Sunday, October 31, 2021

फिल्मों से कहां गायब हो गए गांव


- हेमंत पाल

  बीते कुछ सालों में शायद ही आपने कोई ऐसी नई फिल्म देखी हो, जिसमें गाँव, वहाँ का जीवन और गांववालों की पीड़ा नजर आई हो! याद किया जाए तो 'लगान' के बाद तो ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी पूरी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! अब जो फ़िल्में आ रही हैं, वो लकदक हाई-सोसायटी के आसपास घूमती कहानियां हैं। उनमें कॉरपोरेट कल्चर होता है, षड़यंत्र रचे जाते हैं, कंपनियों को टेकओवर करने की चालें होती हैं, पर इन फिल्मों के कथानक बड़े शहरों से बाहर नहीं निकलते! आज स्थिति यह है कि ज्यादातर फिल्में सौ और दो सौ करोड़ के बिजनेस का लक्ष्य बनाकर बनाई जाती हैं। कमाई की यही होड़ हिंदी फिल्मों से गांव के गायब होने का सबसे बड़ा कारण है। फिल्मकारों की नजर में ये कमाऊ विषय नहीं है। अब जिन फिल्मों में गांव दिखाई भी देता है, तो किसी और संदर्भ में! 'स्वदेश' जैसी फिल्म बनाने की कोशिश भी हुई, पर ये सही ग्रामीण फिल्म नहीं, बल्कि मातृभूमि की और वापसी पर आधारित थी। इस बीच पहलवानी पर भी दो फ़िल्में 'दबंग' और 'दंगल' आई, पर इसमें भी गांव नहीं दिखा। कुछ साल पहले 'पीपली लाइव' आई, जो गांव की सच्चाई और समस्याओं वाली फिल्म थी। इसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था!  लेकिन, बड़े तबके को यह फिल्म समझ नहीं आई। 
     सिनेमा का एक दौर ऐसा भी आया था, जब गांव और गांव वाले सिनेमा की पहचान थे, पर जैसे-जैसे सिनेमा का बाजार बना, परदे से गांव विलुप्त होते गए। सिनेमा का इतिहास टटोला जाए, तो शुरुआती फिल्मों का कथानक गांव की पगडंडियों से होकर ही गुजरा था। वी शांताराम की दो बीघा ज़मीन, विमल राय की यादगार और बंदिनी, राज कपूर की आवारा, श्री 420 और 'बूट पॉलिश' ग्रामीण परिवेश की ऐसी फ़िल्में थीं, जिन्होंने देश और दुनिया को वहाँ की समस्याओं और उनके जीवन से रूबरू करवाया था। लेकिन, समय बदलने के साथ सिनेमा का चेहरा भी बदलता गया। अब तो यह हालात हैं कि गांव का जीवन परदे से लगभग गायब ही हो गया। जीवनशैली बदलने के साथ सिनेमा के कथानक भी बदलते गए। शहरी ज़िंदगी और उसकी चकाचौंध भरी जीवनशैली से सिनेमा का परदा चमकरदार होता गया। अब तो एक फार्मूला हिट होते ही उस जैसी फिल्में बनने लगती है। ‌महेंद्रसिंह धोनी की बायोपिक हिट हुई, तो उस तरह की फिल्मों की लाइन लग गई! दर्शकों को देशप्रेम का फार्मूला पसंद आया तो हर दूसरी फिल्म में पड़ौसी देश को निशाना बनाया जाने लगा। ये तो महज एक उदाहरण है, पर आजकल यही ट्रेंड बन गया। लेकिन, किसी फिल्मकार ने 'लगान' की सफलता के बाद भी उसका अनुसरण नहीं किया। 
    सर्वाधिक सफल हिंदी फिल्म मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' वास्तव में रामगढ़ गाँव की कहानी थी! लेकिन, इस फिल्म से भी गाँव नहीं था। जो गांव था, वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम हो गया था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना ही सुनता दिखाई दिया। 'शोले' की सफलता ने फ़िल्मी गाँव की जिंदगी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन और मदर इंडिया को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। अब तो ग्रामीण जिंदगी और वहाँ के रीति-रिवाजों पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले 'राजश्री' भी संयुक्त परिवारों और उसकी साजिशों की कहानियों पर मल्टीस्टारर फ़िल्में बनाने लगे हैं! नदिया के पार, बालिका वधु और 'गीत गाता चल' जैसी कालजयी फ़िल्में बनाने वाली ये फिल्म निर्माण कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! दरअसल, सारा मामला व्यावसायिक है। सौ-दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने की अंधी दौड़ से आखिर कौन पिछड़ना चाहेगा! सिनेमा के परदे से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक ही नहीं, लोकगीत तो गायब हो गए! ये दौर आज-कल में नहीं आया! 80 के दशक के बाद से ही फिल्मकारों ने धीरे-धीरे गाँवों की धूलभरी पगडंडी को छोड़ दिया था!
    आंकड़ों के नजरिए से देखा जाए तो देश की 66% आबादी हिंदी सिनेमा से गायब हो गई। अब जो फ़िल्में बन रही है, उनका कथानक 34% आबादी पर केंद्रित रहता है, पर उसे पूरे देश में बेचा जाता है। वर्ल्ड बैंक की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक देश की 66% आबादी गांव में रहती है। लेकिन, इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि ग्रामीण जीवन की कहानियों से हिंदी सिनेमा का कारोबारी विकास नहीं हो सकता। पर, अफ़सोस की बात है कि बॉक्स ऑफिस पर 34% से कमाई के लोभ में 66% ग्रामीण जीवन को बहिष्कृत कर दिया गया। जबकि, फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर लोग गांव से ही आते हैं। लेकिन, उनकी मज़बूरी है कि उन्हें शहरी जीवन की कहानियां गढ़ना पड़ रही है। समानांतर सिनेमा का तो मूल आधार ही ग्रामीण पृष्ठभूमि है, उसे इन कहानियों का प्रतिबिंब कहा जाता है। अंकुर, पार, दो बीघा ज़मीन, सूरज का सातवां घोड़ा और 'अंतर्नाद' जैसी फिल्में ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करने में सफल रहीं। लेकिन, अब ऐसी फिल्में नहीं बनती! अब तो फिल्मों ने झूठ, फरेब और काल्पनिकता की चादर ओढ़ ली है, जिनमें शहरी चकाचौंध, मारधाड़, छल और खून खराबा ही विषय बन गए।
    आज फिल्मकार दावा करते हैं कि वे समाज के सभी पक्षों और पहलुओं को फिल्मों में चित्रित करते हैं। लेकिन, अब फिल्मों से गांव और किसान क्यों नहीं हैं, इसका उनके पास शायद ही कोई जवाब होगा! हिंदी फिल्मों में अब खेत-खलिहान, लहलहाती फसलें, हल चलाते किसान, खेत जोतते ट्रैक्टर, गांव की चौपाल और वहाँ की पंचायतें गायब हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म की कुछ वेब सीरीज में गांव जरूर दिखाई दी, पर उनका फोकस अपराध और अपराधियों पर फोकस होता है। वास्तव में ग्रामीण इलाकों, गांव की कहानियों और किसानों के किरदार में निर्देशक, निर्माता और यहां तक कि दर्शकों की भी रुचि नहीं है। उनके लिए सिनेमा महज मनोरंजन होता है और वह शहरी कहानियों में ही है। इन कहानियों में वो सबकुछ होता है, जो आज के दर्शक देखना चाहते हैं। जबकि, गांव के जीवन में तो कष्ट, अभाव और पीड़ा के अलावा और कुछ नहीं होता। मनोज कुमार ने कभी लालबहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान जय किसान' को लेकर 'उपकार' फिल्म बनाई थी। इस फिल्म को देखते हुए दर्शकों ने 'दो बीघा जमीन' और 'मदर इंडिया' के दौर के गांव के बदलाव को महसूस किया था। इसके बाद में 'किसान' और 'गोरी तेरे गांव में' जैसी अतार्किक फिल्में बनती रही। 
    परदे से गाँव नदारद होने का सबसे ज्यादा असर ये हुआ कि समाज में अपनत्व की भावना गायब हो गई! आज की कहानियों में काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। इसके साथ ही आज तो सिनेमा हॉल में किसी सीन पर दर्शकों की आँखें तक नहीं भीगती! क्योंकि, ऐसे दृश्यों में आज के फिल्मकार भावनाएं नहीं डाल पाते! अब तो सिनेमा हॉल में सिक्के भी उछलते नहीं दिखते! शायद ही बरसों से किसी ने सिनेमा हॉल में किसी दर्शक को गाने पर डांस करते देखा हो! इसलिए कि अब न तो फ़िल्मी कथानकों में भावनात्मकता है और मिट्टी की वो महक जिससे हिंदी का फिल्मलोक रोशन था!
   1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' बनाई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। फिल्म की कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की थी, जो जमींदार के अत्याचारों से त्रस्त है। ये लोग उसकी पत्नी के साथ गैंगरेप करते हैं, लेकिन जेल होती है लहनिया को! पत्नी लक्ष्मी शर्म से आत्महत्या कर लेती है। पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए लहनिया को जेल से निकालकर लाया जाता है। वहाँ गैंगरेप करने वाले उसकी बहन को ही ललचाई नज़रों से देखते हैं। वह पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा लेता है और उन गुंडों को काट डालता है। ये था गाँव और वहाँ का सही दर्द जो गोविंद निहलानी ने दिखाया था! डाकुओं की फिल्मों में भी गांव का परिवेश दिखाई दिया जिसमें अत्याचार और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! पर, अब न गांव बचे और न डाकू! 
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Saturday, October 30, 2021

