Wednesday, July 24, 2024

भाजपा नेताओं को कांग्रेसी घुसपैठ रास नहीं आ रही!

- हेमंत पाल
  
    भाजपा में इन दिनों अंदर और बाहर के तापमान में बहुत अंतर है। देखने में बाहर सब कुछ सामान्य लग रहा, पर अंदर कई नेताओं ने नाराजगी का ख़म ठोंक रखा। उनकी ये नाराजगी अंदर ही नहीं रही। वे कांग्रेस के उन घुसपैठिए नेताओं को मंत्री बनाए जाने से गुस्से में हैं। जिन तीन कांग्रेस विधायकों को भाजपा में लाकर पदों से नवाजा जा रहा है, उसके पीछे का कारण उन्हें समझ नहीं आ रहा! आखिर रामनिवास रावत को मंत्री बनाने के क्या मज़बूरी थी, इसका जवाब नहीं मिल रहा।    
       कांग्रेस से आए रामनिवास रावत को मंत्री बनाया जाना भाजपा के बड़े नेताओं को रास नहीं आ रहा। इस कारण प्रदेश भाजपा में सब कुछ सामान्य नहीं है। सिंधिया प्रसंग को तो भाजपा में इसलिए स्वीकार लिया गया था, कि वो कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी पार्टी की सरकार बनाने का मामला था। लेकिन, रामनिवास रावत, कमलेश शाह और निर्मला सप्रे को जिस तरह शर्तें मानकर भाजपा में लिया गया, वो पार्टी के कई सीनियर विधायकों और नेताओं को रास नहीं आ रहा। कुछ नेताओं की नाराजगी खुलकर सामने आ रही। वे इसे सही नहीं मान रहे और ये सवाल खड़ा कर रहे हैं कि आखिर इन तीन विधायकों को भाजपा में लेने के पीछे क्या मज़बूरी थी! क्यों इन्हें इनकी शर्तों पर पार्टी में लिया गया। बात सही इसलिए भी है, कि न तो सरकार पर कोई खतरा था और न इनके भाजपा में आने से प्रतिष्ठा बढ़ने जैसी कोई बात समझ में आती है।         
   भाजपा नेताओं की नाराजी खुलकर भी सामने आई और दबकर भी। लेकिन, पार्टी का बड़ा तबका नेतृत्व की इस प्रवृत्ति से खुश नहीं है। इससे उन्हें अपने हक़ पर खतरा मंडराता नजर आने लगा, जो स्वाभाविक भी है। सिंधिया के साथ आए 22 लोगों में चार अभी भी मंत्रिमंडल का हिस्सा है। पिछले मंत्रिमंडल में इनकी संख्या 7 थी। तोड़फोड़ से पार्टी को भले तात्कालिक फ़ायदा होता हो, पर इससे पार्टी के अंदर विद्रोह जैसे हालात बनते हैं। इससे पार्टी संगठन और बड़े नेता भी अनजान नहीं है। उन्हें पता है कि पार्टी में कैसा विरोध पनप रहा है। किंतु, इस नाराजगी को दूर करने के लिए क्या पार्टी ने कोई रास्ता खोजा? अभी इस सवाल का जवाब सामने आना बाकी है। लेकिन, यह बात जरूर सामने आई कि इन नाराज विधायकों को मंत्रिमंडल और निगम-मंडलों में नई जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है! लेकिन, ये कब और कैसे होगा, ये यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब आना बाकी है। 
      मध्यप्रदेश भाजपा में तोड़फोड़ की राजनीति से पार्टी के नेता ऊब गए हैं। यही कारण है कि अब पार्टी के अंदर नाराजगी विद्रोह की भाषा में बदलने लगी। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए रामनिवास रावत को मंत्री बनाने से पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर सामने आए। क्योंकि, मंत्रिमंडल विस्तार का सारा तामझाम अकेले रावत के लिए किया गया। इस पर पूर्व मंत्री गोपाल भार्गव और अजय विश्नोई ने तो खुलकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। इसलिए कि कांग्रेस के दूसरे विद्रोही और अमरवाड़ा से जीते कमलेश शाह भी मंत्री बनने की कतार में है। भाजपा में नाराजगी जताने वाले ये वे नेता हैं, जो सालों से राजनीति कर रहे हैं।  वे मुखर भी हैं और खुलकर बोलने का मौका नहीं छोड़ते। लेकिन, ऐसे कई नेता जो चुप हैं पर अंदर ही अंदर उनका गुस्सा खदबदा रहा है। पूर्व मंत्री जयंत मलैया और ओमप्रकाश सकलेचा ने तो साफ़ कहा कि वे पार्टी में अपनी बात रखेंगे। आशय है कि वे भी इससे खुश नहीं हैं। सबका एक ही सवाल है कि आखिर कांग्रेस के इन तीन नेताओं को समझौते के तहत पार्टी में शामिल कराने के पीछे पार्टी की क्या मज़बूरी थी!    
    इससे पहले 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो नेता भाजपा में शामिल हुए थे, तब उन्हें मंत्री और राज्यमंत्री बनाया गया। जो उपचुनाव हार गए उन्हें समझौते के तहत निगम-मंडल की कमान सौंपी गई थी। तब भी पार्टी के नेताओं ने नाराजगी दिखाई थी। लेकिन, तब के हालात अलग थे। वो माहौल कमलनाथ की सरकार के समय का था और सारी जुगत कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए की गई थी। इसलिए भाजपा के नेताओं ने कलेजे पर पत्थर रखकर सहन कर लिया। लेकिन, रामनिवास रावत, कमलेश शाह और निर्मला सप्रे को लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा में लाने से क्या हासिल हुआ! रावत को बिना उप चुनाव जीते मंत्री बना दिया गया। जबकि, कमलेश शाह तो चुनाव जीत गए और उन्हें भी मंत्री बनाया जाना है। निर्मला सप्रे से भाजपा का क्या करार हुआ ये अभी सामने नहीं आया!
    अजय विश्नोई ने सही कहा कि 'वो' (यानी कांग्रेस से भाजपा में आने वाले) शर्तों के साथ ही भाजपा में शामिल होते हैं, हम तो समर्पण भाव से काम करने वाले नेता हैं। त्याग अपनों से करवाया जाता है, दूसरा तो शर्तों के साथ आया। पूर्व मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि ये पार्टी का फैसला है। वे खुलकर बोलते हैं, तो उनका नुकसान हो जाता है। यही वजह है कि पार्टी के दूसरे नाराज नेता भी खुलकर बोलने से हिचकिचा रहे हैं। इन नेताओं का कहना है कि सरकार बनाने या बचाने की मजबूरी तो नहीं थी, तब क्यों रामनिवास रावत को मंत्री बनाया गया! अजय विश्नोई जैसे सीनियर विधायक प्रतिक्रिया तो दे रहे हैं, पर वे भी पार्टी के फैसले की आड़ लेकर तंज भी कस रहे हैं। विश्नोई का यह भी कहना है कि पार्टी ने रावत को मंत्री बनाकर इनाम दिया है। शायद पार्टी ने उनकी उपयोगिता को समझा होगा। 
    कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया लगातार 9 बार से चुनाव जीते विधायक गोपाल भार्गव की भी सुनाई दी। उनका बयान सामने आया कि भाजपा में मंत्री बनाने का निर्णय शीर्ष नेतृत्व तय करता है। अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि मैं 15000 दिन से विधायक हूं, पता नहीं रावत को किस मजबूरी में मंत्री बनाया। गोपाल भार्गव कई बार मंत्री रहे, पर इस बार उनको मौका नहीं मिला। उनकी भाषा से अंदाजा लगता है कि वे संभलकर बोलने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। कहना तो वे बहुत कुछ चाहते होंगे, पर पार्टी लाइन भी नहीं छोड़ना चाहते। दो दशक तक मंत्री रहे जयंत मलैया भी पार्टी से बंधे हैं। भाजपा विधायक ओमप्रकाश सकलेचा का बयान सामने आया कि किसे मंत्री बनाना है और किसे नहीं, ये मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है।
    ऐसे में पार्टी भले ही सबकुछ ठीक कहे, पर वास्तव में ऐसा है नहीं! पैराशूट नेताओं को कुर्सी दिए जाने से भाजपा के वे नेता तो नाराज हैं ही जिनका पार्टी के इस फैसले से नुकसान हुआ है। प्रदेश की नई सरकार में पुराने नेताओं को हाशिए पर छोड़ देने के पीछे समझा जा रहा है कि पार्टी पुरानी पीढ़ी को विदा कर नई पीढ़ी को आगे लाने की परंपरा निभा रही है। लेकिन, रामनिवास रावत की उम्र के नेताओं को भाजपा में लाकर मंत्री बनाने को लेकर पनप रही नाराजगी सब चुप क्यों हैं। 
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फिल्मों में प्राकृतिक आपदा के कथानक


