Saturday, August 9, 2025

'देवदास' से 'सैयारा' तक दर्शकों को पसंद है प्रेम

     लंबे अरसे बाद देखा गया कि किसी प्रेम कहानी ने दर्शकों को इतना ज्यादा प्रभावित किया, कि वे उसमें डूब से गए। अनजान हीरो अहान पांडे और हीरोइन अनीता पड्डा को देखकर थियेटर में युवा दर्शक आंखों से आंसू बहाते दिखाई दिए। ये स्थिति बरसों बाद आई, जब किसी फिल्म ने दर्शकों के दिलों पर इतना असर किया। याद किया जाए, तो प्रेम कहानियों ने हमेशा ही परदे पर जादू किया है। 'देवदास' से शुरू हुई ऐसे कथानक मुगल-ए-आजम, बॉबी, एक दूजे के लिए, हीरो और 'बेताब' से आज तक पसंद किए जाते हैं। खास बात यह भी ऐसी भावनात्मक कहानियों में नए चेहरों को ज्यादा पसंद किया गया। 'सैयारा' इसी श्रृंखला की कड़ी है। 

- हेमंत पाल

    प्यार एक जज़्बात है। किशोर से लेकर अधेड़ व्यक्ति तक को सच्चे प्यार की तलाश होती है। स्वरूप चाहे अलग हो, मगर सच्चा प्यार सबकी चाहत होती है। सिर्फ फिल्म के परदे पर ही नहीं, आम लोगों की जिंदगी में भी प्रेम कहानियां होती है। लेकिन, जब दर्शक उन्हें परदे पर देखता है, तो उसे वो 'लार्जर देन लाइफ' नजर आती हैं। असल में दर्शक फिल्मों के जरिए अपने प्यार के सपनों को पूरा करने की कल्पना करता है। यही वजह है कि फिल्मों में प्रेम कहानियों पर बनी फिल्में ज्यादा पसंद की जाती और बॉक्स ऑफिस पर ऐसी फ़िल्में कमाई का नया रिकॉर्ड बनाती है। दरअसल, सिनेमा में प्रेम कथाओं का इतिहास बेहद समृद्ध और विविधता से भरा रहा है। शुरुआती दौर से आज तक प्रेम, रोमांस और कोमल भावनाओं को प्रमुख विषय के रूप में फिल्माया जाता रहा है, जो दर्शकों की भावनाओं के साथ गहराई से जुड़ता है। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो 1930 से 1950 के दशक में प्रेम कहानियों को सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों के संदर्भ में दर्शाया गया था। उस समय काल में 'देवदास' जैसी फिल्में बनी जिसने प्रेम, त्याग और सामाजिक बंधनों जैसे मसलों को उजागर किया। इस दौर में प्रेम को आदर्शवादी और भावनात्मक रूप से चित्रित किया जाता था। 
    इसके बाद फ़िल्में आजादी की कहानियों में उलझ गई। 1960-70 का दशक फिर प्रेम कहानियों से गुलजार रहा। इस दौरान प्रेम कहानियों में अधिक यथार्थवादी और समकालीन विषयों को शामिल किया गया। 'प्रेम कहानी' और 'लव स्टोरी' जैसी फिल्मों ने प्रेम और व्यक्तिगत संघर्षों के जटिल पहलुओं को दर्शाया। मनोरंजन के साथ इन फिल्मों ने प्रेम, दोस्ती और पारिवारिक रिश्तों के बदलते स्वरूपों पर भी प्रकाश डाला। 1980-90 के दशक की प्रेम कहानियों में संगीत, नृत्य और भावनात्मक दृश्यों का अधिक उपयोग किया गया। 'मैंने प्यार किया' और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' जैसी फिल्मों ने युवा दर्शकों को आकर्षित किया और प्रेम को एक सुखद और आशावादी दृष्टिकोण से चित्रित किया। इन फिल्मों ने प्रेम, दोस्ती, और परिवार के महत्व पर जोर दिया। लेकिन, 2000 के बाद की लव स्टोरी में सामाजिक मुद्दे, अंतर-सांस्कृतिक प्रेम और प्रेम के विभिन्न रूप शामिल किए गए। 'गदर' और 'तेरे नाम' जैसी फिल्मों ने प्रेम, देशभक्ति और सामाजिक संघर्षों के बीच के जटिल संबंधों को उजागर किया। सच्ची घटनाओं पर बनी 'छपाक' जैसी फ़िल्में भी पसंद की गई।  
अनोखा नहीं, पर 'सैयारा' में भावनात्मक मस्का 
