Sunday, June 8, 2014

नरेंद्र मोदी : देश की उम्मीदों का शिखर

नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी सुकून भरी नहीं है। यहाँ उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जो उम्मीदें उनसे लोगों ने लगा रखी है। मोदी पर पार्टी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने का भी बड़ा दबाव होगा! वे अटलबिहारी वाजपेयी या कांग्रेस की तरह गठबंधन सरकारों की तरह मजबूरी का बहाना नहीं बना सकेंगे! इस बार भाजपा के चुनाव प्रचार का ध्येय वाक्य था 'अच्छे दिन आने वाले हैं।' इस एक वाक्य में ढेरों उम्मीदें भरी है। मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इन्हीं उम्मीदों भरे सपनों को साकार करने की है। शायद किसी भी चुनाव के बाद किसी ने देश में बदलाव के इतने सपने नहीं देखे होंगे, जितने इस बार देखे गए! यदि ये सपने टूटते हैं तो भविष्य में भाजपा का कोई नाम लेवा नहीं होगा! नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से दबंग किस्म की राजनीति दिखाई है, उसमें जरा भी गड़बड़ हुई लोग पूछेंगे कि उन अच्छे दिनों का क्या हुआ? मोदी को सबसे ज्यादा आर्थिक मोर्चे पर सफल प्रदर्शन करके दिखाना होगा। इसलिए कि आर्थिक मोर्चे की सफलता से ही सारी सफलताओं तार जुड़े है!
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 - हेमंत पाल 
   देश के 16वें लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत अप्रत्याशित भी है और अभूतपूर्व भी! भाजपा ने अपना पूरा चुनावी कैंपेन विकास के नारे पर केंद्रित रखा और इसका सबूत दिया 'गुजरात का विकास मॉडल।' यही कारण था कि पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में भी विकास की ज़्यादा दावेदारी की। गुजरात में अपने कार्यकाल के दौरान लिए गए सकारात्मक फैसलों और चुनाव प्रचार से उभरे नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के आधार पर कहा जा सकता है कि इस समय मोदी जो तय कर देंगे, उसे कोई नकार नहीं पाएगा। इस समय वे देश की उम्मीदों के उत्तुंग शिखर पर विराजमान हैं। 
   सही मायने में इंदिरा गाँधी के बाद वे अकेले नेता हैं, जो अपने दम पर खुद को स्थापित करके पार्टी को सत्ता में लाने में कामयाब हुए हैं। उनकी सफलता को राजीव गाँधी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि राजीव की माँ की हत्या हुई थी और उसी सद्भावना के बल पर वे सत्ता में आए थे! जबकि, नरेंद्र मोदी ने सिर्फ मेहनत के बल पर और देश के लोगों के सामने उम्मीदें जगाकर सत्ता हांसिल की है। मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से की जा सकती है! वह भी 1980 वाली इंदिरा गाँधी नहीं जो हार के बाद आई थीं! बल्कि, 1971 वाली इंदिरा गाँधी से जो लगातार जीतती रही थीं। जिन्होंने 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 का चुनाव जीता! भारी विरोध के बाद राष्ट्रपति अपनी मर्ज़ी का बनाया। कांग्रेस पार्टी को तोड़ा और अपनी रणनीति से फिर 1971 का चुनाव जीता! लेकिन, उसके बाद इंदिरा गाँधी राजनीतिक रूप से तानाशाह हो गई थीं! उस घटना को आज 4 दशक से ज्यादा वक़्त बीत चुका है। अब उस तरह की तानाशाही वाली राजनीति देश में संभव नहीं है। 
मंदी से उभरने की चुनौती
  दुनिया में आज आर्थिक हालात ऐसे नहीं है कि किसी देश की आर्थिक स्थिति में नाटकीय बदलाव लाया जा सके! मोदी ने भाजपा के घोषणापत्र में और अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि वे देश को 'मैन्यूफैक्चरिंग हब' बनाना चाहते हैं। लेकिन, मैन्यूफैक्चरिंग के लिए तकनीक और निवेश की ज़रूरत होती है! निवेश तब आता है जब निवेशक को यह लगता है कि मैं जो माल बनाऊंगा, वह बिकेगा! मैन्यूफैक्चरिंग भी दो तरह की होती है, प्रिसीज़न मैन्यूफैक्चरिंग और कंज्यूमर गुड्स मैन्यूफैक्चरिंग। प्रिसीज़न मैन्यफैक्चरिंग में यूरोप और अमरीका बहुत आगे हैं और इसके लिए बहुत उच्चस्तर की तकनीक चाहिए होती है, जिसमें भारत पीछे है। कंज्यूमर गुड्स मैन्यूफैक्चरिंग में चीन, वियतनाम, कंबोडिया और थाईलैंड जैसे देश आगे हैं। लेकिन, ऐसी मैन्यूफैक्चरिंग का माल यूरोप के बाज़ारों में खपता है, क्योंकि वो अमीर देश हैं। लेकिन इस समय वहां मंदी है। यूरोप में मंदी के कारण इस समय चीन का माल नहीं ख़रीदा जा रहा है। चीन की कंपनियां भी इस समय कम काम कर पा रही हैं। ऐसे में मोदी भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब कैसे बना पाएंगे?
