Wednesday, July 30, 2025

सौ बरस पुराने बॉलीवुड में ‘सैयारा’ ने बनाया मोहब्बत का माहौल!


- हेमंत पाल

     हाल ही में प्रदर्शित यशराज की नई फिल्म 'सैयारा' बॉक्स ऑफिस पर कमाई और लोकप्रियता के नए-नए कीर्तिमान रच रही है। इस फिल्म की कहानी में कुछ नयापन नहीं है। तो फिर चुपके से आकर पर्दे पर अवतरित इस फिल्म में ऐसा क्या है, जो इसने इतनी सफलता और लोकप्रियता प्रदान की! इसका सीधा सा जवाब यही है कि बुढियाते बॉलीवुड के जंगल में 'सैयारा' की नई जोड़ी अहान पांडे और अनीता पड्डा में दर्शकों को नव पल्लव और नवबहार के दर्शन हुए। इसी ताजगी ने 'सैयारा' को सफलता की सीढ़ी पर चढाया है। वैसे तो हिन्दी सिनेमा खुद ही लगभग सवा सौ साल की यात्रा पूरी कर चुका है। लेकिन, इन सवा सौ साल में दर्शकों को हमेशा से युवा सितारों की चाहत होती है, जो बड़े परदे के माध्यम से उनके दिलों को धड़काए रखे तथा हमेशा ताजगी का अहसास कराए। लेकिन, सिनेमा की बाल्यावस्था के दौरान हिंदी सिनेमा को ऐेसे सितारों ने धड़काया, जो खुद तो जवानी की दहलीज पार कर चुके थे। लेकिन उनके आकर्षण में दर्शक दर्शकों तक बंधे रहे। उस समय की बात इस मायने में अलग थी, कि तब सिनेमा को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था और सभ्य समाज के कम ही लोग इससे जुड़ पाए थे। जो जुड़े भी थे, वह अपनी जवानी को पार कर चुके थे। लेकिन, आज यह हालत नहीं है। युवकों में मूंछों की कोर निर्मित होते ही वे हीरो बनने की सोचता है तो टीनएज का खिताब पाते ही युवतियां भी कैमरे के सामने खड़ा होने का सपना संजोने लगती हैं।
    जब से सिनेमा ने ऐतिहासिक और पौराणिक काल से नाता तोड़ते हुए समाज और युवा समाज से नाता जोड़ा, परदे पर बाली उमर की प्रेम कहानियों ने जन्म लिया। ऐसी कहानियों को स्वाभाविकता देने के लिए युवा कलाकारों को ही सबसे ज्यादा पसंद किया जाता रहा है। यह सिलसिला पिछले एक दो दशक तक बदस्तूर जारी रहा। लेकिन, यदि आज के परिप्रेक्ष्य में बॉलीवुड के सफल सितारों पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि आज के लगभग सभी सफल सितारे जवानी की दहलीज तो क्या प्रौढ़ावस्था की सीमा रेखा को भी पार कर बुढ़ापे की ओर अग्रसर है। ऐसे में तो यही लगता है कि हमारा बॉलीवुड बुढा होता जा रहा है। पचास से लेकर सत्तर के दशक में हीरो ऐसे होते थे, जिनकी उम्र पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था। तब हिंदी सिनेमा पर दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की तिकड़ी ने बरसां तक राज किया। दर्शक इनकी अदाओं के इतने दीवाने थे, कि उन्होंने कभी इन सितारों की उम्र पर ध्यान नहीं दिया। देव आनंद तो ऐसे सदाबहार हीरो थे, जिन्होंने तीन-तीन पीढ़ियों के दर्शकों को अपने मोह जाल में उलझाए रखा। इन सितारों ने परदे पर भले ही जवानी को शिद्दत के साथ पेश किया, लेकिन खुद जवानी को पीछे छोड़ आए थे। 
    सत्तर के दशक में जब धर्मेंद्र, मनोज कुमार, विश्वजीत, शशि कपूर, जितेंद्र और राजेश खन्ना ने बॉलीवुड में पदार्पण किया तो वह भी एकदम जवान नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने हर दूसरी फिल्म में कॉलेज स्टूडेंट की भूमिकाएं निभाईं और दर्शकों ने इन्हें भी पसंद किया। खासकर जितेंद्र और राजेश खन्ना को तो जवान ही माना गया। देखा जाए तो परदे पर जवानी की ताजगी की शुरुआत तब हुई, जब राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने के हादसे के बाद डिंपल और ऋषि कपूर को लेकर 'बॉबी' का निर्माण किया। इस जोड़ी को देखकर पहली बार यकीन हुआ कि जवानी क्या होती है! इसके बाद कमल हासन और रति अग्निहोत्री की जोड़ी ने 'एक दूजे के लिए' में जवान जोड़ी के रूप में बाली उमर को सलाम कहने के लिए आमदा किया। इस परम्परा को सचिन और रंजीता की जोड़ी ने 'अंखियों के झरोखे से' आगे बढाया। ऋषि कपूर ने नीतू सिंह और पूनम ढिल्लों के साथ मिलकर दर्शकों को जवान बनाए रखने में मदद की।