      'सैयारा' की सफलता की एक बड़ी वजह यह भी मानी जा सकती है कि दर्शक ओटीटी की उन फिल्मों और वेब सीरीज से ऊब चुके हैं, जिनमें हिंसा और खून खराबा के अलावा कुछ नहीं होता। रणवीर कपूर की 'एनिमल' जैसी फिल्में भी कम नहीं है। ऐसे माहौल में दर्शकों को कुछ अलग से मनोरंजन की जरुरत थी, जिसे 'सैयारा' ने काफी हद तक पूरा किया। देखा जाए तो फिल्म के कथानक में कोई नयापन नहीं है, जो दर्शकों को बांधकर रखे। ये फिल्म दक्षिण कोरिया की 2004 में आई फिल्म ;ए मोमेंट टू रिमेंबर' का अनऑफिशियल अडॉप्टेशन है। इसी कहानी पर 2008 में अजय देवगन की फिल्म 'मैं, तुम और हम' आ चुकी है। इसमें काजोल का किरदार अल्जाइमर से पीड़ित होता है। इस फिल्म से प्रभावित 'सैयारा' की कहानी लिखते समय ध्यान रखा गया कि खून खराबा से ऊबे दर्शकों को कैसे भावनात्मक तरीके से रुलाया जाए। नायक और नायिका में तालमेल भी मुश्किल से बनता है, पर जब दोनों एक-दूसरे की पीड़ा को समझते हैं, तो जुड़ जाते हैं। शराबी बाप का परेशान बेटा और अल्जाइमर की मरीज लड़की में नजदीकी बढ़ जाती है और इमोशनल दर्शक फिल्म को हिट करा देते हैं।    
'सैयारा' ने बदला दर्शकों का मूड  
    आज के दौर में प्रेम कथा की नई परिभाषा रची है फिल्म 'सैयारा' ने। बिना प्रचार के चुपके से आई नए कलाकारों की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई का नया कीर्तिमान रच दिया। देखा जाए, तो फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। फिर भी इस फिल्म में ऐसा क्या है, जो इसने इतनी सफलता और लोकप्रियता दी। 'सैयारा' की नई जोड़ी अहान पांडे और अनीता पड्डा में दर्शकों को पेड़ की नई कोपल सा अहसास हुआ। इसी ताजगी ने 'सैयारा' को सफलता दिलाई। हिंदी सिनेमा खुद लगभग सवा सौ साल की यात्रा पूरी कर चुका है।
     देखा जाए तो इन सालों में दर्शकों को हमेशा से युवा सितारों की चाहत रही, जो बड़े परदे के जरिए उनके दिलों को धड़काए रखे और ताजगी का अहसास कराए। लेकिन, सिनेमा की बाल्यावस्था के दौरान हिंदी सिनेमा को ऐेसे सितारों ने धड़काया, जो खुद तो जवानी की दहलीज पार कर चुके थे। याद कीजिए उस दौर के उन हीरो को जो कहीं से युवा दिखाई नहीं देते थे। फिर भी दर्शक उनके आकर्षण में बंधे रहे। इसलिए कि तब समाज में सिनेमा को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। इसलिए सभ्य समाज के कम ही लोग इससे जुड़ पाए थे। जो जुड़े वे भी, वह अपनी जवानी को पार कर चुके थे। 
लव स्टोरी के जरिए नए चेहरों का आगाज
    सिनेमा में प्रेम कहानियां वाली फिल्मों में नए चेहरों को सामने लाने की एक परंपरा सी रही है। इतिहास गवाह है कि फिल्मों में नई उम्र की नई फसल लगाने के लिए प्यार की खेती सबसे ज्यादा उपजाऊ रहती है। फिर चाहे वह बॉबी (ऋषि कपूर-डिंपल कपाड़िया), ट्विंकल खन्ना-बॉबी देओल (बरसात), कुमार गौरव-विजयता पंडित (लव स्टोरी), संजय दत्त-टीना मुनीम (रॉकी),सनी देयोल-अमृता सिंह (बेताब), कमल हासन-रति अग्निहोत्री (एक दूजे के लिए), आमिर खान (कयामत से कयामत तक) हो या सलमान खान-भाग्यश्री (मैंने प्यार किया) हो। 
     ये सभी पहली बार परदे पर आए थे। अजय देवगन-मधुश्री (फूल और कांटे), रितिक रोशन-अमीषा पटेल (कहो ना प्यार है), राहुल रॉय-अनु अग्रवाल (आशिकी), शाहिद कपूर-अमृता राव (इश्क-विश्क), दीपिका पादुकोण-शाहरुख़ खान (ओम शांति ओम), इमरान खान (जाने तू या जाने ना), रणबीर सिंह-अनुष्का सिंह (बैंड बाजा बारात), आलिया भट्ट-सिद्धार्थ-वरुण (स्टूडेंट ऑफ द ईयर) आदि भी नए चेहरे थे।
ये हैं परदे की अमर प्रेम कहानियां
