Tuesday, May 30, 2023

सिनेमा में किस के किस्सों की कमी नहीं!

- हेमंत पाल

     हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा के दौर में कई रंग देखे हैं। उन्हीं में से एक रंग है नायक और नायिका की अंतरंगता वाले दृश्य। दर्शकों को बांधने के लिए कई बार कथानक में ऐसे दृश्य डाले जाते हैं, जो रोमांटिक होने के साथ नायक और नायिका के बीच प्रेम का जुड़ाव भी दर्शाएं। फिल्मों के शुरुआती दौर में ऐसे रोमांटिक दृश्यों को फिल्माने के लिए दो पक्षियों को चोंच लड़ाते, दो सुर्ख फूलों को आपस में टकराते दिखाया जाता था। यह आजादी से पहले का दौर था, जब चुंबन या ऐसे बोल्ड सीन फिल्माने के बारे में सोचना भी एक तरह से पाप था। क्योंकि, उस समय के सिनेमा में आज की तरह खुलापन नहीं था। हीरो और हीरोइन का ज्यादा नजदीक आना, मर्यादा की सीमा लांघने जैसा मामला था। तब सामाजिक हालात ऐसे नहीं थे, कि लोग परदे पर ऐसे दृश्य देखने का सोच भी सकें। 
     फिल्मकारों ने दर्शकों को कथानक के मुताबिक ऐसी बातें समझाने के लिए कुछ प्रतीक बना रखे थे। हीरो-हीरोइन का पेड़ के पीछे छुपना, फिर हीरोइन का शर्माकर निकलकर भागना कुछ ऐसे संकेत थे, जो दर्शकों को समझाते थे, कि मोहब्बत अपनी सीमा लांघ रही है। जबकि, अब तो हर दूसरी फिल्म में चुंबन दृश्य कथानक की जरूरत बन गए और दर्शकों को भी ये अच्छा लगता है। प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए चुंबन एक सटीक माध्यम है। परदे पर यह कई तरह के हो सकते हैं। मधुर हो सकता है, कामुक हो सकता है और रोमांटिक भी। इसके अलावा अश्लील भी हो सकता है। इसलिए कि जब भी कोई फार्मूला फिल्म बनती है, ऐसे सीन को सोच समझकर रखे ही जाते है। अब तो ऐसे दृश्यों को लेकर कलाकारों के साथ दर्शक भी सहज हो गए हैं। हालांकि, ऐसे कुछ दृश्यों पर अभी भी सेंसर बोर्ड की कैंची चल जाती है।
     इसे हिंदी सिनेमा का आश्चर्य ही माना जाना चाहिए कि फिल्मों में इस तरह का पहला बोल्ड सीन उस ज़माने में आया, जब परंपरागत ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का दौर था। ऐसे रूढ़िवादी समय में किसी फिल्म में चुंबन जैसा सीन फिल्माना बहुत हिम्मत की बात थी। यह दृश्य 1933 में आई फिल्म 'कर्मा' में देविका रानी और हिमांशु राय के बीच फिल्माया था। ये 4 मिनट लंबा सीन था, जो सौ साल बाद भी हिंदी सिनेमा में एक रिकॉर्ड है। फिल्म की रिलीज के बाद इस सीन को अश्लील माना गया और इस पर बवाल हुआ। देविका रानी 30 और 40 के दशक की मशहूर अभिनेत्री थीं। सिनेमा की भी वे पहली हीरोइन मानी गई थी। अपने 10 साल के करियर में उन्होंने कई फिल्में की और बोल्ड किरदार निभाए। देविका रानी ने 'कर्मा' से ही अपनी एक्टिंग की शुरुआत की थी। यह अंग्रेजी फिल्म थी, जिसे भारतीय ने बनाया था। बाद में इस फिल्म को हिंदी में 'नागिन की रागिनी' के नाम से बनाया गया। पर, यह यह फिल्म नहीं चली। 
     उस समय देश की सामाजिक स्थिति और सिनेमा दोनों ऐसे दृश्यों के लिए तैयार नहीं थे। यही वजह रही कि जब देविका रानी और हिमांशु राय के चुंबन दृश्य को पर्दे पर दिखाया गया, तो हंगामा मच गया। जबकि, वास्तविकता में यह दृश्य कोई अंतरंग दृश्य नहीं था। कथानक में हिमांशु राय को सांप काट लेता है और वो निढाल होकर गिर जाता है। देविका रानी उसे होश में लाने की कोशिश करती है। इसी कोशिश में वो उसका चुंबन लेती है। उसे लिप किस भी करती हैं, जिससे हिमांशु को होश आ जाता है। ये चुंबन दृश्य उस दौर में हिंदी सिनेमा का सबसे बोल्ड सीन था, जिसे देख दर्शकों की सांसे थम गई थीं। दरअसल, उन दिनों लोग फिल्मों में काम करने वालों को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे। समाज की मर्यादा को बरकरार रखते हुए फिल्मों में प्रेम दृश्य परदे से नदारद ही रहते थे। ऐसे में देविका रानी ने सबको चौंका तो दिया था। उन्होंने अपनी आलोचना का जवाब भी दिया और कहा था कि ये दृश्य फिल्म की डिमांड थी। क्योंकि, बेहोश नायक को होश में लाने के लिए नायिका को ऐसा कुछ करना ही पड़ता। 
     हिंदी फिल्मों में कभी-कभी चुंबन दृश्य चुंबक की तरह चिपक जाते हैं। रेखा की बायोग्राफी 'रेखा: द अनटोल्ड स्टोरी' में भी इस बात को हाईलाइट किया गया। यह तथ्य है कि रेखा ने कम उम्र में फिल्मों में प्रवेश किया था। 1969 में जब रेखा बमुश्किल 15 साल की थीं, तब उन्होंने अपनी पहली फिल्म की शूटिंग की।  लेकिन,'अंजाना सफर' फिल्म के लेकर रेखा की यादें बेहद दर्दनाक रही। रेखा ने अपनी किताब में खुलासा किया कि उस समय अभिनेता विश्वजीत ने सेट पर उन्हें जबरदस्ती किस किया था। रेखा इसके लिए तैयार नहीं थी। इस दृश्य का स्क्रिप्ट में भी उल्लेख नहीं था। फिल्म 'दयावान' में विनोद खन्ना ने माधुरी दीक्षित का इतने आवेग से चुंबन लिया था कि शॉट के बाद माधुरी के आंसू निकल आए थे। 'परिंदा' में भी  माधुरी और अनिल कपूर का चुंबन चर्चित रहा। फिरोज खान की 'जांबाज' में भी अनिल कपूर और डिंपल के उत्तेजक चुम्बन दृश्य फिल्माए गए थे। हेमा मालिनी जैसी अभिनेत्री से भी चेतन आनंद ने 'कुदरत' में चुंबन दृश्य करवा लिया था। 'हीरा पन्ना' में देवानंद और राखी का लंबा चुम्बन दृश्य था। इमरान हाशमी ने फिल्मों में इतने चुम्बन दृश्य दिए कि उन्हें किसिंग किंग ही कहा जाने लगा। सुनकर शायद अजीब लगे, पर यह सच है कि परदे पर चुंबन दृश्य देने वाली नायिकाओं में ललिता पवार का नाम भी शामिल है। 
     आज के दौर में तो ऐसे दृश्य हर फिल्म की जरूरत बन गए। लेकिन, आज भी कुछ कलाकार ऐसे हैं, जो परदे पर ऐसे दृश्य करने से हिचकते हैं। इनमें सलमान खान भी हैं, जिन्होंने सूरज बड़जात्या की फिल्म 'मैंने प्यार किया' में भाग्यश्री के साथ एक चुंबन दृश्य करने से इंकार कर दिया था। सलमान और भाग्यश्री दोनों की यह पहली फिल्म थी। दोनों ने ही ऐसे सीन से इंकार किया। तब निर्देशक ने बीच में शीशा रखकर चुंबन दृश्य फिल्माया था। लेकिन, कुछ ऐसी फ़िल्में भी है, जिन्हें चुंबन दृश्यों की वजह से ही याद किया जाता है। 'शुद्ध देसी रोमांस' तो ऐसे दृश्यों की वजह से ही चर्चा में आई। इस फिल्म में एक साथ 23 चुंबन सीन थे। '3 जी' में भी 30 चुंबन दृश्य थे। नील नितिन मुकेश और सोनल सिंह की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म की चर्चा इसलिए ज्यादा हुई थी कि ये सीन भी जुनूनी थे। मल्लिका शेरावत को फ़िल्मी दुनिया में फिल्म 'मर्डर' से पहचान मिली। पर, उनकी चर्चा फिल्म 'ख्वाहिश' को लेकर भी हुई, जिसमें मल्लिका के 20 से अधिक चुंबन दृश्य थे। 
   सुधीर मिश्रा की फिल्म 'ये साली जिंदगी' भी चुंबन दृश्यों से भरी पड़ी थी। अदिति राव और अरुणोदय सिंह के कई दृश्य फिल्म रिलीज के पहले ही चर्चा में आ गए थे। अदिति राव का अरूणोदय के साथ करीब एक मिनट लंबा चुंबन दृश्य एक ऑटो में फिल्माया गया। इस फिल्म में कुछ और चुंबन दृश्य चित्रांगदा सिंह पर भी फिल्माए थे। भट्ट कैंप की दो ट्रेंड सेटर फिल्म 'जिस्म' और 'मर्डर' तो लंबे चुंबन दृश्य की वजह से देखी गई थी। शाहिद कपूर और करीना कपूर ने ‘जब वी मेट’ फिल्म में काम किया, तब उन दोनों का रिश्ता भी अलग था। इस फिल्म में भी एक चुंबन दृश्य था। इस फिल्म ने दर्शकों का दिल जीत लिया था। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ में रितिक रोशन और कैटरीना के चुंबन दृश्य भी दर्शक भूल नहीं सके हैं। विक्की कौशल और श्वेता त्रिपाठी का फिल्म 'मसान' में एक बेहद मासूम सा रोमांटिक चुंबन दृश्य है। ‘बैंड बाजा बारात’ में रणवीर सिंह और अनुष्का शर्मा की पहली फिल्म थी। फिल्म में दोनों के बीच चुंबन दृश्य को फिल्म का टर्निंग पॉइंट कहा जाता है। दोनों के बीच इस दृश्य सीन को जिस तरह पर्दे पर दिखाया गया, वह काफी नेचुरल, रोमांटिक और हॉट लग रहा था। 'परिणीता' में संजय दत्त और विद्या बालन के चुंबन दृश्य ने अलग ही माहौल बनाया था। 
    रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय ने 'धूम 2' में जबरदस्त रोमांटिक सीन दिया था। दर्शकों को कथानक में इस दृश्य की उम्मीद नहीं थी। यह लिपलॉक फिल्म के सबसे यादगार दृश्यों में से एक था। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण ने 'गोलियों की रासलीला रामलीला' में जबरदस्त चुंबन दृश्य दिए थे। जबकि, रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण ने 'ये जवानी है दीवानी' में ऐसे दृश्य दिए, जो कोई भूल नहीं सकता। दोनों की जोड़ी सबसे हॉट जोड़ियों में गिनी जाती थी। इसी तरह इमरान हाशमी और तनुश्री दत्ता ने 'आशिक बनाया आपने' में हॉट और बोल्ड सीन के साथ चुम्बन दृश्य दिया, वो दर्शकों को आज भी याद होगा। आज परदे पर जितनी आसानी से चुंबन दृश्य दिखाए जाते हैं और उन्हें फिल्माया जाता है, उतना 50-60 के दशक पहले आसान नहीं था। तब अभिनेत्रियां भी मुश्किल से ऐसे दृश्यों के लिए तैयार होती थी। फिल्मों में ऐसे दृश्यों को फिल्मकार और दर्शक दोनों पैसा वसूल मानते रहे, इसलिए धीरे-धीरे ये प्रेम कहानियों वाली फिल्मों की जरूरत बनती चली गई। वैसे तो फिल्मों के ज्यादातर चुंबन दृश्य वास्तविकता में फिल्माए जाते हैं। लेकिन, यदि किसी कलाकार को आपत्ति हो, तो फिल्मकार इसके लिए बॉडी डबल का उपयोग करते हैं! क्योंकि, फिल्म में कहानी की डिमांड तो पूरी करना ही है। 
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Sunday, May 21, 2023

