- हेमंत पाल
फिल्मों में कला और नग्नता के सवाल पर समय-समय पर बड़ा बवाल और बहस छिड़ता रहता है। भारतीय सिनेमा में यह विषय विशेष रूप से संवेदनशील है, जहाँ कलात्मक अभिव्यक्ति, सेंसरशिप और सामाजिक मूल्य आपस में टकराते हैं। भारतीय फिल्मों में नग्नता का चित्रण पश्चिमी सिनेमा की तुलना में बहुत सीमित और रूढ़िवादी है, मुख्यतः भारत की सांस्कृतिक और पारंपरिक विरासत, और सख्त सेंसरशिप के कारण। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड फिल्मों में नग्न और बोल्ड दृश्यों को नियंत्रित करता है। स्पष्ट नग्नता की अनुमति नहीं है और अक्सर फिल्मों को प्रमाणन देने से पहले उनसे ऐसे दृश्य हटाने को कहा जाता है। फिर भी नग्नता, बोल्ड सीन्स या फोटोशूट को लेकर कई बार बड़े सितारे और फिल्में विवादों में आ जाते हैं जैसे आमिर खान की 'पीके' या रणवीर सिंह का फोटोशूट। श्वेता मेनन जैसे कलाकारों पर अश्लीलता फैलाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई तक हो चुकी है। कुछ लोग मानते हैं कि नग्नता भी कला का अभिन्न हिस्सा हो सकती है, क्योंकि मानव शरीर का चित्रण सदियों से चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य में रहा है। दूसरी ओर कई लोगों का मानना है कि फिल्मों में नग्नता महिलाओं के वस्त्र पहनने की आदत, सामाजिक मूल्यों की गिरावट और अपराध को बढ़ावा देती है, और यह 'अश्लीलता' की श्रेणी में आती है।
जब कोई दृश्य कब 'कला' है और कब वह अश्लीलता, सामाजिक मानदंडों, संदर्भ और प्रस्तुति की शैली के हिसाब से बदलती रहता है इसका कोई मापदंड नहीं है। भारतीय सेंसर बोर्ड के नियम अस्पष्ट है और कभी-कभी मनमाने से लगते हैं। लेकिन, एक प्रकार के दृश्य किसी फिल्म में पास और कभी भी बैन हो सकते हैं। डिजिटल युग में खुले तौर पर उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय कंटेंट के कारण 'सेंसरशिप' को लेकर नई बहस भी छिड़ी है कि क्या संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलाकारों की स्वतंत्रता बाधित की जा सकती है। फिल्मों में नग्नता का सवाल केवल कलात्मक दृष्टि, अभिव्यक्ति की आज़ादी या सेंसरशिप भर नहीं है, बल्कि यह समाज के नैतिक मूल्यों, सामाजिक प्रगति, सांस्कृतिक बोध और महिलाओं की स्थिति जैसे गहरे सवालों से भी जुड़ा है। हर बार जब कोई फिल्म या दृश्य विवाद में आता है, यह पुराने सवालों को फिर से जीवित कर देता है कि क्या कला के नाम पर सब कुछ जायज है! आखिर कलात्मक नग्नता और अश्लीलता की सीमाएं कौन तय करेगा। इस विषय पर समाज में लगातार मंथन, तर्क-वितर्क और विमर्श की आवश्यकता है, ताकि कला और संवेदनशीलता के बीच संतुलन बना रहे।
आजादी के कुछ सालों बाद जब देश प्रेम वाली फिल्मों की संख्या घटी, तो फिल्मकारों ने नए विषयों की खोज की! इसके बाद ही नायिका के अंग-प्रत्यंग से दर्शकों को लुभाने के प्रयास शुरू हुए! इस आंधी से राज कपूर व मनोज कुमार जैसे सार्थक फिल्म बनाने वाले निर्माता भी नहीं बच सके। राज कपूर ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' व 'राम तेरी गंगा मैली' में तथा मनोज कुमार ने अपनी लगभग सभी फिल्मों में ग्लैमर, सेक्स व अंग प्रदर्शन को बखूबी से भुनाया। लेकिन, इन दोनों ही फिल्मकारों ने ग्लैमर को बहुत ही कलात्मक ढंग और ऐसे दृश्यों को फिल्माया कि उन पर जिस्म प्रदर्शन का आरोप नहीं लगा! जबकि, दूसरी तरफ हृषिकेश मुखर्जी, गुलजार, श्याम बेनेगल तथा प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की ऐसी जमात थी, जो इस आंधी के बीच भी मकसद पूर्ण फिल्में बनाने में लगे रहे!
