Tuesday, March 4, 2025

मनोरंजन के बहाने सामाजिक मुद्दों पर भी चोट

- हेमंत पाल

      फिल्मों के बारे में आम धारणा है कि ये मनोरंजन के मकसद से देखी जाती हैं। फिल्मकार भी दर्शकों का मनोरंजन करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इनमें रहस्य-रोमांच होता है, कॉमेडी होती है, प्रेम कहानियां होती है, कुछ फ़िल्में डराती भी हैं और दर्शकों की पसंद वाले हर विषय को छूने की कोशिश होती है। लेकिन, अब दर्शक कुछ नया देखना चाहते हैं। नए दौर के दर्शकों को पुराने ढर्रे के कथानक रास नहीं आते। यही वजह है कि अब कई नए विषयों पर फ़िल्में बनने लगी। हाल की फिल्मों में समाज की विकृतियों और मुद्दों पर भी काफी ध्यान दिया जाने लगा। कई सामाजिक मुद्दों को भी अब फिल्मों में उठाया जाने लगा, जो अभी तक संभव नहीं था। अब सामाजिक मुद्दों को छूने के लिए फिल्म को गंभीर बनाने की कोशिश नहीं होती। 
       शाहरुख़ खान की फिल्म 'जवान' इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जो एक एक्शन फिल्म थी। पर, जिसका मूल विषय किसानों की कर्ज माफी और उनकी आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दा है। यह फिल्म किसानों के आत्महत्या, फसलों के उचित दाम और भ्रष्टाचार से जुड़ी सामाजिक घटनाओं पर प्रकाश डालती है। हाल की फिल्मों पर नजर डालें तो लवयापा, द मेहता बॉयज़, देवा और स्वीट ड्रीम्स ऐसी ही फ़िल्में हैं। जॉन अब्राहम और शरवरी वाघ अभिनीत फिल्म 'वेदा' में जातिवाद के आधार पर भेदभाव का मुद्दा उठाया गया। शरवरी वाघ बॉक्सिंग सीखना चाहती है, पर  उसकी इच्छा को गांव प्रधान पूरी नहीं होने देता। उसे छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है। आलिया भट्ट की फिल्म 'जिगरा' में घरेलू हिंसा का मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया। इसमें आलिया भट्ट के किरदार के साथ उसका पति अक्सर मारपीट करता रहता है। फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो जब से सिनेमा का सफर शुरू हुआ, नए विषयों का हमेशा अभाव देखा गया। शुरुआत में धार्मिक कथाओं पर फ़िल्में बनाकर दर्शकों को जोड़ने की कोशिश हुई। फिर राजा-महाराजाओं की कहानियों, राजमहलों के षड्यंत्रों पर खूब फ़िल्में बनी। 
    बाद में जब आजादी के संघर्ष की हवा चली तो उस पर भी कुछ फ़िल्में बनी! किंतु, आजादी के बाद तो लम्बे समय तक ऐसी फिल्मों का दौर चला जिसमें संघर्ष की गाथाओं को अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया। जब ये दौर ख़त्म हुआ तो बाद की फ़िल्में प्रेम, बदला, राजनीति, धर्म, कॉमेडी और पारिवारिक विवादों तक सीमित हो गई। इस दायरे से बाहर भी फ़िल्में बनी, पर उनकी संख्या सीमित थी। 40 के दशक में गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फिल्मों के निर्माण किया गया। 50 के दशक की फिल्मों का दौर आदर्शवादी रहा। जबकि, 60 का समय काफी कुछ अलग था। जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रेंड राज कपूर ने शुरू किया था, वह इस दशक में छाया रहा था। लेकिन, 70 का दशक की फिल्मों ने व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह को ज्यादा दर्शाया।  80 के दशक में फिल्मकारों को यथार्थवाद दिखाने का जुनून चढ़ा, जबकि 90 का समय आर्थिक उदारीकरण दर्शाने वाली फिल्मों का रहा। दरअसल, सिनेमा समाज की स्थिति दर्शाने का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। फिल्मों से ही आजादी के आंदोलन की कहानी, राष्ट्रीय एकता का संघर्ष, वैश्विक समाज की सच्चाई और देश के ताजा हालात की कथाओं को फिल्माया गया। 