तकदीर से मिली 'जंजीर' से बदली अमिताभ की तकदीर!

- हेमंत पाल


    हिंदी फिल्मी दुनिया को 100 साल से ज्यादा हो गए। इस लंबे दौर में कई फिल्में आई, कई एक्टरों और डायरेक्टरों ने हिंदी फिल्मों के उत्थान में अपना योगदान दिया। फिल्म निर्माण का शुरूआती दौर खामोश फिल्मों का था। फिर धीरे-धीरे इनमें बदलाव आता गया। फ़िल्में बोलने लगीं, फिर इनमें गाने सुनाई देने लगे और लंबे अरसे बाद फिल्में रंगीन हुई। आज जो फिल्में थियेटर में रिलीज होती है, उन्हें फिल्म निर्माण का सबसे आधुनिक रूप कहा जा सकता है। समय के साथ थियेटरों का रूप बदला, साथ में फ़िल्में भी और दर्शकों का फ़िल्में देखने का टेस्ट भी।
    हर नई पीढ़ी कुछ नया देखना चाहती है और फिल्म निर्माता उस टेस्ट के मुताबिक भी उसी तरफ मूड जाते हैं। शुरू में धार्मिक गाथाओं और राजा-महाराजाओं पर फ़िल्में बनी। फिर एक लम्बा दौर प्रेम कहानियों का भी आया। इसके साथ ही बदले की भावना पर बनी फ़िल्में बनती रही। एक समय ऐसा भी आया जब डाकुओं की कहानियों पर फिल्म बनाने के प्रयोग हुए। हीरो भी डाकू होता था, पर साथ में उसे दिलदार दिखाया जाता रहा। फिर डिस्को वाली फिल्मों का भी समय आया, जिसने मिथुन चक्रवर्ती को स्टार बनाया! लेकिन, इन सबके बीच गुस्सैल नायक वाली फ़िल्में भी आई, जिसने परदे पर हीरो का नया रूप दिखाया। इस अनोखे युग की शुरुआत की थी अमिताभ बच्चन ने!    
    हिंदी में हर साल एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती है। सवा सौ साल में कितनी फिल्में बनी होगी, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लेकिन, यदि अच्छी फिल्मों के बारे में बात की जाए या उन्हें याद किया जाए तो फिल्म प्रेमी दस बेहतरीन फिल्मों के नाम भी नहीं बता पाते, जिन्हें वे अपने नजरिए से श्रेष्ठ फ़िल्में मानते हैं। जब कभी ये बात छिड़ती है तो प्यासा, मुग़ल ए आजम, मेरा नाम जोकर, जय संतोषी मां, शोले, जंजीर और ऐसी ही कुछ फिल्मों के जिक्र से आगे बात नहीं बढ़ पाती। आखिर क्या कारण है कि ढेर सारी फ़िल्में देखने के बाद भी दर्शकों को दस अच्छी फिल्मों के नाम याद करने में भी दिमाग पर जोर लगाना पड़ता हैं! इसलिए कि लोग फ़िल्में देखते जरूर हैं, पर ऐसी चंद फ़िल्में ही हैं, जिन्हें वे दिल से लगाते हैं। 
    दिल में उतर जाने वाली ऐसी ही फिल्मों में एक है 'जंजीर' जिसने अमिताभ बच्चन को एक्टर के रूप में स्थापित किया। फिल्म इंडस्ट्रीज को इस फिल्म ने ऐसा गुस्सैल नायक दिया, जिसका जलवा आज आधी शताब्दी बाद भी बरक़रार है। अमिताभ बच्चन को यदि आज सदी का महानायक कहा जाता है, तो उसमें इस फिल्म का बहुत बड़ा योगदान माना जाना चाहिए। क्योंकि, 11 मई 1973 को फिल्म की रिलीज से पहले अमिताभ बच्चन की एक दर्जन से ज्यादा फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं। ‘बॉम्बे टू गोवा’ और ‘आनंद’ ने उन्हें सहारा जरूर दिया, पर अलग से पहचान नहीं दी, जो 'जंजीर' से उन्हें मिली।  
    इस फिल्म की रिलीज को 50 साल पूरे हो गए। वक्त गुजरते देर नहीं लगती, पर अमिताभ बच्चन 50 साल बाद भी उसी लोकप्रियता के उसी शिखर पर हैं, जहां से वे 'जंजीर' की कामयाबी के बाद खड़े हुए थे। किसी एक्टर को कोई एक फिल्म इतनी ऊंचाई दे सकती है, 'जंजीर' इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। इस फिल्म के साथ कई ऐसे प्रसंग जुड़े हैं, जिन्हें याद करके लगता है कि शायद 'जंजीर' अमिताभ बच्चन के लिए ही लिखी, बनी और फिर हिट भी हुई। जबकि, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि जिस एक्टर की दर्जनभर से ज्यादा फ़िल्में असफल हुई, कई डायरेक्टरों ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री से वापस लौटने तक की सलाह दी थी। उसी एक्टर ने 50 साल पहले जो झंडा गाड़ा, वो आज भी लहरा रहा है। यही कारण है कि 'जंजीर' को हिंदी फिल्मों का मिल का पत्थर माना जाता है, जिसने ऐसा एक्टर दिया जो आज भी तीन पीढ़ियों की पहली पसंद है। 
      अमिताभ बच्चन ने अपने फिल्म करियर की शुरुआत 'सात हिंदुस्तानी' से की। लेकिन, उन्हें उसके बाद की कई फ़िल्में ऐसा कोई मुकाम नहीं दे पाई, जिसकी उन्हें तलाश थी। 'जंजीर' की रिलीज के बाद किस्मत पलटी और उन्हें 'यंग एंग्रीमैन' ख़िताब मिला। उन्होंने बाद में अपनी इसी इमेज को मजबूर, दीवार, काला पत्थर, त्रिशूल और उसके बाद 'शोले' जैसी कई फिल्मों में बनाए रखा। लेकिन, ये कामयाबी उन्हें किस्मत से नहीं मिली। अमिताभ ने इसके लिए लम्बा इंतजार और अथक मेहनत की थी। 'जंजीर' से पहले कई फिल्में फ्लॉप हुई, इसलिए उनकी सारी उम्मीदें इसी एक फिल्म पर टिकी थी। इस फिल्म में उस समय के बड़े कलाकार जया भादुड़ी, ओम प्रकाश, अजीत और प्राण थे। अमिताभ तब इस स्थिति में भी नहीं थे, कि उनके नाम से कोई फिल्म चल सके। जब 'जंजीर' बनकर तैयार हुई, तो कई टेरिटरी में उसे प्राण की फिल्म बताकर बेचा गया। 
    बताते हैं कि फिल्म की रिलीज से पहले कोलकाता में एक इवेंट ऑर्गेनाइज हुआ तो पूरा थिएटर प्राण के नाम से गूंज पड़ा! ये देखकर अमिताभ बच्चन टूट से गए थे। कहते हैं कि ये सब देखकर अमिताभ इतने दुखी हुए थे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। डायरेक्टर प्रकाश मेहरा ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा था 'फिल्म रिलीज तो होने दो, ये सब अमिताभ-अमिताभ न करें तो बोलना!' फिल्म रिलीज हुई तो हालात ठीक यही थे। फिल्म की कामयाबी का सारा श्रेय अमिताभ लूट ले गए। बताते हैं कि जब आरके स्टूडियो में फिल्म की शूटिंग चल रही थी और राज कपूर वहीं पास वाले सेट पर मौजूद थे। वहां अमिताभ बच्चन की आवाज उन्हें सुनाई दे रही थी। उन्होंने प्रकाश मेहरा को बुलाया और कहा कि इस लड़के की आवाज में बहुत दम है। ये लड़का एक दिन सुपरस्टार बनेगा। कहा जाता है कि राज कपूर की ये भविष्यवाणी सही निकली। 'जंजीर' ने अमिताभ की नाकामयाबी का सिलसिला तोड़ा और वे हिंदी फिल्मों के पहले एंग्री यंगमैन बने! 