दिवाली की प्रथा या नायक का शगल है जुआ!

हेमंत पाल

   दिवाली की अपनी परंपरा है। घरों के बाहर रोशनी करने की, लक्ष्मी पूजन करने की, खुशियां मनाने की और उसी से जुड़ी एक प्रथा है उस रात जुआ खेलने की। जुआ खेलना सामाजिक रूप से सही नहीं माना जाता और ये एक अपराध भी है, फिर भी कुछ लोग जुआ इसलिए खेलते हैं कि इसके पीछे भी कोई पौराणिक कथा जुड़ी है। माना जाता है कि दिवाली के दिन जुआ खेलने का कारण एक आध्यात्मिक कथा है, जो शिव और पार्वती से जुड़ी है। कहा जाता है कि इस रात पूरे ब्रह्माण्ड के तारों और ग्रहों में बदलाव आता है, यह बदलाव शिव और पार्वती के बीच चल रहे पांसे के खेल का ही प्रभाव होता है। हमारा सिनेमा भी जुए के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। जिस तरह से दुनियाभर में जुआ खेला जाता है, उसी तरह फिल्मों में जुए से जुड़े दृश्य भी दिखाई देते रहे हैं। 
    जहां तक 'जुआरी' शीर्षक से जुड़ी फिल्मों की बात है, तो हमारे यहां इस शीर्षक से तो दो ही फिल्में बनी। पहली फिल्म 'जुआरी' 1968 में आई थी। सूरज प्रकाश निर्देशित इस फिल्म के नायक थे शशि कपूर। उनके साथ तनुजा, नंदा, मदनपुरी, और रहमान ने भी इस फिल्म में काम किया था। फिल्म का नायक शशि कपूर शराबी होने के साथ जुआरी भी होता है! लेकिन, वो दूसरों की खुशी और जरूरतमंदों की मदद के लिए जुआ खेलता है। लेकिन, कल्याणजी-आनंदजी के संगीत से सजी यह फिल्म औसत साबित हुई थी। 1994 में धर्मेंद्र, अरमान कोहली, शिल्पा शिरोडकर, महमूद, किरण कुमार, रजा मुराद और परेश रावल अभिनीत 'जुआरी' प्रदर्शित हुई, जिसका निर्देशन जगदीश ए शर्मा ने किया था। इस फिल्म में धर्मेन्द्र को जुआरी बताया था, पर वो बड़े अजीब मकसद के लिए जुआ खेलता है। उसकी प्रेमिका खलनायक के शिकंजे में है। खलनायक की शर्त है, कि यदि उसे प्रेमिका को छुड़ाना है, तो जुआ खेलना पड़ेगा। पर, यह फिल्म भी दर्शकों ने नकार दी।  
   देखा जाए तो फिल्म निर्माण भी एक तरह से जुआ ही है। इसमे कभी दांव लग जाता है, तो वारे-न्यारे हो जाते हैं! पर, यदि दांव उल्टा पड़ जाता है, तो सर की छत तक सलामत नहीं रहती। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब अपना सबकुछ दांव पर लगाने वाले फिर निर्माता फिल्म के रिलीज होने के बाद सड़क पर आ गए। क्योंकि, दर्शकों ने यदि फिल्म को पसंद नहीं किया, तो फिल्म निर्माण में लगे पैसों की भरपाई होना मुश्किल होता है! आज तो फिल्म बनने से पहले ही अलग-अलग बाजारों में बिक जाती है, पर पहले ऐसा नहीं था। सीधे शब्दों में कहें तो आज फिल्म की निर्माण उसके रिलीज से पहले ही निर्माता की जेब में आ जाती है। 
      प्रकाश मेहरा के लिए वैसे तो फिल्म निर्माण हमेशा फायदे का सौदा रहा! लेकिन, जब उन्होंने 'जिंदगी एक जुआ' फिल्म बनाई, तो सारे पांसे पलट गए और उनका दांव उल्टा पड़ गया। अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, सुरेश ओबेराय, शक्ति कपूर, अनुपम खेर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारों और बप्पी लहरी का संगीत भी इसे डूबने से नहीं बचा पाया। यदि श्वेत और श्याम फिल्मों के दौर में जुए पर आधारित फिल्मों की बात की जाए तो देव आनंद ऐसे सितारे थे, जिन्होंने उस दौर की अपनी हर दूसरी फिल्म में पत्ते फेंकते हुए, मुंह में सिगरेट लगाकर जुए को परदे पर उतारकर सफलता हासिल की। उनकी फिल्म निर्माण कंपनी की पहली फिल्म 'बाजी' की कहानी बलराज साहनी ने लिखी थी और निर्देशक गुरुदत्त थे। यह फिल्म ऐसे पत्ते बाज की कहानी थी, जिसके हाथों में जादू था। उसे अपने हाथों पर इतना भरोसा होता है कि वह किसी भी तरह से पत्ते बांटे दांव उसका ही बैठता था। तभी तो गीता बाली उससे गुहार करती है 'अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले।' यह फिल्म अपने ज़माने की सुपर हिट थी। इसके बाद देव आनंद ज्यादातर फिल्मों में जुआरी के किरदार में ही दिखाई दिए। जुआरी का चोंगा उतारकर लम्बे समय तक रोमांटिक भूमिकाएं निभाने के बाद 1971 में देव आनंद ने एक बार फिर अपने हाथों में ताश की गड्डी थामी। यह फिल्म 'गैम्बलर' थी, जिसमें देव आनंद के किरदार को उसकी मां बचपन में ही त्याग देती है। इस बच्चे की परवरिश एक आपराधिक व्यक्ति करता है। यह बच्चा ताश के पत्तों के खेल में माहिर हो जाता है। इस फिल्म में देव आनंद के साथ जहीदा थीं। 