Saturday, July 26, 2025

50 साल बाद 'शोले' नए अवतार में

    इस साल हिंदी सिनेमा की कल्ट फिल्म 'शोले' के प्रदर्शन को 50 साल पूरे हो रहे हैं। 15 अगस्त 1975 में जब 'शोले' रिलीज हुई, उस साल देश में आपातकाल लगा था। जिसके चलते 'शोले' के निर्माता को फिल्म का अंत बदलना पड़ा था। क्योंकि, सेंसर बोर्ड नहीं चाहती थी, कि कानून को लाचार बताया जाए और पीड़ित खुद अपना बदला लेने की जुर्रत न कर सके। अब 'शोले' को उसके ओरिजनल क्लाइमेक्स के साथ फिर रिलीज किया जाएगा, जिसमें ठाकुर को डाकू गब्बर सिंह का अंत करते बताया गया। इसके अलावा भी बदली 'शोले' में बहुत कुछ बदला हुआ दिखाई देगा।    
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- हेमंत पाल

     हिंदी फिल्म इतिहास में 'शोले' ऐसी फिल्म है, जिसे बीते पचास साल से लेकर आजतक हर वर्ग के दर्शक ने सराहा। इस कालजयी फिल्म को 'फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन' के सहयोग से नया अवतार मिला है। इसे इटली के विशाल प्लाजा पियाजा मैगिओर सिनेमाघर में प्रदर्शित किया गया। जिस तरह इस फिल्म को प्रतिसाद मिला, उससे यह उम्मीद जागी कि अनकट दृश्यों और मूल अंत के साथ 'शोले' भारतीय दर्शकों को भी देखने को मिलेगी। पचास साल पहले जब 'शोले' प्रदर्शित हुई, तब फिल्म के मूल अंत में पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह गब्बर सिंह को अपने स्पाइक वाले जूतों से मारकर अपना बदला लेते हुए दिखाया गया था। तब सेंसर बोर्ड इस अंत से खुश नहीं था। वह चाहता था कि फिल्म का अंत बदला जाए। बोर्ड के सदस्यों की राय थी कि फिल्म में बहुत अधिक हिंसा है। इसलिए निर्देशक रमेश सिप्पी ने अंत को फिर से शूट किया, जिसमें ठाकुर द्वारा पीटे जाने के बाद गब्बर को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है।
     इसे पुराने अंत के साथ फिर से प्रदर्शित करना आसान नहीं था। क्योंकि, इन पचास सालों में 'शोले' की निगेटिव पूरी तरह से खराब हो चुकी थी। इसकी रीलें आपस में चिपक चुकी थी। जिसे नया रूप देने के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन आगे आई और रमेश सिप्पी ने इसके लिए वित्तीय सहायता की। तीन साल की अथक मेहनत के बाद इसे फॉर-के तकनीक और डॉल्बी साउंड सिस्टम के साथ नए अवतार में तैयार किया गया। जब शुक्रवार को विश्व प्रीमियर वार्षिक इल सिनेमा रिट्रोवाटो फेस्टिवल के दौरान इटली के बोलोग्ना में एक विशाल प्लाजा पियाजा मैगिओर में एक बड़े ओपन एयर थियेटर वाली स्क्रीन पर 'शोले' को उसके मूल अंत के साथ दिखाया गया तो इसे भरपूर तारीफ मिली। 
     इसके बाद फिल्म को भारत में भी प्रदर्शित करने का विचार करने किया गया।अब समझा जा रहा है कि 50 साल पूरा होने पर इसे 15 अगस्त को रिलीज किया जाएगा। सलीम-जावेद की जोड़ी की लिखी यह फिल्म 204 मिनट लंबी है। इसमें सितारों की लम्बी चौड़ी फौज है, जिनमें  संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, हेलेन, सचिन, एके हंगल, विजू खोटे, मैक मोहन, सहित कई कलाकार शामिल है। फिल्म के लिए हैदराबाद के नजदीक पूरा एक गांव रामगढ़ बसाया गया था जो आज भी अस्तित्व में है। फिल्म का संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था और इसे 70 एमएम और स्टीरियोफोनिक साउंड में फिल्माया गया था।