    आज जिन सितारों को हिट स्टार का दर्जा मिला। उनमें से लगभग सभी ने उस समय सिनेमा में प्रवेश किया, जब वे लगभग जवान थे। इनमें शाहरुख खान, सलमान खान, अजय देवगन, आमिर खान, अक्षय कुमार, गोविंदा, संजय दत्त, सुनील शेट्टी, जैकी श्रॉफ और सनी देओल शामिल हैं। जिस समय शाहरुख खान की 'दीवाना' प्रदर्शित हुई उनके चेहरे से जवानी रही थी। आमिर खान की कयामत से कयामत तक में जूही चावला के साथ उनकी जोड़ी जवां दिलों की धड़कन बनी हुई थी। जैकी श्रॉफ और मीनाक्षी शेषाद्री की 'हीरो' में वाकई हीरो नौजवान था। सलमान की पहली हिट फिल्म 'मैंने प्यार किया' में उनकी और भाग्यश्री की जोड़ी भी एकदम ताजगी से भरपूर थी। अजय देवगन की 'फूल और कांटे' भले ही मारधाड़ से भरपूर थी, लेकिन शक्ल- सूरत और डील डौल से वह कालेज के युवा छात्र ही दिखाई दे रहा था। गोविंदा तो लम्बे समय तक छोटे भाई के रूप में अपनी जवानी का जलवा बिखेरते रहे। जिन लोगों ने सनी देओल और अमृता सिंह अभिनीत उनकी पहली फिल्म 'बेताब' देखी है, उन्हें यह जोड़ी एकदम भोली और मासूम ही लगी है।
     आज इन सभी सितारों के चेहरे पर न तो भोलापन है और न मासूमियत बची। आज सनी देओल वह कलाकार हैं जो इस युवा फौज के सबसे बुजुर्ग कलाकार है। आज वह उम्र के 68 बसंत पार कर चुके हैं। उनके साथ कदमताल कर रहे हैं जैकी श्रॉफ जो अब 68 साल के हो चुके हैं और जिस उम्र में वह नायक बने थे, आज उनका बेटा उसी उम्र को पार कर चुका है। इसके बाद नंबर आता है, संजय दत्त का जो 'रॉकी' के समय एकदम दुबले-पतले थे। लेकिन, आज विशाल काया को थाम कर 66 वर्ष की आयु को पार कर चुके हैं। संजय दत्त से दो ही कदम पीछे उनकी ही तरह एक्शन हीरो सुनील शेट्टी जो न केवल 64 साल की वय को लांघ चुके हैं, बल्कि भारतीय क्रिकेट टीम के सितारे केएल राहुल के ससुर भी बन चुके हैं।
     चॉकलेटी चेहरे वाले गोविंदा की उम्र इतनी हो चुकी है जितनी उम्र में एक सरकारी कर्मचारी रिटायर हो जाता है। वह साठ साल से आगे निकल चुके हैं। हिंदी सिनेमा पर आज के सुपर स्टार खान बिग्रेड सलमान खान, आमिर खान और शाहरुख खान का दबदबा रहा है। संयोग की बात है कि इस समय इन तीनों खानों की आयु 59 साल है। बॉलीवुड को बुढ़ापे की सौगात देने वाले शेष सफल अभिनेताओं में 58 साल के अक्षय कुमार और 56 साल के अजय देवगन का नाम आता है। इन अभिनेताओं ने भले ही मुख्य नायक की भूमिका से अभी परहेज नहीं किया, लेकिन आज इनकी हिम्मत भी नहीं कि वह पेड़ों के आसपास नायिका के साथ प्रेम गीत गाते दिखाई पड़े। इन सब पर भारी पड़ते हैं, दक्षिण के सुपर स्टार रजनीकांत जो 74 साल के होने के बावजूद परदे पर जवान दिखाई देते है। यह बात और है कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में अपना असली रूप कभी छिपाया नहीं है।
     यदि आज बॉलीवुड में मौजूद जवान नायकों की बात की जाए, तो उनमें कार्तिक आर्यन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन आयुष्मान खुराना, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह जैसे गिने चुने नाम ही याद रह पाते है। इनमें भी यदि कार्तिक आर्यन को छोड़ दिया जाए तो रणबीर कपूर और रणवीर सिंह, सिद्धार्थ मल्होत्रा और वरूण धवन शादी कर जवानी को अलविदा कह चुके हैं। इस मामले में हीरोइनों की चर्चा इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि परदे पर उनकी जवानी का जीवनकाल बहुत ही छोटा होता है। आज की तमाम नायिकाओं में ऐसी एक भी नायिका नहीं है जिसके चेहरे से जवानी की ज्वाला निकल रही हो। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि बॉलीवुड बूढा होता जा रहा है तो यह चिंतनीय है। क्योंकि, दर्शक परदे पर हमेशा ताजगी ही देखना चाहता है। गनीमत है कि 'सैयारा' की नवबहार ने इसमें प्राण फूंकने का काम किया है। 
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इन फ़िल्मी मां के किरदार को भुलाया नहीं जा सका

