Tuesday, March 4, 2025

जब फिल्मों में रंग नहीं थे, तब भी मनी रंगीली होली

     होली वैसे तो रंगों का त्यौहार है, पर सिनेमा के शुरूआती समय में जब फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करती थीं, तब भी होली प्रसंग फिल्माए और पसंद किए गए। फिल्मों में होली फिल्माने की शुरुआत 1940 में फिल्म 'औरत' से हुई। इसके बाद 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ आई। ये भी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का दौर था। जब फिल्मों में रंग भरे और होली फिल्माई गई, तब दिलीप कुमार 'आन' में निम्मी के साथ दिखाई दिए। फिल्मकारों को मस्ती भरा गाना फिल्माने का मौका मिलता है।
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- हेमंत पाल

      होली यानी रंगों वाला त्यौहार। ऐसा त्यौहार जिसमें सिर्फ मस्ती का मूड रहता है। दिल से लेकर दिमाग तक में रंग भरे होते हैं। इस त्यौहार ने जीवन के हर पक्ष पर अपना असर दिखाया। क्योंकि, रंग हमारे जीवन के हर पहलु से जुड़ा है और हर रंग कई गहरे अर्थ दर्शाते हैं। हमारे शरीर की आभामंडल में भी कई रंग हैं। अगर हम अपने आंतरिक रंग के प्रभाव और अर्थ को भूल गए हैं, तो अपने हाथों में रंग भरकर होली के दिन हम किसी दूसरे को रंग लगाते हैं। होली के रंग ऊर्जा, जीवंतता, और आनंद के प्रतीक होते हैं। हरा रंग हरियाली खुशहाली का प्रतीक है। जबकि, लाल रंग शक्ति और दृढ़ता दर्शाता है। पीला रंग प्रसन्नता दिखाता है। गुलाबी रंग में प्रेम बसता है। नीले रंग में विशालता बसी है। श्वेत रंग को शांति का प्रतीक माना जाता है। केसरिया संतोष या त्याग का प्रतीक है और बैंगनी रंग ज्ञान से जुड़ा है। यहां तक कि फिल्मों में भी यह त्यौहार सबसे पसंदीदा बन गया। फिल्मी परदे पर दर्शक कई दशकों से त्योहारों का जश्न मनते देखते आ रहे है। फिल्मों में सबसे ज्यादा होली के त्यौहार को मनाया जाता है। लेकिन, इसे आश्चर्य ही माना जाना चाहिए कि अभी तक होली नाम से सिर्फ दो फिल्में आई। एक थी 'होली' और दूसरी 'होली आई रे।' 1967 में 'भक्त प्रहलाद' बनी, जिसमें होली का धार्मिक आधार बताया गया।    
     कई फिल्मों में होली सीक्वेंस के गाने फिल्माए गए। लेकिन, जब फिल्मों में रंग नहीं भरे थे और ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्में बनती थी, तब भी फिल्मकारों ने होली के सीन फिल्माए। ये जानते हुए कि दर्शकों को परदे पर रंग नहीं दिखेंगे। फिर भी ऐसे दृश्य फिल्माए और उन्हें सराहा गया। साल 1940 में आई फिल्म 'औरत' में सबसे पहले होली सीन दिखाया गया था। यह फ़िल्म ब्लैक ऐंड व्हाइट थी, इसलिए इसमें होली के रंग परदे पर नहीं दिख पाए। फिल्म में एक गाना भी था, जिसके बोल थे 'आज होली खेलेंगे साजन के संग।' गायक अनिल विश्वास ने इस गीत को गाया और वे ही इसके म्यूजिक डायरेक्टर भी वही थे। होली को लेकर आया यह पहला गाना काफी हिट रहा। इस फिल्म को महबूब खान ने बनाया था। इस फिल्म को इसलिए भी याद किया जाता है, कि फिल्मों में होली दृश्य फिल्माने की शुरुआत यहीं से हुई। इसके बाद इसके बाद 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ आई। यह भी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी, जिसमें भी होली दृश्य फिल्माया गया था।
    इसके बाद 50 के दशक में महबूब खान की ही फिल्म 'आन' आई। इसमें दिलीप कुमार और निम्मी की जोड़ी थी। इनके साथ नादिरा ने भी 'आन' में अहम किरदार निभाया था। इस फिल्म ने होली के सीन में रंग भरा था। 'आन' में होली का गाना था 'खेलो रंग हमारे संग।' इस गाने में दिलीप कुमार और निम्मी ने रंगों के त्योहार को दिखाने के लिए ऐसी शानदार अदाकारी की। ये पहली बार था जब परदे पर होली के दृश्य रंगीन दिखाए गए। 'आन' का गाना भी लंबे समय तक दर्शकों में लोकप्रिय रहा था। नादिरा की ये डेब्यू फिल्म थी। अपनी पहली होली दृश्य वाली फिल्म 'औरत' महबूब खान को इतनी रास आई कि उन्होंने इस कथानक को 17 साल बाद 1957 में फिर बनाया जिसका नाम 'मदर इंडिया' था। यह फिल्म आज भी अपने दमदार कथानक के लिए याद की जाती है और हिंदी की कालजयी फिल्मों में से एक है। 'मदर इंडिया' 1957 में रिलीज हुई थी और ब्लॉकबस्टर साबित हुई। इसके बाद वी शांताराम की फिल्म 'नवरंग' में 'चल जा रे हट नटखट …' फिल्माया गया। इसके बाद से फिल्मों में होली सीक्वेंस डालने का सिलसिला चला आ रहा है। होली के सीन और गाने फिल्म को हिट कराने की गारंटी माने जाने लगे। लगने लगा मानो, सिनेमा और होली के बीच चोली-दामन का साथ हो। फिल्मों में होली दृश्य की अहमियत होती है, पर कई बार फिल्म से ज्यादा इसके होली गीत चर्चित होते हैं और यादगार बन जाते है। 

     वैसे फिल्मों की होली और उससे जुड़े गाने हमेशा से ट्रेंड में रहे। लेकिन, 50 के दशक तक फिल्मी दुनिया रंगीन हो चुकी थी। इस वजह से होली जैसे त्योहारों की चमक सिल्वर स्क्रीन पर भी अलग ही रंगत से नजर आने लगी थी। 'आन' के बाद फिल्मी परदे पर होली को फिल्माने का एक चलन-सा शुरू हो गया। कई फिल्मों में रंगों के सीन फिल्माए गए। आज भी कई ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें उनके होली दृश्यों की वजह से ही याद किया जाता है। फिल्मों में होली सीन कई बार कहानी में नया मोड़ देने के साथ दर्शकों को यादगार अनुभव भी देते हैं। शोले (1971), सिलसिला (1981), दामिनी (1993), मोहब्बतें (2000), बागबान (2003), गोलियां की रासलीला-राम-लीला (2013) ऐसी ही फ़िल्में हैं। 'मदर इंडिया' का 'होली आई रे कन्हाई…' क्लासिक होली गाने के तौर पर याद किया जाता है। इस गाने को होली पार्टियों में आज भी बजाया जाता है। 
    होली गीतों की एक खासियत यह भी है कि कई गीतों में आंचलिक लोकगीतों की गूंज होती है। होली के धमाल में फिल्मी होली गीतों की रंगत का तो कहना ही क्या! ऐसे गीतों में तन रंग लो पिया जी मन रंग लो, होली आई रे, दिल में होली जल रही है, आओ रे आओ खेलो होली बिरज में, जोगी जी धीरे धीरे, मल के गुलाल मोहे आई होली आई रे, अपने रंग में रंग दे मुझको. हर रंग सच्चा रे सच्चा,लेटस प्ले होली, बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी जैसे कई गीतों की लोकप्रियता बरकरार है। अमिताभ बच्चन और रेखा पर संजीव कुमार के साथ फिल्माया गया फिल्म 'सिलसिला' के होली गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' ने तो लोकप्रियता के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। फिल्मों ने एक से बढ़कर एक यादगार होली गीत दिए, जो दिलों को स्पंदित करते हैं। 
    इसके बाद फिल्म 'शोले' के गीत 'होली के दिन' ने भी रिकॉर्ड बनाया, जिसे धर्मेंद्र और हेमा मालिनी पर दिल को छू लेने वाले अंदाज़ में फिल्माया गया था। गीत की मिठास, मोहक नृत्य और रंग-अबीर के भव्य सेट दर्शक आज तक भूल नहीं पाए। फिल्म 'डर' का गीत जिसे शाहरुख खान पर फिल्माया गया 'अंग से अंग लगाना, सजन हमें ऐसे रंग लगाना' भी यादगार होली गीतों में जुड़ गया। ये चुनिंदा होली गीत दर्शकों के दिल की धड़कन बन गए और होली की मस्ती में छा गए। सत्तर और अस्सी के दशक में तो फिल्मों में होली गीतों की अहमियत इतनी बढ़ गई थी, कि लगभग हर साल एक दो फिल्मों में होली गीत होते ही थे। 
    वी शांताराम की फिल्म नवरंग का 'अरे जा रे हट नटखट ना छू रे मेरा घूंघट' गीत उस दौर का फिल्माया गया बेहतरीन गीत था जो आज भी बुजुर्गों का प्रिय गीत हैं। राजेश खन्ना और आशा पारेख पर फिल्माया गया 'कटी पतंग' का गीत 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली' हुड़दंग वाले गीत की श्रेणी में आता है। 'फागुन' फिल्म में धर्मेंद्र और वहीदा रहमान पर फिल्माया गया 'पिया संग होली खेलूं फागुन आयो रे' गीत का सुमधुर संगीत आज भी लोगों को याद है। राजश्री की 'नदिया के पार' में ग्रामीण परिवेश में सचिन और नवोदित अभिनेत्री साधना सिंह पर फिल्माया गया गीत 'जोगी जी धीरे-धीरे' को भी लोग भूले नहीं। इसी दशक में आईं फिल्म 'आखिर क्यों' में स्मिता पाटिल, टीना मुनीम और राकेश रोशन पर फिल्माया गया गीत 'सात रंग में खेल रही हैं दिल वालों की टोली रे' और मशाल फिल्म का गीत 'होली आई देखो होली आई रे' भी खूब पसंद किए गए।
     इसके बाद फिल्मों में धीरे-धीरे होली गीत कम देखने को मिले। वर्ष 2000 में फिल्म 'मोहब्बतें' में शाहरुख खान पर 'सोनी सोनी अंखियों वाली' होली गीत फिल्माया गया, जिसने युवाओं को आकर्षित किया। इसके बाद अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी की फिल्म 'बागबान' में भी 'होली खेले रघुवीरा अवध में' बहुत ही आकर्षक रूप से फिल्माया गया। बेहद दिलकश और मनमोहक अंदाज में फिल्माया गया 2005 में आईं फिल्म वक्त का गीत 'डू मी फेवर लेट्स प्ले होली' अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा पर फिल्माया आधुनिकता के रंगों में रंगा युवाओं की पसंद बना। फिल्मी गीतों के साथ-साथ बृज, भोजपुरी, राजस्थानी होली गीतों की एक लंबी सूची है। 
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इस साल तो विक्की कौशल की 'छावा' का जलवा