    प्रेम कहानियों के मामले में फिल्म इंडस्ट्री हमेशा से अमर रहा है। 'मुगल-ए-आजम' और 'देवदास' से लगाकर 'सैयारा' तक हर बार प्यार के रूहानी जज्बात को दर्शकों ने पसंद कर अपने दिलों में बसाया। हिंदी फिल्मों की अमर कही जाने वाली प्रेम कहानियों की फेहरिस्त बहुत लंबी और समृद्ध है। मुगल-ए-आजम, आवारा, कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, पाकीजा, कश्मीर की कली, आराधना, सिलसिला, दिल है कि मानता नहीं, साजन, दिल, उमराव जान, 1942 ए लव स्टोरी,दिलवाले, दुल्हनिया ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है, रंगीला, कल हो न हो, जब वी मेट जैसी फिल्मों के बाद फिल्मों में यंग जनरेशन के प्यार को परिभाषित करने के लिए प्रेम कथाएं रची गई। जिसमें हीरो, रहना है तेरे दिल में, बचना ऐ हसीनों, सलाम नमस्ते, लव आजकल, ये जवानी है दीवानी, वेक अप सिड, अजब प्रेम की गजब कहानी, रॉकस्टार, बर्फी, टू स्टेट्स, आशिकी टू,कॉकटेल, शुद्ध देसी रोमांस, तनु वेड्स मनु, मसान, तमाशा, ऐ दिल है मुश्किल, बरेली की बर्फी जैसी कई फिल्में रही जिनकी गिनती तो ख़त्म होने से रही। 
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विशाल रूप में बड़े परदे पर फिर अवतरित होंगे 'राम'

     हिंदी सिनेमा में 'रामकथा' और 'महाभारत' दो ऐसे पौराणिक प्रसंग हैं, जो फिल्म इतिहास में दर्शकों के सबसे पसंदीदा विषय रहे। फिल्म निर्माण के शुरुआती दौर में भी सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म रामायण पर आधारित 'लंका दहन ही थी। इसके बाद भी राम, सीता, हनुमान और रावण इन चार पात्रों पर केंद्रित कथानक हर दशक में फ़िल्में बनती और पसंद की जाती रही। इसी एक कथा को कई बार अलग-अलग प्रसंग जरिए परदे पर उतारा गया। सिर्फ बड़े परदे पर ही नहीं, छोटे परदे पर भी राम-रावण कथा कई बार फिल्माई गई। अब बड़े परदे पर राम कथा को लेकर सबसे भव्य और महंगा प्रयोग हो रहा है। बताते हैं कि 400 करोड़ के बजट पर दो भागों में 'रामायणम' नाम से बड़े कलाकारों को लेकर फिल्म बनाई जा रही है। 
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- हेमंत पाल

     धार्मिक कथाओं में हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय पात्र हैं भगवान राम। सवा सौ साल पहले सिनेमा के शैशव काल में फिल्मकारों ने रामकथा के सहारे ही अपनी नैया पार लगाई थी। क्योंकि, तब माइथोलॉजिकल कथाओं के जरिए ही दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाया जाता था। यही वजह है कि भगवान राम की कथा को जनता तक पहुंचाने में सिनेमा का योगदान को बहुत बड़ा माना जाता है। बड़े परदे पर राम जी कि कथा का सिलसिला उस दौर में ही शुरू हो गया था, जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुई और उनमें आवाज नहीं होती थी। हिंदी सिनेमा के पुरोधा कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने मूक फिल्मों के दौर में 1917 में ‘लंका दहन’ से राम नाम का जो पौधा लगाया था, उसे जीवी साने ने 1920 में ‘राम जन्म’ से आगे बढ़ाया। फिर वी शांताराम ने 1932 में ‘अयोध्या का राजा’ से इस परंपरा को गति दी, तो विजय भट्ट ने 1942 में ‘भरत मिलाप’ और 1943 में ‘राम राज्य’ से इसे सिनेमा के लिए एक आसान और दर्शकों का पसंदीदा विषय बना दिया।
     बताते हैं कि दादासाहब ने जब सिनेमा हॉल में 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' (1906) देखी, तो स्क्रीन पर जीसस के चमत्कार देखकर उन्हें लगा कि इसी तरह भारतीय देवताओं राम और कृष्ण की कहानियां भी परदे पर आ सकती हैं। इसी विचार के साथ उन्होंने 'मूविंग पिक्चर्स' के बिजनेस में कदम रखा था। भारतीय माइथोलॉजी पर आधारित 'राजा हरिश्चंद्र' बनाने के बाद दादा साहब ने अपनी दूसरी फिल्म की कहानी के लिए 'रामकथा' को चुना। सिनेमा में इस कथानक को उतारने की ये पहली कोशिश ‘लंका दहन’ जबरदस्त कामयाब हुई और बाद के सालों में इसने, हिंदी फिल्मों से लेकर साउथ तक के कई फिल्ममेकर्स को इस तरह की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 