- हेमंत पाल 

     र्यावरण हो रहे बदलाव के चलते हमें कई बार सूखा और बाढ़ का सामना करना पड़ता है। ये सिर्फ हमारे जीवन में ही नहीं होता, इस पर फिल्मों के कथानक भी रचे जाते हैं। हमारा देश लगभग हर साल कभी बाढ़, कभी सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं को झेलता है। करोड़ों लोग इन आपदाओं को हर साल करीब से भोगते हैं। इसके बावजूद यह विषय आमतौर पर हिंदी सिनेमा में कम ही नजर आता है। प्यार, अपराध, खेल, घोटाले जैसे कई विषय हैं, जिन पर हिंदी फिल्मकारों ने खूब फिल्में बनाई, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं को अपनी कहानियों में ज्यादा जगह नहीं दी। जबकि, हॉलीवुड की फिल्मों में तरह के तूफान और बाढ़ के दृश्य ज्यादा दिखाई दिए। कई फिल्मों के तो टाइटल में भी आंधी, तूफान और भूकंप को शामिल किया गया। पहले हिंदी फिल्मों में आंधी तूफान और बारिश को कभी सस्पेंस तो कभी परिवार में आई आफत के  रूप में दिखाया जाता रहा। 
     राज कपूर की पहली सफल फिल्म का टाइटल ही 'बरसात' था। उनकी फिल्म 'आवारा' में जब पृथ्वीराज कपूर अपनी गर्भवती पत्नी को घर से बाहर निकाल देते हैं, तो अचानक आंधी, तूफान के साथ बारिश आ जाती है। 'मेरा नाम जोकर' में भी जब राज कपूर फिल्म के तीसरे हिस्से में पद्मिनी का घर छोड़कर जाते है, तब कड़कड़ाकर बिजली गरजती है और भारी बरसात में पद्मिनी उसे लौटकर आने की गुजारिश करते हुए कहती है अंग लग जा बालमा। राज कपूर की ही फिल्म सत्यं शिवं सुंदरम के अंत में बाढ़ का प्रलयंकारी दृश्य दिखाया गया था। पुल टूटने की वजह से पूरा गांव तबाह हो जाता है। लोग अपना गांव छोड़कर दूर-दूर चले जाते है। शशि कपूर और जीनत अमान की इस फिल्म के बाढ वाले दृश्य को राज कपूर ने खुद कैमरा लेकर अपने लोनी वाले फार्म हाऊस में आई वास्तविक बाढ के समय फिल्माया था।
    राज कपूर की तरह ही महबूब खान ने भी बाढ के दृश्यों का प्रभावशाली उपयोग अपनी क्लासिक फिल्म 'मदर इंडिया' में किया था। नरगिस और सुनील दत्त की इस फिल्म में बाढ़ से पूरे गांव में तबाही मच जाती है। भुखमरी और प्लेग की बीमारी से गांव वाले परेशान हैं, इस बीच ग्रामीण अपने परिवार को बचाते हैं। 'मदर इंडिया' भारत की उन फिल्मों में से एक हैं, जो ऑस्कर के नॉमिनेशन तक पहुंचने में कामयाब रही। इसके अलावा 'सोहनी महिवाल' और 'बैजू बावरा' में भी बाढ़ को फिल्म के कथानक से जोडा गया था। बारिश और बाढ़ को मनोज कुमार ने अपनी फिल्म 'पूरब और पश्चिम' के पहले श्वेत श्याम हिस्से में बहुत कलात्मकता से फिल्माया था। मनमोहन देसाई की फिल्म 'सच्चा झूठा' में राजेश खन्ना की बहन नाज भी बाढ़ में फंस जाती है। ऐसा नहीं कि फिल्मों में प्राकृतिक आपदा के नाम पर केवल बाढ़ का ही सहारा लिया गया। जब बाढ़ पर बस नहीं चल पाया तो फिल्मकारों ने भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा को फिल्म की कथानक में जोड़कर प्रस्तुत किया। 
     इस तरह की फिल्मों में सबसे सफल रही बीआर चोपड़ा की फिल्म 'वक्त।' यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित 1965 में आई इस फिल्म की कहानी भूकंप में हुई तबाही से बिछड़े परिवार के फिर मिलने की है। इसमें दिखाया गया कि कैसे एक व्यापारी और उसका परिवार सालों बाद एक अदालत के मुकदमे में फिर से मिलता है। 'मदर इंडिया' के बाद यह हिंदी सिनेमा की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसमें इतने सारे सितारे साथ थे। इसमें बलराज साहनी, सुनील दत्त, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर सहित कई बेहतरीन सितारों ने काम किया था। फिल्म 'जल' में कच्छ के रण को दिखाया गया। इसकी कहानी बक्का के इर्द गिर्द घूमती है जो सूखे के बीच पानी ढूंढ़ने की कोशिश करता है। डायरेक्टर अमोल गुप्ते की इस फिल्म में पूरब कोहली ने मुख्य भूमिका निभाई थी। साल 2005 में महाराष्ट्र में आई बाढ़ पर आधारित इस फिल्म में इमरान हाशमी और सोहा अली खान मुख्य भूमिका में थे। दोनों बाढ़ के बीच फंसकर कैसे मुसीबत से निकलते हैं, फिल्म में यह दिखाया गया। 
       सारा अली खान और सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'केदारनाथ' भी बाढ़ की त्रासदी पर बनी है। 2013 में हिमालय पर इतिहास की सबसे भयानक तबाही हुई थी। यह फिल्म हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के बीच लव स्टोरी पर आधारित है। 2013 में आई फिल्म 'काई पो चे' अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की डेब्यू फिल्म थी। इसमें राजकुमार राव भी नजर आए थे। यह फिल्म तीन युवकों की कहानी थी जिनकी जिंदगी 2001 के गुजरात भूकंप के बाद बदल जाती है। फिल्म में इस भूकंप की भयावहता को दिखाया गया है। यह फिल्म चेतन भगत की किताब 'द थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ' पर आधारित है। कुणाल देशमुख निर्देशित फिल्म 'तुम मिले' 2009 में रिलीज हुई थी। फिल्म में इमरान हाशमी और सोहा अली खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म में जुलाई, 2005 में मुंबई में आई बाढ़ को दिखाया गया था। 2017 में आई 'कड़वी हवा' में संजय मिश्रा और रणवीर शौरी मुख्य भूमिका में थे। यह एक सूखा पीड़ित क्षेत्र की कहानी है जहां बरसों से वर्षा नहीं हुई है। साल 2010 में आई ‘पीपली लाइव’ में किसानों की समस्या को बेहद अनोखे अंदाज में फिल्माया गया था। फिल्म में नत्था की कहानी थी, जो जो सूखे के कारण सरकार से लिया कर्ज वापस नहीं दे पाता। इसके बाद सरकार उनकी जमीन जब्त करने का आदेश देती है।
     'ओह माय गॉड' (2012) में परेश रावल ने ऐसे शख्स का किरदार निभाया था, जिसकी दुकान भूकंप से नष्ट हो जाती है। बीमा कंपनी इसे ‘एक्ट ऑफ गॉड’ बताकर उन्हें बीमा की रकम नहीं देती। इसके बाद वह कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है और एक दिलचस्प कहानी बुनती है। एक और जहां हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्राकृतिक आपदा को फिल्म के कथानक के साथ जोडकर इस पर कुछ ही रीलें खर्च करने का प्रयास किया गया। वहीं हॉलीवुड ने इस विषय पर पूरी फिल्में ही समर्पित कर दी। उनके इस प्रयास को दर्शकों ने पसंद भी किया। हॉलीवुड में प्राकृतिक आपदाओं पर बनी फिल्मों की खासियत यह होती है, कि ये अपने दर्शकों को असली थ्रिलर महसूस कराती हैं। इतना रोमांच पैदा करती है, कि दर्शक अपनी सीट पर वो आपदा महसूस करता है। ये बिल्कुल असली जैसा लगता है। अब तक प्राकृतिक आपदाओं से लेकर दुनिया के खत्म होने तक, कई प्राकृतिक आपदाओं पर फिल्में बन चुकी हैं। हेलेन हंट और बिल पैक्सटन द्वारा अभिनीत 1996 में आई फिल्म 'ट्विस्टर' बॉक्स ऑफिस पर सबसे धमाकेदार हिट साबित हुई। यह फिल्म वास्तव में जबरदस्त दृश्य प्रभावों को दिखाती है।  
     2004 में आई 'द डे आफ्टर टुमारो' फिल्म में बर्फीले तूफान और सुनामी की त्रासदी को दिखाया गया। अमेरिका में आई इस त्रासदी से पूरा देश तहस नहस हो जाता है। फिल्म का निर्देशन रोलैंड ने किया था।  इसके बाद 2007 में प्रदर्शित टोनी के निर्देशन में बनी फिल्म 'फ्लड' पूरी तरह से बाढ़ पर ही आधारित थी। 2009 में प्रदर्शित फिल्म '2012' में भूकंप और सुनामी से पूरी दुनिया आई तबाही का रोमांचक फिल्मांकन किया गया था। इस फिल्म जॉन कुसैक, अमांडा पीट और ओलिवर जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म का निर्देशन भी रोलैंड ने ही किया था। दुनियाभर के दर्शकों ने फिल्म को काफी पसंद किया था। 2011 में आई स्टीवन सोडरबर्ग की फिल्म 'कंटेजियन' कोरोना वायरस के बढ़ने के बाद सोशल मीडिया पर ट्रेंड हुई। इस फिल्म में ग्वेनेथ पाल्ट्रो, मारिओन कोटिलार्ड, ब्रेयान क्रेन्सटन, मैट डेमन, लॉरेन्स फिशबर्न, जूड लॉ, केट विंसलेट और जेनिफर ने एक्टिंग की है। यह फिल्म 2009 में फैले स्वाइन फ्लू के वायरस के फैलने पर आधारित थी। 
     2015 में प्रदर्शित  फिल्म 'सैन एंड्रियास' में ड्वेन जॉनसन,कार्ला गुजिनो और अलेक्जेन्ड्रा जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म का निर्देशन ब्रैड पेयटन ने किया था। सैन एंड्रियास में भूकंप और सुनामी से होने वाली त्रासदी को दिखाया गया है। हॉलीवुड की ही फिल्म 'जियोस्टॉर्म' एक साइंस डिजास्टर आधारित फिल्म थी। ये फिल्म साल 2017 में आई थी। इस फिल्म का निर्देशन डीन डिवालिन ने किया था। इस फिल्म में जेरार्ड बटलर, जिम स्टर्जेस और अब्बी कॉर्निश जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। हॉलीवुड ने जहां इस विषय को शिद्दत के साथ उठाया, वहीं हिंदी फिल्मों के निर्माता निर्देशक इसे फिलर के रूप में ही इस्तेमाल करते रहें। ज्यादा हुआ तो बारिश, तूफान, आंधी, जलजला, आंधी और तूफान और आया तूफान जैसे शीर्षक रचे गए। 
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Friday, July 12, 2024

सिनेमा में सद्भाव का सन्नाटा क्यों छाया

     1994 में आई फिल्म 'क्रांतिवीर' में नाना पाटेकर के कई बेहद दमदार डायलॉग थे। एक दृश्य में नाना का डायलॉग था 'ये मुसलमान का खून ये हिंदू का खून .... बता इसमें मुसलमान का खून कौन सा है और हिंदू का कौन सा है बता।' इस फिल्म में हिंदू-मुस्लिम की एकता की मिसाल दी गई थी। ऐसी कई फ़िल्में बनती रही। लेकिन, अब वो समय नहीं रहा, जब इस तरह की सद्भाव वाली भावनाएं दिखाई जाएं। बरसों से ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें 'क्रांतिवीर' जैसे जोशीले डायलॉग और कथानक हों। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि बदलते माहौल और विचारधारा का असर है।         
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- हेमंत पाल