      'जंजीर' के प्रदर्शन के साथ ही मिली सफलता से सलीम-जावेद इतने उत्साहित हुए थे कि उन्होंने चार जीपें किराए पर ली और पतरे का एक स्टेंसिल बनवाया 'रिटन बाय सलीम जावेद' और सड़क पर दीवार पोतने वाले पेंटरों को पैसे देकर कहा कि शहर पर जहां कहीं भी जंजीर के पोस्टर लगे हों, यह स्टेंसिल रखकर पोत देना। उन्होंने इस कला में अपना हुनर कुछ यूं दिखाया कि कहीं बिंदू के अधोवस्त्र पर, कहीं अमिताभ के हाथों पर, कहीं जया की छुरियों पर तो कहीं प्राण के ऊपर उठे दोनों हाथों पर 'रिटर्न बाय सलीम जावेद' का ठप्पा लग गया। यह ठप्पा इतना चर्चित हुआ कि इसके बाद उनकी सभी फिल्मों में बड़े शब्दों में लिखा दिखाई देने लगा। सलीम-जावेद पहले ऐसे फिल्म राइटर थे, जिनका नाम बाद में पोस्टरों पर लिखा गया। खास बात यह भी है कि यह मूल कहानी भी सलीम-जावेद की अपनी नहीं थी। वास्तव में यह फिल्म देव आनंद की फिल्म 'सीआईडी' और हॉलीवुड के प्रसिद्ध एक्टर ली वान क्लिफ की हिट फिल्म 'डेथ राइड्स ऑन अ हॉर्स' का मिश्रण थी।
    ‘जंजीर’ ने सिर्फ अमिताभ को ही नई पहचान नहीं दी, इस फिल्म को हिंदी सिनेमा का ट्रेंड सेटर भी कहा जाता है। ये फिल्म जब रिलीज हुई, उस समय प्रेम कहानियों और नायक-नायिका के पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने और गाने वाली फ़िल्में ज्यादा आती थी। तब नायक को समाज और दुनियादारी से कोई ख़ास सरोकार नहीं होता था। हर फिल्म का अंत भी नायक-नायिका के मिलन और खलनायक को पुलिस के पकड़ ले जाने से होता था। लेकिन, 'जंजीर' का नायक उन सबसे अलग था। नायक विजय खन्ना फिल्म के खलनायक तेजा को ख़त्म करने तक चैन से नहीं बैठता। बचपन में आंखों के सामने हुई मां-बाप की हत्या और तेजा के हाथ में लटकी आकृति उसे रात में सोने भी नहीं देती थी। कई रातों को वो बैचेन होकर उठ जाता! नायक की यही बेचैनी फिल्म का मूल भाव था, जिसे अमिताभ ने पूरी शिद्दत से जिया। जिस समय पर नायक को नायिका के साथ प्रेमालाप करते और नाचते-गाते बताने का चलन था, तब 'जंजीर' का नायक मुस्कुराया भी नहीं था। पूरी फिल्म में प्राण के गाने के समय कुछ पल के लिए अमिताभ के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट दिखाई दी थी।         
     फिल्म के नाम को लेकर भी कुछ लोगों को असमंजस रहा है। लोग आज भी 'जंजीर' को हथकड़ी समझने की गलती कर बैठते हैं। जबकि, जंजीर का आशय खलनायक के हाथ में लटका हुआ वो ब्रेसलेट था, जिसकी जंजीर में एक घोड़ा लटका था। उसे देखकर ही अमिताभ अपने परिवार के हत्यारे को पहचान कर बदला लेता है। इस फिल्म का एक लोकप्रिय और दमदार डायलॉग 'ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं' डायलॉग भी 'सीआईडी' फिल्म  से लिया गया था। 'सीआईडी' में जब जॉनी वॉकर को पुलिस थाने ले जाया जाता हैं, तो वो बड़ी अदा से जाकर सीधे कुर्सी पर बैठ जाता है। तब उसे यह डायलॉग मारा जाता है। जबकि, 'जंजीर' में यह डायलॉग अमिताभ थाने में तब बोलते हैं, जब शेरखान (प्राण) थाने आकर कुर्सी पर बैठने वाले होते हैं और थानेदार विजय खन्ना कुर्सी में लात मारकर यही डायलॉग मारते हैं।   
    ‘जंजीर’ के साथ कुछ ऐसे अजीब संयोग भी जुड़े थे, जिनसे लगता है कि ये फिल्म कई नायकों के हाथ से निकलने के बाद अमिताभ के पास इसलिए आई कि इससे एक नए नायक को जन्म लेना था। दरअसल, ‘जंजीर’ की स्क्रिप्ट धर्मेंद्र ने सलीम-जावेद से खुद के लिए खरीदी थी। वे इस फिल्म को प्रकाश मेहरा के निर्देशन में मुमताज के साथ बनाना चाहते थे। लेकिन, उनके पास शूटिंग के लिए वक़्त नहीं था। जब फिल्म अटकी रही, तो प्रकाश मेहरा एक दिन गुस्से में धर्मेंद्र के घर पहुंचे और फिल्म को लेकर साफ़ बात करने को कहा! धर्मेंद्र ने प्रकाश का मूड देखा तो उन्हें लगा कि कहीं फिल्म के चक्कर में उनकी दोस्ती में खटास न आ जाए, तो उन्होंने वो स्क्रिप्ट प्रकाश मेहरा को ये कहते हुए सौंप दी कि वे किसी को भी लेकर ये फिल्म बना लें! क्योंकि, फ़िलहाल वो इसके लिए समय निकालने की स्थिति में नहीं हैं। 
    इसके बाद ये प्रकाश मेहरा ने देव आनंद से लगाकर राजकुमार और दिलीप कुमार तक से बात की, पर बात नहीं बनी। देव आनंद की मांग फिल्म में खुद पर चार गाने की थी। राजकुमार की शर्त थी कि फिल्म की शूटिंग मद्रास में हो। जबकि, दिलीप कुमार को फिल्म के नायक का किरदार ही पसंद नहीं आया। फिल्म के लिए प्राण और मुमताज को पहले से तय कर लिया गया था, बस नायक फ़ाइनल नहीं हो पा रहा था। प्राण ने अमिताभ बच्चन का नाम सुझाया और उन दिनों रिलीज 'बॉम्बे टू गोआ' देखने को कहा! 
    प्रकाश मेहरा ने प्राण की सलाह मानी और वो फिल्म देखकर अमिताभ को नायक बनाने का फैसला कर लिया। लेकिन, तभी मुमताज ने फिल्म से कन्नी काट ली। बहाना ये बनाया कि मैं शादी करने का मूड बना रही हूं। जबकि, असल कारण ये था कि उन्हीं दिनों अमिताभ की फिल्म 'बंधे हाथ' रिलीज हुई, जो फ्लॉप हो गई थी। इसके बाद अमिताभ के साथ जया भादुड़ी लेकर फिल्म की तैयारी की गई। उसके बाद जो हुआ, वो आज फिल्म इंडस्ट्री में एक इतिहास बन गया। फिल्म ने कामयाबी की वो ऊंचाई को छुआ कि अमिताभ का डंका बजने लगा, जिसकी गूंज आज भी सुनाई दे रही है।     
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Monday, May 15, 2023

फिल्मी जोड़ियों का प्यार, परिवार को नहीं स्वीकार!

