Wednesday, November 26, 2025

सिनेमा के परदे पर कला और नग्नता के सवाल

- हेमंत पाल 

     फिल्मों में कला और नग्नता के सवाल पर समय-समय पर बड़ा बवाल और बहस छिड़ता रहता है। भारतीय सिनेमा में यह विषय विशेष रूप से संवेदनशील है, जहाँ कलात्मक अभिव्यक्ति, सेंसरशिप और सामाजिक मूल्य आपस में टकराते हैं। भारतीय फिल्मों में नग्नता का चित्रण पश्चिमी सिनेमा की तुलना में बहुत सीमित और रूढ़िवादी है, मुख्यतः भारत की सांस्कृतिक और पारंपरिक विरासत, और सख्त सेंसरशिप के कारण। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड फिल्मों में नग्न और बोल्ड दृश्यों को नियंत्रित करता है। स्पष्ट नग्नता की अनुमति नहीं है और अक्सर फिल्मों को प्रमाणन देने से पहले उनसे ऐसे दृश्य हटाने को कहा जाता है। फिर भी नग्नता, बोल्ड सीन्स या फोटोशूट को लेकर कई बार बड़े सितारे और फिल्में विवादों में आ जाते हैं जैसे आमिर खान की 'पीके' या रणवीर सिंह का फोटोशूट। श्वेता मेनन जैसे कलाकारों पर अश्लीलता फैलाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई तक हो चुकी है। कुछ लोग मानते हैं कि नग्नता भी कला का अभिन्न हिस्सा हो सकती है, क्योंकि मानव शरीर का चित्रण सदियों से चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य में रहा है। दूसरी ओर कई लोगों का मानना है कि फिल्मों में नग्नता महिलाओं के वस्त्र पहनने की आदत, सामाजिक मूल्यों की गिरावट और अपराध को बढ़ावा देती है, और यह 'अश्लीलता' की श्रेणी में आती है। 
     जब कोई दृश्य कब 'कला' है और कब वह अश्लीलता, सामाजिक मानदंडों, संदर्भ और प्रस्तुति की शैली के हिसाब से बदलती रहता है इसका कोई मापदंड नहीं है। भारतीय सेंसर बोर्ड के नियम अस्पष्ट है और कभी-कभी मनमाने से लगते हैं। लेकिन, एक प्रकार के दृश्य किसी फिल्म में पास और कभी भी बैन हो सकते हैं। डिजिटल युग में खुले तौर पर उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय कंटेंट के कारण 'सेंसरशिप' को लेकर नई बहस भी छिड़ी है कि क्या संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलाकारों की स्वतंत्रता बाधित की जा सकती है। फिल्मों में नग्नता का सवाल केवल कलात्मक दृष्टि, अभिव्यक्ति की आज़ादी या सेंसरशिप भर नहीं है, बल्कि यह समाज के नैतिक मूल्यों, सामाजिक प्रगति, सांस्कृतिक बोध और महिलाओं की स्थिति जैसे गहरे सवालों से भी जुड़ा है। हर बार जब कोई फिल्म या दृश्य विवाद में आता है, यह पुराने सवालों को फिर से जीवित कर देता है कि क्या कला के नाम पर सब कुछ जायज है! आखिर कलात्मक नग्नता और अश्लीलता की सीमाएं कौन तय करेगा। इस विषय पर समाज में लगातार मंथन, तर्क-वितर्क और विमर्श की आवश्यकता है, ताकि कला और संवेदनशीलता के बीच संतुलन बना रहे।
    आजादी के कुछ सालों बाद जब देश प्रेम वाली फिल्मों की संख्या घटी, तो फिल्मकारों ने नए विषयों की खोज की! इसके बाद ही नायिका के अंग-प्रत्यंग से दर्शकों को लुभाने के प्रयास शुरू हुए! इस आंधी से राज कपूर व मनोज कुमार जैसे सार्थक फिल्म बनाने वाले निर्माता भी नहीं बच सके। राज कपूर ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' व 'राम तेरी गंगा मैली' में तथा मनोज कुमार ने अपनी लगभग सभी फिल्मों में ग्लैमर, सेक्स व अंग प्रदर्शन को बखूबी से भुनाया। लेकिन, इन दोनों ही फिल्मकारों ने ग्लैमर को बहुत ही कलात्मक ढंग और ऐसे दृश्यों को फिल्माया कि उन पर जिस्म प्रदर्शन का आरोप नहीं लगा! जबकि, दूसरी तरफ हृषिकेश मुखर्जी, गुलजार, श्याम बेनेगल तथा प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की ऐसी जमात थी, जो इस आंधी के बीच भी मकसद पूर्ण फिल्में बनाने में लगे रहे! 
     एक ऐसा दौर भी आया जब ऐसी फ़िल्में खूब बनी। 90 और 2000 के दशक को इसी रूप में जाना जाता है, जब सेक्स और व एक्शन फिल्में बहुत बनी! कहा यह गया ये सब डूबते फिल्म उद्योग व ग्लैमर व्यवसाय को बचाने के नाम पर किया गया। 2000 के बाद का दशक जरूरत से ज्यादा बोल्ड निकला। सेक्स व अंग प्रदर्शन के इस फार्मूले को इस दौर में ज्यादा विकृत तरीके से फिल्माया गया। सशक्त एवं सार्थक फिल्म बनाने वाले महेश भट्ट व उनकी अभिनेत्री बेटी पूजा भट्ट ने जिस्म, पाप, मर्डर जैसी फिल्में बनाकर इसे नया चेहरा दे दिया। शोहरत और पैसा कमाने के लालच में कई अभिनेत्रियों ने भी हर तरह के समझौते किए। देखा जाए तो कला का इससे अधिक पतन दूसरी किसी विधा में नहीं हुआ। आदिकाल से ये सवाल जिंदा रहा है कि कला वास्तव में कला के लिए है या जीवन के लिए? कंदराओं में बैठकर कोई कलाकार क्या लिखता, चित्रित करता अथवा गाता है उसका तो समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता! पर, जब जनता के लिए कोई रचना गढ़ी जाती है तो उसका असर मानव मन पर ही नहीं, अंतर्मन पर भी गहरा पड़ता है। 
     यह सर्वमान्य है कि दृश्य काव्य बहुत शीघ्र तथा अधिक काल तक अपना प्रभाव रखता है। देश में महिलाओं को अशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने पर दंड देने के लिए कानून है। सीधा सा अर्थ है कि अश्लीलता का मतलब है नग्नता! जबकि, फिल्मों में कई बार कला और कथित स्टोरी की डिमांड के नाम पर महिला शरीरों को निर्लज्जता पूर्वक लगभग बिना कपड़ों के ही दर्शाया जाता है, इसे कौन स्वीकारेगा? हॉलीवुड की फिल्मों में नग्नता और हिंसा के चरम सीमा पर पहुँच जाने, फिल्म-निर्माताओं की असीम आकांक्षा, लालसा और ललक ने भी फिल्म के कलापक्ष का ताबूत खड़ा करने का प्रयास किया! लेकिन, बॉलीवुड के निर्माता यह तथ्य भूल गए कि तीन दशक पहले इसी सेक्स और हिंसा की बैसाखी पर खड़ी जापानी, फ्रेंच, स्वीडन एवं ब्राजील की फिल्मों ने भले ही विश्व बाजार में खड़े होने के पायदान ढूंढ लिए थे। लेकिन, अंततः उनकी यही लालसा उनके पतन का कारण भी बनी! 
    अंत में सशक्त एवं संवेदनशील फिल्मों की ओर लौटकर उन्हें अपनी अस्मिता बचानी पड़ी थी। अन्यथा उस दौर में उन्मुक्त सेक्स व नग्नता का जितना खुला प्रदर्शन जापान, फ्रांस, स्वीडन, बाजील व पोलैंड की फिल्मों में हुआ था, उतना अन्यत्र कहीं नहीं! यहाँ तक कि हॉलीवुड भी इसमें पीछे रह गया था। अब इस दौराहे पर भारतीय फ़िल्मकार क्या करें? सवाल लाख टके का है, पर जवाब तो दर्शक ही देंगे कि वे क्या देखना पसंद करेंगे। लेकिन, भारतीय फिल्मों को अगले स्तर पर ले जाने के लिए दोहरी मानसिकता से निजात पाना जरूरी है। हम खजुराहो जाते हैं और वहां नग्न मूर्तियों को देखकर उसे कला कहते हैं। जबकि, फिल्मों में अगर नग्नता दिखाई जाए तो हम हाय-तौबा मचाते हैं! इस दोहरी मानसिकता से और इस पाखंड से बाहर निकलना होगा। इसलिए जरूरी है कि सरकार और सेंसर बोर्ड को अपनी मानसिकता बदलना होगी।
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हरफनमौला धर्मेंद्र जो किसी पहचान में नहीं बंधे