    फिल्मों के कई तरह के किरदार होते हैं। नायक और नायिका के अलावा खलनायक, कॉमेडियम और कुछ कैरेक्टर एक्टरों की भी भूमिका होती है। ज्यादातर फिल्मों में एक और महत्वपूर्ण किरदार होता है मां का। फिल्म में पिता हो या नहीं, मां जरूर होती है। असल जीवन में ही नहीं, फिल्मी परदे पर भी मां कथानक का अहम हिस्सा है। किरदार अंदाज चाहे जो भी रहा हो, सभी ऑनस्क्रीन मां ने हमेशा दर्शकों पर अपनी अलग छाप छोड़ी। कई बार तो ऐसी फिल्मों में मां के किरदारों ने ही सबसे ज्यादा प्रभावित किया। फिल्मकारों ने मां के अर्थ को बेहतर तरीके से किरदार में उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 
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 - हेमंत पाल


    हिंदी फिल्में बिना मां के किरदार के पूरी नहीं होती। मां के किरदार को फिल्मों में अलग-अलग तरह से पेश किया गया। कुछ अभिनेत्रियों ने मां के किरदार को इतनी बखूबी से निभाया कि परदे पर मां की बात हो, तो इनकी ही छवि उभरती है। यही मां फिल्म में कई बार कहानी में मोड़ लाने का भी काम करती है। याद करें तो मदर इंडिया, दीवार और 'वास्तव' ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिन्हें मां की भूमिका के लिए ही याद किया जाता है। सिर्फ यही नहीं, ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, जिनके कथानक में मां का किरदार कई बार नायक-नायिका से ज्यादा प्रभावशाली रहा। मां के कई यादगार किरदार हैं, जिनमें निरूपा रॉय, वहीदा रहमान, नरगिस, रीमा लागू, राखी, फरीदा जलाल और रेखा हैं। ये अभिनेत्रियां अपने अभिनय के लिए जानी जाती हैं। इनके अलावा दुर्गा खोटे ने भी ऑनस्क्रीन मां के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने कई फिल्मों में मां का संवेदनशील  किरदार निभाकर दर्शकों को प्रभावित किया फिल्मकारों ने मां के सशक्त किरदारों को अपनी फिल्मों में बखूबी तरीके से पेश किया। कई बार ऐसा भी हुआ कि मां के किरदार से ही फिल्में दर्शकों को आकर्षित करने में सफल रही हैं। कभी मां को समर्पित, कभी सकारात्मक, कभी संघर्षशील तो कभी दोस्ताना रूप में सिल्वर स्क्रीन पर इस किरदार को प्रस्तुत किया गया। 
    'मदर इंडिया' में नरगिस ने राधा का किरदार निभाया, जो एक मां है और अपने दोनों बेटों को बेहतर जीवन देने के लिए संघर्ष करती है। 'दीवार' में निरुपा रॉय ने एक ऐसी माँ का किरदार निभाया जो अपने बेटों के लिए सब कुछ करती है, पर एक बेटा रास्ता भटक जाता है। रीमा लागू ने भी ऐसी ही भूमिका 'वास्तव' में निभाई थी। वर्ष 1957 में आई फिल्म ‘मदर इंडिया’ में नरगिस की भूमिका का आज भी उल्लेख किया जाता है। फिल्म में नरगिस ने सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार की मां की भूमिका को जीवंत किया था। उन्होंने ऐसी मां का किरदार निभाया, जिसके हाथ अपने बेटे के अन्याय करने पर उसे जान से मारने से भी नहीं हिचकते। इस भूमिका के लिए नरगिस को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 
    ऐसे ही जब सिनेमा में मां के किरदार का जिक्र होता है, तो निरूपा राय के नाम को भुलाया नहीं जा सकता। उन्हें फिल्मों की आदर्श मां माना जाता है। उन्हें अमिताभ बच्चन की ऑनस्क्रीन मां भी कहा जाता है। क्योंकि, उन्होंने कई फिल्मों में अमिताभ की मां की भूमिका निभाई। दीवार, खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, अमर अकबर एंथनी और 'सुहाग' जैसी फिल्मों में अमिताभ की मां का रोल निभाया। रेखा जैसी रोमांटिक अभिनेत्री ने भी कई फिल्मों में मां की भूमिका निभाई है, इनमें मुस्कुराहट, कोई मिल गया और 'सत्य और प्रेम' जैसी फिल्में शामिल हैं। फिल्मों में अभिनय करने वाली पहली मिस इंडिया नूतन ने भी कई फिल्मों में मां की भूमिका की। इनमें मेरी जंग, नाम, मुजरिम, युद्ध और 'कर्मा' जैसी फिल्में उल्लेखनीय हैं। 'मेरी जंग' में अपने सशक्त अभिनय के लिए नूतन को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 