     देखा गया कि फिल्म इतिहास के हर दशक में किसी न किसी रूप में राम अवतरित होते रहे हैं। शुरुआती दिनों में ‘अयोध्या चा राजा’ ने टॉकीजों में दर्शकों की श्रद्धा बरसाकर इस परंपरा को बढ़ाया। कहा जा सकता है कि सिनेमा में कोई चले या नहीं, राम का नाम हमेशा अपना असर दिखाता रहा। इसके बाद 1961 में बाबूभाई मिस्त्री की 'संपूर्ण रामायण' ने फिर दर्शकों को टॉकीज में सियाराम बुलवा दिया था। इस फिल्म में रावण और हनुमान को हवा में उड़ता दिखाकर, लंका दहन और राम-रावण युद्ध के युद्ध के दृश्य फिल्माकर दर्शकों को नया अनुभव दिया था। रावण की भूमिका बीएम व्यास ने रावण बनकर अपने आपको उस ज़माने का चर्चित खलनायक साबित किया था, जो आसान बात नहीं थी। राम, रामायण और हनुमान पर केंद्रित फिल्मों के इतिहास के बाद अब एक बार फिर बड़े परदे पर राम भगवान अवतरित हो रहे हैं। सिनेमा में राम को लेकर कई बार प्रयोग हुए हैं। राम, सीता और रावण की कहानी बरसों से सुनी और सुनाई जाती रही है। फिर भी इसे लेकर दर्शकों की उत्सुकता बनी है। इसलिए कि उसका प्रस्तुतीकरण हमेशा ही चौंकाने वाला रहा।
     पौराणिक कथाओं में 'रामायण' और 'महाभारत' दो ऐसे पौराणिक प्रसंग हैं, जो फिल्म निर्माण की शुरुआत से अब तक फिल्मकारों के सबसे पसंदीदा विषय रहे। शुरुआती दौर में भी रामायण पर फिल्म बनी थी। बाद में भी राम कथा को कई बार अलग-अलग एंगल से परदे पर दिखाया जाता रहा। छोटे परदे पर भी राम-रावण की कथा फिल्माई गई। अब बड़े परदे पर राम कथा को लेकर सबसे भव्य और खर्चीला प्रयोग हो रहा है। नितेश तिवारी की 4000 करोड़ की फिल्म 'रामायणम' को लेकर क्रेज़ होने का कारण इसके कलाकारों के साथ इसका भव्य प्रस्तुतीकरण भी है। इसमें राम का किरदार रणबीर कपूर और रावण का दक्षिण के सितारे यश निभा रहे हैं। सनी देओल जैसे कलाकार का हनुमान का किरदार निभाना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है।
    इस 'रामायणम' फिल्म की पहली झलक को जिस तरह पसंद किया गया, वो इस बात का प्रमाण है, कि इस फिल्म के निर्माण का स्तर क्या होगा। इसके रिलीज हुए पहले टीजर में रणबीर कपूर और यश की पहली झलक देखने को मिली। दो हिस्सों में बनने वाली इस फिल्म का पहला हिस्सा अगले साल (2026) में परदे पर आएगा। नितेश तिवारी की इस फिल्म के बजट ने हर किसी को हैरानी में डाल दिया। फिल्म के प्रोड्यूसर नमित मल्होत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि इस मोस्ट अवेटेड माइथोलॉजिकल फिल्म का बजट 4000 करोड़ रुपए है। ये भारत की अब तक की सबसे महंगी फिल्म होगी। फिल्म से इतनी कमाई हो सकेगी या नहीं अभी इस बारे में संशय है। वैसे बॉक्स ऑफिस का फार्मूला है, कि किसी भी फिल्म को हिट होने के लिए उसे अपनी लागत से दोगुना कमाई करना होती है। यदि 'रामायणम' के बारे में बात की जाए को दोनों पार्ट्स को हिट होने के लिए 8000 करोड़ रुपए कमाना पड़ेंगे। लेकिन, जिस तरह फिल्म का निर्माण हो रहा है, ये आंकड़ा बड़ा नहीं लग रहा।  
