Monday, January 13, 2014
इन विधानसभा चुनाव नतीजों का हश्र?
- हेमंत पाल
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पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में से चार राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस के नेतृत्व की जड़ों को हिलाकर रख दिया। नरेंद्र मोदी के राजनीतिक मंत्र और भाजपा के सभी राज्यों के क्षत्रपों के सामने पूरी कांग्रेस पार्टी धराशाई नजर आई। बाकी बची कसर दिल्ली में 'आप' ने पूरी कर दी! उत्तर भारत के चार राज्यों में मतदान के बाद जो संकेत मिले थे, उसके बाद ही कांग्रेस नेतृत्व ने हार की पेशबंदी शुरू कर दी थी। लेकिन, उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि चुनाव परिणाम उनके लिए इतने नकारात्मक और निराशाजनक होंगे। कांग्रेस का पूरा मैनेजमेंट ये पता लगाने में असफल है कि मध्यप्रदेश में पार्टी की बुरी हार का कारण क्या है? सकारात्मक संकेतों की गर्त में इतने ख़राब नतीजे छुपे थे, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पाया! सिर्फ राजस्थान ही ऐसा राज्य है, जहाँ कांग्रेस को अपनी हार का अंदेशा पहले से था।
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मध्य प्रदेश सहित चार राज्यों के चुनावी परिणाम तमाम राजनीतिक दलों को सोचने-विचारने का ढेर सारा मसाला दे गए हैं। कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि उसकी इतनी करारी हार क्यों हो गई! भाजपा भी असमंजस में है कि उसे इतना बहुमत कैसे मिल गया? दिल्ली और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो खुद भाजपा ने भी नहीं सोचा था कि उसे इस कदर सफलता मिलेगी! ले देकर दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' ही यह कयास लगा रही थी कि वह कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही झाडू लगा देगी! लेकिन, यहां भी उसके सपने पूरे नहीं हुए! उसने कांग्रेस पर तो झाडू मार दी, लेकिन भाजपा को वह अपनी झाडू में समेट नहीं पाई। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि इन चुनावी नतीजों के परिणाम क्या होंगे?
पहली बात तो यह है कि इन परिणामों का सही कारण क्या है, कोई सही तरह से आकलित नहीं कर पा रहा है। क्या इसका कारण राहुल गाँधी का पूरी तरह विफल हो जाना है या फिर यह नरेंद्र मोदी को मिलने वाली अभूतपूर्व सफलता का पहला चरण है? क्या यह आम आदमी पार्टी की जीत से विकल्प की राजनीति का उभार है या फिर क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर चले जाने के संकेत हैं? अगर इस मुद्दे का सरलीकरण कर दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि यह सभी बातें सही हैं। लेकिन, राजनीति इतनी सरल नहीं है, इसलिए इसके अर्थ भी इतने सरल नहीं हो सकते! तमाम राजनीतिक दल और राजनीतिक विश्लेषक विभिन्न चुनावी परिस्थितियों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। सभी इसे अपनी अपनी ढपली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे है।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली राज्यों में भाजपा ने लभगग 66 फीसदी सीटें जीती हैं। लोकसभा में इन राज्यों से 72 सांसद आते हैं। विधानसभा का ट्रेंड भी बरकार रहा, तो इसमें से भाजपा 50 के ऊपर सीटें जीत सकती है। फिलहाल यहां से कांग्रेस के 40 सांसद हैं। अभियान में अपनी आक्रामक शैली की वजह से कई बार नरेंद्र मोदी भी विवाद का विषय भले बने हो। लेकिन, राहुल गांधी की ओढ़ी हुई आक्रामक शैली कुछ ज्यादा ही चर्चा का विषय रही। राहुल गांधी पूरे प्रचार अभियान में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और आतंकवाद पर जो तर्क देकर संप्रग सरकार की नाकामियों पर पर्दा डाला, वो जनता भी नहीं पचा पाई। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में उन्हें विकास के काम और जनप्रिय चेहरे उन्हें नजर नहीं आ रहे थे। इन नतीजों के बाद कांग्रेस को यह समझ लेना चाहिए कि प्रमुख मुद्दों पर उसका शतुरमुर्गी रवैया देश का युवा मतदाता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है।