'गैम्बलर' में नीरज के गीत और सचिन देव बर्मन का संगीत था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसमें शत्रुघ्न सिन्हा भी एक अलग ही अंदाज में दिखाई दिए थे।
    सिनेमा के परदे के जुए ने भोली-भाली इमेज वाले राज कपूर को भी अपने आगोश में लेने से गुरेज नहीं किया। 'श्री 420' में जब काली कमाई कर फिल्म का नायक मालामाल हो जाता है, तो नादिरा उसे अपने मायाजाल में फंसाकर पत्तों की दुनिया में ले जाती है। लेकिन, फिल्म समाप्त होते-होते वह फिर से अपनी प्रेमिका नरगिस के पास लौटकर कह ही देते हैं मैने दिल तुझको दिया! याद नहीं आता कि हिन्दी सिनेमा की त्रिमूर्ति के तीसरे नायक दिलीप कुमार ने किसी फिल्म में जुआरी की भूमिका निभाई हो। लेकिन, असल जिंदगी में दिलीप कुमार पत्ते खेलने में उस्ताद माने जाते थे। जब उनके हाथों में ताश की गड्डी होती, तो वे पत्ते फेंटकर बांटते हुए यह जान जाते थे, कि किस व्यक्ति के पास कौनसे पत्ते हैं। 
    इस सदी के महानायक का तमगा लगाए बैठे अमिताभ ने भी परदे पर जुए को अपनाया। 1979 में शक्ति सामंत के निर्देशन में बनी फिल्म 'द ग्रेट गैम्बलर' में अमिताभ एक ऐसे बड़े जुआरी की भूमिका में थे, जिसने कभी कोई खेल नहीं हारा था। 'ग्रेट गैम्बलर' एक्शन थ्रिलर थी जिसमें अमिताभ दोहरी भूमिका में थे। एक अमिताभ गैम्बलर होता है, जिसकी बांहों में जीनत अमान थी तो दूसरा पुलिसवाला जिसकी बांहों में नीतू सिंह। यह फिल्म अपनी विदेशी लोकेशंस और गीतों के कारण खासी चर्चित हुई थी। 
   बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में भी जुए के दृश्य आम होते है। जेम्स बांड की फिल्मों में इस तरह के दृश्य दर्शकों ने हमेशा ही देखे होंगे। 'कसीनो रॉयल' ऐसी ही फिल्म थी। वहां कैसिनो नाम से दो बार फिल्में चुकी है। 1995 में आई मार्टिन स्कोर्सिसी की फिल्म 'कसीनो' में रॉबर्ट डे नीरो और शेरोन स्टोन मुख्य भूमिकाओं में थे। इसकी कहानी सैम नाम के एक आदमी की है, जो लास वेगास जाकर एक कैसीनो चलाता है, पर बाद में अंडरवर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है। 1999 में आई फिल्म 'क्रूपर' एक लेखक की कहानी थी, जो पैसे कमाने के लिए एक कसीनो में क्रूपर (यानी जुए) के खेल में सहयोगी का काम करने लगता है। लेकिन, यह काम उसकी पूरी जिंदगी को इस कदर अपने कब्जे में ले लेता है कि वह लेखक से अपराधी बन जाता है। माइक हॉज के निर्देशन में बनी इस फिल्म में क्लाइव ओवेन, केट हार्डी और एलेक्स किंग्स्टन मुख्य भूमिकाओं में थे। 2014 की में आई 'द गैम्बलर' एक अमेरिकी क्राइम ड्रामा फिल्म थी। इसके निर्देशक रुपर्ट वायट थे, जो एक प्रोफेसर होते हैं, जिसको जुआ खेलने की बहुत लत होती है। मार्क वॉलबर्ग इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। 'हाई रोलर' एक बायोपिक फिल्म थी, जो अमेरिका के प्रोफेशनल पोकर खिलाड़ी स्टू उंगार के जीवन पर बनी थी। 2003 में रिलीज हुई इस फिल्म की कहानी एक फ्लैशबैक में चलती है। एक बुकी का बेटा जो कई तरह के ड्रग्स की लत से निकलकर एक बड़ा पोकर खिलाड़ी बन जाता है। लेकिन, हिंदी फिल्मों में जुआरी ऐसा विषय नहीं रहा, जो हमेशा बिकाऊ रहा हो! 70 और 80 के दशक की फिल्मों में अकसर ऐसे दृश्य जरूर दिखाई दिए, जब नायक किसी मज़बूरी में जुआखाना जाता है। पर, पूरी फिल्म का कथानक जुआरी पर टिका हो, ऐसा बहुत कम हुआ है। 
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Sunday, October 24, 2021