    'रामायणम' को इतने बड़े खर्च से बनाने का फैसला इसलिए आश्चर्य की बात है, कि फिल्म के मूल कथानक से देश का बच्चा बच्चा वाकिफ है। राम-रावण युद्ध का हर दृश्य दर्शक कई बार फिल्मों और सीरियल में देख चुके हैं। उसी को फिर फिल्माया जाएगा, वो भी बिना किसी बदलाव के। क्योंकि, भगवान राम जैसे किरदार की लोकप्रियता का आलम यह है कि फिल्म जगत के 112 साल के इतिहास में हर दशक में सिनेमा के परदे व टीवी पर किसी-न-किसी रूप में राम अवतरित होते रहे हैं। गिनती लगाई जाए, तो अभी तक 50 से ज्यादा फिल्में और 18 टीवी शो इसी रामकथा पर बन चुके हैं। इनमें 17 हिंदी में और तेलुगु में सबसे ज्यादा 18 फिल्में बनी। अभी तक देश में अलग-अलग भाषाओं में जितनी भी पौराणिक फिल्में बनी, उनमें राम-रावण युद्ध पर बनी फिल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई। याद किया जाए तो रामानंद सागर के सीरियल 'रामायण' ने तो दर्शकों की श्रद्धा के रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। 1980 व 1990 का दशक इसी सीरियल के नाम रहा।
        रामकथा पर आधारित अधिकांश फिल्मों ने अच्छी कमाई की। 1917 में दादा साहब फाल्के के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘लंका दहन’ (1917) देखने वाले दर्शकों की सिनेमाघर के बाहर कतार लगी रहती थी। मूक फिल्मों के दौर में भी रामकथा पर बनी 'लंका दहन' ऐसी फिल्म आई थी, जिसने दर्शकों की लाइन लगवाई थी। मुंबई के थिएटर्स में ये फिल्म 23 हफ्तों तक चली। इससे ऐसी कमाई हुई थी कि पैसों से लदे बोरे बैलगाड़ी पर प्रोड्यूसर के घर भेजे जाते थे। 'लंका दहन' में अन्ना सालुंके ने सिनेमा के इतिहास का पहला डबल रोल किया था। उन्होंने इस फिल्म में राम के साथ सीता का भी किरदार निभाया था। उन्होंने फिल्म में राम व सीता दोनों के किरदारों को अपने बेहतरीन अभिनय से जीवंत बनाया था। क्योंकि, उस दौर में महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था। इसलिए महिलाओं के किरदार भी पुरुष निभाया करते थे। इससे पहले दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ में अन्ना सालुंके तारामती का किरदार निभा चुके थे। यही वजह रही कि फाल्के ने सीता की भूमिका भी उन्हीं को सौंपी। 
उस दौर में पूजे जाने लगे थे प्रेम अदीब  
    मूक फिल्मों के समय में राम का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं में 'राम राज्य' के हीरो प्रेम अदीब को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता रहा। उनके फोटो पर भगवान की तरह माला चढ़ाई जाती थी। इसी तरह 'संपूर्ण रामायण' में राम का किरदार निभाकर महिपाल भी चर्चित हुए। फिल्मों के लंबे दौर के बाद दूरदर्शन पर 'रामायण' सीरियल में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल को तो देशभर में राम के अवतार के रूप में ही देखा जाने लगा था। आज भी उनकी यही छवि है। 1997 में प्रसारित लोकप्रिय सीरियल 'जय हनुमान' में अभिनेता सिराज मुस्तफा खान ने भगवान राम का किरदार निभाया था। उन्हें भी लोगों ने पसंद किया। मूक फिल्मों के दौर में तो खलील अहमद भी 1920 से 1940 तक सक्रिय रहे। उन्होंने सती पार्वती, महासती अनुसुया, रुक्मिणी हरण, लंका नी लाडी और द्रौपदी जैसी फिल्मों में कृष्ण व राम के किरदार निभाए थे। 
   वर्ष 1942 में आयी भरत मिलाप और वर्ष 1943 में रिलीज हुई राम राज्य में प्रेम अदीब ने ही प्रभु राम की भूमिका निभाई थी। इन दोनों फिल्मों ने उनको उस दौर का एक सफल अभिनेता बनाया था। उनकी निभाई राम की भूमिका लोगों को बेहद पसंद आई। यही वजह रही कि इसके बाद रामायण की कथा पर बनी 6 फिल्मों रामबाण (1948), राम विवाह (1949), रामनवमी (1956), राम हनुमान युद्ध (1957), राम लक्ष्मण (1957), राम भक्त विभीषण (1958) जैसी फिल्मों में वे राम बने। प्रेम अदीब ने तो 'राम राज्य' की शूटिंग के दौरान नॉनवेज तक खाना छोड़ दिया था। 
