Friday, January 31, 2014

राजनीतिक शुद्धिकरण का सिलसिला है, बगावत नहीं!

- हेमंत पाल
 इन दिनों राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कुछ अनदेखा और अप्रत्याशित सा दृश्य दिखाई देने लगा है। इस परिदृश्य को अलग-अलग चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है, जो सही नहीं है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तथा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सचिव सज्जनसिंह वर्मा ने राज्यसभा में ऐसे सांसदों को भेजने का विरोध नहीं, बल्कि उनके चयन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि समय की मांग है जब संसद में युवाओं को प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। बात सीधी थी, लेकिन उसे कुछ इस अंदाज में पेश किया गया जैसे सज्जनसिंह वर्मा बुजुर्ग नेताओं के खिलाफ हैं! यह भी किसी विडम्बना से कम नहीं है कि कुछ लोगों की बात का हमेशा उलटा ही अर्थ निकाला जाता रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब सज्जन वर्मा को उनकी साफगोई के कारण विवादों का सामना करना पड़ा! इससे पहले जब एक बार उन्होंने अपना काम न हो पाने की व्यथा लेकर आए कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को बोलचाल में प्रयुक्त जनभाषा में पार्टी हाईकमान पर दबाव बनाने की बात कही थी, तब भी उसे इस तरह से प्रचारित किया गया था कि वे हाईकमान की अवमानना कर रहे हैं। आज जब उन्होंने समय की आवश्यकता और राजनीतिक माहौल में बदलाव की स्थिति को देखते हुए युवाओं का प्रतिनिधित्व बढाने के लिए थके-हारे राजनीतिकों को पिछले दरवाजे से संसद का सुख भोगने के लिए की जा रही कवायद पर अपने विचार प्रस्तुत किए तो उसे बगावत के सुर मानकर उनकी आलोचना की जाने लगी। सतही तौर पर सज्जन का विरोध करने वालों में अधिकांश लोग उनकी बातों से सहमत हैं, लेकिन हाईकमान के हंटर के डर से वह सच्चाई का साथ देने से बच रहे हैं। यदि स्मृति पर थोड़ा जोर डाला जाए तो याद आता है कि पिछले साल जब गोआ में भाजपा का सम्मेलन हुआ था, तब वहां के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी भाजपा संगठन में बुजुर्गों को आराम करने की सलाह देते हुए युवा खून को मौका देने की बात की थी। इस पर वहां उपस्थित कार्यकर्ताओं ने किसी तरह का विरोध करने के बजाए तालियों की गडग़ड़ाहट से उनका स्वागत किया था। कहा तो यह जाता है कि अनुशासन के मामले में भाजपा संगठन कांग्रेस से ज्यादा सख्त है। तब यदि मनोहर पर्रिकर के नजरिए पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ, तो हार की मार झेल चुकी कांग्रेस में सज्जन वर्मा की इस प्रतिक्रिया को तिरछी नजरों से क्यों देखा जा रहा है! आज जिस तरह का राजनीतिक माहौल हमारे आसपास दिखाई दे रहा है, उसमें एक बदलाव साफ दिखाई दे रहा है, वो यह कि अगली लोकसभा में युवाओं के वोट निर्णायक होंगे। ऐसे में यदि समय की धारा के साथ चलते हुए राजनीतिक दलों ने युवाओं की अपेक्षानुरूप बदलाव नहीं किए, तो इसका खामियाजा उन्हें चुनावी परिणाम में भुगतना पड़ सकता है। आज की राजनीति में युवाओं की भूमिका और महत्व को इस बात से आकलित किया जा सकता है कि दिल्ली मे केजरीवाल-सरकार बनते ही फटाफट निर्णय लेने