     मारे देश में समय के बदलाव को फिल्मों के कथानक के जरिए व्यक्त करने की परंपरा बहुत पुरानी है। जब जैसा माहौल रहता है, तब वैसी फ़िल्में बनती हैं। युद्धकाल में हमारे फिल्मकारों ने जंग पर आधारित फ़िल्में बनाई, युवाओं का आक्रोश उभरा तो ऐसे विषय को चुना गया, कई फिल्मों में तो प्राकृतिक आपदा को भी फिल्म का विषय बनाया गया। यहां तक कि अंतरिक्ष में देश को सफलता मिली तो उसे भी विषय बनाया गया। लेकिन, अब हिंदू-मुस्लिम एकता वाले कथानकों पर फ़िल्में बनना बंद हो गई! जबकि, ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से कुछ साल पहले तक अलग-अलग कथानकों के जरिए सामाजिक सद्भाव बढ़ाने की कोशिश की गई थी। अब शायद इसलिए ऐसी फ़िल्में नहीं बनती कि वे माहौल में मेल नहीं खाती। फिल्मकार भी इसलिए कोशिश नहीं करते कि उसकी रचनात्मकता पर आंच न आए और न वो किसी आक्रोश का निशाना बने। आज यदि विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' को धुंआधार सफलता मिलती, तो उसी तरह की फिल्मों की बाढ़ आ जाती। फिर 'द केरल स्टोरी' बनाई जाती है और उसके रियल स्टोरी होने के तर्क दिए जाते हैं। आशय है कि समाज के एक वर्ग को नायक और दूसरे को खलनायक की तरह पेश किया जाने लगा।   
   जबकि, हिंदी फिल्म का इतिहास सद्भाव वाली फिल्मों से भरा पड़ा है। 1941 में वी शांताराम ने 'पड़ोसी' नाम से दो दोस्तों की कहानी पर फिल्म बनाई थी। फिल्म की खासियत यह थी, कि इसमें पंडित का किरदार मजहर खान ने और मुस्लिम का गजानन जागीरदार ने निभाया था। फिल्म के अंत में एक ही मकसद के लिए दोनों साथ में जान दे देते हैं। इसके कुछ साल बाद पीएल संतोषी ने 'हम एक है' (1946) बनाई, जिसमें सामाजिक सौहार्द्र दिखाया गया था। उस समय समाज में सांप्रदायिक वैमनस्य जैसा कोई भाव नहीं था, तो ऐसी फिल्मों को मनोरंजन की ही तरह देखा जाता था। तब इन फिल्मों के डायलॉग भी 'क्रांतिवीर' की तरह जोशीले नहीं थे कि रोंगटे खड़े कर दें! यही वजह थी कि इस विषय के प्रचार की जरुरत नहीं पड़ी। यश चोपड़ा की फिल्म 'धूल का फूल' (1959) भी ऐसी ही फिल्म थी। एक मुस्लिम एक हिंदू बच्चे को जंगल में लावारिस देखता है, उसे पालता है। इस फिल्म का गीत 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा' काफी चर्चित रहा। मनमोहन देसाई की 'कुली' (1983) में भी सद्भाव का संदेश था। आज के दौर में सांप्रदायिक सौहार्द्र और मानवता से जुड़ी फिल्मों में 'बजरंगी भाईजान' और 'मुल्क' ही बनी।
     हिंदी सिनेमा में धर्म कभी विवाद का मसला नहीं रहा। इस विषय को कभी हवा भी नहीं दी गई, क्योंकि फिल्मों को मनोरंजन के नजरिए से देखा जाता रहा। लेकिन, अब फिल्मों में धर्म को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी जाने लगी। दर्शक भी तरह की विचारधारा में बंट गया। इसे पब्लिसिटी स्टंट भी बनाया जाने लगा, ताकि फिल्म को आसानी से एक वर्ग के पाले में डालकर उसे हिट करवाया जा सके। इसलिए कि फिल्मों का मूल स्वर भी अब सद्भाव से हटने लगा। फिर भी दर्शकों को सिनेमाघर तक लाने के लिए शाहरुख खान आज भी परदे पर राज और आर्यन ही हैं। आमिर खान को भी भुवन, रवि और लाल सिंह चड्ढा की तरह पसंद किया जाता है। सलमान खान को भी सबसे ज्यादा चुलबुल पांडे के किरदार में पसंद किया गया। अमिताभ बच्चन तो विजय के साथ इकबाल भी है और एंथोनी भी। इसी से समझा जा सकता है कि फिल्मों में हर रूप में सद्भाव जिंदा रहा, पर अब उसका लोप होता जा रहा है। देश की आजादी के बाद सभी का पहला मकसद बिखरे समाज से नए देश का निर्माण था। लोगों के पास सामाजिक और आर्थिक बराबरी, समृद्धि और खुशहाली के सपने थे। इसलिए साम्यवादी सपनों वाली फिल्में ज्यादा बनी। मदर इंडिया, दो बीघा जमीन और 'नया दौर' जैसी फिल्में सफल हुई और आज भी ये मील का पत्थर हैं। 
 
       देश के विभाजन के बाद उस त्रासद सच्चाई को कभी फिल्म का विषय नहीं बनाया गया। ऐसी फ़िल्में बनी भी तो बरसों बाद। कोशिश यही थी कि विभाजन के दर्द को भूलकर सांप्रदायिक एकता को बढ़ाया जाए। कुंभ के मेले या ट्रेन में बिछुड़े दो भाईयों की कहानी जैसे कथानक रचे गए। ये दोनों भाई बिछड़कर अलग-अलग धर्मों वाले दो परिवारों में पलते हैं। दोनों अपने-अपने धर्मों का पालन करते हैं और जब मिलते हैं, तो भी खुद को सहारा देने वाले को नहीं भूलते। इसी दौर में गांधी विचारधारा को भी बढ़ाकर छुआछूत और जातिवाद को ख़त्म करने की पहल की गई। कई फिल्मों में गांव की जमींदारी प्रथा और साहूकारी का विरोध किया गया। नए रूप में आज भी ये सारी बुराइयां समाज में हैं, पर इन्हें फिल्म का विषय बनाने से बचा जाता है। 
     देवानंद की फिल्म 'अल्लाह तेरो नाम' (1961) में सद्भाव की अजब मिसाल पेश की गई थी। 'शोले' (1975) में छोटे से रोल में इमाम साहब सभी की तुलना में अधिक साहसी और प्रेरक व्यक्ति के रूप में दिखाए गए। गांव वाले जिस गब्बर सिंह के खिलाफ लड़ने में डरते हैं, वहीं इमाम साहब अपने बेटे को खोने के बाद भी दूसरों को ऐसे बलिदान के लिए तैयार करने का संदेश देते हैं। कच्चे धागे (1999) में हिंदू और मुस्लिम सौतेले भाई अपनी मां मरियम को बचाने के लिए एकजुट होते हैं। सिर्फ यही नहीं, सात हिंदुस्तानी (1969), क्रांति (1981), देश प्रेमी (1982), कर्मा (1986), चाइना गेट (1998), लगान (2001), ईमान धरम (1977) और इंसानियत (1994) जैसी फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है। ऐसी कुछ फिल्मों के शीर्षक भी अलग संदेश देते थे। जैसे शंकर हुसैन (1977), पंडित और पठान (1977) और राम-रहीम (1930) इसके अलावा 'आप के दीवाने' (1980) और 'पापी देवता' (1995) दोनों राम और रहीम नाम के दो लोगों की दोस्ती पर केंद्रित रहे।  
     ऐसी भी फिल्में आई जिनमें मुस्लिम को हिंदू किरदार के हित में भले आदमी की भूमिका में दिखाया गया। अमिताभ की फिल्म 'जंजीर' (1973) में गुंडा शेरखान (प्राण) हिंदू पुलिस अधिकारी की मदद करता है। इकबाल (2005) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें मूक-बधिर नायक इकबाल क्रिकेट में कामयाब होना चाहता है, जिसका कोच हिंदू होता है। 2006 में आई फिल्म 'डोर' में हिंदू और मुस्लिम दो महिलाओं बीच संवेदनशील रिश्ता दिखाया गया। यह उन दुर्लभ फिल्मों में एक है, जिसमें केंद्रीय चरित्र कोई मर्द नहीं है। मुस्लिम महिला ही अपनी हिंदू सहेली की मदद करती है। यादों की बारात (1973) में शंकर का सबसे अच्छा दोस्त उस्मान है। 'जुनून' (1978) में मुस्लिम नायक ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सेवा में अपने प्रेम के हित का त्याग किया था। 'मुकद्दर का सिकंदर' (1978) में अमिताभ को एक मुस्लिम महिला गोद लेती है।
    'खुद्दार' (1982) में एक मुसलमान दो भाईयों को आश्रय देता है। 'विधाता' (1982) में हिंदू नायक अपने मुस्लिम केयर टेकर की हत्या का बदला लेता है। विजेता (1982) में चार दोस्त वायु सेना अकादमी में सभी पायलट विभिन्न धर्मों से हैं। 'प्यार की जीत' (1987) में अन्य भ्रष्ट हिंदू डॉक्टरों के विपरीत, एक मुस्लिम डॉ रहमान को एक ईमानदार और दयालु व्यक्ति के रूप में दिखाया गया। 'खुदा गवाह' (1992) में अमिताभ बच्चन काबुल के एक पठान की भूमिका निभाते हुए एक हिंदू पुलिस अधिकारी से मदद लेते हैं। गुलाम-ए-मुस्तफा (1997) में एक हिंदू महिला और एक मुस्लिम पुरुष के बीच शुरुआती नफरत और कड़वाहट अंततः उनके आपसी विश्वास से दूर हो जाती है। 
      ऐसी फिल्मों का जिक्र बहुत लंबा है। 'हे राम' (2000) में अमजद खान नाम का किरदार अंततः हिंदू नायक को गांधी की हत्या करने से रोकता है। 'राख' (2001) में आमिर खान को एक हिंदू पुलिस अधिकारी की उसकी प्रेमिका के बलात्कार का बदला लेने में मदद करता है। बस इतना सा ख्वाब है (2001) में नावेद अली हिंदू नायक सूरज चंद के जीवन को बदल देते हैं। 'मुन्ना भाई एमबीबीएस' (2003) में जहीर की मौत कहानी में मोड़ लाती है। यशराज की फिल्म 'चक दे इंडिया' (2007) में मुस्लिम हॉकी कोच महिला हॉकी टीम को जिताता है। ऐसी फिल्मों की संख्या सैकड़ों में हैं जिनमें हिंदू और मुसलमान दोस्त या मददगार के रूप में दिखाई देते हैं। अमिताभ बच्चन की फिल्म 'अंधा कानून' में विजय और खान दोनों ही समाज में अपराधियों से पीड़ित हैं। 'ए वेडनसडे' (2008) में कई आतंकवादी मुस्लिम हैं। लेकिन, ईमानदार पुलिस वालों में से एक किरदार भी मुस्लिम है। तात्पर्य यह कि ऐसी फिल्मों को पसंद करने वालों के लिए उस तरह का माहौल भी जरूरी है, जो अभी दिखाई नहीं देता।  
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दर्शकों को बांधता है चौंकाने वाला सस्पेंस

     फिल्मों के विषयों की लिस्ट बहुत लंबी होती है। लेकिन, हर विषय का एक समय होता है। कभी लव स्टोरी, कभी पारिवारिक कहानी, कभी एक्शन तो कभी हल्की-फुल्की कॉमेडी दर्शकों को प्रभावित करती है। लेकिन, सस्पेंस ऐसा विषय है, जो हमेशा ही दर्शकों को पसंद आया। ये फ़िल्में दर्शकों को शुरू से अंत तक बांधकर रखती हैं। कई ऐसी सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्में बनी जिन्होंने दर्शकों का दिमाग बुरी तरह चकरा दिया। 'दृश्यम' और अंधाधुन' को ऐसी  फिल्मों में गिना सकता है जिनका अंत चौकाने वाला है।   


