Friday, August 26, 2022

दक्षिण की बैसाखियों पर टिका हिंदी सिनेमा!

- हेमंत पाल 
     न दिनों मुंबई फिल्म इंडस्ट्री संक्रमण के दौर से गुजर रही है। दर्शक फिल्मों को लगातार नकार रहे हैं। ये स्थिति कोरोना काल के बाद कुछ ज्यादा बढ़ी। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अपेक्षा के मुताबिक कमाई नहीं की। जबकि, कोरोना काल से पहले ऐसा नहीं था! फिर ऐसा क्या हुआ कि दर्शकों को हिंदी सिनेमा रास नहीं आ रहा! यदि ये सवाल उछाला जाए, तो जवाब में कई कारण गिनाए जा सकते हैं! लेकिन, इसका सबसे सही जवाब यह है, कि दर्शकों ने कोरोना संक्रमण के समय हिंदी सिनेमा की असलियत जान ली, कि यह पूरी तरह साउथ की रीमेक फिल्मों पर टिका है। फिल्मों के शौकीनों ने घरों में रहकर साउथ की इतनी फ़िल्में देखी कि हिंदी फिल्मों में खामी साफ़ नजर आने लगी! साउथ की फिल्मों में उन्हें इतनी नई कहानियां दिखाई दी, कि हिंदी में उस तरह के कथानक की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इस बात को नजरअंदाज नहीं जा सकता कि हिंदी फिल्मकारों के पास अब ऐसी कहानियों का भारी अभाव है, जो दर्शकों को लुभाए और उन्हें बांधकर रखे! वास्तव में हिंदी फ़िल्में उनकी घिसी पिटी लीक के कारण दर्शकों को रास नहीं आ रही! हिंदी फिल्मकारों में इतना साहस भी नहीं है, कि वे कोई नया प्रयोग करके फिल्म बना सकें। दर्शकों ने जब ओटीटी पर साउथ की ओरिजनल फ़िल्में देखी, तो उन्हें समझ आया कि कथानक के मामले में हिंदी इंडस्ट्री बहुत पीछे है।    
      हिंदी फिल्मों में अच्छी कहानियों का अभाव का सबसे बड़ा प्रमाण यह माना जा सकता है कि आने वाले दिनों में हिंदी की दर्जनों फिल्में साउथ और हॉलीवुड की रीमेक होगी। इनमें तेलुगू फिल्म की रीमेक राजकुमार राव और सान्या मल्होत्रा की हिट 'द फर्स्ट केस' से लेकर अक्षय कुमार की 'मिशन सिंड्रेला' तक कई फिल्में शामिल हैं। जबकि, अक्षय की 'मिशन सिंड्रेला' तमिल की हिट फिल्म 'रत्सासन' की रीमेक है। दरअसल, शाहिद कपूर की रीमेक 'जर्सी' जिस तरह पिटी उससे इस बात का इशारा मिल गया कि अब रीमेक का जमाना चुक गया है! दर्शक अब बजाए रीमेक के अच्छे कंटेंट वाली हिंदी में डब पुष्पा, आरआरआर और 'केजीएफ 2' फिल्मों को देखना ज्यादा पसंद करने लगे। अगर तेलुगू की ओरीजनल 'जर्सी' को हिंदी में डब कर रिलीज किया जाता, तो 10 लाख का ही खर्च आता! जबकि, इसका रीमेक बनाने में 100 करोड़ फूंक दिए। बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर और 'केजीएफ 2' जैसी साउथ की फिल्मों के हिंदी डब की अपार सफलता के बाद कोई साउथ का फिल्मकार अब अपनी हिट फिल्मों के रीमेक राइट्स भी हिंदी वालों को शायद नहीं बेचेगा! क्योंकि, हर मामले में हिंदी फिल्मकार साउथ से पिछड़ रहे हैं।  
     अब हिंदी के दर्शकों को साउथ की फिल्मों के कथानक के साथ वहां के कलाकार भी पसंद आने लगे! इससे हिंदी फिल्मकारों के साथ यहां के कलाकारों सामने भी संकट आ गया! उनका ये भ्रम भी टूट गया कि वे कैसी भी फ़िल्में करें, उन्हें चाहने वाले दर्शक उनके लिए सिनेमाघर तक जरूर आएंगे। अब तो हिंदी इलाके में साउथ के कलाकार भी उतने ही पसंद किए जाने लगे, जितने कभी हिंदी फिल्मों के थे। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि आखिर कैसी फिल्म बनाई जाए, जिसे हिंदी दर्शक पसंद करें। जब साउथ की फिल्मों का बाजार उत्तर भारत में अच्छा खासा बन गया, तो वे नहीं चाहेंगे कि उनकी हिट फिल्मों को हिंदी में बनाने का प्रयोग हो! सीधा सा आशय यह कि साउथ की फिल्मों के रीमेक अधिकार देने के बजाए वे उस फिल्म को हिंदी में डब करके रिलीज करना ज्यादा पसंद करेंगे। वास्तव में तो हिंदी के दर्शकों को अच्छा कंटेंट चाहिए! फिर वो किसी भी भाषा से मिले और उस कथानक को कोई भी कलाकार निभाएं! उन्हें न तो विषय से परहेज है और न किसी चेहरे से! तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम की फिल्मों ने हिंदी के दर्शकों को पिछले दो साल में बहुत ज्यादा प्रभावित किया और इसका असर दिखाई भी देने लगा। 
     कोरोना काल के लम्बे दौर में जब सिनेमाघर बंद थे और मनोरंजन के माध्यम सीमित हो गए थे, तब दर्शकों ने मज़बूरी में ओटीटी देखना शुरू किया! वेब सीरीज के साथ दर्शकों ने साउथ की डब की फ़िल्में भी खूब देखी! तब उन्हें महसूस हुआ कि जिस तरह वेब सीरीज सिर्फ कंटेंट से चलती है, उसी तरह की स्थिति साउथ की फिल्मों के साथ भी है। कंटेंट ही सबसे बड़ा हीरो है, उससे बड़ा कोई नहीं! वहां की फिल्में हिंदी में डब होकर ओटीटी पर दिखाई देने लगी, तो उनके हिंदी रीमेक के लिए फिल्मकारों को दर्शक जुटाना मुश्किल हो गया।
    शाहिद की रीमेक फिल्म 'जर्सी' को कम दर्शक मिलना और अब अक्षय कुमार की साउथ रीमेक पर सवालिया निशान लगना ऐसे ही नए संकट का संकेत है। वो भी ऐसी स्थिति में जब साउथ की कई हिट फिल्मों के अधिकार लेकर उसे हिंदी में बनाया जा रहा है। अक्षय कुमार ने तमिल की ओटीटी पर रिलीज हुई फिल्म 'सुरारई पोटरु' के हिंदी रीमेक की घोषणा की, तो उन्हें अपने चाहने वालों की नाराजगी का शिकार होना पड़ा। इसके पीछे उनका यह कहना सही भी है कि वे इस फिल्म वे देख चुके हैं, इसलिए अब उन्हें कुछ नया चाहिए। सूर्या की 'सुरारई पोटरु' हिंदी में 'उड़ान' नाम से डब होकर ओटीटी पर भी आ चुकी है। 
