- हेमंत पाल
इन दिनों राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कुछ अनदेखा और अप्रत्याशित सा दृश्य दिखाई देने लगा है। इस परिदृश्य को अलग-अलग चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है, जो सही नहीं है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तथा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सचिव सज्जनसिंह वर्मा ने राज्यसभा में ऐसे सांसदों को भेजने का विरोध नहीं, बल्कि उनके चयन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि समय की मांग है जब संसद में युवाओं को प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। बात सीधी थी, लेकिन उसे कुछ इस अंदाज में पेश किया गया जैसे सज्जनसिंह वर्मा बुजुर्ग नेताओं के खिलाफ हैं! यह भी किसी विडम्बना से कम नहीं है कि कुछ लोगों की बात का हमेशा उलटा ही अर्थ निकाला जाता रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब सज्जन वर्मा को उनकी साफगोई के कारण विवादों का सामना करना पड़ा! इससे पहले जब एक बार उन्होंने अपना काम न हो पाने की व्यथा लेकर आए कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को बोलचाल में प्रयुक्त जनभाषा में पार्टी हाईकमान पर दबाव बनाने की बात कही थी, तब भी उसे इस तरह से प्रचारित किया गया था कि वे हाईकमान की अवमानना कर रहे हैं। आज जब उन्होंने समय की आवश्यकता और राजनीतिक माहौल में बदलाव की स्थिति को देखते हुए युवाओं का प्रतिनिधित्व बढाने के लिए थके-हारे राजनीतिकों को पिछले दरवाजे से संसद का सुख भोगने के लिए की जा रही कवायद पर अपने विचार प्रस्तुत किए तो उसे बगावत के सुर मानकर उनकी आलोचना की जाने लगी। सतही तौर पर सज्जन का विरोध करने वालों में अधिकांश लोग उनकी बातों से सहमत हैं, लेकिन हाईकमान के हंटर के डर से वह सच्चाई का साथ देने से बच रहे हैं। यदि स्मृति पर थोड़ा जोर डाला जाए तो याद आता है कि पिछले साल जब गोआ में भाजपा का सम्मेलन हुआ था, तब वहां के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी भाजपा संगठन में बुजुर्गों को आराम करने की सलाह देते हुए युवा खून को मौका देने की बात की थी। इस पर वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं ने किसी तरह का विरोध करने के बजाए तालियों की गडग़ड़ाहट से उनका स्वागत किया था। कहा तो यह जाता है कि अनुशासन के मामले में भाजपा संगठन कांग्रेस से ज्यादा सख्त है। तब यदि मनोहर पर्रिकर के नजरिए पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ, तो हार की मार झेल चुकी कांग्रेस में सज्जन वर्मा की इस प्रतिक्रिया को तिरछी नजरों से क्यों देखा जा रहा है! आज जिस तरह का राजनीतिक माहौल हमारे आसपास दिखाई दे रहा है, उसमें एक बदलाव साफ दिखाई दे रहा है, वो यह कि अगली लोकसभा में युवाओं के वोट निर्णायक होंगे। ऐसे में यदि समय की धारा के साथ चलते हुए राजनीतिक दलों ने युवाओं की अपेक्षानुरूप बदलाव नहीं किए, तो इसका खामियाजा उन्हें चुनावी परिणाम में भुगतना पड़ सकता है। आज की राजनीति में युवाओं की भूमिका और महत्व को इस बात से आकलित किया जा सकता है कि दिल्ली मे केजरीवाल-सरकार बनते ही फटाफट निर्णय लेने का एक दौर आरंभ हुआ है। यह अलग विषय है कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय कितने सही और कितने गलत हैं? आज का युवा जो फटाफट क्रिकेट और फास्टफ़ूड संस्कृति का समर्थक है, उसे राजनीति में भी फटाफट फैसले लेने वाले प्रत्याशियों और पार्टी की दरकार है। ऐसे में पिटे-पिटाए मोहरों पर दाँव लगाकर कांग्रेस ने भले ही उनकी राजनीतिक उम्र बढा दी हो, लेकिन इससे देश या पार्टी का शायद ही कोई भला हो पाए! गत दिनों जिन कोंग्रेसियों ने राज्यसभा के पर्चे दाखिल किए, उनमें केवल दिग्विजय सिंह ही ऐसे हैं जिनका चेहरा अक्सर टीवी पर दिखाई दे जाता है। वर्ना पता नहीं मोतीलाल वोरा सहित अन्य दावेदार किस कंदरा से उठकर नामांकन भरने चले आए! वैसे तो सज्जनसिंह वर्मा ने सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह पर निशाना नहीं लगाया, लेकिन जब बात आगे बढ़ी तो उन्होने दिग्विजय सिंह के बारे में जो बातें बताई, वह गलत भी नहीं हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उनके