाथ से बुनी जाने वाली साड़ी होती है। पर, इस वेब सीरीज में ये एक बेटी और उसकी मां की कहानी है। मां पैठनी बुनने वाले एक केंद्र में कारीगरी का काम करती है। उसका अनुभव है कि पैठनी बुनने वालों को कभी पहनने का सौभाग्य नहीं मिलता। ऐसे में उसकी बेटी कावेरी अपनी मां के सपने को पूरा करने के मिशन पर निकल पड़ती है। यह यात्रा उन्हें भावनाओं, चुनौतियों और एक माँ और बेटी के बीच स्थायी बंधन के ताने-बाने से गुज़रती है। यह कथानक मां और बेटी को भावनाओं, चुनौतियों से गुजारकर स्थायी बंधन तक ले जाती है।  
     हार्दिक गज्जर के डायरेक्शन में बनी फिल्म 'आचारी बा' ऐसी महिला है, जिसके हाथ में स्वादिष्ट अचार बनाने का जादू है। लेकिन, यह सिर्फ स्वाद नहीं है, इससे उनकी यादें और भावनाएं जुड़ी हैं। एक दशक के इंतजार के बाद बा को उनका बेटा मुंबई बुलाता है। वहां पहुंचने पर उसे पता चलता है कि बेटे ने उसे परिवार के साथ समय बिताने के लिए नहीं, बल्कि घर और पालतू कुत्ते 'जेनी' की देखभाल करने के लिए बुलाया है। क्योंकि, बेटा और बहू कुछ दिन के लिए विदेश यात्रा पर जा रहे हैं। शहर की भागदौड़ और अजनबी माहौल के बीच बा खुद को एक शरारती कुत्ते के साथ घर में अकेला पाती है। हालत बदलते हैं और बा को मुंबई की उस सोसायटी में प्रेम, अपनापन और सुकून मिलता है। वहीं 'आचारी बा' का एक पुराना वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होता है, जिसमें वे अचार की रेसिपी बता रही होती हैं। यहीं से बा के 'आचारी बा' बनने का सफर शुरू होता है, जिसमें कबीर बेदी उनका साथ देते हैं। यह फिल्म सिर्फ बा और एक कुत्ते के रिश्ते की कहानी नहीं, बल्कि उन सभी रिश्तों की भी है, जिन्हें हम अपनी व्यस्त जिंदगी में पीछे छोड़ देते हैं। 
       कुछ अलग सी कहानियों में एक 'द स्टोरी टेलर' भी है, जो सत्यजीत रे की शॉर्ट स्टोरी 'गोलपो बोलिये तारिणी खुरो' पर आधारित है। ये एक कहानीकार पर केंद्रित है, जिसे एक अमीर बिजनेसमैन अपने लिए नियुक्त करता है। इस बिजनेसमैन को अनिद्रा की बीमारी है। उसे रात में नींद नहीं आती। यह कहानीकार उसे सोने में मदद करने के लिए रात के समय कहानियां सुनाता है। लेकिन कहानी में मोड़ तब आता है, जब हमें पता चलता है कि इस बिजनेसमैन के असली इरादे कुछ और ही हैं। परेश रावल ने तारिणी बंदोपाध्याय की भूमिका में जान डाल दी है। आमिर खान प्रोडक्शन्स के बैनर तले बनी किरण राव द्वारा निर्देशित फिल्म 'लापता लेडिज' इस साल सुर्खियों में रही। इसे भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए भी भेजा गया था। लेकिन, फिल्म अब इससे बाहर हो गई। ये फिल्म औरतों को अपने हिसाब से जीना सिखाती है। हर महिला में आत्मविश्वास जगाती है, जो अपने सपनों के लिए संघर्ष करती है। गंभीर विषय होने के बावजूद इसे हल्का रखा गया, जिससे कहानी सीधे दर्शकों के दिल तक पहुंचती है। फिल्म भले ही ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी है।  लेकिन, इसकी कहानी शहरों की हकीकत से भी रूबरू कराती है। 
     पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला की बायोपिक 'चमकीला' में दिलजीत दोसांझ ने मुख्य भूमिका निभाई है। इम्तियाज अली के निर्देशन में बनी यह फिल्म लुधियाना के गांव धुबरी में जन्मे पंजाबी म्यूजिक इंडस्ट्री में साल 1979 से 1988 तक राज करने वाले गायक और ‘एल्विश ऑफ पंजाब’ कहे जाने वाले अमर सिंह चमकीला के विवादास्पद जीवन पर आधारित है। उनकी गायकी के लोग दीवाने थे। कहा जाता है कि उन्होंने बहुत कम समय में फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लिया था। 