Monday, November 19, 2018

भाजपा में क्या नाराज नेताओं को मनाने वाले नहीं बचे?


- हेमंत पाल 

 
    इस बार का विधानसभा चुनाव कई मामलों में कुछ अलग है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में टिकट के लालायित नेताओं की संख्या इतनी ज्यादा रही कि स्थिति बगावत तक पहुँच गई! भाजपा ने 53 बागी उम्मीदवारों को पार्टी से बाहर कर दिया। क्योंकि, इन सभी ने पार्टी के नियम-कायदों का पालन नहीं किया और अधिकृत उम्मीदवार सामने ख़म ठोंककर खड़े हो गए! भाजपा ने इन बागियों को मनाने की कोशिश भी की, पर इसका कोई असर नहीं हुआ। बगावत के आरोप में पूर्व मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया, सरताज सिंह, केएल अग्रवाल, तीन पूर्व विधायक और एक पूर्व महापौर को बाहर कर दिया गया। मसला ये है कि क्या भाजपा में अब ऐसे कद्दावर नेता नहीं बचे, जो बागियों को मना सकें या फिर इस असंतोष को दूर करने की कोशिश ही नहीं की गई? भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा असंतोष का सामना नहीं करना पड़ा! कांग्रेस ने सिर्फ 12 सीटों पर बगावत झेली।
000 