- हेमंत पाल

      दि फिल्म के शौकीन कुछ दर्शकों से सवाल किया जाए कि उन्हें कैसी फ़िल्में पसंद हैं, तो निश्चित रूप से ज्यादातर का जवाब होगा सस्पेंस वाली फ़िल्में। ऐसी फ़िल्में जिनका अंत चौंकाने वाला हो। इसका कारण है, कि इस तरह के कथानक पर बनी फ़िल्में दर्शकों को भी अपने साथ जोड़ लेती है। फिल्म के दृश्यों को देखने वाला सोचता रहता है कि अब क्या होगा! यही वजह है कि इन फिल्मों सफलता ज्यादा होती है। क्योंकि, इनके क्लाइमेक्स दर्शकों को हतप्रभ कर देते हैं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ हिंदी में ही सफल नहीं रही, बल्कि हॉलीवुड में भी सस्पेंस, थ्रिलर वाली फिल्‍मों को ही ज्यादा पसंद किया जाता रहा। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर अल्फ्रेड हिचकॉक को तो 'मास्‍टर ऑफ सस्पेंस' ही कहा जाता रहा। सस्‍पेंस और थ्रिलर वाले कथानक शुरू से दर्शकों के प्रिय विषय रहे हैं। जिस फिल्म के अंत के बारे में उनका खुद का अनुमान गलत निकले, वो उन्हें ज्यादा पसंद! क्‍लाइमेक्‍स में ऐसा शख्स सामने आए, जिसका दर्शकों ने अनुमान नहीं लगाया हो! ऐसी फिल्में ही दर्शकों को बांधने वाली होती है। सस्पेंस थ्रिलर वाले कथानक की फिल्मों में दर्शकों को शुरू लगता है कि उसे पता था कि आगे यही होने वाला है। इन फिल्मों में ऐसा अजूबा ही होता है। जो सबसे ज्यादा शरीफ दिखता है, शातिर निकलता है। लेकिन यह अनुमान कई बार गलत भी हो जाता है और एक अलग ही थ्रिलर फिल्म का अंत दर्शक के सामने आता है। सस्पेंस का आशय डरावनी फिल्मों से नहीं है। बल्कि, इस तरह की फ़िल्में अपने कसे हुए कथानक से दर्शक को बांधती है। देखने वाला हमेशा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि अब क्या होगा? 
     परदे पर अभी तक ऐसी फ़िल्में सीमित थीं। पर ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद लगने लगा कि दर्शक सस्पेंस, थ्रिलर और मर्डर मिस्‍ट्री ही देखना चाहता है। जबकि, ये तीनों ही अलग-अलग शैलियां हैं। थ्रिलर फिल्मों में एक्शन होता है, लेकिन सस्‍पेंस नहीं! उनमें जो सस्‍पेंस होता है, उसका राज धीरे-धीरे खुलता रहता है। लेकिन, सस्पेंस फिल्म में न तो रहस्‍य जरूरी है और न एक्शन! इनमे चौंकाने वाले सीन ज्यादा होते हैं, जो दर्शक को सोचने का मौका भी नहीं देते। मिस्‍ट्री और सस्‍पेंस थ्रिलर फ़िल्में एक जैसी नहीं होती। दोनों का ट्रीटमेंट अला-अलग होता है। पर, मिस्‍ट्री फिल्मों में सिर्फ एक राज होता है, जिस पर से फिल्म के अंत में परदा उठता है। इस तरह की फिल्मों की पटकथा का ताना-बाना किसी हत्या के इर्द-गिर्द बुना जाता है। पूरी कहानी अनजान हत्यारे की खोज पर आधारित होती है। संदेह के लिए कई पात्रों को निशाने पर रखा जाता है। हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस जो भी चाल चलती है, वही फिल्म का आकर्षण होता है। कभी फिल्म के नायक, नायिका या सबसे शरीफ पात्र के भी कातिल होने की स्थितियां निर्मित की जाती है। यानी दर्शकों को बांधने और उनका ध्यान बांटने के लिए कई हथकंडे रचे जाते हैं। देखा जाए तो दर्शकों को वही सस्पेंस फ़िल्में ज्यादा पसंद आती है, जो उन्हें हर सीन में चौंका दें। तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, क़त्ल और 'गुप्त' के बाद 'दृश्यम' सीरीज की दोनों फिल्मों ने दर्शकों को जिस तरह बांधकर रखा वही इन फिल्मों का सफलता रही।     
       इस तरह कथानक पर बनने वाली फिल्मों के पन्ने पलटे जाएं, तो हिंदी में मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस फिल्मों की शुरुआत का श्रेय विजय आनंद को जाता है। उन्होंने 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वेल थीफ' उस दौर में बनाने की हिम्मत की, जब दर्शकों को ऐसी कहानियों का अंदाजा भी नहीं था। इन फिल्मों में पैसा लगाना भी एक तरह ही जुआं ही था। पर, विजय आनंद ने दर्शकों पर अपना जादू चलाया और उनकी कई फ़िल्में पसंद की गईं। उन्होंने ऐसे कई प्रयोग किए, जो सस्पेंस से लबरेज थे। इसी तरह रामगोपाल वर्मा की 'कौन' को हिंदी की बेस्ट साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म कहा जा सकता हैं। यह पूरी फिल्म घर में बंद एक लड़की (उर्मिला मातोंडकर) की कहानी है, जो अजनबी (मनोज बाजपेयी) से बचने की कोशिश में रहती है। लेकिन, फिल्म का क्लाईमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। इसी तरह की फिल्म 'फोबिया' भी थी, जिसमें राधिका आप्टे ने काम किया। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जो बाहर निकलने से डरती है और खुद को घर में बंद कर लेती है। उसका डर ही फिल्म का क्लाइमैक्स है।
     बॉबी देओल, काजोल और मनीषा कोइराला की 'गुप्त' बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। इसमें अंत तक किसी का ध्यान नहीं जाता और खलनायिका काजोल निकलती है। विद्या बालन की 'कहानी' और 'कहानी-2' दोनों ही फ़िल्में दर्शकों को अंत तक कुर्सी से बांधकर रखती है। किसी दर्शक को अंदाजा नहीं होता कि आखिरी में क्या होगा! फिल्म 'नैना' एक अंधी लड़की की कहानी थी, जिसकी आंखें ट्रांसप्लांट की जाती है। लेकिन, इसके बाद उसे अजीब सी चीजें दिखाई देने लगती है। 'बदला' को हाल के दौर की बड़ी मर्डर मिस्ट्री फिल्म माना जाता है! इसे अंत तक देखने के बाद ही समझ आता है कि आखिर फिल्म क्या चाहती है! ये पूरी फिल्म सस्पेंस से भरी है! कलाकारों का अभिनय भी हैरान करता है! 
      जबकि, आज के दौर की सस्पेंस फिल्मों में ‘दृश्‍यम’ और इसका सीक्वल सबसे अच्छा उदाहरण है। इसमें अपराधी सामने होता है, लेकिन न तो पुलिस उसे पकड़ पाती है और न दर्शकों को समझ आता है कि उसने ये सब किया कैसे होगा! इस फिल्‍म में कोई मारधाड़ नहीं थी और न रहस्‍य! हत्यारा सबके सामने होते हुए अपनी चतुराई से बचता रहता है। कोई ठोस सबूत न होने से पुलिस भी अंत तक उस पर हाथ नहीं डाल पाती! इसमें सस्पेंस और इमोशन का ऐसा घालमेल किया जाता है, कि फिल्म देखने वाले भी हत्यारे के पक्ष में नजर आ जाते हैं। वे भी नहीं चाहते कि अपराधी पकड़ा जाए! कानून, गुमनाम, मेरा साया, इत्तेफाक, धुंध, अपराधी कौन, कब क्‍यों और कहां, खिलाड़ी, गुप्‍त, वह कौन थी, डिटेक्टर व्‍योमकेश बक्‍शी, मनोरमा सिक्‍स फीट अंडर, भूल भुलैया, एक चालीस की लास्‍ट लोकल, बदला, जानी गद्दार, अगली, तलवार, अंधाधुन, क़त्ल, दृश्‍यम और 'कहानी' ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिनका जादू दर्शकों पर जमकर चला।  
     कुछ साल पहले तक फिल्म के अंत को गोपनीय बनाए रखने हिदायत भी इसी लिए जाती थी कि फिल्म देखने आने वाले दर्शकों में सस्पेंस बना रहे। इसलिए कि ऐसी फिल्मों के अंत में कुछ ऐसा होता था, जो देखने वालों को चौंका देता था। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह गढ़ा जाता था, कि दर्शक उसके आकर्षण में फंस जाते। वे कहानी के ट्विस्ट की असलियत देख नहीं पाते थे और जब राज खुलता तो ऐसा पात्र संदेहों से घिरा मिलता, जिस पर किसी की नजर नहीं जाती! सस्पेंस फिल्मों में चौंकाने वाले अंत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ! बस, दर्शकों को ये हिदायत देना बंद कर दिया गया कि फिल्म का अंत किसी को न बताएं! ऐसी फ़िल्में सिर्फ कलाकारों के अभिनय से ही दर्शकों को नहीं बांधती, इनकी पटकथा लेखन और डायरेक्शन भी कुछ नयापन होता है। 
    अब तक कई थ्रिलर फिल्में आई, लेकिन सभी दर्शकों को बांध नहीं पाई। याद वहीं रहती, जिन्होंने अपनी पटकथा और डायरेक्शन का जादू दिखाया। पुरानी फिल्मों में तीसरी मंजिल, ज्वेल थीफ, इत्तेफ़ाक़, गुमनाम और आज के दौर की ए वेडनस डे, बदला, हमराज़, 100 डेज के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म 'अंधाधुंन' और अजय देवगन की 'दृश्यम' ऐसी ही ऐसी फ़िल्में हैं, जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को कुर्सी पर ठीक से बैठने नहीं दिया। 'अंधाधुन' ने तो एक नया ट्रेंड बना दिया। इसमें एक अंधे आदमी का किरदार काफी रहस्यमय था। फिल्म की कहानी इसी के आस-पास घूमती है। इस पूरी फिल्म में अच्छा-खासा सस्पेंस बनाकर रखा गया। ओटीटी के आने के बाद से सस्पेंस और थ्रिलर फिल्मों का क्रेज कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। 
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हिंदुस्तानी-2 : भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए कमल हासन की नई जंग