27 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा भी कह गए। अज्ञात हमलावरों ने अमर सिंह चमकीला की हत्या कर दी थी। राजकुमार राव की फिल्म ‘श्रीकांत’ भी अपना असर छोड़ने में कामयाब रही. ये फिल्म वास्तव में उद्योगपति श्रीकांत बोल्ला की कहानी है, जो अपनी आंखों से दुनिया तो नहीं देख सकते, लेकिन सपने, बड़े सपने जरूर देखते हैं और उन्हें पूरा भी करते हैं। आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के गरीब परिवार में जन्मे श्रीकांत बोल्ला नेत्रहीन होने की चुनौतियों का सामना करते हुए हुए करीब 500 करोड़ रुपये की कंपनी खड़ी कर विकलांगों के लिए रोजगार के अवसर खोले थे।
      खिलाड़ियों का जिक्र किया जाए, तो  'चंदू चैंपियन' कबीर खान के निर्देशन में बनी बायोपिक फिल्म है, जो परदे पर तो खास कमाल नहीं दिखा सकी, लेकिन ओटीटी पर इस फिल्म को पसंद किया गया। कार्तिक आर्यन की अदाकारी ने खूब तारीफें बटोरी। यह फिल्म भारत के पहले पैरालंपिक स्वर्ण पदक विजेता मुरलीकांत पेटकर पर आधारित है। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए खेलों में अपनी पहचान बनाई थी। बॉक्सिंग के वंडर बॉय बनने और आखिर में 1965 की जंग में अपने शरीर पर 9 गोलियां खाने तक जारी रहा। जूनून और लगन की बुनियाद पर वह देश का पहला पैरालंपिक गोल्ड मेडल जीतने वाले खिलाड़ी बने। अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ फुटबॉल से जुड़ी सत्य घटना पर आधारित है। यह महान कोच सैयद अब्दुल रहीम की कहानी हैं, जिनकी भूमिका अजय देवगन ने निभाई है। यह कहानी 1952 के समर ओलंपिक्स से शुरू होकर 1962 के एशियन गेम्स पर ख़त्म होती है। 
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फिल्म के कथानक में गीतों की अहमियत


- हेमंत पाल

      फिल्मों में सिर्फ कथानक और अभिनय ही नहीं होता। इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा होता है, जो कहानी में इस तरह घुल मिल जाता है कि न तो नजर आता है और न समझ आता है। इसलिए कि फिल्मों की दुनिया वास्तव में बड़ी अजीब है। जैसे नमक के बिना खाने के स्वाद की कल्पना करना मुश्किल है, उसी तरह गानों के बगैर फिल्मों के बारे में सोचना भी उतना ही मुश्किल है। कोई फिल्म अपने गानों की वजह से लोकप्रिय हो जाती है, तो कुछ फ़िल्में हिट तो हो जाती है, पर उनके गाने दर्शकों जुबान पर नहीं चढ़ पाते। जहां तक राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना जैसे सितारों की बात की जाए, तो इन्होने परदे पर गाने गाते हुए झूमकर ही अपनी पहचान बनाई। कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो केवल एक गाने के कारण बाॅक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ इकट्ठा करने में कामयाब रही। कभी ये कव्वाली रही, कभी ग़ज़ल तो कभी शादियों में गाए जाने वाले गीत! लेकिन, कुछ ऐसी भी फ़िल्में बनी, जिनमें कोई गाना नहीं था, पर उन्होंने भी सफलता के झंडे गाड़े। 
       एक गीत की बदौलत बाॅक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कराने में संगीतकार रवि बेजोड़ रहे। उनकी एक नहीं, कई ऐसी फिल्में हैं, जो केवल एक गाने के कारण दर्शकों ने बार-बार देखी! ऐसी ही फिल्मों में एक है शम्मी कपूर की 'चाइना टाउन' जिसका गीत 'बार बार देखो, हजार बार देखो' तब जितना मशहूर हुआ था, आज भी उतना ही मशहूर है। शादी ब्याह से लेकर पार्टियों में जहां कई नौजवानों को संगीत के साथ थिरकना होता है, इसी गीत की डिमांड होती है। रवि की दूसरी फिल्म है 'आदमी सड़क का' जिसका गीत 'आज मेरे यार की शादी है' बारात का नेशनल एंथम बनकर रह गया है। इसके बिना दूल्हे के दोस्त आगे ही नहीं बढ़ते!