छत्रपति शिवाजी महाराज के जांबाज बेटे संभाजी राव पर बनी फिल्म 'छावा' का इन दिनों हिंदी इलाके के थियेटरों पर जलवा है। विक्की कौशल ने फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई और उस कैरेक्टर को बखूबी निभाया, जो अभी तक दर्शकों की कल्पना में ही रहा। 'छावा' को लेकर महाराष्ट्र समेत देशभर के दर्शकों का मूड बहुत सकारात्मक है। क्योंकि, अभी दो सप्ताह कोई बड़ी फिल्म रिलीज होने की लाइन में नहीं है। ऐसे में बॉक्स ऑफिस पर 'छावा' का ही डंका बजेगा। विक्की कौशल की इस फिल्म की कमाई की रफ्तार ने भी साबित कर दिया कि ये इस साल की सुपरहिट फिल्म होने वाली है। 2019 में विक्की की धमाकेदार फिल्म 'उरी' ने 245 करोड़ का कलेक्शन किया था। अब 'छावा' 300 करोड़ क्लब में एंट्री करने के लिए तैयार नजर आ रही हैं। 130 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म के बारे में अनुमान है की ये देशभर में 300 करोड़ से ऊपर जाएगी। 
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- हेमंत पाल

     विक्की कौशल जब से फिल्म इंडस्ट्री में आए, उनमें एक बहुमुखी और संभावनाशील कलाकार की झलक देखी गई। ऐसा बहुत कम कलाकारों के साथ हुआ। बीते कुछ सालों में उन्होंने जितनी भी फ़िल्में की, वे अलग-अलग जॉनर की रही। वे टाइप्ड नहीं हुए। उन्होंने युद्ध आधारित फिल्म 'उरी' में जो किया वह 'सैम बहादुर' में कहीं दिखाई नहीं दिया। अब उसकी कोई झलक उनकी नई फिल्म 'छावा' में दिखाई नहीं देती। छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति संभाजी महाराज की जीवनी वाली ये फिल्म हर दर्शक के दिल को छू रही है। फिल्म में विक्की कौशल ने संभाजी महाराज की भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने बेहतरीन अभिनय से किरदार में जान डाल दी। यही वजह है कि इसे उनके करियर की शानदार फिल्मों में बताया जा रहा। विक्की की इस फिल्म को लेकर दर्शकों का क्रेज कम नहीं हो रहा। महाराष्ट्र में तो यह फिल्म शानदार कमाई कर ही रही है। फिल्म देखने के बाद लोगों के रिएक्शन सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहे। कुछ लोग फिल्म देखने के बाद रो रहे हैं तो कुछ लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। 
    फिल्म की कहानी दिखाती है कि मुगलों के वर्चस्व को खत्म करने के लिए उनके प्रयास कितने कठिन थे। यह इतिहास का ऐसा अध्याय है, जिसे अनदेखा किया जाता रहा। विक्की कौशल ने इस विरासत के साथ पूरा न्याय किया है। क्योंकि, जब उनका किरदार विश्वासघात और हार का सामना करता है, वे पल दिल की धड़कन तेज करने वाले हैं। फिल्म में लड़ाई को इतना वास्तविक रूप दिया गया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह इतिहास का ऐसा योद्धा है, जिसकी बहादुरी ने एक युग को फिर से परिभाषित किया। कौशल ने सिर्फ एक किरदार ही नहीं निभाया, वे एक राष्ट्र की ताकत और संकल्प का प्रतीक बन गए हैं। विक्की कौशल का अभिनय किसी बिजली की तरह कौंधने वाला है। संभाजी महाराज के किरदार में उनका अभिनय दमदार और बहुआयामी दिखाई दिया। एक ऐसा सेनापति जिसकी मौजूदगी पूरी फिल्म में महसूस की जा सकती है। विक्की कौशल ने 24 साल के योद्धा की भावना को बहादुरी के साथ जीवंत किया। उन्होंने ऐसे युवा का किरदार निभाया, जिसने अकेले ने मुगल साम्राज्य घुटनों पर ला दिया था। भारतीय इतिहास के गुमनाम नायक के रूप में देखे जाने वाले संभाजी का चित्रण बेहतरीन तरीके से किया गया है। 
    न सिर्फ अभिनय बल्कि बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के मामले में भी 'छावा' ने इस साल रिलीज हुई फिल्मों को पीछे छोड़ दिया। इस साल के शुरूआती डेढ़ महीने में अक्षय कुमार की 'स्काई फ़ोर्स' ने ही ठीक-ठाक कमाई कमाई की थी, पर 'छावा' ने उसे काफी पीछे छोड़ दिया। इस साल विक्की कौशल, रश्मिका मंदाना और अक्षय खन्ना की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर इतिहास रचने की लगता है पूरी तैयारी कर ली। 'छावा' को सिर्फ अपने देश में ही नहीं, दुनियाभर में पसंद किया जा रहा। फिल्म ने रिलीज के शुरूआती 2 दिन में ही 100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। ये फिल्म अब तो 200 करोड़ के क्लब में एंट्री कर गई। आश्चर्य नहीं कि विक्की की ये फिल्म इस साल रिकॉर्ड तोड़ कमाई करने वाली पहली फिल्म बन जाए। 'छावा' में छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी महाराज की कहानी दिखाई गई है कि उन्होंने कैसे औरंगजेब से जंग लड़ी थी। बॉक्स ऑफिस पर फिल्मों की कमाई पर नजर रखने वाली एक एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक 'छावा' ने भारत में चार दिन में ही 168.60 ग्रॉस कलेक्शन किया। 'छावा' ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रखा है। छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज के किरदार में विक्की ने जान फूंक दी है। फिल्म में संभाजी महाराज के शौर्य और बलिदान की कहानी है। 
    इस फिल्म को दर्शकों से अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा, इससे पहले भी भारतीय लीजेंड्स पर कई फिल्में बनी, जिन्हें देख दर्शकों के रोंगटे खड़े हुए। 'छावा' ने दर्शकों को मराठा इतिहास के बारे में बताया तो 'तानाजी: द अनसंग वॉरियर' एकदम सही फॉलोअप है। फिल्म में अजय देवगन ने बहादुर सेनापति तानाजी मालुसरे का किरदार निभाया, जिन्होंने मुगलों से कोंढाणा किले को वापस हासिल करने में अहम भूमिका निभाई थी। संजय लीला भंसाली की 'बाजीराव मस्तानी' भी पेशवा बाजीराव (रणवीर सिंह) और मस्तानी (दीपिका पादुकोण) के रोमांस आधारित फिल्म है। 18वीं सदी के भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भव्य युद्ध दृश्य, विशाल सेट उस समय काल का जीवंत अनुभव कराते है। बाजीराव की पहली पत्नी काशीबाई का प्रियंका चोपड़ा का किरदार प्यार, वफादारी और बलिदान का प्रतीक है। अजय देवगन की फिल्म 'द लीजेंड ऑफ भगत सिंह' भारत के सबसे ज्यादा सम्मानित स्वतंत्रता सेनानियों में से एक फिल्म है। यह फिल्म भगत सिंह के क्रांतिकारी आदर्शों, ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ उनकी लड़ाई और भारत की स्वतंत्रता के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता दर्शाती है। शाहरुख़ खान ने फिल्म 'अशोका' में सम्राट अशोक की भूमिका निभाई। यह फिल्म अशोक के एक भयंकर योद्धा से एक दयालु शासक बनने के सफर पर आधारित है। ऐसी ही एक फिल्म 'मंगल पांडे' है, जिसमें आमिर खान ने मुख्य भूमिका निभाई। सिपाही मंगल पांडे ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम को हवा दी थी।
    संजय लीला भंसाली की दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और शाहिद कपूर स्टारर फिल्म 'पद्मावत' इतिहास पर आधारित फिल्मों के मामले में एक मील का पत्थर मानी जाती है। इस फिल्म की कुल कमाई 300 करोड़ से ज्यादा थी। 'पद्मावत' ने पहले वीकेंड में बॉक्स ऑफिस पर 114 करोड़ का कलेक्शन किया था। इसके मुकाबले 'छावा' पहले वीकेंड में 121 करोड़ का कलेक्शन कर चुकी है। इसमें भी एक दिलचस्प तथ्य यह है कि 'पद्मावत' गुरुवार को रिलीज हुई थी और इसे वीकेंड कलेक्शन में 4 दिन मिले। जबकि, 'छावा' की 121 करोड़ की कमाई सिर्फ 3 दिन की है। 'छावा' ने संबीते रविवार को 49 करोड़ का कारोबार किया, जो इस साल एक दिन में बॉक्स ऑफिस पर सबसे बड़ा कलेक्शन है। अब विक्की कौशल की ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर और  भी बड़े लैंडमार्क को पार करने की तैयारी में है। अभी तक इस साल रिलीज हुई फिल्मों में सबसे ज्यादा कमाई अक्षय कुमार स्टार की 'स्काई फोर्स' ने की। उसने बॉक्स ऑफिस पर 130 करोड़ का नेट कलेक्शन किया। इसका वीकेंड कलेक्शन 73 करोड़ था। जबकि, 'छावा' के पहले 3 दिन का कलेक्शन 'स्काई फोर्स' के वीकेंड कलेक्शन से तो बहुत ज्यादा है। बल्कि सोमवार की कमाई ने 'स्काई फोर्स' के टोटल कलेक्शन को भी पार कर दिया।  
    चारों तरफ तरफ विक्की कौशल और फिल्म 'छावा' का डंका बज रहा है। जो भी दर्शक 'छावा' देखकर थिएटर से निकल रहा है, वह विक्की कौशल की तारीफ करते हुए नहीं थक रहा। इनमें कई दर्शक फिल्म देखकर इतने भावुक हो गए कि संभाजी महाराज के जयकारे लगाने लगे। एक खास बात यह भी कि फिल्म में सभी एक्शन सीन विक्की कौशल ने खुद किए हैं। अभी तक यह अक्षय कुमार के बारे में चर्चित था कि कई मुश्किल एक्शन सीन उन्होंने खुद किए! अब विक्की ने भी इस फिल्म में वही किया। फिल्म के एक्शन डायरेक्टर परवेज शेख के मुताबिक विक्की कौशल ने कहा था कि सारे एक्शन सीन्स के लिए बॉडी डबल का इस्तेमाल न किया जाए। इनमें एक बेहद मुश्किल सीन वो था जब औरंगजेब, संभाजी महाराज को जंजीरों में बांध लेता है। 
     इस सीन में विक्की कौशल के हाथ-पैर बंधे और वे खून में लथपथ नजर आए। परवेज के मुताबिक, उस सीन की शूटिंग में विक्की को जंजीरों से बांध दिया गया था और उन्हें 2-3 घंटों तक जंजीरों में जकड़ कर खड़े रहना पड़ा। वो शॉट दिन के साथ-साथ रात में भी फिल्माए गए थे। उनकी मसल्स या किसी चीज में खिंचाव भी आ गया था। इस वजह से शूटिंग रोकनी पड़ी, इससे कुछ देरी हुई। लेकिन, फिजियोथेरेपी कराने के बाद विक्की ने फिर शूटिंग की। जो शूट किया गया था, वह बहुत मुश्किल था। इस एक्शन सीक्वेंस को फिल्माने के लिए 5-6 कैमरे और ड्रोन का इस्तेमाल किया। विक्की कौशल मशहूर एक्शन डायरेक्टर श्याम कौशल के बेटे हैं। इसलिए एक्शन की बारीकियां तो उन्हें विरासत में ही मिली होंगी। यह पहली बार है, जब विक्की कौशल ने मुश्किल एक्शन सीन किए। 
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मनोरंजन के बहाने सामाजिक मुद्दों पर भी चोट