इससे पहले जब भी मतदान का प्रतिशत बढ़ता रहा है, ये विश्लेषण किया जाता रहा है कि यह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ नाराजगी के संकेत हैं। लेकिन, इस बार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अधिक मतदान के बाद भी सरकारों की वापसी ने इस सिद्धांत को गलत साबित कर दिया! यह कहा जा सकता है कि इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने अपनी छवियों और अपने कामकाज के दम पर वापसी की है। साथ ही श्रेय भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को दिया जाना चाहिए, जिसने राज्य को गुटबाजी का अड्डा नहीं बनने दिया।
वहीं दूसरी तरफ राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक हर प्रदेश में कांग्रेस की हार इस बात का गवाह है कि राहुल गाँधी की सीधी निगरानी भी इन प्रदेशों में गुटबाजी को नहीं रोक सकी! तो क्या यह माना जाए कि विधानसभा चुनावों का परिणाम अपने पक्ष में करने में राहुल पूरी तरह नाकामयाब रहे? एक हद तक सही भी है कि कहीं न कहीं राहुल गाँधी की रणनीति ही विफल हुई है! क्योंकि, इस बार टिकट वितरण से लेकर प्रभारी चुने जाने तक सारा फैसला उन्होंने ही लिया था। यहां तक कि संबंधित राज्यों के वरिष्ठ और अनुभवी राजनेताओं को उन्होंने हाशिये पर डालकर जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया, वे जीत नहीं पाए! ऐसे में उनकी असफलता का अंजाम यह हो सकता है कि यदि भूले भटके लोकसभा चुनाव में भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया, तो पता नहीं क्या होगा ?
राहुल गांधी की सबसे पहली जिम्मेदारी स्थानीय स्तर से लेकर राज्य स्तर पर पार्टी की गुटबाजी को रोकना था। कहने को मध्य प्रदेश में केन्द्रीय नेता मंच पर तो साथ-साथ नजर आए, लेकिन मंच से उतरते ही वे प्याज के छिलकों की तरह एक दूसरे की परत उतारते रहे! अफसोस इस बात का रहा कि राहुल अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकामयाब रहे, और नतीजा सामने है। वैसे भी सिर्फ प्रभारी बनाने और टिकट बांटने से चुनाव नहीं जीते जा सकते! यह बात इस चुनाव में बकायदा साबित भी हो गई। मध्य प्रदेश में दिग्विजिय सिंह का बड़बोलापन भारी रहा। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो बोलचाल में संयत रहे, लेकिन उनका दूसरे बड़े नेताओं पूरे मन से साथ नहीं दिया! यह खामी मंच पर भी नजर आई, जब हर मंच पर दिग्विजय सिंह पीछे की कुर्सी पर बैठते थे, फिर उनसे सिंधिया इसरार करते तो वे उठते, और राहुल के कहने पर कक्षा के छात्र की तरह उनकी आज्ञा मानकर कुर्सी छोड़कर आगे आ जाते थे।
ये भी कहना एक हद तक सही हो सकता है कि राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जा सकते हैं। लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूपीए-2 सरकार की छवि और उसके खिलाफ पिछले कुछ महीनों से बन रहा माहौल भी कांग्रेस के खिलाफ गया। आने वाले दिनों में राहुल गाँधी को प्रदेशों में नेतृत्व तैयार करने में मेहनत करनी होगी। अगर लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की दशा ठीक रखनी है तो केंद्र सरकार को भी अपनी छवि को सुधारना होगा! क्योंकि, इसके बिना नरेंद्र मोदी से मुकाबला करना आसान नहीं होगा। चुनावी परिणाम की शाम सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने बकायदा माना कि जनता हमसे नाराज थी। राहुल ने तो कांग्रेस के रूपांतरण तक की बात तक कही! हो सकता है कि राहुल पार्टी का चेहरा बदलने के लिए बेकरार हों, लेकिन पुराने और घाघ कांग्रेसी उन्हें असफल करने में कसर नहीं छोड़ेंगे!