हेमंत पाल

     सिनेमा के कथानक लम्बे अरसे तक प्रेम कहानियों पर केंद्रित रहे। आज भी कोई फिल्म नायक-नायिका के प्रेम के किस्सों के बिना पूरी नहीं होती। जिस फिल्म के कथानक में प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होती, वहां भी कोई कहानी रच ही दी जाती है। क्योंकि, प्रेम के किस्से सभी दर्शकों की पसंद होते हैं। किसी भी दौर का सिनेमा रहा हो, प्रेम कहानियां हमेशा हिट रही हैं। कभी छुपकर प्यार दिखाया गया तो कभी खुलेआम। ऐसे प्रयोगों में कुछ सफल हुए, तो कुछ ने बगावत की। सिनेमा के हर दशक में कोई न कोई ऐसी जोड़ी जरूर बनी, जिसने दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। लेकिन, परदे पर कई बार नकली प्रेम कहानियों को अभिनीत करने वाले कलाकारों की जिंदगी में भी प्रेम की कमी नहीं होती। परदे पर प्रेम का स्वांग रचते-रचते ये कलाकार असल जिंदगी में भी प्रेम के बंधन में बंध जाते हैं! लेकिन, इनकी असल जिंदगी में सिनेमा की तरह प्रेम का सुखद अंत नहीं होता। ऐसे कई किस्से हैं, जब इन कलाकारों का प्रेम परवान नहीं चढ़ सका! कभी परिवार आड़े आया, कभी सामाजिक कारणों ने इनके प्रेम को एक नहीं होने दिया और कभी किसी तीसरे ने बीच में आकर प्रेम को खंडित कर दिया।
     परदे की दुनिया में सबसे रोमांटिक हीरो रहे देव आनंद। अपने ज़माने के इस हैंडसम एक्टर की एक झलक पाने को लड़कियां बेताब रहती थीं। इस कलाकार ने रील के साथ रियल लाइफ में भी कई नायिकाओं से मोहब्बत की। देव आनंद और सुरैया का प्रेम तो उस दौर में ख़बरों में छाया रहा। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान सुरैया पानी में गिरी थीं, तो देव आनंद ने उनकी जान भी बचाई थी। लेकिन, अलग-अलग धर्मों के होने के कारण उनका प्यार शादी तक नहीं पहुंचा। क्योंकि, सुरैया की नानी आड़े आ गईं। उसे सुरैया का देवानंद से मिलना पसंद नहीं था। सुरैया को देव आनंद में अपने पसंदीदा हीरो ग्रेगरी पेक की छवि नजर आती थी। देव आनंद ने सगाई की अंगूठी तक बनवा ली, पर वे उसे सुरैया की उंगली में नहीं पहना सके! वैसे देव आनंद ने शादी तो कल्पना कार्तिक से की, पर उनके अफेयर के किस्सों में जीनत अमान और टीना मुनीम का भी नाम रहा।  
     अशोक कुमार और देविका रानी की प्रेम कहानी का भी अलग अंदाज रहा। देविका रानी को सिनेमा जगत की फर्स्ट लेडी कहा जाता है। दर्शक उनकी मासूमियत के दीवाने थे। देविका और हिमांशु राय ने मिलकर बॉम्बे टॉकीज की स्थापना की थी। लेकिन, धीरे-धीरे देविका और हिमांशु की शादी में खटास आने लगी। 1935 में आई बॉम्बे टॉकीज की फिल्म 'जवानी की हवा' के हीरो नजम-उल-हसन से देविका रानी की आंख लड़ गई। सालभर बाद 1936 में हसन की दूसरी फिल्म 'जीवन नैया' की शूटिंग के दौरान ये प्यार इतना बढ़ा कि दोनों फिल्म छोड़कर कलकत्ता भाग गए। इसके बाद हसन को फिल्म से निकाल दिया गया और नए हीरो के रूप की तलाश शुरू हुई।
     इसके बाद कुमुदलाल कुंजीलाल गांगुली की किस्मत पलटी और वे परदे पर अशोक कुमार बन गए। देविका रानी की अशोक कुमार के साथ 'जीवन नैया' बनी और रिलीज हुई। फिर आई 'अछूत कन्या' (1936) जिसने इतिहास बना दिया। परदे नायक और नायिका असल जिंदगी में भी नजदीक आए। दोनों के खूब किस्से भी चले, लेकिन दोनों की प्रेम कहानी परवान नहीं चढ़ सकी। अशोक कुमार का नलिनी जयवंत और निरूपा राय के साथ भी नाम जुड़ा। 
     सिनेमा में जो लोकप्रियता दिलीप कुमार और मधुबाला को मिली, उसे पाने के लिए आज के कलाकार भी तरसते हैं। दिलीप कुमार अपनी अदाकारी, संवाद अदायगी और मधुबाला अपनी खूबसूरती से चर्चित थी। उन्हें तो फिल्म इतिहास की सबसे सुंदर अभिनेत्री होने का ख़िताब भी मिला। मधुबाला ने कई फिल्मों में काम किया, लेकिन 'मुगल-ए-आजम' उनकी सबसे हिट फिल्म थी। फिल्म में दिलीप कुमार के साथ उनकी जोड़ी को पसंद किया गया था। रियल लाइफ में भी दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे। मगर मधुबाला के पिता को यह मंजूर नहीं था। मधुबाला पर निगाह रखी जाने लगी, फिर भी प्रेम को रोका नहीं जा सका। आखिर एक दिन दिलीप कुमार ने मधुबाला से कहा कि शादी तो होगी, मगर शादी के बाद उसे अपने पिता से संबंध तोड़ना होगा। इसे मधुबाला ने यह स्वीकार नहीं किया। अंततः यह प्रेम कहानी भी खत्म हो गई। 
      बाद में मधुबाला और दिलीप दोनों की जिंदगी में नए लोगों ने दस्तक दी। दिलीप कुमार ने 22 साल छोटी अभिनेत्री सायरा बानो से शादी कर ली। लेकिन, मधुबाला से प्यार को फिल्म इतिहास भी कभी भुला नहीं पाया। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा 'दिलीप कुमार: द सब्सटेंस एंड द शैडो' में भी मधुबाला का जिक्र किया गया है। इसके अलावा दिलीप कुमार और वैजयंती माला के रोमांस के किस्से भी खूब चर्चा में आए। 'गंगा जमुना' के बाद तो दिलीप कुमार उन्हें अपनी हर फिल्म में देखना चाहते थे। लेकिन, वैजयंती माला को चाहने वाले भी कम नहीं थे। 'संगम' के समय राजकपूर भी वैजयंती माला से प्रेम कर रहे थे। एक पार्टी में तो वह वैजयंती माला को लेकर राजेंद्र कुमार से भी भिड़ भी गए थे। हालांकि, वैजयंती माला ने किसी हीरो से नहीं बल्कि एक डॉक्टर से शादी की।
      राज कपूर और नर्गिस वे नामचीन कलाकार थे, जिनकी परदे और परदे से परे की मोहब्बत को आज भी याद किया जाता है। 'आवारा' के निर्माण के दौरान दोनों का प्रेम पनपा। इनकी कई फिल्में साथ आई। राज और नरगिस के रोमांस की चर्चा इतनी हो गई कि कपूर परिवार तक उसकी आंच पहुंची। राज कपूर की पत्नी तो एक बार बच्चों को लेकर मायके चली गई थी। आरके बैनर के लोगो में भी राज कपूर और नरगिस का सीन आज भी जीवित है। लेकिन, इनके प्रेम का अंत भी दुखद रहा। नर्गिस ने 'मदर इंडिया' के बाद सुनील दत्त से शादी कर ली और ये किस्सा यहीं ख़त्म हो गया।  
    गुरुदत्त और वहीदा रहमान की प्रेम कहानी भी अलग ही रही। गुरुदत्त ने ही उन्हें 'सीआईडी' में पहला ब्रेक दिया था। दोनों संपर्क में आए और फिर वहीदा को गुरुदत्त से प्यार हो गया। गुरुदत्त को भी वहीदा 'चौदहवीं का चांद' नजर आईँ। गीता दत्त उनकी पत्नी थी और इस प्रेम कहानी का उनके परिवार पर भी असर पड़ा। कहा जाता है कि इसी वजह से उनका परिवार भी टूटा और गुरुदत्त भी प्रेम में डूबते चले गए। इन हालातों ने उन्हें गहरी उदासी में धकेल दिया और बाद में गुरुदत्त ने आत्महत्या कर ली। माना जाता है कि उनकी आत्महत्या के पीछे कहीं न कहीं प्रेम की असफलता ही कारण रहा। 
    नए ज़माने की खंडित प्रेम कथाओं में अमिताभ और रेखा की जोड़ी सबसे ज्यादा चर्चित रही। लेकिन, दोनों ने कभी इस बात को खुलकर स्वीकार नहीं किया। पर, फिल्म 'सिलसिला' ने इस पूरी कहानी को बयां कर दिया। रेखा और अमि-ताभ की जोड़ी ने कई हिट फिल्में दीं। इन दोनों के बीच प्यार के चर्चे भी हर जुबान पर थे। इन दोनों के बीच अफेयर की वजह से अमिताभ और जया का दांपत्य जीवन भी कुछ समय के लिए कलह से गुजरा। इधर, सलमान खान और ऐश्वर्या रॉय का प्रेम भी लंबे समय तक ख़बरों में बना रहा। बाद में यह जोड़ी भी बिखर गई। वजह बताई गई कि कोई तीसरा इनके बीच आ गया था। शाहिद कपूर और करीना कपूर के प्रेम की चर्चा भी खूब रही। फिल्म 'जब वी मेट' की शूटिंग के दौरान दोनों के बीच खटास आने लगी और धीरे-धीरे ये लव स्टोरी का अंत हो गया। दोनों एक नहीं हो सके और फिर करीना की जिंदगी में सैफ अली आ गए। 
     इसके अलावा सिनेमा जगत में परदे से परे कुछ और जोड़ियां भी ऐसी बनी, जिनके प्रेम के किस्से तो चर्चित हुए, पर इनको मुकाम नहीं मिला। संजय दत्त और माधुरी दीक्षित को लेकर भी चर्चा थी कि दोनों शादी करने वाले हैं। नाना पाटेकर और मनीषा कोईराला के बारे में भी 'अग्निसाक्षी' के बाद यही हवा उड़ती रही। मनीषा चाहती थीं कि नाना पत्नी को तलाक दे दें, मगर ऐसा हुआ नहीं और इनकी लव स्टोरी ने दम तोड़ दिया। मिथुन चक्रवर्ती और श्रीदेवी  कहानियां भी लंबे अरसे तक चली। फिल्म निर्देशक महेश भट्ट और अभिनेत्री परवीन बाबी के बीच भी मोहब्बत थी। महेश भट्ट ने तो पत्नी को छोड़कर परवीन के साथ रहना भी शुरू कर दिया था। लेकिन, परवीन बाबी की सेहत बिगड़ने से बात नहीं बनी। रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण को भी सबसे चर्चित जोड़ी माना जाता था। दीपिका ने तो रणबीर के नाम का टैटू तक बनवाया था। लेकिन, ये लव स्टोरी का सुखद अंत नहीं हुआ। रणवीर कपूर और कैटरीना कैफ के जोड़ी बनने की उम्मीद की गई थी। दरअसल, रील लाइफ वालों के जीवन में रियल लाइफ की प्रेम कथाएं कालजयी हैं। जब तक फ़िल्में हैं, परदे पर भी प्रेम छाया रहेगा और परदे से परे भी ये सिलसिला चलता रहेगा!
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Sunday, May 14, 2023

कर्नाटक की हार के बाद मध्यप्रदेश में क्या बदलेगा!

    कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा के वादे, दावे और रणनीति सब फेल हो गई। हमेशा चुनाव के मोड में रहने वाली पार्टी ने बुरी तरह मुंह की खाई! वहां पार्टी की सरकार चली गई, यहां तक कि जोड़-तोड़ के हालात भी नहीं बन सके। भाजपा की रणनीति के सारे फॉर्मूले फ्लॉप हो गए। सिर्फ फार्मूले ही फ्लॉप नहीं हुए, भाजपा को एक सबक भी मिल गया कि मतदाताओं के मन की थाह लेना आसान नहीं है। अब देखना है कि भाजपा इस चुनाव से मिले सबक से अपने आप में आगे क्या बदलाव करती है। क्या ये सबक मध्यप्रदेश के लिए नजीर बनेंगे, जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होना है! मध्यप्रदेश भाजपा में कुछ बड़े बदलाव किए जाना अब बेहद जरुरी लगने लगा है। क्योंकि, यहां पार्टी 2018 का चुनाव हारी थी।
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- हेमंत पाल 

      र्नाटक के बाद अगले कुछ महीनों में देश के पांच राज्यों में चुनाव होना है। इनमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम हैं। इन पांच राज्यों में मध्यप्रदेश ही सबसे बड़ा राज्य है, जहां भाजपा की सरकार है। उसके लिए प्रतिष्ठा का बड़ा राज्य मध्य प्रदेश ही है। ऐसे में सबका ध्यान इस पर है कि भाजपा की चुनावी रणनीति क्या होगी! यदि कर्नाटक के चुनाव नतीजों से भाजपा कुछ सीखती है, तो उसका सबसे पहला असर मध्यप्रदेश में दिखाई दे सकता है! जो संभावित बदलाव पार्टी में हो सकते हैं, वे क्या होंगे!  क्या एंटी इनकम्बेंसी को भांपकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को हटाया जा सकता है? संगठन की कमजोरी और पार्टी में उभर रहे असंतोष को भांपकर प्रदेश अध्यक्ष को बदला जाएगा? भाजपा के मूल नेताओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जो दी जाएगी? क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के पर कतरे जाएंगे, जो पार्टी में असंतोष का बड़ा कारण बन गया है?  क्या गुजरात फार्मूला लागू करके पूरे मंत्रिमंडल को ही बदला जा सकता है? क्या अनुभवी नेताओं को फिर तवज्जो दी जाएगी, जिन्हें पार्टी ने भाव देना बंद कर दिया है? ये और ऐसे कई सवाल हैं जिनसे पार्टी को आने वाले दिनों में दो-चार होना पड़ेगा!
      मध्यप्रदेश भाजपा में कुछ बड़े बदलाव किए जाना अब बेहद जरुरी लगने लगा है। क्योंकि, यहां पार्टी 2018 का चुनाव हारी थी। उसके बाद कांग्रेस की फूट का फायदा उठाकर उसने तोड़फोड़ करके फिर अपनी सरकार बना ली। यह जो भी राजनीति थी, मतदाता इससे सहमत नहीं है। इसलिए कि मतदाता को लगा कि उन्हें भाजपा ने ठग लिया। उन्होंने जिसके पक्ष में वोट दिया था, छल करके उसमें उभरे असंतोष का फायदा उठाकर सरकार बना ली। भाजपा ने उनके विधायकों को तोड़ा, उनसे इस्तीफे दिलवाए, उनको फिर से चुनाव लड़वाकर अपनी सरकार बना ली। 
    यदि भाजपा 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत को कायम रखना चाहती है, तो इसके लिए पार्टी को कुछ कठोर फैसले करना होंगे! छत्तीसगढ़ में भाजपा का मुकाबला वहां की सत्ताधारी कांग्रेस से है और राजस्थान में भी स्थिति यही है। लेकिन, सबकी नजरें मध्य प्रदेश को लेकर पार्टी की रणनीति पर टिकी हैं कि यहां चुनाव से पहले क्या बदलाव किया जाता है! क्योंकि, अभी तक के हालात बताते हैं कि मध्यप्रदेश में भी ठीक वैसे ही हालात हैं, जैसे कर्नाटक के नतीजों में दिखाई दिए! एंटी इनकंबेंसी कर्नाटक में थी, मध्यप्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। जो भ्रष्टाचार के आरोप वहां के मंत्रियों पर लगे और चुनाव में 40% वाला मुद्दा छाया रहा, वही मध्यप्रदेश में भी है। मध्यप्रदेश में भी भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं की जा सकती। 
    ये वे अहम मुद्दे हैं, जो जनता को सीधे प्रभावित करते हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में पार्टी की संगठनात्मक कमजोरी सबसे बड़ा कारण है। भाजपा का संगठन पिछले 3 साल में करीब-करीब ख़त्म सा हो गया। प्रदेश में भाजपा के तीन गुट काम करते दिखाई दे रहे हैं। एक गुट उन मूल भाजपा के लोगों का है, जो बरसों से भाजपा से जुड़े हैं और उसके लिए काम कर रहे हैं। दूसरा गुट ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में आने वाले नेताओं का है, जो अभी भी भाजपा से वैचारिक रूप से नहीं जुड़ पाए। इनकी प्रतिबद्धता आज भी सिंधिया के साथ है। उन्होंने गले में भगवा पट्टा भले डाल लिया हो, पर तीन साल बाद भी वे खुद को पार्टी की रीति-नीति के अनुरूप ढाल नहीं पाए। भाजपा का तीसरा गुट उन अनुभवी नेताओं का है, जिन्हें भाजपा संगठन ने हाशिए पर रख दिया। यही नाराज भाजपा नेता और कार्यकर्ता इस चुनाव में पार्टी के लिए मुसीबत बन सकते हैं। 
     पार्टी के नए नेताओं ने पुराने अनुभवी नेताओं को जिस तरह अलग-थलग कर दिया, उससे भाजपा में एक बड़ा असंतुष्ट खेमा बन गया। पार्टी के संगठन ने अनुभवी नेताओं को पूरी तरह किनारे कर दिया जो जनसंघ और उससे पहले हिंदू महासभा से भाजपा के साथ जुड़े हैं। लेकिन, अब न तो उनसे बात की जाती है, न उनसे सलाह की जाती है। यही कारण है कि धीरे-धीरे पार्टी में असंतोष बन रहा है। अगले विधानसभा चुनाव में यही असंतोष खुलकर बाहर आएगा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने असंतोष की उस आग में घी का काम किया है। यदि इस साल के अंत में होने वाले चुनाव से पहले भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मध्यप्रदेश में पार्टी को नहीं संवारा, तो निश्चित रूप से आने वाले नतीजे कर्नाटक से भी बदतर होंगे, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। 
    कर्नाटक के नतीजे मध्य प्रदेश के लिए खास संदेश माना जा सकता है। क्योंकि, पिछले तीन साल में प्रदेश में भाजपा में बहुत कुछ बदला है। पुरानी पीढ़ी के कई नेताओं को आराम करने घर भेज दिया गया। कई पुराने विधायकों को मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया। जो मंत्री हैं, उनके लिए आगे का रास्ता बंद करने की तैयारी दिखाई दे रही है। अनुभवी नेताओं की अगली पीढ़ी को परिवारवाद के नाम पर रोकने का फार्मूला बना लिया गया। पार्टी का संगठन पूरी तरह प्रभावहीन हो गया। चाहे जितने दावे किए जाएं, पर पार्टी के कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा से नाराज और उदासीन हैं। पार्टी से रूठे हुए लोगों को मनाने का जिम्मा उन्हें सौंपा गया, जो खुद उपेक्षित और पार्टी से नाराज हैं। 
    अभी तक यह तय माना जा रहा था कि कम से कम एक-तिहाई नए चेहरे चुनाव में उतारे जाएंगे। जो 126 विधायक हैं, उनमें से भी कई को बदला जा सकता है। उन नेताओं को भी घर भेजा जा सकता है, जो अभी तक पार्टी की रीढ़ माने जाते रहे हैं। लेकिन, क्या कर्नाटक के नतीजों को नजीर मानकर पार्टी का कुछ नया सोचेगी! एक संभावना यह भी है कि गुजरात फार्मूला अपनाकर जीत का दांव लगाया जाए! लेकिन, ऐसा करने से पार्टी को फ़ायदा ही होगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। जो मंत्री बाहर होंगे, वे पार्टी के प्रति वफादार होंगे, इसका दावा नहीं है। क्योंकि अब भाजपा में 'निष्ठा' और 'शुचिता' जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। यह सब समझ रहे थे कि कर्नाटक चुनाव के बाद मध्यप्रदेश की शल्य चिकित्सा होगी! लेकिन, अब जबकि कर्नाटक में पार्टी बुरी तरह हारी है, वो मध्य प्रदेश को हाथ से नहीं जाने देगी। लेकिन, इसके लिए क्या होगा? इसके लिए कुछ दिन इंतजार तो करना होगा।  
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Tuesday, May 9, 2023

अनुशासन का दंभ भरने वाली पार्टी में अनुशासनहीनता का तड़का!

