Sunday, February 11, 2024

अब परदे पर नहीं रहा प्रेम कथाओं का मौसम

     हिंदी फिल्मों की कहानियों में प्रेम एक तरह से स्थाई भाव रहा है! फिल्मों की शुरुआत वाले ब्लैक एंड व्हाइट के दौर से रंगीन फिल्मों तक में जो बात हर दौर में समान रही, वो है प्रेम कहानियां! फिल्मों की कहानी का आधार चाहे एक्शन हो, सामाजिक हो, कॉमेडी या फिर हॉरर! हर कहानी में कोई न कोई लव स्टोरी जरूर होती रही। बल्कि, प्रेम के बहाने ही फिल्म के कथानक को आगे बढ़ाया जाता रहा! आजादी के संघर्ष वाली फिल्मों में भी नायक की कहीं न कहीं आंख लड़ती ही थी! लेकिन, अब लगता है जैसे हिंदी फिल्मों की कहानियों में मोहब्बत हाशिए पर आ गई! कुछ सालों में आई ज्यादातर हिट फिल्मों के कथानकों में प्रेम नदारद था! यदि किसी फिल्म में प्रेम प्रसंग था भी, तो महज कहानी को आगे बढ़ाने के लिए थे! फिल्म के मूल कथानक में मोहब्बत के लिए सब कुछ दांव पर लगाने जैसी कोई बात नहीं थी।
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- हेमंत पाल

    प्रेम यानी मोहब्बत कई दशकों तक फिल्मों के लिए सबसे मुफीद विषय रहा है। ये जीवन का ऐसा कोमल अहसास हैं, जिसे कहीं से भी मोड़कर उसे कथानक का रूप दिया जा सकता है। गिनती की जाए तो अभी तक जितनी भी फ़िल्में बनी, उनमें सबसे ज्यादा फिल्मों के विषय मोहब्बत के आसपास ही घूमते रहे। फिल्मों के  शुरूआती समय में धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर फ़िल्में बनी, फिर आजादी के बाद संघर्ष को विषय बनाकर कहानियां गढ़ी गई। लेकिन, उसके बाद 60 के दशक से लम्बे समय तक अधिकांश फिल्मों का कथानक मोहब्बत ही रहा! सफल और असफल दोनों तरह की प्रेम कहानियों पर खूब फ़िल्में बनी और पसंद की गई। राजाओं, महाराजाओं की मोहब्बत के किस्से भी दर्शकों को चाशनी चढ़ाकर परोसे गए! दरअसल, सिनेमा में मोहब्बत ऐसा जीवंत और जज्बाती विषय है, जिसकी सफलता की गारंटी ज्यादा होती है। प्रेम कहानियों पर बनी फ़िल्में परदे पर नए चेहरों को परोसने का भी सुरक्षित और मजबूत आधार रहा है। सिनेमा का इतिहास बताता है कि परदे पर जब भी में नए कलाकारों को उतारने का मौका आया, सबसे अच्छा विषय प्रेम से सराबोर कहानियों को ही समझा गया।
    अब लगता है वो दिन ढल रहे हैं, जब फिल्म का पूरा कथानक हीरो-हीरोइन और खलनायक पर ही रच दिया जाता था। सामाजिक फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले 'राजश्री' ने भी ग्रामीण परिवेश में कच्चे और सच्चे प्रेम को ही सबसे ज्यादा भुनाया! लेकिन, अब ज्यादातर फ़िल्में दर्शकों के बदलते नजरिए का संकेत है। जिस तरह हॉलीवुड में स्टोरी और कैरेक्टर को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनती है, वही चलन अब हिंदी फिल्मों में भी आने लगा! क्योंकि, नई पीढ़ी के जो दर्शक हॉलीवुड की फिल्मों को पसंद करते हैं, वे हिंदी फिल्मों में भी वही देखना चाहते हैं। यही कारण है कि राजेश खन्ना के बाद रोमांटिक फिल्मों के सबसे चहेते नायक रहे शाहरुख़ खान ने भी पठान, जवान, फैन, डियर जिंदगी और रईस जैसी फिल्मों में काम करने का साहस किया। आने वाली शाहरूख़ की अधिकांश फिल्मों से मोहब्बत नदारद होने लगी। 
   प्रेम कहानियों वाली फिल्मों में प्रेमियों का मिलन का तरीका कई बार इतना जोरदार होता है, कि युवा दर्शक अपने प्रेम को भी उसी रूप में महसूस करके समाज और परिवार से विद्रोह तक कर देते हैं। इसके विपरीत जब फिल्मों में मोहब्बत की दुखांत कहानियां जन्म लेती हैं और देवदास, एक दूजे के लिए, क़यामत से कयामत तक और 'सैराट' जैसी फ़िल्में बनती है, तो यही दर्शक ख़ुदकुशी तक कर लेते हैं। क्योंकि, प्यार ऐसा जज्बात है, जिसकी तलाश हर किसी को जीवनभर रहती है। उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, किंतु सच्ची मोहब्बत प्यार हर किसी की चाहत होती है। वैसे तो सामान्य जिंदगी में भी प्रेम कथाओं की कमी नहीं होती, पर दर्शक फिल्मों के जरिए अपनी मोहब्बत के अधूरे सपनों को जीता है।
     मुगले आजम, देवदास, सोहनी महिवाल से लगाकर 'धड़क' तक ने प्रेम के जज्बात को दर्शकों के दिलों में बसाया और जगाया! प्रेम के बिना भारतीय सिनेमा ब्लैक एंड व्हाइट के युग से अधूरा है! इसका सबसे सशक्त उदाहरण है कि साहित्यकार शरद चंद्र की कालजयी रचना 'देवदास' जिस पर सबसे ज्यादा फ़िल्में बनीं और हमेशा ही पसंद भी की गई! न सिर्फ हिंदी में बल्कि बांग्ला, तमिल, तेलुगु, असमिया और भोजपुरी समेत कई भाषाओं में दस से ज्यादा बार इस फिल्म के रीमेक बनें। इसमें पहली बार बनी मूक फिल्म भी शामिल है। ऐसा इसलिए कि शरद चंद्र ने प्रेम का ऐसा त्रिकोण रचा, जिसमें दर्शक हर बार उलझता रहा!
   हाल के सालों में आने वाली फिल्मों के कथानकों का तो कलेवर ही बदल गया। कुछ साल पहले कि बात की जाए तो बजरंगी भाईजान, सुल्तान, दंगल, रुस्तम, नीरजा, पिंक, कहानी-2, एयरलिफ्ट, नील बटे सन्नाटा, उड़ता पंजाब, एमएस धोनी से लगाकर 'काबिल' और 'जॉली एलएलबी-2' तक में हीरोइन उपयोगिता नाम मात्र की ही रही। करण जौहर की फ़िल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' में तो ब्रेकअप को सेलिब्रेट किया गया। आलिया भट्ट ने भी 'डियर ज़िंदगी' में ब्रेकअप के बाद जिंदगी को कहा जस्ट गो टू हेल! सलमान खान की 'बजरंगी भाईजान' और 'सुल्तान' दोनों ही फिल्मों में हीरोइन कहीं भी कहानी पर बोझ नहीं लगती! अक्षय कुमार की 'रुस्तम' वास्तव में एक प्रेम कहानी है, लेकिन उसकी कहानी का आधार कोर्ट केस ही रहता है। सोनम कपूर की फिल्म 'नीरजा' तो पूरी तरह एक एयर होस्टेस के कर्तव्य कहानी है। वास्तव में प्रेम कहानी को हाशिए पर रखने का ये ट्रेंड धीरे-धीरे आया और सफल भी हुआ! इसलिए अब समझा जा सकता है कि आगे आने वाली फिल्मों का कथानक बदलाव नजर आएगा। हीरो, हीरोइन फिल्म में होंगे तो, पर वे रोमांस करें ये जरूरी नहीं है।
      पहली बार परदे पर उतरने वाले कलाकारों के लिए भी प्रेम कथाएं सबसे ज्यादा बार सफलता का आधार बनी! जब भी किसी सितारे के बेटे या बेटी को दर्शकों के सामने उतारा गया, ऐसी पटकथा रची गई, जिसका मूल विषय प्रेम रहा! आमिर खान (कयामत से कयामत तक), सलमान खान-भाग्यश्री (मैंने प्यार किया), अजय देवगन (फूल और कांटे), ऋतिक रोशन-अमीषा पटेल (कहो ना प्यार है), राहुल रॉय-अनु अग्रवाल (आशिकी), संजय दत्त (रॉकी), सनी देयोल-अमृता सिंह (बेताब), कमल हासन-रति अग्निहोत्री (एक दूजे के लिए), ऋषि कपूर-डिंपल (बॉबी), ट्विंकल खन्ना-बॉबी देओल (बरसात), कुमार गौरव-विजयता पंडित (लव स्टोरी), शाहिद कपूर-अमृता राव (इश्क विश्क), दीपिका पादुकोण (ओम शांति ओम), इमरान खान (जाने तू या जाने ना), रणवीर सिंह (बैंड बाजा बारात), रणबीर कपूर-सोनम कपूर (सांवरिया), अभय देओल (सोचा न था), आयुष्मान खुराना (विकी डोनर), आलिया भट्ट-सिद्धार्थ-वरुण (स्टूडेंट ऑफ द ईयर) और आयुष शर्मा (लवयात्री) आदि। बाद में इन्होंने रास्ते भी बदले, पर करियर के शुरूआती दौर में रिस्क लेने की हिम्मत नहीं की।
    हिंदी सिनेमा में अमर प्रेम कथाओं की फेहरिस्त अंतहीन है। मुगले आजम, आवारा, कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, पाकीजा, कश्मीर की कली, आराधना, बॉबी, सिलसिला, देवदास, मैंने प्यार किया, कयामत से कयामत तक, एक दूजे के लिए, दिल है कि मानता नहीं, लव स्टोरी, साजन, दिल, उमराव जान, 1942 ए लव स्टोरी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है, रंगीला, कल हो न हो और 'जब वी मेट' के बाद बॉलीवुड में नई पीढ़ी के प्रेम को दर्शाने के लिए भी कई प्रेम कहानियां रची गई! जिसमें रहना है तेरे दिल में, बचना ए हसीनों, सलाम नमस्ते, लव आजकल, ये जवानी है दीवानी, वेकअप सिड, अजब प्रेम की गजब कहानी, रॉक स्टार, बर्फी, टू स्टेट्स, आशिकी-टू, कॉकटेल, शुद्ध देसी रोमांस, तनु वेड्स मनु, मसान, तमाशा, ए दिल है मुश्किल, बरेली की बर्फी जैसी अनेकों फिल्में रही! आशय यह कि परदे पर मोहब्बत का ये सिलसिला न कभी रुका है न रुकेगा।
      फिल्मों का कथानक कितना भी नयापन लिए हो, उसका मोहब्बत से दूर-दूर तक वास्ता न हो, फिर भी उसमें एक प्रेम कहानी जन्म जरूर पनपती है। क्योंकि, प्रेम जीवन की वो शाश्वत सच्चाई है, जिसे नकारा नहीं जा सकता! भारतीय दर्शक के जीवन में मोहब्बत के अलग ही मायने हैं और वो इन्हीं भावनाओं को वो हर पल जीता है। उसे 'मुगले आजम' की सलीम और अनारकली का इश्क कामयाब न होना उतना ही सालता है जितना 'सदमा' में श्रीदेवी और कमल हासन का बिछड़ना! फिल्म बनाने वालों ने भी दर्शकों की इस कमजोरी को अच्छी तरह समझ लिया। फिल्मों के हर कथानक में एक लव स्टोरी इसलिए होती है, कि ये सबसे बिकाऊ तड़का जो होता है। लेकिन, अब धीरे-धीरे ये फार्मूला भी दरकने लगा। क्योंकि, नई पीढ़ी को ऐसी प्रेम कथाएं रास नहीं आती। 
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Monday, February 5, 2024

अब इंदिरा गांधी का इमरजेंसी वाला रूप दिखेगा परदे पर!

- हेमंत पाल

     राजनीतिक फिल्मों का अपना अलग ही इतिहास है। बरसों से राजनीति के किरदारों पर केंद्रित फ़िल्में बनती रही है। कभी उनकी बायोपिक बनाई गई तो कभी इन किरदारों को अलग कलेवर में पेश किया गया। ऐसी ही एक किरदार पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी है जिन्हें कई फिल्मों में अलग-अलग तरह से फिल्माया गया। लेकिन, अभी तक इंदिरा गांधी पर कोई ऐसी फिल्म नहीं बनी जिसमें इस राजनीतिक चरित्र का सकारात्मक पक्ष दिखाया हो। 'किस्सा कुर्सी का' से अभी तक बनी हर फिल्म को लेकर विवाद हुए हैं। अब जो फिल्म 'इमरजेंसी' आ रही है उसके नाम से ही लग रहा है कि इंदिरा गांधी का किरदार निगेटिव दिखाने की ही कोशिश होगी। इसमें कंगना रनौत इंदिरा गांधी का रोल कर रही हैं, जिनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता कांग्रेस से नहीं मिलती! इसलिए कहा जा सकता है कि यह फिल्म भी विवाद का नया कारण बनेगी। आने वाली फिल्म इमरजेंसी में कंगना रनौत पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किरदार निभाया है। फिल्म में 1975 के दौरान की कहानी बताई जाएगी, जब देश में इमरजेंसी लगी थी। उस समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अहम भूमिका निभाई थी। अब कंगना अपनी फिल्म में इस कहानी को पर्दे पर दिखाने के लिए एकदम तैयार है।   
       गुलजार की 'आंधी' से लगाकर अमृत नाहटा की 'किस्सा कुर्सी का' तक में दर्शकों ने इंदिरा गांधी को देखा है। कुछ दूसरी फिल्मों में भी इंदिरा गांधी दिखाई दी हैं। दरअसल, इतिहास के कुछ पात्र ऐसे होते हैं जिन्हें अच्छे या बुरे किसी न किसी रूप में हमेशा याद किया जाता रहा है और आगे भी याद किया जाएगा। इंदिरा गांधी ऐसी ही इतिहास में दर्ज महिला है, जिन्हें याद किया जाता रहा है। कभी दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध इंदिरा गांधी के राजनीतिक इतिहास का केवल एक ही स्याह पन्ना था देश का आपातकाल जिसके लिए उन्हें साढ़े चार दशक बाद भी कोसा जाता है। देखा जाए तो अब आपातकाल याद करने या उसकी यादों को दोहराने को कोई औचित्य नहीं है। फिर भी देश की राजनीति ऐसी है कि यहां इंसानों को जीते जी चैन मिले न मिले, लेकिन मरने के बाद उनकी आत्मा को भी शांत नहीं रहने दिया जाता है। हर साल जून का अंतिम सप्ताह आते ही आपातकाल को  पानी पी-पीकर कोसा जाता हैं। इसी आपातकाल को सैल्यूलाइड पर दस्तावेज की तरह संजोकर रखने के लिए एक फिल्म लांच की गई है जिसका नाम ही 'इमरजेंसी' है। पहले ये फिल्म आपातकाल की 48वीं वर्षगांठ 25 जून 2023 को प्रदर्शित होने वाली थी। लेकिन, अब ये फिल्म इसी साल 14 जून को परदे पर उतरेगी। इस फिल्म में विवादास्पद अभिनेत्री कंगना रनौत ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई है। 
     इंदिरा गांधी ने अपने शासनकाल में कई ऐसे निर्णय लिए जो कहीं न कहीं उनकी हत्या का कारण बना। इंदिरा गांधी के इन्हीं में से कुछ निर्णय पर बॉलीवुड में फिल्में बनी और उन फिल्मों को काफी विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन, अभी तक एक भी ऐसी फिल्म नहीं बनी है जिसमें इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ईमानदारी से प्रकाश डाला गया हो। इमरजेंसी से पूर्व 13 फरवरी 1975 को गुलजार की 'आंधी' ने सबसे पहले सिने जगत के साथ साथ राजनीतिक जगत में भी तूफान मचाया था। फिल्म में एक होटल मैनेजर संजीव कुमार और एक राजनीतिज्ञ की बेटी सुमित्रा की प्रेम कहानी को राजनीति के मसाले से छौंक कर परोसा गया था।  फिल्म के पात्र एक दूसरे के  प्यार में पड़ते हैं और शादी कर लेते हैं। फिर कुछ अंतर के कारण, वे अलग हो जाते हैं। कई सालों बाद, वे फिर से मिलते हैं और अपने रिश्ते को एक और मौका देने का फैसला करते हैं। 
     फिल्म में सुचित्रा सेन ने आरती नाम की एक नेता का किरदार निभाया था जिसका पहनावा इंदिरा गांधी जैसा था और बाल भी वैसे ही थे। उनके बोलने का अंदाज और हाव भाव भी  इंदिरा गांधी जैसे दिखाने की कोशिश की गई थी। दक्षिण भारत में प्रकाशित एक पोस्टर में तो यहां तक लिख दिया गया था कि अपनी प्रधानमंत्री को पर्दे पर देखो। उसके बाद ही फिल्म का विरोध शुरू हो गया और इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जबकि, फिल्मकारों ने यह कहा था कि इस फिल्म का इंदिरा गांधी से कोई संबंध नहीं है। इसके बाद तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने इस फिल्म को हरी झंडी दी थी। यह फिल्म अपनी सिल्वर जुबली से एक हफ्ता पीछे रह गई थी। 24 हफ्तों तक इस फिल्म का जादू लोगों पर चला था। इस फिल्म को मशहूर गीतकार और निर्देशक गुलजार ने बनाया था।
    इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई इमरजेंसी पर 'किस्सा कुर्सी का' बनी थी। फिल्म का डायरेक्शन अमृत नाहटा ने किया था और भगवंत देशपांडे, विजय कश्मीरी और बाबा मजगांवकर प्रोड्यूसर थे। कहा जाता है की इस फिल्म से संजय गांधी इतना नाराज हुए थे कि फिल्म की ओरिजनल और बाकी सारे प्रिंट्स तक जला दिए थे। जिसकी वजह से संजय गांधी पर 11 महीने तक केस चला। 27 फरवरी 1979 को कोर्ट का फैसला आया और उन्हें 25 महीने की जेल की सजा सुनाई गई। बाद में इसे शबाना आजमी और मनोहर सिंह को लेकर दोबारा शूट किया गया और आपातकाल के नाम पर खूब प्रचारित भी किया गया। इसके बावजूद फिल्म को दर्शक नहीं मिले। जहां भी यह फिल्म प्रदर्शित हुई वितरकों को घाटा ही देकर गई।
     मधुर भंडारकर फिल्म 'इंदू सरकार' की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। फिल्म में 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के हालात दिखाए गए थे। फिल्म के ट्रेलर लॉन्च  होने के बाद से ही फिल्म को देशभर में काफी विरोध झेलना पड़ रहा है। ये विरोध इतना ज्यादा है कि लीगल नोटिस से लेकर, पुतला फूंकने तक सत्तारूढ भाजपा के समर्थक निर्माता निर्देशक मधुर भंडारकर को काफी विरोध का सामना करना पड़ था। जब फिल्म की प्रमोशन के लिए पूरी स्टारकास्ट पुणे पहुंची, तो विरोध करने के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ता वहां पहले पहुंच गए थे। विवाद इतना बढ़ा कि सुरक्षा कारणों से प्रेस कॉन्फ्रेंस को टाल दिया गया। कुछ ऐसा ही हाल नागपुर में भी हुआ था। वहां भी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया था। काफी हंगामे के बाद फिल्म रिलीज हुई, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं सकी।
    2012 में रिलीज़ हुई दीपा मेहता की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' में बंगाली-ब्रिटिश एक्ट्रेस सरिता चौधरी ने अपने इंदिरा गांधी के लुक से दर्शकों का दिल जीत लिया था। इस फ़िल्म में अनुपम खेर, शबाना आज़मी, श्रिया सरन, रोनित रॉय, राहुल बोस जैसे अन्य कलाकारों ने अहम भूमिका निभाई थी। 2019 में पीएम नरेंद्र मोदी 2019 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में किशोरी ने इंदिरा गांधी का क़िरदार निभाया था। हालांकि, इस फ़िल्म में सारी लाइम लाइट एक्टर विवेक ओबेरॉय ने चुरा ली! लेकिन, किशोरी के इस लुक को दर्शकों ने काफी सराहा। इसी साल प्रदर्शित फिल्म 'ठाकरे' में अवंतिका अकेरकर ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई थी। लेकिन, यह भी कोई असर नहीं छोड़ पाई। इससे पहले 2018 में प्रदर्शित 'रेड' में फ़्लोरा ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभायी थी। पर इस फिल्म को कोई खास तरजीह नहीं दी गई।
    पिछले साल आई फ़िल्म 'बेल बॉटम' एक एक्शन-थ्रिलर फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में लारा दत्ता ने इंदिरा गांधी का क़िरदार निभाया था। जब इस फ़िल्म का ट्रेलर रिलीज़ हुआ, तब उनके इस लुक को देखर दर्शक हैरान हो गए थे। इस फ़िल्म में उनकी एक्टिंग और लुक को दर्शकों ने ख़ूब सराहा था। लेकिन, लारा दत्ता खुद मानती हैं कि उनके लिए ये रोल निभाना काफ़ी मुश्किल भरा था। इसके साथ ही प्रदर्शित 'भुज: द प्राइड आफ इंडिया' में नवनी परिहार ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई। पर, फिल्म कब आई और कब चली गई कोई नहीं जानता। इसके साथ ही इंदिरा गांधी की भूमिका पर किसी ने गौर नहीं किया।
    अब एक बार फिर 'इमरजेंसी' के जरिए इंदिरा गांधी को बड़े परदे पर पेश करने की कवायद की जा रही है। जबकि, मौजूदा हालात में इस फिल्म का बनना प्रासंगिक माना जाएगा। फिर भी फिल्म में कंगना का मेकअप बहुत अच्छा किया गया है। वे अब तक की सबसे ज्यादा नजदीक इंदिरा गांधी होने का भ्रम पैदा करती है। देखना होगा कि कंगना की ये फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर अपना कमाल दिखा पाएगी या नहीं! तय है कि फिल्म में इंदिरा गांधी के किरदार को नेगेटिव बताने की कोशिश होगी! क्योंकि, राजनीतिक विचारधारा के कारण कंगना रनौत की भी कांग्रेस से निजी खुन्नस भी बताई जाती है। 
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तीन दशक बाद भी नहीं बनी दूसरी 'डर'

- हेमंत पाल

     फिल्म इंडस्ट्री में हर कलाकार कि कुछ दिनों अपनी एक पहचान बन जाती है, कि वो किस तरह के किरदारों में फिट रहेगा। मनोज कुमार देशभक्ति वाली फिल्मों के हीरो माने गए और हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्मों में गोविंदा को पसंद किया जाता रहा है। सलमान खान, रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ को एक्शन हीरो की पहचान मिली, लेकिन शाहरुख़ खान पर इस तरह का कोई ठप्पा नहीं लगा। उन्होंने रोमांटिक फ़िल्में इतनी शिद्दत से की, कि उन्हें रोमांस का बादशाह मान लिया गया। लेकिन, बीच में उन्होंने बाजीगर, डर और 'अंजाम' जैसी फिल्मों में एंटी हीरो वाले रोल करके अपनी इमेज को खंडित करने का भी साहस किया। कोई भी रोमांटिक हीरो विलेन जैसे किरदार निभाने की रिस्क नहीं लेगा, पर शाहरुख़ ने लिया। आज भी शाहरुख़ किसी इमेज में नहीं बंधे और अपने करियर के उत्तरार्ध में पठान, जवान और फिर 'डंकी' में जलवा दिखाया। उनकी फिल्मों में सबसे अलग फिल्म रही 'डर' जिसने शाहरुख़ को अभिनेताओं की भीड़ में सबसे अलग खड़ा किया। ये भी खासियत माना जाना चाहिए कि 'डर' जैसी कोई दूसरी फिल्म नहीं बनी।           
      ये संभवतः फिल्म फिल्म इतिहास की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके दर्शकों ने नायक से ज्यादा खलनायक को पसंद किया। दर्शकों की आंखे खलनायक की मौत पर नम हुई। 24 दिसंबर 1993 को यश चोपड़ा की फिल्म डर रिलीज हुई थी। इस फिल्म को 30 साल हो गए। ये ट्राइंगल लव स्टोरी थी, जिसमें शाहरुख़ खान के साथ जूही चावला और सनी देओल की मुख्य भूमिका थी। फिल्म में शाहरुख़ की भूमिका ऐसे प्रेमी की थी, जो नायिका को हर हालत में पाना चाहता था। खलनायक का किरदार निभाने के बावजूद शाहरुख़ हीरो बन गए थे। फिल्म की वजह से शाहरुख खान की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि सनी देओल चिढ गए थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि 'डर' की रिलीज के बाद 16 साल तक सनी और शाहरुख़ ने एक-दूसरे से बातचीत नहीं की। बात इतनी बिगड़ी थी कि दोनों ने एक-दूसरे से दूरी बना ली। बाद में सनी देओल ने खुद कहा था कि वो महज उनका बचपना था। दरअसल, एकतरफा प्यार करने वाले की भूमिका निभाकर शाहरुख़ का किरदार राहुल मेहरा रोल मॉडल बन गया था। उन्हें बेस्ट विलेन का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला।       
