- हेमंत पाल
फ़िल्में देखना हमारा और आपका शौक नहीं, बल्कि जीवन का हिस्सा है। ऐसा नहीं कि जो लोग फिल्म नहीं देखते उनके जीवन में कोई अड़चन आती है, ऐसा कुछ नहीं होता पर एक खालीपन तो होता है। क्योंकि, बहुत सी ऐसी बातें हैं, जो फिल्मों से हमारे जीवन में आती है। ये शौक बरसों से चलता आ रहा है, पर अब इसमें अंतर आता जा रहा है। सबसे बड़ा बदलाव ये आया कि दर्शक अब कुछ नया देखना चाहता। नायक और नायिका के बीच प्यार, तकरार और फिर उसमें खलनायक की दखलंदाजी पर बहुत सी कहानियां गढ़ी जा चुकी है और अब दर्शक भी इससे उकता गए! उन्हें अब कथानक में कुछ नयापन चाहिए जो उनके जीवन से जुड़ा हो या उनके आसपास के सच जैसा लगे। इस मामले में सबसे बड़ा फर्क ये आया कि नायिका की भूमिका बदल गई। नायक की प्रेमिका की तक सीमित नायिका का फिल्मों में अलग अस्तित्व दिखाई देने लगा। यह भी जरुरी नहीं कि फिल्म की कहानी अब नायक पर ही आधारित हो। कई ऐसी फ़िल्में पिछले दिनों आई और आने वाली है, जिनके कथानक पूरी तरह नायिका पर केंद्रित हैं।
सिनेमा के इस नए सोच में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई दे रही है। नायिका की वापसी और उसके जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया। क्योंकि, आज का दर्शक नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर लाकर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। इस आईने में वह अपने आपको देखना और जानना चाहता है। नायिका केंद्रित इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया। समाज और परदे पर पुरुष, स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
देखा जाए तो आज के संदर्भ में कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ ने सबसे पहले स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश की! ये एक आम लड़की के कमजोर होने, उसके बिखरने और फिर संभलने की अनूठी कहानी थी। इसमें फिल्मकार ने फिल्म के किरदार रानी के माध्यम से स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया। बधाई हो, बरेली की बरफी और 'शुभमंगल सावधान' जैसी विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। लेकिन, ख़ास बात यह कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी गई। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया था और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! इसमें सिर्फ नायिका जो गायिका बनना चाहती है, वही कहानी का फोकस नहीं बल्कि उसकी माँ भी है जो फिल्म के लास्ट सीन में उग्र होकर अपनी बेटी के समर्थन में पति के सामने खड़ी होती है। 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है।
कंगना रनौत की फिल्म 'धाकड़' और परिणीति चोपड़ा की फिल्म 'द गर्ल ऑन द ट्रेन' की रीमेक को भी इसी श्रेणी की फिल्म माना जा सकता है। कंगना की फिल्म 'धाकड़' एक्शन शैली की फिल्में थी, जिसमें हीरो की कोई भूमिका। कंगना की ही फिल्म 'पंगा' भी है, जिसका निर्देशन अश्विनी अय्यर तिवारी ने किया। इसके अलावा भूमि पेडनेकर और तापसी पन्नू की 'सांड की आंख' भी नायिका प्रधान फिल्म थी, जो शार्प शूटर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की जिंदगी पर आधारित थी। इसी तरह की एक और फिल्म 'छपाक' आई, जिसमें दीपिका पादुकोण ने एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल का किरदार निभाया था।
देखा जाए तो बदले दौर की फिल्मों में स्त्री पात्र शर्म, संकोच और पिछड़ेपन की कैद से निकलने लगी। अब वे कथित संभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से तब तक गाती-नाचती है, जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िन्दगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म थी। श्री देवी ने भी परदे पर अपनी वापसी के साथ 'इंग्लिश विंग्लिश' और 'मॉम' जैसी फिल्मों में काम किया था। इससे पहले भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया। लेकिन, उन फिल्मों में नायक भी अहम किरदार में था, जो अब पूरी तरह विलुप्त हो गया। डेविड गगान्हीम की 'ही नेम्ड मी मलाला', मलाला नाम की एक जुझारू लड़की कहानी है। वो लड़की जो तालिबानियों की गोलियों का शिकार इसलिए हुई, क्योंकि उसने लड़कियों की शिक्षा के अधिकार के बारे में बोलने की हिम्मत की। ये कहानी मलाला के नोबेल पुरस्कार पाने तक के सफर को दिखाती है। इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली।
बरसों बाद हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को अब जाकर ठीक से समझा और उसे आवाज दी। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग भी बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है। इस वजह से मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया कि बदला हुआ नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होगा! उसे कुछ नया और ठोस देना होगा जो उसे अपने आसपास का वास्तविक सा लगे! यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायिक फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलकर 'दंगल' के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, पारिवारिक विवादों, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन के साथ कुछ जीवंत कहानियां जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे! दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और समृद्ध रूप को स्वीकार किया। कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। अब परदे पर वही चल रहा है, जिसमें कुछ नयापन है! प्रेम कहानियां, बदला और पारिवारिक विवाद तो हाशिए पर चले गए! लोग अब नायिका को भी बदले रूप में देखना चाहते हैं, जो नायक की अंकशायिनी के अलावा भी अपनी अलग पहचान रखती है।
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