बर्बाद होते देश का दर्दभरा सिनेमा

हेमंत पाल 

    अब अफगानिस्तान का अपना कोई मूल स्वरूप नहीं रहा। इस धरती पर तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन ने कब्जा कर लिया। दुनियाभर में इस मसले को लेकर अलग-तरह तरह की चर्चा है। वैदेशिक रिश्तों को लेकर ऐसी चिंता स्वाभाविक है, पर कोई यहाँ की संस्कृति, सभ्यता और यहाँ के सिनेमा को लेकर बात नहीं कर रहा। कई सालों से ये देश आतंकवाद से ग्रस्त रहा, इसलिए ये समझा जाता है, कि यहाँ मनोरंजन के लिए सिनेमा जैसा कोई माध्यम शायद ही जीवित हो! लेकिन, ऐसा नहीं है। यहाँ भी सिनेमा की अपनी मजबूत जड़ें हैं, जिसके पास अपने ज्यादा बेहतर किस्से-कहानियां हैं। ये बात अलग है कि इन कहानियों में दर्द का हिस्सा ज्यादा है और मनोरंजन कम! शायद इसीलिए अफगानिस्तान के सिनेमा को लेकर कम ही बातचीत होती है। अफगानिस्तान में जिस तरह से तालिबानी आतंकवाद ने कब्ज़ा किया, वहाँ का फिल्म उद्योग तहस-नहस हो गया। लेकिन, फिर भी वे अफगानी फिल्मकारों के सोच को नहीं दबा सके। इतने दबाव और हिंसा के बाद भी आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान में बनी ज्यादातर फिल्में तालिबानी कट्टरपंथ के खिलाफ बनी! दरअसल, ये उनका सिनेमाई   गुस्सा है। क्योंकि, तालिबानियों के सत्ता में आते ही वहां की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति एक तरह से खत्म हो गई।    
     दुनिया में सिनेमा के मामले में भारत सबसे समृद्ध है, जबकि उसके आसपास के देशों में ये माध्यम उतना ही कमजोर। इसलिए कि सालों से भारत में बना सिनेमा ही वहाँ के लोगों का भी मनोरंजन कर रहा है। ऐसे में अफगानिस्तान में भी भारतीय फिल्मों का बाजार सालों से सजा है। वहाँ के लोगों ने भारत की फिल्मों और यहाँ के कलाकारों को इतना आत्मसात कर लिया कि वे सभी इन्हें अपने लगने लगे। अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान के साथ माधुरी दीक्षित और कैटरीना कैफ भी वहाँ बेहद लोकप्रिय हैं। इनमें भी अमिताभ और कैटरीना के तो वहाँ पोस्टर बिकने की खबर है। अफगानिस्तान और भारत के रिश्ते भी बहुत गहरे रहे हैं। यहाँ तक कि दोनों देशों की संस्कृति और सभ्यता भी कहीं न कहीं जुड़ी है। शायद भारतीय फिल्मों के प्रति इसी आसक्ति का ही असर है कि रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी 'काबुलीवाला' पर 1957 में पहले बंगाली में तपन सिन्हा और बाद में 1961 में हिंदी में हेमेन गुप्ता सहित कई निर्देशकों ने सफल फिल्में बनाई। अफगानिस्तान में 2007 में हॉलीवुड की फिल्म 'द काइट रनर' बनी। उससे पहले 1975 में फीरोज खान ने धर्मात्मा, मुकुल आनंद ने 1992 में खुदा गवाह, कबीर खान ने 2006 में काबुल एक्सप्रेस फिल्म बनाई। 
    1968 में जब अफगानिस्तान में फ़िल्में बनना शुरू हुई, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों पर प्रकाश डालते हुए वृत्तचित्र और समाचार फ़िल्में बनाई जाने लगीं थी। इन फिल्मों को भारत में भी फीचर फिल्मों से पहले सिनेमाघरों में दिखाया जाता! नए दौर में अफगान कलाकारों को लेकर काबुल में बनाई गई पहली फीचर फिल्म थी 'लाइक ईगल्स' जिसमें जहीर वैदा और नाजिया ने अभिनय किया था। इसके बाद अफगान फिल्मकारों ने 'एज' नाम से तीन भाग वाली फिल्म बनाई थी। इसमें स्मगलर, शूटर्स और 'फ्राइडे नाइट' शामिल थे। इस दौर की दो अन्य फिल्में 'विलेज ट्यून्स' और 'डिफिकल्ट डेज' हैं। इन सभी फिल्मों को ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया था। इस युग के फिल्म कलाकारों में खान अका सोरूर, रफीक सादिक, अजीजुल्लाह हदफ, मशाल होनारयार और परवीन सनतगर शामिल थे। 80 के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान में निर्मित पहली रंगीन फिल्में थी रन अवे (फरार), लव एपिक (हमासा ए इशग), सबूर सोल्जर (सबूर सरबाज), ऐश (खाके स्टार) और 'लास्ट विशेज' थीं। ये फिल्में हालांकि तकनीकी रूप से उतनी कुशल नहीं थी, जितनी भारत या अन्य देशों में बनती है। लेकिन ये फ़िल्में अफगानी जिंदगी के साथ तालमेल बैठाती थीं। क्योंकि, वे उनके जीवन को दिखाती थीं। 