     ये नहीं कहा जा सकता कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में रीमेक कोई नया चलन है। हिंदी सिनेमा के शुरुआती काल से ही ये चल रहा है। फर्क बस इतना आया कि दो दशकों में रीमेक फ़िल्में ज्यादा बनने लगी। 70 और 80 के दशक में तो साउथ में हिंदी की हिट फिल्मों के रीमेक बनते थे, जिसमें वहां के सुपर स्टार एमजी रामचंद्रन जैसे कलाकार दिखाई देते थे। पर, समय के साथ ट्रेंड बदलता गया और अब हालात ये हैं कि हिंदी की ज्यादातर फिल्में साउथ इंडस्ट्री की ही रीमेक होती हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो 'राम और श्याम' पहली फिल्म थी, जो तेलुगु फिल्म 'रामूडू भीमुडू' की रीमेक थी। उसके बाद जितेंद्र ने ही अकेले 50 से ज्यादा रीमेक फिल्मों में काम किया। आधिकारिक रीमेक को छोड़ दिया जाए, तो ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिन्हें हिंदी में हॉलीवुड या साउथ की नक़ल और थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ बनाया गया। जिन फिल्मों की नक़ल बेहतर नहीं थी, उनकी चोरी पकड़ी गई। निर्माता संजय गुप्ता ने 2003 में 'ओल्ड बॉय' को देखकर हिंदी में 'जिंदा' बनाई। मगर, अवैध नक़ल की वजह से उन्हें मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। 
      1990 के दशक में रीमेक का चलन ज्यादा नहीं चला। क्योंकि, उस समय हिंदी के ज्यादातर फिल्मकार रोमांटिक फिल्मों की बाढ़ में बह गए। लेकिन, 2000 में 'हेरा-फेरी' ने रीमेक फिल्मों के ट्रेंड को फिर हवा दी। यह 1989 में रिलीज हुई 'रामजी राव' की रीमेक थी। साढ़े 7 करोड़ में बनी इस फिल्म ने हिंदी में 20 करोड़ का कारोबार किया था। इसके बाद ऐसी कई फ़िल्में जैसे गरम मसाला, हलचल, भागम भाग, दे दना दन, चुप चुप के लगातार बनी और उन्होंने अच्छा कारोबार भी किया। ये सभी साउथ की फिल्मों की रीमेक थी। लेकिन, साउथ की फिल्मों की रिमेक के ट्रेंड में सबसे बड़ी उछाल 'गजनी' और 'वांटेड' ने मारी। आमिर खान की फिल्म 'गजनी' तमिल की ओरिजनल फिल्म 'गजनी' का ही रीमेक थी। जिसने हिंदी फिल्मों की कमाई को सबसे पहले 100 करोड़ कमाने का फार्मूला दिया। तेलुगू फिल्म 'पोकीरी' का रीमेक बनी सलमान खान की 'वांटेड' ने 83 करोड़ की कमाई की।
     ऐसा नहीं कि दक्षिण की फिल्मों का रीमेक हिंदी का हिट फार्मूला है! कई रीमेक फ़िल्में भी फ्लॉप हुईं हैं। संजय दत्त की फिल्म 'पुलिसगिरी' बाॅक्स आफिस पर खास कमाल नहीं कर पाई। ये साउथ की फिल्म 'सामी' का हिंदी रीमेक थी, जिसने बाॅक्स आफिस पर बड़ी सफलता हासिल की थी। इसके अलावा हंगामा-2, लक्ष्मी, जय हो, रन जैसी फिल्में साउथ ही की हिट फिल्मों का रीमेक थी, पर ये बॉलीवुड में फ्लॉप साबित हुईं। जाह्नवी कपूर की आने वाली फिल्म 'गुड लक जेरी' तमिल फिल्म 'कोलामावु कोकिला' की रीमेक है। सलमान खान की अपकमिंग फिल्म 'कभी ईद कभी दिवाली' भी तमिल फिल्म 'वीरम' की रीमेक है।
    कोरोना के चलते साउथ की कई पुरानी हिट डब फिल्मों को दर्शकों ने ओटीटी पर देख लिया। इनमें जय भीम, कर्णन, उड़ान, विक्रम वेधा और 'जर्सी' जैसी सुपरहिट फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं। अब हिंदी इंडस्ट्री इनमें से किसी का हिंदी रीमेक बनाएंगे, तो उसका हश्र 'जर्सी' के रीमेक की तरह होने के पूरे आसार है। अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा' के हिट होने के बाद उनकी फिल्म 'अला वैकुंठपुरमलो' को भी उसके निर्माता हिंदी में डब करके रिलीज करना चाहते थे। लेकिन, ऐन मौके पर कार्तिक आर्यन की इस साल रिलीज होने वाली फिल्म 'शहजादा' के निर्माताओं ने इसे कुछ हर्जाना देकर रुकवाया। क्योंकि, कार्तिक की 'शहजादा' भी 'अला वैकुंठपुरमलो' का ही रीमेक है। निर्माताओं को डर था कि ओरिजिनल देखने के बाद उनकी रीमेक देखने सिनेमाघरों तक कौन जाएगा और क्यों! देखने वालों ने ओटीटी पर तेलुगू में उपलब्ध 'अला वैकुंठपुरमुलो' को इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देख लिया है। अजय देवगन की 'दृश्यम' को चाहने वालों ने इसकी ओरिजिनल मलयालम फिल्म के दूसरे पार्ट 'दृश्यम-2' को इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देख लिया। जबकि, हिंदी में इसकी शूटिंग शुरू हो चुकी है।
      आने वाली सुपरहिट 'विक्रम वेधा' की रीमेक में रितिक रोशन और सैफ अली खान नजर आएंगे, लेकिन ऑरिजिनल 'विक्रम वेधा' को भी दर्शक देख चुके हैं। पिछली होली पर आई अक्षय कुमार की फिल्म 'बच्चन पांडे' को दर्शकों ने इसीलिए नकारा, क्योंकि यह भी एक तमिल फिल्म की रीमेक थी। आने वाले दिनों में अक्षय कुमार और इमरान हाशमी की फिल्म 'सेल्फी' भी एक मलयालम फिल्म का ही रीमेक है। सलमान खान की भी ज्यादातर फिल्में साउथ का रीमेक हैं। इनमें वांटेड के अलावा तेरे नाम, रेडी, किक, जैसी कई फिल्में हैं। ये सारी फिल्में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषा की ही रीमेक हैं। इसके अलावा कई एक्टर्स ऐसे रहे जिनकी फिल्में रीमेक के नाम पर ही चलती रही हैं। रोहित शेट्टी के निर्देशन और रणवीर सिंह की 'सिंबा' भी जूनियर एनटीआर की ब्लॉकबस्टर 'टेम्पर' का ही रीमेक थी। अब यह पूरी तरह साफ़ हो गया कि जब पुरानी फिल्मों को सिनेमाघरों में लाया जा रहा, तो भविष्य में साउथ की फ़िल्में सीधे शायद हिंदी में न आए। यानी बॉलीवुड के मार्केट पर दक्षिण के सितारों का दबदबा बढ़ेगा। इससे बॉलीवुड का रीमेक फ़ॉर्मूला पूरी तरह से ख़त्म होता नजर आ रहा है। 
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Friday, August 19, 2022

'बॉयकॉट' नया शब्द, पर फिल्मों के विरोध का इतिहास पुराना!