- हेमंत पाल
    भारतीय जनता पार्टी हमेशा इस बात का दंभ भरती रही है, कि वो देश की सबसे ज्यादा अनुशासित और कॉडर बेस पार्टी है। उनकी पार्टी में ऊपर से नीचे तक एक व्यवस्था बनी हुई है और अनुशासनहीनता करने वालों के लिए उनके यहां कोई जगह नहीं! यह देखा भी गया था कि भाजपा में वास्तव में अनुशासन है। लेकिन, वह अनुशासन अब नहीं बचा। पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश भाजपा के अनुशासन का ढांचा चरमराने आने लगा है। नेता बेलगाम हो गए। वे खुलेआम पार्टी के खिलाफ बोलते हैं और सीधी टिप्पणी करते हैं। न तो उन्हें चुप कराने की कोशिश होती है न कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई होती है। बल्कि, अब तो ऐसे नेताओं को मनाने का काम शुरू हो गया। इसलिए कि संगठन भी जानता है कि उसकी कमजोरियां क्या है!
       भाजपा ने जबसे राजनीति में कदम रखा और उसे सत्ता मिली, ये पार्टी हमेशा इस बात का दावा करती रही कि वो देश की सबसे अनुशासित पार्टी है। उसका हर नेता और कार्यकर्ता अनुशासन की डोर से बंधा है। न तो वे पार्टी के खिलाफ मुंह खोलते हैं और न अंदर की कोई बात बाहर आती है। जब तक पार्टी सत्ता में नहीं थी, यह बात सही भी साबित हुई। पार्टी ने अपना अनुशासन दिखाया और लोगों ने उसे समझा भी। लेकिन, अब वह धारणा पूरी तरह खंडित हो गई! हाल ही में जिन नेताओं ने अनुशासन की बागड़ तोड़ी, उन्हें अनुशासनहीनता का नोटिस देने के बजाए मनाने की कोशिशें की जा रही है। 
    ताजा मामला मालवा क्षेत्र के तीन भाजपा नेताओं की नाराजगी, विद्रोह और पार्टी के खिलाफ बयानबाजी के रूप में सामने आया। इनमें से एक नेता दीपक जोशी तो पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए। जबकि, सत्यनारायण सत्तन और भंवरसिंह शेखावत अभी पार्टी में है। दोनों को मनाने की कोशिशों में सत्तन के तेवर तो मुख्यमंत्री से मिलने के बाद ठंडे पड़ गए। लेकिन, भंवरसिंह शेखावत की नाराजी अभी बरक़रार है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे आश्चर्य की बात यह है इतने दिनों बाद भी पार्टी ने किसी नेता को अनुशासनहीनता का कोई नोटिस नहीं दिया। न उनसे कोई जवाब-तलब ही किया गया। 
    ऐसा क्यों हुआ, यह बात स्पष्ट समझी जा सकती है कि पार्टी के संगठन को अपनी खुद की कमजोरी का पता है। उनके सामने इन बागी नेताओं ने जो सवाल खड़े किए, उसका संगठन के पास कोई जवाब नहीं है। सभी नाराज नेताओं ने एक ही बात कही कि पार्टी में संवाद के दरवाजे बंद हो गए। अब पार्टी में कार्यकर्ताओं की बात कोई नहीं सुनता! यह बात इस स्थिति में सही लगती है कि इन तीनों नाराज नेताओं का आपस में कोई संबंध नहीं है। इन्होंने कोई योजनाबद्ध तरीके से पार्टी के खिलाफ मोर्चा नहीं खोला और न इन तीनों का ये कोई साझा अभियान था। 
    लेकिन, तीनों ने संवादहीनता और पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की उपेक्षा की जो बात कही, उसे कई तरीके से समझा जा सकता है। यह स्थिति बीते कुछ सालों में ज्यादा बढ़ी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता! ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में अपने समर्थकों के आने के बाद जिस तरह पार्टी की विचारधारा और काम करने की शैली में अंतर आया, उसने भारतीय जनता पार्टी की रीति नीति को पूरी तरह नष्ट कर दिया।  
     भंवरसिंह शेखावत ने तो साफ़ आरोप लगाया कि भाजपा के किसी भी मंत्री पर कभी भ्रष्टाचार के इतने आरोप नहीं लगे, जितने सिंधिया समर्थक मंत्रियों पर कुछ ही दिनों में लग गए। इसका सीधा सा मतलब है कि पार्टी संगठन इन मंत्रियों के खिलाफ उठ रही आवाजों और उन सूचनाओं को नजरअंदाज कर रहा है, जिस पर कार्रवाई होनी चाहिए। अभी तक एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि सिंधिया के जिन मंत्रियों के कारनामे बाहर आए, उनमें से किसी को नोटिस दिया गया या उनसे कभी पूछताछ की गई हो! शेखावत ने तो बकायदा नाम एक मंत्री का नाम लेकर आरोप लगाए। 
    आश्चर्य की बात है कि पार्टी की तरफ से न तो शेखावत को अनुशासनहीनता का नोटिस दिया गया और न अपनी तरफ से सफाई दी गई। यही स्थिति सत्यनारायण सत्तन के साथ भी है। उन्होंने तो ऊपर से नीचे तक पार्टी को धोकर रख दिया। उन्होंने नरेंद्र मोदी से लगाकर अमित शाह तक को नहीं छोड़ा। यह सवाल भी किया कि यदि चुनाव में खड़े होने के लिए कोई उम्र का बंधन है, तो वह नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर लागू क्यों नहीं होता! सवाल गलत नहीं है! आप पार्टी के बड़े नेता हैं, तो भी आप पार्टी की रीति नीति से विलग नहीं रह सकते। 
     बात यहीं तक सीमित नहीं है। पार्टी के वयोवृद्ध नेता रघुनंदन शर्मा ने भी जिस तरह पार्टी की धज्जियां उड़ाई, वह सबसे ज्यादा चिंता की बात है। उन्होंने भाजपा तुलना पांचाली की। यह तुलना कितनी सही है या गलत है ये अलग बात है। लेकिन, उन्होंने जो कहा वह पार्टी संगठन के लिए बेहद चिंतन का विषय तो है! उन्होंने कहा कि प्रदेश में संगठन के पांच प्रभारी हैं और वे कुछ नहीं कर रहे! इसलिए पार्टी की हालत उस द्रोपदी जैसी हो गई है जिसके पांच पति थे। उन्होंने पांचों प्रभारियों पर सीधी उंगली उठाई, जिनकी भूमिका सिर्फ मीटिंग तक सीमित हो गई। 
     यह सही है कि भाजपा अब महज मीटिंग वाली पार्टी बनकर रह गई। वही चार चेहरे भोपाल से लगाकर इंदौर तक दिखाई देते हैं। पर, कोई इस बात की चिंता नहीं करता कि संवादहीनता के बेड़ियां तोड़ी जाए! जो पार्टी के अनुभवी और चिंतक नेता हैं, उनकी बातों को सुना जाए। पुराने नेताओं के अनुभवों का लाभ लिया जाए। तीन साल में ये हालात ज्यादा बिगड़े दिखाई दिए हैं। अभी पार्टी में ऐसे नेता मौजूद हैं, जिन्होंने हिंदू महासभा से लगाकर जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी तक में चुनाव जीते हैं। उन्होंने पार्टी का उत्थान भी देखा है और आज वैचारिक पतन भी देख रहे हैं। जिन्होंने आपातकाल में जेल भी भोगी। उसके बाद भी वे पार्टी के नियम-कायदों से बंधे हैं। रघुनंदन शर्मा की पीड़ा भी वही है, जो फूटकर बाहर आई। 
    जबकि, आज हर समय पार्टी संगठन को सत्ता का भोग ही दिखाई देता है। युवा नेतृत्व के नाम पर ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जा रही है, जिन्हें भाजपा या संघ की विचारधारा से कोई सरोकार नहीं! वे अब न तो किसी वरिष्ठ नेता से मिलते हैं न कभी बात करते हैं। यहां तक कि उन्हें मीटिंग में भी नहीं बुलाया जाता। ऐसी स्थिति में पार्टी के इन जमीनी नेताओं का भधड़कना स्वाभाविक है, जो अब सामने आया! 
    इसके पीछे सिर्फ संगठन को ही दोषी ठहराया जा सकता है और किसी को नहीं! क्योंकि, जब संगठन के जवाबदार नेता गैर जिम्मेदारी से काम करेंगे तो स्वाभाविक है, कि उनके चेले भी उनसे दो कदम आगे निकलने का मौका नहीं छोड़ेंगे! यह स्थिति चुनाव के सात महीने पहले सामने आना उस पार्टी के लिए बेहद चिंताजनक बात है, जो अनुशासन का दंभ भरती रही है। क्योंकि, सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाकर लोगों से वोट नहीं लिए जा सकते। ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित है। जब पार्टी अनुशासन तोड़ने वालों को नोटिस देने के बजाए उन्हें पुचकारने लगेगी, तो उनकी तरह विद्रोह करने वालों को शह ज्यादा मिलेगी! इसका नतीजा क्या होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है! 
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ये नाराजगी और विद्रोह आखिर भाजपा को कहां ले जाएगा!

   भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में इन दिनों विद्रोह पनपकर बाहर आ रहा है। सभी को नाराजी उनकी अनदेखी किए जाने की है! मालवा में तीन पुराने नेताओं ने जो किया वो सामने हैं। अब इन्हें मनाने और पुचकारने की कोशिश हो रही है। लेकिन, क्या सभी नाराज नेताओं को मनाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ही जिम्मेदारी है? पार्टी का संगठन कहां है, जिसका काम ही सबको एकजुट रखना है! संभाला नहीं गया तो ये नाराजी और विद्रोह और जगह से भी उभर सकता है। 
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- हेमंत पाल

     भाजपा के पूर्व विधायक भंवरसिंह शेखावत ने पार्टी के खिलाफ बयान दिया। पार्टी के वयोवृद्ध नेता सत्यनारायण सत्तन भी खुलकर बोले और पार्टी की उन सारी खामियों और भी इशारा किया, जो वे देख और समझ रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी ने तो खुला विद्रोह कर दिया और अब वे कांग्रेस ज्वाइन कर रहे हैं। ये तीन घटनाएं हाल ही में घटी और सबके सामने आई। बात यहीं खत्म नहीं होती, आगे भी पार्टी के कुछ नेता ऐसा कर सकते हैं इस बात के संकेत मिलने लगे हैं। यह विद्रोह या नाराजगी का भाव मालवा तक सीमित नहीं है। पूरे मध्यप्रदेश में अंदर ही अंदर इस तरह का विरोध अलग-अलग कारणों से पनप रहा है। लेकिन, जो कॉमन विरोध है वो है वरिष्ठों की अनदेखी और नौसिखियों को आगे बढ़ाने की कोशिश!
      खास बात यह है ये कि तीनों घटनाएं मालवा क्षेत्र के इंदौर और आसपास की है। लेकिन, पार्टी के किसी वरिष्ठ भाजपा नेता ने इन तीनों नेताओं की नाराजगी दूर करने के लिए न तो उनसे मिलने की कोशिश की, न उनकी पीड़ा को सुना और न अपनी तरफ से कोई ऐसी कोशिश की जिससे लगे कि इन नेताओं को मनाकर, समझाकर शांत किया जा सकता है। तीनों नेताओं को मनाने का काम भी अंततः मुख्यमंत्री को ही करना पड़ा। सत्यनारायण सत्तन को फोन करके भोपाल बुलाया गया, दीपक जोशी से बात की और भंवरसिंह शेखावत को भी मनाने की कोशिशें की जा रही है। इससे लग रहा है कि पार्टी में जो कुछ करना है, वह सब मुख्यमंत्री की ही जिम्मेदारी है और उन्हें ही करना है। वे ही कोशिश करेंगे, वही मनाएंगे, वही आश्वासन भी देंगे। वे ही पार्टी की भविष्य की रणनीति तय करेंगे और बाकी सारे नेता सिर्फ हवाबाजी और फोटोबाजी के लिए हैं। जबकि, ये संगठन मुखिया की जिम्मेदारी है, कि वे पार्टी को एकजुट रखें और नाराजगी का भी इलाज करें।  
      दीपक जोशी की नाराजगी नई बात नहीं है। लंबे समय से इसका इशारा मिल रहा था कि दीपक जोशी हाटपीपलिया को लेकर हुए राजनीतिक उलटफेर से नाराज हैं। उन्होंने कुछ दिनों पहले भी अपनी पीड़ा बताई थी। लेकिन, तब कोई नेता उनके पास नहीं गया। उनकी बातों को भी अनसुना किया गया। उन्होंने जो मुद्दे उठाएं, उन्हें हाशिए पर रख दिया गया। इसी का नतीजा रहा कि उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया। अब लगता भी नहीं कि उनके बढे हुए क़दमों को वापस पलटाया जा सकता है। क्योंकि विपक्ष ने उनकी पीड़ा पर मरहम लगाने का काम जो कर दिया। 
    भंवरसिंह शेखावत की स्थिति भी यही है। जब तक पार्टी को उनकी जरूरत थी, उनका उपयोग किया गया। जब उनके लिए इंदौर में जगह नहीं बची, तो एक बार उन्हें धार जिले के बदनावर सीट से चुनाव लड़ाया गया और वे जीत भी गए। इसके बाद उनको भी हाशिए पर डाल दिया गया। इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि वरिष्ठ और हर तरह से सक्रिय नेता को किनारे क्यों किया गया! पिछले चंद सालों में जो नए नेता इंदौर की राजनीति में उतरे हैं, क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे इन नेताओं के अनुभव से सबक लें, उनसे मिले और यदि उनमें कोई नाराजगी नजर आती है, तो उसे दूर करने की कोशिश जरूर करें। लेकिन, ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया।  
     पार्टी की बैठकों में वही चार चेहरे नजर आते हैं, जो एक-दूसरे की हां में हां मिलाते और मीडिया में छपते रहते हैं। जहां तक सत्यनारायण सत्तन की बात है, तो वे एक प्रसिद्ध कवि होने के साथ बेहद मुखर नेता हैं। अपनी मुखरता से कई बार वे पार्टी की सीमा रेखा को लांघते रहे हैं। लेकिन, इसे गलत नहीं कहा जा सकता। जब पार्टी का संगठन उनकी बात नहीं सुनता, तो उनको भी अधिकार है कि वे पार्टी की खामियों को मंच से बोले। यदि व्यक्ति से बंद कमरे में बात नहीं की जाएगी, तो उसकी मजबूरी है, कि वह अपनी बात कहने की जगह ढूंढने और वही सब सत्तन जी ने भी किया। एक पत्रकार से फोन पर बात करते हुए उन्होंने पार्टी की पूरी बखिया उधेड़ दी। वे जिस तरह बोले, उससे स्पष्ट है कि उनके अंदर ये दर्द लम्बे समय से खदबदा रहा था।  
       सत्यनारायण सत्तन ने जो कहा उसे भले ही पार्टी की रीति-नीति के हिसाब से गलत समझा जाए, लेकिन कुछ और भी कारण होँगे, जिस वजह से उनके गुस्से का ज्वालामुखी फट पड़ा। अब भले उन्हें आश्वासन देने की कोशिश की जा रही है, वह अपनी जगह ठीक है। लेकिन, इस बहाने पार्टी का जो नुकसान होना था और विपक्ष को जो मुद्दे मिलना थे वह तो मिल ही गए। सत्तन जी इतने वरिष्ठ हैं कि उन्हें छोटे-मोटे आश्वासनों से समझाया नहीं जा सकता। वही स्थिति भंवरसिंह शेखावत की भी है। शेखावत ने तो यह भी कहा कि जहां से पार्टी को जीत का भरोसा नहीं हो, वहां मुझे भेज दो। लेकिन, क्या पार्टी उन्हें चुनाव मैदान में उतारेगी! जहां तक दीपक जोशी का मामला है, तो वो बिल्कुल ही अलग है। हाटपीपलिया से चुनाव को लेकर उन्हें कोई भरोसा नहीं दिलाया जा सकता। जबकि, दीपक जोशी तो विपक्ष के उम्मीदवार बनकर मुख्यमंत्री के सामने भी चुनाव लड़ने की बात कह चुके हैं। इससे साफ़ है कि वे अब दिल से भाजपा छोड़ चुके हैं, फिर चाहे पार्टी उनके पिता की मूर्ति ही क्यों न लगवा दे। 
     इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बार के विधानसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति उतनी संतोषजनक नहीं है, जितनी दिखाने या संभालने की कोशिश हो रही है। पार्टी में बहुत सारा विरोध पक रहा है और यह बात पार्टी को भी पता है। जब उसे सुना नहीं गया तो वह बात सड़क पर आ गई। लेकिन, ऐसी स्थिति में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का इस तरह विरोध करना और अपनी नाराजगी व्यक्त करना पार्टी को और ज्यादा नुकसान देगा। यदि सिर्फ इंदौर की ही बात की जाए तो यहां भाजपा में यहां गुटबाजी साफ नजर आती है। कई बड़े नेताओं की बात को अनसुना कर दिया जाता है। युवा के नाम पर नौसिखियों को चांस दिया जाता है। जिन्हें न तो राजनीति का अनुभव है और न वे अनुभवियों से सबक लेना चाहते हैं। 
    बात सिर्फ इंदौर शहर की ही नहीं है। धार जिले की राजनीति में सबसे वरिष्ठ नेता रहे विक्रम वर्मा को भी आज पार्टी ने हाशिए पर डाल दिया। न तो उनसे सलाह दी जाती है, न उनसे कुछ सीखा जाता है। यहां तक कि जो नौसिखिए नेता पैदा हुए हैं, वे उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानकर उनके खिलाफ बयानबाजी करने से भी बाज नहीं आते! जबकि, आज भाजपा में सबसे वरिष्ठ नेताओं में अकेले विक्रम वर्मा ही हैं, जो आज भी सक्रिय हैं। उनके पास हर स्तर का अनुभव है। वे केंद्र से लगाकर राज्य में मंत्री रहे और पार्टी के अध्यक्ष भी रहे हैं। लेकिन, धार के नौसिखिए छोटे-मोटे नेताओं को उनके मुकाबले खड़ा करने की कोशिश की जाती है। यह जानते हुए भी कि विक्रम वर्मा का मुकाबला करने वाला आज की तारीख में धार जिले तो छोड़ इंदौर संभाग और प्रदेश में भी नहीं है। यदि खोजा जाए तो यह स्थिति हर जिले में मिल जाएगी, जहां पिछले तीन साल में पार्टी ने वरिष्ठों को हाशिए पर रखकर ऐसे नए लोगों को मौका दिया है, जिन्हें सिवा हवाबाजी करने के कुछ नहीं आता। यह स्थिति पार्टी के लिए कहीं से ठीक नहीं जा सकती। 
    आज सत्यनारायण सत्तन, भंवरसिंह शेखावत और दीपक जोशी ने विद्रोह किया है! कल को दूसरे नेता भी उनकी राह पर चल सकते हैं यह पार्टी के लिए संकेत है जिसे समझा जाना चाहिए। सत्यनरायण सत्तन की पीड़ा का मूल कारण भी यही है। अब भले उन्हें मनाने की कोशिश हो रही है। देखना है कि सत्यनारायण सत्तन और भंवरसिंह शेखावत को पार्टी किस तरह मनाती है। क्योंकि, दीपक जोशी को मनाने के रास्ते तो अब बंद हो चुके हैं। बल्कि यह कहा जाना बेहतर होगा कि उन्होंने खुद ही अपनी तरफ से दरवाजे बंद कर दिए। 
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Monday, May 8, 2023

हर दौर में नायक पर सद्चरित्रता हावी रही!