    जानी-मानी अभिनेत्री राखी ने भी कई फिल्मों में मां के चरित्र को साकार किया। यदि निरूपा राय को अमिताभ की मां कहा जाता है, तो राखी अनिल कपूर की फिल्मी मां थी। राम लखन, प्रतिकार, जीवन एक संघर्ष में राखी अनिल कपूर की मां बनी थीं। खलनायक, सोल्जर, बार्डर, करण-अर्जुन, बाजीगर और 'अनाड़ी' जैसी फिल्मो में राखी ने मां का किरदार निभाया। 'करण-अर्जुन' फिल्म में उनके मां के किरदार को लोग आज भी याद करते हैं। फिल्म में दुर्गा सिंह का किरदार निभाकर उन्होंने एक मां के अटूट विश्वास को पेश किया था। मां जिसे विश्वास होता है कि उसके बच्चे अपने पिता के हत्यारे से बदला लेने जरूर आएंगे। इन अभिनेत्रियों के अलावा 90 के दशक में रीमा लागू ने कई फिल्मों में इस किरदार को प्रभावशाली तरीके से पेश किया। इनमें रीमा लागू भी है, जिन्हें सलमान खान की मां के रूप में देखा गया है। इनमें मैने प्यार किया, साजन, हम साथ साथ हैं, जुड़वां’ और ‘पत्थर के फूल’ जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। उनकी मां की भूमिका वाली अन्य फिल्मों में कयामत से कयामत तक, आशिकी, हम आपके हैं कौन, कुछ कुछ होता है आदि शामिल हैं। 
    अचला सचदेव ने अपने करियर में कई फिल्मों मां और दादी का किरदार निभाया है। उन्हें इन्हीं किरदारों ने एक अलग पहचान दिलाई थी। उन्होंने 'कभी खुशी कभी गम' में शाहरुख खान और ऋतिक रोशन की दादी और 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में काजोल की दादी का किरदार निभाते हुए भी देखा गया। दुर्गा खोटे ने जिस दौर में सिनेमा में कदम रखा, तब महिलाओं के किरदार भी पुरुष निभाया करते थे। दुर्गा खोटे ने कई फिल्मों मे मां का किरदार निभाकर अपनी एक अलग पहचान बनाई। कई फिल्मों में प्यार और दुलार से भरपूर मां का किरदार निभाया। ऋषि कपूर की फिल्म 'कर्ज' में इन्होंने मां का किरादर निभाकर उसे यादगार बना दिया। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में काजोल की मां को याद किया जाए तो फरीदा जलाल आ जाती है। उन्होंने कई फिल्मों में कभी भावुक तो कभी हंसमुख और मजाकिया मां का किरदार निभाया है। कुछ कुछ होता है', 'कभी खुशी कभी गम', 'कहो ना प्यार है', जैसी कई फिल्मों में मां का किरदार निभाकर लोगों का दिल जीता है।
    चुलबुली नायिका की भूमिका निभाने से लेकर मां तक का किरदार निभाने में जया बच्चन का कोई सानी नहीं। उन्होंने 'हजार चौरासी की मां' में एक ऐसी मां का किरदार निभाया, जिसके बेटे को नक्सलियों ने मार दिया है। इसके बाद वह फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' और 'कल हो ना हो' में भी मां का किरदार निभाती नजर आईं। 'कल हो ना हो' के लिए जया बच्चन को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। मल्टीपर्पस रोल में किरण खेर ने भी कई भूमिकाएं निभाई। साथ ही मां की इमेज को बदलने में अहम भूमिका निभाई। फिल्म 'दोस्तान' की कूल मदर हो या 'देवदास' की कठोर, स्वाभिमानी मां, किरण खेर ने हर भूमिका को जीवंत किया है। 'हम तुम' में उन्होंने एक ऐसी मां का किरदार निभाया, जो दोस्त से कम नहीं है। फिल्मों में कई अभिनेत्रियों ने मां के किरदार को रूपहले पर्दे पर निभाया। इनमें लीला चिटनिस, दुर्गा खोटे, दीना पाठक, वहीदा रहमान, आशा पारेख, हेमा मालिनी, रेखा, जया भादुड़ी, डिंपल कपाडिया, रति अग्निहोत्री, किरण खेर और रेखा शामिल हैं। 
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Saturday, July 26, 2025

समय के साथ बदलते फ़िल्मी फॉर्मूले और 'दोस्ती'

    जब भी दोस्त और दोस्ती पर बनी फिल्मों का जिक्र होता है, 1964 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'दोस्ती' के बिना बात पूरी नहीं होती। ये फिल्म ऐसी सभी फिल्मों के लिए मील का पत्थर है। परदे पर दोस्ती के कथानक भाई-चारे, मुश्किलों में साथ खड़े रहने और दोस्त के लिए प्रेमिका का त्याग करने जैसे फार्मूलों के आसपास घूमते रहे हैं। ये कथानक दोस्ती के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। लेकिन, बदलते समय के साथ इनमें तड़का भी लगता रहा। 'थ्री इडियट्स' और 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' ऐसी ही फ़िल्में हैं।