- हेमंत पाल

      फिल्मों के बारे में आम धारणा है कि ये मनोरंजन के मकसद से देखी जाती हैं। फिल्मकार भी दर्शकों का मनोरंजन करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इनमें रहस्य-रोमांच होता है, कॉमेडी होती है, प्रेम कहानियां होती है, कुछ फ़िल्में डराती भी हैं और दर्शकों की पसंद वाले हर विषय को छूने की कोशिश होती है। लेकिन, अब दर्शक कुछ नया देखना चाहते हैं। नए दौर के दर्शकों को पुराने ढर्रे के कथानक रास नहीं आते। यही वजह है कि अब कई नए विषयों पर फ़िल्में बनने लगी। हाल की फिल्मों में समाज की विकृतियों और मुद्दों पर भी काफी ध्यान दिया जाने लगा। कई सामाजिक मुद्दों को भी अब फिल्मों में उठाया जाने लगा, जो अभी तक संभव नहीं था। अब सामाजिक मुद्दों को छूने के लिए फिल्म को गंभीर बनाने की कोशिश नहीं होती। 
       शाहरुख़ खान की फिल्म 'जवान' इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जो एक एक्शन फिल्म थी। पर, जिसका मूल विषय किसानों की कर्ज माफी और उनकी आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दा है। यह फिल्म किसानों के आत्महत्या, फसलों के उचित दाम और भ्रष्टाचार से जुड़ी सामाजिक घटनाओं पर प्रकाश डालती है। हाल की फिल्मों पर नजर डालें तो लवयापा, द मेहता बॉयज़, देवा और स्वीट ड्रीम्स ऐसी ही फ़िल्में हैं। जॉन अब्राहम और शरवरी वाघ अभिनीत फिल्म 'वेदा' में जातिवाद के आधार पर भेदभाव का मुद्दा उठाया गया। शरवरी वाघ बॉक्सिंग सीखना चाहती है, पर  उसकी इच्छा को गांव प्रधान पूरी नहीं होने देता। उसे छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है। आलिया भट्ट की फिल्म 'जिगरा' में घरेलू हिंसा का मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया। इसमें आलिया भट्ट के किरदार के साथ उसका पति अक्सर मारपीट करता रहता है। फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो जब से सिनेमा का सफर शुरू हुआ, नए विषयों का हमेशा अभाव देखा गया। शुरुआत में धार्मिक कथाओं पर फ़िल्में बनाकर दर्शकों को जोड़ने की कोशिश हुई। फिर राजा-महाराजाओं की कहानियों, राजमहलों के षड्यंत्रों पर खूब फ़िल्में बनी। 
    बाद में जब आजादी के संघर्ष की हवा चली तो उस पर भी कुछ फ़िल्में बनी! किंतु, आजादी के बाद तो लम्बे समय तक ऐसी फिल्मों का दौर चला जिसमें संघर्ष की गाथाओं को अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया। जब ये दौर ख़त्म हुआ तो बाद की फ़िल्में प्रेम, बदला, राजनीति, धर्म, कॉमेडी और पारिवारिक विवादों तक सीमित हो गई। इस दायरे से बाहर भी फ़िल्में बनी, पर उनकी संख्या सीमित थी। 40 के दशक में गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फिल्मों के निर्माण किया गया। 50 के दशक की फिल्मों का दौर आदर्शवादी रहा। जबकि, 60 का समय काफी कुछ अलग था। जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रेंड राज कपूर ने शुरू किया था, वह इस दशक में छाया रहा था। लेकिन, 70 का दशक की फिल्मों ने व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह को ज्यादा दर्शाया।  80 के दशक में फिल्मकारों को यथार्थवाद दिखाने का जुनून चढ़ा, जबकि 90 का समय आर्थिक उदारीकरण दर्शाने वाली फिल्मों का रहा। दरअसल, सिनेमा समाज की स्थिति दर्शाने का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। फिल्मों से ही आजादी के आंदोलन की कहानी, राष्ट्रीय एकता का संघर्ष, वैश्विक समाज की सच्चाई और देश के ताजा हालात की कथाओं को फिल्माया गया। 
    इस सिनेमा से ही बदलते भारत की झलक भी मिली है। इस तरह के बदलाव वाले विषय को ढूंढते हुए एक समय ऐसा भी आया, जब कला फिल्मों का दौर चला और अंकुर, मंथन, निशांत जैसे प्रयोग हुए। जमींदार के खूंटे से बंधी दलित राजनीति के प्रपंच को श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ और ‘मंथन’ से दिखाया। लेकिन, उन हलकों में प्रतिशोध की ताकत पैदा की प्रकाश झा के नए सिनेमा ने! ‘दामुल’ यदि उसका बेहतरीन उदाहरण है, तो ‘अपहरण’ उसी मानसिकता वाले औजारों से अलग तेजी से बदती राजनीति के हिंसक प्रतिरूपों की पहचान बना। बाद में इसे प्रकाश झा ने 'राजनीति' में और पैना किया। लेकिन, दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए, इसीलिए फिल्मकारों ने बरेली की बरफी, हिंदी मीडियम, टॉयलेट : एक प्रेम कथा, तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका और 'नाम शबाना' जैसे प्रयोग किए।  
     इस बीच राजनीतिक फ़िल्में भी बनी और दर्शकों ने इसमें रूचि भी दिखाई। 'कलयुग' इस श्रेणी में मिसाल थी, जिसने दर्शकों को आकर्षित किया। फिर 'सत्ता' जैसी फिल्मों ने राजनीति के समीकरण में स्त्री-विमर्श के हस्तक्षेप से नया मोर्चा संभाला। बाद में मणिरत्नम, मृणाल सेन, गुलजार की तरह विशाल भारद्वाज और प्रकाश झा ने ठेठ राजनीतिक फिल्मों में छौंक लगाई। राजनीति और पारिवारिक रिश्तों को जोड़कर गुलजार ने 'आंधी’ जैसी सफल फिल्म बनाकर फिर राजनीतिक साजिशों की कॉमिक सिचुएशन पर ‘हु तू तू’ और विशाल भारद्वाज के साथ मिलकर आतंकवाद के रिश्तों को पनपाती ‘माचिस’ का निर्माण किया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में राजनीति की बिसात पर आज रंग दे बसंती, पार्टी, युवा या ए वेडनेसडे और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फिल्मों की जरुरत ज्यादा है। 'ट्रेन टू पाकिस्तान' या 'अर्थ 1947' से ज्यादा आज की राजनीति का नया आकलन करने वाली ‘परजानिया’ जैसी फिल्मों को ज्यादा पसंद किया गया। क्योंकि, यदि ऐसा नहीं हुआ, तो राजनीतिक सिनेमा के नए विषयों वाले तेवर सामने कैसे आएंगे!
     ‘राजनीति’ से पहले राजनीति के नए आयाम ‘गुलाल’ ने दिखाए। युवा पीढ़ी के प्रतिबिंबों को झलकाती एक से एक बेहतर तस्वीरें रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्नाभाई, दिल्ली-6 तक में दिखाई और आजमाई भी गई। राजनीतिक विषयों पर जब भी कोई फिल्म आती है, परदे पर उतरने से पहले ही वह चर्चित हो जाती है। लोगों में उत्सुकता जगा जाती है। लेकिन, प्रकाश झा की फिल्म का नाम ‘राजनीति’ होते हुए भी इस फिल्म को लेकर कोई कॉन्ट्रोवर्सी नहीं हुई! जबकि, गांधी परिवार को लेकर राजनीति पर बनी फिल्में रिलीज के पहले ही खूब पब्लिसिटी बटोरती हैं। बरसों पहले आई गुलजार की ‘आंधी’ को भी जमकर कॉन्ट्रोवर्सी हुई थी। क्योंकि, उसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी से मिलते जुलते किरदार और गेटअप में प्रस्तुत किया गया था। 
    मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' को लेकर भी यही सब हुआ। इसमें नील नितिन मुकेश का लुक संजय गांधी से मिलता जुलता था। पर, जितना विवाद हुआ, उतनी फिल्म चली नहीं! ये नितांत सत्य है कि सौ साल बाद भी भारतीय सिनेमा दायरे अपने से बाहर नहीं आ पाया! कुछ नया करने की उसकी छटपटाहट तो दिखती है, पर कोई कोशिश करना नहीं चाहता! सब प्रेम कहानियाँ, एक्शन या कॉमेडी बनाकर सौ करोड़ के क्लब शामिल होने के सपनों की गिरफ्त से ही बाहर नहीं निकल पा रहे!
     सिनेमा को कमर्शियल नजरिए से देखने वाला तबका इसे आसान बनाकर 'फना' जैसी फिल्म बनाता है। दूसरा बौद्धिक खेमा सिनेमा की अवधारणा में अचानक कैद होकर-शेक्सपियर ड्रामे के रूपांतरण का मजा लेता है! उसे ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के अपराध जगत में भी प्रेम और राजनीति की गठजोड़ के छद्म रूपक की नई लीला रचकर संतुष्टी होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा को शेक्सपियर के नाटकों से कहीं ज्यादा हिंदी उपन्यासों के कथानक की दरकार होनी चाहिए। सवाल खड़ा होता है कि क्या उन उपन्यासों में नई पटकथाओं की गुंजाइश नहीं है, जो नया सिनेरियो प्रस्तुत कर सकें। दर्शकों सामने मनोरंजन का नया मसाला पेश करने की कोशिश में कई तरह के प्रयोग हुए और हो भी रहे हैं। फिल्मकारों ने कारोबार जैसे गरिष्ठ विषय को भी फिल्म बनाने के लिए चुना और इसमें सफल भी हुए। जबकि, वास्तव में ऐसे विषयों पर फिल्म बनाना आसान नहीं होता। 
     इस बीच कुछ ऐसे फिल्में भी बनाई गई जो कारोबार शुरू करने के लिए प्रेरित करती हैं। 2010 में आई 'बैंड बाजा बारात' वैसे तो एक रोमांटिक फिल्म थी। इसमें अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह ने अच्छी एक्टिंग भी की। इस फिल्म में वेडिंग प्लानर के काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया गया था। इस काम में आने वाले उतार-चढ़ाव को बारीकी से मनोरंजक ढंग से फिल्माया। ऐसी ही फिल्म 'गुरु' थी, जो वास्तव में धीरूभाई अंबानी की रियल स्टोरी पर आधारित थी। ये भी एक नया विषय था, जिसमें गुजरात के एक छोटे से गांव से निकले ऐसे नौजवान की कहानी थी, जो अभाव को पछाड़ते हुए एक दिन सबसे अमीर लोगों में शामिल होता है। परिस्थितियों से हार न मानने वाले जुझारू व्यक्ति की ये कहानी प्रेरणा देने वाली थी। इसमें अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी।
      'रॉकेट सिंह' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें एक कॉलेज स्टूडेंट्स को ठोकर खाकर खुद की मालिक बनते दिखाया गया। इसमें रणबीर कपूर की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में रणवीर सेल्समैन रहता है, जिसके कामकाज की कद्र नहीं होती। तंग आकर वो अपना खुद का काम शुरू करता है, जो आगे चलकर एक बड़ी कंपनी का रूप ले लेता है। 'कॉरपोरेट' भी ऐसी ही फिल्म थी। ये फिल्म कुछ खास तो नहीं कर पाई, पर फिल्म ने कॉरपोरेट जगत की कई कड़वी सच्चाइयों से रूबरू जरूर करवाया। 'बदमाश कंपनी' भी इसी ट्रेंड की फिल्म थी, जिसमें शाहिद कपूर और अनुष्का शर्मा के बहाने कई बिजनेस आइडिया सामने लाने की कोशिश की गई थी। यह फिल्म मिडिल क्लास के कुछ दोस्तों पर केंद्रित है, जो बड़ा आदमी बनने की कोशिश में रहते है। इसके लिए कई रास्ते तलाशते रहते हैं। फिल्म में कारोबार के कई गलत तरीकों को दिखाया गया, पर फिल्म के विषय में नयापन था। अभी फिल्मकारों की नए विषय खोजने की छटपटाहट ख़त्म नहीं हुई! सौ साल से ये चल रही है और अनवरत चलती भी रहेगी! क्योंकि, हर विषय में कहीं न कहीं मनोरंजन छुपा होता है!  लेकिन, सबसे बड़ी बात यह कि अब सिनेमा समाज के मुद्दों को भी अपने कथानक बनाने लगा।
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आस्था के संगम में फ़िल्मी सितारों की डुबकी!