     फ़िल्मी कथानकों की भूमिकाओं में धर्मेंद्र के अभिनय का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव हमेशा दिखाई देता रहा है। जिसमें पवित्रता, हास्य, जीवन की नैतिकता और रोमांस का अनूठा संयोजन रहा, जिसने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। फिल्म 'सत्यकाम' भारतीय समाज में ईमानदारी की मिसाल बनी, वहीं 'शोले' और 'चुपके चुपके' में उनका ह्यूमरस पक्ष हमेशा याद किया जाएगा। उनकी 'ही मैन' वाली पहचान एक अलग ही रूप था। धर्मेंद्र के किरदार आज भी भारतीय सिनेमा की विरासत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। क्योंकि, उन्होंने फिल्मों के नायक को नई पहचान को नया आयाम दिया।
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    सिनेमा के हर अभिनेता को लंबे अरसे तक याद करने की वजह होती है। फिल्म इतिहास में अमिताभ बच्चन को यंग एंग्रीमैन के रूप में जाना जाता है, ऋषि कपूर की पहचान डांसिंग हीरो की थी, तो राजकुमार की पहचान उनके अलग ही तेवर वाले अंदाज के लिए रही। लेकिन, धर्मेंद्र जैसे अभिनेता के साथ ऐसी कोई पहचान नहीं जुड़ी। ‘शोले’ का वीरू मस्तमौला था तो ‘सत्यवान’ में उनका किरदार ईमानदार, नैतिक और संघर्षरत व्यक्ति का था। बंदिनी में वे संवेदनशील डॉक्टर की भूमिका में थे, तो ‘चुपके-चुपके’ में वे उस प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी के रोल में थे, जिसने हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को गुदगुदाया। धर्मेंद्र के करिअर की विशिष्ट भूमिकाएं उनकी बहुमुखी प्रतिभा, नायकत्व और संवाद अदायगी के लिए जानी जाती हैं। उनके कुछ किरदार बॉलीवुड के सबसे यादगार और प्रभावशाली माने जाते हैं। धर्मेंद्र ने एक्शन हीरो के तौर पर भी अपनी छवि बनाई। मेरा गांव मेरा देश, प्रतिज्ञा, जुगनू, समाधि, राजा जानी और ‘हुकूमत’ में साफ दिखाई दिया, जिससे वे ‘ही मैन’ कहे जाते रहे।

      हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली सितारों में धर्मेंद्र की गिनती होती रही है। उनका फिल्म करिअर छह दशकों से अधिक समय तक चला और उन्होंने 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1966 में ‘फूल और पत्थर’ से धर्मेंद्र को जबरदस्त लोकप्रियता मिली, इसके बाद वे ‘एक्शन हीरो’ और ‘ही-मैन’ के रूप में पहचाने गए। 1970 के दशक में वे सबसे ज्यादा कमाई करने वाले सितारों में शामिल थे और एक साल में ही 9 से 12 फिल्में रिलीज़ होने का रिकॉर्ड भी उनके नाम रहा था। ‘शोले’ (1975) में वीरू के किरदार ने उन्हें सबसे बड़ी पहचान दी। लेकिन, वे सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहे। सत्यकाम, चुपके-चुपके, मेरा गांव मेरा देश, धरमवीर, सीता और गीता, द बर्निंग ट्रेन, हुकूमत, प्रतिज्ञा, नौकर बीवी का जैसी फिल्मों के लिए भी उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।
      रोमांटिक, एक्शन, कॉमेडी और थ्रिलर समेत हर शैली की फिल्मों में उन्होंने सफलता पाई। लेकिन, ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने उनके करिअर को नई ऊंचाई दी। ‘सत्यकाम’ और ‘चुपके-चुपके’ इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। धर्मेंद्र सिनेमा के ऐसे सितारा रहे, जिन्होंने अभिनय, एक्शन, रोमांस और सामाजिक संदेश वाली फिल्मों के जरिए अपने चाहने वालों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी। उनके अभिनय की विरासत फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा अमिट रहेगी। धर्मेंद्र ने कई फिल्मों में हास्य, जोश और भावुकता का अद्भुत मिश्रण पेश किया। दरअसल, उनकी ऐसी भूमिकाएं सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित भूमिकाओं में गिनी जाती हैं। ‘फूल और पत्थर’ के शाका में वे नेकदिल इंसान के रोल में दिखाई दिए तो ‘अनुपमा’ का राम रोमांटिक और संवेदनशील चरित्र था, जिसका चर्चित काव्यात्मक अंदाज दर्शक आज भी नहीं भूले। 
    धर्मेंद्र ऐसे अभिनेता रहे, जिन्होंने हर भूमिका, हर जॉनर में अपने अभिनय का जादू बिखेरा और हिंदी सिनेमा की परंपरा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। अपने अभिनय में उन्होंने एक्शन, रोमांस, कॉमेडी और ड्रामा हर भूमिका में बेजोड़ अदाकारी की और अपनी बहुमुखी प्रतिभा से दर्शकों को प्रभावित किया। उन्होंने ‘फूल और पत्थर’ और ‘मेरा गांव मेरा देश’ जैसी फिल्मों में सख्त और साहसी नायक का किरदार निभाया, वहीं ‘चुपके चुपके’ और ‘प्रतिज्ञा’ में हल्का-फुल्का रोल निभाया। इससे उनकी कॉमिक टाइमिंग सामने आई। ‘शोले’ में चुलबुले लेकिन निडर वीरू और ‘अनुपमा’ में विचारशील लेखक बनकर उन्होंने अपने अभिनय की गहराई को दर्शाया। ‘हकीकत’ जैसी फिल्म में युद्ध के दृश्यों और भावनाओं को, और ‘लोफर’ जैसी फिल्मों में रोमांटिक व कॉमिक किरदार को उन्होंने जीवंत बनाया।
     धर्मेंद्र अपने अभिनय काल में ‘ही मैन’ के नाम से मशहूर रहे हैं। लेकिन, एक्शन के साथ भावनात्मक और हास्य भूमिका में भी वे उतने ही सशक्त दिखे। उनके करिअर में 300 से अधिक फिल्में दर्ज हैं। उनके खाते में पद्मभूषण जैसे सम्मान के साथ कई यादगार ब्लॉकबस्टर फिल्में भी हैं। 1997 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के साथ, हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्‍होंने हर दौर में अपनी छवि को बरकरार रखते हुए फिल्मों में सक्रियता बनाए रखी। चरस, शोले, राजपूत, कातिलों के कातिल और ‘समधी’ आदि इसी का प्रमाण है। उनकी एक्टिंग स्टाइल में सहजता, इमोशन और दर्शकों से जुड़ने की क्षमता हमेशा कायम रही। उनकी अभिनय शैली में समय के साथ गहरी परिपक्वता और विविधता आई। शुरुआती दौर में वे रोमांटिक और संवेदनशील किरदारों के लिए पहचाने गए।
     वर्ष 1970 के दशक में एक्शन हीरो के रूप में उनका बोलबाला हुआ और बाद के सालों में उन्होंने भावनात्मक और चरित्र प्रधान भूमिकाएं की। धर्मेंद्र की छवि रोमांटिक हीरो और संवेदनशील पात्रों की भी रही। अनुपमा, बंदिनी और ‘हकीकत’ जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में मासूमियत, सहजता और कोमलता प्रमुख रही। लेखकों तथा निर्देशकों के निर्देशन में उन्होंने साहित्यिक, दार्शनिक और आदर्शवादी किरदारों को गहराई से निभाया। लेकिन, उनका शुरुआती समय संघर्ष से भरा रहा। 8 दिसंबर, 1935 को पंजाब में जन्मे इस कलाकार के फिल्मी सफर की शुरुआत 1960 में अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ से हुई थी। शुरू में उन्हें साधारण भूमिकाएं मिलीं, लेकिन जल्दी ही उनके अभिनय और व्यक्तित्व ने दर्शकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया।
    उम्र बढ़ने के साथ धर्मेंद्र ने सपोर्टिंग और चरित्र प्रधान भूमिका निभानी शुरू की। प्यार किया तो डरना क्या, लाइफ इन अ मेट्रो, अपने और ‘यमला पगला दीवाना’ जैसी फिल्मों में अपनापन, विनम्रता और हंसमुख अंदाज देखने को मिला। भावनात्मक दृश्य निभाने में नयापन और अनुभव की परछाई उनके अभिनय में साफ झलकी। धर्मेन्द्र के अभिनय का हर दौर, बदलते सामाजिक और फिल्मी चलनों के हिसाब से ढलता गया। कभी रोमांटिक, कभी एक्शन, कभी हास्य और अंत में पारिवारिक किरदारों में उनकी सादगी और गहराई दर्शकों के दिलों में आज भी ताजा है। इसी दौर में उनकी अनोखे किरदारों में आत्मविश्वास, ऊर्जा और ‘ही-मैन’ वाली मर्दानगी छवि जुड़ गई।
     धर्मेंद्र की अभिनय यात्रा के सबसे यादगार पल ‘शोले’ में रहा। रोमांच से भरपूर उनकी वो अदाकारी धर्मेंद्र की सबसे लोकप्रिय छवियों में एक है। इसके अलावा ‘सत्यकाम’ का सत्यप्रिय, ईमानदार, आदर्शवादी और जज़्बाती किरदार में गहन भावुकता भी उनके करिअर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय क्षण माना जाता है। ‘चुपके चुपके’ में प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी का हास्य और मासूमियत के साथ उनके अभिनय ने क्लासिक कॉमेडी को नई जान दी। ‘फूल और पत्थर’ का शाका का जबरदस्त स्क्रीन प्रेज़ेंस भी याद किया जाता है। एक रफ एंड टफ किरदार के साथ धर्मेंद्र ने हिंदी फिल्मों में नायक की छवि को नया मोड़ दिया था। ‘अनुपमा’ में धर्मेंद्र के किरदार अशोक का सादगी और संवेदनशीलता से भरा किरदार उनके अभिनय की गहराई को दर्शाता है।
     धर्मेंद्र के जीवन का सबसे श्रेष्ठ अभिनय ज़्यादातर आलोचकों की नज़र में फिल्म ‘सत्यकाम’ की भूमिका को माना जाता है। जबकि, लोकप्रियता के स्तर पर ‘शोले’ (वीरू) और ‘चुपके चुपके’ (परिमल) को भी उनकी शिखर-प्रदर्शन की श्रेणी में रखा जाता है। आलोचकों के हिसाब से कई फ़िल्मी आलोचक इसे धर्मेंद्र के करिअर का बेस्ट परफॉर्मेंस कहकर ‘सत्यकाम’ में उनके आदर्शवादी, अंदर से टूटे हुए नायक की भूमिका को सबसे ऊंचा दर्जा देते हैं। लेकिन, अब इस हरफनमौला अभिनेता की हर भूमिका का खाता बंद हो गया। अब जबकि, धर्मेंद्र हमारे बीच नहीं हैं, उन्हें उनकी फिल्मों के किरदार से ही हमेशा याद किया जाता रहेगा।
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Monday, November 24, 2025