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- हेमंत पाल

   फिल्म बनाने वालों के पास कुछ ऐसे फार्मूले होते हैं, जिन्हें दर्शक हमेशा पसंद करते हैं। ऐसे फार्मूलों में एक दोस्ती भी है। क्योंकि, दोस्ती की कहानियां फिल्मकारों के लिए एक तरह से बिकाऊ फार्मूला रहा। किसी विषय पर एक फिल्म हिट होते ही, उसके आसपास नई कहानियाँ गूंथी जाने लगती है! प्यार में धोखा, खून का बदला खून, प्रेम त्रिकोण, भाइयों का बिछुड़ना और फिर मिलना, दोस्ती में ग़लतफ़हमी और फिर त्याग! ये ऐसे हिट फॉर्मूले हैं, जो फिल्मकारों को हमेशा रास आते रहे। इनमें 'दोस्ती' का फार्मूला हर समय काल में दर्शकों को रास आया। 1964 में बनी राजश्री की फिल्म 'दोस्ती' को अपने समय की सबसे हिट फिल्म माना जाता है। उसके बाद तो दोस्ती की मिसाल वाले इस विषय को कई बार घुमा फिराकर परोसा जाता रहा! हर दौर में दोस्ती की भावना को नए-नए तरीकों से पेश किया गया! जिनमें दोस्त, शोले, चुपके-चुपके, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर, राम-बलराम, दोस्ताना, सौदागर, खुदगर्ज, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, काई पो चे और चश्मे बद्दूर जैसी फ़िल्में शामिल हैं।
      अमिताभ बच्चन के स्वर्णकाल की ज्यादातर फिल्मों का केंद्रीय विषय भी दोस्ती रहा! अमिताभ ने कई फिल्मों में दोस्ती की भावना पेश की! फिर वो चाहे जंजीर, शोले, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, दोस्ताना हो या मुकद्दर का सिकंदर! याद कीजिए अमिताभ के साथ हर फिल्म में कोई दोस्त जरूर रहा। निजी जीवन में भी अमिताभ और विनोद खन्ना के बीच अच्छी दोस्ती के बारे में कभी पढ़ा नहीं गया, लेकिन परदे पर इन दोनों ने कई बार दोस्ती को जीवंत किया! इनमें हेराफेरी, मुकद्दर का सिकंदर जैसी फिल्में शामिल हैं। 'दोस्ताना' में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ अमिताभ की दोस्ती मिसाल के रूप में याद की जाती है। 1975 की बनी 'शोले' में जय और वीरू की दोस्ती के जज्बे को बेहद खूबसूरती से दर्शाया गया! इस जोड़ी ने बाद में ‘चुपके-चुपके’ और ‘राम बलराम’ जैसी फिल्मों में भी दोस्ती दिखाई! राजेश खन्ना के साथ अमिताभ ने 'आनंद' और ‘नमक हराम’ में दोस्ती को जीवंतता दी! शशि कपूर के साथ ईमान धरम, शान और 'सुहाग' में अमिताभ ने यही दोस्ती निभाई! 
   धर्मेंद्र भी उन कलाकारों में हैं, जिन्होंने कई एक्टर्स के साथ दोस्ती का किरदार अदा किया। धर्मेंद्र की दोस्ती शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना के साथ कई बार बनी! इसके बाद अनिल कपूर-जैकी श्रॉफ, अक्षय कुमार-सुनील शेट्टी और संजय दत्त-गोविंदा की दोस्ती पर कई फ़िल्मी कहानियाँ बनी! 1991 में सुभाष घई ने फ़िल्मी दुनिया के दो दिग्गजों दिलीप कुमार और राजकुमार को दोस्ती की डोर में बांधा और ‘सौदागर’ बनाई! इस फिल्म को भी दोस्ती के लिहाज से श्रेष्ठ फिल्म कहा जा सकता है। बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दोस्ती में प्यार का तड़का लगने लगा! दो दोस्तों की दोस्ती के बीच एक लड़की आ जाती है! फिर या तो गलतफहमी पनपती है या प्रेम त्रिकोण बन जाता है! क्लाइमैक्स में या तो ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है या फिर एक दोस्त का त्याग सामने आता है! लड़की के कारण दोस्तों में टकराव का ये चलन शायद राज कपूर, राजेंद्र कुमार की फिल्म 'संगम' फिल्म से शुरू हुआ था। जो भी हो, फिल्म का अंत सुखांत ही होता रहा। याद किया जाए तो ऐसी फिल्मों की कमी भी नहीं! लेकिन, प्रयोग के तौर पर हाल ही में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनाई गई जिनमें दोस्ती तो थी, पर फिल्म का केंद्रीय विषय कुछ और ही था! थ्री इडियट्स, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, कुछ कुछ होता है, दिल तो पागल है और चश्मे बद्दूर! इन फिल्मों ने दर्शकों को दोस्ती के कई नए रंग दिखाए!  
