* हेमंत पाल
भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को बनाया जाना महत्वपूर्ण घटना है। इसके अलावा संघ के दो प्रमुख नेताओं को भाजपा में भेजे जाने का महत्व भी समझना आवश्यक है। नितिन गडकरी को छोड़ दें तो भाजपा के इतिहास में अभी तक जितने भी अध्यक्ष हुए उनकी देश में या फिर संगठन के अंदर व्यापक राष्ट्रीय छवि थी। लालकृष्ण आडवाणी जनता के बीच काफी लोकप्रिय रहे। मुरली मनोहर जोशी हमेशा पार्टी का एक चेहरा रहे। कुशाभाऊ ठाकरे का संगठन के अंदर बड़ा कद था। वेंकैया नायडू की भी राष्ट्रीय पहचान बन चुकी थी। थोड़े समय के लिए अध्यक्ष बने जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण भी इसी श्रेणी में आते हैं। गडकरी को भी अध्यक्ष तब बनाया गया, जब पार्टी भारी संकट में थी। अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपना इस्तीफा औपचारिक तौर पर पार्टी के सुपुर्द कर दिया था।
अमित शाह का मामला इन सबसे अलग है। उनकी कोई राष्ट्रीय पहचान नहीं रही है। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के बाद उन्हें केंद्रीय पदाधिकारियों की श्रेणी में लाया गया। उसके कई कारण थे, लेकिन कारक केवल मोदी थे। जाहिर है, अगर वह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के अध्यक्ष बने हैं तो इसके व्यापक आयाम हैं। सामान्य निष्कर्ष यह है कि इस नियुक्ति के जरिए सरकार से संगठन तक मोदीकरण की प्रक्रिया का एक अहम फेज पूरा हो गया।
संघ को सरकार के साथ ही पार्टी की भी चिंता है और इसी का ध्यान रखने हुए उसने अपने दो नेताओं को भेजा है जिन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिलनी है। यह संतुलन बनाने की कोशिश है। यह बात अलग है कि राम माधव मोदी के विश्वस्त रहे हैं। असली शक्ति भी अध्यक्ष के पास ही होती है। अमित शाह के अध्यक्ष होने का मतलब है मोदी की चाहत के अनुरूप बीजेपी की रीति-नीति निर्धारित होना।
नरेंद्र मोदी कहते हैं कि अमित शाह की अपनी कार्यक्षमता है और उसकी बदौलत वह यहां तक आए हैं, पर यह सच उन्हें भी मालूम है कि राष्ट्रीय राजनीति में राजनाथ सिंह उनको अपने आप नहीं लाए! यह मोदी की अनुशंसा थी। अमित शाह गुजरात में उनके सर्वाधिक विश्वसनीय सहयोगियों में रहे हैं और उन पर चल रहे मामलों के मद्देनजर उन्हें प्रदेश मंत्रिमंडल में लेने पर विवाद खड़ा होता। साथ ही जब तक मोदी केंद्रीय नेतृत्व मंडली में नहीं आए थे, भविष्य की रणनीति के अनुसार एक विश्वसनीय व्यक्ति यहां चाहिए था।
भाजपा आज अपने सहयोगियों के साथ भारी बहुमत से सत्ता में हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। संसदीय लोकतंत्र में जहां पार्टी आधारित व्यवस्था है, वहां व्यवहार में पार्टियों का महत्व सरकार के समानांतर है। संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए पार्टी और सरकार के बीच शक्ति संतुलन अपरिहार्य है।
नीतियां पार्टी की होती हैं, घोषणा पत्र पार्टी जारी करती है, जबकि वोट पार्टी और उसके उम्मीदवार को मिलता है। लेकिन, निर्णय की सारी शक्तियां सरकार के हाथों केंद्रित हो जाने के कारण पार्टी प्रायः परमुखापेक्षी अवस्था में आ जाती है। अगर अध्यक्ष चिंतनशील हो, आत्मविश्वासी और शक्तिसंपन्न हो तो समय-समय पर सरकार का मार्गदर्शन कर सकता है। सरकार कहीं गलत कर रही है या पार्टी की सोच से परे जा रही है तो वह उसके सामने खड़ा हो सकता है। ऐसे अध्यक्ष के रहते सरकार के मुखिया पार्टी को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सरकार की सफलता के लिए, पार्टी की साख और विश्वसनीयता के लिए तथा कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि अध्यक्ष के जरिए सरकार पर पार्टी का नैतिक और व्यावहारिक अंकुश बना रहे। प्रश्न है कि क्या अमित शाह ऐसी भूमिका निभाने में सफल हो सकते हैं, यह उनकी असली परीक्षा है। पार्टी में इस समय ऐसा कोई नेता नहीं दिख रहा था, जो पार्टी की किसी नीति से मतभेद होने पर मोदी के सामने डटकर खड़ा हो सके।
अमित शाह तो उनके पूरक ही माने जाते हैं। संघ से आए नेता किस तरह पार्टी को वैचारिक आधार पर खड़ा रखेंगे यह देखना होगा! अमित शाह को अपना महत्वपूर्ण दायित्व समझना होगा और नरेंद्र मोदी को भी। अमित शाह की वैचारिक, सांगठनिक और प्रबंधन क्षमता की परख अभी होनी है। पार्टी कहती है कि व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश! तो यहां व्यक्ति मोह से ऊपर उठकर अगर वह काम कर पाते हैं और दल तथा देश को प्रमुखता देते हैं तो यकीनन ऐतिहासिक समय में ऐतिहासिक भूमिका निभा पाएंगे। यह पार्टी आधारित हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए भी अच्छा होगा। नहीं कर पाते हैं तो उनका जो होगा सो तो होगा ही, पार्टी भी 2004 की दुर्दशा को प्राप्त हो सकती है। संघ से आए नेताओं के पास भी गहरी दृष्टि है या नहीं, यह आने वाले समय में ही स्पष्ट होगा।
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