   असंतोष हर पार्टी में होता है! ये स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन, सवाल ये कि असंतुष्ट नेताओं को भाजपा ने मनाया क्यों नहीं? भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाले मध्यप्रदेश में क्या अब ऐसे नेता नहीं बचे, जो रूठों को मनाने का दम रखते हों? इस चुनाव में ऐसे नेता की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है! भाजपा का हर कार्यकर्ता इस कमी को समझ भी रहा है। टिकट वितरण के बाद पार्टी में बड़े पैमाने पर हुई बगावत ने पार्टी की रीति-नीतियों में आए बदलाव को भी उजागर किया। प्रदेश के हर जिले में टिकट बंटवारे के बाद नाराजी नजर आई! क्योंकि, पंद्रह साल सरकार में रहने का बाद भाजपा का चेहरा अब पूरी तरह बदल गया है। 2003 के चुनाव के समय पार्टी में ऐसे नेता थे, जो नाराज कार्यकर्ताओं और नेताओं को आसानी से समझाइश देकर शांत करके काम पर लगा देते थे। 
  पिछले तीन चुनावों में पार्टी के संकट मोचक रहे अनिल माधव दवे की इस चुनाव में काफी महसूस की गई! दवे ने तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पार्टी के वॉर रूम में निर्णायक भूमिका निभाई थी। उनके बाद पार्टी में इस जगह को कोई और नहीं ले पाया। उनसे पहले यही काम कुशाभाऊ ठाकरे किया करते थे। पर, अब न तो अनिल माधव दवे हैं और न कुशाभाऊ ठाकरे! आज पार्टी कार्यकर्ता इस बात को जानते हैं कि दवे की रणनीति के कारण ही 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में बगावत को उभरने से पहले ही ठंडा कर दिया गया था। यहाँ तक कि नाराजी कमरे से बाहर भी नहीं आ सकी! वास्तव में इस बार की बगावत का मुख्य कारण ये रहा कि पार्टी का टिकट चाहने वाले कार्यकर्ताओं को बड़े नेताओं की बात पर भरोसा नहीं रहा! बागियों को जिस तरह के प्रलोभन देकर चुनाव से अलग किया जाता है, वो फार्मूला इस बार फेल हो गया। इन बागियों का कहना है कि पिछले चुनावों में जिस तरह के वादे किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए!  
   विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी होते ही भाजपा में बग़ावतियों ने मोर्चा संभाल लिया। बुंदेलखंड, विंध्य, महाकौशल और भोपाल इलाके में ये बागी काफी असरदार भी हैं। पार्टी के लिए दमोह सीट सबसे बड़ी चिंता बन गई। यहाँ से वित्त मंत्री जयंत मलैया भाजपा उम्मीदवार हैं। जबकि, भाजपा से बागी रामकृष्ण कुसमरिया ने दमोह और पास की पथरिया सीट से निर्दलीय नामांकन भरा है। कुसमरिया पांच बार सांसद और दो बार विधायक रहे हैं। कुसमरिया ने जयंत मलैया पर टिकट कटवाने का आरोप लगाया! मलैया ने कहा कि इस इलाके में अपना अकेले का दबदबा चाहते हैं, जिसके चलते मुझे टिकट नहीं दिया गया। हमने यहां पार्टी को खड़ा करने के लिए डाकुओं से लड़ाई लड़ी, अब हम जैसे लोगों को ही हाशिए पर डाल दिया! सरकार में कृषि मंत्री रहे कुसमरिया ने कहा कि दमोह से जयंत मलैया के खिलाफ खड़े होकर वे पार्टी की ही मदद कर रहे हैं! क्योंकि, दमोह और पथरिया दोनों सीटें भाजपा हार रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव जीतकर वे भाजपा का ही समर्थन करेंगे। 