एक ऐसा दौर भी आया जब ऐसी फ़िल्में खूब बनी। 90 और 2000 के दशक को इसी रूप में जाना जाता है, जब सेक्स और व एक्शन फिल्में बहुत बनी! कहा यह गया ये सब डूबते फिल्म उद्योग व ग्लैमर व्यवसाय को बचाने के नाम पर किया गया। 2000 के बाद का दशक जरूरत से ज्यादा बोल्ड निकला। सेक्स व अंग प्रदर्शन के इस फार्मूले को इस दौर में ज्यादा विकृत तरीके से फिल्माया गया। सशक्त एवं सार्थक फिल्म बनाने वाले महेश भट्ट व उनकी अभिनेत्री बेटी पूजा भट्ट ने जिस्म, पाप, मर्डर जैसी फिल्में बनाकर इसे नया चेहरा दे दिया। शोहरत और पैसा कमाने के लालच में कई अभिनेत्रियों ने भी हर तरह के समझौते किए। देखा जाए तो कला का इससे अधिक पतन दूसरी किसी विधा में नहीं हुआ। आदिकाल से ये सवाल जिंदा रहा है कि कला वास्तव में कला के लिए है या जीवन के लिए? कंदराओं में बैठकर कोई कलाकार क्या लिखता, चित्रित करता अथवा गाता है उसका तो समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता! पर, जब जनता के लिए कोई रचना गढ़ी जाती है तो उसका असर मानव मन पर ही नहीं, अंतर्मन पर भी गहरा पड़ता है।
यह सर्वमान्य है कि दृश्य काव्य बहुत शीघ्र तथा अधिक काल तक अपना प्रभाव रखता है। देश में महिलाओं को अशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने पर दंड देने के लिए कानून है। सीधा सा अर्थ है कि अश्लीलता का मतलब है नग्नता! जबकि, फिल्मों में कई बार कला और कथित स्टोरी की डिमांड के नाम पर महिला शरीरों को निर्लज्जता पूर्वक लगभग बिना कपड़ों के ही दर्शाया जाता है, इसे कौन स्वीकारेगा? हॉलीवुड की फिल्मों में नग्नता और हिंसा के चरम सीमा पर पहुँच जाने, फिल्म-निर्माताओं की असीम आकांक्षा, लालसा और ललक ने भी फिल्म के कलापक्ष का ताबूत खड़ा करने का प्रयास किया! लेकिन, बॉलीवुड के निर्माता यह तथ्य भूल गए कि तीन दशक पहले इसी सेक्स और हिंसा की बैसाखी पर खड़ी जापानी, फ्रेंच, स्वीडन एवं ब्राजील की फिल्मों ने भले ही विश्व बाजार में खड़े होने के पायदान ढूंढ लिए थे। लेकिन, अंततः उनकी यही लालसा उनके पतन का कारण भी बनी!
अंत में सशक्त एवं संवेदनशील फिल्मों की ओर लौटकर उन्हें अपनी अस्मिता बचानी पड़ी थी। अन्यथा उस दौर में उन्मुक्त सेक्स व नग्नता का जितना खुला प्रदर्शन जापान, फ्रांस, स्वीडन, बाजील व पोलैंड की फिल्मों में हुआ था, उतना अन्यत्र कहीं नहीं! यहाँ तक कि हॉलीवुड भी इसमें पीछे रह गया था। अब इस दौराहे पर भारतीय फ़िल्मकार क्या करें? सवाल लाख टके का है, पर जवाब तो दर्शक ही देंगे कि वे क्या देखना पसंद करेंगे। लेकिन, भारतीय फिल्मों को अगले स्तर पर ले जाने के लिए दोहरी मानसिकता से निजात पाना जरूरी है। हम खजुराहो जाते हैं और वहां नग्न मूर्तियों को देखकर उसे कला कहते हैं। जबकि, फिल्मों में अगर नग्नता दिखाई जाए तो हम हाय-तौबा मचाते हैं! इस दोहरी मानसिकता से और इस पाखंड से बाहर निकलना होगा। इसलिए जरूरी है कि सरकार और सेंसर बोर्ड को अपनी मानसिकता बदलना होगी।
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