महंगाई से मुकाबला 
   नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाना है। क्योंकि, 'अच्छे दिनों' का सही मतलब तो देश की जनता ने यही सोचकर लगाया है। किन्तु, सवाल यह है कि महंगाई जिस हाल में है, उसका मोदी कैसे उद्धार करेंगे? महंगाई का सबसे बड़ा कारण डीज़ल-पेट्रोल के दामों पर सरकार का कोई अंकुश न होना है। इनके दाम अन्तराष्ट्रीय बाजार के उतार-चढ़ाव से तय होते हैं। इनसे मोदी कैसे पार पाएंगे? महंगाई और विकास को साध कर रखना कुछ ऐसा है, जैसे कोई कलाबाज रस्सी पर चल रहा होता है! महंगाई अगर बढ़ती है तो ब्याज दरों पर कंट्रोल रखना पड़ता है जिससे विकास की दर धीमी हो जाती है और रोजगार घटते जाते हैं। पिछले पांच साल में देश इस जंजाल से निकल नहीं पाया है! निवृतमान वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने विकास दर 6 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था! लेकिन, मौजूदा हालत ये है कि विकास दर 5 फीसदी से नीचे बनी है। लेकिन, जनता के लिए विकास के मायने दर नहीं, बल्कि बेरोजगारों को नौकरी मिलना और वेतन बढ़ना है। मोदी सरकार को रोजगार बढ़ाने के लिए नए कदम उठाने होंगे, तभी कुछ बात बनेगी। 
आर्थिक विकास 
   बड़ा सवाल देश की आर्थिक विकास की दर का है. इस समय अर्थव्यवस्था की दर करीब 4.5 प्रतिशत है। इसे मोदी कितना बढ़ा पाएंगे, वो इसे 5 प्रतिशत या ६ प्रतिशत, आख़िर कितना कर पाएंगे! देश की सरकार ने पिछले कुछ सालों में कमाई के मुकाबले अपने खर्चे ज्यादा बढ़ाए हैं। इस बार वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.5 फीसदी तक रखने में सरकार ने कामयाबी पाई है। वित्तीय घाटा सरकार की कमाई और खर्चे के बीच का फर्क है। साल 2012-13 में ये 4.9 फीसदी था, जिसे घटाकर 4.5 तक लाया गया! इस बार इसकी वजह रही सरकारी खर्चो को कम करना और स्पैक्ट्रम की बिक्री से पैसे बनाना है। जो रोडमैप तैयार किया गया है, उसके मुताबिक साल 2014-15 में ये घाटा 4.2 फीसदी और 2015-16 में इसे 3.6 फीसदी तक लाया जाना है! यानी नई सरकार का हाथ पहले से ही तंग रहेगा और खर्चे घटाने का दवाब भी उस पर बना रहेगा! 
