आम आदमी पार्टी (आप) के साथ दिक्कत यह है कि उसका छोटा-सा जीवनकाल उसके अराजनीतिक निर्णयों से ज़्यादा ही भर गया! नए राजनीतिक माहौल में इसे जनता कितना पसंद करेगी, ये कहना मुश्किल है। 'आप' को भी इसे लेकर अब उतना निश्चिंत नहीं रहना चाहिए, जितना वह छः महीने पहले थी। मानहानि मामले में अरविंद केजरीवाल के जमानत न लेकर जेल जाने के फैसले पर तिहाड़ के सामने जनता का उतना हुजूम उमड़ नहीं पड़ा, जितना उन्होंने सोचा था! राजनीतिक कार्रवाई का ये मौक़ा उन्हें हीरो नहीं बना सका! टेलीविज़न चैनलों की वैन्स वहाँ नहीं जमी! वे अखबारों के पहले पन्नों पर भी दिखाई नहीं दिए। दिसंबर-जनवरी के मुकाबले दिल्ली और देश का मौसम आज काफ़ी बदल चुका है! लेकिन, अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी यह भाँपने से चूक गई।
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- हेमंत पाल
राजनीति में सक्रियता भी उतनी ही जरुरी है, जितनी भविष्य की रणनीति! इसलिए कि जो दल राजनीतिक दल हलचल करता दिखाई न दे वो लोगों की नजरों से उतर जाता है। महज छह महीने पहले बनी 'आम आदमी पार्टी' उर्फ़ आप को निष्क्रिय तो जा सकता, पर उसकी सक्रियता और ऊर्जा निरर्थक राजनीतिक कामों में ज्यादा खर्च हो रही है, जिससे जनता का कोई लेना-देना नहीं! 'आप' के नेता बात-बात में आंदोलन करने पर उतर आते हैं! यहाँ तक कि आंदोलन करने की सनक में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक को गंवाने से नहीं चूकते, लेकिन जनता ये नहीं चाहती! पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का हश्र इसका सबसे अच्छा नमूना है। कांग्रेस की निष्क्रियता को भी इसी तरह से उपजी पराजय से जोड़कर देखा जा सकता है, जिसने सत्ता के गुरुर में लोगों को हाशिए पर रख दिया था।
देश की शांत पड़ी राजनीति के पानी में 'आप' ने पत्थर मारकर हलचल जरूर पैदा कर दी, लेकिन उस हलचल को सकारात्मक तरीके से भुना नहीं पाई। जनता को अपने फैसलों में शामिल करके उन्होंने राजनीति की एक नई परिपाटी को जन्म भी दिया! उन्होंने राजनीति को पार्टी दफ्तरों के बन्द कमरों से बाहर लाकर गली-मोहल्ले की कार्रवाई बना दिया था। नौजवान चेहरों की बहुतायत ने भी ताज़गी और नएपन का अहसास कराया! जनता के उन तबकों में इसका सबसे ज़्यादा स्वागत हुआ, जिनके लिए पिछली सरकार ने सबसे अधिक कल्याणकारी योजनाएँ बनाई थीं। अरविंद केजरीवाल की पिछली सफलता का एक कारण यह भी था कि उनका सामना करने के लिए कोई राजनीतिक संगठन नहीं था! किन्तु, अब हालात बदल चुके हैं और केंद्र में एक ज्यादा मजबूत सरकार आ गई है।
अभी दौड़ से बाहर नहीं!
बनारस में नरेंद्र मोदी के सामने मुस्लिम वोटर्स ने भी अरविंद केजरीवाल को हाथों हाथ लिया! संसद में भी चार सदस्यों के साथ पार्टी का पहला क़दम बुरी शुरुआत नहीं कही सकती! दिल्ली में भी वह हर सीट पर दूसरे स्थान पर रही है। इसका मतलब ये लगाया जाना चाहिए कि अभी वह राजनीतिक प्रतियोगिता से बाहर नहीं हुई है! लेकिन, क्या 'आप' में जन आकांक्षाओं को संभालने की समझ और रणनीति है? यह सवाल उससे सहानुभूति रखने वालों के दिमाग में सबसे ज्यादा कौंध रहा है! क्या वह बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य का अर्थ और गंभीरता समझ पा रही है? उसके सामने कांग्रेस की तरह हिम्मत और साख गवां चुके शासक नहीं है। आम आदमी पार्टी अब भी संभावनाशील राजनीतिक शक्ति है। उसका भविष्य उसकी कल्पनाशीलता और जीवट पर टिका हुआ है। उसके फैसलों की असामान्यता और अप्रत्याशितता ही अब तक उसे अन्य से अलग करती नजर आई है। इन्हें छोड़े बिना गंभीर राजनीतिक विकल्प का भरोसा बनने की चुनौती अब भी उसके सामने है।
जब तक कांग्रेस 'आप' का मुख्य निशाना थी, उसका साथ देने में उनकी दिलचस्पी थी। अब ऐसे हालात नहीं है। शायद यही कारण हैं कि जब लोकसभा चुनाव के बाद 'आप' ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से समर्थन माँगा, तो कांग्रेस मुकर गई। भ्रष्टाचार की जगह स्थिरता, अब सबकी जुबान पर है। केंद्र की नई सरकार के किसी नेता को भ्रष्ट ठहराना 'आप' के लिए अभी बहुत मुश्किल होगा। अरविंद केजरीवाल के कई बड़े सहयोगी भी उनका साथ छोड़ चुके है। कांग्रेस की अराजकता और दिशाहीनता के चलते उसे उखाड़ देना मुमकिन था! कांग्रेस सरकार की रक्षा के लिए उसका कोई जनाधार भी मौजूद नहीं था, जैसा कि भाजपा के पास अपनी सरकार की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसा प्रतिबद्ध संगठन है। इस संगठन की दिलचस्पी अपनी सरकार के पाँव जमाने में और हमलावर मुद्रा में भी है।
आम आदमी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य को ठीक से समझने और उसमें अपनी भूमिका तय करने की है। पर, क्या ऐसा करने के लिए उसके पास पर्याप्त बौद्धिक क्षमता और राजनीतिक समझ है? अब ख़तरा इस बात का भी बढ़ गया है कि अरविंद केजरीवाल को हुड़दंगियों का एक गैरजिम्मेदार नेता घोषित कर दिया जाए! केजरीवाल को अब सक्रियता के साथ उसे बौद्धिक स्थिरता और दृढ़ता का सन्देश भी देना ही होगा। जहाँ तक लोकतंत्र के सम्मान की बात है तो 'आप' अभी भी राजनीतिक दलों की पुरानी संस्कृति का ही अनुकरण करती दिखाई दे रही है! उस पर एक छोटे से उद्दंड गुट का कब्ज़ा है। उसके 'बड़े' कहे जाने वाले नेता भी सड़क छाप राजनीतिक सोच से आगे नहीं बढ़ पाए! इस सबसे उसे निजात पाना होगा!
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1 comment:
excellant analysis, but aap can not get rid of kejariwal's rhetorics .
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