का एक दौर आरंभ हुआ है। यह अलग विषय है कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय कितने सही और कितने गलत हैं? आज का युवा जो फटाफट क्रिकेट और फास्टफ़ूड संस्कृति का समर्थक है, उसे राजनीति में भी फटाफट फैसले लेने वाले प्रत्याशियों और पार्टी की दरकार है। ऐसे में पिटे-पिटाए मोहरों पर दाँव लगाकर कांग्रेस ने भले ही उनकी राजनीतिक उम्र बढा दी हो, लेकिन इससे देश या पार्टी का शायद ही कोई भला हो पाए! गत दिनों जिन कोंग्रेसियों ने राज्यसभा के पर्चे दाखिल किए, उनमें केवल दिग्विजय सिंह ही ऐसे हैं जिनका चेहरा अक्सर टीवी पर दिखाई दे जाता है। वर्ना पता नहीं मोतीलाल वोरा सहित अन्य दावेदार किस कंदरा से उठकर नामांकन भरने चले आए! वैसे तो सज्जनसिंह वर्मा ने सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह पर निशाना नहीं लगाया, लेकिन जब बात आगे बढ़ी तो उन्होने दिग्विजय सिंह के बारे में जो बातें बताई, वह गलत भी नहीं हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उनके कांग्रेस में रहने से मध्यप्रदेश या देश में पार्टी का कोई फायदा हुआ हो? न तो वे कोई आर्थिक योजनाकार हैं, न राजनीति के चाणक्य हैं जिन पर भरोसा कर पार्टी अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ा सकती है! दो माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में उनके दोहरे मापदंड से खुद कांग्रेसी कार्यकर्ता नाखुश हैं। राहुल गांधी के इरादों को धता दिखाते हुए जिस तरह से उन्होंने प्रत्याशियों की सूची जारी होने से पहले अपने पुत्र से पर्चा दाखिल करवाया और दूसरे कांग्रेसी नेताओं के परिवार के लोगों को प्रत्याशियों की सूची से बाहर रखा, तब से ही दिग्विजय सिंह कांग्रेसियों की आँख की किरकिरी बन गए हैं। कल्पना परूलेकर ने भी उन्हे सरे आम कोसा था। यदि दिग्विजय सिंह का ट्रैक रिकार्ड टटोला जाए, तो पता चलता है कि इस चुनाव से पहले जहां-जहां उन्हें कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया पार्टी हारी है। खुद उनके गृहनगर में कांग्रेस की हालत पतली है। जिन दिनों वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, प्रदेश के किसानों और शहरवासियों ने सड़क और सरकारी कर्मचारियां ने उनकी मांगों को अनदेखा किए जाने को लेकर दिग्विजय सिंह को प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया था। ऐसे में बिना किसी राजनीतिक योगदान के उन्हें राज्यसभा की सीट सौंपना सेफ-पैसेज देने जैसा ही लगता है। बेहतर होता यदि उन युवाओं को राज्यसभा में भेजा जाता जिनके नाम बार बार टीवी पर दिखाए जा रहे थे। उन्हें हाशिए पर रखकर दिग्विजय सिंह को राज्यसभा भेजे जाने से निश्चित ही उस वर्ग को कोई अच्छा संदेश नहीं गया होगा! लेकिन, उनकी चुप्पी कब लावा बनकर बह निकले, कहा नहीं जा सकता। यह अच्छी बात है कि उनकी खामोशी को जुबान देते हुए सज्जन वर्मा ने पार्टी को आईना दिखाने का काम किया है। यदि इसका अनुसरण कर सभी दलों के साहसी नेता अपने-अपने दलों को आईना दिखाने साहस जुटाएं तो राजनीतिक शुद्धिकरण का एक नया सिलसिला आरंभ हो सकता है! ----------------------------------------------------------

Monday, January 13, 2014

इन विधानसभा चुनाव नतीजों का हश्र?