आयात-निर्यात घाटा
  देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है तो 'करंट एकाउंट डेफिसिट' (यानी आयात-निर्यात घाटा) कम करना होगा। अर्थव्यवस्था के साथ दिक्कत ये है कि आयात हम ज्यादा करते हैं और निर्यात कम! यानी ज्यादा डॉलर बाहर जाते हैं और आते कम हैं। नतीजा होता है रुपए और हमारी अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ता है। इसमें सुधार करके ही देश को तरक्की की तरफ बढ़ाया जा सकता है! भारत कच्चा तेल बाहर से मंगाता है, सोना मंगाता है, खाने का तेल और दाल बाहर से मंगाता है और ऐसे में किसी भी सरकार के लिए इस समस्या को सुलझाना आसान नहीं है!
अर्थव्यवस्था 
   मोदी सरकार ये नहीं कह सकती कि मुझे अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में मिली है। लेकिन, लोग इंतज़ार के मूड में नहीं लगते! जिस तरह की उम्मीदें लोगों ने लगाई है  मुताबिक वे अपनी समस्याओं से फौरन निजात चाहते हैं। मोदी के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होने जा रही है। आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने भी नई सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को अहम चुनौती माना है! मानसून के औसत से कम रहने का अनुमान मौसम विभाग पहले ही दे चुका है. अगर मानसून का मिजाज बिगड़ता है तो नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था के दरकने की होगी! 
भ्रष्टाचार से मुकाबला कैसे?
  लोगो ने चुनाव प्रचार के दौरान मोदी के 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत' नारे को सबसे ज्यादा तरजीह दी थी। देश में राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना भी है। लेकिन, भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार क्या कदम उठाएगी? सिर्फ कदम उठाना नहीं आम जनता के लिए रोजमर्रा के भ्रष्टाचार जैसे पुलिस या राशन कार्ड बनवाने को कैसे रोक पाएगी? इस पर नकेल नहीं कसी गई, तो 'अच्छे दिनों' के नारे का क्या होगा?
कालाधन पर लगाम कैसे 
  भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में काला धन बड़ा मुद्दा था। भाजपा के समर्थन में बाबा रामदेव ने भी गांव-गांव जाकर बताया कि काला धन आ गया तो हर शख्स करोड़ों का मालिक बन जाएगा! तब ये महज एक चुनावी मुद्दा था, पर अब ये काला धन बड़ा मुद्दा बन चुका है! अब विदेशी बैंकों में कितना काला धन जमा है ये कहना मुश्किल है, लेकिन मोदी-सरकार के लिए कदम उठाना बड़ी चुनौती होगी!
सामाजिक विषमता 
    देश के उद्योगपतियों के पास हजारों करोड़ की संपत्ति है। जबकि, गरीबों के पास दो वक्त का पेट भरने के लिए अनाज भी नहीं! जिस देश में गरीबी रेखा 32 और 28 रुपए के खर्च पर तय होती हो, उस देश में नई सरकार के फैसलों पर सबकी नजर होगी! मोदी के सामने चुनौती होगी कि वे कैसे उद्योगपतियों की तिजोरी में जमा होती रकम गरीब जनता तक पहुंचाएंगे! तत्काल तो मोदी ऐसा कोई चमत्कार कर नहीं पाएंगे! बड़े उद्योगपति हमेशा मोदी की तारीफ करते रहे हैं। वे जानते हैं कि मोदी के राज में गुजरात में उनका फायदा हुआ है, इन्हीं नीतियों के साथ मोदी गरीबों का भला कैसे कर पाएंगे! यदि नहीं कर पाए तो लोगों के सरकार को लेकर देखे गए सपने भी टूट जाएंगे! 
