Saturday, August 9, 2025

'जय संतोषी मां' की चमत्कारिक सफलता के 50 साल

   हिंदी फिल्मों में जब भी धर्म का जिक्र हुआ, दर्शकों ने उस फिल्म को हाथों-हाथ लिया! भगवान की शरण में फिल्मों ने कई बार बड़ी सफलता का स्वाद चखा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में आई 'रामराज्य' और उसके बाद आई फिल्मों में जब भी परदे पर भगवान उतरे, फ़िल्मकार को उनका आशीर्वाद जरूर मिला! यही वजह है कि फिल्म इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा कमाई का रिकॉर्ड भी एक धार्मिक फिल्म 'जय संतोषी माँ' के नाम है। इसकी लागत चंद लाख थी, पर कमाई करोड़ों में रही। लागत और कमाई का यही अंतर आज भी रिकॉर्ड है। फिल्म ने धार्मिक आस्था का ऐसा माहौल बनाया था कि सिनेमा हॉल में लोग चप्पल उतारकर आते थे। जब परदे पर संतोषी माता की आरती होती, तो दर्शक खड़े हो जाते थे और फिर सिक्के चढ़ाते। फिल्म इतिहास में आस्था का ऐसा ज्वार कभी नहीं देखा गया!
000   

- हेमंत पाल

       वैसे तो 1975 के साल को अमिताभ बच्चन के साल के तौर पर याद किया जाता है। क्योंकि, इस साल उनकी दो फिल्में 'शोले' और 'दीवार' सबसे ज्यादा कमाई करने वाली टॉप पांच फिल्मों में शामिल रहीं। दर्शकों को लगा था कि 'जंजीर' से शुरू हुआ ये सिलसिला लंबा खिंचेगा। लेकिन, तभी रिलीज हुई 'जय संतोषी' मां ने फिल्म पंडितों के समीकरण बदल दिए। जबकि, थिएटर वाले भूल चुके थे, कि कोई नई फिल्म उन्होंने बीते शुक्रवार लगाई है। फिल्म ने पहले शो में 56 रुपए  दूसरे में 64 और शाम के शो की कमाई रही 98 रुपए रही थी। नाइट शो का कलेक्शन मुश्किल से सौ रुपए हुआ था। लेकिन, सोमवार की सुबह जो हलचल शुरू हुई, उससे सब चमत्कृत थे। जहां भी ये फिल्म लगी थी, वहां दर्शक टूट पड़े। थियेटर की सफाई करने वाले शो के बीच में उछाली गई चिल्लर बटोर कर मालामाल हो गए। 'जय संतोषी मां' ने जो किया उसे चमत्कार ही कहा जाना चाहिए। इस फिल्म ने अपनी लागत का कई गुना बिजनेस करके 'शोले' जैसी फिल्म को टक्कर दी थी! जिस दिन 'शोले' रिलीज हुई, उसी दिन 'जय संतोषी माँ' फिल्म भी रिलीज हुई थी। लेकिन, दोनों ही फिल्मों के कथानक में विरोधाभास था। 'शोले' में हिंसा की भरमार थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' के जरिए आस्था और विश्वास का संदेश था। दोनों फिल्मों का मजेदार तथ्य यह था कि 'जय संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' के मुकाबले अधिक था! 'शोले' में गब्बर सिंह की गोलियां खून बिखेर रही थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' में दर्शक सिनेमाघर में आरती गा रहे थे। 
    आज फिर संतोषी माँ का जिक्र इसलिए कि इस फिल्म को रिलीज हुए 15 अगस्त को 50 साल पूरे हो गए। 'जय संतोषी माँ' अपने समय काल में जबरदस्त चली थी! दर्शकों ने इसे सिर्फ फिल्म की तरह नहीं लिया, बल्कि सिनेमाघर को मंदिर की तरह पूजने भी लगे थे। दर्शक हॉल में चप्पल-जूते पहनकर नहीं आते थे! श्रद्धा इतनी उमड़ती थी, कि आरती के वक़्त लोग सीट से खड़े होकर तालियां बजाते और सिक्के चढ़ाने लगते थे! गांवों और शहरों में हर जगह श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा था। हर शुक्रवार महिलाएं संतोषी माता का व्रत करने लगी! मंदिरों में संतोषी माता की मूर्ति स्थापित की जाने लगी थी। संतोषी माता की व्रत कथा सुनी और सुनाई जाने लगी! गुड़-चने का प्रसाद बंटने लगा। लड़कियों से लेकर बूढ़ी महिलाएं तक शुक्रवार व्रत रखकर उद्यापन करने लगी थी! 
