Friday, October 8, 2010

जमुना देवी के बाद राजनीति की 'धार"

आदिवासी के पास ही रहेगी, राजनीतिक विरासत
मध्यप्रदेश में जो जिले राजनीतिक रूप से जागरूक माने जाते हैं, उनमें एक धार जिला भी है। जिले की राजनीति को बेहद मुखर माना जाता रहा है। काँग्रेस की नेता जमुना देवी धार की इसी मुखरता की प्रतीक थी। आदिवासी महिला होते हुए भी उनकी आवाज में खनक थी और स्वभाव में दबंगता! यह इस बात का भी प्रतीक था कि इस आदिवासी बहुलता वाले इस इलाके में राजनीतिक जागरूकता कितनी प्रभावशाली है। इस महिला नेत्री की इतनी धाक थी कि कई बार न चाहते हुए भी पार्टी को उनकी बात का सम्मान करना पड़ता था। अब, जबकि वे सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर धार और यहाँ की धारदार राजनीति को छोड़कर जा चुकी हैं, अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गईं, जो जवाब की कोशिश में नए सवालों को जन्म देंगे!
जमुनादेवी ने लंबे समय से धार जिले की राजनीति पर अपना प्रभाव बनाए रखा था। वे अपनी पहुँच और प्रभाव के दम पर सरकार और प्रशासन से वह सब करवा लेने में सक्षम थीं, जो वे चाहती थी। उनके कई फैसलों पर अंगुलियां भी उठी, पर पार्टी हाईकमान को उनकी वरिष्ठता के आगे झुकना पड़ा। लेकिन, उनके निधन के बाद धार जिले की राजनीति में बड़ा बदलाव आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। कारण यह भी है कि जमुना देवी ने अपनी छत्र छाया में किसी को उभरने का मौका नहीं दिया। ऐसी स्थिति में जमुना देवी के अलावा जो नेता धार की राजनीति में उभरे वे कहीं न कहीं विरोध की राजनीति करके ही ऊपर तक पहुँँचे। ऐसे में एक नया गुट सामने आया जिसने अपना रास्ता जमुना देवी से अलग बनाया। ऐसे मौके भी आए जब जमुना देवी से अलग हटकर राजनीति की धारा बहाने वाले काँग्रेस नेता उनके विरोध के बावजूद आगे निकले और पार्टी का झंडा गाड़ा।
1985 के बाद जब भी प्रदेश में चुनाव हुए, धार जिले की काँग्रेस राजनीति में जमकर उठापटक का दौर चला! इसी का नतीजा था कि जिले के काँग्रेस उम्मीदवारों का फैसला नामांकन पत्र भरने के अंतिम समय में ही होता रहा! जमुना देवी की हमेशा ही यह मंशा रही कि धार जिले की राजनीति की लगाम उनके हाथ में हो! वे कुछ हद तक अपनी इन कोशिशों में सफल भी रही, पर वे जिले की राजनीति को जिस तरह काबू में करना चाहती थी वैसा हो नहीं सका! कुक्षी में उनका दबदबा तब ही बन पाया, जब काँग्रेस के नेता और पूर्व मंत्री प्रतापसिंह बघेल अपनी गलतियों के कारण काँग्रेस की राजनीति में हाशिए पर आ गए। इसके बाद कुक्षी विधानसभा का नेतृत्व उनके पास जरूर आया, पर वे पार्टी के अंदर और बाहर अपने विरोधियों की संख्या कम नहीं कर सकीं। इस बीच भाजपा की नेता रंजना बघेल के हाथों हुई उनकी हार काफी भारी पड़ी।
धार जिले में विधानसभा की 7 सीटें हैं। इनमें पाँच सीटों पर काँग्रेस काबिज है, कुक्षी सीट जमुना देवी के निधन से रिक्त हो गई। जबकि, धरमपुरी से पांचीलाल मेडा, सरदारपुर से प्रताप ग्रेवाल, बदनावर से राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव और गंधवानी से उमंग सिंघार काँग्रेस के विधायक हैं। इनमें पांचीलाल मेडा और प्रताप ग्रेवाल को सासंद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी के साथ माना जाता है और दत्तीगाँव हमेशा से ही सिंधिया गुट में रहे हैं। सिर्फ जुमना देवी के भतीजे उमंग सिंघार ही अकेले विधायक हैं जो उनके साथ रहे। धार जिले की राजनीति के पन्नो पलटे जाएं तो पुराने काँग्रेसी नेता और पूर्व सांसद सुरेंद्रसिंह नीमखेड़ा और मुजीब कुरैशी से जमुना देवी की कभी नहीं पटी। यही कारण था नीमखेड़ा-मुजीब गुट का हमेशा ही जमुना देवी से राजनीतिक मतभेद बना रहा। सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी और धार विधानसभा से एक वोट से हारकर प्रभावशाली नेता बनकर उभरे बालमुकुंद गौतम भी इन्ही दोनों नेताओं के साथ हैं। राजनीति की शह-मात के खेल में जमुना देवी और उनके प्रतिद्वंदी गुट में हमेशा ही ठनती रही है। एक खास बात यह भी है कि काँग्रेस के जो नेता नीमखेड़ा-मुजीब गुट के विरोधी हैं, वे मौका पड़ने पर जमुना देवी के साथ खड़े जरूर हो जाते थे, लेकिन कभी उनके हितैषी नहीं रहे। अब, जबकि जमुना देवी परिदृश्य में नहीं है धार जिले में काँग्रेस का एक धड़ा पूरी तरह बिखर जाएगा। इसलिए कि वे अकेली ऐसी दबंग नेता थी जिसकी वरिष्ठता के सामने पार्टी के कई बड़े नेताओं और यहाँ तक कि हाईकमान तक को झुकना पड़ता था।
लंबे राजनीतिक अनुभव के बावजूद उनका पूरे इलाके में एक छत्र प्रभाव रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि अपने भतीजे उमंग सिंघार को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की उनकी कोशिश इस हद तक गईं कि उनसे कई नेता नाराज हो गए थे। 2004 के लोकसभा चुनाव में सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी का टिकट काटकर उमंग को काँग्रेस का उम्मीदवार बनवाने में उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। अपने प्रभाव से वे टिकट दिलाने में तो कामयाब रहीं, पर काँग्रेस को चुनाव नहीं जिता सकीं! पिछले विधानसभा चुनाव में टिकटों के बँटवारे में भी वे उमंग के टिकट को लेकर अड़ी रहीं और अंतत: गंधवानी से टिकट दिलाकर जिता भी लाईं। लेकिन, इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि इतनी कोशिशों के बाद भी उमंग सिंघार उनका राजनीतिक वारिस बनने में सफल नहीं हुए। जमुना देवी का अंतिम संस्कार कुक्षी के बजाए इंदौर में किया जाना और मुखाग्नि भी उनकी बेटी द्वारा दिए जाने को इस बात का संकेत माना जाना चाहिए कि उमंग उनकी राजनीतिक विरासत का हकदार नहीं है।
जमुना देवी के बाद अब धार जिले की राजनीति में नई धारा का बहना तय है। उस कद-काठी का अब कोई और नेता धार में नहीं है जिसका फायदा निश्चित रूप से सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को मिलेगा। लोकसभा में तीसरी बार धार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे राजूखेड़ी का दायित्व बढ़ने का आशय है कि जिले में काँग्रेस की राजनीति की कमान पहले भी आदिवासी नेता के हाथ में थी, अब भी आदिवासी नेता के ही हाथ में है।

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