     1996 में जब तालिबानियों ने जब वहाँ की सत्ता में दखल देना शुरू किया, तो सबसे पहले सिनेमाघरों पर हमले किए गए। कई फिल्में जला दी गईं। तालिबानियों ने लोगों के टीवी देखने से भी लोगों को रोक दिया, सिनेमाघर बंद कर दिए गए। बाद में ये सिनेमाघर चाय की दुकानें बन गए या रेस्तरां। कुछ सिनेमाघर खंडहर हो गए। अफगान फिल्मकार के हबीबुल्लाह अली ने तालिबानियों से फिल्मों के विनाश को रोकने के लिए हजारों फिल्मों को भूमिगत कर दिया या कमरों में छुपा दिया। 2002 में तालिबान आतंक के बाद पहली फिल्म 'टेली ड्रॉप' फिल्म बनाई गई। इससे पहले यहाँ बनने वाली फिल्म थी 'ओरजू' जो 1995 में बनी थी। 1996 में यहाँ तालिबानियों ने कब्ज़ा कर लिया तो सिनेमा की गतिविधियां बंद हो गई।
    अफगानिस्तान में सबसे पहले सिनेमा लाने का श्रेय वहां के राजा (अमीर) हबीबुल्ला खान (1901-1919) को दिया जाता है। उन्होंने दरबार में प्रोजेक्टर से कुछ फिल्में दिखाई थी। तब वहाँ प्रोजेक्टर को 'जादुई लालटेन' कहा जाता था। जनता के लिए उन्होंने काबुल के पास पघमान शहर में पहली बार 1923 में एक मूक फिल्म के प्रदर्शन भी किया था। लेकिन, अफगानिस्तान में सिनेमा का निर्माण बेहद अस्त व्यस्त रहा। 1946 में बनी 'लव एंड फ्रेंडशिप को पहली फीचर फिल्म माना जाता है। उसके बाद ज्यादातर डाक्यूमेंट्री ही बनी। 1990 में छिड़े गृहयुद्ध और 1996 में तालिबानियों के सत्ता में आने के बाद वहाँ फ़िल्में बनाना और देखना प्रतिबंधित कर दिया।
    जहाँ तक अफगानी फिल्मों की दुनिया में पहचान बनने का सवाल है, तो वह थी 2003 में बनी सिद्दिक बर्मक की फिल्म 'ओसामा!' इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह समेत कई बड़े फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड मिले। बताते हैं कि इस फिल्म ने 39 लाख डॉलर का कारोबार किया था। इसके बाद 2004 में आई अतीक रहीमी की फिल्म 'अर्थ एंड एशेज (खाकेस्तार-ओ-खाक) का वर्ल्ड प्रीमियर 57वें कांस फिल्म फेस्टिवल के 'अन सर्टेन रिगार्ड' खंड में हुआ।
  यह 13 साल की लड़की (मरीना गोलबहारी) की कहानी है, जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए लड़का बनकर ओसामा नाम से काम करती है। उसके परिवार में कोई मर्द नहीं बचा था। वह माँ के साथ एक अस्पताल में काम करती थी, जिसे बाद में तालिबानियों ने बंद कर दिया। औरतों के काम करने पर रोक लगा दी और लड़कों को पकड़कर इस्लामी ट्रेनिंग कैंप भेजने लगे। एक दिन ओसामा को भी पकड़ लिया गया। वहाँ राज खुलने पर उसे बुरी तरह यातनाएं दी गईं। बाद में एक बूढ़े के साथ उसकी जबरन शादी करा दी जाती है। 
     इसके बाद जिस फिल्म की चर्चा होती है, वह थी 2011 में आई ईरानी फिल्मकार वाहिद मौसेन की फिल्म 'गोल चेहरे!'  यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी। जिसमें लोगों ने जान पर खेलकर तालिबानियों के हमले से कई फिल्मों के दुर्लभ प्रिंट बचाए थे। एक उन्मादी सिनेमा प्रेमी अशरफ खान गोल चेहरे नाम का एक सिनेमा हॉल चलाते थे, जिसे तालिबानियों ने जलाकर नष्ट कर दिया था। वे इस सिनेमा हॉल को फिर शुरू करना चाहते हैं। सत्यजीत राय की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' से सिनेमा हॉल का उद्घाटन होता है। लेकिन, जैसे ही फिल्म शुरू होती है, तालिबानी सिनेमा हॉल को बम से उड़ा देते हैं। अशरफ खान को मार देते हैं और सभी फिल्मों को जला देने का फतवा देते हैं। लेकिन, एक विधवा डॉक्टर रूखसारा दुर्लभ फिल्मों को बचाने में कामयाब हो जाती है। एक बार फिर गोल चेहरे सिनेमा हॉल बनता है और 'शतरंज के खिलाड़ी' से ही उसका उद्घाटन होता है। फिल्म का ये कथानक हिंदी फिल्मों को लेकर अफगानियों की दीवानगी बताता है। 
    लम्बे समय बाद दुनिया में यहां की फिल्मों की चर्चा मोहसिन मखमलबफ की 2001 में आई फिल्म 'कंधार' से हुई। 20 से ज्यादा फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म दिखाई गई। इसके बाद 2003 की फिल्म 'ऐट फाइव इन द आफ्टरनून' भी चर्चा में आई। फिल्म की कहानी एक अफगान लड़की पर केंद्रित थी, जो परिवार की इच्छा के खिलाफ स्कूल जाती है। वह भविष्य में अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने का सपना भी देखती है। अतीक रहीमी की 2004 में आई फिल्म 'अर्थ एंड एशेज' का मूल नाम 'खाकेस्तार ओ खाक' था। यह फिल्म अफगानिस्तान में चल रहे गृहयुद्ध से हुए विनाश में मनुष्यता खोजने की सिनेमाई कोशिश है। फिल्म में दादा और पोते की आंखों की आँखों के दृश्य ही फिल्म की असली ताकत है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी बमबारी से बर्बाद हुए देश को लैंडस्केप की तरह फिल्माया गया था। 
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Saturday, October 2, 2021