धार्मिक आस्था का अद्भुत ज्वार 
    इस फिल्म के बाद भी संतोषी माता को लेकर आस्था का ज्वार कम नहीं हुआ! यही कारण है कि पांच दशक बाद भी इस फिल्म की सफलता और उससे जुड़े किस्से भूले नहीं। फिल्म इंडस्ट्रीज में एक्शन के साथ-साथ धर्म और ईश्वर के चमत्कारों को दिखाने वाली फिल्मों का हमेशा ही वर्चस्व रहा है। 'बजरंगी भाईजान' का हीरो सलमान खान को हनुमान भक्त बताया गया। ‘अग्निपथ’ रितिक रोशन गणेश का गाना भगवान गणेश को समर्पित था। शाहरुख खान ने भी जब ‘डॉन’ का रीमेक बनाया तो गणेश की स्तुति की! अमिताभ बच्चन की तो करीब सभी हिट फिल्मों में भगवान या अल्लाह का आशीर्वाद साथ चला। कुली, अमर-अकबर- एंथनी, सुहाग हो या ‘दीवार’ सभी में आस्था का कोई न कोई तड़का लगा है। अक्षय कुमार ने भी जब ‘खिलाड़ियों के खिलाड़ी’ में जय शेरावालिए तेरा शेर ... गाया तो धूम मच गई। जब बॉलीवुड में हर तरफ भगवानों का ही बोलबाला है। ऐसे में 'संतोषी माँ' का जादू आज भी देश के कई इलाकों में सिर चढ़कर बोलता है। 
चप्पल उतारकर आते थे दर्शक 
   जब यह फिल्म रिलीज हुई, सिनेमा हॉल के बाहर एक अनोखा नजारा देखने को मिलता था। आसपास के गांवों और कस्बों से महिलाएं, जिनमें ज्यादातर बुजुर्ग होती थीं, यह फिल्म देखने आती थी। हॉल के अंदर आने से पहले कई महिलाएं चप्पल बाहर ही उतार देती थी। वे स्क्रीन पर चल रही कहानी को श्रद्धा और आश्चर्य के साथ देखती थीं, जैसे वे किसी सत्संग में शामिल हों। ‘जय संतोषी मां' उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक फिल्म नहीं, बल्कि जीवन को प्रभावित करने वाला प्रसंग था। यह सब देश के सैकड़ों छोटे शहरों और गांवों में महीनों तक दोहराया गया। पहली बार निर्देशक बने विजय शर्मा की इस फिल्म ने जो इतिहास बनाया, वो तक टूटा नहीं। 1975 के ट्रेड गाइड की सालाना रिपोर्ट में ‘जय संतोषी मां' और ‘शोले' को ‘दीवार' से ऊपर ब्लॉकबस्टर का दर्जा दिया गया था। कई शहरों में इस फिल्म ने गोल्डन और सिल्वर जुबली मनाई। 'फिल्म इन्फॉर्मेशन पत्रिका' के अनुसार, बंबई के मलाड में महिलाओं के लिए सुबह 9 बजे का अलग शो शुरू किया गया था। इस फिल्म का असर सिर्फ कमाई तक सीमित नहीं था। 
    मूक फिल्मों के दौर से 1960 तक, बंबई के सिनेमा बाजार में धार्मिक फिल्में लगातार बनती रही। पढ़े-लिखे शहरी लोग इनका मजाक उड़ाते थे, लेकिन आम लोगों में इनका बड़ा प्रशंसक वर्ग था। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट हिंदी में लिखे गए थे। 1970 के दशक में धार्मिक फिल्मों का निर्माण कम हो गया। 1973 में ‘संपूर्ण रामायण' को छोड़कर ज्यादातर फिल्में असफल रहीं। सतराम रोहिरा की फिल्म ‘जय संतोषी मां' ने इस कमजोर पड़ते बाजार में नई जान फूंक दी थी। फिल्म में संतोषी माता का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा ने एक इंटरव्यू में अपना अनुभव साझा किया था। इसके मुताबिक मुंबई के बांद्रा में माइथोलॉजिकल फिल्मों का मार्केट नहीं था, वहां ऐसी फिल्में नहीं चलती थीं। लेकिन, ‘जय संतोषी मां’ उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली।