- हेमंत पाल

० डायलॉग-1 : 'ये स्वतंत्रता का नया जन्म है। यहां गांधी के रास्ते पर तुम हो, नेता जी के रास्ते पर मैं हूं। टॉम एंड जेरी का खेल अब शुरू हो चुका है।'
० डायलॉग-2 : ‘कैसा देश है ये, पढ़े-लिखों के पास काम नहीं, काम है तो उस लायक पगार नहीं, टैक्स भरो लेकिन कोई फैसिलिटी नहीं। चोर चोरी करता है करेगा, अपराधी अपराध ही करेगा। 
० डायलॉग-3 : हम जब देखो दुनिया को दोष देते रहते हैं, सिस्टम ठीक नहीं है, इसे ठीक करना होगा, मुंह फाड़कर चिल्लाते हैं। लेकिन, इसे ठीक करने के लिए हम एक तिनका भी नहीं हिलाते।
       ये कलम हासन की नई फिल्म ;हिंदुस्तानी-2' के डायलॉग है, जो इशारा करते हैं कि 28 साल बाद आई इस सीक्वल फिल्म की थीम क्या है। यह फिल्म 'इंडियन' का सीक्वल है। कमल हासन ने 'इंडियन' में सेनापति का किरदार निभाया था। फिल्म में वे देश में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़े थे। अब 'हिंदुस्तानी-2' उसी कहानी का अगला हिस्सा है। फर्क इतना कि उस फिल्म का शीर्षक हिंदी में 'इंडियन' था, इसका अंग्रेजी में 'हिंदुस्तानी 2' है। ट्रेलर से फिल्म में कमल हासन के वही तेवर दिखाई दिखाई दे रहे हैं। इस फिल्म  को लेकर कमल हासन का कहना है 'क्या मैं नफरत करूं या शुक्रिया अदा करूं? आखिर हमने क्या किया है? यह हम ही हैं, राजनेता कोई और नहीं, बल्कि हम में से ही एक है। हम सभी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार हैं। हम सभी को अपने विचार बदलना चाहिए और अपना विचार बदलने का सबसे अच्छा समय चुनाव के दौरान है। ये सिर्फ याद दिलाते हैं कि हम कितने भ्रष्ट हो गए हैं। भ्रष्टाचार की वजह से कुछ नहीं बदला, हम सब एक साथ आएंगे और अपना विवेक लगाएंगे तो उसकी बदौलत सब कुछ बदल जाएगा।' फिल्म के पहले भाग यानी 'इंडियन' की कहानी में का कथानक था कि एक आदमी ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ता है। उसे गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया जाता है। देश की आजादी के बाद वह भ्रष्टाचार से लड़ने का प्रयास करता है, पर वह इस बात से अनजान रहता है, कि उसका ही बेटा भ्रष्ट है।
     फिल्म के 2 मिनट 37 सेकंड के ट्रेलर में एक्शन और देशभक्ति की भरमार है। इसमें सिद्धार्थ और रकुल प्रीत सिंह भी नजर आएंगे। ट्रेलर देखकर मालूम होता है कि सिद्धार्थ और रकुल उन लोगों से परेशान हैं, जो सिस्टम को गंदा कर रहे हैं। दोनों उनसे लड़ लड़कर थक गए। लेकिन, सिद्धार्थ समझ जाते हैं, कि उनके अकेले से यह ठीक नहीं होगा। इसके खात्मे के लिए हंटिंग डॉग को आना चाहिए। इसके बाद ही ट्रेलर में सेनापति (कमल हासन) की धमाकेदार इंट्री होती है। जो स्वतंत्रता सेनानी वीर सेकरन सेनापति की भूमिका में हैं। जिसकी इंट्री जबरदस्त एक्शन के साथ होती है। इसमें कमल हासन सिस्टम की गंदगी को साफ करने के लिए कई अलग-अलग अवतार में दिखाई देंगे। वे कहते हैं 'ये स्वतंत्रता का नया जन्म है। यहां गांधी के रास्ते पर तुम हो, नेता जी के रास्ते पर मैं हूं। आगे कहते हैं 'टॉम एंड जेरी का खेल अब शुरू हो चुका है।' इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है 69 साल की उम्र के कमल हासन का जबरदस्त एक्शन। 12 जुलाई को ‘हिंदुस्तानी-2’  हिंदी, तमिल और तेलुगु में रिलीज होगी। 
      फिल्म में कमल हासन को अपने सिग्नेचर स्टाइल मार्शल आर्ट के साथ स्टंट करते दिखाया गया है। ट्रेलर से यह फिल्म भ्रष्टाचार से जंग पर केंद्रित कहानी नजर आ रही है। इसकी कहानी वीर सेकरन सेनापति नाम के स्वतंत्रता सेनानी के इर्द-गिर्द घूमती है, जो सिस्टम में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की हर संभव कोशिश करता है। इस आधार पर कमल हासन की फिल्म 'हिंदुस्तानी-2' को बेहतरीन थ्रिलर फिल्म बताया जा रहा है। '2.0' और 'अन्नियन' जैसी हिट फिल्मों के लिए पहचाने जाने वाले एस शंकर निर्देशित फिल्म 'हिंदुस्तानी-2' में कमल हासन का किरदार कुछ अलग है। 
      फिल्म में बेरोजगारी और लचर कानून व्यवस्था को राजनीतिक कारण बताया गया है। सामान्यतः व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना फिल्मकारों के लिए आसान नहीं है। लेकिन, यह पूरी फिल्म इसी कथानक पर गढ़ी गई। इस बारे में कमल हासन का कहना है कि यह समस्या अंग्रेजों के समय से है। लोग तब भी फिल्में बनाते थे, हम भी ऐसी फिल्में बनाते रहेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता के शीर्ष पर कौन है। सरकार से सवाल पूछना नागरिकों का अधिकार है। सिर्फ फिल्म निर्माता का ही नहीं, सवाल पूछना तो नागरिकों के अधिकार में भी शामिल है। कलाकारों को राजनीतिक फिल्में बनाते समय मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, यह बात सही है। हम कलाकार के रूप में आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात को भी मानते हैं कि हम उनके प्रतिनिधि हैं। इसलिए हम नतीजों के बारे में सोचे बिना, हिम्मत के साथ मुद्दों के बारे में बात करते हैं। इसमें मुश्किल भी होती है। सरकार नाराज भी हो सकती है लेकिन जनता का स्नेह उस आग को बुझा देगा।
   'इंडियन 2' की टैगलाइन 'जीरो टॉलरेंस' है। इस पर कमल हासन ने कहा कि मैं गांधी जी का फैन हूं। उन्होंने टॉलरेंस सिखाया है। मैं कहता हूं कि मैं उस सहिष्णुता के बिजनेस का फैन नहीं हूं। गांधी मेरे हीरो हैं। लेकिन, आप किसे बर्दाश्त करते हैं, किसी दोस्त को तो नहीं, मैं चाहता हूं कि इस दुनिया में दोस्ती खूब बढ़े। आप जो बर्दाश्त करते हो, वो सिरदर्द है। जो कुछ समाज के लिए सिरदर्द है, उसके लिए आपको जीरो टॉलरेंस रखना चाहिए। कोई दवा खोजिए जो इस सिरदर्द को खत्म करे।
      इस फिल्म की एक खासियत है कमल हासन का मेकअप। शूटिंग के दौरान कमल हासन को सामान्य ढंग से पानी तक पीने को नहीं मिलता था। उन्हें मेकअप को पूरा करने में 3 घंटे लगते थे और वे पूरा दिन उसी मेकअप में बैठते थे। कमल हासन भी अपने मेकअप बनाए रखने के लिए अपनी तरफ से कोई गलती नहीं करते थे। वे स्ट्रॉ से पानी पीते और शूटिंग के दौरान सिर्फ लिक्विड डाइट लेते रहे। कमल हासन को मेकअप हटाने में भी ढाई घंटे का समय लगता था। एस शंकर निर्देशित यह फिल्म कमल हासन को 28 साल बाद फिर एक्शन अवतार में दिखाएगी। इसमें वे स्वतंत्रता सेनानी से लेकर समाज को लेकर सतर्क करने वाले शख्स तक की भूमिका में हैं। फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि 'हिंदुस्तानी-2' के सतर्क नायक ने सेनापति के रूप में कमाल की वापसी की है। कमल हासन ने दिखा दिया कि एक्टिंग में उनका कोई जोड़ नहीं। फिल्म में शंकर और रॉकस्टार अनिरुद्ध रविचंदर का संयोजन भी देखने को मिलेगा। फिल्म के साउंडट्रैक को भी सराहना मिल चुकी है।  'हिंदुस्तानी-2' की कहानी फिल्म के क्लाइमेक्स के साथ ख़त्म नहीं होगी, अभी यह कहा नहीं जा सकता। संभवतः इसका तीसरा भाग भी आए। इस कहानी को दो हिस्सों तक बढ़ाने का कारण यही था कि निर्देशक एस शंकर को एडिटिंग के दौरान फिल्म का हर सीन अच्छा लगा। वे इन्हें काटने के मूड में नहीं थे। इसका एक ही हल था कि फिल्म के कथानक को दूसरे भाग तक बढ़ाया जाए। यही वजह थी कि 'हिंदुस्तानी-2' बनाई गई।
     दोनों फिल्मों में फर्क यह है कि 'इंडियन' की कहानी एक राज्य के आस-पास घूमती थी। जबकि, 'हिंदुस्तानी-2' की कहानी देशभर की है। ऐसे में 'हिंदुस्तानी-2' में एक लंबी कहानी देखने को मिलेगी। इसलिए कि फिल्म की मूल कहानी बेहद विस्तृत और जटिल है। जब इस कहानी को आगे बढ़ाया तो उन्हें एहसास हुआ कि इसे एक ही फिल्म में समेटना बहुत मुश्किल है। इसलिए उन्होंने इसे दो भागों में बनाने का फैसला किया, ताकि कहानी के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को सही ढंग से दिखाया किया जा सके। पहला पार्ट एक राज्य के इर्द-गिर्द घूमता है। पहली फिल्म अपने आप में तीन घंटे, 20 मिनट की फिल्म है। अब कहानी पूरे देश में सभी राज्यों में फैल गई है। इसलिए कहानी बड़ी हो गई। हमारा शुरुआत में सिर्फ एक पार्ट बनाने का इरादा था। फिल्म मेकिंग शुरू करने के बाद और जब मैं एडिटिंग रूम में बैठा, तो मेरे हिसाब से सभी सीन बहुत अच्छे निकले। 
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परदे पर भक्ति से भरे गीतों का माहौल थम गया!