    इस सिनेमा से ही बदलते भारत की झलक भी मिली है। इस तरह के बदलाव वाले विषय को ढूंढते हुए एक समय ऐसा भी आया, जब कला फिल्मों का दौर चला और अंकुर, मंथन, निशांत जैसे प्रयोग हुए। जमींदार के खूंटे से बंधी दलित राजनीति के प्रपंच को श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ और ‘मंथन’ से दिखाया। लेकिन, उन हलकों में प्रतिशोध की ताकत पैदा की प्रकाश झा के नए सिनेमा ने! ‘दामुल’ यदि उसका बेहतरीन उदाहरण है, तो ‘अपहरण’ उसी मानसिकता वाले औजारों से अलग तेजी से बदती राजनीति के हिंसक प्रतिरूपों की पहचान बना। बाद में इसे प्रकाश झा ने 'राजनीति' में और पैना किया। लेकिन, दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए, इसीलिए फिल्मकारों ने बरेली की बरफी, हिंदी मीडियम, टॉयलेट : एक प्रेम कथा, तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका और 'नाम शबाना' जैसे प्रयोग किए।  
     इस बीच राजनीतिक फ़िल्में भी बनी और दर्शकों ने इसमें रूचि भी दिखाई। 'कलयुग' इस श्रेणी में मिसाल थी, जिसने दर्शकों को आकर्षित किया। फिर 'सत्ता' जैसी फिल्मों ने राजनीति के समीकरण में स्त्री-विमर्श के हस्तक्षेप से नया मोर्चा संभाला। बाद में मणिरत्नम, मृणाल सेन, गुलजार की तरह विशाल भारद्वाज और प्रकाश झा ने ठेठ राजनीतिक फिल्मों में छौंक लगाई। राजनीति और पारिवारिक रिश्तों को जोड़कर गुलजार ने 'आंधी’ जैसी सफल फिल्म बनाकर फिर राजनीतिक साजिशों की कॉमिक सिचुएशन पर ‘हु तू तू’ और विशाल भारद्वाज के साथ मिलकर आतंकवाद के रिश्तों को पनपाती ‘माचिस’ का निर्माण किया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में राजनीति की बिसात पर आज रंग दे बसंती, पार्टी, युवा या ए वेडनेसडे और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फिल्मों की जरुरत ज्यादा है। 'ट्रेन टू पाकिस्तान' या 'अर्थ 1947' से ज्यादा आज की राजनीति का नया आकलन करने वाली ‘परजानिया’ जैसी फिल्मों को ज्यादा पसंद किया गया। क्योंकि, यदि ऐसा नहीं हुआ, तो राजनीतिक सिनेमा के नए विषयों वाले तेवर सामने कैसे आएंगे!
     ‘राजनीति’ से पहले राजनीति के नए आयाम ‘गुलाल’ ने दिखाए। युवा पीढ़ी के प्रतिबिंबों को झलकाती एक से एक बेहतर तस्वीरें रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्नाभाई, दिल्ली-6 तक में दिखाई और आजमाई भी गई। राजनीतिक विषयों पर जब भी कोई फिल्म आती है, परदे पर उतरने से पहले ही वह चर्चित हो जाती है। लोगों में उत्सुकता जगा जाती है। लेकिन, प्रकाश झा की फिल्म का नाम ‘राजनीति’ होते हुए भी इस फिल्म को लेकर कोई कॉन्ट्रोवर्सी नहीं हुई! जबकि, गांधी परिवार को लेकर राजनीति पर बनी फिल्में रिलीज के पहले ही खूब पब्लिसिटी बटोरती हैं। बरसों पहले आई गुलजार की ‘आंधी’ को भी जमकर कॉन्ट्रोवर्सी हुई थी। क्योंकि, उसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी से मिलते जुलते किरदार और गेटअप में प्रस्तुत किया गया था। 
    मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' को लेकर भी यही सब हुआ। इसमें नील नितिन मुकेश का लुक संजय गांधी से मिलता जुलता था। पर, जितना विवाद हुआ, उतनी फिल्म चली नहीं! ये नितांत सत्य है कि सौ साल बाद भी भारतीय सिनेमा दायरे अपने से बाहर नहीं आ पाया! कुछ नया करने की उसकी छटपटाहट तो दिखती है, पर कोई कोशिश करना नहीं चाहता! सब प्रेम कहानियाँ, एक्शन या कॉमेडी बनाकर सौ करोड़ के क्लब शामिल होने के सपनों की गिरफ्त से ही बाहर नहीं निकल पा रहे!
