Friday, July 21, 2023

परदे पर उतरा चांद और कल्पना में खोये गीत

- हेमंत पाल 

   अभी तक चांद हमारी पहुंच से दूर था। अब उसे तीसरी बार उसे छूने की कोशिश की गई है। ये कोशिश सफल होती है या नहीं, ये बात अलग है। पर, चांद एक बार फिर चर्चा में है। हमारे पर्व, त्योहार और सामाजिक मान्यताओं में चांद को बरसों से पूजा जा रहा है। महिलाओं के कई त्यौहार चांद को पूजने से ही जुड़े हैं। वास्तव में धरती से अलग सूरज और चांद ही हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं। लेकिन, सूरज को लेकर हमारी मान्यता अलग है और चांद को लेकर अलग। चांद के साथ कई कल्पनाएं जुड़ी हैं, उनमें से एक है प्रेम का प्रतीक। जहां भी प्रेम है, वहां चांद है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की सुंदरता की कल्पना चांद से करता है। यही कारण है कि हमारी फिल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी सालों से चांद छाया रहा। फ़िल्मों ने हमेशा चांद के जरिए दर्शकों के दिल के तारों को छेड़कर फिल्माकाश की सतह पर उतरने में कामयाबी हांसिल की।
     आसमान में चांद की जितनी कलाएं हैं, फिल्मकारों ने उन तमाम कलाओं को समेटकर सेल्युलाईट पर उतारने का प्रयास भी किया। दूज के चांद से लगाकर पूनम के चांद तक को पृष्ठभूमि में रखकर फ़िल्मों ने हमेशा दर्शकों को गुदगुदाया। जबकि, धरती से हजारों मील दूर चांद ने भी फिल्मकारों को कई दिलचस्प अवसर दिए। उन्होंने कभी फिल्म के शीर्षक से चांद को जोड़ा तो कभी गीत के शब्दों में चांद को हिस्सेदार बनाया। दर्शकों ने भी हीरो-हीरोइन के सुर में सुर मिलाकर दर्शकों को गुनगुनाने के लिए मजबूर किया। चांदनी रात में बांहों में बाहें डाले प्रेमी युगल को छेड़खानी करते दिखाकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कर चांद ने हमेशा फिल्मकारों का साथ निभाया।
     याद किया जाए तो चांद शीर्षक से बनने वाली फिल्मों में चांद, दूज का चांद, चौदहवीं का चांद, चांद मेरे आजा, चोर और चांद, चांद का टुकड़ा, ईद का चांद, चांदनी, ट्रिप टू मून, पूनम, पूनम की रात सहित दर्जनों फिल्में बनी और इनमें ज्यादातर फ़िल्में सफल हुई! चांद को केंद्र में रखकर अभी तक कई फ़िल्में बन चुकी है। 'मिशन मंगल' से लगाकर 'रॉकेट्री' और 'मून मिशन' जैसी कई फ़िल्में आई जिनमें चांद पर ही कथानक लिखे गए। 1963 में आई 'कलाई आरसी' पहली इंडियन स्पेस फिल्म थी, जिसमें स्पेस ट्रैवलिंग और एलियंस को दिखाया गया था। इसके बाद अंतरिक्ष मिशन और स्पेस पर कई फिल्में बनीं। 1967 में आई 'चांद पर चढ़ाई' साइंस फिक्शन फिल्म थी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में चांद पर लैंडिंग को कल्पना के जरिए दिखाया गया था। जबकि, इसके दो साल बाद अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चांद की सतह पर उतरे थे। इस फिल्म में एस्ट्रोनॉट की भूमिका में दारा सिंह नजर आए थे।
      आर माधवन की फिल्म 'रॉकेट्री: द नांबी इफेक्ट' इसरो के एयरोस्पेस इंजीनियर नांबी नारायणन की बायोपिक है। 2019 में आई फिल्म 'मिशन मंगल' इसरो के वैज्ञानिकों के पहले मार्स ऑर्बिटर मिशन के सफल परीक्षण की कहानी दिखाती है। विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी की फिल्म 'कार्गो' में 2027 का समय दिखाया गया था, जब इंसान चांद से आगे मंगल और बृहस्पति तक पहुंच जाएगा। ऐसी ही 'टिक टिक टिक' की कहानी स्पेस ऑपरेशन पर आधारित है, जिसमें इसरो के वैज्ञानिकों को पता चलता है कि एक एस्टेरोइड तेज गति से पृथ्वी की ओर आ रहा है, जो चेन्नई में गिरेगा। 2003 में स्पेसशिप और एलियन पर 'कोई मिल गया' आई थी, लेकिन इसमें चांद का जिक्र नहीं था।
      सिर्फ हिंदी फिल्मकारों को ही चांद के प्रति आकर्षण नहीं रहा, हॉलीवुड में भी चांद हमेशा जिज्ञासा का विषय रहा है। ऐसी कई फ़िल्में बनाई जो मून मिशन पर केंद्रित थी। ऐसी ही एक फिल्म थी 'द मार्शियन' (2015) जिसका डायरेक्शन रिडले स्कॉट ने किया था। इसमें मैट डैमन की मुख्य भूमिका थी। यह  फिल्म एक मिशन की कहानी थी जिसमें मुख्य किरदार को कई परेशानियां उठाना पड़ती हैं। इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते। चांद की धरती पर कदम रखने वाले पहले व्यक्ति नील आर्म स्ट्रांग की जिंदगी पर बनी फिल्म 'फर्स्ट मैन' 2018 में रिलीज हुई थी। डेमियन शैजेल के डायरेक्शन में बनी इस फिल्म में नील आर्म स्ट्रांग का कथानक है। जब उन्होंने चांद पर कदम रखा तो उनके सामने क्या चुनौतियां सामने आईं और कैसा रहा था, यह मिशन उन सारी बातों पर ध्यान खींचती है। 2007 में आई फिल्म 'इन द शैडो ऑफ मून' का डायरेक्शन डेविड सिंगटन और क्रिस्टोफर रिले ने किया था। इस फिल्म ने वर्ल्ड सिनेमा ऑडियंस अवॉर्ड जीता था। इस फिल्म में अमेरिका की उन कोशिशों का जिक्र था जब 1960 और 70 में अमेरिकी सरकार ने चांद पर जाने का अभियान शुरू किया था। नासा से लिए कुछ ओरिजनल फुटेज का भी फिल्म में इस्तेमाल किया गया था।