- हेमंत पाल ------------------------------------------------------------- पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में से चार राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस के नेतृत्व की जड़ों को हिलाकर रख दिया। नरेंद्र मोदी के राजनीतिक मंत्र और भाजपा के सभी राज्यों के क्षत्रपों के सामने पूरी कांग्रेस पार्टी धराशाई नजर आई। बाकी बची कसर दिल्ली में 'आप' ने पूरी कर दी! उत्तर भारत के चार राज्यों में मतदान के बाद जो संकेत मिले थे, उसके बाद ही कांग्रेस नेतृत्व ने हार की पेशबंदी शुरू कर दी थी। लेकिन, उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि चुनाव परिणाम उनके लिए इतने नकारात्मक और निराशाजनक होंगे। कांग्रेस का पूरा मैनेजमेंट ये पता लगाने में असफल है कि मध्यप्रदेश में पार्टी की बुरी हार का कारण क्या है? सकारात्मक संकेतों की गर्त में इतने ख़राब नतीजे छुपे थे, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पाया! सिर्फ राजस्थान ही ऐसा राज्य है, जहाँ कांग्रेस को अपनी हार का अंदेशा पहले से था। 000 मध्य प्रदेश सहित चार राज्यों के चुनावी परिणाम तमाम राजनीतिक दलों को सोचने-विचारने का ढेर सारा मसाला दे गए हैं। कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि उसकी इतनी करारी हार क्यों हो गई! भाजपा भी असमंजस में है कि उसे इतना बहुमत कैसे मिल गया? दिल्ली और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो खुद भाजपा ने भी नहीं सोचा था कि उसे इस कदर सफलता मिलेगी! ले देकर दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' ही यह कयास लगा रही थी कि वह कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही झाडू लगा देगी! लेकिन, यहां भी उसके सपने पूरे नहीं हुए! उसने कांग्रेस पर तो झाडू मार दी, लेकिन भाजपा को वह अपनी झाडू में समेट नहीं पाई। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि इन चुनावी नतीजों के परिणाम क्या होंगे? पहली बात तो यह है कि इन परिणामों का सही कारण क्या है, कोई सही तरह से आकलित नहीं कर पा रहा है। क्या इसका कारण राहुल गाँधी का पूरी तरह विफल हो जाना है या फिर यह नरेंद्र मोदी को मिलने वाली अभूतपूर्व सफलता का पहला चरण है? क्या यह आम आदमी पार्टी की जीत से विकल्प की राजनीति का उभार है या फिर क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर चले जाने के संकेत हैं? अगर इस मुद्दे का सरलीकरण कर दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि यह सभी बातें सही हैं। लेकिन, राजनीति इतनी सरल नहीं है, इसलिए इसके अर्थ भी इतने सरल नहीं हो सकते! तमाम राजनीतिक दल और राजनीतिक विश्लेषक विभिन्न चुनावी परिस्थितियों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। सभी इसे अपनी अपनी ढपली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली राज्यों में भाजपा ने लभगग 66 फीसदी सीटें जीती हैं। लोकसभा में इन राज्यों से 72 सांसद आते हैं। विधानसभा का ट्रेंड भी बरकार रहा, तो इसमें से भाजपा 50 के ऊपर सीटें जीत सकती है। फिलहाल यहां से कांग्रेस के 40 सांसद हैं। अभियान में अपनी आक्रामक शैली की वजह से कई बार नरेंद्र मोदी भी विवाद का विषय भले बने हो। लेकिन, राहुल गांधी की ओढ़ी हुई आक्रामक शैली कुछ ज्यादा ही चर्चा का विषय रही। राहुल गांधी पूरे प्रचार अभियान में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और आतंकवाद पर जो तर्क देकर संप्रग सरकार की नाकामियों पर पर्दा डाला, वो जनता भी नहीं पचा पाई। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में उन्हें विकास के काम और जनप्रिय चेहरे उन्हें नजर नहीं आ रहे थे। इन नतीजों के बाद कांग्रेस को यह समझ लेना चाहिए कि प्रमुख मुद्दों पर उसका शतुरमुर्गी रवैया देश का युवा मतदाता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। इससे पहले जब भी मतदान का प्रतिशत बढ़ता रहा है, ये विश्लेषण किया जाता रहा है कि यह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नाराजगी के संकेत हैं। लेकिन, इस बार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अधिक मतदान के बाद भी सरकारों की वापसी ने इस सिद्धांत को गलत साबित कर दिया! यह कहा जा सकता है कि इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने अपनी छवियों और अपने कामकाज के दम पर वापसी की है। साथ ही श्रेय भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को दिया जाना चाहिए, जिसने राज्य को गुटबाजी का अड्डा नहीं बनने दिया। वहीं दूसरी तरफ राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक हर प्रदेश में कांग्रेस की हार इस बात का गवाह है कि राहुल गाँधी की सीधी निगरानी भी इन प्रदेशों में गुटबाजी को नहीं रोक सकी! तो क्या यह माना जाए कि विधानसभा चुनावों का परिणाम अपने पक्ष में करने में राहुल पूरी तरह नाकामयाब रहे? एक हद तक सही भी है कि कहीं न कहीं राहुल गाँधी की रणनीति ही विफल हुई है! क्योंकि, इस बार टिकट वितरण से लेकर प्रभारी चुने जाने तक सारा फैसला उन्होंने ही लिया था। यहां तक कि संबंधित राज्यों के वरिष्ठ और अनुभवी राजनेताओं को उन्होंने हाशिये पर डालकर जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया, वे जीत नहीं पाए! ऐसे में उनकी असफलता का अंजाम यह हो सकता है कि यदि भूले भटके लोकसभा चुनाव में भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया, तो पता नहीं क्या होगा ? राहुल गांधी की सबसे पहली जिम्मेदारी स्थानीय स्तर से लेकर राज्य स्तर पर पार्टी की गुटबाजी को रोकना था। कहने को मध्य प्रदेश में केन्द्रीय नेता मंच पर तो साथ-साथ नजर आए, लेकिन मंच से उतरते ही वे प्याज के छिलकों की तरह एक दूसरे की परत उतारते रहे! अफसोस इस बात का रहा कि राहुल अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकामयाब रहे, और नतीजा सामने है। वैसे भी सिर्फ प्रभारी बनाने और टिकट बांटने से चुनाव नहीं जीते जा सकते! यह बात इस चुनाव में बकायदा साबित भी हो गई। मध्य प्रदेश में दिग्विजिय सिंह का बड़बोलापन भारी रहा। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो बोलचाल में संयत रहे, लेकिन उनका दूसरे बड़े नेताओं पूरे मन से साथ नहीं दिया! यह खामी मंच पर भी नजर आई, जब हर मंच पर दिग्विजय सिंह पीछे की कुर्सी पर बैठते थे, फिर उनसे सिंधिया इसरार करते तो वे उठते, और राहुल के कहने पर कक्षा के छात्र की तरह उनकी आज्ञा मानकर कुर्सी छोड़कर आगे आ जाते थे। ये भी कहना एक हद तक सही हो सकता है कि राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जा सकते हैं। लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूपीए-2 सरकार की छवि और उसके खिलाफ पिछले कुछ महीनों से बन रहा माहौल भी कांग्रेस के खिलाफ गया। आने वाले दिनों में राहुल गाँधी को प्रदेशों में नेतृत्व तैयार करने में मेहनत करनी होगी। अगर लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की दशा ठीक रखनी है तो केंद्र सरकार को भी अपनी छवि को सुधारना होगा! क्योंकि, इसके बिना नरेंद्र मोदी से मुकाबला करना आसान नहीं होगा। चुनावी परिणाम की शाम सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने बकायदा माना कि जनता हमसे नाराज थी। राहुल ने तो कांग्रेस के रूपांतरण तक की बात तक कही! हो सकता है कि राहुल पार्टी का चेहरा बदलने के लिए बेकरार हों, लेकिन पुराने और घाघ कांग्रेसी उन्हें असफल करने में कसर नहीं छोड़ेंगे! भाजपा भले ही माने की चारों राज्यों में उसके लिए मोदी फेक्टर काम कर गया! लेकिन, पूरी तरह से यह मान लेना गलत होगा कि इन राज्यों में हुई जीत नरेंद्र मोदी की जीत है। यह याद रखना होगा कि इन चारों राज्यों में जीत का आकलन तब से लगाया जा रहा था, जब नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनाव जीतकर केंद्र में नहीं आए थे। तब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी नहीं बनाए गए थे! राजस्थान में गेहलोत की निष्क्रियता चरम पर थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा ने जो विकास के काम किए वे सड़कों पर दिखाई दे रहे थे। यदि यह सही होता कि भाजपा के इस प्रदर्शन का एकमात्र कारण मोदी ही है, तो यह भी गलत साबित हो जाता है। क्योंकि, दिल्ली में मोदी ने एक के बाद एक रैलियों की झडी लगा दी थी। आखिर क्यों भाजपा स्पष्ट बहुमत के नजदीक आकर रूक गई। क्यों एकदम नई 'आम आदमी पार्टी' ने उनके अश्वमेघ को रोक लिया! बस्तर में भाजपा की करारी हार भी ऐसा ही कुछ कहती है। छत्तीसगढ़ में चुनावी परिणाम के अंत तक यही खुटका लगा रहा कि कहीं, कांग्रेस उसे पीछे न छोड़ दे। इस बात को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता कि मोदी का कोई असर ही नहीं पडा। यह सही है कि नरेंद्र मोदी को लेकर एक सकारात्मक माहौल बना हुआ है, लेकिन ये भ्रम भी नहीं पाला जाना चाहिए कि यह जीत उनका ही करिश्मा है। उन्हें अभी अपना करिश्मा दिखाना बचा है। जिसमें उन्हें देश के उस आधे हिस्से में सहयोगी तलाश करना है, जहां भाजपा का कोई नामलेवा नहीं है। उन्हें एनडीए तो पुनर्जीवित करने के लिए क्षेत्रीय दलों की जरूरत होगी। इस बात से तसल्ली की जा सकती है कि चारों राज्यों में क्षेत्रीय दल ज्यादा प्रभावी प्रदर्शन नहीं कर पाए! इन राज्यों के चुनावों में भले ही दिखता हो कि अकाली दल, बसपा और सपा जैसी पार्टियां अपने छोटा-मोटा जनाधार खो चुकी हैं, लेकिन यह राष्ट्रीय दलों के लिए घातक आकलन होगा कि वे उन्हें हाशिए पर पड़ा मान लें! क्योंकि, जिस तरह से तीसरे विकल्प के रूप में आम आदमी की पार्टी ने भाजपा की राह में रोड़े अटकाए हैं, वही काम यह क्षेत्रीय दल भी कर सकते हैं। इसलिए यदि इन्हें अनदेखा किया गया तो भाजपा 2014 में सत्ता पाने का सपना पूरा नहीं कर पाएगी। जिस तरह से दिल्ली में 'आप' का प्रभाव पड़ा है, वह इसे लोकसभा का लिटमस टेस्ट मानकर 2014 में पूरे देश में अपने प्रत्याशियों को खड़ा करने की योजना बना रहे हैं । यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही पसीने आ जाएंगे। ऐसे में तीसरे विकल्प को हाशिये पर मानना, न मोदी के हित में होगा न राहुल के! 'आप' ने एक संदेश साफ दे दिया है कि या तो सुधर जाओ या फिर घर जाओ। भाजपा को जो जनाधार मिला है, उस पर उसे आत्ममुग्ध होने के बजाए अपनी खामियों को दूरकर अपने आपको सुधारना होगा। उसे यह भी याद रखना होगा कि चाहे मध्य प्रदेश हो या राजस्थान या फिर छत्तीसगढ़, कहीं भी मंदिर की राजनीति की बात नहीं उठी। अधिकांश परिणाम विकास की स्थिति और भ्रष्टाचार से तंग मतदाताओं के गुस्से का नतीजा है। यदि अब इन चारों राज्यों में भाजपा ने अपनी छबि को मांजने का प्रयास नहीं किया, तो उसके लिए तो दिल्ली दूर ही होगी! यदि कांग्रेस ने भी अपनी चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला तो उसे दिल्ली के बडे जंग में मैदान में शिकस्त खाना पड़ सकती है।

