Sunday, May 14, 2023

कर्नाटक की हार के बाद मध्यप्रदेश में क्या बदलेगा!

    कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा के वादे, दावे और रणनीति सब फेल हो गई। हमेशा चुनाव के मोड में रहने वाली पार्टी ने बुरी तरह मुंह की खाई! वहां पार्टी की सरकार चली गई, यहां तक कि जोड़-तोड़ के हालात भी नहीं बन सके। भाजपा की रणनीति के सारे फॉर्मूले फ्लॉप हो गए। सिर्फ फार्मूले ही फ्लॉप नहीं हुए, भाजपा को एक सबक भी मिल गया कि मतदाताओं के मन की थाह लेना आसान नहीं है। अब देखना है कि भाजपा इस चुनाव से मिले सबक से अपने आप में आगे क्या बदलाव करती है। क्या ये सबक मध्यप्रदेश के लिए नजीर बनेंगे, जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होना है! मध्यप्रदेश भाजपा में कुछ बड़े बदलाव किए जाना अब बेहद जरुरी लगने लगा है। क्योंकि, यहां पार्टी 2018 का चुनाव हारी थी।
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- हेमंत पाल 

      र्नाटक के बाद अगले कुछ महीनों में देश के पांच राज्यों में चुनाव होना है। इनमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम हैं। इन पांच राज्यों में मध्यप्रदेश ही सबसे बड़ा राज्य है, जहां भाजपा की सरकार है। उसके लिए प्रतिष्ठा का बड़ा राज्य मध्य प्रदेश ही है। ऐसे में सबका ध्यान इस पर है कि भाजपा की चुनावी रणनीति क्या होगी! यदि कर्नाटक के चुनाव नतीजों से भाजपा कुछ सीखती है, तो उसका सबसे पहला असर मध्यप्रदेश में दिखाई दे सकता है! जो संभावित बदलाव पार्टी में हो सकते हैं, वे क्या होंगे!  क्या एंटी इनकम्बेंसी को भांपकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को हटाया जा सकता है? संगठन की कमजोरी और पार्टी में उभर रहे असंतोष को भांपकर प्रदेश अध्यक्ष को बदला जाएगा? भाजपा के मूल नेताओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जो दी जाएगी? क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के पर कतरे जाएंगे, जो पार्टी में असंतोष का बड़ा कारण बन गया है?  क्या गुजरात फार्मूला लागू करके पूरे मंत्रिमंडल को ही बदला जा सकता है? क्या अनुभवी नेताओं को फिर तवज्जो दी जाएगी, जिन्हें पार्टी ने भाव देना बंद कर दिया है? ये और ऐसे कई सवाल हैं जिनसे पार्टी को आने वाले दिनों में दो-चार होना पड़ेगा!
      मध्यप्रदेश भाजपा में कुछ बड़े बदलाव किए जाना अब बेहद जरुरी लगने लगा है। क्योंकि, यहां पार्टी 2018 का चुनाव हारी थी। उसके बाद कांग्रेस की फूट का फायदा उठाकर उसने तोड़फोड़ करके फिर अपनी सरकार बना ली। यह जो भी राजनीति थी, मतदाता इससे सहमत नहीं है। इसलिए कि मतदाता को लगा कि उन्हें भाजपा ने ठग लिया। उन्होंने जिसके पक्ष में वोट दिया था, छल करके उसमें उभरे असंतोष का फायदा उठाकर सरकार बना ली। भाजपा ने उनके विधायकों को तोड़ा, उनसे इस्तीफे दिलवाए, उनको फिर से चुनाव लड़वाकर अपनी सरकार बना ली। 
    यदि भाजपा 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत को कायम रखना चाहती है, तो इसके लिए पार्टी को कुछ कठोर फैसले करना होंगे! छत्तीसगढ़ में भाजपा का मुकाबला वहां की सत्ताधारी कांग्रेस से है और राजस्थान में भी स्थिति यही है। लेकिन, सबकी नजरें मध्य प्रदेश को लेकर पार्टी की रणनीति पर टिकी हैं कि यहां चुनाव से पहले क्या बदलाव किया जाता है! क्योंकि, अभी तक के हालात बताते हैं कि मध्यप्रदेश में भी ठीक वैसे ही हालात हैं, जैसे कर्नाटक के नतीजों में दिखाई दिए! एंटी इनकंबेंसी कर्नाटक में थी, मध्यप्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। जो भ्रष्टाचार के आरोप वहां के मंत्रियों पर लगे और चुनाव में 40% वाला मुद्दा छाया रहा, वही मध्यप्रदेश में भी है। मध्यप्रदेश में भी भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं की जा सकती। 