विवादित मुद्दे  
  भाजपा ने 1980 के दशक में अपने शुरुआती दिनों में चंद विवादित मुद्दे उठाए थे! ये मुद्दे हिंदुत्व के एजेंडे से सीधे जुड़े हुए थे! उस समय उनके तीन बड़े मुद्दे थे, अयोध्या में राम मंदिर बनाना, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 ख़त्म करना और देश में एक कॉमन सिविल कोड बनाना! देश में 1996 में जब पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी, पर 13 दिनों में ही गिर गई थी! उस समय प्रधानमंत्री बने थे अटलबिहारी वाजपेयी जिन्होंने कहा था कि हम इन तीनों मुद्दों को अभी किनारे पर रख रहे हैं। तब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था कि हमारी गठबंधन सरकार है, इसलिए जब भाजपा कभी अपने दम पर सत्ता में आएगी, तब हम इन मुद्दों को देखेंगे! या फिर जब सभी गठबंधन दलों की एक राय बनेगी, तब हम इसे दोबारा उठाएंगे! वाजपेयी के ही नेतृत्व में भाजपा 1998 में 13 महीनों के लिए और 1999 में लगभग साढ़े 4 साल तक सत्ता में रही, लेकिन दोनों ही बार उसकी गठबंधन सरकार थी। अब पहली बार भाजपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत से केंद्र में आई है। ऐसा बहुमत पिछले 30 साल में किसी पार्टी को नहीं मिला! सवाल है कि अब क्या भाजपा फिर इन मुद्दों को सामने लाएगी? 
कॉमन सिविल कोड
  देश के करीब 18 करोड़ मुसलमानों में कॉमन सिविल कोड को लेकर संशय बरकरार है! वहीं अनुच्छेद 370 का मामला बहुत पैचीदा है। क़रीब 25 साल से कश्मीर में सेना तैनात है। भारतीय उपमहाद्वीप में अमन न होने के पीछे एक बड़ा कारण कश्मीर का मुद्दा है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच फंसा हुआ है!
राम मंदिर का सवाल  
  तीसरा और सांसे अहम मुद्दा है अयोध्या में राम मंदिर बनाने का! यह मुद्दा राजनीतिक रूप से तो क़रीब समाप्त हो चुका है। लेकिन, संशय बरकरार कि क्या पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता में आई भाजपा में पाने मातृ संस्था 'आरएसएस'  मंदिर मुद्दे को किनारे करने का होगा?
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जमीन से उखड़ने लगी, आम आदमियों की पार्टी?

आम आदमी पार्टी (आप) के साथ दिक्कत यह है कि उसका छोटा-सा जीवनकाल उसके अराजनीतिक निर्णयों से ज़्यादा ही भर गया! नए राजनीतिक माहौल में इसे जनता कितना पसंद करेगी, ये कहना मुश्किल है। 'आप' को भी इसे लेकर अब उतना निश्चिंत नहीं रहना चाहिए, जितना वह छः महीने पहले थी। मानहानि मामले में अरविंद केजरीवाल के जमानत न लेकर जेल जाने के फैसले पर तिहाड़ के सामने जनता का उतना हुजूम उमड़ नहीं पड़ा, जितना उन्होंने सोचा था! राजनीतिक कार्रवाई का ये मौक़ा उन्हें हीरो नहीं बना सका! टेलीविज़न चैनलों की वैन्स वहाँ नहीं जमी! वे अखबारों के पहले पन्नों पर भी दिखाई नहीं दिए। दिसंबर-जनवरी के मुकाबले दिल्ली और देश का मौसम आज काफ़ी बदल चुका है! लेकिन, अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी यह भाँपने से चूक गई। 
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  - हेमंत पाल 
  राजनीति में सक्रियता भी उतनी ही जरुरी है, जितनी भविष्य की रणनीति! इसलिए कि जो दल राजनीतिक दल हलचल करता दिखाई न दे वो लोगों की नजरों से उतर जाता है। महज छह महीने पहले बनी 'आम आदमी पार्टी' उर्फ़ आप को निष्क्रिय तो जा सकता, पर उसकी सक्रियता और ऊर्जा निरर्थक राजनीतिक कामों में ज्यादा खर्च हो रही है, जिससे जनता का कोई लेना-देना नहीं! 'आप' के नेता बात-बात में आंदोलन करने पर उतर आते हैं! यहाँ तक कि आंदोलन करने की सनक में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक को गंवाने से नहीं चूकते, लेकिन जनता ये नहीं चाहती! पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का हश्र इसका सबसे अच्छा नमूना है। कांग्रेस की निष्क्रियता को भी इसी तरह से उपजी पराजय से जोड़कर देखा जा सकता है, जिसने सत्ता के गुरुर में लोगों को हाशिए पर रख दिया था। 