ये है 21वीं सदी की सबसे पसंदीदा फिल्म

   

   'इंटरनेट मूवी डाटाबेस' ने बीते 25 सालों की सबसे सफल फिल्मों में 'थ्री इडियट्स' को श्रेष्ठ फिल्म माना। इस फिल्म ने देश के एजुकेशन सिस्टम पर गंभीर सवाल उठाने के साथ पेरेंट्स के हालात और उनकी दिमागी स्थिति को भी दिखाया। फिल्म में कोई ज्ञान का संदेश नहीं दिया गया था, दर्शक को इसमें भरपूर मनोरंजन मिला। यही वजह है कि स्टूडेंट्स से लेकर उनके पैरेंट्स तक को इस फिल्म ने गहराई से छुआ। क्योंकि, दर्शकों ने फिल्म के जरिए जो महसूस किया वो सिनेमाघर से बाहर निकलकर ही किया। सिर्फ देश में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में भी इस फिल्म को पसंद किया गया। इस फिल्म में आमिर खान ने सिस्टम के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गए 'रैंचो' का किरदार निभाया है।  
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- हेमंत पाल

     यदि पुराने फिल्म दर्शकों से सवाल किया जाए कि बीते 25 सालों में उनकी सबसे ज्यादा पसंदीदा फिल्म कौन सी है, तो निश्चित रूप से सभी के जवाब एक नहीं होंगे। क्योंकि, फिल्मों को लेकर हर दर्शक का नजरिया अलग होता है। किसी को रोमांटिक फिल्म पसंद है, तो किसी को एक्शन वाली। ऐसे दर्शक भी कम नहीं हैं, जिनकी पहली पसंद सामाजिक कथानकों वाली फ़िल्में होती है। साथ ही कॉमेडी फ़िल्में के मुरीद भी कम नहीं। फ़िल्में मनोरंजन का जरिया जरूर होती है, पर बात सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं है। आज के संदर्भ में पसंदीदा फिल्म का नाम तलाशा जाए, तो कारोबारी सफलता और फिल्म देखने वालों की पसंद के आधार पर ये फिल्म है 'थ्री इडियट्स!' इस फिल्म को देश ही नहीं दुनियाभर के दर्शकों ने भी बेहद पसंद किया। आईएमडीबी ने दुनियाभर की 'ग्लोबल टॉप 250' फिल्मों की जो सूची बनाई, उसमें राजकुमार हिरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स' (2009) भी है। आईएमडीबी (इंटरनेट मूवी डाटाबेस) के अनुसार आमिर खान की इस फिल्म को 21वीं सदी की सबसे बड़ी हिट फिल्म माना गया है। 
     आईएमडीबी की इस रिपोर्ट को 250 मिलियन मंथली यूजर्स से मिले डाटा के आधार पर तैयार किया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि ‘थ्री इडियट्स’ ने अपने वर्ल्डवाइड पेज व्यूज और नॉन-इंडियन व्यूअर्स की इंगेजमेंट के आधार पर यह उपलब्धि हासिल की। स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म जैसे नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम ने इसे ग्लोबल ऑडियंस तक पहुंचाया, जहां ये नॉन-इंडियन व्यूअर्स के बीच भी छाई रही। 'आईएमडीबी' आज ऐसा प्लेटफॉर्म बन गया, जो सिनेमा के दर्शकों को बताता है कि सिनेमाघरों और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर किन फिल्मों को ज्यादा पसंद किया गया और इन्हें दर्शकों से सबसे ज्यादा रेटिंग मिली। यह भी सच है कि दर्शक इन दिनों फिल्म देखने का फैसला 'आईएमडीबी' रेटिंग के हिसाब से करते हैं। 'आईएमडीबी' ने अपनी पिछले 25 साल की टॉप फिल्मों के बारे में बताया कि 2000 के बाद रिलीज हुई फिल्मों को व्यूज के आधार पर रैंक किया गया है। 130 फिल्मों पर आधारित इस रिपोर्ट में हर साल की 5 फिल्मों को शामिल किया गया था, जिन्हें डेटासेट कहा गया।
    'आईएमडीबी' की रिपोर्ट में सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर भारतीय फिल्म '3 इडियट्स' को चुना गया। यह फिल्म इंजीनियरिंग कॉलेज के कैंपस में स्टूडेंट्स की जिंदगी, उनकी दोस्ती और भविष्य के सपनों की कहानी पर बनी है। फिल्म के नायक आमिर खान हैं, जिन्हें इंडस्ट्री का 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' कहा जाता है। आमिर खान ने अपनी फिल्मों से हमेशा दर्शकों को चौंकाया है। उनकी इस फिल्म ने 21वीं सदी में हिंदी फिल्मों में दूसरों के मुकाबले सबसे ज्यादा सफलता पायी। 'ग्लोबल टॉप 250' फिल्मों की लिस्ट में इस फिल्म को 85 वें स्थान पर जगह मिली, जो किसी भी भारतीय फिल्म के लिए अभी तक की सबसे ऊंची रैंक है। सामान्यतः अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान और रणबीर कपूर जैसे सितारे फिल्मों में छाए रहते हैं। 
     इनके मुकाबले आमिर खान बेहद सीमित और चुनिंदा फ़िल्में करते हैं। पर, उनकी इस फिल्म ने सभी सितारों को पीछे छोड़ दिया। यही वजह है कि ये फिल्म 21वीं सदी की सबसे पॉपुलर और सबसे ज्यादा देखी जाने वाली भारतीय हिंदी फिल्म बन गई। विदेशी दर्शकों के बीच इस फिल्म की दीवानगी इतनी है कि यह इंटरनेट पर हर साल ट्रेंड कर जाती है। चीन, ताईवान, साउथ कोरिया और मिडिल ईस्ट जैसे सिनेमा मार्केट में भी 'थ्री इडियट्स' को दर्शकों का प्यार मिला। चीन में तो यह अभी तक की सबसे ज्यादा हिट इंडियन फिल्म साबित हुई है। 
    चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पॉइंट समवन' पर आधारित राजकुमार हिरानी की यह फिल्म 2009 में रिलीज हुई थी। इसमें आमिर खान ने सिस्टम के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गए 'रैंचो' का किरदार निभाया। '3 इडियट्स' की सफलता का पैमाना इतना हाई है, कि इसने आमिर की दूसरी फिल्मों जैसे तारे जमीं पर, माय नेम इज खान, साथ ही 'मॉनसून वेडिंग' को भी पीछे छोड़ा। ये फिल्में इंटरनेशनल ऑडियंस में भी पॉपुलर रहीं। लेकिन, इसका स्कोर 60 से नीचे रहा। आमिर की फिल्मों का क्रॉस-कल्चरल अपील ही उन्हें 'ग्लोबल स्टार' बनाता है। दरअसल, इस फिल्म ने साबित किया कि अगर कहानी में दम हो और उससे मिलने वाला संदेश सही हो, तो फिल्म को सफल होने से रोका नहीं जा सकता। '3 इडियट्स' के बारे में कहा जाता है कि यह सिर्फ फिल्म नहीं, एक इमोशन है!' फिल्म में आमिर के साथ आर माधवन, शरमन जोशी, करीना कपूर, बोमन ईरानी और ओमी वैद्य ने अपने अभिनय से जान डाल दी।
    यह फिल्म क्रिटिकल और कमर्शियल दोनों रूप से जबरदस्त हिट रही। बॉक्स ऑफिस पर 200 करोड़ से ज्यादा की कमाई की और कई अवॉर्ड झटके। फिल्म ने दुनियाभर में करीब 400 करोड़ से ज्यादा की कमाई की। अपने समय काल में यह फिल्म इंडस्ट्री की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी। इस फिल्म की एक सबसे बड़ी खासियत यह भी रही कि इसके डायलॉग ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। आल इज वेल, सफलता के पीछे मत भागो, काबिलियत बढ़ाओ ... सफलता ज़रूर तुम्हारे पीछे आएगी' जैसे प्रभावशाली डायलॉग आज भी युवाओं के लिए सफलता का मंत्र बने हैं। इस फिल्म को उस साल बेस्ट फिल्म सहित 6 फिल्मफेयर अवार्ड मिले थे। 
     2020 से 2025 तक रिलीज हुई टॉप फिल्मों की लिस्ट पर नजर डालें, तो इसमें बड़े सुपरस्टार की फ़िल्में कम ही है। 2020 में जहां सुशांत सिंह राजपूत की 'दिल बेचारा' ने बाजी मारी, वहीं 2021 में साउथ के सितारे अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा' टॉप पर रही। 2022 में कन्नड़ कलाकार यश की केजीएफ चैप्टर 2, 2023 में रणबीर कपूर की 'एनिमल' टॉप पर रही। जबकि, 2023 में शाहरुख खान की तीन फिल्में पठान, जवान और 'डंकी' रिलीज हुई। 2024 में अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा 2' टॉप पर रही, जिसने बॉक्स ऑफिस पर भी धुआंधार कलेक्शन किया। 'आईएमडीबी' की लिस्ट में 2000 से 2004 तक लगातार शाहरुख की फिल्मों का कब्जा रहा। 2000 में मोहब्बतें, 2001 में कभी खुशी कभी गम, 2002 में देवदास, 2003 में कल हो न हो और 2004 में वीर जारा ने टॉप पर रहीं। इसके अलावा इस लिस्ट में आमिर खान की तारे जमीन पर (2007), 3 ईडियट्स (2009), पीके (2014), दंगल (2016) जैसी फिल्में भी रिलीज ईयर के हिसाब से टॉप पर रहीं।
     बीतें 25 सालों में टॉप पर रहने वाली फिल्मों की लिस्ट इस प्रकार रही। मोहब्बतें (2000), कभी खुशी कभी गम (2001), देवदास (2002), कल हो न हो (2003), वीर-जारा (2004), ब्लैक (2005), धूम-2 (2006), तारे जमीं पर (2007), रब ने बना दी जोड़ी (2008), 3 इडियट्स (2009), माय नेम इज खान (2010), जिंदगी न मिलेगी दोबारा (2011), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), द लंचबॉक्स (2013), पीके (2014), बाहुबली (2015), दंगल (2016), बाहुबली-2 (2017), केजीएफ (2018), उरी (2019), दिल बेचारा (2020), पुष्पा-1 (2021), केजीएफ-2 (2022), एनिमल (2023), पुष्पा-2 (2024) और सैयारा (2025) 
     'आईएमडीबी' की रिपोर्ट में साल 2000 से 2025 की सबसे पॉपुलर फिल्मों के बारे में बताया गया। खास बात यह कि 2025 में अक्षय कुमार-अरशद वारसी की 'जॉली एलएलबी', ऋतिक रोशन-जूनियर एनटीआर की 'वॉर 2' और रजनीकांत की 'कुली' जैसी फिल्में रिलीज हुईं। लेकिन, इन तमाम बड़े सितारों की फिल्म को एक नए एक्टर की फिल्म सैयारा' ने पछाड़ दिया। इसके साथ अहान पांडे ने डेब्यू किया है। 'सैयारा' ने इस लिस्ट में विक्की कौशल की 'छावा' को पछाड़ा है, जो लिस्ट में दूसरे नंबर पर रही। इस साल की टॉप फिल्मों की लिस्ट में महावतार नरसिम्हा तीसरे, ड्रैगन चौथे और सुपरस्टार रजनीकांत की 'कुली' पांचवे नंबर पर रही।
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Tuesday, November 11, 2025