    ये वे अहम मुद्दे हैं, जो जनता को सीधे प्रभावित करते हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में पार्टी की संगठनात्मक कमजोरी सबसे बड़ा कारण है। भाजपा का संगठन पिछले 3 साल में करीब-करीब ख़त्म सा हो गया। प्रदेश में भाजपा के तीन गुट काम करते दिखाई दे रहे हैं। एक गुट उन मूल भाजपा के लोगों का है, जो बरसों से भाजपा से जुड़े हैं और उसके लिए काम कर रहे हैं। दूसरा गुट ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में आने वाले नेताओं का है, जो अभी भी भाजपा से वैचारिक रूप से नहीं जुड़ पाए। इनकी प्रतिबद्धता आज भी सिंधिया के साथ है। उन्होंने गले में भगवा पट्टा भले डाल लिया हो, पर तीन साल बाद भी वे खुद को पार्टी की रीति-नीति के अनुरूप ढाल नहीं पाए। भाजपा का तीसरा गुट उन अनुभवी नेताओं का है, जिन्हें भाजपा संगठन ने हाशिए पर रख दिया। यही नाराज भाजपा नेता और कार्यकर्ता इस चुनाव में पार्टी के लिए मुसीबत बन सकते हैं। 
     पार्टी के नए नेताओं ने पुराने अनुभवी नेताओं को जिस तरह अलग-थलग कर दिया, उससे भाजपा में एक बड़ा असंतुष्ट खेमा बन गया। पार्टी के संगठन ने अनुभवी नेताओं को पूरी तरह किनारे कर दिया जो जनसंघ और उससे पहले हिंदू महासभा से भाजपा के साथ जुड़े हैं। लेकिन, अब न तो उनसे बात की जाती है, न उनसे सलाह की जाती है। यही कारण है कि धीरे-धीरे पार्टी में असंतोष बन रहा है। अगले विधानसभा चुनाव में यही असंतोष खुलकर बाहर आएगा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने असंतोष की उस आग में घी का काम किया है। यदि इस साल के अंत में होने वाले चुनाव से पहले भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मध्यप्रदेश में पार्टी को नहीं संवारा, तो निश्चित रूप से आने वाले नतीजे कर्नाटक से भी बदतर होंगे, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। 
    कर्नाटक के नतीजे मध्य प्रदेश के लिए खास संदेश माना जा सकता है। क्योंकि, पिछले तीन साल में प्रदेश में भाजपा में बहुत कुछ बदला है। पुरानी पीढ़ी के कई नेताओं को आराम करने घर भेज दिया गया। कई पुराने विधायकों को मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया। जो मंत्री हैं, उनके लिए आगे का रास्ता बंद करने की तैयारी दिखाई दे रही है। अनुभवी नेताओं की अगली पीढ़ी को परिवारवाद के नाम पर रोकने का फार्मूला बना लिया गया। पार्टी का संगठन पूरी तरह प्रभावहीन हो गया। चाहे जितने दावे किए जाएं, पर पार्टी के कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा से नाराज और उदासीन हैं। पार्टी से रूठे हुए लोगों को मनाने का जिम्मा उन्हें सौंपा गया, जो खुद उपेक्षित और पार्टी से नाराज हैं। 
    अभी तक यह तय माना जा रहा था कि कम से कम एक-तिहाई नए चेहरे चुनाव में उतारे जाएंगे। जो 126 विधायक हैं, उनमें से भी कई को बदला जा सकता है। उन नेताओं को भी घर भेजा जा सकता है, जो अभी तक पार्टी की रीढ़ माने जाते रहे हैं। लेकिन, क्या कर्नाटक के नतीजों को नजीर मानकर पार्टी का कुछ नया सोचेगी! एक संभावना यह भी है कि गुजरात फार्मूला अपनाकर जीत का दांव लगाया जाए! लेकिन, ऐसा करने से पार्टी को फ़ायदा ही होगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। जो मंत्री बाहर होंगे, वे पार्टी के प्रति वफादार होंगे, इसका दावा नहीं है। क्योंकि अब भाजपा में 'निष्ठा' और 'शुचिता' जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। यह सब समझ रहे थे कि कर्नाटक चुनाव के बाद मध्यप्रदेश की शल्य चिकित्सा होगी! लेकिन, अब जबकि कर्नाटक में पार्टी बुरी तरह हारी है, वो मध्य प्रदेश को हाथ से नहीं जाने देगी। लेकिन, इसके लिए क्या होगा? इसके लिए कुछ दिन इंतजार तो करना होगा।  
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