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'जय संतोषी मां' की चमत्कारिक सफलता के 50 साल

   हिंदी फिल्मों में जब भी धर्म का जिक्र हुआ, दर्शकों ने उस फिल्म को हाथों-हाथ लिया! भगवान की शरण में फिल्मों ने कई बार बड़ी सफलता का स्वाद चखा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में आई 'रामराज्य' और उसके बाद आई फिल्मों में जब भी परदे पर भगवान उतरे, फ़िल्मकार को उनका आशीर्वाद जरूर मिला! यही वजह है कि फिल्म इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा कमाई का रिकॉर्ड भी एक धार्मिक फिल्म 'जय संतोषी माँ' के नाम है। इसकी लागत चंद लाख थी, पर कमाई करोड़ों में रही। लागत और कमाई का यही अंतर आज भी रिकॉर्ड है। फिल्म ने धार्मिक आस्था का ऐसा माहौल बनाया था कि सिनेमा हॉल में लोग चप्पल उतारकर आते थे। जब परदे पर संतोषी माता की आरती होती, तो दर्शक खड़े हो जाते थे और फिर सिक्के चढ़ाते। फिल्म इतिहास में आस्था का ऐसा ज्वार कभी नहीं देखा गया!
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- हेमंत पाल

       वैसे तो 1975 के साल को अमिताभ बच्चन के साल के तौर पर याद किया जाता है। क्योंकि, इस साल उनकी दो फिल्में 'शोले' और 'दीवार' सबसे ज्यादा कमाई करने वाली टॉप पांच फिल्मों में शामिल रहीं। दर्शकों को लगा था कि 'जंजीर' से शुरू हुआ ये सिलसिला लंबा खिंचेगा। लेकिन, तभी रिलीज हुई 'जय संतोषी' मां ने फिल्म पंडितों के समीकरण बदल दिए। जबकि, थिएटर वाले भूल चुके थे, कि कोई नई फिल्म उन्होंने बीते शुक्रवार लगाई है। फिल्म ने पहले शो में 56 रुपए  दूसरे में 64 और शाम के शो की कमाई रही 98 रुपए रही थी। नाइट शो का कलेक्शन मुश्किल से सौ रुपए हुआ था। लेकिन, सोमवार की सुबह जो हलचल शुरू हुई, उससे सब चमत्कृत थे। जहां भी ये फिल्म लगी थी, वहां दर्शक टूट पड़े। थियेटर की सफाई करने वाले शो के बीच में उछाली गई चिल्लर बटोर कर मालामाल हो गए। 'जय संतोषी मां' ने जो किया उसे चमत्कार ही कहा जाना चाहिए। इस फिल्म ने अपनी लागत का कई गुना बिजनेस करके 'शोले' जैसी फिल्म को टक्कर दी थी! जिस दिन 'शोले' रिलीज हुई, उसी दिन 'जय संतोषी माँ' फिल्म भी रिलीज हुई थी। लेकिन, दोनों ही फिल्मों के कथानक में विरोधाभास था। 'शोले' में हिंसा की भरमार थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' के जरिए आस्था और विश्वास का संदेश था। दोनों फिल्मों का मजेदार तथ्य यह था कि 'जय संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' के मुकाबले अधिक था! 'शोले' में गब्बर सिंह की गोलियां खून बिखेर रही थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' में दर्शक सिनेमाघर में आरती गा रहे थे। 
    आज फिर संतोषी माँ का जिक्र इसलिए कि इस फिल्म को रिलीज हुए 15 अगस्त को 50 साल पूरे हो गए। 'जय संतोषी माँ' अपने समय काल में जबरदस्त चली थी! दर्शकों ने इसे सिर्फ फिल्म की तरह नहीं लिया, बल्कि सिनेमाघर को मंदिर की तरह पूजने भी लगे थे। दर्शक हॉल में चप्पल-जूते पहनकर नहीं आते थे! श्रद्धा इतनी उमड़ती थी, कि आरती के वक़्त लोग सीट से खड़े होकर तालियां बजाते और सिक्के चढ़ाने लगते थे! गांवों और शहरों में हर जगह श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा था। हर शुक्रवार महिलाएं संतोषी माता का व्रत करने लगी! मंदिरों में संतोषी माता की मूर्ति स्थापित की जाने लगी थी। संतोषी माता की व्रत कथा सुनी और सुनाई जाने लगी! गुड़-चने का प्रसाद बंटने लगा। लड़कियों से लेकर बूढ़ी महिलाएं तक शुक्रवार व्रत रखकर उद्यापन करने लगी थी! 