  मध्यप्रदेश में भाजपा को लगातार दो चुनाव जिताने वाले शिवराजसिंह चौहान के सामने पार्टी की बगावत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का अंदाजा टिकट का फैसला होने से पहले ही होने लगा था। विरोध और बगावत की आवाजें भाजपा मुख्यालय में सुनाई देने लगी थीं। वहाँ होने वाली खुलेआम नारेबाजी को रोकने का साहस किसी में नहीं था। इसलिए कि पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता या तो खुद टिकट की जुगाड़ में थे या अपने बेटे, पत्नी या परिवार के किसी सदस्य के लिए कोशिश में लगे थे। जबकि, प्रदेश में भाजपा की पहचान अनुशासित कार्यकर्ताओं से है। यहाँ फैसले सामूहिक रूप से लिए जाने की परंपरा रही है। लेकिन, इस बार का नजारा बदला हुआ लगा! कार्यकर्ताओं में असंतोष पहले भी कई बार दिखाई दिया, पर वो कभी विद्रोह की सीमा तक नहीं पहुंचा! 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष नरेंद्र तोमर ने असंतोष को किनारे करने में अहम भूमिका अदा की थी। इस बार नरेंद्र तोमर की भूमिका उस रूप में नहीं थी और अध्यक्ष राकेश सिंह को इस तरह की स्थितियों से निपटने का अनुभव नहीं है। पिछले एक दशक में प्रदेश में भाजपा के कई ऐसे नेता हाशिए पर चले गए, जो ऐसे हालात निपटने माहिर थे। 
       चुनाव में कार्यकर्ताओं नाराजी को बाबूलाल गौर और सरताज सिंह ने ज्यादा हवा दी। इन दोनों को शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल से दो साल पहले ही उम्रदराज होने का हवाला देकर मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था। कहा गया था कि पार्टी ने 70 पार कर चुके नेताओं को घर भेजने का निर्णय लिया है। लेकिन, जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भोपाल आए तो उन्होंने 70 साल वाले इस फार्मूले को नकार दिया। उसके बाद से ही शिवराजसिंह चौहान इन दोनों नेताओं के निशाने पर थे। चुनाव के समय इन दोनों नेताओं को विश्वास था कि पार्टी उनके साथ न्याय करेगी! टिकट को लेकर बाबूलाल गौर का भरोसा इसलिए बढ़ा था कि कुछ दिन पहले नरेंद्र मोदी ने भोपाल में मंच पर ही उनसे हाथ मिलाकर कहा था 'गौर साहब एक बार और!' इसके बाद ये कयास लगाए जाने लगे थे कि अब गोविंदपुरा सीट से बाबूलाल गौर को टिकट मिलना तय है! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ तो वे कोप भवन में चले गए। पार्टी की पहली सूची आने के बाद तो गौर और सरताज सिंह का गुस्सा फट पड़ा! लेकिन, अंततः गौर की बहू को टिकट देकर मामले  ठंडा किया गया! लेकिन, सरताज सिंह की नाराजी पर जब भाजपा ने कान नहीं धरे, तो कांग्रेस ने उन्हें साधकर होशंगाबाद से अपना उम्मीदवार बना दिया।   
  बरसों बाद इन चुनावों से ये सच पुख्ता हो गया कि राजनीति में संभावनाएं अनंत हैं। यहां कब, कहाँ और कौन कैसे पलटी मार दे, कहा नहीं जा सकता। यहाँ किसी भी क्षण बाजी पलट सकती है। कौन सोच सकता था कि शिवराजसिंह के साले संजय मसानी जीजा जी की पार्टी से बगावत करके कांग्रेस की गोद में बैठ जाएंगे? लेकिन, ये अनपेक्षित घटना भी हुई! कांग्रेस के लिए संजय मसानी अभी तक विवादास्पद हुआ करते थे। उनपर कर आरोप भी लगाए गए थे! लेकिन, कांग्रेस में आते ही वे दूध से धुलकर पवित्र हो गए। उनकी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी कांग्रेस के निशाने पर थी। अजय सिंह ने तो यहाँ तक आरोप लगाया था कि संजय मसानी ने फर्जी दस्तावेजों से मध्यप्रदेश में अपनी कंपनी का रजिस्ट्रशन करवाया था। उन पर अवैध खनन, फिल्मों में बेनामी धन लगाने जैसे कई आरोप लगाए गए। लेकिन, अब सब कुछ कबूल करते हुए कांग्रेस ने उन्हें वारासिवनी से टिकट दे दिया। अब सबकी नजरें चुनाव के नतीजों पर टिकी है कि भाजपा में हुआ उभरा यह असंतोष कहाँ, कैसा असर दिखाता है!   
------------------------------------------------------