   आज की कुछ फिल्मों का कैनवास दोस्तों के सपनों के साथ उनके आंतरिक टकरावों पर भी फोकस रहा! कहीं विचारों में मतभेद होने के बावजूद दोस्त एक-दूसरे का नजरिया समझने की कोशिश करते हैं। कहीं अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक हालात वाले दोस्त एक सपने के साथ आगे बढ़ते हैं और टीम बनाकर उसे पूरा करते हैं। यही कारण है कि अब दोस्ती और विचारधारा के बदलाव की कहानियों पर भी फ़िल्में बनने लगी है। दोस्ती के बहाने कुछ अलग ढंग की कहानियाँ भी कही जा रही है। ये फ़िल्में बताती है कि जीवन में खुद से बात करना, अपने सपनों से बात करना और दोस्तों से सपनों को शेयर करना कितना जरूरी है। दोस्ती में सपनों के साथ उनके टकरावों की कहानी भी कुछ फिल्मों की कथावस्तु रही है। लेकिन, दोस्तों के बीच टकराव कही भी इतने बड़े नहीं होते कि वो पूरी दोस्ती को प्रभावित कर दें। ऐसी ही फिल्म है 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जिसमें तीन पुराने दोस्त मौज-मस्ती के लिए घूमने निकलते हैं और दर्शक बंधे रहते हैं। दोस्ती पर आधारित कुछ पसंद की गई फिल्मों में 'दोस्ती' (1964) है जो दो गरीब दोस्तों रामू और मोहन की कहानी है। रामू विकलांग है और मोहन की आंखें नहीं है। वे एक-दूसरे के साथ मिलकर जीवन की चुनौतियों का सामना करते हैं। 
     'आनंद' (1971) एक डॉक्टर और एक कैंसर से पीड़ित मरीज के बीच गहरी दोस्ती हो जाती है। इस फिल्म में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और दोस्ती पर जोर दिया है। सर्वकालिक हिट 'शोले' (1975) दो दोस्तों वीरू और जय की कहानी पर टिकी है, जो डाकू गब्बर सिंह को पकड़ने के लिए एक साथ आते हैं। 'दिल चाहता है' (2001) तीन दोस्तों, आकाश, समीर और सिद्धार्थ, की कहानी है जो अपनी जिंदगी के अलग-अलग पड़ावों से गुजरते हुए दोस्ती के महत्व को समझते हैं। 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' (2011) भी तीन दोस्तों की कहानी है जो बैचलर पार्टी के लिए स्पेन जाते हैं और वहां अपनी दोस्ती के नए आयाम ढूंढते हैं। '3 इडियट्स' (2009) तीन इंजीनियरिंग छात्रों की कहानी है, जो अपनी पढ़ाई, करियर और जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं, पर उनकी दोस्ती बनी रहती है। 'काय पो छे' (2013) भी तीन दोस्तों पर टिकी है, जो एक क्रिकेट अकादमी खोलने का फैसला करते हैं और एक साथ काम करते हैं। 'छिछोरे' (2019) कॉलेज के दोस्तों के ग्रुप की कहानी है, जो एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और दोस्ती को समझते हैं। 'आरआरआर' (2022) दो क्रांतिकारियों की दोस्ती की कहानी है, जो अंग्रेज शासन के खिलाफ लड़ते हैं। 
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50 साल बाद 'शोले' नए अवतार में

    इस साल हिंदी सिनेमा की कल्ट फिल्म 'शोले' के प्रदर्शन को 50 साल पूरे हो रहे हैं। 15 अगस्त 1975 में जब 'शोले' रिलीज हुई, उस साल देश में आपातकाल लगा था। जिसके चलते 'शोले' के निर्माता को फिल्म का अंत बदलना पड़ा था। क्योंकि, सेंसर बोर्ड नहीं चाहती थी, कि कानून को लाचार बताया जाए और पीड़ित खुद अपना बदला लेने की जुर्रत न कर सके। अब 'शोले' को उसके ओरिजनल क्लाइमेक्स के साथ फिर रिलीज किया जाएगा, जिसमें ठाकुर को डाकू गब्बर सिंह का अंत करते बताया गया। इसके अलावा भी बदली 'शोले' में बहुत कुछ बदला हुआ दिखाई देगा।    
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- हेमंत पाल

     हिंदी फिल्म इतिहास में 'शोले' ऐसी फिल्म है, जिसे बीते पचास साल से लेकर आजतक हर वर्ग के दर्शक ने सराहा। इस कालजयी फिल्म को 'फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन' के सहयोग से नया अवतार मिला है। इसे इटली के विशाल प्लाजा पियाजा मैगिओर सिनेमाघर में प्रदर्शित किया गया। जिस तरह इस फिल्म को प्रतिसाद मिला, उससे यह उम्मीद जागी कि अनकट दृश्यों और मूल अंत के साथ 'शोले' भारतीय दर्शकों को भी देखने को मिलेगी। पचास साल पहले जब 'शोले' प्रदर्शित हुई, तब फिल्म के मूल अंत में पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह गब्बर सिंह को अपने स्पाइक वाले जूतों से मारकर अपना बदला लेते हुए दिखाया गया था। तब सेंसर बोर्ड इस अंत से खुश नहीं था। वह चाहता था कि फिल्म का अंत बदला जाए। बोर्ड के सदस्यों की राय थी कि फिल्म में बहुत अधिक हिंसा है। इसलिए निर्देशक रमेश सिप्पी ने अंत को फिर से शूट किया, जिसमें ठाकुर द्वारा पीटे जाने के बाद गब्बर को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है।
     इसे पुराने अंत के साथ फिर से प्रदर्शित करना आसान नहीं था। क्योंकि, इन पचास सालों में 'शोले' की निगेटिव पूरी तरह से खराब हो चुकी थी। इसकी रीलें आपस में चिपक चुकी थी। जिसे नया रूप देने के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन आगे आई और रमेश सिप्पी ने इसके लिए वित्तीय सहायता की। तीन साल की अथक मेहनत के बाद इसे फॉर-के तकनीक और डॉल्बी साउंड सिस्टम के साथ नए अवतार में तैयार किया गया। जब शुक्रवार को विश्व प्रीमियर वार्षिक इल सिनेमा रिट्रोवाटो फेस्टिवल के दौरान इटली के बोलोग्ना में एक विशाल प्लाजा पियाजा मैगिओर में एक बड़े ओपन एयर थियेटर वाली स्क्रीन पर 'शोले' को उसके मूल अंत के साथ दिखाया गया तो इसे भरपूर तारीफ मिली। 
     इसके बाद फिल्म को भारत में भी प्रदर्शित करने का विचार करने किया गया।अब समझा जा रहा है कि 50 साल पूरा होने पर इसे 15 अगस्त को रिलीज किया जाएगा। सलीम-जावेद की जोड़ी की लिखी यह फिल्म 204 मिनट लंबी है। इसमें सितारों की लम्बी चौड़ी फौज है, जिनमें  संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, हेलेन, सचिन, एके हंगल, विजू खोटे, मैक मोहन, सहित कई कलाकार शामिल है। फिल्म के लिए हैदराबाद के नजदीक पूरा एक गांव रामगढ़ बसाया गया था जो आज भी अस्तित्व में है। फिल्म का संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था और इसे 70 एमएम और स्टीरियोफोनिक साउंड में फिल्माया गया था।
कब शुरू हुआ 'शोले' के रेस्टोरेशन का काम  
    जहां तक शोले के रेस्टोरेशन का सवाल है, तीन साल पहले 'शोले' का निर्माण करने वाली सिप्पी फिल्म्स के शहजाद सिप्पी ने इसके रेस्टोरेशन के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन  से संपर्क किया था। वह मुंबई के एक गोदाम में रखे गए फिल्म के कुछ अंशों के बचाने यह काम करवाना चाहते थे। सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि फिल्म के डिब्बों से लेबल गायब थे। लेकिन, सामग्री की जांच करने पर, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन को पता चला कि उनमें मूल 35 मिमी कैमरा और साउंड निगेटिव थे। शहजाद ने फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन को ब्रिटेन के एक स्टोरेज में संरक्षित फिल्म के कुछ एडिशनल कंटेटस के बारे में भी जानकारी दी। 
     ब्रिटिश फिल्म संस्थान की मदद से एफएचएफ को इन सामग्रियों तक पहुँच मिली। इसके बाद लंदन और मुंबई दोनों जगहों से रीलों को रिस्टोर करने के लिए बोलोग्ना में एक विशेष फिल्म रेस्टोरेशन लैब एल इमेजिन रिट्रोवाटा में ले जाया गया। जहां तीन साल के अथक परिश्रम के बाद इसके रेस्टोरेशन का काम पूरा हुआ। इसमें भी बहुत परेशानियां सामने आई। क्योंकि, ओरिजिनल कैमरा निगेटिव की हालत इतनी खराब थी, कि इसका रेस्टोरेशन एक बेहद मुश्किल काम था। सबसे बड़ी चुनौती 35 एमएम वाली प्रिंट को 70 एमएम वाइडस्क्रीन में बदलने की थी। लेकिन, इस काम को भी अत्यधिक परिश्रम के साथ सफलता से पूरा किया गया।
काटे हुए दृश्यों को खूबसूरती से रिस्टोर किया
    इस कवायद में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन के निदेशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने बहुत रुचि दिखाते हुए समर्पण भावना से काम किया। उनका कहना है कि इस तथ्य के बावजूद कि वह मूल कैमरा निगेटिव का उपयोग नहीं कर सके और एक भी 70 मिमी प्रिंट भी नहीं बचा था। फिर भी उन्होंने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि इस ऐतिहासिक फिल्म को न केवल खूबसूरती से रिस्टोर किया जाए। इसके लिए उन्होंने इसका ओरिजिनल क्लाइमेक्स और कुछ काटे हुए दृश्यों को यथा स्थान रखकर इसकी रोचकता को पहले से ज्यादा बढ़ा दिया, ताकि नए दर्शकों के साथ साथ उस जमाने के दृश्य भी इसका लुत्फ ले। सिप्पी फिल्म्स इसे सिप्पी फिल्म के संस्थापक जीपी सिप्पी की दूरदृष्टि और विरासत को विनम्र श्रद्धांजलि मानते हैं। खबर भी है कि इतालवी प्रीमियर के बाद 'शोले' को इसकी 50वीं वर्षगांठ मनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समारोहों और थिएटरों के साथ 15 अगस्त को भारत में भी प्रदर्शित किया जाएगा। यह प्रदर्शन भारतीय दर्शकों के सामने नए अवतार में आएगी।