 देश की शांत पड़ी राजनीति के पानी में 'आप' ने पत्थर मारकर हलचल जरूर पैदा कर दी, लेकिन उस हलचल को सकारात्मक तरीके से भुना नहीं पाई। जनता को अपने फैसलों में शामिल करके उन्होंने राजनीति की एक नई परिपाटी को जन्म भी दिया! उन्होंने राजनीति को पार्टी दफ्तरों के बन्द कमरों से बाहर लाकर गली-मोहल्ले की कार्रवाई बना दिया था। नौजवान चेहरों की बहुतायत ने भी ताज़गी और नएपन का अहसास कराया! जनता के उन तबकों में इसका सबसे ज़्यादा स्वागत हुआ, जिनके लिए पिछली सरकार ने सबसे अधिक कल्याणकारी योजनाएँ बनाई थीं। अरविंद केजरीवाल की पिछली सफलता का एक कारण यह भी था कि उनका सामना करने के लिए कोई राजनीतिक संगठन नहीं था! किन्तु, अब हालात बदल चुके हैं और केंद्र में एक ज्यादा मजबूत सरकार आ गई है। 
अभी दौड़ से बाहर नहीं!
 बनारस में नरेंद्र मोदी के सामने मुस्लिम वोटर्स ने भी अरविंद केजरीवाल को हाथों हाथ लिया! संसद में भी चार सदस्यों के साथ पार्टी का पहला क़दम बुरी शुरुआत नहीं कही सकती! दिल्ली में भी वह हर सीट पर दूसरे स्थान पर रही है। इसका मतलब ये लगाया जाना चाहिए कि अभी वह राजनीतिक प्रतियोगिता से बाहर नहीं हुई है! लेकिन, क्या 'आप' में जन आकांक्षाओं को संभालने की समझ और रणनीति है? यह सवाल उससे सहानुभूति रखने वालों के दिमाग में सबसे ज्यादा कौंध रहा है! क्या वह बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य का अर्थ और गंभीरता समझ पा रही है? उसके सामने कांग्रेस की तरह हिम्मत और साख गवां चुके शासक नहीं है। आम आदमी पार्टी अब भी संभावनाशील राजनीतिक शक्ति है। उसका भविष्य उसकी कल्पनाशीलता और जीवट पर टिका हुआ है। उसके फैसलों की असामान्यता और अप्रत्याशितता ही अब तक उसे अन्य से अलग करती नजर आई है। इन्हें छोड़े बिना गंभीर राजनीतिक विकल्प का भरोसा बनने की चुनौती अब भी उसके सामने है। 
  जब तक कांग्रेस 'आप' का मुख्य निशाना थी, उसका साथ देने में उनकी दिलचस्पी थी। अब ऐसे हालात नहीं है। शायद यही कारण हैं कि जब लोकसभा चुनाव के बाद 'आप' ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से समर्थन माँगा, तो कांग्रेस मुकर गई। भ्रष्टाचार की जगह स्थिरता, अब सबकी जुबान पर है। केंद्र की नई सरकार के किसी नेता को भ्रष्ट ठहराना 'आप' के लिए अभी बहुत मुश्किल होगा। अरविंद केजरीवाल के कई बड़े सहयोगी भी उनका साथ छोड़ चुके है। कांग्रेस की अराजकता और दिशाहीनता के चलते उसे उखाड़ देना मुमकिन था! कांग्रेस सरकार की रक्षा के लिए उसका कोई जनाधार भी मौजूद नहीं था, जैसा कि भाजपा के पास अपनी सरकार की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसा प्रतिबद्ध संगठन है। इस संगठन की दिलचस्पी अपनी सरकार के पाँव जमाने में और  हमलावर मुद्रा में भी है। 
  आम आदमी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य को ठीक से समझने और उसमें अपनी भूमिका तय करने की है। पर, क्या ऐसा करने के लिए उसके पास पर्याप्त बौद्धिक क्षमता और राजनीतिक समझ है? अब ख़तरा इस बात का भी बढ़ गया है कि अरविंद केजरीवाल को हुड़दंगियों का एक गैरजिम्मेदार नेता घोषित कर दिया जाए! केजरीवाल को अब सक्रियता के साथ उसे बौद्धिक स्थिरता और दृढ़ता का सन्देश भी देना ही होगा। जहाँ तक लोकतंत्र के सम्मान की बात है तो 'आप' अभी भी राजनीतिक दलों की पुरानी संस्कृति का ही अनुकरण करती दिखाई दे रही है! उस पर एक छोटे से उद्दंड गुट का कब्ज़ा है। उसके 'बड़े' कहे जाने वाले नेता भी सड़क छाप राजनीतिक सोच से आगे नहीं बढ़ पाए! इस सबसे उसे निजात पाना होगा!