- हेमंत पाल

      ब कोई फिल्म बनती है, तो उसके कथानक से ही उसके पात्र तय हो जाते हैं। कथानक में ही नायक को आदर्शवादी, सद्चरित्र और समाजवादी मूल्यों को मानने वाला बताया जाता है! नायिका इन्हीं सदगुणों पर फ़िदा होती है। फिल्म में खलनायक वो है, जो नायक के विपरीत चरित्र वाला खूंखार सा व्यक्ति होता है! यही कारण है कि उसे क्लाइमेक्स में अपने दुर्गुणों की सजा भोगना पड़ती है। फिर इन्हीं सब पात्रों को निभाने वाले कलाकारों का उनकी इमेज के मुताबिक चयन किया जाता है! सौ साल से ज्यादा के फिल्म इतिहास में समय बदला, हालात बदले और दर्शकों की रूचि बदली! पर, नहीं बदला तो नायक का आदर्शवादी सद्चरित्र! जबकि, फिल्मों के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था! वास्तव में समाज के आदर्श चरित्र वाले नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली जो आज तक चल रही है। सालों में इक्का-दुक्का ही कोई फिल्म आती होगी, जिसमें नायक को उसकी पहचान से अलग दिखाया जाता है! अन्यथा नायक तो फिल्मों के आदर्शवाद का प्रतीक आज भी है।    
      वास्तव में आजादी के बाद 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के जहन में देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। आजाद देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने तरीके से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का अलख जगाए घूमता था, वो समाज का सबसे आदर्शवादी व्यक्ति बन गया! यह महबूब खान, दिलीप कुमार, राज कपूर, बिमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद और देव आनंद का दौर था। उधर, बंगाल में सत्यजित राय ने भी इसी वक़्त में अपनी सजग चेतना से भारतीय चिंतन को प्रभावित किया। आवारा, मदर इंडिया और 'जागते रहो' जैसी फ़िल्में भी इसी दौर में बनी। 1955 में राजकपूर की 'श्री 420' आई, जिसमें नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ते पर चल पड़ता है! लेकिन, नायिका आदर्शवाद पर अड़ी रहती है और क्लाइमेक्स तक आते नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत इस दौर में आम बात थी।
     इस दौर में फिल्मकार का पूरा चिंतन समाज के प्रति सरोकार उसके नायक में झलकता था! कई बार तो खलनायक भी नायक के आदर्शवाद से प्रभावित हो जाता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो अंत में उसके लिए पुलिस आ ही जाती थी! शंभु मित्रा की फिल्म 'जागते रहो' भी इसी आदर्शवादी समयकाल का निर्माण था! फिल्म में दिखाया गया था कि अमीर होने के लिए नायक सबकुछ करता हैं! जबकि, ईमानदार गरीब आदमी पानी तक के लिए भी तरसता है। पानी भी पीता है, तो उसे चोर करार दिया जाता है। शम्भू मित्रा के इस गरीब नायक ने पूरे समाज को आईना दिखाया था! समय के साथ फिल्मों का नायकत्व भी सशक्त हुआ! इसलिए कि हमारा समाज हमेशा ही ऐसे नायक की तलाश में रहा है, जो खुद की नहीं सबकी बात करे! समाज के लिए खड़ा हो और जिसमें हर वर्ग का नेतृत्व करने की क्षमता हो! 
      इसका सबसे बड़ा कारण था कि इस दशक में देश की नई सरकार में ही कई नायक थे, जो आजादी की जंग से उभरे थे। महात्मा गांधी वाला युग बीत चुका था, नेहरू का दौर समाज पर हावी था। पं नेहरू की अपनी अलग आइडियोलॉजी थी! वे प्रैक्टिकल लाइफ को समझते थे! फिल्म प्रेमी भी थे और फिल्मकारों की लोकप्रियता से प्रभावित रहते थे। इस दौर में उन्होंने फिल्मों के विकास के लिए कुछ कदम भी उठाए गए! इससे भी फिल्मों में नायकत्व को आधार मिला! पिछले दशकों के मुकाबले आजादी के बाद के इस दशक में फिल्में ज्यादा बेहतर ढंग से अपनी बात कहने लगी! फिल्मों में भाषणबाजी से हटकर मनोरंजन का मसाला दिखाई देने लगा! अभाव, भेदभाव, जातिवाद, गरीबी, सांप्रदायिकता, हिंसा और महिलाओं पर जुल्म जैसी समस्याओं के बीच कहीं न कहीं मसाला और रोमांस नजर आने लगा!
     इस दौर की एक और खास बात रही कि नायक आदर्श और समाजवादी मूल्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक था। लेकिन, उसे ठीक से प्यार करना नहीं आता था। प्यार की अनुभूति मजबूत आकार नहीं ले सकी थी। 'अरेंज्ड मैरेज' का समाज था, जैसी समाज और परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। अपने प्यार की बलि चढ़ा देते थे या समझ ही नहीं पाते थे कि प्यार में क्या किया जाए। इसी दौर में बिमल राय ने 'देवदास' बनाई! एक ऐसा नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न प्यार पा सका। 
       गुरुदत्त की 'प्यासा' में भी यही हुआ। देवदास अगर चाहता तो बहुत आसानी से पारो से शादी करके सुखी जीवन बितता। पारो उसे चाहती भी बहुत थी। लेकिन, फिर वही जमींदारी, लोकलाज, परिवार, समाज आड़े आ गए। फिर उसे चंद्रमुखी से प्यार हुआ, लेकिन वह भी मुकाम पर नहीं पहुँच सका। कारण वही लोकलाज, परिवार और समाज का भय। शायद यह एक तरह से प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देखो, व्यक्तिगत प्यार की कोई औकात नहीं है। देश को देखो, समाज को देखो उसके बाद ही फैसला करे। इस दशक में नायक यह तो बोल ही सका कि 'मैंने दिल तुझको दिया' लेकिन बात आगे नहीं बढ़ा सका, क्योंकि उसमें साहस का अभाव था। क्योंकि, प्रेम की पुकार की तुलना में देश, समाज और परिवार की पुकार ज्यादा बड़ी थी।
     पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, वही हिंदी सिनेमा का सबसे प्रभावी नायक था, जो आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पंडित नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! रूस में तो राजकपूर के लिए दीवानगी जग जाहिर थी! पं नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवादी दृष्टिकोण लिए था! सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समानता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, तो यही काम फिल्मों में हो रहा था! ने भी यही किया। शक नहीं कि जब भी भारतीय फिल्मी नायक का विश्वास डिगेगा, उसे अपने पचास के दशक के पूर्वज नायक से सीखना पड़ेगा! क्योंकि, इस दशक से सीखने के लिए बहुत कुछ है, सरकार को भी और परदे के नायक को भी!
      आजादी के बाद का 50 का दशक पूरी तरह दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद का ही था। जबकि, दक्षिण की इंडस्ट्री पर एमजी रामचंद्रन और एनटी रामाराव का एकछत्र राज कर रहे थे। उधर, बंगाल में 'पाथेर पांचाली' के साथ सत्यजीत रे वैश्विक सुर्खियां बन गए थे। वास्तव में यह दशक कई अग्रणी फिल्मकारों महबूब खान (मदर इंडिया), के. आसिफ (मुगल-ए-आजम), बिमल रॉय (दो बीघा जमीन), गुरु दत्त (प्यासा), बीआर चोपड़ा (नया दौर) का दशक था। इसके बाद का दौर भी शम्मी कपूर जैसे मसखरी अदाकारी करने वाले नायकों का था। देश के दर्शक 'जंगली' के इस याहू नायक के साथ आनंदित थे। शम्मी कपूर को बागी नायक माना जाता रहा। जबकि, सुनील दत्त ऑफ बीट नायक और राजेंद्र कुमार वो नायक थे जिनकी फिल्मों के दर्शक दीवाने थे। इसके बाद जुबली कुमार की ये कुर्सी 'आराधना' के बाद राजेश खन्ना ने ले ली। उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाने लगा था। इसी दौर में ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन ऐसे निर्देशक थे, जो बिमल रॉय के यथार्थवादी सिनेमा के सपने को संवारने में पीछे नहीं थे। 
      नायकों के आदर्शवाद से 70 का दशक भी अलहदा नहीं रहा। इस दशक में उस ब्लैक एंड व्हाइट रोमांस का अंत हुआ जिसमें नायक के समापन का साक्षी बना, जब निर्देशक प्रकाश मेहरा और लेखक सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन के रूप में फिल्म 'जंजीर' में लॉन्च किया। पिछले दशक की ग्लैमर नायिकाओं के स्थान पर जया भादुड़ी (गुड्डी), जीनत अमान (हरे राम हरे कृष्णा) और शबाना आज़मी (श्याम बेनेगल की 'अंकुर') जैसी अपरंपरागत नायिकाओं ने जगह लेनी शुरू कर दी। मुख्यधारा के फिल्म निर्माताओं जैसे रमेश सिप्पी, यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई, मनोज कुमार, सुभाष घई के साथ-साथ एमएस सथ्यू, गोविंद निहलानी, गुलजार, बसु चटर्जी जैसे कला निर्देशक भी उभरते दिखाई देने लगे। इस सबके बावजूद नायक  भूमिका नहीं बदली। कुछ फिल्मों  दिया जाए तो अधिकांश फिल्मों का नायक वैसा ही रहा, जैसा उसे होना चाहिए! 
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