फिल्म की सफलता में महिलाओं का हाथ 
    इस फिल्म को सुपरहिट बनाने में महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ रहा। दर्शक महिलाएं ही थीं। इसलिए उनके लिए कई सिनेमाघरों ने महिला शो रखे। ‘मैं तो आरती उतारू रे संतोषी माता की’ भजन आने पर औरतें आरती की थाल तैयार रखतीं. उषा मंगेशकर ने इस गाने को गाया था और सी अर्जुन ने संगीत दिया था। आगे चलकर इसी गाने को मंदिरों में संतोषी माता की आरती के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा। परदे की तरफ फूल उछालती, सिक्के फेंकती, गरबा करतीं महिलाएं सिनेमाघरों के बाहर अपनी चप्पल उतारकर आती थी। 
     फिल्म खत्म होने के बाद जब सफाई कर्मचारी हॉल में आते, तो देखते कि परदे के सामने हजारों सिक्के पड़े है। ‘जय संतोषी मां’ की लागत को लेकर अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं। कोई कहता है कि इसका बजट तीन से साढ़े तीन लाख रुपए के बीच था। कोई बताता है कि फिल्म 11 लाख रुपए में बनी तो कोई 15 लाख मानता है। फिल्म के बजट को लेकर कोई एक आंकड़ा नहीं मिलता। लेकिन, बताया जाता है कि इसे कुछ लाख के सीमित बजट में बनाया गया था, पर फिल्म ने पैसों के अंबार लगा दिए। ट्रेड रिपोर्ट्स के मुताबिक ‘जय संतोषी माता’ ने 5 से 10 करोड़ रुपए के बीच की कमाई की थी। 
देवी की लोकप्रियता फिल्म से कैसे जुड़ी 
      ये बात उन दिनों की है, जब जोधपुर में मंडोर के पास संतोषी मां का एक मंदिर हुआ करता था। लोगों को पता भी नहीं था, कि ऐसी कोई देवी पुराणों में भी हैं। खुद इस फिल्म में संतोषी मां का किरदार करने वाली अभिनेत्री अनीता गुहा को नहीं पता था कि ऐसी कोई देवी हैं। जब ये फिल्म हिट हो गई, तो ये चर्चा चल पड़ी कि ये फिल्म बनाने का आइडिया किसे और कैसे आया। क्योंकि, पहले संतोषी माता को सीमित क्षेत्र में पूजा जाता था। विंडी डोनियर की किताब 'द हिंदू' के मुताबिक 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में महिलाएं संतोषी माता की पूजा करती थी। उनके नाम पर 16 शुक्रवार के व्रत रखे जाते। 
     फिल्म बनाने के आइडिया पर अलग-अलग दावे हैं। संतोषी माता के काफी गिने-चुने भक्त थे, उनमें से एक थीं निर्देशक विजय शर्मा की पत्नी। उनकी पत्नी ने विजय को प्रोत्साहित किया कि वे संतोषी माता पर फिल्म बनाएं, ताकि लोगों को उनके बारे में पता चले। लेकिन, फिल्म में बिरजू का किरदार निभाने वाले आशीष कुमार ऐसा नहीं मानते। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि फिल्म का आइडिया उन्हें आया था। उनकी कोई संतान नहीं थीं। मनौती लेकर पत्नी ने 16 शुक्रवार के व्रत रखने शुरू किए। 11वें शुक्रवार तक उनकी पत्नी प्रेग्नेंट थीं। उन दोनों के यहां एक बेटी हुई। इंटरव्यू के मुताबिक, ‘संतोषी मां’ का आइडिया लेकर वे प्रोड्यूसर सतराम रोहिरा के पास गए। सतराम सिंधी फिल्मों के लिए गाते थे, लेकिन उन दिनों वो सिर्फ फिल्में प्रोड्यूस कर रहे थे। आशीष के मुताबिक सतराम को उनका आइडिया पसंद आया और फिल्म के लिए राज़ी हो गए। 
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

No comments: