फिल्मों को जीवन का आईना यूं ही नहीं कहा जाता। इनमें सुख भी होता है और दुःख भी। जीवन भी होता है और मृत्यु भी। बीमारियों से उबरने के किस्से भी होते हैं और उससे हारकर मौत के मुंह में जाने की सच्चाई भी। फिल्मों के कथानक में असाध्य रोग भी एक विषय हैं, जो दर्शकों को बीमारी के सच से वाकिफ कराते हैं। कभी ऐसी फिल्मों का अंत सुखद होता है, पर हमेशा नहीं! बरसों से ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं और ये विषय अभी भी फिल्मों के हिट होने का फार्मूला है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में तब भी पसंद की जाती है, जब उनके कथानक में दर्शकों बांधकर रखने की क्षमता होती है।
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- हेमंत पाल
फिल्मों के कथानक का मकसद दर्शकों को बांधकर रखना होता है। क्योंकि, फिल्म में कथानक ही होता है, जो फिल्म की सफलता या असफलता की वजह बनता है। कई बार ये कोशिश सफल होती है, लेकिन, हमेशा नहीं। ऐसे कई प्रमाण हैं, जब बड़े बजट की फ़िल्में सिर्फ कथानक के रोचक न होने की वजह से फ्लॉप हुई। लेकिन, ऐसा भी हुआ कि कुछ कम बजट और अंजान कलाकारों की फिल्मों ने दर्शकों को इतना प्रभावित किया कि फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। फिल्मकारों का पूरा ध्यान भी ऐसे कथानक ढूंढना होता है, जिसमें नयापन हो। दूसरे विषयों की तरह बीमारियों से जुड़ी कहानियां भी ऐसा ही विषय है, जिसने हमेशा दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोरा है। अब वो समय नहीं रहा जब दर्शक प्रेम कहानियों, पारिवारिक झगड़ों, बिगड़ैल लड़कों, संपत्ति के विवाद या गांव के जमींदार की ज्यादतियों पर बनी फिल्मों को पसंद करें। पीढ़ी के बदलाव के साथ दर्शकों की पसंद में भी बदलाव आया। ऐसे में फिल्मकारों के सामने नए विषय चुनना और ऐसे कथानक गढ़ना भी चुनौती है, जो दर्शकों को सिनेमाघर तक आने के लिए मजबूर करे। देखा गया है कि बीमारियों के बारे में जानना हर व्यक्ति की उत्सुकता होती है। जब ऐसे किसी विषय पर कोई फिल्म बनती है, तो दर्शक उससे बंधता है।
बीमार के प्रति सभी की सहानुभूति होती है। इस मनोविज्ञान को समझते हुए ही फिल्मों में कई ऐसे कथानक गढ़े गए, जिनमें नायक या नायिका को असाध्य रोगों से पीड़ित बताया गया। उनकी गंभीर तकलीफों को कहानी का मुद्दा बनाने के साथ उनके इलाज में परिवार को परेशान बताया गया। कैंसर, प्रोजेरिया, सिजोफ्रेनिया, आटिज्म, डिस्लेक्सिया और एड्स जैसी गंभीर बीमारियों वाले कथानकों का अंत हमेशा सुखद नहीं होता। क्योंकि, बीमारियों पर किसी का बस नहीं चलता। कई बार डॉक्टरों की कोशिश सफल होती है, पर हर बार नहीं। याद कीजिए फिल्म 'मिली' का अंत, जिसमें अमिताभ बच्चन फिल्म की नायिका जया भादुड़ी को कैंसर के इलाज के लिए विदेश ले जाते हैं। आसमान में जाते हवाई जहाज को पिता अशोक कुमार हाथ हिलाकर विदा करते हैं और फिल्म का अंत हो जाता है। कुछ ऐसा ही अंत 1971 में आई 'आनंद' का भी था। इसमें डॉक्टर किरदार निभाने वाले अमिताभ बच्चन सारी कोशिशों के बाद भी आंत और ब्लड कैंसर से पीड़ित राजेश खन्ना को बचा नहीं पाते। यही इस फिल्म की सफलता का कारण भी था। लेकिन, 'आनंद' के बाद कैंसर आधारित कथानकों वाली फ़िल्मों का दौर चल पड़ा था। सफ़र, अनुराग, मिली और अंखियों के झरोखे से फिल्में ऐसे ही कथानकों पर बनी थी।
बड़े बजट की फ़िल्में बनाने वाले डायरेक्टर संजय लीला भंसाली के खाते में भी 'ब्लैक' जैसी फिल्म भी दर्ज जो बीमारी पर केंद्रित है। 2005 में आई इस फिल्म में रानी मुखर्जी ने ऐसी लड़की का किरदार निभाया, जो देख, सुन और बोल नहीं सकती। जबकि, अमिताभ बच्चन उसके टीचर बने थे जो अल्जाइमर बीमारी से ग्रस्त थे। यह ऐसी मानसिक बीमारी होती है, जिसमें रोगी बीमारी के बढ़ने के साथ सब भूलने लगता है। अमिताभ भी फिल्म का अंत आते-आते रानी मुखर्जी को भूल जाते हैं। जब ऐसी फिल्मों की बात हो, तो अमिताभ बच्चन की 2009 में आई 'पा' को भुलाया नहीं जा सकता। इसमें विद्या बालन और अभिषेक बच्चन थे। फिल्म की खासियत यह थी कि इसमें अभिषेक ने अमिताभ के पिता का किरदार निभाया है। यह एक दुर्लभ जेनेटिक डिसऑर्डर 'प्रोजेरिया' से प्रभावित बच्चे की कहानी है। प्रोजेरिया ऐसा डिसऑर्डर है, जिसमें 10-12 साल के बच्चे बुजुर्ग दिखाई देने लगते हैं। संजय लीला भंसाली ने 'ब्लैक' के बाद 2010 में 'गुजारिश' बनाई, जिसमें रितिक रोशन ने क्वाड्रीप्लेजिक मरीज का किरदार निभाया था। बीमारी में मरीज गर्दन के निचले हिस्से से पैराडाइज था। इस फिल्म ने इच्छा मृत्यु पर एक बहस भी शुरू की थी।
शाहरुख खान की बेस्ट फिल्मों में एक 2003 में आई 'कल हो ना हो' को भी गिना जाता है। करण जौहर निर्देशित यह फिल्म ऐसी लव स्टोरी है, जिसमें नायक अपनी प्रेमिका प्रीति जिंटा की शादी किसी और से करवा देता है। क्योंकि, उसे कैंसर होता है। लव, इमोशन और गंभीर बीमारी के इस ताने-बाने ने दर्शकों को हिला दिया था। 'फिर मिलेंगे' (2004) में सलमान खान और शिल्पा शेट्टी ने एड्स के मरीज का किरदार निभाया था। एड्स पीड़ित होने के बाद नौकरी से निकाले जाने, फिर कानूनी लड़ाई लड़ते शिल्पा शेट्टी के किरदार को काफी सराहा गया था।
बीमारी पर बनी आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीं पर' (2007) में डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चे की कहानी दिखाई थी। आमिर खान उसके ड्राइंग टीचर बनते हैं और उसकी परेशानी समझकर उसे ड्राइंग के जरिए हल करने की कोशिश करते हैं। ऐसी ही एक फिल्म 'गजनी' है, जो 2008 में आई थी। आमिर खान ने इसमें इन्टेरोगेट एम्नेसिया (शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस) से ग्रस्त के मरीज का किरदार निभाया था। यह फिल्म हॉलीवुड फिल्म 'मेमेंटो' का रीमेक थी। 2010 में आई फिल्म 'माई नेम इज खान' में शाहरुख खान ने एस्पर्जर सिंड्रोम के मरीज का किरदार निभाया था। जिसमें उन्होंने बीमारी से जूझते हुए धर्म के बारे में लोगों की गलतफहमी दूर करने वाले संजीदा व्यक्ति का किरदार निभाया था। अनुराग बासु की फिल्म 'बर्फी' में प्रियंका चोपड़ा ने दुर्लभ बीमारी ऑटिज्म से पीड़ित लड़की किरदार निभाया था। जबकि, रणबीर कपूर ने गूंगे-बहरे लड़के का किरदार निभाया था।
सोनाली बोस की 2012 में रिलीज हुई फिल्म 'मार्गरीटा विद ए स्ट्रा' में कल्कि कोचलिन ने इसमें सेलिब्रल पाल्सी से ग्रस्त लडक़ी का किरदार निभाया था। कल्कि ने बीमार होने के बावजूद पढ़ने के लिए न्यूयार्क जाने वाली प्यार की तलाश करती युवा लड़की का किरदार निभाया था। फिल्म पीकू (2015) को अपने अनोखे कथानक के कारण दर्शकों ने खूब सराहा था। इस फिल्म एक बार फिर अमिताभ बच्चन ने कब्ज की बीमारी होती है। जिनकी मौत का कारण भी कब्जियत ही होता है।
'ए दिल है मुश्किल' (2016) में रणबीर कपूर, ऐश्वर्या राय और अनुष्का शर्मा ने काम किया था। फिल्म में अनुष्का शर्मा ने टर्मिनल कैंसर से पीड़ित लड़की किरदार निभाया। इस कैंसर को लाइलाज रोग माना जाता है, जिसमें पीड़ित की मौत किसी भी समय हो सकती है। 'शुभ मंगल सावधान' (2017) भी अलग तरह की फिल्म है, जो पुरुषत्व के मुद्दे के कथानक पर बनी है। फिल्म में आयुष्मान खुराना ने पुरुषों की सेक्सुअल कमजोरी (इरेक्टाइल डिसफंक्शन) को सहजता से परदे पर पेश किया।
इसके अगले साल 2018 में आई फिल्म 'हिचकी' में रानी मुखर्जी मुख्य भूमिका में थी। रानी मुखर्जी खास तरह की बीमारी टुरेट सिंड्रोम से पीड़ित थी। इस बीमार से पीड़ित व्यक्ति शब्दों को दोहराने, हिचकी आने, खांसने, छींकने, चेहरा या सिर हिलाने और पलकों को झपकाना शुरू कर देता है। शाहरुख खान की एक और बीमारी से संबंधित फिल्म है 'जीरो' जो 2018 में आई थी। इसमें उन्होंने बौने का किरदार अदा किया था। बौना होने की वजह मेटाबोलिक और हार्मोन की कमी होता है। यह फिल्म शाहरुख़ की फ्लॉप फिल्मों में से एक थी। इसमें शाहरुख़ का किरदार बौआ सिंह का था जो 38 साल का बौना आदमी है, जिसे जीवनसाथी की तलाश रहती है। इसी साल 2018 में आई डायरेक्टर शुजीत सरकार की फिल्म 'अक्टूबर' में भी बीमारी का कथानक था। वरुण धवन और बनिता संधू की यह फिल्म एक संवेदनशील लव स्टोरी है। बनिता के साथ एक एक्सीडेंट के बाद वह कोमा में चली जाती हैं। वह धीरे-धीरे रिकवर होती हैं, लेकिन अंत में उनका निधन हो जाता है। इसमें कोई बीमारी नहीं बताई, पर कथानक अस्पताल के इर्द-गिर्द ही घूमता है।
अब थोड़ा पहले चलते हैं। बालू महेंदू की 1983 में आई फिल्म 'सदमा' तमिल फिल्म का रीमेक है। इसमें श्रीदेवी और कमल हासन की प्रमुख भूमिका है। फिल्म में श्रीदेवी को एक कार दुर्घटना में सिर में चोट लग जाती है और भूलने की बीमारी के कारण उसमें बचपन का दौर आ जाता है। वह परिवार से खो जाती है और वेश्यालय में फंस जाती है। फिर वो स्कूल टीचर सोमू (कमल हासन) द्वारा छुड़ाए जाने से पहले वेश्यालय में फँस जाती है, जिसे उससे प्यार हो जाता है। फिल्म का अंत बेहद संवेदनशील है, जब श्रीदेवी की याददाश्त लौट आती है और कमल हासन को ही भूल जाती है। असाध्य रोगों पर बनने वाली फ़िल्में तभी दर्शकों की संवेदनाओं को प्रभावित कर पाती हैं, जब उनके कथानक में कसावट होने के साथ बीमारी की गंभीरता को दिखाया जाता है। खास बात ये भी कि ऐसी सभी फिल्मों बड़े कलाकारों ने काम किया है।
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