कई रूपों में याद किए जाते रहेंगे धर्मेंद्र

   चरित्रों का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव धर्मेंद्र की भूमिकाओं में साफ़ दिखाई दिया। जिसमें पवित्रता, हास्य, नैतिकता और रोमांस का अनूठा संयोजन रहा, जिसने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। 'सत्यकाम' भारतीय समाज में ईमानदारी की मिसाल बनी, वहीं 'शोले' और 'चुपके चुपके' में उनका ह्यूमरस पक्ष हमेशा याद किया जाएगा। धर्मेंद्र के किरदार आज भी भारतीय सिनेमा की विरासत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और फिल्मों के नायकत्व की पहचान को नया आयाम दिया।

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- हेमंत पाल

    हर फिल्म अभिनेता को याद करने की एक वजह होती है। अमिताभ बच्चन को यंग एंग्री मैन के रूप में जाना जाता है, ऋषि कपूर पहचान डांसिंग हीरो की थी तो राजकुमार को उनके अलग ही अंदाज के लिए है। लेकिन, धर्मेंद्र के साथ ऐसी कोई पहचान नहीं जुड़ी। 'शोले' का वीरू मस्तमौला था 'सत्यवान' में उनका किरदार ईमानदार, नैतिक संघर्षरत व्यक्ति का था। बंदिनी में वे संवेदनशील डॉक्टर की भूमिका में थे, तो 'चुपके-चुपके' में वे उस प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी के रोल में थे, जिसने हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को गुदगुदाया। धर्मेंद्र के करियर की विशिष्ट भूमिकाएं उनकी बहुमुखी प्रतिभा, नायकत्व और संवाद अदायगी के लिए जानी जाती हैं। उनके कुछ किरदार बॉलीवुड के सबसे यादगार और प्रभावशाली माने जाते हैं।.धर्मेंद्र ने एक्शन हीरो के तौर पर भी अपनी छवि बनाई। मेरा गाँव मेरा देश, प्रतिज्ञा, जुगनू, समाधि, राजा जानी, और 'हुकूमत' में यह साफ दिखाई भी दिया, जिससे वे 'ही मैन' कहे जाते रहे।
      धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली सितारों में रहे। उनका फिल्म करियर छह दशकों से अधिक समय तक चला। उन्होंने 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1966 में ‘फूल और पत्थर’ से धर्मेंद्र को जबरदस्त लोकप्रियता मिली, इसके बाद वे 'एक्शन हीरो' और 'ही-मैन' के रूप में पहचान गए। 1970 के दशक में वे सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले सितारों में शामिल थे और एक साल में ही 9 से 12 फिल्में रिलीज़ होने का रिकॉर्ड भी उनके नाम रहा था। ‘शोले’ (1975) में वीरू का किरदार उनके करियर की सबसे बड़ी पहचान बना। लेकिन, वे सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहे। सत्यकाम, चुपके-चुपके, मेरा गाँव मेरा देश, धरमवीर, सीता और गीता, द बर्निंग ट्रेन, हुकूमत, प्रतिज्ञा, नौकर बीवी का जैसी फिल्मों के लिए भी उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।
     धर्मेंद्र ने रोमांटिक, एक्शन, कॉमेडी, थ्रिलर हर शैली की फिल्मों में सफलता पाई। लेकिन, ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने उनके करियर को नई ऊंचाई दी। 'सत्यकाम' और 'चुपके-चुपके' इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा का एक ऐसा सितारा हैं, जिन्होंने अभिनय, एक्शन, रोमांस और सामाजिक संदेश वाली फिल्मों के माध्यम से चाहने वालों के दिलों में गहरी छाप छोड़ी। उनकी विरासत सदा बॉलीवुड में अमिट रहेगी। धर्मेंद्र ने कई फिल्मों में हास्य, जोश और भावुकता का अद्भुत मिश्रण पेश किया। उनकी ऐसी भूमिकाएं हिंदी सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित भूमिकाओं में आती है।.'सत्यकाम' में धर्मेंद्र ने ईमानदार, नैतिक संघर्षरत व्यक्ति का रोल निभाया, जिसे आलोचकों और दर्शकों दोनों ने सर्वश्रेष्ठ मान्यता दी। जबकि, 'बंदिनी' में उन्होंने संवेदनशील डॉक्टर का किरदार निभाया तो 'चुपके-चुपके' में मानवीय मूल्यों और सहानुभूति के प्रतीक.प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी बने, जिसमें हल्की-फुल्की कॉमेडी में उनकी अभिनय क्षमता का हास्य रूप सामने आया। 'फूल और पत्थर' का शाका में वे नेकदिल इंसान के रोल में दिखाई दिए। 'अनुपमा' का राम रोमांटिक और संवेदनशील चरित्र था जिसका चर्चित काव्यात्मक अंदाज दर्शक आज भी नहीं भूले।