- हेमंत पाल

   फिल्म इंडस्ट्री को जन्मे सौ साल से ज्यादा समय हो गया। मनोरंजन के इस सफर में सिनेमा ने कई विवादों का सामना किया। कुछ विवाद तार्किक थे, कुछ बेवजह खड़े किए गए! कई फिल्मों को बनने के बाद उनकी रिलीज को रोक दिया गया, कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनी जिन्हें सेंसर ने ही पास करने से मना कर दिया। ऐसा भी हुआ कि दर्शकों ने फिल्म रिलीज होने के बाद सामाजिक कारणों से इन फिल्मों पर आपत्ति उठाई! ऐसे में फिल्मों को सिनेमाघरों से उतार दिया या दर्शकों ने पोस्टर फाड़कर डिस्ट्रीब्यूटर्स को इसके लिए मजबूर कर दिया गया। इसके अलावा भी कई कारण रहे, जब फिल्मों के सामने आपत्तियां आई! इन्हीं में से एक कारण है फिल्मों का बॉयकॉट, जो इन दिनों खासी चर्चा में है। 
   किसी फिल्म को क्यों बॉयकॉट का सामना करना पड़ता है, इसका कोई एक जवाब नहीं है! दर्शक बरसों से अलग-अलग कारणों से फिल्मों को नकारते आए हैं! लेकिन, फ़िलहाल सोशल मीडिया के कारण बॉयकॉट आसान हो गया और इसका असर भी ज्यादा दिखाई देने लगा। तार्किक आधार पर फिल्मों का विरोध तो होता आया! पर, किसी फिल्म या उसके कलाकारों का विरोध करके 'बॉयकॉट' शब्द को सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना नई बात है। इसके ट्रेंड होने से फिल्मों को करोड़ों का नुकसान हो रहा। कई सेलिब्रिटी इस ट्रेंड का ऐसा शिकार हुए और उनकी सभी फिल्मों को ठुकराया जाने लगा। कोई ये नहीं समझ रहा कि किसी फिल्म के बॉयकॉट से सिर्फ एक सेलिब्रिटी पर ही असर नहीं पड़ता! फिल्म से जुड़े हजारों लोगों पर उसका अलग-अलग तरह से प्रभाव पड़ता है। इसमें उस धर्म और समाज के भी लोग होते हैं, जिस समाज के लोग बॉयकॉट का नारा बुलंद करते हैं। 
   सत्यम शिवम सुंदरम, राम तेरी गंगा मैली, सिद्धार्थ और 'इंसाफ़ का तराजू' जैसी फ़िल्में जब रिलीज हुई थी, तो इनका भी विरोध हुआ। पर, सबके कारण अलग-अलग कारण रहे। 'एन इवनिंग इन पेरिस' में जब शर्मीला टैगोर ने बिकनी पहनी तो दर्शकों ने उंगली उठाई थी। संजय दत्त का जब मुंबई बम कांड में नाम आया, तब भी लोगों ने उनकी रिलीज फिल्म 'खलनायक' के पोस्टर फाड़कर फिल्म को उतारने पर मजबूर कर दिया था। मेवाड़ की रानी पद्मावती के जीवन पर बनी फिल्म 'पद्मावत' को लेकर भी बड़ा विरोध उभरा! फिल्म की रिलीज को रोकना पड़ा और फिल्म का नाम भी बदला गया। इसलिए कि इस फिल्म के एक सीन में मुगल राजा अलाउद्दीन खिलजी के रानी पद्मावती के प्रति गंदे और अश्लील विचारों को फिल्माया गया था। फिल्माई गई इन घटनाओं को कई इतिहासकारों ने सच भी बताया। लेकिन, राजस्थान के कई राजपूत समाजों को इससे ठेस पहुंची थी।
    सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद 'नेपोटिज्म' शब्द सामने आया और इसके साथ ही ऐसी फिल्मों का विरोध हुआ, जिसमें फिल्म वालों के बेटे-बेटियां काम कर रही थी। एक फिल्म अभिनेत्री राधिका आप्टे को उनके बोल्ड व्यवहार की वजह से बॉयकॉट सहना पड़ा था। उनकी फिल्मों लस्ट स्टोरीज, हंटर और 'पर्चड' को दर्शकों ने नकार दिया था। लेकिन, पिछले संदर्भों में अभी तक ऐसा नहीं देखा गया कि धार्मिक कारणों या पुराने मुद्दों को उठाकर एक्टर्स के खिलाफ बॉयकॉट की आवाज उठी हो! पर, ये अब ये हो रहा है। इस साल के आठ महीनों में परदे पर उतरी 29 फिल्मों में से 26 फ़िल्में नहीं चलीं। सभी का तो बॉयकॉट नहीं हुआ, पर जिन भी फिल्मों के खिलाफ आवाज उठी, उन्हें दर्शकों ने नकार दिया। इसके ताजा उदाहरण है अक्षय कुमार की 'रक्षा बंधन' और आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' जो इसलिए नहीं चली कि इसके कलाकार या कहानीकार ने धार्मिक टिप्पणी की थी। 
    फिल्म अच्छी नहीं थी, कहानी में दम नहीं था या उसमें कोई कमजोरी थी, इस बात का कोई जिक्र नहीं कर रहा! फिल्म के न चलने का कारण सिर्फ बॉयकॉट माना जा रहा है! दोनों फिल्मों के साथ ऐसा कुछ नहीं है, जिसे बॉयकॉट का कारण तार्किक कारण माना जाए! कई बार कहा जाता है, कि बॉलीवुड की फिल्मों का बायकॉट होना चाहिए। क्योंकि, यहां नेपोटिज्‍म है, असली कहानियां दिखाई नहीं देती! फिर भी जब बात नहीं बनी, तो इसे अलग रंग दिया जाने लगा। कहा गया कि बॉयकॉट इसलिए होना चाहिए, क्योंकि नायक और नायिका देशहित में नहीं सोचते, वो धर्म विशेष को जानबूझकर बदनाम करते हैं। अलग संदर्भ में दिए उनके बयानों को तोड़-मरोड़कर फिल्म के विरोध का कारण बनाकर बॉयकॉट की आवाज उठाई जाती है। जब फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो जाती है, तो कॉलर खड़ी करके उसका श्रेय भी लिया जाता है!
      हाल के सालों में 2010 में शाहरुख़ खान की फिल्म 'माई नेम इस खान' से इस तरह का विरोध शुरू हुआ था। कारण बताया गया कि उन्होंने आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को खिलाए जाने का समर्थन किया और अपनी टीम में उनको जगह दी थी! जबकि, 2008 में हुए 26/11 हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा था। जब उनकी फिल्म 'माय नेम खान' रिलीज हुई, तो लोगों ने इसका विरोध किया। 2015 में आमिर खान ने असहिष्णुता पर बयान दिया था। आमिर खान ने दिल्ली में हुए एक आयोजन में बयान देते हुए कहा था 'उनकी पत्नी को भारत में डर महसूस होता है और वे विदेश सेटल होना चाहते हैं।' विवाद इतना बढ़ा और आमिर का विरोध किया जाने लगा। आमिर का सपोर्ट करने वालों की फिल्में बायकॉट की जाने लगी। 2020 में सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद स्टार किड्स और उनकी फिल्मों को बायकॉट किया गया, जिससे कई फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हुईं। 
   फिल्मों का विरोध करने का सिलसिला नया नहीं, बल्कि आजादी के पहले से चला आ रहा है! ये वो दौर था, जब फिल्म इंडस्ट्री को ब्रिटिश सेंसर बोर्ड पास करता था। आज बायकॉट का शोर सोशल मीडिया के जरिए चलता हो, पर उस दौर में ऐसा कोई माध्यम नहीं था। आजादी के बाद तमिल एक्ट्रेस टीपी राजलक्ष्मी ने 'इंडिया थाई' (भारत माता) फिल्म बनाई, तो ब्रिटिश सेंसर ने इसे रिलीज होने से रोक दिया था। काफी विवाद भी हुआ, पर फिल्म रिलीज नहीं हुई। इसके बाद मृणाल सेन के निर्देशन में बनी 'नील अकाशर नीचे' पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे राजनीतिक विरोध बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बैन किया था। इस फिल्म में दिखाया था कि कैसे नेता अपने पावर का इस्तेमाल करके नीचे तबके के लोगों को नुकसान पहुंचाते हैं। मामला संवेदनशील होने पर नेहरू ने इसकी रिलीज को रोक दिया, फिर तीन महीनों बाद इसे रिलीज किया गया। 1967 में 'एन इवनिंग इन पेरिस' में शर्मिला टैगोर की बिकनी ने भारी हंगामा किया था। इस फिल्म पर भारतीय संस्कृति को खराब करने के आरोप लगे! फिल्म बैन करने की मांग भी हुई। लेकिन, इस विवाद का फिल्म पर कोई असर नहीं पड़ा। बाद में तो कई नायिकाओं ने फिल्मों में बिकिनी पहनी। हिमाचल प्रदेश के एक व्यक्ति ने राज कपूर की 1978 में आई फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' पर उसके बोल्ड कंटेंट को लेकर रोक लगाने की मांग की थी। राज कपूर की ही फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।  
     फिल्म देखकर विरोध करना अलग बात है, पर फिल्म की शूटिंग से ही उसका विरोध शुरू होने लगे, ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही संभव है। समलैंगिकता पर बनी दीपा मेहता की फिल्म 'वाटर' (2005) के सेट पर इस वजह से तोड़फोड़ की गई थी। जेएनयू के प्रोटेस्ट में शामिल होने के कारण दीपिका पादुकोण की फिल्म 'छपाक' (2019) बॉक्स ऑफिस पर अच्छे कारोबार से पिछड़ गई थी। सोशल मीडिया पर दीपिका का बायकॉट होने से इसका सीधा असर फिल्म के बिजनेस पर पड़ा था। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से ही नेपोटिज्म का मुद्दा सुर्खियों में रहा। उस वक़्त स्टार किड्स की ज्यादातर फिल्मों को बायकॉट किया गया। जब आलिया भट्ट की फिल्म 'सड़क-2' रिलीज हुई तो बायकॉट के चलते बुरी तरह पिट गई। ट्रेलर रिलीज होते इसे 5.3 मिलियन डिसलाइक मिले थे। 
    कौन सी फिल्म दर्शकों के लिए सही है, इसका फैसला हमेशा से सेंसर बोर्ड करता रहा है। लेकिन, जब सेंसर बोर्ड को फिल्म भड़काऊ, विवादित कंटेंट वाली या भावनाएं आहत करने वाली फिल्मों को अनदेखी करके पास करता है, तो इसका फैसला अब दर्शक करने लगे! वे सेंसर बोर्ड से पास होने के बावजूद प्रतिबंध की मांग करती है। इसका कारण हिंसक कंटेंट, धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले दृश्य या इतिहास तोड़-मरोड़कर पेश करना होता है। लेकिन, कई ऐसे मामले हैं, जब फिल्म में कुछ भी विवादस्पद न होने के बावजूद सिर्फ कलाकारों से जुड़ी कंट्रोवर्सी के कारण फिल्मों का बायकॉट किया जा रहा है, जो सही नहीं कहा जा सकता। आलिया भट्ट की फिल्म 'डार्लिंग' के कॉन्सेप्ट से भी लोगों को आपत्ति है। इस फिल्म में मनोरंजन के नाम पर पुरुषों को प्रताड़ित किया गया है। ये फिल्म ओटीटी पर रिलीज हुई और पसंद भी की गई! यदि सिनेमाघर में इसे लगाया जाता तो निश्चित रूप से उसे अब तो बॉयकॉट का शिकार होना पड़ता! दरअसल, हर बार बॉयकॉट सही नहीं होता और न उसके पीछे सार्थक वजह ही होती है! राजनीति भी बॉयकॉट का कारण बन गया! 
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Thursday, August 18, 2022

बांध का पानी उतरा, पर सवाल अभी जिंदा!

- हेमंत पाल


   अपनी नीतियों, फैसलों और समाजसेवी क़दमों पर तालियां बजवाने वाली मध्यप्रदेश की सरकार धार जिले के कारम बांध की रिसन पर खामोश है! सरकार इसलिए खुश है कि उसने बिना जन हानि या पशु हानि के बांध को फोड़कर सारा पानी निकाल दिया। बांध से लगातार 36 घंटे तक बहकर पानी नर्मदा नदी में समाहित हो गया। इस तरह बांध का पानी तो खाली हो गया, पर सवाल खड़े हो गए! ऐसे सवाल जिनके जवाब न तो सरकार के पास हैं न जल संसाधन विभाग के अफसरों के पास! 
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     धार जिले की धरमपुरी तहसील के कोठीदा-भारुडपुरा में करीब 304 करोड़ की लागत वाले इस निर्माणाधीन बांध में पहली बारिश में रिसाव हो गया था। इस मध्यम सिंचाई परियोजना के बांध के दाएं हिस्से में 500-530 के बीच डाउन स्ट्रीम की मिट्टी फिसलने और रिसन से बांध खतरे में आ गया। इस बांध की लंबाई 590 मीटर और ऊंचाई 52 मीटर है। जब बांध में रिसन शुरू हुई, तब इसमें 15 एमसीएम पानी जमा था। सारी कोशिशों के बाद जब रिसन को रोका नहीं जा सका, तो तीन दिन बाद उसे फोड़ना ही पड़ा! क्योंकि, 16 गांवों की 22 हजार जिंदगियों का सवाल था। 50 घंटे में 6 पोकलेन मशीन लगाकर 30 लाख से ज्यादा खर्च करके नहर बनाई गई और पानी को खाली किया गया। ये तो वो स्थितियां हैं, जो बनी!
   पर, सवाल उठता है कि जब बांध अधूरा था, तो उसे पूरा क्यों भरा गया! किसी आपात स्थिति में बांध का पानी निकालने के लिए इंतजाम क्यों नहीं किए गए! इसके अलावा जिसने भी सरकार से सवाल पूछने की कोशिश की, उसे समझाने की कोशिश की गई कि अभी संकटकाल है, इसलिए जनहित में कोई सवाल मत करो। जबकि, इस लीकेज ने बांध निर्माण में हुए भ्रष्टाचार की सारी परतें उघाड़ दी। ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब देने को कोई तैयार नहीं। इन दलीलों की आड़ ली गई कि अभी दोषियों को ढूंढने के बजाए लोगों की जान बचाना जरूरी है। अब बांध का पानी उतर गया, 16 गांव के जो 22 हज़ार लोग अपने घरों से हटाए गए थे, वो वापस घरों को पहुंच गए! अब संकट की वो घड़ी भी टल गई, जिसकी आड़ में सवालों से बचा जा रहा था। आशय यह कि अब सरकार को 304 करोड़ के बांध की बर्बादी का जवाब ढूँढना होगा! क्योंकि, बांध की रिसन से सरकार के सामने आई मुसीबत तात्कालिक थी, सवाल तो अब उठेंगे कि ये हालात कैसे बने और क्यों बने!   
    कोई भी यह बताने को तैयार नहीं कि निर्माणाधीन बांध भरने की मज़बूरी क्या थी! 10 किमी के कैचमेंट एरिया में जब जलस्तर बढ़ने लगा तो बांध में नहर के लिए बनाए गए वॉल्व क्यों नहीं खोले गए। हद यह कि बांध का निर्माण भी दिल्ली की एएनएस कंस्ट्रक्शन कंपनी से कराया गया, जिसे पांच साल पहले पवई बांध निर्माण में लापरवाही के आरोपाें के चलते सस्पेंड किया गया था। बांध का जलस्तर बढ़ने की बात विभाग को पहले से पता थी। ठेकेदार की तकनीकी खामी भी सामने आ गई थी कि बांध के अंदर पाल पर मिट्‌टी बिछाते समय 12 मीटर बाद मूरम की पिचिंग की गई! लेकिन, दूसरी तरफ भी मुरम नहीं लगाई। लीकेज होने पर वॉल्व खोलने की कोशिश की, तो मेंटेनेंस नहीं होने से 48 में से 24 नट ही खुल सके।
   बांध के मुद्दे पर चार दिन सरकार और प्रशासन हर स्तर पर परेशान रहा। धार और खरगोन जिले के 16 गांव के लोगों को घरों से हटाकर सुरक्षित जगह भेजा गया। कैनाल खोदकर पानी का रास्ता बनाया गया और फिर बांध को फोड़कर पानी बहाया गया! सरकार और प्रशासन अब इसलिए खुश हैं, कि सब ठीक हो गया! पर, क्या ये सोच सही है। आखिर सरकार अपनी ही गलती पर खुशियां कैसे मना सकती है। विपक्ष के सवालों पर जनता की सुरक्षा का बहाना बनाकर जवाब को ज्यादा दिन नहीं टाला जा सकता! विधानसभा में तो सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह ने बांध स्थल का दौरा करने के बाद कहा था कि प्रदेश में भाजपा सरकार घोटालों की सरकार है। इनके कार्यकाल में सैकड़ों घोटाले हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि यही एक बांध नहीं, कई योजनाएं भ्रष्टाचार का भेंट चढ़ गई। उनका कहना था कि कारम बांध बना रही कंपनी का नाम पहले भी निविदाओं से छेड़छाड़ करके घोटाला करने में आया था। इस कारण कंपनी को 'ब्लैक लिस्ट' कर दिया था। लेकिन, भाजपा सरकार ने इस कंपनी को 'ब्लैक लिस्ट' से हटाकर उसे फिर बांध को बनाने का काम दे दिया।
    जो हुआ वो अचानक नहीं हुआ ये होना था, इसलिए हुआ! अब जानकार इस बात के कारण खोज लेंगे कि बांध में रिसन क्यों आई। जबकि, वास्तव में सीधा-सीधा मुद्दा है कि 304 करोड़ के कारम बांध में बड़ी लापरवाही सामने आई। स्थानीय लोगों ने पहले ही इस मामले की शिकायत प्रशासन से लगाकर सरकार के अधिकारियों तक से की, पर कोई जांच नहीं करवाई गई। एक स्थानीय व्यक्ति के वायरल हुए वीडियो में भी ये सब बातें खुलकर सामने आई! लेकिन, सरकार का इस पर कोई जवाब नहीं आया! ये वीडियो ठेठ ग्रामीण का था, उसकी जानकारी भी सीमित जरूर थी, पर गलत नहीं! उस व्यक्ति ने सवाल उठाए कि बांध का निर्माण मिट्टी में पत्थरों को दबाकर किया गया। इससे बांध की दीवार पर पानी का दबाव बढ़ेगा और बांध के टूटने की संभावना बढ़ेगी! वही सब हुआ भी, पर किसी अधिकारी ने उस अंजान ग्रामीण से बात करने और उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की।  
     304 करोड़ की लागत से बनने वाले बांध की पार में मोटी दरार आने और बांध को टूटने से बचाने के लिए 40 करोड़ खर्च करने के बाद धार और खरगोन जिले के 18 गांव के नागरिकों पर से खतरा टल गया। अब समीक्षा और सरकार से जवाब तलब का समय शुरू होगा। इस बांध के टेंडर में गड़बड़ी का खुलासा 2018 में ही हो गया था। लेकिन, न तो कमलनाथ सरकार ने कोई कार्रवाई की और न सरकार बदलने के बाद शिवराज सिंह चौहान सरकार ने। यदि जान, माल का नुकसान होता तो सरकार के सामने लेने के देने पड़ जाते। सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है, कि इतनी बड़ी घटना के बावजूद इस पर परदा डालने की कोशिश की जा रही है। कहा जा रहा है कि जांच कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई करेंगे। सरकार ने सारे प्रयास करने के बाद टोने-टोटके भी करवाए! दो सुहागन महिलाओं से बांध की पूजा करवाई गई, ताकि बांध फूटने का संकट टल जाए। ये टोटके इस बात का संकेत भी हैं कि सरकार अंदर से कितना घबराई हुई है!