- हेमंत पाल

     लोगों की देवी-देवताओं पर अगाध श्रद्धा होती हैं। उन्हें विश्वास होता है कि भगवान हर उस व्यक्ति की सुनते हैं, जो उन्हें दिल से याद करता है। मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के अलावा भक्ति का सबसे आसान उपाय है भगवान की भक्ति में गीत या भजन गाना। फिल्मों में भी हमेशा यही दिखाया जाता है कि किस तरह एक भजन सारे हालात बदल देता है। ख़ास बात यह भी कि धार्मिक फिल्मों में ही भक्ति हों, ये जरुरी नहीं! मल्टीस्टार फिल्मों में भी ऐसे कई भक्ति गीत फिल्माए गए, जो लोकप्रिय हुए और आज भी इन्हें सुना जाता है। 1979 में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की फिल्म 'सुहाग' आई थी जिसमें मां दुर्गा की भक्ति पर गया गया भजन 'नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम रे, ओ शेरोवाली' काफी लोकप्रिय है। आज भी नवरात्रि के दिनों में यह आज सुनाई देता है। अमिताभ और रेखा पर मंदिर में फिल्माए इस भजन पर दोनों ने गरबा भी किया था। आशा भोंसले और मोहम्मद रफी की आवाज का यह गीत यादगार बन गया। जब भी कोई व्यक्ति या फिल्मों के नायक (या नायिका) परेशानी में होते हैं, उन्हें सबसे पहले भगवान ही याद आता है। ऐसे में या तो वो मंदिर जाता है, वहां भगवान से मुसीबत से मुक्ति की गुहार लगाता है। यदि कथानक के मुताबिक यह स्थिति फिल्मों में आती है, तो जो व्यक्ति मुश्किल में होता है, वो धार्मिक गीत या भजन गाता है। ऐसी कई फ़िल्में आई जिनमें भक्ति गीत या भजन गाते ही भगवान ने उसकी बात सुन ली! लेकिन, वास्तविक जीवन में यह सब होता भी है, तो उसमें समय लगता है। 
      फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने यही होता आ रहा है और आज भी इसमें कुछ नहीं बदला। कुछ फिल्मों के भक्ति गीत और भजन आज भी इतने लोकप्रिय हैं कि तीज-त्यौहार पर ये बजते सुनाई देते हैं। लेकिन, ये गीत परेशान लोगों को भी मानसिक शांति देते हैं। फिल्मों ने ऐसे कई भजन और भक्ति गीत दिए हैं, जिन्हें सुनकर और गाकर कुछ पलों के लिए हम अपने दुःख भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में मन में विश्वास की एक ज्योति जल उठती है। भक्ति को शक्ति देने वाले कई भक्ति गीत और भजन है। लेकिन, मंदिरों में भक्ति गीत सुनाने वाली इन फिल्मों में मंदिर का एक दृश्य ऐसा भी था, जो आज भी दर्शक भूले नहीं होंगे! फिल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन का मां की बीमारी पर बोला गया संवाद भक्ति से इतर था। सफल धार्मिक फिल्मों के लोकप्रिय गीतों की बात की जाए तो 1975 में आई फिल्म 'जय संतोषी माँ' कम बजट की फिल्म थी। पर, कमाई के मामले ये आज तक की शीर्ष ब्लॉकबस्टर फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म के सभी गीत खूब चले। उषा मंगेशकर, महेंद्र कपूर और मन्ना डे ने कवि प्रदीप के लिखे भक्ति गीत गाए थे। करती हूँ तुम्हारा व्रत मैं स्वीकार करो माँ, यहां वहां मत पूछो कहां कहां, मैं तो आरती उतारू रे, मदद करो संतोषी माता, जय संतोषी माँ, मत रो मत रो आज राधिके और यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां कहां ऐसे भक्ति गीत हैं जिन्हें देवी आराधना वाले मंदिरों में अकसर सुना जाता है। फिल्म इतिहास में ऐसे कई गायक हैं जिन्होंने कालजयी धार्मिक गाने, भजन और आरतियां गाई। नई और पुरानी फिल्मों में भगवान की भक्ति को लेकर कई अच्छे गीत और भजन लिखे गए। 
      ये गीत इसलिए लोकप्रिय हुए, क्योंकि इन्हें गायकों ने पूरी तन्मयता के साथ गाकर दर्शकों को भाव विभोर किया। इनमें सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली अनुराधा पौडवाल, नरेंद्र चंचल और अनूप जलोटा को जो धार्मिक गीतों के गायक हैं। फिल्मों में धार्मिक गीत और भजन गाने वालों की भी अपनी अलग पहचान होती है। ऐसे गीत और भजन गाने वाले गायक भी लंबे समय तक तय रहे। चंचल, अनूप जलोटा का इसमें काफी योगदान रहा। ऐसी फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों का भी सकारात्मक पक्ष यह रहा कि दर्शकों में इनके प्रति भक्ति भाव कुछ ज्यादा ही होता है। 'जय संतोषी मां' में माता संतोषी का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा को लोग पूजने लगे थे। 'रामायण' सीरियल में राम और सीता बने अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को आज भी लोग भक्ति भाव से देखते हैं। इसी का प्रताप था कि 'रामायण' के प्रसारण के इतने साल बाद अरुण गोविल लोकसभा की मेरठ सीट से चुनाव जीत गए। हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा भगवान के रोल करने वाले कलाकार महिपाल को तो लोग भगवान ही मानने लगे थे। उन्होंने 35 से ज्यादा फिल्मों में भगवान या ऐसे किरदार निभाए। वे तुलसीदास भी बने और अभिमन्यु भी। महिपाल ने अपने जीवन काल में संपूर्ण रामायण, वीर भीमसेन, वीर हनुमान, हनुमान पाताल विजय, जय संतोषी माँ जैसी सफल धार्मिक फिल्मों में काम किया। उन्होंने अपने करियर में भगवान राम, कृष्ण, गणेश और विष्णु का किरदार इतने बार निभाया कि असल जिंदगी में भी लोग इन्हें पूजने लगे थे। वे जहां जाते लोग इनके पैर छूते और आशीर्वाद की कामना करते थे।
     याद किया जाए तो ऐसे कालजयी भक्ति गीतों में 1965 में आई फिल्म 'खानदान' के गीत 'बड़ी देर भई नंदलाला तेरी राह तके बृजबाला' को रखा जा सकता है। इस भजन को सुनील दत्त पर फिल्माया गया था। राजेंद्र कृष्ण के लिखे इस भजन को मोहम्मद रफी ने गाया था। जन्माष्टमी के अवसर पर अभी भी ये गीत गूंजता है। यह गीत फिल्म की कहानी को देखते हुए भी सटीक था। उससे पहले 1952 में आई फिल्म 'बैजू बावरा' का गीत मोहम्मद रफी की हिंदू भजनों के प्रति लगाव का सबसे बेहतर प्रमाण कहा जा सकता है। 'ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले' के बोल आज भी किसी दुखी व्यक्ति का चेहरा सामने ले आते हैं। शकील बदायूंनी के लिखे इस गीत में नौशाद ने संगीत दिया था। ख़ास बात ये कि इस भक्ति गीत के गायक, गीतकार और संगीतकार तीनों ही मुस्लिम थे। 1954 में आई फिल्म 'तुलसीदास' के गीत 'मुझे अपनी शरण में ले लो राम' को भी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है और बीते जमाने के विख्यात संगीतकार चित्रगुप्त ने इसे संगीत से सजाया था। गीत में राम को आराध्य मानकर अपना सब कुछ अर्पण करने की बात कही गई है। 1958 की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' का गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम' बुराई पर अच्छाई की जीत का सबसे बेहतरीन प्रमाण कहा जा सकता है। इस गीत में नुकसान पहुंचाने वाले डाकुओं को इंसानियत के नाम पर मदद पहुंचाई जाती है। भरत व्यास ने इस गीत को लिखा और वसंत देसाई ने इसे संगीत दिया था। लता मंगेशकर ने अपनी मधुर आवाज ने मानो इस गीत को अमर कर दिया।
       1965 की फिल्म 'सीमा' में बलराज साहनी पर फिल्माया भजन 'तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम' में आतुर मन की व्यथा सुनाई देती है। शैलेंद्र के लिए इस गीत को मन्ना डे ने अपनी आवाज दी और संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। दिलीप कुमार की 1970 में आई फिल्म 'गोपी' का महेंद्र कपूर की आवाज में गाया गीत 'रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा' ऐसा भजन है जिसमें भविष्य का संकेत था। आशय यह कि सच्चा आदमी भटकेगा और झूठे के पास सबकुछ होगा। राजेंद्र कृष्‍ण के गीत को कल्याणजी-आनंदजी ने संगीत दिया था। भक्ति गीतों में सांई बाबा पर रचे गए गीत भी बड़ी संख्या में हैं। 1977 की फिल्म 'अमर अकबर एंथोनी' का गीत 'तारीफ तेरी निकली है दिल से, आई है लब पे बनके कव्वाली' साईं के भक्तों के लिए एक तरह से संजीवनी है। मोहम्मद रफी की आवाज का इस गीत में रफी की लंबी तान सुनने वाले को झंकृत कर देती है।
      'सरगम' (1979) संगीत पर केंद्रित फिल्म थी। पर, इसका एक गीत 'रामजी की निकली सवारी, रामजी की लीला है न्यारी' में भगवान राम की महिमा का बखूबी वर्णन है। दशहरे में जब रामजी की सवारी निकलती है, तो इस गीत के बिना माहौल नहीं बनता। इस गीत को सुनकर मनोभावों में राम का नाम समा जाता है। आनंद बक्षी के लिखे इस गीत को मोहम्मद रफी ने गाया था और इसका संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया था। 'अंकुश' (1986) एक अलग तरह की फिल्म थी, लेकिन, इसका एक भक्ति गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना' टूटे मन को दिलासा देता हुआ सा लगता है। गीतकार अभिलाष ने इसे लिखा और पुष्पा पागधरे और सुषमा श्रेष्ठ ने इसे गाया है। कुलदीप सिंह ने इसमें संगीत दिया। 'भर दो झोली मेरी या मुहम्मद, लौटकर मैं ना जाऊंगा खाली' वास्तव में तो एक गैर फ़िल्मी गीत था, पर इसे 2015 में आई फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में शामिल किया गया था। फिल्म का हीरो सलमान खान एक भटकी हुई बच्ची को उसके देश पाकिस्तान छोड़ने जाता है। इस दौरान उसे होने वाली परेशानियों को दूर करने के लिए इस अदनान सामी के गाए इस गीत को प्रार्थना के रूप में फ़िल्माया गया। कौसर मुनीर के लिखे इस गीत की धुन संगीतकार प्रीतम ने बनाई थी। लेकिन, लगता है फ़िल्मी कथानक में किरदारों को अब भगवान की कृपा की जरुरत नहीं है। शायद इसीलिए अब भगवान को फिल्मों से किनारे किया जा रहा है। लंबे समय से ऐसी कोई फिल्म नहीं आई, जिसमें धार्मिक गीत, भजन या आरती सुनाई दी हो। 
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फीनिक्स की राख से जन्मा टाईगर

    मध्य प्रदेश में 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान की राजनीति को समझना आसान नहीं है। 9 जून को सरकार में उन्होंने केंद्र में मंत्री पद की शपथ ली और 17 जून को झारखंड चुनाव का प्रभारी बना दिया। इससे दो संकेत भी मिलता हैं। पहला यह कि शिवराज सिंह की राजनीतिक सक्रियता अब मध्यप्रदेश में कम दिखाई देगी। दूसरा संकेत यह कि जो लोग मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उन्हें हल्के में ले रहे थे, वे भी संभल जाएं। क्योंकि, वे कब, कौन सा जादू दिखा दें, कहा नहीं जा सकता! 