कांग्रेस में रहने से मध्यप्रदेश या देश में पार्टी का कोई फायदा हुआ हो? न तो वे कोई आर्थिक योजनाकार हैं, न राजनीति के चाणक्य हैं जिन पर भरोसा कर पार्टी अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ा सकती है! दो माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में उनके दोहरे मापदंड से खुद कांग्रेसी कार्यकर्ता नाखुश हैं। राहुल गांधी के इरादों को धता दिखाते हुए जिस तरह से उन्होंने प्रत्याशियों की सूची जारी होने से पहले अपने पुत्र से पर्चा दाखिल करवाया और दूसरे कांग्रेसी नेताओं के परिवार के लोगों को प्रत्याशियों की सूची से बाहर रखा, तब से ही दिग्विजय सिंह कांग्रेसियों की आँख की किरकिरी बन गए हैं। कल्पना परूलेकर ने भी उन्हे सरे आम कोसा था। यदि दिग्विजय सिंह का ट्रैक रिकार्ड टटोला जाए, तो पता चलता है कि इस चुनाव से पहले जहां-जहां उन्हें कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया पार्टी हारी है। खुद उनके गृहनगर में कांग्रेस की हालत पतली है। जिन दिनों वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, प्रदेश के किसानों और शहरवासियों ने सड़क और सरकारी कर्मचारियां ने उनकी मांगों को अनदेखा किए जाने को लेकर दिग्विजय सिंह को प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया था। ऐसे में बिना किसी राजनीतिक योगदान के उन्हें राज्यसभा की सीट सौंपना सेफ-पैसेज देने जैसा ही लगता है। बेहतर होता यदि उन युवाओं को राज्यसभा में भेजा जाता जिनके नाम बार बार टीवी पर दिखाए जा रहे थे। उन्हें हाशिए पर रखकर दिग्विजय सिंह को राज्यसभा भेजे जाने से निश्चित ही उस वर्ग को कोई अच्छा संदेश नहीं गया होगा! लेकिन, उनकी चुप्पी कब लावा बनकर बह निकले, कहा नहीं जा सकता। यह अच्छी बात है कि उनकी खामोशी को जुबान देते हुए सज्जन वर्मा ने पार्टी को आईना दिखाने का काम किया है। यदि इसका अनुसरण कर सभी दलों के साहसी नेता अपने-अपने दलों को आईना दिखाने साहस जुटाएं तो राजनीतिक शुद्धिकरण का एक नया सिलसिला आरंभ हो सकता है! ----------------------------------------------------------
इन दिनों राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कुछ अनदेखा और अप्रत्याशित सा दृश्य दिखाई देने लगा है। इस परिदृश्य को अलग-अलग चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है, जो सही नहीं है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तथा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सचिव सज्जनसिंह वर्मा ने राज्यसभा में ऐसे सांसदों को भेजने का विरोध नहीं, बल्कि उनके चयन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि समय की मांग है जब संसद में युवाओं को प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। बात सीधी थी, लेकिन उसे कुछ इस अंदाज में पेश किया गया जैसे सज्जनसिंह वर्मा बुजुर्ग नेताओं के खिलाफ हैं! यह भी किसी विडम्बना से कम नहीं है कि कुछ लोगों की बात का हमेशा उलटा ही अर्थ निकाला जाता रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब सज्जन वर्मा को उनकी साफगोई के कारण विवादों का सामना करना पड़ा! इससे पहले जब एक बार उन्होंने अपना काम न हो पाने की व्यथा लेकर आए कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को बोलचाल में प्रयुक्त जनभाषा में पार्टी हाईकमान पर दबाव बनाने की बात कही थी, तब भी उसे इस तरह से प्रचारित किया गया था कि वे हाईकमान की अवमानना कर रहे हैं। आज जब उन्होंने समय की आवश्यकता और राजनीतिक माहौल में बदलाव की स्थिति को देखते हुए युवाओं का प्रतिनिधित्व बढाने के लिए थके-हारे राजनीतिकों को पिछले दरवाजे से संसद का सुख भोगने के लिए की जा रही कवायद पर अपने विचार प्रस्तुत किए तो उसे बगावत के सुर मानकर उनकी आलोचना की जाने लगी। सतही तौर पर सज्जन का विरोध करने वालों में अधिकांश लोग उनकी बातों से सहमत हैं, लेकिन हाईकमान के हंटर के डर से वह सच्चाई का साथ देने से बच रहे हैं। यदि स्मृति पर थोड़ा जोर डाला जाए तो याद आता है कि पिछले साल जब गोआ में भाजपा का सम्मेलन हुआ था, तब वहां के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी भाजपा संगठन में बुजुर्गों को आराम करने की सलाह देते