    अपोलो अभियान का तृतीय मानव अभियान 'अपोलो 13' था, जिस पर इसी नाम से फिल्म बनी। अपोलो 13 को 1970 में प्रक्षेपित किया गया था। यह फिल्म 1995 में रिलीज हुई थी। इस अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण के दो दिन बाद ही इसमें विस्फोट हुआ, जिस कारण नियंत्रण यान से ऑक्सीजन का रिसाव शुरू हो गया और बिजली व्यवस्था चरमरा गई थी। अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रयान को जीवन रक्षक यान के रूप में प्रयोग किया और पृथ्वी पर सफलतापूर्वक लौट आने में सफल रहे। इस दौरान उन्हे बिजली, गर्मी और पानी की कमी जैसी मुसीबतों से भी जूझना पड़ा था। लेकिन, फिर भी वे मौत के मुंह से निकल आए थे। 1989 में आई फिल्म 'मूनट्रैप' साइंस फिक्शन पर आधारित थी। लेकिन, इसका कनेक्शन चांद से था। फिल्म में दिखाया गया था कि दो स्पेस शटल एस्ट्रोनॉट्स को कुछ रोबोट चांद का लालच देकर ले जाते हैं। क्योंकि, उन्हें मानव अंग चाहिए होते हैं।
     सिर्फ फिल्मों के शीर्षकों में ही चांद नहीं उतरा। चांद पर सैकड़ों गीत भी लिखे गए। 'दिल' शब्द के बाद शायद 'चांद' ही गीतकारों का पसंदीदा रहा। धरती से चांद जितना सुंदर दिखाई देता है, उतने ही सुंदर गीत गीतकारों ने कलम बंद किए। जहां भी नायिका के रूप को कल्पनाशीलता में बांधा गया, चांद को जरूर याद किया गया। फिर चाहे वो 'चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो भी हो तुम खुदा की कसम' जैसा कालजयी गीत ही क्यों न हो। इसमें नायक ने अपनी नायिका को चांद के बहाने न जाने कितनी उपमाएं दी। माहौल चाहे खुशी का हो या गम का, मिलन का हो या जुदाई का, हिंदी फिल्मों में चांद को हमेशा प्रतीक या गवाह बनाने के प्रयास किए गए। 
    याद कीजिए कुछ सदाबहार गीत धीरे-धीरे चल चांद गगन में (लव मैरिज 1959), खोया-खोया चांद, खुला आसमान (काला बाज़ार 1960), चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो (चौदहवीं का चांद 1960), ये चांद सा रोशन चेहरा, जुल्फों का रंग सुनहरा’ (कश्मीर की कली 1964), लो दिलदार चलो चांद के पार चलो (पाकीजा 1972), चंदा रे चंदा रे कभी तो जमीन पर आ बैठेंगे बातें करेंगे’(सपने 1997), चांद ने कुछ कहा, रात ने कुछ कहा, तू भी सुन बेखबर, प्यार कर (दिल तो पागल है 1997), जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला (जख्म 1998), चांद छुपा बादल में, शरमा के मेरी जाना’ (हम दिल दे चुके सनम 1999), चंदा मामा सो गए, सूरज चाचू जागे’ (मुन्ना भाई एमबीबीएस 2003) के अलावा उठा धीरे-धीरे वो चांद प्यारा प्यारा, आजा सनम मधुर चांदनी मे हम, वो चांद जहां वो जाए, चांद सी महबूबा हो मेरी, धीरे-धीरे चल चांद गगन में, चांद फिर निकला मगर तुम न आए और ये चांद सा रोशन चेहरा समेत सैकड़ों सुरीले गीत चांद पर रचे गए। ख़ास बात ये कि चांद की हकीकत जानने के बाद भी इनमें कमी नहीं आई!
     सिनेमा के सितारों की अलग-अलग छवि रही है! लेकिन, चांद ने इन अलग-अलग छवियों वाले छैल-छबिलों को अपने साथ जोड़ने का करिश्मा कर दिखाया। यही कारण है, कि किसी एक फिल्म में राजकपूर और नरगिस की जोड़ी 'उठा धीरे धीरे वो चांद प्यारा प्यारा' गीत का राग छेड़ती है, तो दूसरी फिल्म में रोमांटिक देव आनंद माला सिंहा की जोड़ी 'धीरे धीरे चल चांद गगन' गुनगुनाते दिखाई पड़ती है। ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार भी चांद को देखकर रूमानी होकर वैजयंती माला से 'तुझे चांद के बहाने देखूं' कहे बिना नहीं रहते। विनोद खन्ना और ऋषि कपूर की फिल्म 'चांदनी' में 'चांदनी मेरी चांदनी' कहते हुए श्रीदेवी के पीछे दौड़ लगाने लगते हैं। 1957 में बनी 'देवता' में भी नायिका 'ए चांद कल तू आना, उनको भी साथ लाना उनके बगैर प्यार आज बेक़रार है' गुनगुनाते हुए दिखाई देती है। इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि 1978 में फिर बनी 'देवता' में भी संजीव कपूर और शबाना आजमी 'चांद चुरा के लाया हूँ, चल बैठे चर्च के पीछे' गाते नजर आते हैं।
      यह चांद का ही चमत्कार है कि फिल्मों में अक्सर गानों से दूर रहने वाले राजकुमार कभी 'चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो' और 'चांद आहें भरेगा' गाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। चांद की लोकप्रियता भी कमाल की है। गुजरे जमाने के कुछ फिल्मी कलाकारों में अपने नाम के साथ चांद को जोड़ा और नाम रखे चांद उस्मानी, चंद्रशेखर और चंद्रमोहन। आज की हकीकत भले ही यह हो कि चांद की सतह चूमने की चाहत में चंद्रयान उसकी सतह के आसपास पहुंच गया है। लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने धरती का चक्कर लगाने वाले चांद के बेशुमार चक्कर लगाए। संभावना है कि यह सिलसिला आगे भी यूँ अनवरत चलता रहेगा। क्योंकि, चाँद ऐसे ही चमकता रहेगा और प्रेमी दिलों में भी उसके बहाने प्रेम भी उमड़ेगा!
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Tuesday, July 18, 2023