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Monday, August 15, 2022

बंटवारे के दर्द को हवा देती कुछ फ़िल्में

हेमंत पाल

     हम जिस दिन अपनी आजादी का जश्न मनाते हैं, उसके एक दिन पहले हमारे दिल बंटवारे के दर्द सालता है। एक देश के दो टुकड़े होने का मतलब सिर्फ जमीन के टुकड़े का बंटवारा नहीं होता, बल्कि लोगों के रिश्ते बदलते हैं, घर की छत छूटती है और बरसों की दोस्ती भी टूटती है। ये किस्से-कहानियों की बात नहीं, सच्चाई थी जिसे पीढ़ियों ने बरसों तक भोगा है। लेकिन, उस पीड़ा को जिन लोगों ने महसूस किया, अब उस पीढ़ी में चंद लोग ही बचे होंगे, जिनकी यादों में वो त्रासद सच दर्ज होगा। इसके अलावा बाकी लोगों ने बंटवारे की उस दुखद सच्चाई को सिनेमा के परदे पर जीवंत होते देखा है। क्योंकि, फिल्मों ने ही काफी हद तक विभाजन के उन दृश्यों को सच करके दिखाया, जो उस दौर को देखने वालों ने किताबों में दर्ज किए थे। कुछ फ़िल्में इन किताबों पर बनी और कुछ में काल्पनिक कहानियों को गढ़ा गया! लेकिन, सभी का मकसद उस दौर को सामने लाना था, जो उस समय के लोगों ने भोगा था। भारत-पाकिस्तान विभाजन पर जितने ज्यादा उपन्यास और कहानियां उर्दू और पंजाबी क‍थाकारों ने लिखी शायद उन पर फिल्में नहीं बनी। बंटवारे पर फिल्‍में बनना इसलिए जरूरी है, कि बाद में जन्मे लोग उस दौर की विभीषिका और सच को जान सकें। क्योंकि, आज देश विभाजन के गवाह रहे लोग उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, जो उस समय का हाल जानते हैं।  
     दो देशों के बंटवारे की विभीषिका को फिल्मकारों ने सबसे पहले 1949 में आई फिल्म 'लाहौर' में दिखाया गया था। इस फिल्म को एमएल आनंद के बनाया था। इसमें नरगिस और करन दीवान मुख्य भूमिका में थे। फिल्‍म की कहानी प्रेमी जोड़े के आसपास घूमती थी। देश के विभाजन के समय एक युवती का अपहरण कर उसे पाकिस्‍तान में रख लिया जाता है। जबकि, उसका प्रेमी भारत आ जाता है। लेकिन, बाद में वह अपनी प्रेमिका को खोजने पाकिस्तान चला जाता है। सनी देओल की फिल्म 'ग़दर' में भी कुछ इसी तरह की कहानी गढ़ी गई थी। इसके बाद 1961 में आई फिल्म 'धर्मपुत्र' बंटवारे और धर्म आधारित दंगों पर बनाई गई थी। फिल्म में बंटवारे के दौरान एक हिंदू परिवार अपने साथ एक मुस्लिम बच्चे को भारत ले आता है। इस फिल्म का गाना ‘तू हिंदू न बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ दोनों धर्मों की एकता को दर्शाता है।
    इसके बाद लम्बे अरसे तक 1973 में आई फिल्म 'गरम हवा' आई, जो बंटवारे पर बनी अब तक बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है। यह फिल्म एक मुस्लिम परिवार की कहानी थी, जो इस सोच में उलझ जाते हैं कि बंटवारे के बाद भारत में रहा जाए या पाकिस्तान पलायन किया जाया। उस समय के सभी मुस्लिमों की यही चिंता थी। फिल्‍म में एक तरफ प्रेम कहानी भी थी, दूसरी तरफ नया पाकिस्तान बनने के बाद भारत में रह गए मुसलमानों के अंतरद्वंद्व को दिखाया गया था। पाकिस्तान बनने के बाद दो प्रेमी सरहद के आर-पार बंट गए थे। यह बहुत कम बजट में बनी एक ऐतिहासिक फिल्म है। इसमें घर, अपनेपन, व्यापार, इंसानियत और राजनीतिक मूल्यों की बातें थीं। यह फिल्म इस्मत चुगताई की अप्रकाशित उर्दू लघु कहानी पर आधारित थी। 
     बंटवारे पर 1988 में भीष्म साहनी ने 'तमस' बनाई, जो उन्हीं के उपन्यास पर आधारित थी। यह फिल्म पाकिस्तान के रावलपिंडी में हुए दंगों की सच्ची घटना पर बनी थी। 'तमस' में विभाजन के दौर में होने वाले दंगों की सच्चाई बताई गई थी। इससे पहले 1986 में गोविंद निहलानी इसी नाम (तमस) से दूरदर्शन के लिए सीरियल भी बना चुके थे। इसके दस साल बाद 1998 में खुशवंत सिंह के उपन्यास पर 'ट्रेन टू पाकिस्तान' बनी थी। इस फिल्म में पाकिस्तानी शहर मनो माजरा के पास एक रेलवे लाइन के किनारे बसे गांव की कहानी थी। यह गांव पहले सिख बहुल था और मुस्लिमों की आबादी कम थी। फिर भी लोग वहां मिल जुलकर रहते थे। पर, बंटवारे के बाद उस शहर की स्थिति और जगहों की तरह ही बदल जाती है और दंगे होते हैं।
     दो देशों के बंटवारे को बेन किंग्सले अभिनीत 1982 में आई 'गांधी' में भी दिखाया गया था। इस फिल्म में एक लंबा दौर था। आजादी के आंदोलन से लगाकर, विभाजन और महात्मा गांधी की हत्या तक का दौर इसमें था। जबकि 'गांधी' के करीब 18 साल बाद 2000 में आई कमल हासन के निर्देशन में बनी फिल्म 'हे राम' भी विभाजन की त्रासदी पर आधारित थी। फिल्म में हेमा मालिनी, रानी मुखर्जी और शाहरुख खान थे। इसमें भी देश विभाजन के दर्द को महसूस कराया गया। साथ ही उस दौरान हुई हिंसा भी दर्शकों ने देखी थी। इसमें राम नाम के एक व्यक्ति की पत्नी का दंगों के दौरान बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी। फिल्म में गांधी जी की हत्या भी पर्दे पर दिखाई गई। 
    सनी देओल और अमीषा पटेल स्टारर फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' 1999 में आई थी। यह फिल्म ‘शहीद-ए-मोहब्बत बूटासिंह’ की कहानी जैसी थी। फिल्म में बंटवारे के समय की प्रेम कहानी थी। फिल्म में सरदार तारा सिंह बंटवारे के दंगों के दौरान एक मुस्लिम महिला सकीना की जान बचाता है। वे दोनों शादी कर लेते हैं। पर, सालों बाद सकीना को पता चलता है कि उसके माता-पिता जिंदा हैं और वो उनसे मिलने पाकिस्तान जाती है। लेकिन, सकीना के माता-पिता उसे जबरन रोक लेते हैं। इसके बाद तारा सिंह अपनी पत्नी को लेने के लिए पाकिस्तान जाता है। 1999 में आई दीपा मेहता की फिल्म '1947 अर्थ' का कथानक भी कुछ इसी तरह का था। इसमें एक मुस्लिम युवक और हिंदू आया की प्रेम कहानी थी। इसमें आजादी के समय में देश के विभाजन से पहले और उस दौर में लाहौर की स्थिति को परदे पर दिखाया था। यह कहानी विभाजन की परिस्थितियों पर केंद्रित होती है। 
    गुरिंदर चड्ढा की फिल्म 'पार्टीशन' (2017) भी आजादी और विभाजन की दास्तां पर आधारित है। इस फिल्म में विभाजन से पहले 1945 की सच्ची घटनाओं का जिक्र है, जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारत को आजाद करने का फैसला किया था। इसमें हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच के उत्साह और निराशा का नजारा था। फिल्म में आलिया और जीत सिंह की प्रेम कहानी भी थी, जिस पर बंटवारे का गहरा असर पड़ा था। हिंदी और अंग्रेजी में बनी यह फिल्म 'फ्रीडम एट मिडनाइट' किताब पर बनी थी। फिल्‍म को अंग्रेजी में 'द वायसराय हाउस' नाम से बनाया गया था। 
   डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में 2003 में बनी फिल्म 'पिंजर' दरअसल महिलाओं के कसक की कहानी थी। यह पंजाबी की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास पर बनाई गई थी। उर्मिला मातोंडकर, मनोज बाजपेयी और संजय सूरी की इस फिल्म भी विभाजन की त्रासदी थी। ये कहानी पंजाब की पृष्ठभूमि पर थी। इस कथानक में दिखाया गया था कि देश के बंटवारे के वक्त एक युवती किसी तरह से अपने परिवार से बिछड़ जाती है। उसे किसी धर्म का युवक अपने पास रखता है और उससे शादी करता है। इस पूरी फिल्म में बंटवारे की विभीषिका झेल रही महिलाओं के अंतरद्वंद्व की कहानी है। आज भी पंजाब में बहुत महिलाएं मिल जाएंगी जिनके पारिवारिक सदस्य बंटवारे के वक्त पाकिस्तान चले गए थे और उन्‍हें सिख या हिंदू परिवारों में रहना पड़ा।
      2003 में भारत-पाकिस्तान संबंधों पर आधारित फिल्म 'खामोश पानी' भारत-पाकिस्तान में एक साथ रिलीज हुई थी। इसका निर्देशन साहिब सुमर ने किया था। हाल ही में 'नेटफ्लिक्स' पर आई फिल्म 'सरदार का ग्रैंडसन' भी विभाजन की त्रासदी पर आधारित फिल्म है। अर्जुन कपूर और नीना गुप्ता अभिनीत यह एक ऐसे व्यक्ति की मर्मस्पर्शी कहानी है, जो अपनी दादी को पाकिस्तान से अपने देश में लाकर खुश करना चाहता है। दरअसल, भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हमारे इतिहास का संवेदनशील विषय है। यही कारण है कि जिस भी फिल्मकार ने इस विषय पर फिल्म बनाई, घटनाक्रम को गंभीरता और सही तरीके से पेश करके इसके सार को बनाए रखा। लेकिन, अब इस मुद्दे पर गंभीर फ़िल्में बनना लगभग बंद हो गया! बनती भी हैं, तो 'ग़दर' जैसी फार्मूला फ़िल्में जिनमें नायक पाकिस्तान जाकर हेंडपम्प उखड़ता है!   