Sunday, November 18, 2018

इतिहास बचेगा या कुछ रचेगा?


- हेमंत पाल

    भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि वाली दो अहम फिल्में इस साल आईं! 'पद्मावत' और 'ठग्स ऑफ हिंदुस्तान।' तीसरी फिल्म 'मणिकर्णिका' भी इसी साल आने वाली थी, जो अगले साल तक बढ़ गई। वास्तव में 'पद्मावत' को 2017 में रिलीज होना था, परंतु इससे जुड़े विवादों के कारण ये फिल्म खिंचकर इस साल रिलीज हुई। 'पद्मावत' के साथ जो कुछ हुआ उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या फिल्मकारों को वास्तव में इतिहास के अँधेरे में झांकने का जोखिम उठाना चाहिए? क्योंकि, सेंसर सिर्फ बोर्ड नहीं रह गया है? अब तो गली, मोहल्लों तक के लोग और जेबी संगठन भी कैंची लेकर फिल्मों को कतरना चाहते हैं। 'पद्मावत' बॉलीवुड में 200 करोड़ रुपए के बजट से बनी पहली फिल्म थी। लेकिन, उसका भविष्य लम्बे समय तक अधर रहा! 
   'रंगून' और 'सिमरन' के फ्लॉप होने के बाद कंगना रनौत को अब अपने होम प्रोडक्शन की फिल्म 'मणिकर्णिका' से बहुत उम्मीदें हैं। क्योंकि, यह फिल्म देश की आजादी से जुड़ी एक महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बायोपिक है। 'पद्मावत' के विरोध देखते हुए इसके लेखक, निर्देशक की टीम ने लक्ष्मीबाई से जुड़े इतिहास को काफी खंगाला! ये जरुरी भी था, क्योंकि अब लोग किसी भी ऐतिहासिक फिल्म को महज फिल्म की तरह नहीं देखते! बल्कि, उससे जुड़े सामाजिक दृष्टिकोण को भी परखते हैं। इसके बाद भी 'मणिकर्णिका' पर से खतरा टला नहीं है। फिल्म के ट्रेलर को लेकर भी उंगली उठ चुकी है।
  एक और ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनना शुरू हुई है, जो 1897 में तत्कालीन भारत-अफगान सीमा पर सरागढ़ी में हुई लड़ाई पर आधारित है। ये फिल्म राजकुमार संतोषी और रणदीप हुड्डा को लेकर बना रहे हैं। यह फिल्म दस हजार अफगानों के खिलाफ 21 भारतीय जवानों के भीषण युद्ध की दास्तान है। हाल ही में रिलीज हुई आमिर खान और अमिताभ बच्चन की फिल्म 'ठग्स ऑफ हिंदुस्तान' को लेकर दर्शकों में काफी उत्सुकता थी, पर फिल्म ने बहुत निराश किया। इस फिल्म में भारत में 18वीं सदी के ठगों के कारनामे हैं। फिल्म के प्रति दर्शकों की उत्सुकता का प्रमाण ये है कि फिल्म ने पहले ही दिन सर्वाधिक 50 करोड़ की कमाई की! लेकिन, बाद में फिल्म ने पानी नहीं माँगा! 
   फिल्मकारों के नजरिए की बात की जाए, तो कहा जा सकता है कि सिनेमा कलापूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, अतः फिल्मकार को थोड़ी छूट लेने का अधिकार होना चाहिए। यह तर्क सही भी है। समझा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक फिल्में उस समय के इतिहास को नहीं, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में एक कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती हैं। इसलिए प्रस्तुति का स्तर सिनेमा को देखने का मुख्य आधार होना चाहिए। लेकिन, ऐसा कहने से इस सवाल का जवाब नहीं मिल जाता कि ऐतिहासिक, इतिहास की बड़ी घटनाओं या किरदारों पर फिल्म बनाने के मामले में हिंदी सिनेमा इतना स्तरहीन और पिछड़ा क्यों है? एक भी ऐसी फिल्म का नाम याद नहीं किया जा सकता, जो पूरी तरह इतिहास या किसी महान चरित्र पर आधारित हो। चेतन आनंद की 'हकीकत' (1964) और एस राम शर्मा की 'शहीद' (1965) ही ऐसी फ़िल्में थीं, जो इस मापदंड के काफी करीब मानी जाती हैं। इसके बाद जेपी दत्ता की 'बॉर्डर' (1997) एक बेहतरीन फिल्म थी, जिसमें पाकिस्तान से जंग लड़ रही एक बटालियन की कहानी को बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया गया था। 
 आशुतोष गोवारिकर की 'मोहन जो दाड़ो' और टीनू सुरेश देसाई की 'रुस्तम' भी ऐतिहासिक विषयों पर बनी फिल्में थीं। जहां गोवारिकर ने हजारों साल पहले की हड़प्पा सभ्यता में अपनी कहानी को बुना था। वहीं देसाई ने 1950 के दशक की एक बहुचर्चित अपराध कथा को परदे पर चित्रित किया। कथानक, अभिनय और प्रस्तुति को लेकर इन दोनों फिल्मों को जो भी प्रशंसा या आलोचना मिली है, वह तो अलग विषय है, परंतु कथा के कालखंड और इतिहास के साथ समुचित न्याय नहीं करने के लिए दोनों की बड़ी निंदा हुई! 
 पौराणिक कथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं और लोक में प्रचलित कहानियां हमेशा ही सिनेमा के पसंदीदा विषय रहे हैं। पहली हिंदुस्तानी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) को दादा साहेब फाल्के ने बनाया था। अर्देशर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' (1931) में बनाई। सबसे लोकप्रिय फिल्में 'मुगले आजम' (1960) में के आसिफ ने बनाई। एस राम ने 1965 में 'शहीद' और आशुतोष गोवारीकर ने 2001 में 'लगान' बनाई! एसएस राजामौली ने 2015 में 'बाहुबली' का खाका भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की तरह बना। ऐसे में हातिम ताई (1990) और 'बाहुबली' जैसी फिल्में 'मोहन जो दाड़ो' या 'मुगले आजम' से कहीं ज्यादा ईमानदार फिल्में रहीं, जो एक अनजाने मिथकीय वातावरण में ले जाकर दर्शकों का मनोरंजन तो करती हैं! ऐसी फ़िल्में इतिहास का प्रतिनिधि होने का ढोंग भी नहीं रचती! अब, जबकि तकनीक है, दर्शक हैं, धन है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे फिल्मकार इतिहास को लेकर अधिक संवेदनशील होंगे और विगत को ईमानदारी से पेश करने का जोखिम उठाएंगे। 
----------------------------------------------------------------