नरेंद्र तोमर कैसे बदलेंगे भाजपा के चुनावी समीकरण!

    मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव की कमान नरेंद्र तोमर को फिर से सौंपने से यह साबित हो गया कि चुनावी रणनीति बनाने में पार्टी में अभी उनका विकल्प नहीं है। ये फैसला इसलिए किया गया कि मध्यप्रदेश में भाजपा इन दिनों संक्रमण से गुजर रही है। दिखाया नहीं जा रहा है, पर इस सच्चाई को नकारा भी नहीं जा सकता। इतने लम्बे कार्यकाल के बाद भी पार्टी को भरोसा नहीं है, कि वो फिर सत्ता में लौट सकेगी। तोमर को ये जिम्मेदारी सोच-समझकर दी गई। क्योंकि, पार्टी के पुराने नेताओं में ये नाराजगी पनप रही थी, कि उनकी बात नहीं सुनी जाती। पार्टी में कोई तवज्जो नहीं मिल रही और न उनसे कोई सलाह-मशविरा किया जाता है। 

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- हेमंत पाल
   
      भाजपा के दूसरे नंबर के सर्वशक्तिमान नेता अमित शाह ने भोपाल में अपनी बैठक में जो सबसे सटीक और कारगर फैसला किया वो रहा केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर को एक बार फिर मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना। ये भाजपा के केंद्रीय संगठन का बहुत सोच-समझकर किया फैसला लगता है। क्योंकि, नरेंद्र तोमर ही प्रदेश भाजपा के वो नेता हैं, जो धारा मोड़ने की क़ाबलियत रखते हैं। उनकी राजनीतिक दक्षता निर्विवाद है। पूरे प्रदेश की राजनीतिक तासीर और मतदाताओं के मूड को उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता। वे भले ही ग्वालियर-चंबल इलाके के नेता हों, पर प्रदेश के हर इलाके के गांव-गांव तक उनकी पहुंच है। हर जगह ऐसे पार्टी कार्यकर्ता मिल जाएंगे, जिन्हें नरेंद्र तोमर उनके नाम, चेहरे और उनकी राजनीतिक क्षमता से जानते हैं। अब, जबकि चुनाव की कमान उनके हाथ में है, तो तय है कि भाजपा को इसका फ़ायदा भी मिलेगा।  
      पार्टी के इस फैसले का कारण यह रहा कि मध्यप्रदेश में भाजपा इन दिनों संक्रमण के गंभीर दौर से गुजर रही है। ये दिखाया नहीं जा रहा, पर इस सच को नकारा भी नहीं जा सकता। 18 साल के लम्बे कार्यकाल के बाद भी पार्टी को पूरा भरोसा नहीं है, कि वो फिर सत्ता में लौट सकेगी। यही कारण है कि रोज नई-नई घोषणाएं करके जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश हो रही है। वो सारे लोकलुभावन हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जो सत्ता में वापसी के लिए किए जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि भाजपा के सामने कांग्रेस की चुनौती बहुत सशक्त है। कांग्रेस ऐसा कुछ नहीं कर रही, जो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी करे। जो गलतियां पार्टी के नेताओं से हुई है, उसके लिए किसी दूसरे जिम्मेदार नहीं बताया जा सकता। आशय यह कि भाजपा यदि फिर सत्ता पाने से दूर रहती है तो वो उसकी अपनी गलतियां होंगी। यही सब समझकर पार्टी ने नरेंद्र तोमर को कमान सौंपी है कि वे पार्टी को सत्ता में लाने के लिए हर संभव प्रयास करें।       
     अमित शाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी बहुत सोच-समझकर और पार्टी हित को देखते हुए सौंपी है। क्योंकि, पिछले कई दिनों से पार्टी के अनुभवी और पुराने नेताओं में ये नाराजगी पनप रही थी, कि उनकी बात नहीं सुनी जाती। उन्हें पार्टी में कोई तवज्जो नहीं मिल रही और न उनसे कोई सलाह-मशविरा किया जाता है। ये बात काफी हद तक सही भी है। मालवा इलाके के कुछ नेता इसे लेकर मुखर भी हुए। कटनी में तो पार्टी के कई पुराने विधायकों ने इसी मुद्दे पर पार्टी तक छोड़ दी। कहा जाता है कि ये मसला इसलिए उलझा कि प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने इस बात पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। उन्होंने उन अनुभवी नेताओं को वो तवज्जो नहीं दी, जो उन्हें मिलना चाहिए! कार्यकर्ताओं की भी शिकायत थी, कि उनकी बात सुनने वाला पार्टी में कोई नहीं है। इसका नतीजा ये हुआ कि पार्टी में असंतोष पनपने लगा था। नरेंद्र तोमर के आने से निश्चित रूप से ये सारे लोग खुश होंगे।                 नरेंद्र तोमर 2006 से 2009 तक प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे। इसके बाद 2012 के अंत से उन्हें फिर अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने 2013 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव करवाया। 2018 में उन्हें चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी जरूर दी गई, लेकिन चुनाव में जीत को लेकर शिवराज सिंह के अतिआत्मविश्वास कारण वे कुछ ख़ास कर नहीं सके। टिकट बंटवारे में भी उनकी बातों को नहीं सुना गया। इसी का नतीजा था कि पार्टी स्पष्ट बहुमत से पिछड़ गई। बाद में पार्टी कैसे फिर सत्ता में आई, ये अलग कहानी है। पर, सच्चाई यही है कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी मतदाताओं ने नकार दिया था।     
    इस बार के चुनाव में तोमर की सबसे बड़ी भूमिका होगी पूरे चुनाव अभियान में समन्वय बनाकर रखना। दिखने में यह आसान भले लगे, पर ये बेहद मुश्किल काम है। उन्हें चुनाव अभियान में लगी सभी समितियों में सामंजस्य तो बनाना ही है, उन्हें सही दिशा देकर चुनौतियों के लिए तैयार भी करना है। सीधे शब्दों में कह जाए तो चुनाव अभियान के दौरान होने वाली सारी परेशानियों को हल करने के साथ उन्हें जीत के लिए रास्ता तैयार करना है। नरेंद्र तोमर के लिए ये मुश्किल इसलिए नहीं है कि पार्टी में उनके संबंध हर स्तर पर बहुत प्रगाढ़ और भरोसेमंद हैं। वे जमीनी हकीकत भी जानते हैं और पार्टी की स्थिति से अनजान नहीं हैं। 
    समझा जा रहा है कि उन्हें समन्वय में यदि कहीं परेशानी आई, तो वो है ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के मामले में। इसमें कोई शक नहीं कि टिकट वितरण में ये एक बड़ा पेंच बनेगा। क्योंकि, इस बात के पूरे आसार है कि वे पार्टी की बनाई चुनाव रणनीति से अलग जाकर अपने समर्थकों को टिकट देने के लिए अपना दबाव बनाएंगे। जबकि, पार्टी स्पष्ट कर चुकी है कि टिकट उन्हीं को मिलेगा, जो पार्टी के केंद्रीय सर्वे में खरा उतरेगा! ऐसे में तोमर को समन्वय में दिक्कत होने की संभावना गलत नहीं है। इसलिए कि दोनों नेता एक ही इलाके के हैं और राजनीतिक रूप से दोनों बरसों तक प्रतिद्वंदी भी रहे। अभी दोनों भले ही एक पार्टी के नेता हों, पर कहीं न कहीं दोनों में खींचतान से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा लगता नहीं कि प्रदेश का कोई इलाका ऐसा हो, जहां तोमर की बात को नहीं सुना जाए! 
    भाजपा के इस नेता की नेता की सबसे बड़ी ताकत है प्रदेशभर में उनका नेटवर्क और उस पर सौ टंच भरोसा। उनका राजनीतिक अनुभव, कार्यकर्ताओं में उनके प्रति विश्वास और बात का वजन उनकी बड़ी ताकत है। टिकट वितरण के समय उनकी यही क्षमता पार्टी के काम आने वाली है। क्योंकि, पार्टी यदि यही भूमिका किसी और नेता को सौंपती, तो निश्चित रूप से विद्रोह होने का डर ज्यादा था। नरेंद्र तोमर की एक और खासियत है कि वे कम बोलते हैं, अंतर्मुखी हैं और जब बोलते हैं, तो उनकी बात को सुना और समझा जाता है। संगठन चलाने का उनका अनुभव बरसों से उनके हर कदम में दिखाई दिया।
    प्रदेश अध्यक्ष के दो कार्यकाल ने उन्हें राजनीतिक रूप से परिपक्व तो किया ही, संपर्क के मामले में भी समृद्ध किया। देखा गया है कि जब कोई पैचीदगी आती है, तो उनके पास तरकीब से काम निकालने की कला भी है। उनका धैर्य भी उनकी ताकत बढ़ाता है। उनके चेहरे के भाव से उनकी सोच का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। वे हर कार्यकर्ता की बात सुनने की क्षमता रखते हैं। हर पक्ष को संतुष्ट करने की कला जानते हैं। क्योंकि, कार्यकर्ता अपने नेता से भरोसेमंद आश्वासन चाहता है, जो तोमर देना जानते हैं। यही कारण है कि वे पार्टी के केंद्र में बैठे दो बड़े नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सबसे विश्वस्त लोगों में गिने जाते हैं। 
    इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मध्य प्रदेश में भाजपा विधानसभा चुनाव में जीत के प्रति अपना आत्मविश्वास खो चुकी थी। दिखावे के लिए भले इससे इंकार किया जाए, पर यह बात जगजाहिर है कि संगठन की कमजोरी सड़क पर आ गई थी। ऐसे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने कोई नया प्रयोग करने के बजाए फिर अनुभवी नेता को चुनाव की लगाम थमाई है, ताकि पिछले सालों में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जा सके। चुनावी संरचना के नए खेवनहार नरेंद्र तोमर के आने से पार्टी के हर खेमे में नई ऊर्जा आने का इशारा दिख रहा है। अब सारा दारोमदार चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव और अश्विनी वैष्णव के साथ तोमर का है कि वे इस मुश्किल घड़ी में पार्टी की नैया को कैसे पार लगाते हैं।  
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Saturday, July 15, 2023

राजनेताओं पर बनी फ़िल्में कितनी असरदार!