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मध्यप्रदेश कांग्रेस : कमलनाथ और सिंधिया ने बचाई लाज

- हेमंत पाल 
   कांग्रेस को मध्य प्रदेश में किसी चमत्कार की उम्मीद तो नहीं थी, पर इस बात का भरोसा जरूर था कि लोकसभा चुनाव में वे 6 से 8 सीटें जीत जाएंगे! लेकिन, जब नतीजे आए तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस को करारी हार झेलना पड़ी। पार्टी के दो ही दिग्गज कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ऐसे रहे, जो पार्टी की लाज बचाने में सफल रहे। इस बात का अंदाजा कांग्रेस को विधानसभा चुनाव के नतीजों से ही हो गया था। इसमें बावजूद पार्टी ने चुनाव के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। विधानसभा में करारी हार के बाद भी गुटबाजी और अहं कांग्रेस के नेताओं में चरम पर था।  
  उत्तर भारत के अन्य राज्यों की ही तरह मध्य प्रदेश में भी नरेंद्र मोदी और भाजपा की आँधी लहर के सामने कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत दर्ज करके अच्छा प्रदर्शन किया था। पार्टी के बड़े नेता दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया यह भरोसा जताते रहे कि इस बार के नतीजे भी बेहतर ही होंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ!  
  प्रदेश की 29 में से 27 संसदीय सीटें भाजपा के खाते में गई। सिर्फ 2 संसदीय सीटें छिंदवाड़ा और गुना कांग्रेस के खाते में गए! छिंदवाड़ा से कमलनाथ जीते, तो गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जीत दर्ज की। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, राहुल गांधी टीम की मीनाक्षी नटराजन जैसे अपनी सीट नहीं बचा पाए! छिंदवाड़ा से कमलनाथ और गुना से सिंधिया ने एक-एक लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है। इस जीत से कांग्रेस को काफी हद तक राहत भी मिली! क्योंकि, हर तरफ से आ रही हार की खबरों के बीच इन दो क्षेत्रों से जीत की खबर आई! 
 भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा चुनाव की शुरुआत से ही कह रहे थे कि गुना और छिंदवाड़ा में ही भाजपा व कांग्रेस के बीच मुकाबला है। उनकी यह बात सही निकली। नतीजे आने के बाद वे कुछ कमी रह जाने की बात स्वीकार रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भाजपा को 27 सीटों पर मिली जीत का श्रेय जनता को देते हुए कहा कि ये विश्वास की जीत है। अब राज्य के साथ पक्षपात नहीं होगा। कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार लगातार राज्य के साथ पक्षपात करती रही अब ऐसा नहीं होगा और राज्य तेजी से प्रगति करेगा। कमलनाथ ने कांग्रेस की हार के कारण जनहित में किए गए कार्य और योजनाओं को जनसामान्य तक नहीं पहुंचाना बताया। उन्होंने कहा कि बीते 10 वर्षो में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने जनसामान्य का जीवन स्तर बदलने के लिए कई योजनाएं चलाईं मगर उनका प्रचार ठीक से नहीं हो सका। पहले विधानसभा चुनाव में और अब लोकसभा चुनाव में मिली पराजय ने कांग्रेस के सामने सवाल खड़े कर दिए हैं कि आने वाले समय में वह राज्य में होने वाले नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव में मुकाबला कर भी पाएगी या नहीं, ये कहना मुश्किल है। 
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