     इसी तरह दुल्हन की विदाई पर 'नीलकमल' का रचा गीत 'बाबुल की दुआएं लेती जा' ने दर्शकों की आंखें नम तो की, फिल्म की सफलता में भी बहुत योगदान दिया। देखा जाए तो हिंदी फिल्मों का मिजाज बड़ा अजीब है, कभी फिल्में दर्जनों गानों के बावजूद हिट नहीं होती तो कभी बिना गाने और महज एक गाने के दम पर बाॅक्स ऑफिस पर सारे कीर्तिमान तोड़ देती है। रवि ने आरएटी रेट (दिल्ली का ठग), तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा (दस लाख ), मेरी छम छम बाजे पायलिया (घूंघट), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना), हम तो मोहब्बत करेगा (बाम्बे का चोर), ए मेरे दिले नादां तू गम से न घबराना (टावर हाउस ), सौ बार जनम लेंगे सौ बार फना होंगे (उस्तादों के उस्ताद), आज की मुलाकात बस इतनी (भरोसा), छू लेने दो नाजुक होंठों को (काजल ), मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी (आंखें), तुझे सूरज कहूँ या चंदा (एक फूल दो माली), दिल के अरमां आंसुओं में बह गए (निकाह) जैसे एक गीत की बदौलत पूरी फिल्म को दर्शनीय बना दिया!
      फिल्मों को बाॅक्स आफिस पर कामयाबी दिलवाने वाले अकेले गीतों में दिल के टुकडे टुकडे करके मुस्कुरा के चल दिए (दादा), आई एम ए डिस्को डांसर (डिस्को डांसर), बहारों फूल बरसाओ (सूरज), परदेसियों से न अखियां मिलाना (जब जब फूल खिले), चांद आहें भरेगा (फूल बने अंगारे), चांदी की दीवार न तोड़ी (विश्वास), शीशा हो या दिल हो (आशा), यादगार हैं। सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी 'धरती कहे पुकार के' जिसका एक गीत 'हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से' इतना हिट हुआ था कि इसी गाने की बदौलत यह औसत फिल्म सिल्वर जुबली मना गई। इंदौर के अलका थिएटर में तो उस दिनों प्रबंधकों को फिल्म चलाना इसलिए मुश्किल हो गया था कि कॉलेज के छात्र रोज आकर सिनेमाघर में जबरदस्ती घुस आते और इस गाने को देखकर ही जाते थे। कई बार तो ऐसे मौके भी आए जब रील को रिवाइंड करके छात्रों की फरमाइश पूरी करना पड़ी।
      हिंदी सिनेमा में एक दौर ऐसा भी आया जब किसी सी-ग्रेड फिल्म की एक कव्वाली ने दर्शकों में गजब का क्रेज बनाया था। इस तरह की फिल्मों में स्टंट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार और आज के सफल समीक्षक तरूण आदर्श के पिता बीके आदर्श निर्मित फिल्म 'पुतलीबाई' भी शामिल है। फिल्म की नायिका आदर्श की पत्नी जयमाला थी। इस फिल्म की एक कव्वाली 'ऐसे ऐसे बेशर्म आशिक हैं ये' ने इतनी धूम मचाई थी, कि सी-ग्रेड फिल्म 'पुतलीबाई' ने उस दौरान प्रदर्शित सभी फिल्मों को पछाड़ते हुए सिल्वर जुबली मनाई थी। इसके बाद तो हर दूसरी फिल्म में कव्वाली रखी जाने लगी। 'पुतलीबाई' के बाद एक और फिल्म आई थी नवीन निश्चल, रेखा और प्राण अभिनीत 'धर्मा' जिसमें प्राण और बिंदू पर फिल्माई कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो' ने सिनेमा हाॅल में जितनी तालियां बटोरी बॉक्स ऑफिस पर उससे ज्यादा सिक्के लूटने में सफलता पाई। इसके बाद कव्वाली का दौर थमा,तो फिल्मकारों ने इससे पीछा छुड़ाकर फिर गजलों पर ध्यान केंद्रित किया। एक गजल से सफल होने वाली फिल्मों में राज बब्बर, डिम्पल और सुरेश ओबेराय की फिल्म 'एतबार' (किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है) और 'नाम' (चिट्ठी आयी है) प्रमुख हैं। 