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Monday, August 8, 2022

कभी किसी ने फिल्मों के टाइटल पर ध्यान दिया!

- हेमंत पाल

    सिनेमा सिर्फ परदे पर दो-ढाई घंटे का मनोरंजन नहीं होता! उसके पीछे भी बहुत ऐसा होता है, जो दर्शकों को दिखाई नहीं देता, पर उसके बिना फिल्म का निर्माण भी पूरा नहीं होता! ऐसा ही एक काम है फिल्म की नामावली जो फिल्म शुरू होने से पहले परदे पर उभरती है। क्योंकि, सिनेमा को परदे पर पहचान देने का काम सेंसर के प्रमाण पत्र के अलावा फिल्म के शुरू में दी जाने वाली नामावली का भी होता है, बोलचाल की भाषा में जिसे टाइटल कहते हैं। प्राय: शुरू में निर्माता, निर्देशक और सितारों के नाम दिए जाते हैं, बाकी के नाम फिल्म के अंत में दिए जाने का रिवाज है, पर इसे रोलर टाइटल्स कहा जाता है। इसे किसी किताब की अनुसूची या इंडेक्स जैसा माना जा सकता है। लेकिन, कुछ फिल्मों की नामावली इतनी विशिष्ट होती है, कि यह बरसों तक दर्शकों के मन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ देती हैं। नामावली के इसी महत्व को देखते हुए कुछ निर्माताओं ने अपनी फिल्मों की नामावली को दूसरों से हटकर बनाने का प्रयास भी किया। फिल्म में सबसे पहले आता है सेंसर प्रमाण पत्र। इसमें भी समय के साथ बदलाव आया। वैसे तो यह महज कागज का टुकड़ा होता है, पर परदे पर यह कुछ अलग ही दिखता है। अब वे दर्शक नहीं रहे, जिनकी फिल्मों के टाइटल्स में कोई रुचि हो! पहले ऐसा भी दौर था, जब कुछ सितारों के नाम सामने आते ही दर्शक तालियां बजाते थे। जब फिल्म का नाम आता था तो हॉल में बैठे दर्शक एक साथ नाम दोहराते थे और फिल्म कितने रील की है, इसे जोर से पढ़ते थे।
     पहले सेंसर प्रमाण पत्र पर फिल्म का नाम, उसका रंग यानी फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट, इस्टमैन कलर या फुजी कलर है। इसके अलावा निर्माता का नाम, वैधता अवधि के साथ उसकी लम्बाई भी दिखाई जाती है। आजकल फिल्मों की लम्बाई उसकी प्रसारण अवधि यानी कि दो घंटे दस मिनिट या इसी तरह प्रदर्शित की जाती है। पहले इसे रीलों की संख्या में प्रदर्शित किया जाता था। आज भले ही कोई इस पर कोई गौर न करें, लेकिन 1960 के आसपास के दर्शक जानते हैं, कि जैसे ही सेंसर प्रमाण पत्र पर्दे पर आता था, दर्शकों की फुसफुसाहट से पूरा सिनेमाघर गूंज जाता था। 14 रील, 16 रील, 20 रील या 24 रील। सामान्यतः तब फिल्में 14 रीलों की हुआ करती थी, जिसकी लम्बाई फीट में भी प्रदर्शित की जाती थी। लेकिन, तब यह अघोषित नियम लागू था कि जितना बड़ा निर्माता या कलाकार उतनी लम्बी फिल्म। राज कपूर की फिल्में 20 से 24 रीलों से कम में बन ही नहीं पाती थी। इसलिए इन फिल्मों के प्रमाण पत्र पर 24 रील पढ़कर दर्शक गदगद हो जाते थे। इसका असर फिल्म छूटने के बाद भी दिखाई देता था।
     सामान्यतः एक फिल्म यूनिट में करीब लगभग डेढ़ सौ लोग होते हैं। पहले उन सभी के नाम दिए जाते थे, जो कामगार यूनियन से जुड़े होते हैं। हर बड़े कलाकार के साथ उनके सेवक जैसे कुछ लोग होते थे और उन सेवकों के नाम दिए जाने की भी परंपरा थी। इसके अलावा शूटिंग के दौरान निर्माता जो स्पॉट बॉय को काम पर लगाता है, उनके नाम भी नामावलियों में शामिल होते हैं। फिल्म से निकलने वाला हर दर्शक अमूमन बाहर खड़े दर्शकों को रील की संख्या बताता जाता था। कई बार तो अगला शो देखने आया बाहर खड़ा दर्शक ही पूछ लिया करता था 'कितने रील की है!' इसके अलावा एक और सवाल सामान्य था कि लड़ाई कितनी है! पर, इसका फिल्म की नामावली से कोई संबंध नहीं है।
   'बरसात' तक राज कपूर की फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की शंकर भगवान की पूजा और आर के फिल्म्स की लिखावट के साथ नामावली आरंभ होती थी। लेकिन, 'बरसात' के एक दृश्य में जिसमें राज कपूर के एक हाथ में गिटार है, दूसरे हाथ में नरगिस की जबरदस्त लोकप्रिय होने के बाद यह आरके फिल्म्स का लोगो बन गया, जो कई दिनों तक चला। धीरे-धीरे राजकपूर और नरगिस की छबि धुंधली होती गई। राजकपूर की तरह ही दूसरे निर्माताओं ने भी अपनी निर्माण संस्था का लोगो बना रखा था, जिसे नामावली से पहले दिखाया जाता रहा। देव आनंद की नवकेतन की फिल्मों में कभी सड़क पर कंदील दिखाई देता था, जो समय के साथ लुप्त हो गया। दक्षिण के फिल्मकार 'जैमिनी' की फिल्मों में बिगुल पर विशिष्ट धुन बजाते लंगोट पहने दो बालक और एवीएम में पीछे से सर्कसनुमा प्रकाश स्तंभों के साथ खास संगीत अलग पहचान देता था। 
     कुछ निर्माता ऐसे भी थे, जिनकी निर्माण संस्था के लोगों के साथ एक खास संवाद या शेर सुनाई देता था। हंसिया-बाली के साथ महबूब प्रोडक्शन का शेर आता था जिसके पार्श्व में आवाज आती थी 'फानूस बनकर जिसकी हिफाजत हवा करे, वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।' नासिर हुसैन प्रोडक्शन में एनएच के ऊपर एक प्रतिमा के साथ 'क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम खाक नशीनों की ठोकर में जमाना है' आवाज सुनाई देती थी। मोहन कुमार की फिल्म में कमल के फूल के नीचे एमके फिल्म्स के साथ 'अपनी अपनी करनी का फल है नेकियाँ, बदियां रुसवाईयाँ, आपके पीछे चलेगी आपकी परछाईयाँ' कई सालों तक सुनाई दिया। बीआर चोपड़ा की फिल्म में हंसिए और बाली लिए मजदूर महिला पुरुष के साथ 'यदा यदा ही धर्मस्य' का संदेश सुनाई देता रहा। सोहराब मोदी की फिल्म के शुरू में दहाड़ता नजर आता था। राजश्री प्रोडक्शन में सरस्वती माता, जे ओमप्रकाश की फिल्म में स्त्री-पुरुष के दो हाथ भगवान शंकर को पुष्प अर्पित करते दिखाई देते थे।