    चारों तरफ इन दिनों प्रयागराज के 'महाकुंभ' की चर्चा है। यहां देशभर से करोड़ों श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ रहा है। देश के हर शहर, कस्बों और गांव से लोग संगम के तट पर आस्था की डुबकी लगाने को बेताब हैं। विदेशों से भी लोग प्रयागराज में पवित्र स्नान करने पहुंच रहे हैं। हर श्रद्धालु पुण्य कमाने का ये अवसर छोड़ना नहीं चाहता, इसलिए संगम में डुबकी लगा रहा है। अनगिनत आध्यात्मिक गुरु, देशी-विदेशी उद्योगपति, नेता और फिल्म इंडस्ट्री के कई सितारे अब तक संगम में डुबकी लगा चुके। हिंदी फिल्मों से लगाकर भोजपुरी, बंगाली और दक्षिण की फिल्मों के सितारे भी पुण्य कमाने में पीछे नहीं हैं।  
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- हेमंत पाल

    धर्म और आस्था का सबसे बड़ा समागम प्रयागराज का महाकुंभ अपनी पूरी भव्यता के साथ चल रहा है। अब तक करोड़ों श्रद्धालु और संतों के साथ देश और दुनिया के हर क्षेत्र की कई बड़ी हस्तियां इस आयोजन के पवित्र संगम में डुबकी लगा चुकी। ऐसे में फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी हस्तियां भी पीछे नहीं रही। कलाकारों, संगीत से जुड़ी नामचीन हस्तियों और टेलीविजन के लोगों ने महाकुंभ में शिरकत की और गंगा, जमुना और सरस्वती की पवित्र त्रिवेणी के संगम में स्नान कर आध्यात्मिक संतुष्टि महसूस की। प्रयागराज महाकुंभ के इस भव्य महाआयोजन का आनंद लेने के लिए करोड़ों श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। ऐसे में आम लोगों के साथ कई फिल्मी हस्तियों ने भी महाकुंभ में शामिल होकर सनातन धर्म को करीब से जाना। खास बात यह कि ये हस्तियां बिना किसी लवाजमे के यहां पहुंचे और पुण्य के भवसागर में आस्था की डुबकी लगाई।  
     इस पवित्र संगम में जिस भी फ़िल्मी हस्ती ने डुबकी लगाई, उसने बिना किसी दिखावे के धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा दर्शाई। कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर फ़िल्मी लोग अपनी पहचान बताए बिना महाकुंभ में आए और गंगा नहाए। हेमा मालिनी और रवि किशन जैसे लोगों के आसपास जरूर सुरक्षा व्यवस्था नजर आई। जबकि, दक्षिण के कई बड़े सितारे ऐसे भी आए जो सामान्य व्यक्ति की तरह महाकुंभ में पहुंचे। इस इलाके के एक नामी खलनायक ने तो अपनी पहचान जाहिर करने पर नाखुशी तक जाहिर की। उनका कहना था कि ये मेरी निजी जिंदगी है, इसमें किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है। महाकुंभ में हस्तियों को लेकर कुछ अलग प्रसंग भी हुए, उनमें 90 के दशक की मशहूर बॉलीवुड एक्ट्रेस ममता कुलकर्णी, माला बेचने वाली मोनालिसा और आईआईटियन संत भी हैं।  ममता कुलकर्णी ने महाकुंभ 2025 के दौरान किन्नर अखाड़ा में शामिल होकर संन्यास ग्रहण किया। उनके इस फैसले को जमकर प्रचार भी मिला। लेकिन, संतों के आपसी विवाद की वजह से सात दिन बाद ही धार्मिक नेताओं के विरोध के कारण उन्हें महामंडलेश्वर पद से हटा दिया गया। 
सितारों ने गंगा जल में अपनी आस्था व्यक्त की 
    हिंदी और भोजपुरी के मशहूर एक्टर और सांसद रवि किशन भी संगम में डुबकी लगाने महाकुंभ में पहुंचे। उन्होंने सोशल मीडिया पर अपना वीडियो पोस्ट किया, जिसमें वे संगम में डुबकी लगाते और पूजा करते दिखाई दिखे। वीडियो पोस्ट करते हुए रवि किशन ने अपनी भावना जाहिर की और लिखा 'तीर्थराज प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में संगम में स्नान के पश्चात पूजा किया। देश की आस्था, संस्कृति की प्रतीक पवित्र गंगा और यमुना को निर्मल और अविरल करने का कार्य पूरा हो, इसकी प्रार्थना की!' जाने माने एक्टर अनुपम खेर ने भी महाकुंभ में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए पवित्र स्नान किया। उन्होंने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर स्नान की झलक शेयर की और इस आध्यात्मिक क्षण में भगवान से प्रार्थना करते हुए मंत्रों का जाप किया। इस एक्टर ने यह भी कहा कि अब उनका जीवन सफल हो गया। एक्टर भक्ति में लीन नजर आए। फिल्म कोरियोग्राफर एंड डायरेक्टर रेमो डिसूजा भी संगम में डुबकी लगाने पहुंचे। इस दौरान एक्टर फैंस से अपना चेहरा छुपाकर स्नान किया। स्नान के बाद रेमो ने सोशल मीडिया पर एक शानदार वीडियो शेयर किया।
     अभिनेत्री नीना गुप्ता और संजय मिश्रा भी महाकुंभ में पहुंचे। दोनों ही कलाकारों ने मेले का भ्रमण किया और संगम में डुबकी के साथ गंगा को नमन कर अपनी आने वाली फिल्म की सफलता की कामना की। दोनों ही कलाकार अपनी अगली फिल्म 'वध-2' के प्रचार के लिए भी प्रयागराज पहुंचे। नीना गुप्ता ने कहा कि मां गंगा के पवित्र जल में स्नान का अवसर एक आध्यात्मिक यात्रा जैसा अहसास था। इतने बड़े आयोजन में आध्यात्मिकता के भावों को एकाकार होते देखना सुखद लगा। भीड़ के भावों को देखा तो लंबे समय बाद इंतजार पूरा होने के पल को 'अद्वितीय' बताया।
     प्रयागराज में महाकुंभ मेले के अपने आध्यात्मिक यात्रा के दौरान इसके भव्य स्वरूप से वह आश्चर्य के भावों से भरी नजर आईं। अभिनेता संजय मिश्रा भगवा कपड़ों में यहां पहुंचे। उनकी भावना थी, कि यहां पर सब कुछ है। आस्था का सागर देखना और लोगों का उत्साह इतना सुखद है कि शब्दों में बयान करना मुश्किल है। गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती नदियों के संगम पर आयोजित होने वाला महाकुंभ का हिस्सा होना सुखद अनुभव है। 