कब शुरू हुआ 'शोले' के रेस्टोरेशन का काम  
    जहां तक शोले के रेस्टोरेशन का सवाल है, तीन साल पहले 'शोले' का निर्माण करने वाली सिप्पी फिल्म्स के शहजाद सिप्पी ने इसके रेस्टोरेशन के लिए फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन  से संपर्क किया था। वह मुंबई के एक गोदाम में रखे गए फिल्म के कुछ अंशों के बचाने यह काम करवाना चाहते थे। सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि फिल्म के डिब्बों से लेबल गायब थे। लेकिन, सामग्री की जांच करने पर, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन को पता चला कि उनमें मूल 35 मिमी कैमरा और साउंड निगेटिव थे। शहजाद ने फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन को ब्रिटेन के एक स्टोरेज में संरक्षित फिल्म के कुछ एडिशनल कंटेटस के बारे में भी जानकारी दी। 
     ब्रिटिश फिल्म संस्थान की मदद से एफएचएफ को इन सामग्रियों तक पहुँच मिली। इसके बाद लंदन और मुंबई दोनों जगहों से रीलों को रिस्टोर करने के लिए बोलोग्ना में एक विशेष फिल्म रेस्टोरेशन लैब एल इमेजिन रिट्रोवाटा में ले जाया गया। जहां तीन साल के अथक परिश्रम के बाद इसके रेस्टोरेशन का काम पूरा हुआ। इसमें भी बहुत परेशानियां सामने आई। क्योंकि, ओरिजिनल कैमरा निगेटिव की हालत इतनी खराब थी, कि इसका रेस्टोरेशन एक बेहद मुश्किल काम था। सबसे बड़ी चुनौती 35 एमएम वाली प्रिंट को 70 एमएम वाइडस्क्रीन में बदलने की थी। लेकिन, इस काम को भी अत्यधिक परिश्रम के साथ सफलता से पूरा किया गया।
काटे हुए दृश्यों को खूबसूरती से रिस्टोर किया
    इस कवायद में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन के निदेशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने बहुत रुचि दिखाते हुए समर्पण भावना से काम किया। उनका कहना है कि इस तथ्य के बावजूद कि वह मूल कैमरा निगेटिव का उपयोग नहीं कर सके और एक भी 70 मिमी प्रिंट भी नहीं बचा था। फिर भी उन्होंने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि इस ऐतिहासिक फिल्म को न केवल खूबसूरती से रिस्टोर किया जाए। इसके लिए उन्होंने इसका ओरिजिनल क्लाइमेक्स और कुछ काटे हुए दृश्यों को यथा स्थान रखकर इसकी रोचकता को पहले से ज्यादा बढ़ा दिया, ताकि नए दर्शकों के साथ साथ उस जमाने के दृश्य भी इसका लुत्फ ले। सिप्पी फिल्म्स इसे सिप्पी फिल्म के संस्थापक जीपी सिप्पी की दूरदृष्टि और विरासत को विनम्र श्रद्धांजलि मानते हैं। खबर भी है कि इतालवी प्रीमियर के बाद 'शोले' को इसकी 50वीं वर्षगांठ मनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समारोहों और थिएटरों के साथ 15 अगस्त को भारत में भी प्रदर्शित किया जाएगा। यह प्रदर्शन भारतीय दर्शकों के सामने नए अवतार में आएगी।
ऐसे रची गई इस कालजयी फिल्म की स्क्रिप्ट 