Wednesday, January 1, 2014

… इसलिए भी याद रहेगा बीता बरस (2013)

- हेमंत पाल ---------------------------------------------------------------------- हर साल कि तरह इस साल भी बॉलीवुड ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। कुछ पुराने सितारे दुनिया से बिदा हुए तो किसी के रिश्ते बने और टूटे! कुछ कम बजट की फिल्मों ने सफलता का शिखर लांघा तो कुछ ऐसी भी फ़िल्में रहे, जो करोड़ों के बजट से बने जरुर पर दर्शकों को पसंद नहीं आई! चंद ऐसी घटनाएं भी घटी, जिसने परदे की दुनिया का बड़ा झटका दिया। फ़िल्मी दुनिया की कुछ ऐसी ही घटनाओं पर सरसरी नजर : सरपट दौड़ी 'चैन्नई एक्सप्रेस' इस साल रिलीज हुई शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म 'चैन्नई एक्सप्रेस' ने कमाई के अब तक के सभी रेकॉर्ड्स तोड़ते हुए 395 करोड़ की कमाई की! वहीं 20 दिसंबर को रिलीज हुई आमिर खान, कैटरीना कैफ की फिल्म 'धूम 3' भी इसी तरह दौड़ती नजर आई। 'धूम 3' ने अपने पहले हफ्ते में कुल 107.61 करोड़ की कमाई की। फिल्म के पहले दिन की कमाई ने भी बॉलिवुड में अब तक की सभी फिल्मों के रेकॉर्ड तोड़े। 'धूम 3' ने अपनी रिलीज के पहले दिन 36.22 करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। अब तक रिलीज हुई कोई भी हिंदी फिल्म एक दिन में इतनी कमाई नहीं कर सकी। शाहरुख का तीसरा बच्चा इस साल शाहरुख और गौरी खान के तीसरे बच्चे का जन्म सरोगेसी से हुआ! मुंबई महानगर पालिका ने इस बच्चे के जन्म की पुष्टि की। गौरी और शाहरुख के इस तीसरे बच्चे का जन्म 27 मई, 2013 को अंधेरी के मसरानी हॉस्पिटल में हुआ! इस अभिनेता के तीसरे बच्चे के सेरोगेसी के जरिए जन्म लेने की खबरों ने इस साल खासी चर्चा बटोरी! गौरी और शाहरुख पर इसके लिंग परीक्षण कराने के आरोप भी लगे! कुल मिलकर ये मामला खासा चर्चित रहा। संजय दत्त को जेल मुंबई में हुए सीरियल बम विस्फोटों के दौरान गैरकानूनी हथियार रखने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाई संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई। संजय पहले ही 18 महीने जेल में गुजार चुके हैं, इसलिए अब वह अपनी 42 महीनों की बची सजा पुणे के येरवडा जेल में गुजार रहे हैं। उन्हें दो बार मिली पैरोल को लेकर भी मीडिया में खासा बवाल हुआ। जिया खान की मौत अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म 'नि:शब्द' से बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री जिया खान की 3 जून को रहस्यमय तरीके से मौत हुई। उनकी मौत से अमिताभ बच्चन समेत पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को झटका लगा! जिया की मौत आज भी रहस्य से बाहर नहीं आ सकी है। पहले जहां इसे ख़ुदकुशी माना जा रहा था, वहीं उनकी माँ द्वारा संदेह व्यक्त किये जाने पर इस मामले की फिर से जांच हो रही है। पुलिस ने जिया के 6 पेज के सुसाइड लेटर को आधार बनाकर आदित्य पंचोली के बेटे और जिया के बॉयफ्रेंड रहे सूरज पंचोली को गिरफ्तार किया था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने उस लेटर को सुसाइड नोट मानने से इनकार कर दिया, और सूरज को जमानत पर छोड़ने का आदेश दे दिया था। इस मामले में सूरज 21 दिन तक जेल में बंद रहे। अभी भी ये मामला अदालत में है। रितिक-सुजैन की जोड़ी टूटी रितिक रोशन और सुजैन की जोड़ी शादी के 13 साल बाद टूट गई। हालांकि, अपने अलगाव का कारण दोनों ने ही साफ नहीं किया है। 