ऐसे रची गई इस कालजयी फिल्म की स्क्रिप्ट 
     'शोले' जैसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म की मेकिंग का किस्सा एक इंटरव्यू में बताया था। रमेश सिप्पी के मुताबिक 'शोले' की रायटर जोड़ी सलीम-जावेद एक दिन मेरे पास आए, जब मैं एक फिल्म की शूटिंग में बहुत बिजी था। उन्होंने कहा कि एक कहानी है, जरा सुन लो। मैंने कहा कि बाद में सुनूंगा तो दोनों बोल पड़े, अभी सुनना पड़ेगा। बस दो मिनट का टाइम चाहिए। मेरे हां कहते ही दोनों ने कहानी सुनाना शुरू कर दी। एक ठाकुर है, जो दो कैदियों की मदद से गांव वालों को गब्बर के आतंक से बचाता है। उन्होंने पूरी कहानी वाकई में दो मिनट में सुना दी। रमेश सिप्पी को भी कहानी अच्छी लगी। 'शोले' की कहानी फायनल करने के लिए सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी दो महीने से ज्यादा समय तक एक ही कमरे में रहे। न दिन देखा न रात। फिल्म के एक-एक हिस्से और सीन के बारे में विचार-विमर्श शुरू किया गया। तीनों बार-बार कागज फाड़ते और नए सिरे से लिखते। आखिरकार तीनों की मेहनत रंग लाई और 'शोले' की पूरी स्क्रिप्ट पूरी कर ली गई। 
गब्बर की दहशत दिखाना भी आसान नहीं  
    सिप्पी ने बताया कि जब हमने अमजद खान को लेकर गब्बर सिंह की शूटिंग शुरू की, तो सबसे बड़ी परेशानी यह आई कि गब्बर की दहशत को कैसे दिखाया जाए, ताकि दर्शक भी सिहर जाएं। संगीतकार आरडी बर्मन साहब ने अमजद खान के अपीयरेंस के लिए एक खास तरह का बैकग्राउंड म्यूजिक भी रचा था। गब्बर की डाकू वाली वर्दी वगैरह सब कुछ का इंतजाम कर लिया गया। मगर जब वह पहली बार परदे पर आता है, तो पहाड़ी पर चलते हुए उसके साथ एक बेल्ट से भी चट्टान से टकराते हुए एक खौफनाक आवाज निकलती है। इसके लिए हमें बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी। गब्बर के लिए खास बेल्ट की मिशन की तरह तलाश शुरू हुई। पूरे मुंबई के जितने भी भंगार बेचने वाले इलाके, कबाड़ी मार्केट थे, वहां पर जा-जाकर पुरानी बेल्ट की तलाश करनी शुरू कर दी। खोज करीब एक हफ्ते तक चली। ऐसे में हमने पूरे मुंबई से करीब 200 बेल्ट जुटाए। इसे लेकर शूटिंग वाली जगह पर लेकर आए। 
गब्बर की वो खौफनाक बेल्ट की कहानी 
     जब बेल्ट को हमने अमजद खान को दिया और उनसे चट्टान पर चलते हुए बेल्ट को घसीटने के अंदाज में चलने को कहते। आरडी बर्मन खुद उस आवाज को सुनते। मगर, हर बार हमें निराशा होती, क्योंकि गब्बर की जिस तरह की दहशत थी, वो बेल्ट से नहीं आ पा रही थी। आखिरकार करीब 150 बेल्ट से प्रयोग करने के बाद हमें कामयाबी मिल ही गई। जब अमजद खान उस बेल्ट को लेकर चलते तो उससे खास किस्म की खौफनाक आवाज आती। बस हमने तय कर लिया कि यही परफेक्ट है। हालांकि, अमजद खान भी बार-बार के इस प्रयोग से झुंझला गए थे, मगर उन्होंने बेहद कामयाबी के साथ वह सीन शूट कर लिया, जिसका डायलॉग था 'कितने आदमी थे!' 
आखिरी सीन और आपातकाल का दौर 
    फिल्म 'शोले' के आखिरी सीन में असल में रमेश सिप्पी ने दिखाया था कि ठाकुर कील लगे जूतों से गब्बर को रौंदता है। मगर आपातकाल इमरजेंसी का दौर होने की वजह से सेंसर बोर्ड ने इस मामले में काफी सख्त रुख अपनाया। सरकार नहीं चाहती थी कि फिल्म से ऐसा संदेश न जाए कि कोई भी कानून अपने हाथ में ले सकता है। हालांकि, रमेश सिप्पी अड़े रहे, मगर फिल्म निर्माता रहे उनके पिता जीपी सिप्पी ने इसे लेकर उन्हें समझाया, तब जाकर वह माने। फिल्म का क्लाइमेक्स दोबारा शूट हुआ, जिसमें गब्बर को ठाकुर के पैरों से कुचलने से पहले पुलिस पहुंच जाती है और गब्बर को ले जाती है। जब फिल्म का क्लाइमेक्स बदला गया, तब जाकर बात बनी।
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