    बॉलीवुड के इतिहास में बिना गीतों वाली पहली फिल्म 'कानून' को माना जाता है, जो 1960 आई थी। इसे बीआर चोपड़ा ने निर्देशित किया था। ये फिल्म कानूनी पैचीदगियों के बीच से एक वकील के दांव-पेंच की कहानी थी, जो हत्यारे को बचा लेता है। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या एक ही अपराध में किसी व्यक्ति को दो बार सजा दी जा सकती है? ये फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस फिल्म में अशोक कुमार ने एक वकील का किरदार निभाया था। बगैर गीतों वाली दूसरी फिल्म थी 'इत्तेफ़ाक़' जिसे 1969 में यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना और नंदा ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। यह फिल्म एक रात की कहानी है, जिसमें दर्शक बंधा रहता है। गीतों के बिना भी ये फिल्म पसंद की गई थी। यह फिल्म हत्या से जुड़े एक रहस्य पर आधारित थी, यही कारण था कि दर्शको को फिल्म में गीत न होना खला नहीं।
      बरसों बाद श्याम बेनेगल ने 1981 में 'कलयुग' बनाकर इस परम्परा की याद दिलाई थी। इसमें शशि कपूर, राज बब्बर और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे। महाभारत से प्रेरित इस फिल्म में दो व्यावसायिक घरानों की दुश्मनी को नए संदर्भों में फिल्माया गया था। बदले की कहानी पर बनी इस फिल्म में कोई गाना न होने के बावजूद इसे पसंद किया गया था। इसे 'फिल्म फेयर' का सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1982) का पुरस्कार भी मिला। इसके अगले साल 1983 में आई कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म 'जाने भी दो यारो' आई जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओमपुरी और सतीश थे। ये एक मर्डर मिस्ट्री थी, जिसने व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य किया था।  
     बिना गीतों की फिल्म की सबसे बड़ी खासियत होती है पटकथा का कसा होना। यदि फिल्म की कहानी इतनी रोचक है कि वो दर्शकों को बांधकर रख सकती है, तो फिर गीतों का न होना कोई मायने नहीं रखता! इस तरह की अगली फिल्म 1999 में रामगोपाल वर्मा की आई। ये रोमांचक कहानी वाली फिल्म थी 'कौन है!' इसमें मनोज बाजपेयी, सुशांत सिंह और उर्मिला मातोंडकर ने काम किया था। इस फिल्म की पटकथा इतनी रोचक थी, कि दर्शकों को हिलने तक का मौका नहीं मिला था। 2005 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'ब्लैक' जिसने भी देखी, उसे पता भी नहीं चला होगा कि फिल्म में कोई गीत नहीं था। अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की ये फिल्म एक अंधी और बहरी लड़की और उसके टीचर की कहानी थी। इस फिल्म को कई अवॉर्ड्स भी मिले थे।
      इसके अलावा बिना गीतों वाली कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 2003 में रिलीज हुई 'भूत' थी, जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था। इस फिल्म में अजय देवगन, फरदीन खान, उर्मिला मातोंडकर और रेखा थे। ये डरावनी फ़िल्म थी और इसमें एक भी गीत नहीं था। इसी साल आई फिल्म 'डरना मना है' में सैफ अली खान, शिल्पा शेट्टी, नाना पाटेकर और सोहेल खान थे। इस फिल्म में भी कोई गीत नहीं था, फिर भी यह हिट हुई। 2008 में आई 'ए वेडनेसडे' अपनी कहानी के नयेपन की वजह से सुर्खियों रही थी। फिल्म में एक आम आदमी की कहानी थी, जो व्यवस्था से परेशान होकर खुद उससे टक्कर लेता है। 2013 की फिल्म 'द लंचबॉक्स' दो अंजान अधेड़ प्रेमियों की कहानी थी, जो लंच बॉक्स जरिए प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। इस फ़िल्म में इरफान खान ने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। ऐसी ही कॉमेडी फिल्म 'भेजा फ्राई' 2007 में आई थी। लेकिन, कमजोर कहानी वाली इस फिल्म को पसंद नहीं किया गया। इसमें विनय पाठक, रजत कपूर और मिलिंद सोमन थे।
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