हुए युवा खून को मौका देने की बात की थी। इस पर वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं ने किसी तरह का विरोध करने के बजाए तालियों की गडग़ड़ाहट से उनका स्वागत किया था। कहा तो यह जाता है कि अनुशासन के मामले में भाजपा संगठन कांग्रेस से ज्यादा सख्त है। तब यदि मनोहर पर्रिकर के नजरिए पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ, तो हार की मार झेल चुकी कांग्रेस में सज्जन वर्मा की इस प्रतिक्रिया को तिरछी नजरों से क्यों देखा जा रहा है! आज जिस तरह का राजनीतिक माहौल हमारे आसपास दिखाई दे रहा है, उसमें एक बदलाव साफ दिखाई दे रहा है, वो यह कि अगली लोकसभा में युवाओं के वोट निर्णायक होंगे। ऐसे में यदि समय की धारा के साथ चलते हुए राजनीतिक दलों ने युवाओं की अपेक्षानुरूप बदलाव नहीं किए, तो इसका खामियाजा उन्हें चुनावी परिणाम में भुगतना पड़ सकता है। आज की राजनीति में युवाओं की भूमिका और महत्व को इस बात से आकलित किया जा सकता है कि दिल्ली मे केजरीवाल-सरकार बनते ही फटाफट निर्णय लेने का एक दौर आरंभ हुआ है। यह अलग विषय है कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय कितने सही और कितने गलत हैं? आज का युवा जो फटाफट क्रिकेट और फास्टफ़ूड संस्कृति का समर्थक है, उसे राजनीति में भी फटाफट फैसले लेने वाले प्रत्याशियों और पार्टी की दरकार है। ऐसे में पिटे-पिटाए मोहरों पर दाँव लगाकर कांग्रेस ने भले ही उनकी राजनीतिक उम्र बढा दी हो, लेकिन इससे देश या पार्टी का शायद ही कोई भला हो पाए! गत दिनों जिन कोंग्रेसियों ने राज्यसभा के पर्चे दाखिल किए, उनमें केवल दिग्विजय सिंह ही ऐसे हैं जिनका चेहरा अक्सर टीवी पर दिखाई दे जाता है। वर्ना पता नहीं मोतीलाल वोरा सहित अन्य दावेदार किस कंदरा से उठकर नामांकन भरने चले आए! वैसे तो सज्जनसिंह वर्मा ने सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह पर निशाना नहीं लगाया, लेकिन जब बात आगे बढ़ी तो उन्होने दिग्विजय सिंह के बारे में जो बातें बताई, वह गलत भी नहीं हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उनके कांग्रेस में रहने से मध्यप्रदेश या देश में पार्टी का कोई फायदा हुआ हो? न तो वे कोई आर्थिक योजनाकार हैं, न राजनीति के चाणक्य हैं जिन पर भरोसा कर पार्टी अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ा सकती है! दो माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में उनके दोहरे मापदंड से खुद कांग्रेसी कार्यकर्ता नाखुश हैं। राहुल गांधी के इरादों को धता दिखाते हुए जिस तरह से उन्होंने प्रत्याशियों की सूची जारी होने से पहले अपने पुत्र से पर्चा दाखिल करवाया और दूसरे कांग्रेसी नेताओं के परिवार के लोगों को प्रत्याशियों की सूची से बाहर रखा, तब से ही दिग्विजय सिंह कांग्रेसियों की आँख की किरकिरी बन गए हैं। कल्पना परूलेकर ने भी उन्हे सरे आम कोसा था। यदि दिग्विजय सिंह का ट्रैक रिकार्ड टटोला जाए, तो पता चलता है कि इस चुनाव से पहले जहां-जहां उन्हें कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया पार्टी हारी है। खुद उनके गृहनगर में कांग्रेस की हालत पतली है। जिन दिनों वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, प्रदेश के किसानों और शहरवासियों ने सड़क और सरकारी कर्मचारियां ने उनकी मांगों को अनदेखा किए जाने को लेकर दिग्विजय सिंह को प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया था। ऐसे में बिना किसी राजनीतिक योगदान के उन्हें राज्यसभा की सीट सौंपना सेफ-पैसेज देने जैसा ही लगता है। बेहतर होता यदि उन युवाओं को राज्यसभा में भेजा जाता जिनके नाम बार बार टीवी पर दिखाए जा रहे थे। उन्हें हाशिए पर रखकर दिग्विजय सिंह को राज्यसभा भेजे जाने से निश्चित ही उस वर्ग को कोई अच्छा संदेश नहीं गया होगा! लेकिन, उनकी चुप्पी कब लावा बनकर बह निकले, कहा नहीं जा सकता। यह अच्छी बात है कि उनकी खामोशी को जुबान देते हुए सज्जन वर्मा ने पार्टी को आईना दिखाने का काम किया है। यदि इसका अनुसरण कर सभी दलों के साहसी नेता अपने-अपने दलों को आईना दिखाने साहस जुटाएं तो राजनीतिक शुद्धिकरण का एक नया सिलसिला आरंभ हो सकता है! ----------------------------------------------------------