    नामावली में सितारों के नाम  भी उनकी हैसियत के क्रम में आते थे। यहां वरियता का ध्यान रखा जाता है और नहीं भी। यदि अशोक कुमार फिल्म में होते थे, तो सबसे पहले उनका नाम आता रहा। लेकिन, उनकी साथ वाले चरित्र अभिनेता का नाम भीड़ में कहीं गुम हो जाता है। कई बार तो मल्टी स्टार फिल्मों में नाम के आगे-पीछे रखने पर सितारों के बीच जंग तक छिड़ जाती। इन सबसे अलग रूतबा था खलनायक प्राण का जिनका नाम एक अलग अंदाज में आता था। बड़े सितारों के बाद लिखा आता था 'एंड ... प्राण!' शायद इसी से प्रेरित होकर प्राण ने अपने जीवन पर आधारित पुस्तक का शीर्षक भी 'एंड ... प्राण' ही रखा। भारत ही नहीं विदेशी फिल्मों में भी एमजीएम का शेर तो कोलम्बिया में स्टेचू आफ लिबर्टी का जलवा अलग ही था। जेम्स बांड की फिल्मों के टाइटल का एक खास पैटर्न होता है, जिसमें जीरो जीरो के पीछे जेम्स बांड उसकी पिस्तौल से निकली गोली से लाल होता परदा और गीत के साथ पूरा टाइटल अपनी एक अलग पहचान रखता है। इसे हमारे यहां फिल्म 'शान' में दोहराया जरूर गया, पर वह बात नहीं बन पायी थी। रहस्यमयी फिल्मों के टाइटल किसी खून या गाड़ी के खाई में गिरने से आरंभ होते थे।
   रोमांटिक फिल्मों की नामावली कुछ अलग होती है, तो कॉमेडी फिल्मों के लिए कार्टून का उपयोग करके मजेदार नामावली तैयार की जाती थी। कुछ फिल्मों में टाइटल के साथ व्यंग्यचित्र दिए जाने की शुरुआत किशोर कुमार ने 'चलती का नाम गाड़ी' से की, जो बाद में 'दो जासूस' समेत कई और फिल्मों में दोहराई गई। विश्व प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल हुसैन ने आर के बैनर की फिल्म 'हिना' की कथा के अनुरूप पेंटिंग बनाई थी, जिनका फिल्म की नामावली में इस्तेमाल किया गया था। यदि पुरानी फिल्में देखी जाए तो उसमें आज के मुख्य संगीतकार और निर्माताओं का नाम असिस्टेंट के रूप में दिखाई दे जाते हैं। संगीतकारों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का नाम सबसे ज्यादा संगीतकारों के सहायक के रूप में आ चुका है। इसी नामावली से पता चलता है कि कभी वह कल्याणजी-आनंदजी तो कभी मदनमोहन यहां तक कि आरडी बर्मन के सहायक थे। पार्श्व गायक के नाम के साथ ही कोरस गाने वालों के नाम भी कई बार दिए गए। कभी दर्शक शौक से नामावली देखने सिनेमा हॉल में भागता हुआ जाता था। लेकिन, अब नामावली फिल्म के अंत में तब दिखाई जाती है, जब पूरा हाल खाली हो जाता है। ओटीटी पर आने वाली फिल्मों में तो दर्शकों को टाइटल आगे बढ़ाने की भी सुविधा दी जाने लगी है!  
      नामावली का भाषा के साथ भी गहरा रिश्ता है। कभी ये हिंदी में दिखाई देती है, कभी अंग्रेजी में! भाषाई फिल्मों में ये वहां की भाषा में दी जाती है। तमिल, तेलुगु और हिन्दी में एक साथ रिलीज हुई फिल्म 'थलाइवी' के हिंदी वर्जन के 'क्रेडिट रोल' या कहें नामावली को हिन्दी में दिखाया गया था। आमतौर पर जिस दौर में हिन्दी में बनने वाली फिल्मों की नामावली तय रूप से अंग्रेजी में आ रही हो, एक दक्षिण भारतीय लेखक, निर्देशक और प्रोडक्शन हाउस का हिन्दी दर्शकों के लिए अपनी फिल्म की नामावली हिंदी में देने का निर्णय सुकून भी देता है और चकित भी करता है। परदे पर हिंदी नामावलियां देने में राजश्री प्रोडक्शन अपवाद रही। इस फिल्म कंपनी ने अपनी फिल्मों में भारतीय संस्कृति के साथ हिंदी को भी प्रमुखता दी। इसके पीछे 1947 में स्थापित इस फिल्म प्रोडक्शन के मालिक ताराचंद बड़जात्या की राष्ट्रीय सोच बड़ा कारण बनी। लेकिन, जब सूरज बडज़ात्या ने इसकी बागडोर संभाली, स्थितियां बदल गई। 'मैंने प्यार किया' से राजश्री की नामावली भी अंग्रेजी में आने लगी। 
   वासु चटर्जी ने भी अपनी फिल्मों में हिंदी नामावलियों का खास ध्यान रखा। हिंदी दर्शक वर्ग को उनकी हास्य फिल्मों की नामावली एक विशिष्ट पहचान देती थी। लेकिन, बासु चटर्जी के दूसरे प्रोडक्शन में इस परंपरा का निर्वहन नहीं हुआ। 1978 में संस्कृत प्रोफेसर की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'दिल्लगी' की नामावली से हिंदी गायब हो गई। बाद में 'परिणीता' जैसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म की नामावली भी हिंदी में नहीं थी। इस वजह से 26 जुलाई 2018 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को हिंदी फिल्मोद्योग के नाम एक एडवाइजरी जारी करनी पड़ती थी। इसके मुताबिक हिंदी की फिल्मों में क्रेडिट रोल और टाइटल हिंदी में दिए जाने की सलाह दी गई थी। जिससे अंग्रेजी नहीं जानने वाले दर्शक भी नाम पढ़ सकें। लेकिन, मंत्रालय के इस आग्रह को फिल्मकारों ने तवज्जो नहीं दी।
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