जब गाने रचते हैं नए-नए फसाने

- हेमंत पाल

   मतौर पर हिन्दी फिल्में किसी न किसी अफसाने पर बनती है या यही फ़िल्में किसी न किसी अफसाने को जन्म देती है। फिल्मी फसाने को आगे बढ़ाने के लिए अक्सर निर्माता गीतों का सहारा लेते है। लेकिन, गीतों के फिल्मांकन या गीतों की रचना में कई बार ऐसी चूक हो जाती, जो किसी नए फसाने को जन्म देती। यह फसाने प्रायः गीतकार, संगीतकार की चूक के कारण बनते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता कि विख्यात फिल्म्कार भी ऐसी चूक कर बैठते। लेकिन, उनका आभामंडल इतना बड़ा होता है कि दर्शक इस चूक पर बरसों तक गौर नहीं करता है। ख़ास बात ये कि ये खामियां आम दर्शकों को तब तक पकड़ में नहीं आती, जब तक किसी की इस पर नजर न पड़े या खुद गलती करने वाला इसे न स्वीकारे! कई बार गीतकार से लिखने में गलती हो जाती है, तो कभी निर्देशक जल्दबाजी में फिल्माने में भूल कर बैठता है।   
       गीतकार हसरत जयपुरी को ऐसी चूक करने में महारथ हासिल थी। कई बार वे गालिब सहित विख्यात शायरों की पंक्तियों में हेरफेर कर अपने नाम से गीत रच चुके हैं। लेकिन, हद तब हो जाती थी, जब कई बार उनके एक अंतरे के बोल दूसरे अंतरे से मेल ही नहीं खाते, बल्कि एकदम उलट हो जाते थे। राजेन्द्र कुमार और वैजयंती माला अभिनीत फिल्म 'जिंदगी' के गीत 'पहले मिले थे सपनों में आज सामने पाया' में वे एक ऐसी भूल कर बैठे जिसे आज की भाषा में ब्लंडर कहा जा सकता है। इस गीत का पहला अंतरा कहता है 'ओ सांवली हसीना दिल तूने मेरा छीना मदहोश मंजिलों पर तूने सिखाया जीना।' जाहिर है इस अंतरे में नायिका को वे सांवली हसीना कह रहा है, हमारे यहां सांवले इंसान को गोरा तो नहीं माना जाता। पर, अगले ही अंतरे में वे सांवली नायिका को गोरी बनाकर कहते हैं 'गर झूमकर चलो तुम ऐ जान-ए-ज़िंदगानी, पत्थर का भी कलेजा हो जाए पानी-पानी, गोरे बदन पर काला आंचल और रंग ले आया, हाय कुर्बान जाऊं।' ऐसी ही चूक वे शम्मी कपूर और बबीता की फिल्म 'तुमसे अच्छा कौन है' के एक गीत में भी कर विवाद को जन्म दे चुके थे। उनके लिखे बोल 'गंगा मेरी मां का नाम बाप का नाम हिमाला अब तुम खुद ही फैसला कर लो, मई किस सूबे वाला!' जबकि, हिंदू धर्मग्रंथों में गंगा और हिमालय का रिश्ता पिता और पुत्री का है। यही कारण है कि उनके लिखे इस गीत की बहुत आलोचना हुई थी।
      कई बार गीतों की रिकॉर्डिंग में गड़बड़ियां हो जाती है। लेकिन, इनके पकड़ आने पर दोबारा गीत रिकॉर्डिंग कर उसे सुधार लिया जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि फिल्म के कलाकार अपने विवेक का उपयोग कर निर्माता को इस उलझन से बचाकर उनका पैसा भी बचा देते है। फिल्म 'बाप रे बाप' में एक गीत किशोर कुमार और आशा भोंसले ने गाया था। गीत के बोल थे 'पिया पिया पिया मोरा जिया पुकारे, हम भी चलेंगे पिया संग तुम्हारे।' इस गीत में किशोर कुमार के बाद अंतरे की दूसरी लाइन में आशा भोंसले को आलाप लेना था। लेकिन, रिकॉर्डिंग के समय जब आशा भोंसले ने पहली पंक्ति के बीच में आलाप लिया, तो उनके पास खड़े किशोर कुमार ने उनके मुंह पर हाथ रख दिया! जब गलती पकड़ में आई तो तय हुआ कि इसे दोबारा रिकार्ड कर लिया जाए। किंतु, किशोर कुमार ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि फिल्म में यह गीत उन पर ही फिल्माया जाएगा, जिसे वे दृश्य में संभाल लेंगे। जब किशोर कुमार और चांद उस्मानी पर यह गीत फिल्माया गया और पहला अंतरा आया, तो किशोर कुमार ने चांद उस्मानी को आलाप लेने को कहा। जब चांद ने आलाप लेना चाहा तो किशोर कुमार ने उनके मुंह पर ठीक वैसे ही हाथ रख दिया जैसा रिकॉर्डिंग के समय आशा भोंसले के मुंह पर हाथ रखा था। इससे पूरा दृश्य परफेक्ट बन गया और यह गलती फिल्मांकन का हिस्सा मान ली गई।