धार्मिक आस्था का अद्भुत ज्वार 
    इस फिल्म के बाद भी संतोषी माता को लेकर आस्था का ज्वार कम नहीं हुआ! यही कारण है कि पांच दशक बाद भी इस फिल्म की सफलता और उससे जुड़े किस्से भूले नहीं। फिल्म इंडस्ट्रीज में एक्शन के साथ-साथ धर्म और ईश्वर के चमत्कारों को दिखाने वाली फिल्मों का हमेशा ही वर्चस्व रहा है। 'बजरंगी भाईजान' का हीरो सलमान खान को हनुमान भक्त बताया गया। ‘अग्निपथ’ रितिक रोशन गणेश का गाना भगवान गणेश को समर्पित था। शाहरुख खान ने भी जब ‘डॉन’ का रीमेक बनाया तो गणेश की स्तुति की! अमिताभ बच्चन की तो करीब सभी हिट फिल्मों में भगवान या अल्लाह का आशीर्वाद साथ चला। कुली, अमर-अकबर- एंथनी, सुहाग हो या ‘दीवार’ सभी में आस्था का कोई न कोई तड़का लगा है। अक्षय कुमार ने भी जब ‘खिलाड़ियों के खिलाड़ी’ में जय शेरावालिए तेरा शेर ... गाया तो धूम मच गई। जब बॉलीवुड में हर तरफ भगवानों का ही बोलबाला है। ऐसे में 'संतोषी माँ' का जादू आज भी देश के कई इलाकों में सिर चढ़कर बोलता है। 
चप्पल उतारकर आते थे दर्शक 
   जब यह फिल्म रिलीज हुई, सिनेमा हॉल के बाहर एक अनोखा नजारा देखने को मिलता था। आसपास के गांवों और कस्बों से महिलाएं, जिनमें ज्यादातर बुजुर्ग होती थीं, यह फिल्म देखने आती थी। हॉल के अंदर आने से पहले कई महिलाएं चप्पल बाहर ही उतार देती थी। वे स्क्रीन पर चल रही कहानी को श्रद्धा और आश्चर्य के साथ देखती थीं, जैसे वे किसी सत्संग में शामिल हों। ‘जय संतोषी मां' उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक फिल्म नहीं, बल्कि जीवन को प्रभावित करने वाला प्रसंग था। यह सब देश के सैकड़ों छोटे शहरों और गांवों में महीनों तक दोहराया गया। पहली बार निर्देशक बने विजय शर्मा की इस फिल्म ने जो इतिहास बनाया, वो तक टूटा नहीं। 1975 के ट्रेड गाइड की सालाना रिपोर्ट में ‘जय संतोषी मां' और ‘शोले' को ‘दीवार' से ऊपर ब्लॉकबस्टर का दर्जा दिया गया था। कई शहरों में इस फिल्म ने गोल्डन और सिल्वर जुबली मनाई। 'फिल्म इन्फॉर्मेशन पत्रिका' के अनुसार, बंबई के मलाड में महिलाओं के लिए सुबह 9 बजे का अलग शो शुरू किया गया था। इस फिल्म का असर सिर्फ कमाई तक सीमित नहीं था। 
    मूक फिल्मों के दौर से 1960 तक, बंबई के सिनेमा बाजार में धार्मिक फिल्में लगातार बनती रही। पढ़े-लिखे शहरी लोग इनका मजाक उड़ाते थे, लेकिन आम लोगों में इनका बड़ा प्रशंसक वर्ग था। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट हिंदी में लिखे गए थे। 1970 के दशक में धार्मिक फिल्मों का निर्माण कम हो गया। 1973 में ‘संपूर्ण रामायण' को छोड़कर ज्यादातर फिल्में असफल रहीं। सतराम रोहिरा की फिल्म ‘जय संतोषी मां' ने इस कमजोर पड़ते बाजार में नई जान फूंक दी थी। फिल्म में संतोषी माता का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा ने एक इंटरव्यू में अपना अनुभव साझा किया था। इसके मुताबिक मुंबई के बांद्रा में माइथोलॉजिकल फिल्मों का मार्केट नहीं था, वहां ऐसी फिल्में नहीं चलती थीं। लेकिन, ‘जय संतोषी मां’ उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली।