- हेमंत पाल

      फ़िल्में मनोरंजन का माध्यम होती हैं, इनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता। लेकिन, फिर भी फिल्मों के नाम पर राजनीति भी होती है और राजनीतिक विषयों पर फ़िल्में भी बनती रहती है। यहां तक कि कई राजनीतिकों पर फ़िल्में भी बनाई जाती है। इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री से लगाकर नरेंद्र मोदी तक पर फ़िल्म बनी। लेकिन, कुछ ऐसे नेताओं पर भी फ़िल्में बनाई गई, जो पूरी जिंदगी किसी बड़े पद पर तो नहीं पहुंचे, पर जनता पर उनका जबरदस्त प्रभाव रहा। अभी भी देश के दो प्रधानमंत्रियों पर बन रही फ़िल्में चर्चा में हैं। एक है इंदिरा गांधी पर और दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी पर। ये दोनों राजनेता अपने समय काल में काफी चर्चित रहे। नाम से ही जाहिर है कि इंदिरा गांधी पर बन रही नई फिल्म 'इमरजेंसी' इस महिला राजनेता के विवादास्पद दौर के समय के फैसलों पर बन रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस फिल्म को लेकर विवाद खड़े हो सकते हैं।
     इससे पहले गुलजार ने 1975 में 'आंधी' फिल्म बनाई थी, जिसमें फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन एक महिला राजनेता के किरदार में नजर आई थीं। हालांकि, फिल्म की कहानी से इंदिरा गांधी का कोई तारतम्य नहीं था, पर नायिका का पहनावे को पूर्व प्रधानमंत्री से जोड़कर देखा गया। विवाद होने पर इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया था। 1977 में जब कांग्रेस की सरकार गिरी और जनता पार्टी की सरकार आई, तब इस फिल्म को रिलीज़ किया। वैसे इंदिरा गांधी पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं, जिसमें पहले आई फिल्मों के अलावा 2005 में आई अमु, 2016 में रिलीज हुई अक्टूबर, 2017 में आई 'इंदु सरकार' शामिल हैं। कई फिल्मों की कहानी में इंदिरा गांधी को भी जोड़ा गया। ऐसी फिल्मों में बेल बॉटम, पीएम नरेंद्र मोदी, थलाइवी और ठाकरे के नाम सामने आते हैं। 
    नेताओं के जीवन पर भी कई फ़िल्में बनी और बन रही है। लेकिन, कोई भी फिल्म ऐसी नहीं आई जो यादगार बने। बल्कि, ऐसी राजनीतिक फिल्मों को लेकर खींचतान ही ज्यादा हुई। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर तो आज तक कोई फिल्म नहीं बनी, पर एक अमेरिकन फिल्म डायरेक्टर ने 'अ डे इन द लाइफ ऑफ प्राइम मिनिस्टर नेहरू' नाम की डॉक्यूमेंट्री जरूर बनाई थी। इसके लिए फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर ने पंडित नेहरू के साथ ब्रेकफास्ट से डिनर तक एक पूरा दिन भी बिताया था। इस डॉक्यूमेंट्री में जवाहर लाल नेहरू को नॉर्थ ईस्ट के नक्शे को लेकर विदेश सचिव और अन्य अधिकारियों से बातचीत करते दिखाया गया था। 
    2019 में आई फिल्म 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बनाई गई। यह फिल्म मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू की किताब पर बनी थी। इस फिल्म के जरिए मनमोहन सिंह को कांग्रेस आलाकमान की कठपुतली बताया गया, जो चाहकर भी अपने फैसले नहीं ले पाए। फिल्म में मनमोहन सिंह को एक मजबूर शासक की तरह पेश किया गया। इस फिल्म को प्रमोशन भी इसी तरह से किया गया। यह फिल्म विवादों में तो आई, पर चली नहीं। इसी साल (2019) आई फिल्म 'द ताशकंद फाइल्स' को विवेक अग्निहोत्री ने बनाया था। इस फिल्म का मूल कथानक देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मौत पर था। इस फिल्म को पसंद भी किया गया। क्योंकि, पहली बार इस गोपनीय मुद्दे पर किसी ने फिल्म बनाने का साहस किया था। इस फिल्म के जरिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर सारे सवाल खड़े किए गए थे। इसमें एक डायलॉग है 'दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी का दूसरा प्रधानमंत्री ताशकंद जाता है। ताशकंद वॉर ट्रीटी पर साइन करता है और मर जाता है। सैकड़ों सस्पीशियस होते हैं, लेकिन एक भी एन्क्वायरी कमीशन नहीं बैठाई जाती!' इस तरह फिल्म ने तत्कालीन इंदिरा सरकार पर निशाना साधा गया। 
    'पीएम नरेंद्र मोदी' फिल्म भी 2019 में ही आई थी। इसे नरेंद्र मोदी की बायोपिक की तरह बनाया गया। वास्तव में तो इस फिल्म को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले परदे पर लाने की तैयारी थी और प्रमोशन भी उसी तरह किया गया। लेकिन, चुनाव को देखते हुए इस पर रोक लगा दी गई। चुनाव के बाद फिल्म को रिलीज किया जा सका। लेकिन, फिल्म को वो सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद शायद निर्देशक उमंग कुमार ने की होगी।
      फिल्म में नरेंद्र मोदी का किरदार विवेक ओबेरॉय ने निभाया, पर वे न्याय नहीं कर सके। इस नजरिए से देखा जाए तो 1993 में आई फिल्म 'सरदार' ज्यादा सफल रही। इसे केतन मेहता ने निर्देशित किया था। जाने-माने राजनेता सरदार वल्लभभाई पटेल के जीवन पर आधारित इस फिल्म में आज़ादी के संघर्ष और उनकी राजनीतिक भूमिका के बारे में विस्तार से बताया था। इस फिल्म को देखते हुए समझा गया था कि आजादी के बाद की राजनीति का दौर कैसा था।  
     राजनीतिकों के जीवन के अलावा भी कुछ ऐसी फ़िल्में बनी जिनका काल्पनिक कथानक राजनीति पर केंद्रित रहा। इनमें सबसे ज्यादा विवादस्पद फिल्म रही 1977 में आई 'किस्सा कुर्सी का!' दरअसल, ये राजनीति पर एक व्यंगात्मक फिल्म थी। अमृत नाहटा खुद नेता थे, उन्होंने ही यह फिल्म भी बनाई थी। वे कांग्रेस के टिकट पर दो बार लोकसभा का चुनाव जीते। लेकिन, आपातकाल के बाद वे अपनी पार्टी के विरोध में खड़े हो गए थे। इसी विरोध ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। उस समय की सरकार ने रिलीज़ नहीं होने दिया। यह फिल्म इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी पर आधारित थी। वास्तव में तो यह फिल्म 1975 में बनी थी। लेकिन, इसे रिलीज़ नहीं होने दिया गया और इसका मास्टर प्रिंट ही जला दिया। 1977 में इसे दोबारा बनाकर रिलीज किया गया। 
      महात्मा गांधी के जीवन पर रिचन एटनबरो ने 1982 में फिल्म 'गांधी' बनाकर तो इतिहास रच दिया था। यह फिल्म महात्मा गांधी के वास्तविक जीवन पर आधारित थी। फ़िल्म का निर्देशन रिचर्ड एटनबरो ने किया और बेन किंग्सले ने गांधी की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म के लिए दोनों को अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के अकादमी पुरस्कार के साथ आठ अन्य अवॉर्ड भी मिले थे। यह भारतीय और यूनाइटेड किंगडम की फ़िल्म निर्माता कंपनियों द्वारा बनाई गई साझा फ़िल्म थी।
     इसके बाद 2007 में 'गांधी माई फादर' आई जिसे फिरोज अब्बास खान ने बनाया। इसकी कहानी गांधी जी और उनके पुत्र हरिलाल पर केंद्रित थी। महात्मा गांधी और उनके सबसे बड़े पुत्र हरिलाल गांधी के बीच एक अजीब रिश्ता रहा। अपने पिता के मानकों पर खरा उतरने में असमर्थ हरिलाल का जीवन बिखर सा गया था। कहा जाता है कि गांधी जी ने पूरे देश में सम्मान पाया, लेकिन वे अपने बेटे के दिल में अपने लिए जगह नहीं बना पाए! यहां तक कि वे उसे मुसलमान बनने से भी नहीं रोक सके थे। इस फिल्म में महात्मा गांधी का एक संवाद है 'जानते हो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी हार क्या है! दो ऐसे इंसान जिन्हें मैं जिंदगी भर अपनी बात नहीं समझा पाया। एक मेरा काठियावाड़ी दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना और दूसरा मेरा अपना बेटा हरी लाल।' 
   शिवसेना के संस्थापक और महाराष्ट्र के बड़े नेता रहे बाल ठाकरे पर 2019 में 'ठाकरे' नाम से बायोपिक बनाई गई थी। फिल्म का निर्देशन अभिजीत पंसे ने किया। इसे हिंदी के साथ मराठी में बनाया गया था। फिल्म के जरिए बाल ठाकरे के शुरुआती संघर्ष से लेकर उन्हें शिवसेना बनाने तक की कहानी थी। फिल्म में बाल ठाकरे के एक अखबार में कार्टूनिस्ट के काम से उन्हें महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरते हुए दिखाया गया। 
      इस फिल्म में उन सारे अनुत्तरित सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई थी, जिससे बाल ठाकरे हमेशा घिरे रहे। उन्होंने आपातकाल का समर्थन क्यों किया और उन्हें लोकतंत्र में विश्वास क्यों था। इसके बावजूद फिल्म में कई सच्चाई दिखाने से रह गई। ऐसा लगा कि सिर्फ शिवसेना की छवि चमकाने के लिए इस कहानी को गढ़ा गया था। इसमें सब कुछ वैसा नहीं दिखाया गया जिस वजह से शिवसेना हमेशा सवालों के घिरी रही। यही कारण रहा कि यह फिल्म अपना प्रभाव नहीं छोड़ सकी। 
    इस श्रृंखला में अब एक और बायोपिक 'मैं अटल हूँ' पर काम शुरू हो गया। यह फिल्म देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन पर आधारित है। पहले इस फिल्म का नाम  ‘मैं रहूं या ना रहूँ देश रहना चाहिए : अटल’ रखा गया था। इस फिल्म को संदीप सिंह और विनोद भानुशाली प्रोड्यूस कर रहे हैं। फिल्म की कहानी किताब ‘द अनटोल्ड वाजपेयी’ पर आधारित होगी। फिल्म का डायरेक्शन मराठी सिनेमा के मशहूर डायरेक्टर रवि जाधव कर रहे हैं। 
     इस फिल्म का एक मोशन पोस्टर भी जारी किया गया जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण का कुछ अंश भी सुनाई देते हैं। इसमें अटल बिहारी वाजपेई की आवाज सुनाई देती है 'सत्ता का खेल तो चलता रहेगा, सरकारें आएंगी, जाएंगी। पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी। लेकिन ये देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए!' राजनीति से प्रेरित जब भी फ़िल्में बनेंगी, उनमें राजनीतिक उलटफेर ही ज्यादा दिखाया गया। जब भी राजनीतिक घटनाओं या नेताओं पर फिल्में बनी, बवाल जरूर मचा है। कुछ फिल्मों का विरोध धर्म, समाज और संस्कृति के नाम पर किया गया। जब भी समाज की सच्चाई को दिखाने वाले मुद्दों पर फिल्में बनीं उसमें राजनीति जरूर की गई। क्योंकि, ये मुद्दा ही अपने अंदर सनसनी समाए रहता है। 
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Friday, July 14, 2023

परदे पर राम का अवतार हर बार कुछ अलग रहा!

- हेमंत पाल

   रामानंद सागर के कालजयी टीवी सीरियल 'रामायण' से लगाकर 'आदिपुरुष' तक 35 साल के समय काल में परदे पर राम कथा की दुनिया बहुत बदल गई। टेक्नोलॉजी के मामले में भी दर्शकों के नजरिए को लेकर भी। अब वो सब फिल्माना संभव हो गया, जो रामायण पढ़ते समय कल्पना में उभरता रहा! जब 'रामायण' सीरियल छोटे परदे पर आया, उस दौर में 'रामायण' की लोकप्रियता चरम पर थी। उस दौर के दर्शकों ने तब जो देखा वो उनके लिए चमत्कृत करने वाले दृश्य थे। क्योंकि, राम-रावण युद्ध के समय आसमान में उड़ते तीर और हनुमान का हवा में उड़ना दर्शकों को आकर्षित करता था। लेकिन, तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया। इसके बाद भी राम के प्रति श्रद्धाभाव में कमी नहीं आई। 
      आज भी राम और कृष्ण के प्रति दर्शक कोई नया प्रयोग सहन नहीं करते। यही कारण है कि 'आदिपुरुष' में किए गए प्रयोगों को पसंद नहीं किया गया और दर्शक उनके खिलाफ सड़क पर उतर आए। ये होना स्वाभाविक भी था। क्योंकि, अभी तक जब भी 'रामायण' पर आधारित जितनी भी फ़िल्में और टीवी सीरियल बने उन्हें बेहद श्रद्धा से देखा गया। लेकिन, 'आदिपुरुष' में जब कथानक और प्रस्तुतिकरण के साथ खिलवाड़ किया गया तो लोग भड़क गए। पौराणिक कथाओं में 'रामायण' और 'महाभारत' दो ऐसे प्रसंग हैं, जो फिल्म निर्माण के शुरुआत से अब तक फिल्मकारों के सबसे पसंदीदा विषय रहे। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि शुरुआती दौर में ही रामायण पर फिल्म बनी।
      फिल्म इतिहास के 111 साल के इतिहास में अभी तक 'रामायण' पर 48 फिल्में और 18 टीवी शो बनाए गए। इन सभी फिल्मों ने अपने समय पर अच्छी खासी लोकप्रियता भी हासिल की। पहली फिल्म 1917 में आई थी। इसके बाद 1943 में 'राम-राज्य' आई, जिसे महात्मा गांधी ने भी देखा था। ऐसी किसी फिल्म को लेकर कभी कोई आवाज नहीं उठी, क्योंकि उसमें धार्मिक भावनाओं का पूरा ध्यान रखा गया था। लेकिन, 'आदिपुरुष' ने जो किया उसमें इन भावनाओं का जरा भी ध्यान नहीं रखा। यहां तक कि इस फिल्म के राम को मूंछ वाला दिखाया गया। इससे पहले 2000 में रिलीज हुई तेलुगू फिल्म 'देवुल्लू' में ही राम का किरदार निभाने वाले श्रीकांत की मूंछ दिखाई गई थी। दरअसल, फिल्मों के किसी पात्र की मूंछ दिखाकर उसे अलग दिखाने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन, लोगों की आंखों में जो राम बसे हैं, वो बिना मूंछ वाले हैं और दर्शक अपने उन मनोभावों में कोई बदलाव देखना नहीं चाहते!  
    समय कितना भी बदल जाए और लोग कितने भी आधुनिक हो, पर वे अपनी आस्था के साथ कोई खिलवाड़ देखना नहीं चाहते। यही कारण है कि आज भी दर्शक 'रामायण' सीरियल को अपनी कल्पना के बहुत नजदीक पाते हैं। सीरियल का एक-एक पात्र उन्हें उस 'रामायण' में लिखे जैसा लगता है जो पुराने घरों में बरसों से पढ़ी जा रही है। इस सीरियल की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब कोरोना काल में नए टीवी सीरियल आना बंद हो गए थे, तब 'रामायण' के प्रदर्शन ने फिर वही माहौल बना दिया था। नई पीढ़ी ने भी उस 'रामायण' को देखा जिसके बारे में उन्होंने काफी कुछ सुन रखा था। शायद यही कारण रहा कि दर्शकों ने जब रामानंद सागर की 'रामायण' और 'आदिपुरुष' में फर्क देखा तो उन्हें अच्छा नहीं लगा।
      'रामायण सीरियल में जब लक्ष्मण को सीता की सुरक्षा के लिए कुटिया के चारों तरफ रेखा खींचते दिखाया तो उसे कमान से खींचा गया, जो स्वाभाविकता के नजदीक था! जबकि, 'आदिपुरुष' में वही लक्ष्मण रेखा ऐसी दिखाई गई, जैसे सुरक्षा कवच बनाया जा रहा हो! सीरियल में सीता हरण के प्रसंग में भी सीता को रावण के पीछे बंधकर जाते दिखाया। जबकि, नई रामकथा में यही दृश्य कुछ और ही तरह से दर्शाया गया। सीता हरण के लिए रावण जबरदस्ती से सीता को अपने कंधे पर उठाकर ले जाते दिखाया गया। सदियों से ये कथा प्रचलित है कि रावण ने सीता को छुआ भी नहीं था। अशोक वाटिका में जब रावण आता था, तो सीता तिनके की आड़ कर लेती थी। ये ऐसी सच्चाई हैं जिन्हें न तो बदला जा सकता है और न कोई प्रयोग संभव है।    