      इसी तरह देव आनंद और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है में देव आनंद से एक चूक हो गई थी। इसमें वह एक अंतरे में माला सिन्हा की लाइन पूरी होने से पहले ही वे अपनी अंगुली उनकी तरफ उठाकर अपनी लाइन गाने लगते हैं। लेकिन, इससे पहले वे गा पाते माला सिन्हा ने उनकी अंगुली पकड़कर अपनी लाइन पूरी कर दी। इसके बाद जब दूसरे अंतरे में देव आनंद का हिस्सा आता है, तो देव आनंद उसी तरह अंगुली उठाकर गाते दिखाई देते है। लेकिन, कम ही दर्शक इसे पकड़ पाए थे।
  हिन्दी सिनेमा जगत के सबसे बडे निर्माता निर्देशकों में एक महबूब खान के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता कि वे इस तरह की कोई गलती कर सकते हैं। उनसे जो गलती हुई, इस बात का उन्हें चल भी गया था, पर उन्होंने उसे सुधारा नहीं! क्योंकि, उन्हें विश्वास था कि जिस गाने में गड़बड़ी हुई, वह इतना जबरदस्त है कि दर्शक उस गलती पर ध्यान नहीं देंगे। हुआ भी ऐसा ही! इस गलती पर दर्शकों का तब तक ध्यान नहीं गया। बाद में संगीतकार नौशाद के बेटे ने एक साक्षात्कार में इस बारे में रहस्योद्घाटन किया। महबूब खान से यह गलती 'मदर इंडिया' के सबसे लोकप्रिय गीत 'दुख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे' के फिल्मांकन के दौरान हुई। शकील बदायुनी के इस गीत को नौशाद ने चार गायकों मोहम्मद रफी, मन्ना डे, शमशाद बेगम और आशा भोंसले से गवाया था। इस गीत का फिल्मांकन करने के बाद जब महबूब ने गाने के रश प्रिंट नौशाद को दिखाए तो नौशाद ने माथा पकड़ लिया। उन्होंने महबूब से कहा कि यह आपने क्या कर डाला! तब नौशाद ने बताया कि आपने चारों गायकों की आवाजों को केवल दो कलाकारों राजकुमार और नरगिस पर ही फिल्मा दिया! नरगिस पर आशा भोंसले और शमशाद बेगम की आवाज फिल्मा दी और राजकुमार पर मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज। 
     इस पर महबूब खान बेतकल्लुफ होकर कहा था कि नौशाद भाई जो होना था, वो हो गया। इस गीत को फिल्माने में मेरा बहुत पैसा और समय लगा है। अब मेरी हिम्मत नहीं है कि मैं इसे दोबारा शूट करूं। तब नौशाद ने कहा कि महबूब साहब आप इतने बड़े निर्माता-निर्देशक हैं, दुनिया आपके इस गीत को देखने के बाद क्या कहेगी! तब महबूब ने कहा था कि नौशाद साहब आपका गाना इतना पावरफुल है कि दर्शक इस बारे में सोचेगा भी नहीं! वास्तव में ऐसा हुआ भी। 'मदर इंडिया' ने हिंदी फिल्म इतिहास में बनाया। फिल्म खूब चली, लेकिन कोई भी इस गलती को पकड़ नहीं पाया।
   दरअसल, फिल्म में यह गीत राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त, कुमकुम और नरगिस पर फिल्माया जाना था। गाना आरंभ भी बैलगाड़ी में बैठे राजेंद्र कुमार, नरगिस और सुनील दत्त के साथ होता है। बीच में कैमरा राजेन्द्र कुमार से होता हुआ गाड़ी में लेटे सुनील दत्त से होते हुए बैलगाड़ी के पहिए से होता हुआ फ्लैशबैक में चला जाता है। जिसमें राजकुमार और नरगिस गाते दिखाई देते है। 'देख रे घटा घिर के आई, रस रस भर लाई' इसमें 'देख रे घटा घिर के आई'  रफी गाते हैं तो 'रस रस भर भर लाई' में मन्ना डे की आवाज है। 'छेड़ ले गोरी मन की वीणा' रफी गाते हैं तो 'रिमझिम रूत छाई' मन्ना डे की आवाज में है।  लेकिन, फिल्म में मोहम्मद रफी और मन्ना डे दोनों की एक के बाद एक आने वाली पंक्तियां राजकुमार पर फिल्मा दी गई।
  इसी तरह 'प्रेम की गागर लाए रे बादर' शमशाद बेगम की आवाज में है, तो इसके बाद की पंक्ति 'बेकल मोरा जिया होय' आशा भोंसले की आवाज में। इन दोनों गायिकाओं की आवाज को नरगिस पर ही फिल्मा दिया गया। महबूब ने इसे फ्लैशबैक में फिल्माने और वर्तमान में वापस लौटने के साथ राजेन्द्र कुमार और कुमकुम को शामिल कर इतनी तेजी से एडिट कर दिया कि दर्शक समझ ही नहीं पाया कि कौन सी पंक्ति किसने गाई है और किस पर फिल्माई गई। संभवतः यह बड़ी फिल्म की ऐसी बड़ी गलती थी, जो दर्शक सालों साल पकड़ नहीं पाए और दुख भरे दिन बीत जाने की खुशी में 'अब सुख आयो रे' के साथ इतने घुलमिल गए कि वे केवल गाने की आवाज भूलकर आंखों से सारा नजारा देखकर ही मुग्ध होते रहे।
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Friday, October 1, 2021

अब नायक की मोहताज नहीं रही नायिका!