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● हेमंत पाल

     लोकसभा चुनाव के समय मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक बयान मीडिया में खूब चला था कि मैं मर भी गया, तो फीनिक्स पक्षी की तरह राख से जिंदा हो जाऊंगा। तब उनके इस बयान को गंभीरता से नहीं लिया और इस बात को मजाक समझा गया। क्योंकि, बयानबाजी के मामले में शिवराज सिंह की अपनी अलग ही अदा है। जब वे मुख्यमंत्री थे, तब अफसरों को चमकाने के लिए कहा था 'टाइगर अभी जिंदा है।' इसके अलावा भी शिवराज सिंह इस तरह के बयानों के जरिए अपने मन की बात बताते रहे और इशारे से अपने विरोधियों को भी चेताते रहे हैं। लेकिन, उनके बयान कभी खोखले और बेमतलब नहीं होते। वे कभी इस बहाने अपने मन का दुख दर्शाते हैं, तो कभी अपने भविष्य का संकेत भी देते रहते हैं। 
    फीनिक्स पक्षी की तरह फिर जिंदा होने की बात, उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान कहकर अपने इरादों को बता दिया था। आज भी वे जिस स्थिति में है, उससे समझा जा सकता है कि उन्होंने गलत नहीं कहा था। वे फीनिक्स की तरह राख से जिंदा भी हो गए और केंद्र की राजनीति में पांचवे नंबर पर पहुंच गए। मोदी के मंत्रिमंडल में उन्हें कृषि और ग्रामीण विकास जैसे बड़े विभाग मिले। इसके बाद उन्हें झारखंड के विधानसभा चुनाव का प्रभार दे दिया गया। यदि उन्होंने वहां भाजपा का झंडा गाड़ दिया तो उनके लिए राजनीति के नए दरवाजे खुलना तय है।
     नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में उन्हें दो भारी-भरकम विभाग देकर ये संदेश भी दिया गया कि शिवराज सिंह की ताकत को कम न समझा जाए। ये स्थिति इसलिए आई कि विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह हालात बदले और मुख्यमंत्री की कुर्सी अप्रत्याशित रूप से मोहन यादव को मिली, ये संदेश भी गया कि मध्यप्रदेश में अब शिवराज सिंह का जादू खत्म हो गया। जबकि, वास्तव में भाजपा को 163 सीट आना उनके 'मामा' होने का ही चमत्कार रहा। इसके बाद करीब एक महीने शिवराज सिंह कुछ दबे से रहे और उसी के साथ मोहन यादव की मुखरता बढ़ती गई। उनके कई पुराने फैसलों को बदला गया और उनके खास लोगों को पदों से बाहर कर दिया। लोकसभा चुनाव में जब उन्हें विदिशा से उतारा गया, तो साफ हो गया कि पार्टी उन्हें मध्यप्रदेश से बाहर भेजकर मोहन यादव को निष्कंटक करना चाहती है। यह संदेश छुपा भी नहीं रहा। 
    इसके बाद बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिससे लगा कि शिवराज सिंह भले लोगों के दिलों में हों, पर पार्टी की पहली सूची में वे नहीं हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कई मंचों पर होते हुए भी उन्हें माइक नहीं थमाया गया। लेकिन, नतीजों ने सारी कहानी बदल दी। विदिशा से शिवराज सिंह की रिकॉर्ड तोड़ 8 लाख से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की और मंत्रिमंडल की शपथ के दौरान पांचवे नंबर पर उनका शपथ लेना एक अलग ही संकेत था। साथ ही उन लोगों को सबक भी, जो ये मान रहे थे, कि 'मामा' अब उनके रास्ते में कहीं नहीं हैं। जबकि, देखा जाए तो लोकसभा चुनाव में भाजपा का क्लीन स्वीप (सभी 29 सीटों पर जीत) भी उनकी 'लाड़ली बहना योजना' का ही असर था। पर, शिवराज सिंह ने इस बात का कभी दावा नहीं किया। 
     इस सबके बाद केंद्रीय मंत्री बनने के बाद जब शिवराज सिंह बीते सप्ताह भोपाल आए, तो उनका जिस तरह स्वागत हुआ, उसने अपना अलग ही असर दिखाया। इसे सिर्फ जनता और समर्थकों का हुजूम नहीं कहा जा सकता। ये सीधे-सीधे इस नेता का शक्ति प्रदर्शन था, जिसे उन्होंने भी समझा जिन्हें यह दर्शाया गया। यहां तक कि उन्हें उस ट्रेन में भी यात्रियों ने भरपूर स्नेह दिया जिससे वे दिल्ली से भोपाल आए थे। रास्ते भर यात्री उनके साथ सेल्फी लेते रहे। भोपाल की सड़कों पर तो उनका पांच घंटे ऐसा स्वागत हुआ, जो आने वाले कई सालों के लिए मिसाल बन गया। उनका ये स्वागत और रोड शो स्वमेव था या प्रयोजित जो भी था, अभूतपूर्व था। इस संयोग ही समझा जाना चाहिए कि भोपाल आने के अगले दिन उन्हें झारखंड विधानसभा चुनाव का प्रभारी बना दिया।
     केंद्र सरकार के बाद अब संगठन के जरिए चुनाव में बड़ी जिम्मेदारी मिलने के बाद कयास लगने लगे हैं कि क्या शिवराज सिंह चौहान को स्थायी रूप से मध्यप्रदेश की राजनीति से अलग कर दिया गया! तो इसका जवाब भी शिवराज सिंह ही देंगे। इस साल के अंत में झारखंड में विधानसभा चुनाव होना है। यदि उन्होंने कोई चमत्कार कर दिया तो फिर वे अपना राजनीतिक भविष्य खुद तय करेंगे। मध्यप्रदेश में जिस तरह उन्होंने 18 साल भाजपा की सरकार चलाई, वैसा ही कुछ जादू उन्होंने झारखंड में किया, तो वे भाजपा की केंद्रीय राजनीति में पार्टी की आंख तारा बन सकते हैं।   
      विदिशा चुनाव के दौरान एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का इशारा भी किया था कि हम शिवराज सिंह को दिल्ली ले जा रहे हैं। बात सच निकली और जीत के बाद उन्हें केंद्रीय कैबिनेट में जगह दी गई। जबकि, शिवराज सिंह विधानसभा चुनाव की शुरुआत से ही हाशिए पर दिखाई देने लगे थे। संगठन में भी उनकी पूछ कम होती दिखाई दी। तब वे मुख्यमंत्री जरूर थे, पर कई बार लगा कि उनकी बातों को अनसुना किया जा रहा था। पर, इसका कोई नतीजा नहीं निकला। उनकी 'लाडली बहना' ने ही मतदाताओं को प्रभावित किया और पार्टी ने उस कांग्रेस को नेस्तनाबूद कर दिया, जो अति आत्मविश्वास में सत्ता में आने का सपना देखने लगी थी। उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि भाजपा में भी अपने विरोधियों को ध्वस्त किया। इससे लगता है कि उन्होंने गलत नहीं कहा था कि मैं मर भी गया तो फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी राख से फिर जिंदा हो जाऊंगा।   
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अधूरी फिल्मों की दास्तान बहुत लंबी