       1917 में आई दादा साहेब फाल्के की मूक फिल्म 'लंका दहन' को रामायण कथानक पर बनी पहली फिल्म माना जाता है। इस फिल्म में राम और सीता के किरदार एक ही अभिनेता अन्ना सालुंके ने निभाए थे। तब महिलाओं के फिल्मों में काम करने से एक तरह से सामाजिक बंदिश थीं, इसलिए एक ही कलाकार ने दो किरदार निभाए। कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में पहला डबल रोल भी इसी कलाकार ने निभाया था। इसकी कहानी राम वनवास से शुरू हुई और रावण वध पर समाप्त हुई थी। रामकथा का मुख्य पात्र राम हैं और उस किरदार के चेहरे की नैसर्गिक सौम्यता ही उनकी सारी अच्छाइयां दिखाती है। 
        जब रामानंद सागर ने 'रामायण' सीरियल बनाया, तब राम के किरदार पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया था। बताते हैं कि राम के चेहरे की मुस्कराहट पर भी बड़ी मेहनत की गई थी। अरुण गोविल ने भी अपने किरदार का ध्यान रखा और शुरू से अंत तक उस मुस्कराहट को बनाए रखा। यही ध्यान प्रेम अदीब ने ही रखा और 8 फिल्मों में उन्होंने राम की भूमिका निभाई। 1940 के बाद इस कलाकार ने परदे पर राम बनकर जमकर लोकप्रियता पाई थी। प्रेम अदीब ने करीब 60 फिल्मों में काम किया, जिनमें राम चरित्र की आठ फ़िल्में भरत मिलाप, राम राज्य, राम बाण, राम विवाह, राम नवमी, राम हनुमान युद्ध, राम लक्ष्मण और राम भक्त विभीषण में वे राम बने। लेकिन, इस किरदार में उनकी जो फिल्म सबसे ज्यादा पसंद की गई वो थी 1943 में आई 'राम राज्य' जिसमें शोभना समर्थ सीता बनी थी।
     रामकथा की प्रसिद्धी सिर्फ भारत में नहीं, विदेशों में भी रही। जापान में तो इस कथा पर 'रामायण द लीजेंड ऑफ प्रिंस रामा' नाम से 1983 में एनिमेटेड फिल्म भी बन चुकी है। जापानी फिल्ममेकर यूगो साको पहली बार भारत आए तो यहां उन्हें 'रामायण' के बारे में जानकारी मिली। वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए कि उस पर एनिमेटेड फिल्म बनाने की योजना बना ली। लेकिन, इससे पहले उन्होंने इसके धार्मिक महत्व को समझा और जापानी में उपलब्ध रामायण के दस वर्जन पढ़े और उसके बाद फिल्म बनाने का विचार किया। उनकी इस कोशिश का शुरू में विरोध भी हुआ। क्योंकि, राम भक्त नहीं चाहते थे कि उनके भगवान कार्टून कैरेक्टर में दिखाए जाएं। लेकिन, जब उन्होंने सब कुछ समझा तो पीछे हट गए। जबकि, 'आदिपुरुष' के फिल्मकारों ने स्थिति को जानते हुए भी ऐसे कोई प्रयास नहीं किए। इसी वजह से दर्शकों ने फिल्म की धज्जियां उड़ा दी।  
     फ़िल्मकारों ने सिर्फ 'रामायण' पर राम के किरदार को केंद्रीय पात्र बनाकर ही फ़िल्में नहीं बनाई, कई फ़िल्में ऐसी भी बनी जो रामकथा से प्रभावित थी। सुपरहिट फिल्म बाहुबली के दूसरे पार्ट 'बाहुबली : द कन्क्लूजन' में फिल्म के हीरो महेंद्र बाहुबली को भी राम की तरह ही घर छोड़कर जंगलों में रहना दिखाया गया। इसलिए कहा जा सकता है कि इस फिल्म की कहानी कुछ हद तक 'रामायण' से प्रभावित थी। डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म 'दिल्ली-6' में रामलीला का चित्रण बेहतरीन ढंग से किया गया था। 
      एसएस राजामौली की फिल्म 'आरआरआर' में आलिया भट्ट ने सीता का किरदार निभाया था। ये भूमिका भी सीता से प्रभावित थी। रामचरण तेजा ने राम का किरदार निभाया था। फिल्म में रामचरण तेजा राम के गेटअप में तीर चलाते भी दिखाई दिए थे। सामाजिक फिल्म बनाने वाले सूरज बड़जात्या की 1999 में आई फिल्म 'हम साथ साथ हैं' भले ही पारिवारिक फिल्म है। लेकिन, इसकी कहानी भी रामायण जैसी थी। इसमें कैकयी जैसे भी कुछ किरदारों को बखूबी से फिल्माया गया था। लालच के चलते परिवार के टूटना दिखाया था।
    बीआर चोपड़ा की फिल्म 'गुमराह' की शुरुआत ही रामायण के सीता हरण प्रसंग से होती है। इसमें पंचवटी में सीता स्वर्ण मृग देखकर राम से उसे लाने को कहती है। राम समझाते हैं कि हिरण कभी सोने का हिरण नहीं होता। लेकिन, सीता नहीं मानती और राम स्वर्ण मृग के पीछे जाते हैं। थोड़ी देर बाद आवाज आती है लक्ष्मण मरा मरा। सीता तभी लक्ष्मण से कहती है तुम्हारे भाई ने तुम्हें पुकारा है। लक्ष्मण जंगल की तरफ जाने लगते हैं, लेकिन कुछ सोचकर कुटिया के बाहर एक रेखा खींचते हैं। सीताजी पूछती है कि यह क्या है! लक्ष्मण कहते हैं कि यह लक्ष्मण रेखा है। नारी का सुहाग, इज्जत और सारा साम्राज्य इसी रेखा के अंदर है। इसके बाद उद्घोषणा होती है ऐसी ही एक रेखा की कहानी है 'गुमराह' और फिल्म के टाइटल शुरू होते हैं। जबकि, अभिषेक बच्चन की एक फिल्म का तो नाम ही 'रावण' और शाहरुख़ की फिल्म का नाम 'रा-वन' था। आशय यह कि 'रामायण' की कथा हिंदू जनमानस के जीवन के हर पहलू का हिस्सा है।    
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अमित शाह की 'मास्टर क्लास' में कौन हुआ ताकतवर!