    फिल्म अभिनेता राजकुमार राव ने पत्नी पत्रलेखा के साथ पवित्र समागम का हिस्सा बनने के लिए ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त किया। कहा कि हम इस पल का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। मेरी पत्नी और मेरी मां की गंगा में गहरी आस्था है और यह तीर्थयात्रा हमारे दिल के बहुत करीब है। हम पिछले महाकुंभ में भी डुबकी लगाने का सौभाग्य अर्जित कर चुके हैं। वे महाकुंभ की हवाओं में बिखरे आध्यात्मिकता के भावों और लाखों-करोड़ों लोगों को कुंभ स्नान करते देखकर अभिभूत दिखे। 12 साल बाद कुंभ में आने और संगम में डुबकी लगाने पर उत्साहित भी दिखाई दिए। वे यहां परमार्थ निकेतन आश्रम में ठहरे और कहा कि वे भाग्यशाली हैं। ईश्वर दयालु है कि हमें यहां पुण्य की डुबकी लगाने का अवसर मिला।
    'मैंने प्यार किया' से धूम मचाने वाली एक्ट्रेस भाग्यश्री अपने बच्चों अवंतिका और अभिमन्यु दासानी के साथ प्रयागराज पहुंचीं और सोशल मीडिया पर वहां की झलकियां शेयर कीं। प्रसिद्ध लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने भी भक्तों से अपने पवित्र स्नान को आध्यात्मिक ज्ञान के साथ पूरक करने का आग्रह किया। महाकुंभ केवल पवित्र जल में स्नान करने के बारे में नहीं है। यह संतों से ज्ञान प्राप्त करने और आध्यात्मिकता को अपनाने के बारे में है। इस दिव्य अवसर को चूकना एक बड़ी क्षति होगी।
      कलाकार मिलिंद सोमन भी पत्नी अंकिता कोंवर के साथ प्रयागराज आए। इस जोड़े ने मौनी अमावस्या के शाही स्नान वाले दिन संगम में डुबकी लगाई। एक्टर और उनकी पत्नी भक्ति में डूबे दिखे। दोनों ने अपनी कई फोटो सोशल मीडिया पर शेयर की हैं। फिल्मों की ड्रीम गर्ल और सांसद हेमा मालिनी भी मौनी अमावस्या के मौके पर महाकुंभ पहुंची। इस दौरान उनके संग बाबा रामदेव भी नजर आए। उनकी कई फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए। अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी ने भी महाकुंभ मेले में शिरकत की। उन्होंने त्रिवेणी संगम पर स्नान किया और सोशल मीडिया पर अपनी फोटो शेयर की।
     अभिनेत्री और काजोल की बहन तनीषा मुखर्जी भी महाकुंभ में स्नान के लिए पहुंची। अदाकारा ईशा गुप्ता भी संगम में डुबकी लगाते हुए नजर आई। जिसकी कई तस्वीरें उन्होंने अपने ऑफिशियल इंस्टाग्राम पेज पर शेयर की हैं। फिल्म 'जन्नत' में नजर आई एक्ट्रेस सोनल चौहान भी प्रयागराज के महाकुंभ पहुंची। उन्होंने महाकुंभ में त्रिवेणी संगम में आस्था की डुबकी लगाई। इसके अलावा उन्होंने सनातनी धर्म गुरु स्वामी कैलाशनंद गिरी जी से भी मुलाकात कर आशीर्वाद लिया।
      अभिनेत्री पूनम पांडे भी महाकुंभ में दिखाई दी। संगम में स्नान करते हुए कई तस्वीरें शेयर की। उन्होंने लिखा 'महाकुंभ ... जीवन को करीब से देखना, जहां 70 साल का बुजुर्ग घंटों नंगे पैर चलता है, जहां आस्था की कोई सीमा नहीं होती। जिन लोगों ने अपनी जान गंवाई, उनके लिए गहराई से महसूस कर रही हूँ, उम्मीद है कि उन्हें मोक्ष मिलेगा। यहां की भक्ति ने मुझे निःशब्द कर दिया। फिल्म इंडस्ट्री के कई स्टार्स अब तक महाकुंभ मेले पहुंचकर संगम नदी में स्नान कर चुके हैं। ईशा गुप्ता, हेमा मालिनी, अनुपम खेर, सिंगर गुरु रंधावा, एक्ट्रेस तनीषा मुखर्जी, केजीएफ एक्ट्रेस श्रीनिधि शेट्टी, फिल्ममेकर एकता कपूर समेत तमाम फिल्मी सितारे महाकुंभ में भाग ले चुके। वहीं इससे पहले फेमस इंटरनेशनल रॉक बैंड कोल्ड प्ले के सिंगर क्रिस मार्टिन व एक्ट्रेस डकोटा जॉनसन ने भी महाकुंभ में स्नान किया था।            
महाकुंभ से निकले ममता, मोनालिसा जैसे चार रत्न   
    मॉडल हर्षा रिछारिया, माला बेचने वाली कत्थई आंखों वाली मोनालिसा, आईआईटीयन बाबा और पूर्व अभिनेत्री ममता कुलकर्णी इस महाकुंभ के कुछ ऐसे पात्र हैं, जो कई दिनों तक चर्चा में बने रहे। सबसे ज्यादा माहौल बना ममता कुलकर्णी का जो 90 के दशक की लोकप्रिय हीरोइन थी। अपने बोल्ड लुक और सुंदरता के लिए लोकप्रिय ममता करीब 19 साल पहले गायब हो गई थी। इनका नाम अंडरवर्ल्ड से लेकर ड्रग्स माफिया और कई गुंडों तक से जुड़ता रहा। एक बड़ी ड्रग्स तस्करी में नाम आने के बाद तो 15 साल से कोई पता ही नहीं था। अचानक ममता कुलकर्णी इस महाकुंभ में अवतरित हुई और किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर बन गई। 
     संगम तट पर पिंडदान किया और उन्हें नाम मिला यामाई ममता नंद गिरि। लेकिन, सप्ताहभर में ही उनकी सारी कीर्ति ध्वस्त हो गई साधु-संतों के विरोध के बाद उन्हें महामंडलेश्वर के पद से हटा दिया गया। ऐसी ही लोकप्रियता एक माला बेचने वाली लड़की मोनालिसा को उसकी कत्थई आंखों और नैसर्गिक सुंदरता के कारण मिली। महाकुंभ में वे इतनी ज्यादा चर्चित हो गई कि उसे परिवार ने वापस अपने मध्यप्रदेश के गांव महेश्वर (जिला खरगोन) भेज दिया। लेकिन, उसकी सुंदरता ने फिल्म इंडस्ट्री को प्रभावित किया कि उसे एक फिल्म की हीरोइन बना दिया गया। फ़िलहाल वे मुंबई में  एक्टिंग की ट्रेनिंग के साथ अपने मेकओवर में लगी है। इन दोनों के अलावा मॉडल हर्षा रिछारिया और आईआईटीयन बाबा भी कुछ दिन ख़बरों में छाए रहे, पर समय के साथ ये सभी हाशिए पर चले गए। पर, आस्था और धार्मिक चेतना जगाने वाला महाकुंभ जारी है।   
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हिंदी दर्शकों पर दक्षिण के सितारों का दबदबा