    धर्मेंद्र ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने हर भूमिका, हर जॉनर में अपने अभिनय का जादू बिखेरा और हिंदी सिनेमा की परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। एक्शन, रोमांस, कॉमेडी और ड्रामा हर भूमिका में बेजोड़ अदाकारी की और अपनी बहुमुखी प्रतिभा से दर्शकों को हमेशा प्रभावित किया। उन्होंने 'फूल और पत्थर' और 'मेरा गांव मेरा देश' जैसी फिल्मों में सख्त और साहसी नायक का किरदार निभाया, वहीं 'चुपके चुपके' और 'प्रतिज्ञा' में हल्का-फुल्का रोल अदा किया, जिससे उनकी कॉमिक टाइमिंग सामने आई। 'शोले' में चुलबुले लेकिन निडर वीरु और 'अनुपमा' में विचारशील लेखक बनकर उन्होंने अपने अभिनय की गहराई को दर्शाया। 'हकीकत' जैसी फिल्म में युद्ध के दृश्यों और भावनाओं को, और 'लोफर' जैसी फिल्मों में रोमांटिक व कॉमिक किरदार को उन्होंने जीवंत बनाया।
     धर्मेन्द्र 'ही मैन' के नाम से मशहूर रहे हैं, लेकिन एक्शन के साथ भावनात्मक और हास्य भूमिका में भी वे उतने ही सशक्त दिखे। उनके करियर में 300 से अधिक फिल्में हैं। उनके खाते में पद्मभूषण जैसे सम्मान के साथ कई यादगार ब्लॉकबस्टर फिल्में भी हैं। 1997 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के साथ, हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्‍होंने हर दौर में अपनी छवि को बरकरार रखते हुए फिल्मों में सक्रियता बनाए रखी। चरस, शोले, राजपूत, कातिलों के कातिल और 'समधी' आदि इसी का प्रमाण है। उनकी एक्टिंग स्टाइल में सहजता, इमोशन और दर्शकों से जुड़ने की क्षमता हमेशा कायम रही। उनकी की अभिनय शैली में समय के साथ गहरी परिपक्वता और विविधता आई। शुरुआती दौर में वे रोमांटिक और संवेदनशील किरदारों के लिए पहचाने गए। 1970 के दशक में एक्शन हीरो के रूप में उनका बोलबाला हुआ और बाद के सालों में उन्होंने भावनात्मक और चरित्र प्रधान भूमिकाएं की। धर्मेन्द्र की छवि रोमांटिक हीरो और संवेदनशील पात्रों की रही। अनुपमा, बंदिनी और 'हकीकत' जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में मासूमियत, सहजता और कोमलता प्रमुख रही। लेखकों तथा निर्देशकों के निर्देशन में उन्होंने साहित्यिक, दार्शनिक और आदर्शवादी किरदारों को गहराई से निभाया।
      धर्मेंद्र का शुरुआत समय संघर्ष से भरा रहा। 8 दिसंबर 1935 को पंजाब में जन्मे इस कलाकार के फिल्मी सफर की शुरुआत 1960 में अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' से हुई थी। शुरुआती दौर में उन्हें साधारण भूमिकाएं मिलीं, लेकिन जल्दी ही उनके अभिनय और व्यक्तित्व ने दर्शकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया। उम्र बढ़ने के साथ धर्मेन्द्र ने सपोर्टिंग और चरित्र प्रधान भूमिकाएँ निभानी शुरू की। प्यार किया तो डरना क्या, लाइफ इन अ मेट्रो, अपने और 'यमला पगला दीवाना' जैसी फिल्मों में अपनापन, विनम्रता और हँसमुख अंदाज देखने को मिला। भावनात्मक दृश्य निभाने में नयापन और अनुभव की परछाई उनके अभिनय में साफ झलकी। धर्मेन्द्र के अभिनय का हर दौर, बदलते सामाजिक और फिल्मी चलनों के हिसाब से ढलता गया। कभी रोमांटिक, कभी एक्शन, कभी हास्य और अंत में पारिवारिक किरदारों में उनकी सादगी और गहराई दर्शकों के दिलों में आज भी ताजा है। इसी दौर में उनकी अनोखे किरदारों में आत्मविश्वास, ऊर्जा और ‘ही-मैन’ वाली मर्दानगी छवि जुड़ गई। लेकिन, अब इस हरफनमौला अभिनेता की हर भूमिका का खाता बंद हो गया। अब धर्मेंद्र को उनकी फिल्मों से याद किया जाता रहेगा।  
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'हक़' से फिर चर्चित हुआ इंदौर का शाहबानो विवाद