     'शोले' जैसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म की मेकिंग का किस्सा एक इंटरव्यू में बताया था। रमेश सिप्पी के मुताबिक 'शोले' की रायटर जोड़ी सलीम-जावेद एक दिन मेरे पास आए, जब मैं एक फिल्म की शूटिंग में बहुत बिजी था। उन्होंने कहा कि एक कहानी है, जरा सुन लो। मैंने कहा कि बाद में सुनूंगा तो दोनों बोल पड़े, अभी सुनना पड़ेगा। बस दो मिनट का टाइम चाहिए। मेरे हां कहते ही दोनों ने कहानी सुनाना शुरू कर दी। एक ठाकुर है, जो दो कैदियों की मदद से गांव वालों को गब्बर के आतंक से बचाता है। उन्होंने पूरी कहानी वाकई में दो मिनट में सुना दी। रमेश सिप्पी को भी कहानी अच्छी लगी। 'शोले' की कहानी फायनल करने के लिए सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी दो महीने से ज्यादा समय तक एक ही कमरे में रहे। न दिन देखा न रात। फिल्म के एक-एक हिस्से और सीन के बारे में विचार-विमर्श शुरू किया गया। तीनों बार-बार कागज फाड़ते और नए सिरे से लिखते। आखिरकार तीनों की मेहनत रंग लाई और 'शोले' की पूरी स्क्रिप्ट पूरी कर ली गई। 
गब्बर की दहशत दिखाना भी आसान नहीं  
    सिप्पी ने बताया कि जब हमने अमजद खान को लेकर गब्बर सिंह की शूटिंग शुरू की, तो सबसे बड़ी परेशानी यह आई कि गब्बर की दहशत को कैसे दिखाया जाए, ताकि दर्शक भी सिहर जाएं। संगीतकार आरडी बर्मन साहब ने अमजद खान के अपीयरेंस के लिए एक खास तरह का बैकग्राउंड म्यूजिक भी रचा था। गब्बर की डाकू वाली वर्दी वगैरह सब कुछ का इंतजाम कर लिया गया। मगर जब वह पहली बार परदे पर आता है, तो पहाड़ी पर चलते हुए उसके साथ एक बेल्ट से भी चट्टान से टकराते हुए एक खौफनाक आवाज निकलती है। इसके लिए हमें बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी। गब्बर के लिए खास बेल्ट की मिशन की तरह तलाश शुरू हुई। पूरे मुंबई के जितने भी भंगार बेचने वाले इलाके, कबाड़ी मार्केट थे, वहां पर जा-जाकर पुरानी बेल्ट की तलाश करनी शुरू कर दी। खोज करीब एक हफ्ते तक चली। ऐसे में हमने पूरे मुंबई से करीब 200 बेल्ट जुटाए। इसे लेकर शूटिंग वाली जगह पर लेकर आए। 
गब्बर की वो खौफनाक बेल्ट की कहानी 
     जब बेल्ट को हमने अमजद खान को दिया और उनसे चट्टान पर चलते हुए बेल्ट को घसीटने के अंदाज में चलने को कहते। आरडी बर्मन खुद उस आवाज को सुनते। मगर, हर बार हमें निराशा होती, क्योंकि गब्बर की जिस तरह की दहशत थी, वो बेल्ट से नहीं आ पा रही थी। आखिरकार करीब 150 बेल्ट से प्रयोग करने के बाद हमें कामयाबी मिल ही गई। जब अमजद खान उस बेल्ट को लेकर चलते तो उससे खास किस्म की खौफनाक आवाज आती। बस हमने तय कर लिया कि यही परफेक्ट है। हालांकि, अमजद खान भी बार-बार के इस प्रयोग से झुंझला गए थे, मगर उन्होंने बेहद कामयाबी के साथ वह सीन शूट कर लिया, जिसका डायलॉग था 'कितने आदमी थे!' 
आखिरी सीन और आपातकाल का दौर 
    फिल्म 'शोले' के आखिरी सीन में असल में रमेश सिप्पी ने दिखाया था कि ठाकुर कील लगे जूतों से गब्बर को रौंदता है। मगर आपातकाल इमरजेंसी का दौर होने की वजह से सेंसर बोर्ड ने इस मामले में काफी सख्त रुख अपनाया। सरकार नहीं चाहती थी कि फिल्म से ऐसा संदेश न जाए कि कोई भी कानून अपने हाथ में ले सकता है। हालांकि, रमेश सिप्पी अड़े रहे, मगर फिल्म निर्माता रहे उनके पिता जीपी सिप्पी ने इसे लेकर उन्हें समझाया, तब जाकर वह माने। फिल्म का क्लाइमेक्स दोबारा शूट हुआ, जिसमें गब्बर को ठाकुर के पैरों से कुचलने से पहले पुलिस पहुंच जाती है और गब्बर को ले जाती है। जब फिल्म का क्लाइमेक्स बदला गया, तब जाकर बात बनी।
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