       'डर' से एक महीने पहले रिलीज हुई फिल्म 'बाज़ीगर' में भी शाहरुख़ ने विकी की भूमिका निभाई थी, वो भी 'डर' के राहुल से बहुत अलग नहीं थी। दोनों में ही वे एंटी हीरो थे। दोनों किरदारों में शाहरुख़ ने जो काम किया, उससे दर्शकों में घृणा का भाव पैदा होना था, लेकिन दोनों ही फ़िल्मों कि विरोधाभासी बात थी की उसमें दर्शकों कि सहानुभूति शाहरुख़ के साथ रही। 'डर' का हीरो वास्तव में तो सनी देओल था, फिर भी इसे शाहरुख़ की फिल्म ही माना जाता है। शाहरुख़ के चेहरे पर कहीं भी नकारात्मकता का भाव दिखाई नहीं देता, फिर भी यदि उन्हें एंटी हीरो के रूप में पसंद किया गया, तो ये सिर्फ उनकी एक्टिंग का ही असर था। 'बाजीगर' में भी उनका नेगेटिव रोल था। फिल्म में काजोल लीड रोल में थी, जबकि शिल्पा शेट्टी सपोर्टिंग रोल में। शिल्पा को अपने प्यार में फंसाकर शाहरुख़ उसका मर्डर कर देते हैं। फिर काजोल अपनी बहन के हत्यारे का पता लगाती है। 
     इसके बाद शाहरुख ने माधुरी के साथ 'अंजाम' में भी निगेटिव रोल निभाया था। शाहरुख खान की इस तीसरी फिल्म में कोई लीड हीरो नहीं था। शुरुआत में लगता है कि शाहरुख ही हीरो हैं। लेकिन, आखिरी तक आते-आते ऐसे हालात बन जाते हैं, कि वे ही विलेन निकलते हैं। इसमें माधुरी दीक्षित हीरोइन थी और दीपक तिजौरी ने माधुरी के पति का छोटा सा किरदार निभाया था। शाहरुख खान ने फिल्मों में एंटी-हीरो का किरदार निभाने के बारे में एक इंटरव्यू में कहा था कि वे कभी हीरो का किरदार निभाना नहीं चाहते थे। बार-बार अच्छे आदमी का किरदार निभाना और गुड पप्पी आई जैसे जैसा अच्छा बना रहना कुछ समय बाद बोरिंग होने लगता है। उन्होंने कबूल किया कि उन्हें पर्सनली बुरे आदमी का किरदार निभाना ही ज्यादा पसंद है। 
     यह भले उस समय कि सुपरहिट फिल्म थी, लेकिन इसे बनाने में यश चोपड़ा को पसीना आ गया था। सबसे मुश्किल थी फिल्म की कास्टिंग। इस एंटी हीरो वाली फिल्म में यशराज ने कई लोगों से बात की, पर कोई भी स्थापित हीरो ऐसा किरदार निभाने के लिए राजी नहीं हुआ। 'डर' में शाहरुख खान से पहले आमिर खान, रितिक रोशन, संजय दत्त और अजय देवगन समेत कई कलाकारों ने जब शाहरुख वाला रोल ठुकराया। बताते हैं कि यश चोपड़ा ने एक बार तो आमिर ख़ान और दिव्या भारती को फ़ाइनल ही कर दिया था। क्योंकि, वे पहले आमिर के साथ 'परंपरा' में काम कर चुके थे। लेकिन, आमिर के अपने अलग ही नखरे थे। उन्हें फिल्म में दिव्या भारती के बजाए जूही चावला चाहिए थीं। यश चोपड़ा ने वो भी किया। पर, फिल्म के कुछ सीन को लेकर भी आमिर को आपत्ति थी। यह उन्हें मंज़ूर नहीं था। आख़िरकार आमिर ने ही फिल्म छोड़ दी। सनी देओल बड़े स्टार थे। उन्हें डायरेक्टर ने पहले राहुल मेहरा और सुनील मल्होत्रा में से एक किरदार चुनने को कहा। सनी ने पॉजिटिव वाला सुनील मल्होत्रा कैरेक्टर चुन लिया। क्योंकि, कोई भी अपनी रियल लाइफ इमेज के चक्कर में राहुल वाला किरदार नहीं करना चाहता था। जब राहुल वाला रोल ऋषि कपूर को दिया तो उन्होंने भी एंटी हीरो बनने से मना कर दिया था। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला' में इस बात का खुलासा भी किया। उन्होंने लिखा 'जब यश चोपड़ा ने मुझे 'डर' का यह रोल दिया तो मैंने उनसे कहा कि मैं विलेन के रोल के साथ न्याय नहीं कर सकता। मैंने अभी आपके साथ 'चांदनी' की है। मैंने फ़िल्म 'खोज' में नेगेटिव रोल किया था और वो फ्लॉप हुई। आप शाहरुख़ को ले सकते हैं। मैंने उसके साथ काम किया है और वो काबिल और स्मार्ट लड़का है। 
     फिर वो फिल्म आमिर ख़ान और अजय देवगन के पास चली गई। दोनों ने फिल्म नहीं की और आख़िरकर शाहरुख़ ने वो रोल किया। यशराज की इस फिल्म के लिए पहली पसंद जूही चावला नहीं, बल्कि रवीना टंडन और दिव्या भारती थी। लेकिन, दोनों अभिनेत्रियों ने फिल्म से मना कर दिया। ऐश्वर्या राय को भी अप्रोच किया गया था। लेकिन, वहां भी बात नहीं बनी। अंततः जूही को ही फिल्म मिली। यश चोपड़ा को 'डर' का आइडिया उनके बेटे उदय और एक्टर रितिक रोशन ने दिया था। दोनों ने साथ में निकोल किडमैन की हॉलीवुड फिल्म 'डेड कॉल्म' (1989) देखी थी, जो इसी थीम पर बनी थी। उदय को फिल्म बहुत पसंद आई, उन्होंने बड़े भाई आदित्य को भी ये फिल्म दिखाई। उन्होंने भी इसके कथानक को पसंद किया। बात यश चोपड़ा तक पहुंच गई। उन्होंने भी फिल्म देखी और तय किया कि इस तरह कि फिल्म बनाई जाना चाहिए। फिल्म का नाम 'किरण' तय किया गया जो फिल्म की मुख्य किरदार थी। उस समय रितिक रोशन एक शॉर्ट फिल्म बना रहे थे, जिसका नाम 'डर' था। ये नाम यश चोपड़ा की इस फिल्म के साथ बहुत मैच हो रहा था। यश ने 'किरण' के बजाए 'डर' नाम रखना चाहा। लेकिन, एक पेंच यह फंस रहा था कि डरावनी फिल्म बनाने वाले रामसे ब्रदर्स ने अपनी किसी भूतहा फिल्म के लिए यह नाम रजिस्टर्ड करवाया था। यश चोपड़ा ने उनसे बात की, तो उन्होंने ये नाम उन्हें दे दिया। इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि 'डर' जिन हालत में बनी, वो आसान नहीं था। हर कदम पर यश चोपड़ा को परेशानी उठाना पड़ी और वो हल भी होती गई। सीधा सा मतलब यह कि शाहरुख़ को सुपर स्टार बनाने वाली इस फिल्म के आइडिए का जन्म रितिक रोशन के दिमाग में हुआ था। 
       'डर' में शाहरुख खान को हीरोइन के किरदार किरण का नाम लेते हुए हमेशा हकलाते हुए दिखाया गया। शाहरुख के उस सीन को लोग आज भी कॉपी करते हैं। इसका कारण था यश चोपड़ा के साथ की एक घटना। वास्तव में इसके पीछे साइकोलॉजिकल कारण है। एक क्लासमेट था जो हकलाता था। इस पर रिसर्च की गई तो पता चला कि कैसे किसी व्यक्ति का दिमाग एक ही तरह की ध्वनि सुनने में अटक जाता है। ये एक शॉर्प करंट की तरह होता है, जिस वजह से व्यक्ति को पूरा शब्द पढ़ने में दिक्कत होती है। फिल्म के एक सीन में शाहरुख़ ख़ान सनी को चाकू मारने वाले थे। इस सीन को लेकर यश चोपड़ा से उनकी काफी बहस भी हुई थी। उनका कहना था कि फिल्म में वे एक कमांडो है। उन्हें एक लड़का चाकू मार देगा, तो फिर वे कमांडो किस काम के! इस सीन की शूटिंग के दौरान सनी बहुत गुस्से में थे। उन्होंने अपने दोनों हाथ अपनी जेब में डाल लिए। बताते हैं कि उनका चेहरा बिल्कुल तमतमा रहा था। गुस्से में बांधी गई मुट्ठी ने उनके पैंट की दोनों जेबें फाड़ दी थी। सनी का कहना था कि उनके साथ इस फिल्म में ज़्यादती हुई। उनका जो किरदार लिखा गया था, उससे अलग तरीके से शूट किया गया। उनसे ज़्यादा शाहरुख़ के किरदार पर फोकस किया गया। 'डर' के बाद सनी ने न तो यशराज के साथ कोई फिल्म की और न शाहरुख़ के साथ। 
      एक बात यह भी है कि 'डर' के लिए साइन कर लिए जाने के बावजूद यश और आदित्य चोपड़ा को शाहरुख़ पसंद नहीं थे। यश को हनी ईरानी का लिखा फिल्म का प्लॉट बहुत पसंद था। शाहरुख़ उन दिनों 'किंग अंकल' की शूटिंग कर रहे थे। यश चोपड़ा ने उसके कुछ रशेज देखे और एक्टिंग देखकर शाहरुख़ को फिल्म के लिए ले लिया। लेकिन, शाहरुख़ की काबिलियत को भांपने के लिए सबसे पहले होली वाला 'अंग से अंग लगाना' गाना शूट किया गया। जिसमें शाहरुख़ की एक्टिंग देखकर तो यश चोपड़ा भी चौंक गए। इसके बाद सनी देओल के बजाए शाहरुख़ के किरदार पर फोकस किया गया और आज तक 'डर' जादू बरक़रार है। 
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