भाजपा भले ही माने की चारों राज्यों में उसके लिए मोदी फेक्टर काम कर गया! लेकिन, पूरी तरह से यह मान लेना गलत होगा कि इन राज्यों में हुई जीत नरेंद्र मोदी की जीत है। यह याद रखना होगा कि इन चारों राज्यों में जीत का आकलन तब से लगाया जा रहा था, जब नरेंद्र मोदी गुजरात का चुनाव जीतकर केंद्र में नहीं आए थे। तब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी नहीं बनाए गए थे! राजस्थान में गेहलोत की निष्क्रियता चरम पर थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा ने जो विकास के काम किए वे सड़कों पर दिखाई दे रहे थे। यदि यह सही होता कि भाजपा के इस प्रदर्शन का एकमात्र कारण मोदी ही है, तो यह भी गलत साबित हो जाता है। क्योंकि, दिल्ली में मोदी ने एक के बाद एक रैलियों की झडी लगा दी थी। आखिर क्यों भाजपा स्पष्ट बहुमत के नजदीक आकर रूक गई। क्यों एकदम नई 'आम आदमी पार्टी' ने उनके अश्वमेघ को रोक लिया! बस्तर में भाजपा की करारी हार भी ऐसा ही कुछ कहती है। छत्तीसगढ़ में चुनावी परिणाम के अंत तक यही खुटका लगा रहा कि कहीं, कांग्रेस उसे पीछे न छोड़ दे।
इस बात को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता कि मोदी का कोई असर ही नहीं पडा। यह सही है कि नरेंद्र मोदी को लेकर एक सकारात्मक माहौल बना हुआ है, लेकिन ये भ्रम भी नहीं पाला जाना चाहिए कि यह जीत उनका ही करिश्मा है। उन्हें अभी अपना करिश्मा दिखाना बचा है। जिसमें उन्हें देश के उस आधे हिस्से में सहयोगी तलाश करना है, जहां भाजपा का कोई नामलेवा नहीं है। उन्हें एनडीए तो पुनर्जीवित करने के लिए क्षेत्रीय दलों की जरूरत होगी।
इस बात से तसल्ली की जा सकती है कि चारों राज्यों में क्षेत्रीय दल ज्यादा प्रभावी प्रदर्शन नहीं कर पाए! इन राज्यों के चुनावों में भले ही दिखता हो कि अकाली दल, बसपा और सपा जैसी पार्टियां अपने छोटा-मोटा जनाधार खो चुकी हैं, लेकिन यह राष्ट्रीय दलों के लिए घातक आकलन होगा कि वे उन्हें हाशिए पर पड़ा मान लें! क्योंकि, जिस तरह से तीसरे विकल्प के रूप में आम आदमी की पार्टी ने भाजपा की राह में रोड़े अटकाए हैं, वही काम यह क्षेत्रीय दल भी कर सकते हैं। इसलिए यदि इन्हें अनदेखा किया गया तो भाजपा 2014 में सत्ता पाने का सपना पूरा नहीं कर पाएगी।
जिस तरह से दिल्ली में 'आप' का प्रभाव पड़ा है, वह इसे लोकसभा का लिटमस टेस्ट मानकर 2014 में पूरे देश में अपने प्रत्याशियों को खड़ा करने की योजना बना रहे हैं । यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही पसीने आ जाएंगे। ऐसे में तीसरे विकल्प को हाशिये पर मानना, न मोदी के हित में होगा न राहुल के! 'आप' ने एक संदेश साफ दे दिया है कि या तो सुधर जाओ या फिर घर जाओ।
भाजपा को जो जनाधार मिला है, उस पर उसे आत्ममुग्ध होने के बजाए अपनी खामियों को दूरकर अपने आपको सुधारना होगा। उसे यह भी याद रखना होगा कि चाहे मध्य प्रदेश हो या राजस्थान या फिर छत्तीसगढ़, कहीं भी मंदिर की राजनीति की बात नहीं उठी। अधिकांश परिणाम विकास की स्थिति और भ्रष्टाचार से तंग मतदाताओं के गुस्से का नतीजा है। यदि अब इन चारों राज्यों में भाजपा ने अपनी छबि को मांजने का प्रयास नहीं किया, तो उसके लिए तो दिल्ली दूर ही होगी! यदि कांग्रेस ने भी अपनी चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला तो उसे दिल्ली के बडे जंग में मैदान में शिकस्त खाना पड़ सकती है।
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