- हेमंत पाल 

    क्षिण भारत की फिल्में हिंदी दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। इन फ़िल्मों की सशक्त कहानियां और भावनात्मक गहराई के कारण ये दर्शकों को काफी पसंद आती हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों की लोकप्रियता के कुछ कारण ये भी हैं कि साउथ की फ़िल्में जमीन से जुड़ी होती हैं। इनमें जीवन की सच्चाई दिखाई जाती है। साउथ की फिल्मों में कहानी के मुताबिक कलाकारों की अहमियत कुछ खास होती है। इन फ़िल्मों में लोककथाओं और आध्यात्म से जुड़े विषय दिखाए जाते हैं। इन फ़िल्मों में कहानियां मुख्य तत्व होती हैं। ये फ़िल्में तेलुगु, तमिल, मलयालम, और कन्नड़ जैसी भाषाओं में बनती हैं। कुछ सालों से हिंदी दर्शकों में भी साउथ फिल्मों का भारी क्रेज नजर आ रहा है। पिछले साल भी साउथ फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर दबदबा रहा। बाहुबली, पुष्पा-2, आरआरआर, कांतारा, कल्कि 2898 एडी और 'हनुमान' को बॉक्स ऑफिस पर काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। कलेक्शन के मामले में भी ये कई बॉलीवुड फिल्मों पर भारी पड़ीं। दक्षिण भारतीय फिल्मों को टॉलीवुड, कॉलीवुड, सैंडलवुड, और मॉलीवुड जैसे नामों से जाना जाता है जैसे मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड कहा जाता है।  
    हाल के वर्षों में हिंदी के दर्शकों में सबसे बड़ा अंतर उनकी पसंद को लेकर आया। वे औसत दर्जे की फिल्में देखना पसंद नहीं करते। उन्हें ऐसी कहानियां चाहिए जो उनके दिल के साथ दिमाग तक पहुंचे। यही कारण है कि साउथ का सिनेमा इस मामले में हिंदी से बहुत आगे निकल गया। जबकि, हिंदी के दर्शकों की अपेक्षा पर हिंदीभाषी सिनेमा खरा नहीं उतर पा रहा। 'बाहुबली' के बाद 'आरआरआर' और 'पुष्पा' सीरीज की फिल्मों ने इसे साबित कर दिया! याद करने पर भी याद नहीं किया जा सकता कि ऐसी कौनसी हिंदी फिल्म थी, जिसने बड़े वर्ग के दर्शकों को प्रभावित किया। मुगले आजम, शोले और 'बॉबी' तो अब तो अब मिसाल बनकर रह गई। उत्तर के दर्शकों को बाहुबली, आरआरआर, पुष्पा: द राइज़ या मंजुम्मेल बॉयज जैसी हैरतअंगेज प्रभाव पैदा करने वाली फिल्में ही रास आने लगी। हिंदी और और साउथ के सिनेमा के बीच कंटेंट के हिसाब से खाई चौड़ी होती जा रही है। हिंदी में में अक्सर कहानी से ज्यादा चमक-दमक और ग्लैमर पर फोकस किया जाता है। जबकि, साउथ फिल्म मेकर्स चमक-दमक को कहानी पर हावी नहीं होने देते। साउथ में कभी कहानी से समझौता नहीं किया जाता। वहां के फिल्मकार जानते हैं कि दर्शक एक्शन के साथ कहानी भी देखना चाहते हैं। साउथ के निर्माता दर्शकों की इस इच्छा को नजरअंदाज नहीं करते, जिसका बेहतर नतीजा उन्हें बॉक्स ऑफिस पर भी देखने को मिलता है। 
     हिंदी के दर्शक आज साउथ फिल्मों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुक है। हिंदी फिल्म की रिलीज पर दर्शक उतना उत्साहित नहीं होता, जितना वह साउथ की फिल्मों को देखना चाहता है। इसलिए कि जब हिंदी की कोई बड़ी फिल्म रिलीज होती है, तो हिंदी बेल्ट में तो कई जगह पर वह दर्शकों को प्रभावित कर लेती है। लेकिन, साउथ रीजन में हिंदी की फ़िल्में नहीं चल पाती। इसी से समझा जा सकता है कि साउथ की फिल्में अब रीजनल भाषा की फ़िल्में नहीं रही, बल्कि वे हिंदी के दर्शकों को भी उतना ही प्रभावित करती हैं। लेकिन, सवाल उठता है कि हिंदी की फिल्में साउथ में अच्छा कारोबार क्यों नहीं कर पाती। जबकि, साउथ की फ़िल्में हिंदी बेल्ट में आसमान फाड़ देती है। कुछ समय से साउथ की फिल्मों का दबदबा सिर्फ देश में ही नहीं, दुनियाभर में देखने को मिल रहा है। आश्चर्य इस बात का कि साउथ के जो हीरो चार राज्यों तक सीमित थे, वे देश के अलावा दुनियाभर में भी पसंद किए जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि साउथ के किसी एक डायरेक्टर या हीरो की ही फिल्म सफल हो रही है। दर्शक किसी बड़े सुपरस्टार के प्रभाव से ही साउथ की फिल्में नहीं देख रहे। कोई भी हीरो और डायरेक्टर हो, साउथ की फिल्मों को हर जगह पसंद किया जा रहा। 

    इस रीजन की फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन इस बात का प्रमाण भी है। पुष्पा, पुष्पा-2, आरआरआर, बाहुबली और इस जैसी कई फिल्मों को हिंदी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया है। इन्हें इंतजार इस बात का रहता है कि कब कोई साउथ की नई फिल्म रिलीज हो और वे देखें। सिर्फ इसलिए कि साउथ की फिल्मों के कथानक में वो ताकत है, जो हिंदी के दर्शकों को प्रभावित करती है। इस बात को निःसंकोच कहा जा सकता है कि हिंदी के फिल्मकारों में एक ही लीक पर चलने की आदत है, जो साउथ में कहीं नजर नहीं आती। नए प्रयोग करने से साउथ के डायरेक्टर चूकते नहीं, पर उत्तर भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में वो बात नहीं! यहां हीरो और हीरोइन को हमेशा खूबसूरत दिखाने की होड़ सी लगी रहती है, जबकि साउथ में इसका उल्टा है। इसका सबसे बड़ा सबूत है 'पुष्पा' जिसके स्मार्ट हीरो को काला और बदसूरत बनाने के लिए उसका मेकअप किया गया था। यह भी सच है कि हिंदी के शाहरुख खान, सलमान खान और रणबीर कपूर जैसे बड़े कलाकारों की कई फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचाया। लेकिन, साउथ में इनकी कई फिल्मों को नकार दिया गया। 
    यही वजह है कि आजकल हिंदी की कई फिल्मों में साउथ के किसी हीरो को शामिल करके फिल्मों को सफल बनाने की गारंटी बना ली जाती है। 'ब्रह्मास्त्र' और 'कल्कि' की सफलता से इसे आसानी से समझा जा सकता है। ‘आरआरआर’ में अजय देवगन और आलिया भट्ट मेहमान भूमिकाओं में आए, जबकि ‘केजीएफ-2’ में संजय दत्त और रवीना टंडन अच्छा खासा रोल नजर आया। साउथ के फिल्मकारों ने साबित कर दिया कि उनकी कहानी फिल्माने की कला से भी असाधारण फिल्म बनाई जा सकती है। दक्षिण की डब फिल्में हिंदी के दर्शकों को जमकर आकर्षित कर रही हैं। पारंपरिक दर्शकों को तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम सिनेमा की स्वीकार्यता बढ़ी है। सनी देओल, सलमान, शाहरुख और अक्षय कुमार की फिल्मों को पसंद करने वाले दर्शक महेश बाबू, रामचरण, यश, प्रभास, अल्लू अर्जुन, जूनियर एनटीआर के दीवाने हो गए। 
    हिंदी के दर्शकों पर साउथ का जादू कब चला, इसे जांचा जाए तो याद आता है कि आठ साल पहले तेलुगू फिल्मकार एसएस राजामौली की फिल्म 'बाहुबली: द बिगनिंग' ने उत्तर भारत के हिंदी में जो धमाका किया था, उसका कोई तोड़ नहीं है। उसके बाद साउथ की फिल्मों की चमक उत्तर के हिंदी बेल्ट में तेज होती गई। 'बाहुबली' के बाद राजामौली की ही फिल्म ‘आरआरआर’ ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई का रिकॉर्ड बना दिया। 'केजीएफ' सीरीज और ‘पुष्पा: द राइज’ ने भी अच्छी कमाई की। ‘केजीएफ’ और ‘पुष्पा’ की छोटी-सी कहानी को जिस तरह भव्य रूप में परदे पर पेश किया, वो भी कमाल ही है। इन फिल्मों में एक्शन सीक्वेंस और के सहारे कथानक रचा गया। इसी से समझा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों के मुकाबले दक्षिण की फ़िल्में आज के दर्शकों की नब्ज ज्यादा अच्छी तरह समझने लगी हैं। अब साउथ की हिंदी में डब फिल्मों को तालियां और सीटियां मिल रही है। ‘जय भीम' जैसी फिल्म भी फिल्मों के गंभीर दर्शकों को पसंद आने लगी।
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Tuesday, January 28, 2025