- हेमंत पाल 

      फिल्मों के साथ कानूनी विवाद जुड़े होना नई बात नहीं है। ऐसी फिल्मों की कहानी बहुत लंबी है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जो रिलीज से पहले कानूनी झमेलों में फंसी और निपटारे के बाद ही ही उन्हें परदे का मुंह देखना नसीब हुआ। कई फ़िल्में तो इतनी ज्यादा उलझन में आई कि वास्तविक फिल्म कभी रिलीज ही नहीं हो सकी। ऐसी फिल्मों में आपातकाल के दौर की फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' विवाद सबसे ज्यादा चर्चित हुआ। उसके बाद भी कई फिल्मों को लेकर ऐसे विवाद हुए। ताजा दौर में इमरजेंसी, जॉली एलएलबी-3, छावा और मराठी फिल्म 'फुले' भी ऐसे मसलों में फंसकर निकली। 
     नया विवाद इंदौर के चर्चित शाहबानो प्रकरण पर आधारित फिल्म 'हक़' को लेकर उठा, जिसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की नींव रखी।  इस मसले पर 1985 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी थी। तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ उनकी लड़ाई ने न सिर्फ व्यक्तिगत न्याय की मांग की, बल्कि यह फैसला पूरे समाज के लिए मिसाल बना। इसके 33 साल बाद, जब 2019 में तीन तलाक को अवैध घोषित करने वाला कानून लागू हुआ, तो यह शाहबानो की उस जीत का प्रतीक था, जो अलख उन्होंने जगाई थी। अब इस संघर्ष की कहानी बड़े परदे उतारी गई, जिस पर कानूनी विवाद हुआ। लेकिन, हाई कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म की रिलीज को हरी झंडी दिखाई। फिल्म 'हक' के जरिए अब दुनिया तीन तलाक को कोर्ट ले जाने वाली शाहबानो के संघर्ष की कहानी देखेगी। 
     यह फिल्म एक ड्रामा है, जो मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से प्रेरित है। फिल्म पर्सनल लॉ और सेक्युलर लॉ के बीच की बहस को सामने लाती है। इसमें इमरान हाश्मी और यामी गौतम की मुख्य भूमिकाएं हैं। दरअसल, 'हक़' की कहानी जिग्ना वोरा की किताब 'बानो: भारत की बेटी' पर आधारित एक काल्पनिक और नाटकीय कहानी है। जबकि, वास्तव में यह घटना शाहबानो बेगम के पुरुष प्रधान समाज में अपने स्वाभिमान और हक़ के लिए लड़ी सच्ची घटना है। यह बहस मुस्लिम समाज में आज भी प्रासंगिक है। इस फिल्म में ये मुद्दे गंभीरता से उठाए गए हैं कि क्या न्याय के अवसर सभी के लिए समान नहीं होना चाहिए! अब एक राष्ट्र, एक कानून का समय आ गया! व्यक्तिगत आस्था और धर्मनिरपेक्ष कानून के बीच की कैसी रेखा होना चाहिए यह मुद्दा भी उठा। 
   इसके अलावा यह सवाल भी उठा कि क्या अब समान नागरिक संहिता की जरूरत महसूस नहीं हो रही। फिल्म ने ऐसे कई सवालों को पुरजोर तरीके से उठाया है। 'हक़' बनाने वाली जंगली पिक्चर्स ने हमेशा ही ऐसी फिल्में बनाई है, जो सामान्य से कुछ अलग होती हैं और समाज के पुराने नियमों को चुनौती देती हैं। राज़ी, तलवार और 'बधाई दो' जैसी फिल्में बनाने के बाद जंगली पिक्चर्स ने अब मुस्लिम महिलाओं के इस मुद्दे को उठाया। 'आर्टिकल 370' के बाद यामी गौतम 'हक़' में नए कलेवर में दिखाई दी। फिल्म में वे ऐसी मुस्लिम महिला की भूमिका में है, जो अन्याय के सामने झुकने से इंकार करती है। वह गलत तरीके से बेसहारा की गई औरत की भूमिका में है, जो अपने और अपने बच्चों के लिए धारा 125 के तहत अपने 'हक' की मांग करते हुए कोर्ट में एक बड़ी लड़ाई लड़ती है और अंततः जीतती है।
     परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण की राशि पाने के अधिकार की नींव जिस शाहबानो केस से ही पड़ी थी, उस पर बनी फिल्म 'हक' को रिलीज से पहले कानूनी विवाद का सामना करना पड़ा। शाहबानो की बेटियों ने फिल्म की कहानी पर ऐतराज जताया। फिल्म में उनकी मां के निजी जीवन को दिखाया गया, जिस पर उन्होंने आपत्ति उठाई। सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष करने वाली इंदौर की महिला शाहबानो की बेटियों ने फिल्म पर ऐतराज जताया है कि फिल्म में उनकी मां के निजी जीवन को दिखाया गया है। उनका तर्क था कि फिल्म बनाने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गई। इस कारण फिल्म 'हक' की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की गई। लेकिन, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने फिल्म 'हक' की रिलीज पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
    विवादों से परे शाहबानो की कहानी हमेशा याद दिलाएगी कि एक महिला की दृढ़ता कानून, समाज और परंपरा तीनों को बदलने की ताकत रखती है। अदालत ने कहा कि यह फिल्म स्पष्ट रूप से काल्पनिक और नाटकीय रूपांतरण है। फिल्म 1985 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से भी प्रेरित है। फैसले में कहा कि फिल्म के डिस्क्लेमर में यह साफ लिखा है कि यह एक काल्पनिक रचना है, जो किसी व्यक्ति की सच्ची कहानी नहीं है। इसलिए इसे गलत चित्रण या मनगढ़ंत कहानी नहीं कहा जा सकता। अदालत ने माना कि जब कोई फिल्म वास्तविक घटनाओं से प्रेरित होती है, तो उसमें कुछ रचनात्मक छूट दी जा सकती है, और केवल कुछ व्यक्तिगत या नाटकीय विवरण जोड़ने से उसे आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता। 
      'हक़' के अलावा भी कई फिल्मों को लेकर अदालती विवाद हुए हैं। प्रतीक गांधी और पत्रलेखा की फिल्म ‘फुले' पर भी ‘ब्राह्मणों' के अपमान का आरोप लगा और विवाद हुआ। ब्राह्मण समुदाय ने फिल्म के खिलाफ आपत्ति जताई और उन्हें अपमानित करने का आरोप लगाया, विरोध के बाद सेंसर बोर्ड ने फिल्म में कई कट लगाए और आखिरकार सिनेमाघरों में दर्शकों के सामने फिल्म आने में सफल रही। 'फुले' सामाजिक कार्यकर्ता ज्योतिराव गोविंदराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ और महिलाओं के शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी थी। फिल्म ‘इमरजेंसी' भी विवाद में फंसी। कंगना रनौत निर्देशित और अभिनीत फिल्म में वह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के किरदार में नजर आई थीं। 1975 में लगाए गए 'इमरजेंसी' पर आधारित फिल्म की रिलीज को लेकर काफी विवाद हुआ। विरोध करने वालों ने ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ के आरोप लगाए थे। सेंसर ने कुछ कट के बाद फिल्म की रिलीज को अनुमति दी थी।
    विक्की कौशल और रश्मिका मंदाना की ‘छावा' भी विवादों में रिलीज होने वाली फिल्मों की लिस्ट में है। लेकिन, इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 600 करोड़ का आंकड़ा भी पार किया। सनी देओल, रणदीप हुड्डा जैसे कलाकारों की फिल्म 'जाट' को लेकर भी विवाद। फिल्म के एक सीन को लेकर ईसाई समुदाय ने नाराजगी जताई और फिल्म की टीम के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई। समुदाय ने आरोप लगाया कि फिल्म में ईसाई समुदाय का अपमान किया गया और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया। शाहबानो मामले पर बनी फिल्म 'हक़' में विवाद कुछ नहीं है। क्योंकि, शाहबानो प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक गया और वहां इस पर फैसला हुआ। यदि इस महत्वपूर्ण मामले पर फिल्म नहीं बनती, तो यह सामाजिक बदलाव सिर्फ कानूनी किताबों में दर्ज होकर रह जाता। 
     शाहबानो का जीवन संघर्ष नई पीढ़ी के सामने नहीं आ पाता। शाहबानो के संघर्ष ने ही पहली बार मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की नींव रखी। 1985 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दहलीज पर एक नई बहस छेड़ी थी। तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ उनकी लड़ाई ने न सिर्फ व्यक्तिगत न्याय की मांग की, बल्कि पूरे समुदाय के लिए एक मिसाल बन गई। 33 साल बाद, जब 2019 में ट्रिपल तलाक को अवैध घोषित करने वाला कानून लागू हुआ, तो यह भी शाहबानो की जीत का प्रतीक था। अब ये संघर्ष बड़े पर्दे पर उतरा है। यामी गौतम और इमरान हाशमी की फिल्म 'हक' के जरिए दर्शक देखेंगे कि 3 तलाक को कोर्ट ले जाने वाली शाहबानो के संघर्ष की कहानी आखिर क्या थी! 
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