- हेमंत पाल

      संजय लीला भंसाली अपनी नई वेब सीरीज 'हीरा मंडी' को लेकर चर्चा में हैं। क्योंकि, ये उनका 14 साल पुराना अधूरा ख्वाब था, जो पूरा हुआ। अब वे अपनी एक और रुकी हुई फिल्म 'इंशाअल्लाह' को लेकर ख़बरों में हैं। ये फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' के बाद वे सलमान खान को लेकर बनाने वाले थे। पर, फिल्म नहीं बन सकी। अब फिर 'इंशाअल्लाह' बनने की ख़बरें सुनाई देने लगी। सिर्फ यही फिल्म नहीं जो घोषणा के बाद बरसों से नहीं बनी। ऐसी सैकड़ों फ़िल्में हैं, जिनकी घोषणा तो शोर-शराबे के साथ होती है, पर वे कभी पूरी नहीं हो पाती। इसके पीछे कई कारण है। वैसे तो फिल्म इंडस्ट्री हमेशा ही दर्शकों की पसंद के मनोरंजन का ख़्याल रखती आई है। निर्माता-निर्देशक हमेशा कोशिश करते हैं कि वे ऐसी फ़िल्में बनाएं जिन्हें लोग याद रखें और जो उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बनें! हर फिल्म के पीछे राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, टेक्नीशियन, एक्टर्स जैसे तमाम लोगों की मेहनत और काबिलियत लगती है! लेकिन, इन तमाम चीज़ों के बाद भी कभी कुछ फ़िल्में आधी, तो कुछ पूरी बनकर भी परदे पर जगह नहीं बना पाती!
    जितनी फ़िल्में हर साल परदे पर दिखाई देती हैं, उससे करीब दोगुनी फ़िल्में परदे तक पहुंच ही नहीं पाती! कुछ फ़िल्में सिर्फ घोषणा और मुहूर्त तक सीमित हो जाती हैं तो कुछ फ़िल्में पूरी बन भी नहीं पाती। कुछ फ़िल्में बनकर तैयार हो गई, पर उनकी रिलीज में अड़ंगा आ गया। सवाल उठता है कि जब फिल्म की प्लानिंग के बाद उसकी घोषणा की जाती है, तब सारे हालात का अंदाजा क्यों नहीं लगाया जाता! दरअसल, ये सब किया भी जाता है, पर कई बार ऐसी अनपेक्षित स्थितियां निर्मित हो जाती है जिसका सीधा असर फिल्म निर्माण पर पड़ता है। मज़बूरी में निर्माता-निर्देशक को पीछे हटना पड़ता है! जरूरी नहीं कि जो हालात उभरे वो सार्वजनिक किए जाएं! क्योंकि, कुछ हालात सभी को बताने के लिए नहीं, बल्कि समझने के लिए होते हैं। सभी डायरेक्टर, प्रोड्यूसर जब कोई फिल्म बनाते हैं, तो उनकी कोशिश होती है कि उनकी फिल्म जल्द से जल्द सिनेमा के परदे तक पहुंचे, इसलिए कि फिल्म के साथ उनकी बहुत सारी उम्मीदें जुड़ी होती है। अब जरा उन फिल्मों के बारे में सोचिए जिन्हें इतनी मेहनत से बनाया जाता है, पर वे फिल्म कई कारणों से सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाती। बहुत सी ऐसी फिल्में हैं, जो बनी, पर लेकिन कभी दर्शकों तक पहुंच नहीं पाई।
      फिल्मों के हमेशा के लिए डिब्बा बंद के ढेर सारे कारणों के साथ एक यह भी है कि जब किसी कलाकार की फ़िल्में लगातार फ्लॉप होने लगती है, तो फिल्मकार उस पर दांव लगाने से बचते हैं! ऐसी स्थिति में पहले से घोषित फिल्मों को किसी न किसी बहाने टाल दिया जाता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण तब सामने आया, जब आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' फ्लॉप हुई तो टी-सीरीज के फाउंडर गुलशन कुमार की बायोपिक फिल्म 'मुग़ल' टल गई! यही स्थिति अक्षय कुमार के साथ 'सम्राट पृथ्वीराज' और 'रक्षाबंधन' के फ्लॉप होने के बाद दिखाई दी। 'गोरखा' और 'कठपुतली' समेत कई फिल्मों को रोक दिया गया। ये हाल की घटनाएं जरूर है, पर इसका एक लम्बा इतिहास है। जब अमिताभ बच्चन का ख़राब समय था, तब उनकी कई फिल्मों को किसी न किसी कारण से रोक दिया या आगे बढ़ा दिया था। इनमें कुछ बनी, तो कुछ हमेशा के लिए भुला दी गई। अमिताभ को लेकर सुभाष घई 'देवा' बना रहे थे। फिल्म की एक हफ्ते की शूटिंग भी हो गई थी। लेकिन, सुभाष घई और अमिताभ बच्चन के बीच किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई और फिल्म बंद हो गई। अमिताभ के साथ रेखा की पहली फिल्म 'अपने-पराए' भी शुरू हुई थी, पर पूरी नहीं हो पाई। फिल्म बनाने वालों ने पैसों की कमी का हवाला देते हुए बंद कर दिया। अमिताभ को लेकर शूजित सरकार 'शूबाइट' बनाई। लेकिन यू-टीवी और डिज़्नी में विवाद की वजह से ये फिल्म रिलीज नहीं हो सकी।
      इन सारे स्वाभाविक और अस्वाभाविक कारणों के अलावा एक और बड़ा कारण होता है कलाकारों, निर्देशक या फिल्म की कहानी का कोई विवाद! देखा गया कि सबसे ज्यादा इसे लेकर ही फ़िल्में बनने से रुकी या रुकवा दी गई! संजय लीला भंसाली की फिल्म 'इंशा अल्लाह' का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। यह फिल्म शुरू होने से पहले ही बंद हो गई। इस फिल्म में संजय लीला का मूड सलमान खान और आलिया भट्ट को कास्ट करने का था। लेकिन, सलमान के साथ क्रिएटिव डिफरेंस के कारण फिल्म की शूटिंग भी शुरू नहीं हो सकी। बाद में संजय लीला ने रितिक रोशन को कास्ट करना चाहा, पर उन्होंने भी इंकार कर दिया। आलिया को पहले ही वे पहले ही कास्ट कर चुके थे, इसलिए आलिया को लेकर 'गंगूबाई काठियावाड़ी' बनाई गई।
    1992 में बनना शुरू हुई शेखर कपूर की फिल्म 'टाइम मशीन' में आमिर खान, रवीना टंडन, रेखा और नसीरुद्दीन शाह को लिया गया था। फिल्म लगभग पूरी बन गई थी। लेकिन, अचानक शेखर कपूर के सामने पैसों का संकट आ गया और फिल्म का बनना थम गया। 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' और 'लगे रहो मुन्नाभाई' जैसी सफल फिल्मों के बाद विधु विनोद चोपड़ा ने मुन्ना भाई सीरीज की तीसरी फिल्म 'मुन्ना भाई चले अमेरिका' बनाने की घोषणा की थी। फिल्म की थोड़ी शूटिंग भी हुई, पर संजय दत्त के जेल जाने के बाद फिल्म कहां चली गई पता ही नहीं चला! करण जौहर की दो फिल्म 'तख्त' और 'शुद्धि' भी अनिश्चितकाल के लिए बंद हुई है। 'तख्त' पीरियड फिल्म थी, जिसमें रणवीर सिंह, करीना कपूर, विक्की कौशल, आलिया भट्ट, जाह्नवी कपूर, भूमि पेडनेकर और अनिल कपूर को कास्ट किया गया था। इसकी शूटिंग 2020 में शुरू की गई, पर कोविड के कारण इसे टाल दिया गया।
      'शुद्धि' को करण जौहर करीना कपूर और रितिक रोशन को लेकर बनना चाहते थे, पर कुछ वजहों से उन्होंने इस फिल्म को वरुण धवन और आलिया भट्ट के साथ बनाने का फैसला किया, पर ये फिल्म भी नहीं बनी। करण जौहर की ही 'दोस्ताना 2' का भी यही हश्र हुआ। फिल्म में कार्तिक आर्यन को लिया गया। लेकिन, किन्हीं कारणों से करण जौहर ने कार्तिक को फिल्म से बाहर कर दिया। इसके बाद सोशल मीडिया पर उनकी जबरदस्त खिंचाई हुई। इस वजह से करण ने चुपचाप फिल्म को बंद ही कर दिया। एक पुराना उदाहरण दिलीप कुमार का भी है। 1991 में दिलीप कुमार को लेकर सुधाकर बोकाडे ने 'कलिंगा' की घोषणा की थी! इसका निर्देशन भी दिलीप कुमार ही करने वाली थे। फिल्म में दिलीप कुमार के साथ सनी देओल, मीनाक्षी शेषाद्री, राज किरण, शिल्पा शिरोडकर भी कलाकार थे। फिल्म तीन साल में 90% तो बन गई, पर उसके बाद डिब्बा बंद हो गई!
    विद्या बालन के साथ अक्षय कुमार को लेकर 'चांद भाई' बनाए जाने की घोषणा की गई थी। ये फिल्म ऐसे बेसहारा गरीब लड़के की कहानी थी, जो गैंगस्टर बनना चाहता है। बिना गाने की ये फिल्म रॉबिनहुड जैसे किरदार को ध्यान में रखकर लिखी गई थी। इसका निर्देशन निखिल आडवाणी करने वाले थे। लेकिन, अचानक कुछ ऐसा हुआ कि निखिल आडवाणी ने फिल्म न बनाने का ऐलान कर दिया। आजतक इसका कारण सामने नहीं आया। क्योंकि, अक्षय और विद्या ने इस मुद्दे पर खामोशी ही बरती। अक्षय और विद्या की ही फिल्म 'राहगीर' भी मुहूर्त के बाद नहीं बन सकी। इसे प्रीतिश नंदी बनाने वाले थे और निर्देशन था रितुपर्णो घोष का। इसे देवानंद की 1965 की सुपरहिट फिल्म 'गाइड' का रीमेक कहा जा रहा था। जब देवानंद को यह बात पता चली, तो वे नाराज हो गए। वे किसी भी क्लासिक फिल्म का रीमेक बनाने के पक्ष में नहीं थे। देव आनंद की आपत्ति के बाद विवाद बढ़ता गया और फिल्म बंद हो गई।
    इसी तरह 1983 में बनी 'चोर मंडली' राज कपूर के आख़िर दिनों की फिल्म मानी जाती है। इसमें उन्होंने ख़ुद बतौर एक्टर काम किया था। फिल्म में अशोक कुमार भी थे। फिल्म में इन दोनों ने ऐसे चोरों की भूमिका निभाई थी, जो डायमंड चुराने के पीछे पड़े रहते थे। यह फिल्म भी बनकर पूरी हो गई थी, पर कभी सिनेमाघर तक नहीं पहुंची! संजय दत्त और सलमान खान को लेकर मुकुल आनंद ने 1996 में 'दस' बनाने की घोषणा की। मुहूर्त के बाद फिल्म की शूटिंग भी शुरू कर दी गई थी, लेकिन अचानक मुकुल आनंद की मौत ने फिल्म को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते भेज दिया। यही स्थिति दिव्या भारती की मौत के कारण भी हुई। अक्षय कुमार के साथ पार्थो घोष दिव्या को लेकर 'परिणाम' बनाने वाले थे। इसमें डैनी और प्राण को भी साइन किया गया था। लेकिन, 1993 में दिव्या भारती की अचानक हुई मौत ने सब कुछ रोक दिया। 2009 में रिलीज हुई फिल्म 'ब्लू' में अक्षय कुमार के साथ संजय दत्त, जायद खान, लारा दत्ता थे। फिल्म की रिलीज से पहले इसके सीक्वल की तैयारी थी, जिसका नाम 'आसमान' तय किया गया था। लेकिन, 'ब्लू' कमाई नहीं कर पाई और मामला अटकता चला गया और फिल्म बंद हो गई।
  अक्षय कुमार की 'सामना' उसकी कहानी की उलझन के कारण नहीं बनी। इसे राजकुमार संतोषी बनाने वाले थे। ये धर्म और राजनीति के किसी विषय पर आधारित थी। इसमें अक्षय कुमार के साथ नाना पाटेकर, अजय देवगन, रितेश देशमुख, उर्मिला मातोंडकर और महिमा चौधरी को साइन किया गया था। इसी तरह राजा कृष्णा मेनन दिवंगत बॉक्सर डिंको सिंह की बायोपिक बनाने वाले थे। इसमें वे शाहिद कपूर को लीड में लेना चाहते थे। लेकिन, इस फिल्म को भी टाल दिया गया। अनुराग कश्यप 'गुलाब जामुन' अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय को लेकर बनाना चाहते थे। पर, फिल्म की शूटिंग तक शुरू नहीं हो सकी। 1997 में प्रोड्यूसर आशीष बलराम नागपाल ने 'जिगरबाज' को डायरेक्ट करने के लिए रॉबिन बनर्जी को चुना था। अक्षय कुमार के साथ जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, ममता कुलकर्णी, अमरीश पुरी और बिंदु थे। पर, पूरी बनकर भी फिल्म रिलीज नहीं पाई।
     अक्षय की ही 1997 में 'पूरब की लैला-पश्चिम का छैला' घोषित हुई थी। उनके साथ सुनील शेट्टी और नम्रता शिरोडकर थे। अचानक हीरोइन नम्रता ने साउथ के हीरो महेश बाबू से शादी कर ली और फिल्म अटक गई। 12 साल बाद अक्षय ने नए नाम 'हैलू इंडिया' के साथ फिल्म पूरी की, पर इसने सिनेमाघर का मुंह नहीं देखा।  इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'पानी' का काफी हल्ला था। शेखर कपूर के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म के लिए सुशांत सिंह ने काफी तैयारी की थी। लेकिन, शेखर कपूर का प्रोड्यूसर आदित्य चोपड़ा से किसी बात को लेकर विवाद हुआ और फिल्म बनने से पहले ही ठंडे बस्ते में चली गई। दरअसल, ये सिर्फ उन चंद फिल्मों के नाम और घटनाक्रम हैं, जो सामने आए! ऐसी फिल्मों की संख्या रिलीज हुई फिल्मों से बहुत ज्यादा है। ये सब आगे भी चलता रहेगा, क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री का नाम ही अनिश्चितताओं से जुड़ा है।
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