- हेमंत पाल

   फ़िल्में देखना हमारा और आपका शौक नहीं, बल्कि जीवन का हिस्सा है। ऐसा नहीं कि जो लोग फिल्म नहीं देखते उनके जीवन में कोई अड़चन आती है, ऐसा कुछ नहीं होता पर एक खालीपन तो होता है। क्योंकि, बहुत सी ऐसी बातें हैं, जो फिल्मों से हमारे जीवन में आती है। ये शौक बरसों से चलता आ रहा है, पर अब इसमें अंतर आता जा रहा है। सबसे बड़ा बदलाव ये आया कि दर्शक अब कुछ नया देखना चाहता। नायक और नायिका के बीच प्यार, तकरार और फिर उसमें खलनायक की दखलंदाजी पर बहुत सी कहानियां गढ़ी जा चुकी है और अब दर्शक भी इससे उकता गए! उन्हें अब कथानक में कुछ नयापन चाहिए जो उनके जीवन से जुड़ा हो या उनके आसपास के सच जैसा लगे। इस मामले में सबसे बड़ा फर्क ये आया कि नायिका की भूमिका बदल गई। नायक की प्रेमिका की तक सीमित नायिका का फिल्मों में अलग अस्तित्व दिखाई देने लगा। यह भी जरुरी नहीं कि फिल्म की कहानी अब नायक पर ही आधारित हो। कई ऐसी फ़िल्में पिछले दिनों आई और आने वाली है, जिनके कथानक पूरी तरह नायिका पर केंद्रित हैं।              
       सिनेमा के इस नए सोच में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई दे रही है। नायिका की वापसी और उसके जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया। क्योंकि, आज का दर्शक नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर लाकर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। इस आईने में वह अपने आपको देखना और जानना चाहता है। नायिका केंद्रित इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया। समाज और परदे पर पुरुष, स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
  देखा जाए तो आज के संदर्भ में कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ ने सबसे पहले स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश की! ये एक आम लड़की के कमजोर होने, उसके बिखरने और फिर संभलने की अनूठी कहानी थी। इसमें फिल्मकार ने फिल्म के किरदार रानी के माध्यम से स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया। बधाई हो, बरेली की बरफी और 'शुभमंगल सावधान' जैसी विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। लेकिन, ख़ास बात यह कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी गई। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया था और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! इसमें सिर्फ नायिका जो गायिका बनना चाहती है, वही कहानी का फोकस नहीं बल्कि उसकी माँ भी है जो फिल्म के लास्ट सीन में उग्र होकर अपनी बेटी के समर्थन में पति के सामने खड़ी होती है। 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है।
      कंगना रनौत की फिल्म 'धाकड़' और परिणीति चोपड़ा की फिल्म 'द गर्ल ऑन द ट्रेन' की रीमेक को भी इसी श्रेणी की फिल्म माना जा सकता है। कंगना की फिल्म 'धाकड़' एक्शन शैली की फिल्में थी, जिसमें हीरो की कोई भूमिका। कंगना की  ही फिल्म 'पंगा' भी है, जिसका निर्देशन अश्विनी अय्यर तिवारी ने किया। इसके अलावा भूमि पेडनेकर और तापसी पन्नू की 'सांड की आंख' भी नायिका प्रधान फिल्म थी, जो शार्प शूटर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की जिंदगी पर आधारित थी। इसी तरह की एक और फिल्म 'छपाक' आई, जिसमें दीपिका पादुकोण ने एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल का किरदार निभाया था।   
  देखा जाए तो बदले दौर की फिल्मों में स्त्री पात्र शर्म, संकोच और पिछड़ेपन की कैद से निकलने लगी। अब वे कथित संभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से तब तक गाती-नाचती है, जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िन्दगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म थी। श्री देवी ने भी परदे पर अपनी वापसी के साथ 'इंग्लिश विंग्लिश' और 'मॉम' जैसी फिल्मों में काम किया था। इससे पहले भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया। लेकिन, उन फिल्मों में नायक भी अहम किरदार में था, जो अब पूरी तरह विलुप्त हो गया। डेविड गगान्हीम की 'ही नेम्ड मी मलाला', मलाला नाम की एक जुझारू लड़की कहानी है। वो लड़की जो तालिबानियों की गोलियों का शिकार इसलिए हुई, क्योंकि उसने लड़कियों की शिक्षा के अधिकार के बारे में बोलने की हिम्मत की। ये कहानी मलाला के नोबेल पुरस्कार पाने तक के सफर को दिखाती है। इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली।   
      बरसों बाद हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को अब जाकर ठीक से समझा और उसे आवाज दी। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग भी बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है। इस वजह से मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया कि बदला हुआ नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होगा! उसे कुछ नया और ठोस देना होगा जो उसे अपने आसपास का वास्तविक सा लगे! यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायिक फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलकर 'दंगल'  के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, पारिवारिक विवादों, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन के साथ कुछ जीवंत कहानियां जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे! दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और समृद्ध रूप को स्वीकार किया। कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। अब परदे पर वही चल रहा है, जिसमें कुछ नयापन है! प्रेम कहानियां, बदला और पारिवारिक विवाद तो हाशिए पर चले गए! लोग अब नायिका को भी बदले रूप में देखना चाहते हैं, जो नायक की अंकशायिनी के अलावा भी अपनी अलग पहचान रखती है। 
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