मध्यप्रदेश भाजपा के लिए 11 जुलाई का दिन महत्वपूर्ण रहा। पार्टी के सबसे ज्यादा ताकतवर नेता अमित शाह ने अचानक भोपाल आकर लंबे समय से चली आ रही सारी अफवाहों और कयासों की धारा को पलट दिया। सत्ता और संगठन में कोई बदलाव न करते हुए उन्होंने चुनावी रणनीति को नया आकार दिया और इसकी कमान भूपेंद्र यादव को सौंपी। प्रदेश अध्यक्ष के पर क़तर दिए गए। जबकि, इस बैठक से कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर की ताकत बढ़ी है! वे सभी चुनाव समितियों के समन्वय की जिम्मेदारी संभालेंगे।   
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- हेमंत पाल

     अमित शाह की मास्टर क्लास में जो संदेश दिए गए और जो सबक नेताओं ने लिया उनका क्रियान्वयन शुरू हो गया। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर को बैठक वाली रात दिल्ली लौटना था! लेकिन, उन्हें भोपाल में रुकने को कहा गया। अमित शाह ने तोमर से कहा कि अब आप दिल्ली से ज्यादा भोपाल पर ध्यान दीजिए। अमित शाह की मास्टर क्लास में जो रणनीति तय की गई, उसे लेकर भाजपा के बड़े नेताओं की लगातार बैठकें होगी। बताया जा रहा कि जल्द ही सभी चुनावी समितियां का गठन होना संभव है। वे जल्दी ही अपना काम भी शुरू कर देंगी। इसके अलावा भी चुनाव को लेकर कुछ फैसले इस बैठक में लिए जाएंगे।  
    अमित शाह ने प्रदेश की चुनाव समितियों के समन्वय की जिम्मेदारी केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर को सौंपी है। तोमर मध्य प्रदेश को काफी नजदीक से जानते हैं। वे दो बार यहां का चुनाव अभियान संभाल भी चुके हैं। 2008 और 2013 में उनकी अगुवाई में ही मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी थी। लेकिन, 2018 में उन्हें मध्य प्रदेश के चुनाव की जिम्मेदारी से अलग रखा गया तो सरकार बनाने लायक सीटें भी भाजपा को नहीं मिल सकी थी। मंगलवार की इस हाई पावर मीटिंग में अमित शाह ने जो चुनाव रणनीति बनाई, उसमें प्रदेश को पांच रीजन में बांटकर वहां के स्थानीय मुद्दों के आधार पर रणनीति बनाने के निर्देश दिए गए। इसके अलावा आदिवासी इलाकों पर भी ध्यान देने को कहा गया है।  
     बैठक में यह भी तय किया गया कि पूरे प्रदेश में विजय संकल्प यात्राएं निकाली जाएं। लेकिन, ये किसी एक नेता के जिम्मे नहीं होगी। बल्कि, पांच रीजन में पांच नेताओं के नेतृत्व में ये यात्राएं निकाली जाएंगी। चुनाव को लेकर कुछ समितियां बनाई जाएंगी, इन समितियों की जिम्मेदारी एक-एक वरिष्ठ नेता को सौंपेंगे। इन समितियों का कामकाज गंभीरता और मुस्तैदी के साथ हो, इसकी देखरेख नरेंद्र तोमर करेंगे। बताते हैं कि मंगलवार की बैठक में अमित शाह ने कई बार नरेंद्र तोमर का नाम लिया और उनसे कहा कि अब आपको दिल्ली से ज्यादा भोपाल में ध्यान देना है। 
      बैठक में अमित शाह ने सभी विधानसभा सीटों की रिपोर्ट मांगी। साथ में यह भी पूछा कि पार्टी कहां बेहतर है और कहां कमजोर है और क्यों!  चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव ये विस्तृत जानकारी पार्टी हाईकमान को सौंपेंगे। सौंपी गई है। शाह ने यादव और सह प्रभारी अश्विनी वैष्णव को एक प्रारूप भी दिया है। इस प्रारूप के आधार पर हर विधानसभा क्षेत्र की जानकारी इकट्ठा की जाएगी। बूथ स्तर से राज्य स्तर तक अब तक की चुनावी तैयारी की समीक्षा हुई। इसका सीधा संदेश ये भी है कि वीडी शर्मा प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष तो बने रहेंगे, पर उनके पर क़तर दिए गए। उनका सीधा दखल चुनावी रणनीति में नहीं होगा। इसके अलावा इस चुनाव में जन आशीर्वाद यात्रा को लेकर भी कोई फैसला नहीं हुआ। इसके पहले हुई कोर कमेटी की बैठक में भी जन आशीर्वाद यात्रा का मामला नहीं आया था। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि प्रदेश में इस बार विजय संकल्प यात्रा ही निकलेगी, जन आशीर्वाद यात्रा को फिलहाल स्थगित रखा गया है। 
    अमित शाह ने कोर ग्रुप के सदस्यों से यह सवाल भी किया कि वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं! इस सवाल के जवाब में बताया गया कि विजय संकल्प यात्रा निकालने की योजना बनाई गई है। अमित शाह ने इन यात्राओं की सहमति भी दी। तय किया गया कि ये यात्राएं अलग-अलग जिलों से निकाली जाएगी। इस दौरान रोड शो, रैलियां, जनसभाएं होंगी। साथ ही ये निर्देश दिए गए कि प्रदेश के आदिवासी इलाकों पर ज्यादा ध्यान दिया जाए। उन्होंने आदिवासी अत्याचार की हाल की घटनाओं को लेकर भी निर्देश भी दिए। कहा गया कि चुनाव में आदिवासियों के लिए खास कैंपेन चलाया जाए। 
    प्रदेश के संबंध में लंबे समय से देखा जा रहा था कि यहां बदलाव को लेकर हवा गर्म थी। कभी मुख्यमंत्री के बदले जाने की खबरें तो कभी प्रदेश अध्यक्ष की। कई बार इस बात की पुष्टि भी हुई, लेकिन चार राज्यों के प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने के बाद जब मध्यप्रदेश में बदलाव के कोई संकेत नहीं मिले, तो यह लगने लगा था कि अब यहां संगठन की पुरानी टीम ही चुनाव में काम करेगी। लेकिन, टीम की भूमिका बदल दी गई। अब चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव और अश्विनी वैष्णव सबसे ज्यादा पावरफुल होंगे और रणनीति के समन्वय की जिम्मेदारी नरेंद्र सौंप दी गई।
     इसका यह भी मतलब लगाया जा सकता है कि प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा की भूमिका अब भूपेंद्र यादव, अश्विनी वैष्णव और नरेंद्र तोमर के बाद होगी। अमित शाह किसी भी स्थिति में मध्यप्रदेश में पार्टी को मुकाबले की स्थिति में लाना चाहते हैं, जो पिछले लंबे समय से लगातार पिछड़ रही है। अब देखना यह है कि अमित शाह की मास्टर क्लास का क्या नतीजा निकलता है। क्योंकि, मास्टर क्लास में दिए सबक को जिम्मेदार नेता किस तरह पूरा करते हैं, सब उसी पर निर्भर है। 
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Saturday, July 8, 2023

मनोरंजन की पोटली में 'ओटीटी' की नई घुट्टी!