25 साल से अमिताभ ही 'केबीसी' में लॉक

- हेमंत पाल

      अमिताभ बच्चन की तरह बड़े परदे पर दूसरा एंग्री यंग मैन हुआ और न छोटे पर्दे पर उनके जैसा दूसरा सफल गेम शो होस्ट होगा। दोनों भूमिकाएं अलग-अलग हैं, पर इस शख्स ने दोनों में महारत हासिल की। साल 2000 में शुरू हुए टीवी गेम शो 'कौन बनेगा करोड़पति' ने 25 साल पूरे कर लिए। किसी गेम शो ने आजतक छोटे परदे पर ये कमाल नहीं किया। पर 'कौन बनेगा करोड़पति' (केबीसी) की बात अलग है। शो का फॉर्मेट अनोखा है, इसलिए दर्शकों को पसंद आना ही था, पर इस शो के एंकर अमिताभ बच्चन भी बेजोड़ हैं। उन्होंने इस शो को ऊंचाई दी और शो में उन्हें समृद्धि। 25 साल पहले जब वे इस शो से जुड़े थे, उनके सितारे गर्दिश में थे। लेकिन, उन्हें इंडस्ट्री में दोबारा स्थापित करने में 'केबीसी' का अहम रोल रहा।  
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    टीवी पर आने वाले किसी भी शो को दर्शक तभी तक याद रखते हैं, जब तक वो प्रसारित होता है। लेकिन, कौन बनेगा करोड़पति यानी 'केबीसी' इसका अपवाद है। साल में करीब दो-ढाई महीने आने वाले इस शो का इसके चाहने वाले बाकी के दस महीने इंतजार करते हैं। ये कुछ सालों की बात नहीं है, बल्कि ये सिलसिला 25 साल से चल रहा है और साल दर साल इसका जादू दर्शकों पर ज्यादा ही असर करने लगा। ये शो के फॉर्मेट का तो प्रभाव है ही, लेकिन सबसे ज्यादा आकर्षण इसके एंकर अमिताभ बच्चन का है। किसी गेम शो का लगातार 25 साल प्रसारित होना और उसमें 24 साल एक ही एंकर का होना अपने आप में रिकॉर्ड भी है। इस शो को एक साल शाहरुख़ खान ने भी होस्ट किया, लेकिन अमिताभ बच्चन जैसा प्रभाव वे भी छोड़ सके। अमिताभ हॉट सीट पर बैठने वाले कंटेस्टेंट से 16 सवाल पूछते हैं और हर सवाल के सही जवाब पर कंटेस्टेंट को पैसे मिलते जाते हैं। शुरू में सबसे बड़ी राशि एक करोड़ रूपए थी, धीरे-धीरे यह 5 करोड़ हुई और अब 7 करोड़ हैं। 
      इस शो ने अमिताभ के स्टारडम को नया आयाम दिया। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि शो से पहले बच्चन फैमिली ने उन्हें छोटे परदे पर ये शो करने से रोका था। उनसे कहा था कि ऐसा कोई गेम शो करना बड़ी गलती होगी। फिल्म के दर्शक उन्हें 70 एमएम पर देखना चाहते हैं, वे छोटी टीवी स्क्रीन पर देखेंगे, तो आपका कद कम हो जाएगा। लेकिन, बीते 25 सालों ने इस बात को गलत साबित कर दिया। खास बात यह कि इस बात का जिक्र खुद अमिताभ ने इस शो के बीच में किया। बीते सालों में समय के मुताबिक शो के फॉर्मेट में कुछ बदलाव किए गए। सवाल-जवाब के फॉर्मेट को छोड़कर इसमें बहुत कुछ जोड़ा-घटाया गया। टीआरपी और लोगों के मनोरंजन का ख्याल रखते हुए नए एंगल्स को इंट्रोड्यूस किया। लेकिन, शो ने अपनी सच्चाई को नहीं खोया। आज भी इस गेम शो का पहला फोकस सवाल-जवाब ही होता है। लाइफ-लाइन में जरूर कुछ घट-बढ़ होती रही। 
    अमिताभ अपने जीवन और फिल्मों से जुड़े पुराने किस्से, अपने दिल की बातें लोगों से कहते हैं। इसके साथ ही कंटेस्टेंट्स की इमोशनल लाइफ को सबसे ज्यादा हाईलाइट किया जाता। उसके छोटे से घर, मिट्टी के चूल्हे, जीवन के अभाव और अधूरी इच्छाओं को सामने लाकर कंटेस्टेंट की प्रतिभा को आगे लाया जाता है। सिर्फ इतना ही नहीं, जब कोई सेलिब्रिटी गेस्ट शो में आते हैं, तब भी शो की गंभीरता को बरक़रार रखा जाता है, ताकि मर्यादा नहीं टूटे। दूसरे रियलिटी शो की तरह कोई भी नाटकीय या रोने-धोने के जबरदस्ती वाले एंगल नहीं होते। यही वे बातें हैं, जो अमिताभ के इस शो को दूसरों से अलग बनाती हैं। आज अमिताभ बच्चन 'केबीसी' की कामयाबी की सिल्वर जुबली मना रहे हैं। इस शो को देखते-देखते दूसरी पीढ़ी आ गई। लेकिन, शो की ऊर्जा बरक़रार है। हॉट सीट तक आने वाले अपने बड़े-बड़े सपने लेकर पहुंचते हैं और ज्यादातर कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। जो वास्तव में इंटेलिजेंट होते हैं, वे 3 लाख 20 हजार से ऊपर जीतकर जरूर जाते हैं। लेकिन, कंटेस्टेंट के लिए सबसे कीमती होता है अमिताभ जैसी हस्ती से मिलना और बात करना।
     यह शो उस दौर में शुरू हुआ था, जब अमिताभ को भी एक लाइफ लाइन की जरूरत थी। फ़िल्में लगातार पिट रही थी। उनकी खड़ी की गई कंपनी 'एबीसीएल' घाटे की घाटी से उतरकर खड्ड में जा गिरी थी। लेकिन, इस शो की बदौलत सब कुछ संभल गया। आज अमिताभ 82 पार कर चुके। लेकिन, उम्र के इस दौर में भी हॉट सीट पर बैठे कंटेस्टेंट से बात करने का उनका अंदाज अनोखा है। हर कंटेस्टेंट का मनोबल बढ़ाना, अपने पिता हरिवंश राय बच्चन की कविता और उनसे जुड़े किस्से सुनाने और मजाक करने का उनका अलग ही अंदाज है। फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट के बाद जब कंटेस्टेंट हॉट सीट पर पहुंचता है, तो अमिताभ के सामने आकर उसका आत्मविश्वास मानो जवाब देता है। ऐसे कई कंटेस्टेंट को याद किया जा सकता है, जो अमिताभ को इतने नजदीक से देखकर घबरा से जाते हैं। लेकिन, बतौर एंकर अमिताभ उन्हें सहज करने में भी देर नहीं करते। किसी भी उम्र, किसी भी राज्य या भाषा में बातें करने वाला हो, वे सबसे सहजता से उससे तालमेल बैठाकर शो को मनोरंजक बना देते हैं।
     आज ढाई दशक बाद भी हॉट सीट तक पहुंचने वाले कंटेस्टेंट की बातें आश्चर्यजनक होती हैं। कोई बीस साल से यहां आने का इंतजार कर रहा होता है, कोई कहता है जब यह शो शुरू हुआ तब वे पैदा ही हुए थे। कोई कहता है उस साल उसकी शादी हुई थी, आज बच्चे बड़े हो गए। एक पीढ़ी निकल गई, दूसरी पीढ़ी आ गई। लेकिन, मुस्कुराते, खिलखिलाते और तालियां बजाते अमिताभ बच्चन हॉट सीट पर आज भी बैठने वालों में जोश भरते का कोई मौका नहीं चूकते। जब वे फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट के लिए सवाल पूछते हैं, तब उनका जोश देखने लायक होता है। 82 पार के इस शख्स की फुर्ती वास्तव में देखने लायक होती है। वे दौड़ते हुए आते हैं और पूरी तत्परता के साथ कंटेस्टेंट को हॉट सीट पर बैठाते हैं। यदि कंटेस्टेंट महिला हो, तो कुर्सी थामते हैं और उसे सहज करते हैं। फिर भावुक करने वाले उस पल को हल्का-फुल्का बनाते हुए सवालों का सिलसिला शुरू करते हैं।
    फिल्मों में अमिताभ बच्चन के होने का मायना क्या है, ये फिल्म देखने और न देखने वाले दोनों जानते हैं। वे अपने किरदार को 'लार्जर देन लाइफ' बनाने के लिए विख्यात रहे हैं। एंग्री यंग मैन की तरह फिल्मी परदे पर लार्जर देन लाइफ का प्रभाव भी उनकी शख्सियत की विशिष्टता से जुड़ा है। भारी और दमदार आवाज में अपनी प्रभावशाली संवाद अदायगी से थ्रिल पैदा कर देना और दर्शकों के दिलों दिमाग को झकझोर देना उनके अभिनय कौशल की सबसे बड़ी खासियत है। यही वजह है कि 'केबीसी' के मंच पर भी अमिताभ अपनी पर्सनालिटी से पूरा रंग जमा देते हैं। इसके बाद कब-कब चमत्कार हुए, ये शो देखने वाले जानते ही हैं। क्योंकि, 'केबीसी' ने कई की जिंदगी में रंग भरे। किसी की झोपड़ी महल बन गई, किसी का लाखों का कर्ज उतर गया, कोई अपनी या परिवार में किसी की गंभीर बीमारी का इलाज करा सका तो किसी की बेटी की शादी धूमधाम से हुई। एक खासियत यह भी है कि हॉट सीट पर बैठने वाला अपनी हैसियत नहीं छुपाता। यह जानते हुए कि वो जो बताएगा, वो सारी दुनिया जान जाएगी। कौन कितना जरूरतमंद है, किसके कौन से सपने और अरमान हैं, कौन कितना फटेहाल है और कितना अमीर आज टीवी पर प्रसारित होने वाला 'केबीसी' शो उसकी बानगी पेश करता है। 
    बताते हैं कि जब इस शो का फॉर्मेट बनाया गया था, तब 'केबीसी' के प्रेजेंटेशन के लिए कोई स्क्रिप्ट तय नहीं की गई थी। बतौर एंकर अमिताभ बच्चन कंटेस्टेंट से क्या और कैसी बात करेंगे, इस बारे में कोई तैयारी नहीं थी। सिर्फ शो के सवालों का फॉर्मेट तय हुआ था। हर एपिसोड को शुरू करने और आगे बढ़ाने की कला अमिताभ ने खुद विकसित की। इस बात को सभी स्वीकार भी करेंगे कि 'केबीसी' पूरी तरह अमिताभ केंद्रित होकर रह गया। उन्होंने शो की एक नई भाषा विकसित की। कम्प्यूटर के आगे ‘महाशय’ और ‘जी’ लगाकर अनोखा प्रचलन शुरू किया। कंप्यूटर महाशय, कंप्यूटर महोदय, कंप्यूटर जी, ताला लगा दिया जाए, लॉक कर दिया जाए, टिकटिकी जी, दुगुनास्त्र, बज़रबट्टू या महिला प्रतियोगी के लिए 'देवी जी' जैसे शब्द के प्रयोग उन्होंने ही किए। यह किसी स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं होते। इसमें अमिताभ बच्चन की आवाज का भी अपना जादू है। यह उनकी ही खासियत है कि आज 25 साल बाद भी शो में उनकी जुबान पर रिपिटेड शब्द बोर नहीं करते। 
     25 साल पहले जब टीवी पर पहली बार 'कौन बनेगा करोड़पति' गेम शो शुरू हुआ था, तो छोटे परदे पर गेम शो की बाढ़ सी आ गई थी। अमिताभ के इस शो को टक्कर देने के लिए कई गेम शो छोटे परदे पर प्रसारित किए गए। अनुपम खेर और मनीषा कोईराला का गेम शो ‘सवाल दस करोड़ का’ भी आया, पर अमिताभ बच्चन के 'एक करोड़' के आगे फीका साबित हुआ। सलमान खान ने 'दस का दम' शुरू किया, पर चला नहीं। यहां तक कि अमिताभ की गैर मौजूदगी में शाहरुख़ खान ने भी 'केबीसी' का एक सीजन होस्ट किया, पर अमिताभ जैसा जादू नहीं बना सके और कुछ विवाद भी हुए। दरअसल, ये शो जैसे अमिताभ की पर्सनालिटी के साथ चस्पा हो गया है। धीरे-धीरे केबीसी सिल्वर जुबली साल में प्रवेश कर गया। केबीसी भले ही प्रतियोगियों को जवाब देने के लिए चार ऑप्शन देता है, लेकिन खुद केबीसी के सामने अमिताभ बच्चन के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, जो उसे और आगे ले जा सके।
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Monday, January 20, 2025