     सिनेमा को कमर्शियल नजरिए से देखने वाला तबका इसे आसान बनाकर 'फना' जैसी फिल्म बनाता है। दूसरा बौद्धिक खेमा सिनेमा की अवधारणा में अचानक कैद होकर-शेक्सपियर ड्रामे के रूपांतरण का मजा लेता है! उसे ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के अपराध जगत में भी प्रेम और राजनीति की गठजोड़ के छद्म रूपक की नई लीला रचकर संतुष्टी होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा को शेक्सपियर के नाटकों से कहीं ज्यादा हिंदी उपन्यासों के कथानक की दरकार होनी चाहिए। सवाल खड़ा होता है कि क्या उन उपन्यासों में नई पटकथाओं की गुंजाइश नहीं है, जो नया सिनेरियो प्रस्तुत कर सकें। दर्शकों सामने मनोरंजन का नया मसाला पेश करने की कोशिश में कई तरह के प्रयोग हुए और हो भी रहे हैं। फिल्मकारों ने कारोबार जैसे गरिष्ठ विषय को भी फिल्म बनाने के लिए चुना और इसमें सफल भी हुए। जबकि, वास्तव में ऐसे विषयों पर फिल्म बनाना आसान नहीं होता। 
     इस बीच कुछ ऐसे फिल्में भी बनाई गई जो कारोबार शुरू करने के लिए प्रेरित करती हैं। 2010 में आई 'बैंड बाजा बारात' वैसे तो एक रोमांटिक फिल्म थी। इसमें अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह ने अच्छी एक्टिंग भी की। इस फिल्म में वेडिंग प्लानर के काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया गया था। इस काम में आने वाले उतार-चढ़ाव को बारीकी से मनोरंजक ढंग से फिल्माया। ऐसी ही फिल्म 'गुरु' थी, जो वास्तव में धीरूभाई अंबानी की रियल स्टोरी पर आधारित थी। ये भी एक नया विषय था, जिसमें गुजरात के एक छोटे से गांव से निकले ऐसे नौजवान की कहानी थी, जो अभाव को पछाड़ते हुए एक दिन सबसे अमीर लोगों में शामिल होता है। परिस्थितियों से हार न मानने वाले जुझारू व्यक्ति की ये कहानी प्रेरणा देने वाली थी। इसमें अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी।
      'रॉकेट सिंह' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें एक कॉलेज स्टूडेंट्स को ठोकर खाकर खुद की मालिक बनते दिखाया गया। इसमें रणबीर कपूर की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में रणवीर सेल्समैन रहता है, जिसके कामकाज की कद्र नहीं होती। तंग आकर वो अपना खुद का काम शुरू करता है, जो आगे चलकर एक बड़ी कंपनी का रूप ले लेता है। 'कॉरपोरेट' भी ऐसी ही फिल्म थी। ये फिल्म कुछ खास तो नहीं कर पाई, पर फिल्म ने कॉरपोरेट जगत की कई कड़वी सच्चाइयों से रूबरू जरूर करवाया। 'बदमाश कंपनी' भी इसी ट्रेंड की फिल्म थी, जिसमें शाहिद कपूर और अनुष्का शर्मा के बहाने कई बिजनेस आइडिया सामने लाने की कोशिश की गई थी। यह फिल्म मिडिल क्लास के कुछ दोस्तों पर केंद्रित है, जो बड़ा आदमी बनने की कोशिश में रहते है। इसके लिए कई रास्ते तलाशते रहते हैं। फिल्म में कारोबार के कई गलत तरीकों को दिखाया गया, पर फिल्म के विषय में नयापन था। अभी फिल्मकारों की नए विषय खोजने की छटपटाहट ख़त्म नहीं हुई! सौ साल से ये चल रही है और अनवरत चलती भी रहेगी! क्योंकि, हर विषय में कहीं न कहीं मनोरंजन छुपा होता है!  लेकिन, सबसे बड़ी बात यह कि अब सिनेमा समाज के मुद्दों को भी अपने कथानक बनाने लगा।
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