- हेमंत पाल

   रिवर्तन संसार का नियम है और यह नियम इसीलिए सदैव प्रासंगिक रहता है क्योंकि परिवर्तन के माध्यम से ही नवाचार जन्म लेता है। वृक्ष के पुराने सूखे ठूंठ पर यही परिवर्तन कोमल कोपलों को पल्लवित करता है। लोकरंजन में भी यही परिवर्तन नई कलाओं नई शैलियों को जन्म देता है। शुरू में जब नाटक नौटंकी का दौर था, तब भी यही सवाल उठा था कि इसके बाद क्या! तब ऐसा लगता था कि लोकरंजन की यही अंतिम सीमा रेखा है। लेकिन, नाटक नौटंकी के बाद थिएटर का युग आया, तब फिर यही प्रश्न उठा 'इसके बाद क्या!' तब जन्म लिया सिनेमा ने जिसका साम्राज्य सौ बरस से अब तक चला। जब लगा कि मनोरंजन की दुनिया में सिनेमा अमर बूटी खाकर आया है और इसके अश्वमेध रथ को कोई कभी कोई रोक नहीं पाएगा! तब आया इडियट बॉक्स यानी टीवी, जिसे सिनेमा का बच्चा ही माना गया। 
     एक समय के बाद इस बच्चे का कद अपने पिता से बड़ा हो गया तो माने जाने लगा था कि सैटेलाइट का संसार और टीवी की दुनिया ही मनोरंजन का पड़ाव या ठहराव है। तब इसके बाद क्या वाला प्रश्न गौण हो गया। इसके बाद आया मनोरंजन का टवेंटी-टवेंटी यानी ओटीटी का युग, जिसे कोरोना काल ने बुलंदियों पर बैठा दिया। अल्पकाल में ओटीटी ने सिनेमा और टीवी के मैदान की सीमा रेखा को संकुचित कर दिया। अब परिवर्तन के सिद्धांत के हिसाब से फिर यह प्रश्न उठाना लाजमी हो गया कि ओटीटी के बाद क्या! लेकिन, लगता है फ़िलहाल तो 'इसके बाद क्या' वाला प्रश्न गौण ही हो गया!
      ओटीटी की दुनिया कुछ ही सालों में बड़े और छोटे परदे से भी बड़ी हो गई। इसका परदा भले ही छोटा हो, पर दर्शकों पर इसका असर जबरदस्त है। जबकि, आजादी से पहले और बाद के कई सालों तक मनोरंजन का माध्यम सिनेमा ही था! जब भी मनोरंजन  जरुरत महसूस होती तो लोगों के कदम सिनेमा की तरफ मुड़ जाते थे। इसके बाद आया टेलीविजन का दौर, जिसने 80 के दशक के मध्य से अपने पंख फैलाए और घर के सदस्यों को एक कोने में समेट दिया। इसके मनोरंजन का भी अलग ही जुनून था जो 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे सीरियलों से लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। इसका जादू ऐसा था जिसने सिनेमाघरों को खाली कर दिया। 90 के दशक में एक समय ऐसा भी आया, जब फिल्मकारों ने इस छोटे परदे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। 
    टीवी को कभी कोई चुनौती दे सकेगा, ऐसे कोई आसार नहीं थे! पर, कोरोना के दर्दनाक दौर ने जब मनोरंजन के सारे दरवाजे बंद कर दिए तो नया विकल्प सामने आया ओटीटी के रूप में! क्योंकि, सिनेमाघर बंद थे, टीवी सीरियलों की शूटिंग रुक गई थी और घरों में कैद लोगों ने समय काटने के लिए अपने मोबाइल में ओटीटी पर वेब सीरीज देखना शुरू किया। धीरे-धीरे देखने वालों को वेब सीरीज की ऐसी आदत लग गई कि अब सिनेमाघरों की भीड़ घाट गई। टीवी के सीरियल तो लोगों ने देखना ही बंद कर दिया। आज गिनती के ऐसे टीवी चैनल हैं जिन पर सीरियल आते हैं।
    सिनेमा का अपना सौ साल से लंबा इतिहास रहा है। मूक फिल्मों से आज की फिल्मों ने समय के बदलते दौर को देखा है। उसके बाद टीवी सीरियल्स में भी पारिवारिक बदलाव का चेहरा नजर आया। लेकिन, ओटीटी ने बहुत कम समय में दर्शकों को अपने आगोश में ले लिया। इसका सबसे बड़ा कारण है हाथ में थमा नन्हा सा मोबाइल। बात करने के इस उपकरण में इतना कुछ निकलकर बाहर आएगा, ये शायद किसी ने नहीं सोचा होगा। दुनिया जब डिजिटल हुई तो घर के कोने में रखा बड़ा सा टीवी साढ़े पांच इंच के मोबाइल में समा गया! टीवी के दर्शक मोबाइल तक पहुंच गए। लेकिन, डिजिटल का अपना अलग आनंद है। यहीं से मनोरंजन का नया माध्यम उभरा 'वेब सीरीज!' अब कभी भी, कहीं भी मोबाइल फोन या लैपटॉप जरिए वेब सीरीज देख सकते हैं। बड़े और छोटे परदे के बीच मनोरंजन का ये नया माध्यम मोबाइल की स्क्रीन पर ऐसा उभरा कि उसने सारे परदों को छोटा कर दिया। 
      वेब सीरीज पर सीरियल नुमा छोटे-छोटे एपिसोड्स, जो ऑनलाइन उपलब्ध होते हैं, उन्हें मोबाइल, टैबलेट या कंप्यूटर पर देखा जा सकता है। जब से स्मार्ट टीवी आया ओटीटी भी बढ़कर बड़ा हो गया। ये वे सीरीज हैं जो आज का यूथ बेहद पसंद करता है। इसका ट्रेंड इतनी तेजी से बढ़ा कि टीवी और फिल्मों के कई बड़े प्रोडक्शन हाउस भी अब वेब सीरीज बनाने में जुट गए। आश्चर्य की बात तो ये कि कल तक किसने सोचा था कि ओटीटी के लिए अलग से फ़िल्में बनने लगेंगी। इससे भी आगे का चमत्कार तो ये है कि अब कुछ फ़िल्में ओटीटी पर पहले आती है, फिर सिनेमाघरों का मुंह देखती है।
    हमारे यहां सिनेमा ने पीढ़ियों तक दर्शकों को बांधे रखा। लेकिन, अब वो खुमारी भी उतर गई। अब तो फ़िल्में बनानी वाले भी आशंकित रहते हैं कि दर्शक उनकी फिल्म को पसंद करेंगे या नहीं! जबकि, ओटीटी के साथ ये खतरा बनिस्बत कम ही होता है। क्योंकि, इसका दायरा इतना बड़ा होता है कि दुनिया के किस कोने में कौनसे दर्शक इसे पसंद करें, कहा नहीं जा सकता! वेब सीरीज को फ्लॉप का खतरा भी नहीं होता। ये कालजयी भी होती है। क्योंकि, इसे कभी भी अपनी सुविधा और समय से देखा जा सकता है, जो सिनेमा और टीवी में होता। मनोरंजन के इस नए माध्यम की लोकप्रियता का कारण भी यही है। ये समय की बाध्यता से पूरी तरह मुक्त है। वेब सीरीज का टारगेट फिलहाल युवा केंद्रित है, इसलिए इसकी भाषा में खुलापन ज्यादा है। इसलिए इसे पारिवारिक मनोरंजन भी नहीं कहा जाता। मोबाइल पर उपलब्धता से यह माध्यम निजी मनोरंजन से बह जुड़ा है। दर्शक अपनी पसंद से कंटेंट का चुनाव कर सकते हैं।
      इसे फिल्म या टीवी का विकल्प समझना भी गलती होगी। वास्तव में वेब सीरीज की असली टक्कर तो अपने आप से है। यदि दर्शकों को बेहतर कंटेंट मिलता रहा, तो वे इसमें बंध जाएंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वेब सीरीज के दर्शकों के दिमाग से उतरने में देर नहीं लगेगी। अभी तो ज्यादातर वेब सीरीज युवाओं को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। लेकिन, भविष्य में ये दौर बदलेगा और हर उम्र को ध्यान में रखकर काम होगा यह तय है। हमारे यहां वेब सीरीज का ये शुरुआती दौर हैं और इनके सब्जेक्ट  युवाओं तक सीमित हैं। इन्हें पसंद करने वालों में वे लोग भी हैं जिन्हें क्राइम से जुड़ी कहानियां और भाषा का खुलापन रास आता है। यही वजह है कि ज्यादातर वेब सीरीज रहस्य, रोमांच और अपराध पर केंद्रित हैं। इनमें कई की भाषा भी वल्गर होती है और सीन भी! लेकिन, उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में वेब सीरीज में हर किसी के लिए कुछ न कुछ होगा। 
    अमेरिका में वेब सीरीज का चलन 2003 से है। लेकिन, हमारे यहां ये इसकी शुरुआत ही कहा जा सकता है। इसमें दर्शकों के लिए भरपूर मनोरंजन है, तो प्रोडक्शन हाउसेस के लिए पैसा भी! इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यशराज, इरोज-नाऊ और बालाजी जैसे कई बड़े प्रोडक्शन हाउस वेब सीरीज बनाने लगे। कई कंपनियां तो फिल्म और टीवी के कंटेंट को सीरीज बनाकर मोबाइल पर ले आई! अमेरिकी घरों में फिल्म और सीरियल पहुंचाने वाली कंपनी ने अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ को भी वेब सीरीज में तब्दील कर अंतरराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचा दिया। 'यशराज' भी अपनी फिल्मों को इसी तरह उतारने की तैयारी में है। अब तो फिल्म रिलीज होने के साथ ही इसके ओटीटी राइट्स भी बेचे जाने लगे।  
    समझा भी जा रहा था कि वेब सीरीज की पहुंच बहुत तेजी बढ़ेगी, क्योंकि कई कंपनियां इनमें बिजनेस की संभावनाएं देख रही हैं। इसे वेब क्रांति का नाम भी दिया जा रहा है। जैसे-जैसे वेब सीरीज के दर्शक बढ़ेंगे, उतनी ही तेजी से इसका बिजनेस बढ़ेगा। फिलहाल डिजिटल विज्ञापन का बाजार करीब 5 हज़ार करोड़ का है। वेब सीरीज को मिलने वाले विज्ञापनों से अब ये बाजार तेजी से बढ़ रहा है। युवा दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए और वेब सीरीज में वो उन्हें फ्री मिल रहा है। स्वाभाविक है कि इसके दर्शक तो बढ़ेंगे। लेकिन, वेब सीरीज के कंटेंट को हमेशा ताजा बनाकर रखना भी जरूरी है। इसलिए कि वेब या मोबाइल पर दर्शक का पूरा कंट्रोल होता है। वह मर्जी से अपना मनोरंजन चुन सकता है। यदि उसे नयापन नहीं मिलेगा तो वो मनोरंजन का कोई और विकल्प ढूंढने में देर नहीं करेगा। क्योंकि, मनोरंजन के विकल्प हमेशा बदलते रहते हैं, इसलिए हमेशा इंतजार कीजिए कि इसके बाद क्या?
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