मल्टीप्लेक्स की भीड़ में खोए पुराने सिनेमाघर


   मनोरंजन का असली आनंद उन दर्शकों ने कुछ ज्यादा ही उठाया, जिन्होंने 70 और 80 का दौर देखा है। तब पहले दिन-पहला शो देखने का जो जुनून था, आज तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। शो से दो घंटे पहले टिकट खिड़की के सामने लाइन लग जाती थी। ऐसे में सबसे आगे खिड़की पकड़कर खड़े होने वाले के चेहरे की मुस्कान अजब होती थी। फिर धक्का-मुक्की से टिकट हाथ में आना। हॉल में घुसने की जंग लड़ना, यदि सीट नम्बर नहीं होते तो सीट की जुगाड़। आज ऐसा कुछ नहीं होता। मल्टीप्लेक्स ने संभ्रांत दर्शकों और सुविधाजनक मनोरंजन की आदत डाल दी। अब न तो पहले की तरह हॉल में सीटियां सुनाई देती है और न परदे के पास बैठने वाले दर्शकों के कमेंट। हीरो के हाथ से जब विलेन पिटता था तब सारा गुस्सा यहीं महसूस होता था। तब फिल्म का मनोरंजन जो भी हो, पर सिनेमाघर का भी अपना अलग ही मजा होता था।
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- हेमंत पाल

     बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला। जीने का अंदाज, नई जरूरतें, सुविधाएं और यहां तक कि मनोरंजन का तरीका भी नए ज़माने के साथ बदल गया। याद कीजिए दो-तीन दशक पहले फिल्म देखने का आनंद कैसा था! तब आज की तरह घर बैठे टिकट बुक नहीं होते थे और न सीटें आरामदायक होती थीं। उस समय सिनेमाघर की टिकट खिड़की में हाथ घुसाकर मुट्ठी में टिकट थामकर मसले हुए टिकट ऐसे लगते थे जैसे जंग जीतने का प्रमाण पत्र मिल गया हो। उसके बाद हॉल में तीन घंटे तक फिल्म के साथ-साथ कई तरह के मनोरंजन की बात ही अलग थी। आज वो सिर्फ याद बनकर रह गया। अब न वैसे सिनेमाघर बचे न दर्शक। सिंगल स्क्रीन तो करीब-करीब ख़त्म ही हो गए। उनकी जगह ब्रांडेड मल्टीप्लेक्स ने ले ली। पहले 3 रुपए 20 पैसे में दर्शक बॉलकनी में अकड़कर बैठता था, आज वही टिकट 500 रूपए से शुरू होकर एक हजार रूपए से ज्यादा में मिलता है। उसमें भी सुविधा के मुताबिक पैसे लिए जाते हैं। तात्पर्य यह कि अब दर्शकों का फिल्म देखने अंदाज ही नहीं बदला, सुविधाएं भी जेब पर असर डालने लगी। 
      फिल्में बनना, उनका रिलीज होना और फिर थिएटर में जाकर दर्शकों का उन्हें एंजॉय करना, मनोरंजन की दुनिया में ये सब रोज होता आया है। इसके पीछे सिर्फ एक ही मकसद होता है कि दर्शकों को अपनी फिल्म तक खींचना और उसके जरिए कमाई करना। आज करीब हर शहर में मल्टीप्लेक्स थियेटर हैं, जहां दर्शक आरामदायक सीटें, बेहतर साउंड क्वालिटी के साथ फ़िल्म एंजॉय करते हैं। लेकिन, पीछे मुड़कर देखा जाए, तो एक दौर वह भी था, जब सिर्फ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर हुआ करते थे। फिर भी इनका अलग ही क्रेज था। दर्शकों को थियेटर की सुविधाओं से कोई वास्ता नहीं था। बस बैठने के सीट हो और सामने परदे पर जब फिल्म दिखाई दे कोई अड़चन न आए। पुराने समय में फिल्में बनाना भी कम बड़ी चुनौती नहीं थी। क्योंकि, उस समय काल में फिल्म बनाने की तकनीक आज की तरह विकसित नहीं थी। फिल्म पूरी होने के बाद हर निर्माता-निर्देशक की उम्मीद होती है कि उसे बेहतर ढंग से रिलीज किया जा सके। पहले उनकी इस उम्मीद को सिंगल स्क्रीन पूरा करते थे, आज वही भूमिका मल्टीप्लेक्स निभाते हैं। 
   अब तो फिल्म का अर्थशास्त्र बदल गया। पहले सिल्वर और गोल्डन जुबली यानी 25 और 50 हफ्ते चलने वाली फिल्म ही सुपर हिट कहलाती थी। आज तो पहले शो से अंदाजा लगा लिया जाता है। दो या तीन हफ्ते चलने वाली फिल्म भी हिट हो जाती है। इसलिए कि अब फिल्म कमाई सिर्फ दर्शकों के टिकट की खरीद पर ही निर्भर नहीं रह गई। फिल्मकारों ने इस कारोबार में ऐसे कई नए विकल्प खोज लिए, जो उनकी कमाई के नए रास्ते खोलती है। फ़िल्मों के डिजिटल, सैटेलाइट और म्यूजिक राइट्स बेचकर भी फिल्म निर्माता पैसे कमाता है। फिल्मों के रीमेक, प्रीक्वल, सीक्वल, और डबिंग राइट्स बेचकर भी कमाई की जाती है। इसके अलावा ओवरसीज राइट्स, म्यूजिक राइट्स से भी पैसा कमाया जाता है। इसके बाद फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर है कि फिल्म से कितना मुनाफा होगा।
    कई निर्माता विदेश में शूटिंग करके मिलने वाली छूट से भी कमाई करते हैं। जैसे लंदन में शूटिंग करके। इसके बाद आता है बॉक्स ऑफिस। लेकिन, यह सब फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर होता है। यदि फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी तो सारे राइट्स से कमाकर देते हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सारे राइट्स का कोई मतलब नहीं रह जाता। इस नए ट्रेंड से निर्माता को ये फ़ायदा हुआ कि भले ही उसकी फिल्म नहीं चले पर प्रोडक्शन कास्ट तो निकल ही आती है। याद करें राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' को। इस फिल्म की असफलता ने उन्हें बर्बाद कर दिया था। जबकि, आज यह स्थिति किसी निर्माता के सामने होती, तो हालात इतने बुरे नहीं होते।    
      बड़े परदे पर फ़िल्में देखने की शुरुआत सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों से ही हुई। सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की परिभाषा इसके नाम में ही छुपी है। सिंगल स्क्रीन उन्हें कहा जाता है, जहां एक स्क्रीन हो और उस पर रोज फिल्म के 4 शो दिखाए जाते हैं। अकेला स्क्रीन होने की वजह से इन्हें सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर कहा जाता है। कुछ ऐसे थिएटर आज भी बड़े शहरों में मिल जाते हैं। आज के दौर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की तुलना में मल्टीप्लेक्स का क्रेज बढ़ गया। ऐसे सिनेमाघर वे होते है, जहां एक से ज्यादा स्क्रीन होती हैं। कई अलग-अलग फिल्में एक साथ चलती हैं। आज मल्टीप्लेक्स का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया। इनकी बनावट और सीट का दायरा भी अलग रहता है। जहां सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर में फर्स्ट क्लास और बालकनी के दो सीटिंग फॉर्मेट होते हैं। वहीं, मल्टीप्लेक्स थिएटर इससे अलग नजर आते हैं। मल्टीप्लेक्स में सीटिंग फॉर्मेट प्लैटिनम, गोल्ड और सिल्वर कैटेगरी के हिसाब से बंटता है। 
     मुंबई में 1947 में लिबर्टी सिनेमाघर बना था। इस सिनेमा हॉल को हबीब हुसैन ने बनाया था और इसका आर्किटेक्चर फ़्रांस से प्रभावित रहा। यह आजादी का साल था, इसलिए इसका नाम 'लिबर्टी' रखा गया। ये अपने आप में कुछ खास सिनेमाघर रहा। इस सिनेमाघर में फिल्म का प्रदर्शन खास हुआ करता है। 1960 में फिल्म 'मुगल ए आजम' का प्रीमियर हुआ था। यहां 'मदर इंडिया' 25 अक्टूबर 1957 को रिलीज हुई थी। यह फिल्म पूरे साल यहां लगी रही, जो अपने आप में उस दौर का 1 रिकॉर्ड था। इसके बाद 1994 में सलमान खान और माधुरी दीक्षित की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' इस सिनेमाघर में 105 दिनों तक चली थी। राज कपूर भी इस सिनेमाघर के मुरीद रहे। उनकी कई बड़ी फ़िल्में यहां रिलीज हुई, उनमें 'राम तेरी गंगा मैली' भी थी। यहां प्रेस प्रीव्यू और प्राइवेट स्क्रीनिंग के लिए इसकी पांचवी मंजिल पर 30 सीट का 'लिबर्टी मिनी' भी बनाया गया था।      
     मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर में 20 साल पहले तक 30 से ज्यादा सिंगल स्क्रीन टॉकीज थे। लेकिन, अब वो स्थिति नहीं रही। अब यहां देश के सभी बड़े ब्रांड वाले मल्टीप्लेक्स के साथ ओपन एयर ड्राइव इन थिएटर भी है। इस बीच इंदौर के एक व्यवसायी ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा की यादों को धरोहर के रूप में संजो लिया। यह देश का अकेला सिंगल स्क्रीन म्यूजियम है। इसमें इंदौर के 30 से ज्यादा टॉकीज से जुड़े फोटो, टिकट, स्लाइड, प्रोजेक्टर, पोस्टर्स सहित कई चीजें रखी गई हैं। 1917 से लेकर 2000 के दशक तक का कलेक्शन है। विनोद जोशी को सिनेमा से जुडी यादें सहेजने का शौक 1983 से था। 
     लेकिन, 2015 में उन्होंने इस शौक को इस तरह पूरा किया। उन्होंने अपने म्यूजियम की टिकट दर भी इतनी ही रखी है, जितनी उस दौर में सिनेमा की टिकट (1 रुपए 60 पैसे) थी। इस थिएटर को देखने में करीब आधा घंटा लगता है। उनके कलेक्शन में किस साल, किस महीने में, किस टॉकीज में कौन सी पिक्चर चली, उसके विज्ञापन, पोस्टर कैसे होते थे वह सब शामिल है। प्रोजेक्टर से परदे पर फिल्म कैसे दिखाई जाती थी, उसे वे खुद प्रोजेक्टर चलाकर बताते हैं। इंटरवल में विज्ञापन के रूप में कौन-कौन सी स्लाइड चलती थी। नई फिल्मों के ट्रेलर की स्लाइड भी दिखाते हैं। उन्होंने इंदौर के पुराने श्रीकृष्ण टॉकीज का भी मॉडल बनवाया। ऐसे ही अन्य टॉकीजों के भी मॉडल हैं।
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