4 सालों के अफेयर के बाद 13 साल की शादीशुदा जिंदगी का साथ भी इस जोड़ी को टूटने से रोक नहीं सका। मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक दोनों का ही एक-दूसरे पर से भरोसा उठ गया था। सबसे चर्चित रोमांस रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ का रोमांस इस साल फ़िल्म इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा चर्चित रहा! इन दोनों की पैरंट्स के साथ लंदन में निकाली एक तस्वीर लीक हुई। इसके बाद स्पेन के एक बीच की निजी पलों की तस्वीर के लीक होने से इनके चाहने वालों के साथ पूरे बॉलीवुड में ही हंगामा हो गया! कैट ने इससे नाराज होकर मीडिया को लेटर तक लिख डाला। बाद में कैटरीना अपने बर्थडे पर रणबीर के साथ जश्न मनाती पाई गईं! रणबीर-कैट अपने संबंधों को छुपाते रहे, लेकिन करण जौहर के टीवी शो 'कॉफी विद करण' में रणबीर की कजिन करीना कपूर ने सबके सामने इनके रिश्तों की पोल खोल दी! करीना ने न सिर्फ रणबीर की शादी में कैटरीना के गानों पर नाचने की बात कही, बल्कि कैटरीना को 'भाभी' कहकर भी संबोधित किया। दो चर्चित पैच-अप बीता साल दो पैच-अप के लिए भी याद किया जाएगा! ईद के खास मौके पर कांग्रेस विधायक बाबा सिद्दीकी द्वारा दी गई इफ्तार पार्टी में सलमान खान और शाहरुख खान गले मिले! बॉलीवुड के अब तक के इस अहम् पैच-अप के साथ सालों से चली आ रही इन दोनों सुपरस्टार्स की आपसी रंजिश कुछ हद तक ख़त्म हुई! इन दोनों ने राकेश रोशन की फ़िल्म 'करण-अर्जुन' में काम किया था, उसके बाद दोनों कभी साथ नजर नहीं आए! सलमान-शाहरुख़ के अलावा दूसरा पैच-अप रहा सलीम खान और जावेद अख्तर का! बॉलीवुड को शोले, दीवार, डॉन और त्रिशूल जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाली इस राइटर जोड़ी के बीच 26 साल लम्बा अबोला इस साल टूटा! ये दोनों अपनी सुपरहिट फ़िल्म 'जंजीर' के रीमेक बनने से खफा थे। इसी मुद्दे पर इनके आपसी मतभेद सुलझे और ये साथ आकर खड़े हुए। इन दोनों के बीच 'मिस्टर इंडिया' बनने के दौरान मतभेद हुए थे। जावेद चाहते थे कि अमिताभ बच्चन इस फिल्म में लीड रोल करें, लेकिन उन्होंने काम करने से मना कर दिया था। ऐसे में खफा जावेद ने सलीम से कहा कि वह अमिताभ के साथ दोबारा काम नहीं करेंगे! लेकिन, दूसरों से उन्होंने कहा कि सलीम अमिताभ के साथ काम नहीं करना चाहते। इन्हीं बातों को लेकर दोनों के बीच मतभेद हो गए थे। अब ये बर्फ पिघल गई है। अलविदा हो गए दो सितारे मशहूर गायक रहे मन्ना डे का 94 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने 24 अक्टूबर, 2013 तड़के करीब 3 बजकर 50 मिनट पर अंतिम सांस ली। अपने गानों से बरसों तक फ़िल्म संगीत प्रेमियों के दिलों में बसने वाले मन्ना डे का निधन एक युग के अंत हो जाने जैसा था। बीते साल ने हरदिल अजीज खलनायक प्राण को भी हमसे चीन लिया। 93 साल की उम्र में बॉलीवुड के पहले 'सुपरस्टार विलन' प्राण ने 12 जुलाई, 2013 की रात 8.30 बजे मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली। प्राण लंबे समय से बीमार चल रह थे। कुछ समय पहले प्राण को 'दादासाहेब फाल्के पुरस्कार' से उनके घर में ही सम्मानित किया गया था। --------------------------------------------------------------

सिलसिला सिनेमाई सिक्वेल का (2013)