फिल्म की सफलता में महिलाओं का हाथ 
    इस फिल्म को सुपरहिट बनाने में महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ रहा। दर्शक महिलाएं ही थीं। इसलिए उनके लिए कई सिनेमाघरों ने महिला शो रखे। ‘मैं तो आरती उतारू रे संतोषी माता की’ भजन आने पर औरतें आरती की थाल तैयार रखतीं. उषा मंगेशकर ने इस गाने को गाया था और सी अर्जुन ने संगीत दिया था। आगे चलकर इसी गाने को मंदिरों में संतोषी माता की आरती के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा। परदे की तरफ फूल उछालती, सिक्के फेंकती, गरबा करतीं महिलाएं सिनेमाघरों के बाहर अपनी चप्पल उतारकर आती थी। 
     फिल्म खत्म होने के बाद जब सफाई कर्मचारी हॉल में आते, तो देखते कि परदे के सामने हजारों सिक्के पड़े है। ‘जय संतोषी मां’ की लागत को लेकर अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं। कोई कहता है कि इसका बजट तीन से साढ़े तीन लाख रुपए के बीच था। कोई बताता है कि फिल्म 11 लाख रुपए में बनी तो कोई 15 लाख मानता है। फिल्म के बजट को लेकर कोई एक आंकड़ा नहीं मिलता। लेकिन, बताया जाता है कि इसे कुछ लाख के सीमित बजट में बनाया गया था, पर फिल्म ने पैसों के अंबार लगा दिए। ट्रेड रिपोर्ट्स के मुताबिक ‘जय संतोषी माता’ ने 5 से 10 करोड़ रुपए के बीच की कमाई की थी। 
देवी की लोकप्रियता फिल्म से कैसे जुड़ी 
      ये बात उन दिनों की है, जब जोधपुर में मंडोर के पास संतोषी मां का एक मंदिर हुआ करता था। लोगों को पता भी नहीं था, कि ऐसी कोई देवी पुराणों में भी हैं। खुद इस फिल्म में संतोषी मां का किरदार करने वाली अभिनेत्री अनीता गुहा को नहीं पता था कि ऐसी कोई देवी हैं। जब ये फिल्म हिट हो गई, तो ये चर्चा चल पड़ी कि ये फिल्म बनाने का आइडिया किसे और कैसे आया। क्योंकि, पहले संतोषी माता को सीमित क्षेत्र में पूजा जाता था। विंडी डोनियर की किताब 'द हिंदू' के मुताबिक 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में महिलाएं संतोषी माता की पूजा करती थी। उनके नाम पर 16 शुक्रवार के व्रत रखे जाते। 
     फिल्म बनाने के आइडिया पर अलग-अलग दावे हैं। संतोषी माता के काफी गिने-चुने भक्त थे, उनमें से एक थीं निर्देशक विजय शर्मा की पत्नी। उनकी पत्नी ने विजय को प्रोत्साहित किया कि वे संतोषी माता पर फिल्म बनाएं, ताकि लोगों को उनके बारे में पता चले। लेकिन, फिल्म में बिरजू का किरदार निभाने वाले आशीष कुमार ऐसा नहीं मानते। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि फिल्म का आइडिया उन्हें आया था। उनकी कोई संतान नहीं थीं। मनौती लेकर पत्नी ने 16 शुक्रवार के व्रत रखने शुरू किए। 11वें शुक्रवार तक उनकी पत्नी प्रेग्नेंट थीं। उन दोनों के यहां एक बेटी हुई। इंटरव्यू के मुताबिक, ‘संतोषी मां’ का आइडिया लेकर वे प्रोड्यूसर सतराम रोहिरा के पास गए। सतराम सिंधी फिल्मों के लिए गाते थे, लेकिन उन दिनों वो सिर्फ फिल्में प्रोड्यूस कर रहे थे। आशीष के मुताबिक सतराम को उनका आइडिया पसंद आया और फिल्म के लिए राज़ी हो गए। 
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