- हेमंत पाल साल के बीतने पर उसका हर मोर्चे पर मूल्यांकन किया जाता रहा है। ये परंपरा कहें, या हमारी पीछे मुड़कर देखने कि आदत, कोई फर्क नहीं है। गुजरे साल 2013 को यदि फिल्मों के मोर्चे पर परखा जाए तो ये साल कुछ ख़ास कारणों के लिए याद किया जाएगा! ऐसा ही एक कारण है, फिल्मों के सीक्वल का! इस साल कई फिल्मों के सीक्वल बने और रिलीस हुए! ऐसा नहीं है कि सिक्वल हमेशा सफलता का सौदा ही साबित हुए हैं। इस साल जहां 'कृष' के सिक्वल ने धूम मचाई, वहीं 'यमला पगला दीवाना-2, वंस अपान ए टाइम मुंबई दोबारा, और जंजीर के सिक्वल बॉक्स ऑफिस पर औंधे मूंह गिरे! पूरे साल सिक्वेंस के बाद साल का अंत भी 'धूम' के सिक्वल 'धूम-3' से हुआ, जिसने कमाई के नए रिकॉर्ड बनाए! जिसका एक गाना ही पांच करोड रूपए में फिल्माया गया है। 'कृष-3' और 'धूम-3' की बॉक्स ऑफिस सफलता ने सिनेमाई सिक्वल के सिलसिले को सरपट दौड़ने का बहाना भी दे दिया है। बॉलीवुड में भेडचाल की परम्परा हमेशा से रही है। 'दबंग' के बाद 'दबंग-2' 'अग्निपथ' के बाद 'अग्निपथ-2' और 'कृष-3' की जबरदस्त सफलता के बाद अब बॉलीवुड पर सिक्वल फिल्मों को भूत चढा हुआ है। इस साल शुरुआत से लेकर अब तक बॉक्स ऑफिस पर कमाई में अधिकतर यही फिल्में आगे रही हैं और यह दौर आगे भी कम होने वाला नहीं। कमाल 'कृष' और 'धूम' का बिजनेस के मामले में इस साल 'कृष-3' और 'धूम-3' ने इस साल प्रदर्शित सभी हिंदी फिल्मों के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया! यह हॉलीवुड की कुछ समय पहले ही रिलीज हुई 'सुपरमैन' फिल्म से भी ज्यादा कमाई करने वाली साबित हुई है। साल 2013 सीक्वल फिल्मों के नाम ही रहा है। पूरे साल सिक्वल 2013 में इनकी शुरुआत जनवरी से हुई। 2008 में रेस’ फिल्म का सीक्वल रेस-2’ आया। सैफअली खान, दीपिका पादुकोण और जैकलीन फर्नांडीस अभिनीत यह फिल्म एक्शन थ्रिलर फिल्म थी। अपनी लागत से दुगनी कमाई करने वाली साल की यह पहली फिल्म बनी। रेस-2’ को दर्शकों ने सराहा और कमाई के मामले में भी यह हिट रही। जनवरी के बाद फरवरी में मर्डर-3’ ने दस्तक दी। अपने बोल्ड सीन की वजह से बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने दमदार एंट्री दर्ज कराई। 7 करोड़ की लागत से बनी मर्डर-3’ ने 18.31 करोड़ का बिजनेस किया। मार्च में 'साहिब बीबी और गैंगस्टर रिटर्न’ ने बॉक्स ऑफिस पर दस्तक दी। 7 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने फिल्मी पंडितों के गणित को गड़बड़ा दिया। यह साल की तीसरी हिट फिल्म बनी और 21.95 करोड़ की कमाई की। अप्रैल में आशिकी-2’ ने दर्शकों को खूब लुभाया। फिल्म के गीतों से लेकर स्टोरी तक को खूब वाहवाही और अप्रत्याशित सफलता मिली। बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट फिल्म का तमगा पाकर 'आशिकी-2' ने लागत के मुकाबले 78.42 करोड़ की कमाई की। जून में 'यमला पगला दीवाना-2’ आई, लेकिन दर्शकों ने इस फिल्म को ज्यादा नहीं सराहा। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर गई। अगस्त 2013 में आई वंस ऑपन टाइम इन मुंबई दोबारा’ भी ज्यादा सफल नहीं रही। सितंबर में अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फ़िल्म 'जंजीर’ का रीमेक आया, लेकिन फिल्म सुपरफ्लाप रही। नवंबर में 'कृष-3’ ने इस सूखे को खत्म किया और उसकी सफलता का ग्राफ बढ़ता गया। इसी माह यानी नवंबर में ही 'सत्या’ की सीक्वल 'सत्या-2’ भी रिलीज हुई। हालांकि, दर्शकों को खींचने में वह असफल ही रही है। दिसंबर में 'धूम' सीरीज की फ़िल्म 'धूम-3’ आई, जिसने कमाई का नया रिकॉर्ड बना डाला। एक सप्ताह में 200 करोड़ का बिज़नेस करने वाली इस फ़िल्म ने सीक्वल बनाने की चाह रखने वाले फिल्मकारों को ऑक्सीजन दे दी! सीक्वल फिल्मों का सिलसिला इस साल के अंत में ही ख़त्म नहीं हुआ है। नए साल की शुरुआत यानी 2014 में भी ऐसी फिल्मों की लिस्ट तैयार है। 'इश्किया’ का सीक्वल 'डेढ़ इश्किया, रागीनी-एमएमएस 2’, सिंघम-2, हेट स्टोरी-2’ जैसे सीक्वल्स दर्शकों के सामने होंगे। ----------------------